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________________ गगन थाल में सज्जित करके, दीपक तारों के उज्ज्वलतम। आराध्या की करू आरती, स्मरण करू मैं गुणगण हरदम ।।८।। अभिरत, संरत, तन्मय निशदिन, जो है उच्च योग-साधन में । आत्मज्ञान संयममय शोभित, दिव्य चेतना जिनके मन में ॥९॥ नत मस्तक हूँ भक्ति-समर्पित, आर्जव विनयांचित हर्षित मन । करती भावोल्लास-विकस्वर. उनको कोटि कोटि मैं प्रणमन ॥१०॥ शासनचन्द्रिका महासती श्री झणकारकंवरजी म. सा. की प्रेरणा से वन्दना चरणों में शत बार । साध्वी चन्दन "साहित्यरत्न" परम यशस्वी प्राप हो, अहो ! अर्चना सतीराज । धन्य हुग्रा पाकर तुम्हें, सारा जैन-समाज ॥ अमर रहो अविचल रहो, बढ़े चलो अविराम, वन्दन चरणों में स्वीकृत हो, सरलवृत्ति गुणधाम ।।१।। प्राणों के मधुमास तुम्हें, शत-शत वन्दन । जन-जन की परम श्रद्धा, तुम्हारा अभिनन्दन । जिनशासन की शान तुम्हें, नत-नत वन्दन । ओ ! गुणों की खान तुम्हारा, अभिनन्दन ।।२।। आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की अर्चनार्चन / २० Jan Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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