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________________ Jain Education International द्वितीय खण्ड / ५६ पति वियोग देखना पड़ा । सास-ससुर के प्रभाव में वहाँ पर भी बहुत सावधानी से समय बिताया । दीक्षा के कुछ समय बाद गुरुणीजी का वियोग हो गया अतः प्रतिक्षण मन में यह ख्याल रहता कि कहीं पीहर ससुराल और गुरु-गुरुणी के नाम पर मेरे द्वारा कोई लांछन न लग जाय । अपने मन में ऐसी इच्छा को पनपने नहीं दिया जिसकी पूर्ति के लिए संत मर्यादा के विरुद्ध प्राचरण किया जाए। हमेशा अनुशासन ही प्रिय रहा है। हजारों संघर्षों के सहते हुए मैंने धैर्य और विवेक का सम्बल नहीं छोड़ा क्योंकि पिताश्री, गुरुदेव और गुरुणीजी की यही शिक्षा रही कि जो संघर्षों से गुजर जाता है वही सम्मान का पात्र बनता है । संघर्ष व्यक्ति को तोड़ते नहीं, तराशते हैं। ताजमहल को ही देखिये इस स्थिति तक पहुँचने के लिए न जाने कितनी नुकीली छेनियों के प्रहार सहे हैं । ९. जैन समाज में विघटन को स्थिति पैदा करने वाले कारण क्या हैं ? जरा बताइये । सबसे पहला कारण समाज के कर्णधार श्रावक एवं सन्तों के मन में पक्षपात की भावना | जिसके कारण सम्प्रदायवाद पनपता जा रहा है । अपनों का समर्थन और दूसरों का खुलकर विरोध किया जा रहा है। यहाँ तक कि पत्र-पत्रिकाओं में भी बिना जानकारी के गलत समाचार प्रकाशित किये जा रहे हैं । परिणामस्वरूप मेल-मिलाप के स्थान पर बिखराव हो रहा है । यह समाज में विघटन के कारण हैं । १०. जैन धर्म में जो क्रान्ति लोकाशाह ने की, वह तो विश्वविख्यात है । भविष्य में ऐसी क्रान्ति आपको सम्भावित लगती है ? ऐसी क्रान्ति के चिह्न नहीं हैं। वर्तमान में धर्म अनेक सम्प्रदायों में बँट चुका है । निकट भविष्य में भी संभव नहीं लगता फिर कोई दैविक चमत्कार ही हो जाय तो बात अलग है | ११. जीवन के उत्थान के लिए कौन सा मार्ग समीचीन हैं ? प्रेम, सत्य और अहिंसा का मार्ग, यदि इस पर पूर्ण निष्ठा के साथ चला जाये तो सहज ही गन्तव्य स्थान तक पहुँचा जा सकता है । १२. श्रापके जीवन के कौन से प्रसंग श्रावकों को दिशा दे सकते हैं ? (१) मेरे सामने किसी व्यक्ति ने उत्तेजना एवं कटु शब्दों का प्रयोग किया तो मैंने तत्काल कभी किसी को जवाब नहीं दिया । (२) बड़ों की बात का कभी विरोध नहीं किया । यदि कोई बात समझ में नहीं आई तो विनयपूर्वक समाधान करने का अनुरोध किया । (३) अपने मन की व्यथा किसी के सामने प्रकट करके झूठी सहानुभूति लेने का प्रयास नहीं किया । (४) यदि परिवार में या अपने समूह में कभी अगम्य वातावरण पैदा भी हो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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