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________________ प्रेरणास्रोतस्विनी महासती श्री अर्चनाजी शत शत अभिनन्दन " जैन आर्या महासती श्री चंपाकुवरजी म० जैनसिद्धान्ताचार्य "जीवन कितना दीर्घ है, यह है व्यर्थ विचार। जीवन कितना स्वच्छ है, सोचो बारम्बार ॥" कौन कितना दीर्घायु है, कितने लम्बे काल तक जीता है, यह चिन्तन वास्तव में कोई महत्त्व नहीं रखता । मनुष्य को हर समय बार बार यह सोचना चाहिए कि उसका जीवन कितना पवित्र है, उज्ज्वल है, धर्मानुगत है। वह अल्पकालिक जीवन भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है, जिसमें धर्म, शील, सदाचार और जन कल्याण के कार्य जुड़े रहते हैं । ऐसे व्यक्ति के जीवन का एक क्षण भी बहुत मूल्यवान् होता है । वह दीर्घ जीवन, लम्बी जिन्दगी किस काम की, जिसमें मनुष्य पापाचरण, दुराचरण से अपने को मलिन बनाता रहता है । वैसा जीवन व्यर्थ है, मानवता का कलंक है । जीते सभी हैं, किन्तु जीने का सच्चा विज्ञान, सच्ची कला जीवन के पारखी एवं कलाकार ही जानते हैं । वे जीने का यथार्थ सार समझते हैं, इसलिए उसका सदैव सदुपयोग करते हैं। जीवन शब्द में तीन वर्ण हैं-जी, व, तथा न । जी-यह जीने की ओर इंगित करता है। जीना वैसा हो, जिससे अपना कल्याण सधे, जहाँ तक शक्य हो, परकल्याण भी सधे । "जी" वर्ण जीतने की ओर भी इंगित करता है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया तथा लोभ, ये आत्मा के अखूट खजाने को लूटने वाले डाकू हैं । प्रत्येक सत्त्वनिष्ठ व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह इन डाकुओं को जीते, पराभूत करे। वास्तव में इन पर विजय प्राप्त करना ही सच्ची विजय है , जिसके लिए बहुत बड़े आत्मबल की आवश्यकता है।। व-"व" वर्ण विनय, विनम्रता तथा वमन का द्योतक है। जीवन में विनय का बड़ा ऊँचा स्थान है । धर्म को विनयमूल कहा गया है । जिसमें विनय नहीं होता वह सही माने में धर्म का आचरण नहीं कर सकता। विनय जीवन में पवित्रता, शालीनता, शुचिता एवं मृदुता आदि अनेक गुणों का संचार करता है। वमन का अर्थ उलटी है । जो व्यक्ति उलटी कर उसी को खाने लगता है, वह कितना घिनौना व गंदा होता है, यह कोई कहने की बात नहीं। जिसमें जरा भी विवेक होता है, वह कभी भी वैसा नहीं करता । आध्यात्मिक दृष्टि से इसका तात्पर्य यह है कि जीव चौरासी लाख योनियों में अनन्त बार परिभ्रमण कर चुका । परिभ्रमण कर उनको छोड़ता गया। एक प्रकार से यह सभी योनियाँ उसके वमन Jain Education International For Private & Personal Use Only MUndelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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