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साधना की परमोज्ज्वल दीपशिखा : विभूतिमयीमहिमामण्डित योगसाधिका महासतीजी श्री उमरावकंवरजी म. सा.
'अर्चना 0 आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री
एम. ए. (त्रय) पी-एच. डी., काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि
भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन तथा जैनदर्शन में जैनयोग मेरा सर्वाधिक प्रिय विषय है। जैनयोग के सन्दर्भ में मैंने उन सभी ग्रन्थों का पारायण किया है, जो मुझे उपलब्ध हो सके। मैं इस सम्बन्ध में प्राचार्य हरिभद्र से अत्यधिक प्रभावित हूँ। उन्होंने जो भी लिखा है, वह मौलिक है, गहन अध्ययन, चिन्तन पर आधृत है।
पिछले कुछ वर्षों से मेरे मन में यह भाव था कि प्राचार्य हरिभद्र के इन चारों योगग्रन्थों पर मैं कार्य करू । हिन्दी-जगत् को अधनातन शैली में सुसम्पादित तथा अनूदित रूप में ये ग्रन्थ प्राप्त नहीं हैं। अच्छा हो, इस कमी की पूर्ति हो सके । इसके लिए मुझे उत्तम मार्ग-दर्शन तथा संयोजन चाहिए था। किसके समक्ष यह प्रस्ताव रखू, यह सूझ नहीं पड़ रहा था। क्योंकि आज अध्यात्म तथा योग के नाम पर जो कार्य चल रहे हैं, वे यथार्थमूलक कम तथा प्रशस्ति एवं प्रचारमूलक अधिक हैं। उन तथाकथिक योग-प्रवर्तकों को, प्राचार्यों को अपना-अपना नाम चाहिए, विश्रुति चाहिए, प्रचार चाहिए, जो उनके लिए प्राथमिक है । खैर, जैसी भी स्थिति है, कौन क्या कर सकता है । अतः इनके झंझट में न पड़कर जितनी जिसको शक्ति हो, अपना कार्य करते रहना चाहिए।
इस सम्बन्ध में मैं एक प्रसंग उपस्थित करना चाहूंगा, जो लगभग ६ वर्ष पूर्व का है। तब वर्धमान श्रमण-संघ के परम यशस्वी युवाचार्य प्रबुद्ध ज्ञानयोगी, पंडितरत्न मुनिश्री मिश्रीमलजी म. सा० 'मधुकर' विद्यमान थे, जिनके साथ मेरा तब से पूर्व पाँच-छ: वर्षों से घनिष्ठ सम्बन्ध था। सुयोग्य विद्वान्, प्रबुद्ध आगम-वेत्ता तथा प्रौढलेखक होने के साथ साथ उनके व्यक्तित्व की बहुत बड़ी विशेषता थी-उनकी सहज ऋजूता, कोमलता तथा मधुरता। न उन्हें अपने ज्ञान का दंभ था, न पद का अभिमान । उनके स्वभाव में जो अनिर्वचनीय सरलता का दर्शन होता था, वह उनके व्यक्तित्व का सर्वाधिक आकर्षक गुण था। वे स्वयं विद्वान् थे, अतएव विद्या को गरिमा जानते थे, विद्या का और विद्वान् का सम्मान करते थे, उन्हें स्नेह देते थे। यही कारण है, ज्यों ज्यों समय बीतता गया, उनके प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता गया । उनके सान्निध्य में चल रहे आगम-संपादन के कार्य में भी मेरा भाग था, उनके साहित्यिक कार्य में भी मेरा यत् किंचित् साहचर्य था। इसे मैं उन्हीं के स्नेह तथा
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