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द्वितीय खण्ड / १८६ और तीव्र अभिलाषा की सहज अभिव्यक्ति यही थी कि उन्होंने महासतीजी के विषय में दिल्ली में बहुत कुछ सुन रखा था और तभी से वे ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में थीं कि उनके दर्शन हो सकें, उन्होंने उसी समय मेरे साथ जाकर उनके दर्शन का लाभ लिया । दूसरे दिन प्रातः श्री सेठीजी के साथ दर्शन कर चर्चा की । उस समय श्री सेठीजी का बहुत ही व्यस्त कार्यक्रम था। श्री सेठीजी चर्चा में उनसे बहुत ही प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी साधना में उनके बताये मार्ग पर चलने का प्रयत्न भी किया है।
दूसरा प्रसंग उज्जैन के मूक साधक एवं भैरवभक्त श्री गोविन्दप्रसादजी कुकरेती "डबराल बाबा" का है, जिनकी अहिंसक साधना से उज्जैन व देश के प्रायः सभी भागों के लोग अत्यन्त प्रभावित हैं और श्रद्धा रखते हैं एवम् जिनके सम्बन्ध में विशिष्ट समाचार-पत्र, पत्रिकाओं में इनकी साधना एवम् सिद्धि का चमत्कारी वर्णन आता ही रहता है।
जब इस अदभत साधक ने महासती श्री उमरावकंवरजी म. सा. के दर्शन किये तो सहज ही यह अभिव्यक्ति प्रकट की कि यह भगवती माँ महान् साधक है और मेरी साधना में "माँ भगवती" की तरह ही हमेशा से मुझे आशीर्वाद प्रदान कर रही है। सभी लोग इस बात से आश्चर्यचकित हैं और आज-कल ३ वर्ष से लगातार यह मूक व विनम्र साधक आज भी उन पर "माँ भगवती" की तरह श्रद्धा रखता है। जिस व्यक्ति को हर जगह का व्यक्ति हर समय साष्टांग प्रणाम करता है, वही व्यक्ति किस प्रकार माँ-स्वरूपा इस भगवती देवी से आशीर्वाद मांगे यह सचमुच में हम जैसे साधारण लोगों की समझ के बाहर ही है । उपरोक्त भक्त ने अपने गत वर्ष की नवरात्रि के प्रथम दिन विशिष्ट रूप से इस भगवती माँ का आशीर्वाद प्राप्त किया था और साधना के अन्तिम दिन भी सफलतापूर्वक साधना पूर्ण होने पर अपनी कृतज्ञता दर्शन कर प्रकट की थी। यह संतसंयोग अन्वेषणा का विषय है और इसमें कुछ भी आगे कहने में अपने आप को असमर्थ पाता हूँ। पाठक स्वयं ही निर्णय करें कि इस माँ भगवती की साधना क्या वास्तव में इतनी उच्चतम है ? अवश्य है।
तीसरा प्रसंग मेरी पत्नी से सम्बन्ध रखता है । वह उस समय यानि सन् १९८५ में महासतीजी के चातुर्मास के समय केन्सर से पीड़ित थी और उस समय उसे महासतीजी के दर्शन-लाभ का योग मिला। पीड़ा के स्थान पर जैसे ही महासतीजी ने अपना हाथ छुया वैसे ही एक विद्युतकंपन सा उसे लगा और पर्याप्त राहत का अनुभव हुआ । यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि बाद में वह बच न सकी, लेकिन उस प्रसंग को उसने कई लोगों के सामने कहा, जिसे भूल पाना असंभव है। __ऐसे अनेक प्रसंग महासतीजी के सुनने को मिलते हैं और इस सम्बन्ध में १-२ लोगों का यह कुतर्क भी सुनने को मिलता है कि एक साधक को अपनी साधना का आभास इस प्रकार नहीं देना चाहिए। इस सम्बन्ध में एक संत की यह बात कि गुलाब को अपनी सुगंध को बताने की जरूरत नहीं रहती है, यह तो उसकी एक सहज प्रकृति रहती है, जो भी उसके संपर्क में आयेगा वह बिना किसी भेद-भाव के
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