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________________ पंचम खण्ड | ८६ बढने में सफल हो जाती है, वहां वह प्रात्मा जो साहस छोड़ देती है, ग्रन्थि-भेद के समीप पहुँच कर भी विकार के दुर्धर आघात सहने और उनका प्रतिकार करने में अक्षम हो वापस लौट पाती है। अनेक बार प्रयत्न करने के बावजूद वह विजय-लाभ नहीं कर पाती । ग्रन्थिभेद कर पाने में सफल होना या विजय-लाभ करना प्रथम अपूर्वकरण नामक प्रात्म-परिणाम से सिद्ध होता है । ग्रन्थिभेद हो जाने पर प्रात्मा में आनन्द का स्रोत फूट पड़ता है। प्राचार्य हरिभद्र ने योगबिन्दु में इस सम्बन्ध में लिखा है "तीक्ष्ण भाव-वज्र द्वारा-अत्यन्त उत्तम तथा प्रशस्त भावों द्वारा कर्म-ग्रन्थि रूपी दुर्भेद्य, विशाल एवं अति कष्टकारक पर्वत के तोड़ दिये जाने पर महान साधक को यथार्थ, प्रचुर प्रानन्द का अनुभव होता है। रोग-पीड़ित व्यक्ति विशिष्ट औषधि द्वारा रोग के मिट जाने पर जिस प्रकार प्रत्यधिक प्रसन्न होता है, उसी प्रकार उस साधक के मन में अध्यात्म-प्रसाद उमड़ने लगता है। ___"दूसरा प्रानन्द उस साधक को इस बात का होता है कि फिर वैसी दुर्भेद्य कर्म-ग्रन्थि नहीं बंधेगी। भयंकर क्लेशों का नाश हो जाने से वह निःश्रेयस् मूलक-मोक्षोन्मुख शाश्वत कल्याण को प्राप्त करेगा। "एक जन्मान्ध पुरुष को पुण्यों के उदय से प्रांखें मिल जाने पर दृश्य जगत् को देखने से जो आनन्द प्राप्त होता है, वैसे ही ग्रन्थि-भेद हो जाने पर सम्यकदर्शन प्राप्त होने से साधक को अपूर्व प्रानन्द की अनुभूति होती है।'' यों प्रथम अपूर्वकरण में आत्मा को सम्यक्दर्शन प्राप्त होता है। सम्यक्दर्शन प्राध्यात्मिक दृष्टि से जीवन का वह उत्क्रान्त पक्ष है, जहाँ अन्तवृत्ति सत्य के प्रति दृढ़ प्रास्था ले लेती है। सम्यकदर्शन का शाब्दिक अर्थ भी यही है। दर्शन शब्द "दश" धातु से बना है। दश धातु प्रेक्षण अर्थ में है ।२ प्रेक्षण में प्र+ईक्षण का योग है। ईक्षण का अर्थ देखना है, प्र उपसर्ग प्रकर्ष या उत्कर्ष वाचक है। जहाँ देखना सामान्य न रहकर उत्कृष्ट, प्रकृष्ट या विशिष्ट हो जाता है, वहां उसकी प्रेक्षण संज्ञा होती है। दर्शन का अर्थ प्रेक्षण है-विशेष रूप से, सूक्ष्मता से, गहनता से देखना। जब दर्शन सम्यक्, यथार्थ या सत्यपरक बन जाता है, तब देखने में या दृष्टि में सहज ही एक ऐसी विशेषता प्रा जाती है, जो व्यक्तित्व में सत्त्वमूलक अनेक नये उन्मेष जोड़ देती है। १. तथा च भिन्ने दुर्भेदे कर्मग्रन्थिमहाचले । तीक्ष्णेन भाववज्रण बहुसंक्लेशकारिणि ।। प्रानन्दो जायतेऽत्यन्तं तात्त्विकोऽस्य महात्मनः । सव्याध्यभिभवे यवद् व्याधितस्य महौषधात् ।। भेदोऽपि चास्य विज्ञेयो न भूयो भवनं तथा । तीव्रसंक्लेशविगमात् सदा निश्रेयसावहः ।। जात्यन्धस्य यथा पुंसश्चक्षुर्लाभे शुभोदये। सददर्शनं तथैवास्य ग्रन्थिभेदेऽपरे जगुः ।। २. दृश् प्रेक्षणे। -योगबिन्दु २८०-८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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