SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 787
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ खण्ड / २४२ इनमें भी जो संस्कार प्रधानतम होता है, अन्य संस्कार उसके सहायक बन जाते हैं और तब उनकी समष्टि की वासना के अनुसार जन्म प्रायु और भोग का निर्धारण होता है। ऐसे कर्माशय (कर्म समष्टि) को, जिसके जन्म, आयु और भोग निश्चित हो गये हैं, वे नियतविपाक कर्माशय कहे जाते हैं। मुण्डक उपनिषद् और श्रीमद्भगवद्गीता में इस नियत भाव को प्राप्त हो रहे कर्माशय को ही भावों का स्मरण अथवा कामना नाम से अग्रिम जन्म का हेतु माना है। वे कर्म (उपर्जन कर्म) जिनका फलोपभोग करने के लिये जन्म, आयुष्य और भोग अभी नियत नहीं हया है, वे अनियत विपाक कर्माशय कहलाते हैं, ये कर्म अदष्ट जन्मवेदनीय कर्म भी कहलाते हैं, क्योंकि इनका फल वर्तमान जन्म में नहीं होना है। अनियत विपाक कर्माशय का विभाजन दो समूहों में किया जा सकता है (१) इनमें प्रथम वे हैं जिनका स्वयं का विपाक नहीं होता किन्तु नियत विपाक कर्म के प्रभाव में कुछ न्यूनता या अधिकता उत्पन्न करके नष्ट हो जाते हैं । अथवा उनमें संयुक्त होकर फल देते हैं। (२) दूसरे वे हैं जो चित्तभूमि में दवे हुए तब तक वैसे ही पड़े रहते हैं, जब तक कि उन्हें किसी अनुकूल जन्म और साधन को प्राप्त कर फल देने के लिए अवसर नहीं मिलता। जब कभी उनको जगानेवाले कर्माशय की प्रधानता होती है तब वे उबुद्ध होकर फल देने की स्थिति में प्राते हैं (और उस स्थिति में उन्हें नियतविपाक की श्रेणी में रखा जा सकेगा) अन्यथा कितने जन्म और समय बीतने पर भी वे उसी भाँति सुरक्षित रहते हैं और उनका नाश नहीं होता। इससे भिन्न इनकी तीसरी स्थिति वह भी होती है जब योगसाधना आदि के द्वारा तत्त्वज्ञान का उदय होने पर वे भस्मसात् हो जाते हैं । २ पतञ्जलि के अनुसार आशिष के रूप में ये कर्माशय अनादि काल से जीव के साथ विद्यमान रहते हैं। इस प्रकार हम संक्षेप में कह सकते हैं कि कर्माशय दृष्ट जन्मवेदनीय और अदष्ट जन्मवेदनीय अथवा नियतविपाक और अनियतविपाक नाम से दो प्रकार का होता है । अदृष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय के द्वारा ही अग्रिम जन्म के जन्म आयुष्य और भोग का निर्धारण होता है। इस निर्धारण में कर्मसमष्टि रूप कर्माशय कारण होता है, कर्मव्यष्टि नहीं । -स्वामी केशवानन्द योग संस्थान ८/६ रूपनगर, दिल्ली-११०००७ १. (क) कामान्यः कामयते मन्यमानः सः कामभिर्जायते यत्र तत्र । पर्याप्तकामस्य कृताव्यनस्तु इहैव सर्वे प्रविशन्ति कामाः ।।-मुंड० २-२-२. (ख) यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।-गीता०५-६ २. (क) ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। -गीता ४.३७ (ख) ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुं पंडितं बुधाः। -गीता ४.१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy