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________________ संस्कृत-साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान | २७१ केवल देव, ऋषि, मुनि अथवा राजा नहीं हैं किन्तु राजाओं के साथ सेठ, सार्थवाह, श्रेष्ठी, तीर्थंकर, शूरवीर या सामान्य मानव होते हैं। आठवीं शताब्दी में होने वाले जटासिहनन्दि का वरांगचरित्र प्रथम महाकाव्य है जिसमें जैन राजा वरांग का ३१ सर्गों में जीवनचरित निबद्ध है । महाकाव्य के नायक में धीरोदात्त के सभी गुण समवेत हैं। इसमें नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीड़ा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, जन्म, राज्याभिषेक, युद्धविजय आदि सभी का वर्णन मिलता है। इस शताब्दी में होने वाले जिनसेनाचार्य के पार्वाभ्यूदय में २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीवनचरित निबद्ध किया गया है। यह खण्डकाव्य है जो चार सर्गों में विभक्त है। धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य के रचयिता हैं महाकवि हरिचन्द । यह महाकाव्य २१ सर्गों में पूर्ण होता है तथा इसमें धर्मनाथ स्वामी का जीवनचरित निबद्ध है। प्रस्तुत काव्य की राजस्थान के जैन ग्रंथागारों में कितनी ही प्रतियाँ मिलती हैं। महाकवि हरिचन्द का ही दूसरा महाकाव्य जीवन्धरचम्पू है। इसमें महाराजा जीवन्धर का जीवनचरित निबद्ध है। गद्य-पद्य मिश्रित यह महाकाव्य अपने ढंग का अनोखा काव्य है। ११वीं शताब्दी में होने वाले वीरनन्दि ने शक संवत ९४३ में चन्द्रप्रभचरित की रचना समाप्त की। १५ सर्गों में विभक्त यह काव्य पाठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ के जीवन को प्रस्तुत करने वाला है। इसी शताब्दी में महाकवि धनंजय हये जिन्होंने राघव पाण्डवीय जैसे महाकाव्य की सर्जना की। काव्य की कथा राम एवं पाण्डव दोनों कथानों को प्रकट करने वाली है। इसका दूसरा नाम द्विसंधान महाकाव्य भी है । प्रस्तुत महाकाव्य में १८ सर्ग हैं। १२वीं शताब्दी में महाकवि वाग्भट्ट हये जिन्होंने 'नेमिनिर्वाण" काव्य की रचना की। यह भी उच्चस्तरीय महाकाव्य है और अपने समय का लोकप्रिय काव्य रहा है। अनेक काव्यों के रचयिता महाकवि हेमचन्द्राचार्य के नाम से सभी विद्वान परिचित हैं। उनका महाकाव्य त्रिषष्टिशालाकापुरुषचरित एवं द्वयाश्रयकाव्य संस्कृत के अनूठे काव्य हैं । प्रथम महाकाव्य में ६३ शलाका (श्लाघ्य) महापुरुषों का जीवनचरित निबद्ध है जबकि दूसरे काव्य में कुमारपाल का जीवन वणित है । इसीलिये इसका दूसरा नाम कुमारपालचरित भी है। यह महाकाव्य २८ सर्गों में विभक्त है। महाकवि सोमदेव के यशस्तिलक चम्पू का चम्पूकाव्यों में उत्कृष्ट स्थान है। महाकवि ने इस काव्य में राजा यशोधर के जीवनचरित को काव्यमय भाषा में प्रस्तुत किया है। इस चम्पकाव्य की नागौर, पामेर एवं जयपुर के ग्रन्थभण्डारों में पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध होती हैं। १३वीं शताब्दी में होने वाले महापंडित पाशाधर के शिष्य अर्हदास ने पुरुदेव की रचना करके चम्पू काव्यों में एक और कड़ी जोड़ दी। इस काव्य में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के जीवन को प्रस्तुत किया गया है। . महाकवि प्रसग का महावीर चरित एक महत्त्वपूर्ण काव्य है जो २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर के जीवन का दिग्दर्शन कराता है। ___ उक्त महाकाव्यों के अतिरिक्त प्राचार्य गुणभद्र का जिनदत्तचरित एवं धन्यकुमारचरित देवेन्द्रसूरि का महावीरचरित (१०२७ ए. डी. । देवसूरि का बलभद्रचरित, महापंडित ઘરની રીતો A Jain Education International For Private & Personal Use Only a sanelibrarmarg
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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