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________________ मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवयित्रियों का योगदान | २२९ ४. हेमश्री (र० का० सं० १६४४) ये साध्वी बड़तपगच्छ के नयसुन्दर जी की शिष्या थीं। 'जैन गुर्जर कविप्रो' भाग १ में पृष्ठ २८६ पर इनकी एक रचना 'कनकावती आख्यान' का उल्लेख मिलता है। यह ३६७ छन्दों की रचना है। ५. हेमसिद्धि (र० का० सं० १७वीं शती) इनका सम्बन्ध खरतरगच्छ से था। श्री अगरचन्द नाहटा ने 'ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह' के पृष्ठ २१० और २११ पर इनके दो गीतों का, उल्लेख किया है। पहली रचना है लावण्यसिद्धि पहुतणी गीतम्' इसमें साध्वी लावण्यसिद्धि का परिचय दिया गया है। इनकी दूसरी रचना 'सोमसिद्धिनिर्वाणगीतम्' है। इसमें कवयित्री का सोमसिद्धि के प्रति गहरा स्नेह और भक्ति-भाव प्रकट हुआ है। ६. हरक बाई (र० का० सं० १८२०) ये स्थानकवासी परम्परा से सम्बद्ध हैं। महासती श्री अमरूजी का चरित्र व 'महासती श्री चतरूजी सज्झाय' नाम से इनकी दो रचनाएँ उपलब्ध हैं। ७. हुलासाजी (र० का० सं० १८८७) ये स्थानकवासीपरम्परा के पूज्य श्रीमलजी म. से सम्बद्ध हैं। क्षमा, तप आदि विषयों पर इनके कई स्तवन मिलते हैं। ८. जड़ावजी ये स्थानकवासी परम्परा के प्राचार्य श्री रतनचन्द जी म० के सम्प्रदाय की प्रमुख श्रीरमा जी की शिष्या थीं। इनका जन्म सं० १८९८ में सेठों की रीयां में हुआ था। सं० १९२२ में ये दीक्षित हई । नेत्रज्योति क्षीण होने से सं० १९५० से अन्तिम समय सं० १९७२ तक ये जयपुर में ही स्थिरवासी बनकर रहीं। इनकी रचनाओं का एक संग्रह 'जैनस्तवनावली' नाम से प्रकाशित हुआ। इसमें इनकी स्तवनात्मक, कथात्मक, उपदेशात्मक और तात्त्विक रचनाएँ संकलित हैं । सांगरूपक लिखने में इन्हें विशेष सफलता मिली है । एक उदाहरण देखिये ज्ञान का घोड़ा, चित्त की चाबुक, विनय लगाम लगाई। तप तरवार भाव का भाला, खिम्मा ढाल बंधाई। ९. भूरसुन्दरी (र० का० सं० १९८० से १९८६) इनका सम्बन्ध स्थानकवासीपरम्परा से है। इनका जन्म संवत १९१४ में नागौर के समीप वसेरी नामक गाँव में हुआ। इनके पिता का नाम अखयचन्दजी रांका तथा माता का नाम रामा बाई था। अपनी भुना से प्रेरणा पाकर ११ वर्ष की अवस्था में साध्वी चंपाजी से ये दीक्षित हो गई। इनके ६ ग्रन्थ प्रकाशित मिलते हैं-भूरसुन्दरी जनभजनोद्धार, भूरसुन्दरी विवेकविलास, भूरसुन्दरी बोधविनोद, भूरसुन्दरी अध्यात्मबोध, भूरसुन्दरी ज्ञानप्रकाश, भूरसुन्दरी विद्याविलास । इनकी रचनाएँ मुख्यत: स्तवनात्मक व उपदेशात्मक हैं। इन्होंने पहेलियां भी लिखी हैं । एक उदाहरण देखिये धम्मो दीवो । संसार समुद्र में धर्म ही दीय Jain Education International For Private & Personal Use Only MatsANI www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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