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________________ तूफ़ानों से टक्कर लेने वाला आस्था का दीपक प्रेम होगा तो लोग मिलजुलकर अनाज पैदा करेंगे। भले ही किसी में शक्ति कम हो और किसी में अकल की कमी हो, साथ-साथ काम करेंगे तो एक-दूसरे की मदद करते रहेंगे ।" सबकी बातें सुनकर छठा विद्वान् भुंझलाकर बोल पड़ा--" आप सबमें समझ की बहुत कमी है, तभी तो मूल को सींचने के बदले फूलों पर पानी डालना चाहते हैं । प्रेम तो फूल है, उसका मूल है त्याग । त्याग जहाँ होगा, वहाँ प्रेम, करुणा, सेवा आदि सभी फल-फूल स्वयं ही प्राप्त हो जाएँगे । अतः भगवान् से माँगना ही है तो त्याग माँगो ! " अब सातवाँ विद्वान् चुप न रह सका और तिरस्कारपूर्वक सबको संबोधित करते हुए कह उठा " श्रोहो, क्या बात कही है ! त्याग क्या हाथ का लड्डू है जो जल्दी से मुँह में रख लिया ? त्याग ऐसी सरलता से प्राप्त नहीं हो सकता, जब तक मन में भगवान् के प्रति श्रद्धा न हो। इसलिये भगवान् से सीधी श्रद्धा ही माँगना चाहिये और कुछ नहीं ।" आठवाँ विद्वान् अभी तक ऐसे चुपचाप बैठा मुस्कुरा रहा था, जैसे वह जज हो मौर सबके बोलने के बाद अपना फैसला सुनाएगा। अब वह जोश, क्रोध और रौब से बोला-"छि:, श्राप लोगों में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो प्रार्थना के द्वारा भगवान् से सही चीज़ माँगने के विषय में सोच सके । क्या आप नहीं जानते कि जबतक हृदय में मिथ्यात्व भरा पड़ा है, तबतक श्रद्धा उसमें घुस ही नहीं पाएगी। इसलिये अगर कुछ माँगना ही है तो भगवान् से मिथ्यात्व के नष्ट होने की प्रार्थना करो और सब छोड़ दो ।" इस प्रकार वे सब महापंडित और विद्वान् वाद-विवाद करते हुए बहुत देर तक झगड़ते रहे । उनकी सारी बातचीत एक फ़कीर चुपचाप अपनी चादर प्रोढ़े पेड़ के तने के दूसरी ओर बैठा हुआ सुन रहा था। जब विद्वानों की बातों का कोई निर्णय नहीं निकल पाया तो उससे चुप नहीं रहा गया और सामने आकर बोला "भाइयो ! इतनी देर से आपस में झगड़ क्यों रहे हो ? खुदा से कुछ भी माँगने की ज़रूरत नहीं है । तुम इबादत करो तो सही। सब कुछ स्वयं हासिल हो जाएगा ।" वस्तुतः किसी शायर ने इसीलिये कहा है: मत कर दरे हुजूर पर तू बार-बार अर्ज, जाहिर है हाल तेरा, उस पर कहे बगैर । जोर-जोर से कानों के आरती करने से अथवा मस्जिद की सबसे ऊपरी चीख कर बांग देने की क्या आवश्यकता है ? वस्तुतः मंदिर में पर्दे फाड़ देने वाले झालर घंटे बजाकर मंजिल पर चढ़कर लाउड स्पीकरों में चीखईश्वर बहरा नहीं है, वह तो मन की बात भी समाहिकामे समणे तवस्सी जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है Jain Education International 65 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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