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________________ चतुर्थ खण्ड | २४४ तियों में प्रदत्त दिक्काल एक ऐसा सत्य है जिसके बगैर हम दिककाल की विराटता या अनन्त सत्य का बोध नहीं कर सकते हैं । इस व्यवस्था को हम 'दिव्य' व्यवस्था भी कह सकते हैं जिसकी अभिव्यक्ति संतों तथा भक्तों ने विविध रूपाकारों के द्वारा की है। इसे मैं और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो काल का वह "बिंदु' जहाँ पर ये दोनों व्यवस्थाएँ एक-दूसरे को काटती हैं। यह 'बिंदु' साधक या रहस्यवादी का वह अनुभव या "प्रतीति-बिंदु" है जहां से वह जागतिक और तात्त्विक व्यवस्थाओं को सम्बन्धित करता है । अतः रहस्यवादी अनुभव के लिए यह "प्रतीतिबिंदु" जिसे हम काल का वर्तमान प्रखंड भी कह सकते हैं, इसके बगैर अनन्त या तात्त्विक का बोध संभव ही नहीं है । अनन्त या शाश्वत में काल और दिक् का सूक्ष्म रूपान्तरण होता है न कि उनका नकार । काल का यह वर्तमान प्रतीति-बिंदु या क्षण जहाँ से व्यक्ति 'अनन्तता' का बोध करता है, वह मात्र संतों और रहस्यवादियों तक सीमित न होकर वैज्ञानिकों, दार्शनिकों तथा कलाकारों के दिक्काल बोध में एक प्रेरक तत्त्व है। कहने का तात्पर्य यह है कि धार्मिक, रहस्यवादी, दार्शनिक, रचनाकार आदि सभी भिन्न-भिन्न स्तरों पर "अनन्तबोध' से टकराते हैं, अंतर पद्धति और अनुभव के आवेग का है । अत: टी. एस. इलियट का यह मत है कि काल और कालहीनता के अंतरछेदन के बिंदु का अनुभव संतों का विषय है।' यह उपर्युक्त कारणों से पूर्णरूप से सत्य नहीं है। इस दृष्टि से ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में "रहस्यवाद' का अपना स्थान है जो जागतिक दिककाल और व्यापक अर्थभित ब्रह्मांडीय अथवा अनंतबोध को एक सूत्र में पिरोता है। रहस्यवादी का अनन्त बोध प्रातिभज्ञान या अनुभूति का विषय है जो एक जैविक मानसिक क्रिया है जिसे प्राधुनिक परामनोविज्ञान अतींद्रिय प्रत्यक्षीकरण (एक्स्ट्रा सेन्सरी परसेप्शन ) की संज्ञा देता है। इसी संदर्भ में यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि अनन्त का यह बोध एक 'रूपक' है क्योंकि रहस्यवादी रूपक के द्वारा इस संबंध को संकेतित करता है। दिक् और काल का यह संकेतन भाषा के प्रतीकों और रूपाकारों के द्वारा ही व्यक्त होता है। जागतिक से पराजागतिक तक की यात्रा को कवि या रहस्यवादी भाषिक रूपाकारों से ही संवेदित करते हैं। यहाँ पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ये रूपाकार (प्रतीक: बिम्ब, मैं, तुम आदि ) जागतिक दिक और काल से ही ग्रहण किए जाते हैं जिन्हें क्रमशः तात्त्विक अर्थ संदर्भो का वाहक बनाया जाता है। ये भाषिक रूपाकार सत्य या अनन्त सम्बंध के माध्यम है, पर इनका आधार यह प्रदत्त दिक और काल का जागतिक स्तर है। ये रूपाकार उपर्युक्त दो व्यवस्थानों के अनुसार दो प्रकार के होते है-एक पिंडीय (माइक्रो) और दूसरे ब्रह्मांडीय या अनन्त (मैक्रो) स्तर को संकेतित करने वाले । ये सभी 'रूपाकार' यथार्थ और सत्य के भिन्न रूपों का प्रतीकात्मक निर्देशन करते हैं। नदी, चकोर, पिंड, चातक, मैं, गोपी, पतंग, प्रेमिका आदि माइक्रो या पिंडीय स्तर के रूपाकार हैं तथा दूसरी ओर क्रमशः समुद्र, चाँद, ब्रह्मांड, मेघ, तुम, कृष्ण, दीपक, प्रेमी (पति) अादि “मेको" स्तर के प्रतीक हैं । माइक्रो स्तर के रूपाकार जागतिक स्तर से सम्बन्धित हैं और मैक्रो स्तर के रूपाकार (जो जगत के हैं) पराजागतिक स्तर से । रहस्यवादी इन जाग 1. To apprehend. The point of intersection. Of the Timeless with Time is an occupation for the Saint -T. S. Eliot Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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