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विषय विभूति श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना' | १०५
प्रस्थान करके जम्मू, अमृतसर, लुधियाना, पटियाला, जगाधारी, सहारनपुर, देहरादून, मसूरी आदि सभी छोटे बड़े शहरों में विचरण करते हुये जैनत्व का, जैन धर्म का पूर्व प्रचार व प्रसार किया। उनके धुंआधार प्रवचनों को सुनने के लिये और प्रोजस्वी तथा मधुमयी वाणी का रसास्वादन करने के लिये जन- मेदिनी बाढ़ के समान उमड़ती रही। उनके जादुई शब्दों के प्रभाव से लाखों प्राणियों ने कुव्यसनों का त्याग किया तथा व्रत पचक्खाणों को अंगीकार कर लिया। जहाँ-जहाँ भी उन्होंने वर्षावास किये और जहाँ पर वे अल्पकाल के लिये ठहरीं, नर-नारी बावलों की भाँति उन्हें और अधिक ठहरने के लिये प्राग्रह करते, प्रार्थना करते और फिर भी न रुकने पर मार्ग में लेट जाते ।
श्राप के हृदय में विद्यार्थियों के गिरते नैतिक स्तर को देखकर एक दर्द उठता है । इनका कथन है आज का विद्यार्थी कल का नागरिक होकर राष्ट्रप्रहरी होगा । यदि उन्होंने अभी अपने चरित्र को उज्ज्वल नहीं बनाया तो वे राष्ट्र रक्षा कैसे कर सकेंगे ? विद्वान् मनीषियों ने आपके प्रवचनों का गहराई से अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि ये प्रवचन पाठ के रूप में पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिये जायें तो विद्यार्थियों का नैतिक स्तर सुधर सकता है। यदि प्रवचन सम्मिलित कर लिये जाते तो देश व समाज के लिये गौरव की बात होती ।
आत्मा के यथार्थ दर्शन हो जाने पर सघन मोहांधकार सहज ही विलीन हो जाता है और प्राणी-योगी बन जाता है । योगी होना परम कल्याण का जनक है । महासतीजी म० सा० को भी अध्यात्मयोगिनी के अभिधान का गौरव मिला हुआ है । वे शील और ज्ञान संपदा से समन्वित एक असाधारण साध्वीरत्न हैं । भारत की वसुन्धरा उन जैसी विभूति उत्पन्न करने पर सदैव गौरवान्वित रहेगी ।
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१७, लाला लाजपतराय मार्ग, उज्जैन म० प्र०-४५६००१
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