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महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० सा० / १०९
अंकुरित हो उठा और थोड़े ही समय में वह पल्लवित एवं पुष्पित पादप के रूप में विकसित हो गया । जैसा मैंने ऊपर उल्लेख किया है, महासतीजी के पितृचरण एक दिव्य संस्कारी वीर पुरुष थे । उनका लौकिक जीवन साहस, शौर्य और पराक्रम का जीवित प्रतीक था । क्षयोपमवश कुछ ऐसी दिव्यता उन्हें जन्म से ही प्राप्त थी कि साधारण उदरंभरि और भोगोपभोगी मनुष्य के रूप में वे जीवन की इतिश्री कर देना नहीं चाहते थे । बाह्य अध्ययन विशेष न होते हुए भी उनकी प्राभ्यन्तर चेतना उद्बुद्ध थी, जो जन्म के साथ ही श्राती है। पिता और पुत्री के परम पवित्र अन्तर्भाव की फलनिष्पत्ति श्रमण- प्रव्रज्या में हुई । उद्बुद्धचेता, सात्त्विक जन, जब अन्तरात्मा जाग उठती है, तब फिर विलम्ब क्यों करें । उक्त विषम, दुःखद घटना के लगभग वर्ष भर बाद उन्होंने ( पिता पुत्री ने ) परम पूज्य स्व. श्राचार्य श्री जयमल्लजी म० सा० के प्राम्नायानुगत तत्कालीन श्रमण संघीय मारवाड़ प्रान्त मंत्री पूज्य स्वामीजी श्री हजारीमलजी म० सा० तथा बालब्रह्मचारिणी महासती श्री सरदारकुंवरजी म० सा० की सन्निधि में श्रमणदीक्षा स्वीकार कर ली ।
बड़ा आश्चर्य है, इस भोगसंकुल जीवन में यह कैसे सध जाता है, जहाँ मौत की अन्तिम सांसें गिनता हुआ मनुष्य भी मन से भोगों को नहीं छोड़ पाता । मृत्यु मस्तक पर मंडराती है पर उस समय भी क्षुद्र सांसारिक सुखमय, वासनामय मनः स्थिति में आबद्ध रहता है । कितनी दयनीय स्थिति है यह ! वह जीना चाहता है, फिर छककर भोगों को भोग लेना चाहता है । इन स्थितियों के साथ-साथ है तो विरल, पर एक और स्थिति भी है, जहाँ भोग विषवत् त्याज्य प्रतीत होने लगते हैं | क्या कारण है, यह स्थिति सब में नहीं आती, किन्हीं किन्हीं बहुत थोड़े से, लाखों में एक दो व्यक्तियों में प्रस्फुटित होती है । संस्कारवत्ता तो है ही, मनोविज्ञान एक और समाधान देता है । उसके अनुसार काम, वासना, भोग आदि मनुष्यों की निसर्गज वृत्तियाँ हैं, जिनमें वह अनुपम सुख की मान्यता लिये रहता है । इसलिए तीव्रतम उत्कण्ठा के रूप में उसकी निष्ठा उनसे जुड़ी रहती है । पर यह अपरिवर्त्य नहीं है । कुछ थोड़े से व्यक्तियों के जीवन में किसी घटना - विशेष से या विशिष्ट ज्ञान के उद्भव से इसके विपरीत भी कुछ घटित होता है । इच्छा की तीव्रता तो नहीं मिटती पर इच्छा जिस पर टिकी होती है, वह लक्ष्य बदल जाता है, भोग के स्थान पर वैराग्य, साधना, ज्ञान, कला या साहित्य संप्रतिष्ठ हो जाता है । परम उदग्र इच्छाशक्ति इनमें किसी के साथ जुड़ जाती है । निश्चय ही तब फलनिष्पत्ति में एक चमत्कार आता है । मनोविज्ञान की भाषा में यह दिक्- परिष्कार ( Sublimation ) कहा जाता है । वैसे व्यक्ति बहुत बड़े साधक, प्रखरज्ञानी, महान् साहित्यकार आदि होते हैं । अन्तर्वृत्ति में यों परिवर्तन हो जाने पर व्यक्ति को अपने स्वीकार्य और गन्तव्य पथ से कोई चलित नहीं कर सकता ।
इस मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर यदि चिन्तन करें तो लगता है, पिता एवं पुत्री के साथ जो घटित हुआ, जिस दिव्य दिशा की ओर उनके कदम बढ़ चले, उनसे यही संभावित था । साधना की इस यात्रा में आगे जो कुछ हुआ, वह साक्ष्य है इस बात का ( जो पहले चर्चित हुई है) । तीव्रतम इच्छाशक्ति का परिणाम शक्ति
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