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________________ 07 otes KE.KELA 115 Ecipa SAMAds. Recen N ainnaura ecstas MAGICKERAY D JODay चतुर्थ खण्ड / ७२ sitactTSMAP -वीतराग का चिन्तन करता हुआ साधक स्वयं वीताराग होकर कर्मों से मुक्त हो जाता है। संयम अथवा व्रत आत्मिक अनुशासन है। यह बाहर से नहीं आता वरन् अन्दर से ही प्रस्फुटित होता है। व्रत से प्रात्मशक्ति का संवर्धन होता है और यही शक्ति चिन्तन-मनन, साधना व उपासना को बल प्रदान करती हुई मुक्ति की ओर अग्रसर करती है। बौद्धधर्म में उपासना इस धर्म में उपासना के दो प्रकार माने गए हैं। (१) प्रथम लौकिक उपासना-इसका तात्पर्य है--'अभ्यास' या 'उद्यम'। किसी चरम उद्देश्य की सिद्धि के लिये निरन्तर प्रयत्न करना (२) द्वितोय है अलौकिक उपासना--अलौकिक उपासना उन आध्यात्मिक या मानसिक साधनाओं को कहते हैं जो योग अथवा तन्त्र की प्रक्रिया से अलोकिक सिद्धियों की या मुक्ति की प्राप्ति के लिये की जाती हैं। बौद्धों की तान्त्रिक उपासनानों के लिये अधिकारी वह होता है जिसे गुरु परीक्षा करके उपासना के योग्य घोषित कर दें। बौद्ध धर्मावलम्बी तंत्रों की चार श्रेणियाँ मानते हैं। (१) क्रियातन्त्र (२) चर्यातन्त्र (३) योगतन्त्र और (४) अनुत्तर योगतन्त्र। इन चार प्रकार के तन्त्रों के उपासकों की भी चार श्रेणियाँ हैं। वज्रयानीय बौद्धधर्म का मुख्य गढ़ महाचीन (तिब्बत) है । वज्रयानियों का मुख्य उपासना-मंत्र है-'प्रोम मणि पद्म हुम्' यह बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर का षडक्षरी महामन्त्र है। महात्मा बुद्ध ने यद्यपि कोई ग्रन्थ नहीं लिखा किन्तु उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों को (१) विनयपिटक (२) सुत्तपिटक तथा (३) अभिधम्मपिटक के नाम से संकलित किया है। जरथुस्त्र धर्म की अग्नि-उपासना पारसी जरथुस्त्रियों के 'आतिश बेहराम' नामक अग्नि-मंदिर में एक विशेष अग्नि को स्थापित किया जाता है। इस मन्दिर को 'अगियार' भी कहते हैं और इसके गर्भ-गह में वेदी पर एक विशिष्ट चाँदी के पात्र में अग्नि को प्रतिष्ठित किया जाता है। उस अग्नि में दिनरात चन्दन जलाकर आस्तिक व्यक्ति बोध प्राप्त करते हैं । यथा:--जहाँ ईश्वरीय अग्नि जलती है वहाँ उसका प्रज्वलित रहना सृष्टि के व्यवहार का चालू रहना है। चन्दन का जलकर सुगन्ध फैलाते हुए धम्र के रूप में ऊँचा उठना स्वर्ग की ओर इंगित करना है। अग्नि का तेज जीवन का प्रकाश है जो उपासक की आत्मशक्ति तीव्र होने का द्योतक है। और जिस खण्ड में अग्नि प्रज्वलित रहती है वह सृष्टिकर्ता का सुन्दर नमूना अशोई की शिखा पर है तथा अन्धकार को दूर करके मानव के प्रान्तरिक जीवन को उच्चस्थान प्रदान करने वाला है। उस खण्ड के ऊपर की ओर पड़ने वाली ज्योति को 'पाथ्रो अहरमज्द' की कल्पना करके बन्दगी करने वाले मस्तक समर्पण करते हैं। अग्नि को ईश्वर का पुत्र इस भौतिक जगत् का स्रष्टा और अपने पिता 'अहुरमज्द' का प्रतिनिधि तथा अनन्त सुख का स्वामी माना जाता है जो जीवों का कल्याण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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