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दहेजरूपी विषधर को निर्विष बनाओ !
समझते हैं । इसीलिये राम से पहले सीता, कृष्ण से पहले राधा और शंकर से पहले गौरी को मानकर सीताराम, राधाकृष्ण या गौरीशंकर कहते हैं। पिता से पूर्व माता शब्द का प्रयोग करते हैं। कोई पिता-माता नहीं कहता, अपि तु माता-पिता ही कहता है। प्राचीन समय में मनु महाराज के इस कथन का बड़ी श्रद्धा से पालन होता था कि
" पितुः शतगुणा माता ।"
-पिता की प्रपेक्षा माता का पद सौगुना अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
इतना ही नहीं, मा को तो सम्पूर्ण देवताओं से भी बढ़कर माना गया है-"न मातुः परं दैवतम् ।" अर्थात् माँ से बढ़कर कोई भी देव नहीं है। इस प्रकार नारी की महत्ता जब मानी जाती थी, तब भारतवर्ष संस्कृति और सभ्यता के चरम शिखर पर था और संसार इसे जगद्गुरु मानकर इससे सीख लेने का प्रयत्न करता था किन्तु आज तो सम्पूर्ण स्थिति ही उलट गई है । इसी भारत के लोगों ने, विभिन्न जातियों ने और समाजों ने नारी को जिस स्थान पर पहुंचा दिया है वह मानो अकल्पनीय है। स्त्रियों की स्थिति को अत्यन्त दारुण और दयनीय बनाकर यहाँ के गौरव को मटियामेट कर दिया है । जिस नारी को हमारा देश आद्यशक्ति मानता था, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषायों की साधना में प्रेरणा का स्रोत समझता था साथ ही तपस्या, ज्ञान, गहन चिन्तन एवं साधना में उसे शीर्ष स्थान पर पाकर पूर्ण सहयोगी समझता था, उसे उसके स्थान तथा महत्ता से नीचे गिराकर पुरुष ने विवशता की साक्षात् मूर्ति बना दिया है । उसका मूल्य दहेज की कमी - बेशी से ही कम अथवा अधिक माना जाने लगा है । अगर कन्या ढेरसारा दहेज न लाए तो उसका या उसकी गुणसम्पन्नता का कोई मूल्य नहीं माना जाता । जड़ दौलत की तुला में उसका पलड़ा हलका ही समझा जाता है ।
आज का मानव यह भूल गया है कि हमारी भारतीय संस्कृति में त्याग का महत्त्व सर्वोच्च माना गया है तथा जड़ दौलत का संग्रह करना पतन का कारण । नारी जाति इस धर्म का पालन करने में भी सदा अग्रणी रही है ।
प्राचीन समय में एक राजा था, जो एक विशाल साम्राज्य का स्वामी कहलाता था । किन्तु वह स्वयं सम्पूर्ण राज्य तथा राज-कोष को प्रजा की धरोहर मानकर उसकी भलाई का प्रयत्न करता हुआ 'राजा जनक' की तरह निरासक्त एवं निर्लिप्त भाव से राज्य कार्य सम्पन्न करता था । उसकी एक पुत्री थी और वह त्यागवृत्ति में अपने पिता से भी दो कदम आगे बढ़ गई थी।
जब वह विवाह के योग्य हुई तो अनेक राज घरानों से उसके लिये संबंध के प्रस्ताव
समाहिकामे समणे तवस्सी जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है
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