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द्वितीय खण्ड | १२२
राजस्थान में निराकार ब्रह्मोपासक रामस्नेही संप्रदाय का कभी बड़ा प्रसार था। आज भी जोधपूर, नागौर आदि जनपदों में उसका यत्किचित अस्तित्व है। मेड़ता मंडल की भूमि अतीत से ही साधना की दृष्टि से बड़ी पावन एवं दिव्य रही है । एक ओर भक्ति-निष्णात महिमामयी मीराबाई के भक्ति-गीतों से जहाँ यह मुखरित रही, वहाँ दूसरी ओर महान जैनयोगी आनन्दघन जैसे पुण्यपुरुषों की साधना-स्थली होने का भी इसे गौरव प्राप्त है। रामस्नेही परंपरा के अनेक सिद्ध पुरुष यहाँ हुए हैं । वह परम्परा सर्वथा विलुप्त नहीं हुई है, छोटे-छोटे गांवों में, एकान्त वनभूमि में यत्र-तत्र आज भी कतिपय ऐसे साधक हैं, जो लोकैषणा से अस्पृष्ट हैं, साधना में अभिरत हैं। न केवल संत ही, वरन् गृही वर्ग में अनेक सत्पुरुष एवं सन्नारियां विद्यमान हैं, जिन्हें ध्यान-सिद्धि प्राप्त है, जो समाधि-दशा की अनुभूति में सक्षम हैं।
महासतीजी का इस साधक-परम्परा के साथ बड़ा नैकट्य रहा है । स्वलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध, गहि-लिंग-सिद्ध जैसे शाश्वत, सार्वजनीन आदर्शों से अनुप्राणित महासतीजी म० का साधना की दृष्टि से सम्पर्क-क्षेत्र बहुत व्यापक रहा है। प्रत्येक क्रिया की अपनी प्रतिक्रिया होती है। महासतीजी म. के उदात्त व्यक्तित्व की छाप सर्वत्र पड़ी है। उनसे जैन स्त्री-पुरुष जितने प्रभावित हैं, अजैन उनसे कम नहीं हैं, प्रत्युत अधिक कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। गांव-गांव की ठकुरानियाँ, बहुएं, बहिनें, बेटियां, वृद्ध, युवक सभी गांववासी, नगरवासी बिना किसी भेद एवं दुराव के उनके सान्निध्य से सोत्साह लाभान्वित होते हैं ।
यह लोक-संपर्क जहाँ एक ओर शाश्वत धर्म की व्यापक प्रभावना के रूप में प्रस्फुटित हुआ, वहाँ दूसरी ओर महासतीजी के जीवन में, जो शास्त्रानुशीलन, स्वाध्याय एवं ध्यानमय साधना की अलौकिकता लिये है, नव, अभिनव, अनुभूतियों के संचय में भी बड़ा साहाय्यप्रद सिद्ध हुआ।
श्रमण-परम्परा से सम्बद्ध होने के नाते महासतीजी म० के जीवन का व्यावहारिक पक्ष यद्यपि समाज के परिष्कार, सुधार और उन्नयन से सम्बद्ध है, किन्तु उस में वे अपने को खो नहीं देतीं। सामाजिक चेतना और समुन्नति की प्रेरयित्री होते हुए भी वे जल में निलिप्त कमल की ज्यो उससे अस्पृष्ट और असंपृक्त रहती हैं । फलतः उनके जीवन का अान्तरिक साधनापक्ष अनवरत उन्नत, उत्कृष्ट और उद्वधित होता गया, जिसका मूर्त प्राकट्य एक महनीया योगेश्वरी के रूप में हमें उपलब्ध है। ___ धर्मसंघीय उत्तरदायित्व का सम्यक् निर्वाह करते हुए भी प्रात्म-तृप्ति का जहाँ प्रसंग है, वहाँ महासतीजी सर्वात्मना योग एवं ध्यान में समर्पित हैं ।
महासतीजी म. केवल वाचिक धर्मोपदेशिका नहीं हैं, वरन् वे सही माने में एक कुशल प्रवचनकार हैं। भारतीय वाङमय में प्रवचन शब्द अपने आप में बड़ा महत्त्व लिये है । वचन के साथ जुड़ा "प्र' उपसर्ग प्रकर्ष या उत्कर्ष का द्योतक है । वचन का उत्कर्ष यथार्थतः तब सधता है, जब वचन-प्रयोक्ता की जीवन-सरणि
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