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________________ संत और पंथ वास्तव में सच्चे संत और फकीर एक ही स्थान को अपना न मानकर चारों दिशानों को अपनी ही जागीर समझकर जिधर मन करता है, चल पड़ते हैं। एक ही जगह पर रहकर वे मोह-ममत्व के बंधनों में नहीं बँधते । अंत में यही कि आज हमने पंथ और संत की कुछ समानतानों पर विचार किया। पंथ अगर सीधा, समतल, कंटकों और कंकर-पत्थरों से रहित हो तो पथिक उसपर चलकर बिना भटके आसानी से अपनी मंजिल पर पहुँच जाता है। यह बात संत के लिये भी कही जा सकती है। संत अगर सही मायने में पूर्णतया निःस्वार्थ, निष्पाप और निरासक्त भावना से परिपूर्ण रहे तो वह अज्ञानावस्था में भटकते हुए प्राणियों को प्रात्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर कर सकता है। सच्चे संत के मार्ग को कोई भी शक्ति अवरुद्ध नहीं कर सकती। कोई भय उसे रोक नहीं सकता तथा कोई भी कामना उसे साधना के मार्ग से डिगा नहीं सकती, अगर वह अपने मन व इन्द्रियों को नियंत्रण में रखते हुए अपनी इच्छानुसार उन्हें चलाता है । क्योंकि: “अहीवेगंतविट्ठीए, चरित्त पुत्त ! दुच्चरं ।" -सर्प के समान एकाग्र दृष्टि की तरह एकाग्र मन रखते हुए चारित्र का पालन करना अत्यन्त दुष्कर है । किन्तु जो इस दुष्कर पथ पर चल पड़ता है वह स्वयं तो संसार-सागर को पार करता ही है, औरों को भी पार उतार देता है। C) 6. समाहिकामे समणे तवस्सी - जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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