SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 618
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग उपासना | ७५ (१) सात्त्विक आहारः-गृहस्थ उपासक को न्यायोपार्जित धन के द्वारा शुद्धि एवं पवित्रता से बनाया हुआ परिमित भोजन करना चाहिये । मांस आदि अभक्ष्य एवं उत्तेजक, तामसी पदार्थों का भक्षण करना सर्वथा अनुचित और उपासना की दृष्टि से पूर्णतया निष्फल है। 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन ।' जिस शरीर में तामसिक पदार्थ पहुँचते हों, उसमें रहने वाला मन कभी निर्मल नहीं बन सकता । वह उपासना के योग्य नहीं रह जाता। एक महत्त्वपूर्ण जानने की बात यह है कि उपासक अगर विरक्त या साधु हो तो उसके लिये भिक्षान्न अमृततुल्य माना गया है। (२) सत्यभाषणः-प्रत्येक उपासक को हित, मित एवं प्रिय सत्य ही बोलना चाहिये । असत्य भाषण से औरों को जितनी हानि होती है, उसकी अपेक्षा अनेकगुनी अधिक हानि असत्य बोलने वाले को होती है । वह अपने उपास्य ईश्वर से परे हो जाता है । हमारे शास्त्र स्पष्ट कहते हैं:-'तं सच्चं भगवं ।' अर्थात्-सत्य ही भगवान है। इतना ही नहीं, सत्य के लिये यह भी कहा गया है 'सच्चं सग्गद्दारं, सच्चं सिद्धीइ सोपाणं ।' -सत्य स्वर्ग का द्वार है तथा सिद्धि का सोपान है। (३) संयमः--प्रत्येक उपासक के लिये उपासना प्रारंभ करने से पूर्व अपने मन एवं इन्द्रियों को नियन्त्रित अथवा संयमित कर लेना चाहिये । अगर ऐसा न किया गया तो मन इन्द्रिय-सुखों की प्राप्ति का इच्छक बना रहेगा और उपासना में कभी एकाग्र नहीं हो पाएगा। 'सूत्रकृतांग' शास्त्र में बताया है: जहा कुम्मे सगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाइं मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे॥ अर्थात्-कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर समेट कर खतरे से बचाव कर लेता है, इसी प्रकार मेधावी साधक भी अध्यात्मयोग के द्वारा अन्तर्मुख होकर पापवृत्तियों से स्वयं को सुरक्षित रखता है। वस्तुत: वही उपासक उपासना में सफलता प्राप्त कर सकता है, जो मन को बाह्यवृत्तियों की ओर से मोड़कर अन्तर्मुखी बना ले । सिनेमा हॉल में हम देखते हैं कि अन्दर के मुख्य पर्दे पर चल-चित्र तभी स्पष्ट दिखाई देता है, जबकि हॉल के सभी द्वार बन्द कर दिये जाते हैं, अन्दर जलनेवाली बत्तियाँ भी बुझा दी जाती हैं और तब एक विशेष स्थान से विशिष्ट प्रकार के प्रकाश के साथ श्वेत-पट पर विभिन्न दृश्य दिखाई देते हैं। ठीक इसी प्रकार उपासक को भी उपासना करने से पूर्व अपने मन-मंदिर के वे समस्त द्वार जिनसे इन्द्रियाँ बाह्य भोगोपभोगों की ओर भागती हैं, बन्द कर लेना चाहिये। और उसके बाद अन्तर में पूनः पूनः संकल्प-विकल्पों की जो चमक पैदा होती है, उसे भी बुझा लेना चाहिये । तत्पश्चात पूर्णतया शांत होकर अपनी विशेष प्रात्म-शक्ति के प्रकाश से चित्त के निर्मल पट पर आत्मा के विभिन्न दृश्य देखते हुए प्रात्मदर्शन करना चाहिये तथा प्रात्मा को अपने उपास्य और प्राराध्य में प्रात्मसात होते हए देखना चाहिये। ऐसा होने पर ही उपासना सफलीभूत हो सकेगी। धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgI
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy