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भाव-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले
भक्ति और साधना ऐसे दिव्य गुण अथवा अनुपम शुद्धि-क्रियाएँ हैं जो प्रात्मा को परमात्मा से जोड़ने वाली या दूसरे शब्दों में प्रात्मा को परमात्मा बनाने वाली कड़ियां हैं। अतः संसार-मुक्ति के इच्छुक साधकों को इन क्रियाओं को करते समय पूर्ण सजग, सावधान और विवेकशील बने रहना चाहिये । आत्मिक ज्ञान और निज विवेक, अविवेक को तो नष्ट करते ही हैं, साथ ही दोषों को नष्ट करते हुए भावशुद्धि करते चले जाते हैं, जिसके अभाव में साधना या भक्ति निरा आडंबर या पाखंड बनकर रह जाती है।
अाज हम देखते हैं कि असंख्य व्यक्ति गेरुए वस्त्र धारण कर लेते हैं, अनेक प्रकार की बड़ी-बड़ी मालाएँ गले में लटका लेते हैं, तिलक-छापे या भस्म से सम्पूर्ण शरीर को प्रावत कर लेते हैं। नगरों में आकर अमीरों के घर डेरा डालते हैं तथा वाकपटुता के द्वारा अपने कदमों में रुपयों का ढेर लगवा लेते हैं। भोली स्त्रियों के झुंड में बैठकर उन्हें उपदेश देने के बहाने अपनी रसिक-वृत्ति को ख राक पहुँचाते हैं और उनकी विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिये गण्डे-ताबीज देकर सोने-चांदी के आभूषण तक भेंट में ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार स्वयं परिश्रम किये बिना अज्ञानी स्त्री-पुरुषों को भ्रम में डालकर धन इकट्ठा करते हैं तथा उसे बैंकों में जमा करके सपरिवार ऐश्वर्य में खेलते हैं । क्या ऐसे पाखंडी, परमात्मा के भक्त बनकर अपना या औरों का कल्याण कर सकते हैं ? नहीं, औरों का तो क्या वे अपना ही कल्याण रंच-मात्र भी नहीं कर पाते।
किन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति सत् और असत् का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, शरीर और आत्मा को भिन्न समझकर इस संसार को स्वप्नवत् मानते हुए परमात्मा से नाता जोड़ने के लिये विह्वल रहते हैं, वे जगत् के लोगों से दूर भागकर एकान्त में प्रभु से लौ लगाए रहने के प्रयास में रहते हैं। सच्चे भक्त आडंबर और पाखंड से घृणा करते हुए निर्जन स्थान पसन्द करते हैं। लोगों की भीड़ या भेंट-पूजा की स्वप्न में भी अभिलाषा नहीं करते । एक छोटा-सा उदाहरण यही बताता है
किसी नगर से बाहर वन में दो त्यागी संत अपनी-अपनी कुटिया में रहकर प्रभुभक्ति और साधना में लगे रहते थे। एक दिन किसी व्यक्ति ने वन में भ्रमण करते हुए उन महात्मानों को देखा । दिव्य तेज से विभूषित उन साधु-पुरुषों के दर्शन कर वह सीधा नगर के राजा के समक्ष पहुँचा और उन्हें बताया
"हुजूर ! हमारे शहर से कुछ ही दूर जंगल में दो महान् साधु निवास करते हैं और दिन-रात भगवद्-भक्ति में लगे रहते हैं।"
राजा को यह जानकर बहुत आश्चर्य हया और उसने सोचा-"मेरे राज्य में ऐसे महान संत हैं और मैंने अभी तक उनके दर्शन भी नहीं किये ? आज ही उनके दर्शन कर अपने को धन्य करू।"
समाहिकामे समणे तवस्सी - जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।
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