SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1080
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म-साधना में चेतना केन्द्रों का महत्त्व | १४७ शरीर-लक्षण बनाम मर्मस्थान भारतीय सामुद्रिक शास्त्र भी इन मर्मस्थानों से अपरिचित नहीं था, वहां इन्हें लक्षण कहा गया है और इनकी रचना के अनुसार इन्हें मीन, श्रीवत्स, स्वस्तिक प्रादि नामों से पुकारा गया है। हम तीर्थंकर भगवान के शरीर को १००८ शुभ लक्षणों से युक्त मानते हैं। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख काल्पनिक नहीं, अपितु सत्य है । भगवान के शरीर में १००८ शुभ लक्षण होते हैं और ये लक्षण शरीर के मर्मस्थानों (विद्युत केन्द्रों) से संपृक्त होते हैं । इनमें प्राणधारा अधिक सघन होती है, इसमें सन्देह की कोई गुंजायश ही नहीं है। संस्कृत में एक सूक्ति प्रायः मिलती है--कोई पुरुष शुभ लक्षणी होता है, कोई प्रशुभ लक्षणी (कुलक्षणी) होता है, किसी में शुभाशुभ दोनों प्रकार के लक्षण पाये जाते हैं, किन्तु अलक्षणी पुरुष कोई नहीं होता। यानी शुभ या अशुभ लक्षण सभी के शरीर में मिलते हैं । यह उक्ति सत्य है। सामुद्रिक शास्त्र के समान ज्योतिषशास्त्र भी इन लक्षणों को मान्यता प्रदान करता है और अष्टांग निमित्त का तो एक अंग लक्षणशास्त्र है ही। उस पर से भविष्य के शुभाशुभ फल की वक्तव्यता होती है। गोशालक ने पापित्यिक श्रमणों से अष्टांग निमित्त विद्या पढ़ी थी, जिसका उपयोग कर वह पूजा, सन्मान प्राप्त करता रहा। आधुनिक भाषा और युग के सन्दर्भ में यह लक्षण ही मर्मस्थान कहे जाते हैं, जो मानवशरीर के विविध अंगोपांगों में अवस्थित होते हैं। और मर्मस्थानों के विपरीत चेतना-केन्द्र केवल योगियों तक ही सीमित रहे, सिर्फ योगग्रन्थों में ही इनका उल्लेख मिलता है। चेतना केन्द्रों को योग की भाषा में 'चक्र' वा 'कमल' कहा जाता है। मर्मस्थान और चक्र की शरीर में अवस्थिति ___ जहां ज्ञानतन्तु अधिक एकत्रित होते हैं, सघन होते हैं, कुछ विभिन्न प्रकार की प्राकृतियों का रूप लेते हैं, वे मर्मस्थान हैं। यह मर्मस्थान मानव के सिर से लेकर पैर के तलवे तक विविध अंगोपांगों में अवस्थित रहते हैं, वहाँ विभिन्न प्रकार की प्राकृतियां निर्मित होती हैं। ____ इसके विपरीत जिन स्थानों पर ज्ञान-तंतु उलझे होते हैं, वे उलझे हुए ज्ञान-तंतु 'चक्र' कहलाते हैं। यह उलझन कमल-पुष्प के आकार से मिलती-जुलती होती है, लगभग ऐसी ही जैसे कोई सर्प कुण्डली मार कर बैठा हो, और जिसकी कुण्डली कहीं शिथिल हो और कहीं कसी हुई, ऊपर-नीचे उलझी सी, जिसका प्रारम्भ और अन्त—यानी फण और पूंछ स्पष्ट दृष्टिगोचर न हो रहे हों; एक शब्द में गोरखधन्धा-सा। . आधुनिक वैज्ञानिकों ने इन 'चक्रस्थानों को खोजने का प्रयत्न किया, किन्तु सफल न हो सके । उनकी असफलता का कारण रहा भ्रम । वे इस भ्रम में रहे कि चक्र इस पौद्गलिक शरीर (प्रौदारिक शरीर) में अवस्थित हैं। वहीं उनसे वांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy