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________________ चतुर्थ खण्ड | १६२ आचारांग नियुक्ति "अंगाणं कि सारो? आयारो।" आचारांग समस्त अंगों का सार है। इसके प्रारम्भ में प्राचार क्या है ? इस गम्भीर विषय पर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। प्राचारांग अंगों में प्रथम अंग क्यों है ? और इसका परिमाण क्या है ? लोक, विजय, कर्म, सम्यक्त्व, विमोक्ष, श्रुत, उपधान और परिज्ञा आदि शब्दों की सुन्दर व्याख्या की है। सूत्रकृतांग-नियुक्ति-इसके प्रारम्भ में सूत्रकृतांग शब्द की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इसके उपरांत गाथा, षोडश, विभक्ति, समाधि, प्राहार और प्रत्याख्यान आदि शब्दों की व्याख्या करके ३६३ मतों के सिद्धांतों की सुन्दर व्याख्या की है। क्रियावादी, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिक इन चार मुख्य वादों का सुन्दर शैली से विवेचन किया है। दशाथ तस्कंध-नियुक्ति-इसमें समाधि, आशातना और शबल को व्याख्या तथा गणी और उसकी सम्पदाओं का उल्लेख हुआ है । चित्र, उपासक, प्रतिभा, पर्युषण का भी कथन है। इसमें पर्दूषण के पर्युषण, पज्जूसण, पर्युपशमना, परिवसना, वर्षावास, स्थापना और ज्येष्ठग्रह पर्यायवाची कहे गए हैं। बृहत्कल्प-इस सूत्र ग्रन्थ में मूल सूत्र के साथ निर्यक्तियों का सम्मिश्रण हो गया है। इसमें ग्राम क्या है ? नगर क्या है ? पत्तन क्या है ? द्रोणमुख क्या है ? निगम क्या है ? और राजधानी क्या है ? आदि कई विषयों का रोचक वर्णन हा है। यथाप्रसंग में लोककथानों का भी उल्लेख है। इसके अतिरिक्त श्रमणचर्या के माहार-विहार एवं स्थान प्रादि का वर्णन है। व्यवहारनियुक्ति-कल्प और व्यवहार सूत्र की नियुक्ति की परस्पर शैली, भाव और भाषा में समानता है। इस नियुक्ति में साधना-पक्ष और सिद्धान्तपक्ष के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डाला गया है । निशीथनियुक्ति-सूत्रगत शब्दों की व्याख्या इस ग्रन्थ की विशेषता है । पिण्डनियुक्ति-पिण्ड का अर्थ है-भोजन । इसमें प्राहार-शुद्धि एवं आहार-विधि की व्याख्या की गई है। इस पर मलयगिरि ने वृहद्वृत्ति और प्राचार्य वीर ने लघुवृत्ति लिखी है। ओघनियुक्ति-पोघ शब्द की व्याख्या करके प्राचार्य भद्रबाह ने श्रमणचर्या की सूक्ष्म व्याख्या की है। प्रतिलेखन, उपधि, प्रतिसेवना, पालोचना, विशुद्धि और प्रोध की व्याख्या भी की गई है। ओघ का अर्थ है-सामान्य या साधारण । अर्थात् जिस नियुक्ति में श्रमणचर्या के सामान्य भाव एवं क्रिया को प्रतिपादित किया गया है। संसक्तनियुक्ति यह प्राचार्य भद्रबाहु की लघुवृत्ति है । गोविंदनियुक्ति-इस नियुक्ति को दर्शन-प्रभावक-शास्त्र भी कहा गया है, क्योंकि इस ग्रन्थ में दर्शनशास्त्र की दृष्टि से जीवादि तत्त्वों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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