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चतुर्थ खण्ड | १३६
जिस प्रकार, घाव पर दवा उतनी ही लगाई जाती है, जितनी जरूरत होती है, उसी प्रकार मुनि को उतनी ही भिक्षा लेनी चाहिए जितनी से भूख-प्यास आदि की शान्ति हो जाये। (इतनी कम भी न हो कि संयम साधना न हो सके, और इतनी अधिक भी नहीं कि संयमसाधना में व्यवधान पैदा कर दे ।) ७४
औषधि कितनी ही अच्छी हो, उसका प्रयोग नियत समय पर न किया जाये या गलत समय पर किया जाय तो लाभ के बजाय हानि भी हो सकती है, वैसे ही धर्मोपदेश का प्रयोग भी समय-समय देख कर करना चाहिए । ७५ रोग की मृदुभूत (मन्द) अवस्था में औषधि (कोई) लाभकारी होती है, वैसे ही संसारी जीव जब संसार भ्रमण करते-करते चरमपुद्गलावर्त (मन्द कषाय) या अपुनर्बन्धक की स्थिति पर पहुँच जाता है, तभी धर्मोपदेशऔषधि कारगर सिद्ध हो पाती है, अन्यथा गाढ व प्रचुर मिथ्यात्व के कारण धर्मोपदेश के प्रति द्वेष-भाव भी रह सकता है या अनुराग नहीं हो सकता है।
६. नारी-पुरुषप्रणय-दृष्टान्त जैन धर्म बाह्य क्रिया की अपेक्षा भावना को प्रधानता देता है। कोई स्त्री मन से पर-पुरूष में प्रासक्त हो, वह भले ही अपने पति की (बाह्य रूप में) सेवा करती हो, पापी ही कही जायगी। वैसे ही जिस (भिन्न-ग्रन्थि) साधक का मन मोक्ष-लक्ष्य या परमात्मतत्त्व के प्रति प्रासक्त हो गया है, वह भले ही सांसारिक प्रवत्ति में लग्न भी दिखाई दे, योगसाधक ही कहा जाएगा।
जैन परम्परा में मुक्ति को एक सर्वांगसुन्दर स्त्री के रूप में वर्णित किया गया है। उसके साथ सम्भोग/संयोग कराने वाला एकमात्र "धर्म" है। जिस प्रकार कामुक पुरुष को यदि कोई सुन्दर स्त्री दिखाई पड़ जाय तो वह सब काम-काज छोड़ कर उस स्त्री को ही एकटक निहारने लगता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि साधक का धर्म के प्रति स्वाभाविक अनुराग रहता है।८०
७. कपखननादि-दृष्टान्त जिन-पूजा में कुछ जीव-हिंसा भी होती है, इसलिए इसे करना उचित नहीं-ऐसी शंका/मान्यता को “कूपन्याय" (कूप-दृष्टान्त) से दूर करने का प्रयास किया गया है।"
जैसे कूप को खोदने में अत्यन्त परिश्रम करना पड़ता हैं, फिर भी लोग कमां खोदते हैं, क्योंकि कुआं खुद जाने पर उससे निकले जल से प्यास आदि की शान्ति ही नहीं, जीवनयात्रा का निर्वाह भी होता है। वैसे ही गृहस्थ द्वारा पूजा आदि करते समय कुछ जीव-हिंसा भी हो जाए तो भी वह करणीय होती है, क्योंकि जिन-पूजा से होने वाली भावों की निर्मलता पापकर्म का क्षय कर देती है । २
प्रा. हरिभद्र ने एक अन्य स्थल में श्रावकों के कुछ कार्यों को उक्त दृष्टान्त के माध्यम से उचित ठहराया है।
कपजल प्रणालिका-दष्टान्त के द्वारा एक स्थल पर उन्होंने भावना-प्रवाह को स्पष्ट किया है। जैसे कूए के भीतर भूमिवर्ती जल-प्रणालिका (पानी आने की नाली) द्वारा
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