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________________ जैनदर्शन में तत्त्व-चिन्तन / १९५ विवक्षित हो, एक विशेष पदार्थ की अनेक अवस्थाओं की एकता या ध्रौव्य अपेक्षित हो, तब उस एकत्व अथवा ध्रौव्यसूचक अंश को ऊर्ध्वता-सामान्य कहा जाता है। जिस प्रकार द्रव्य या सामान्य दो प्रकार का है, उसी प्रकार पर्याय अथवा विशेष भी दो प्रकार का है। तिर्यक सामान्य के साथ रहने वाले जो विशेष विवक्षित हों वे तिर्यक्-विशेष हैं और ऊर्ध्वता सामान्याश्रित जो पर्याय हों वे ऊर्ध्वताविशेष हैं। द्रव्य के ऊर्ध्वता सामान्याश्रित पर्यायों को परिणाम भी कहा जाता है। भगवतीसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र में इस प्रकार के परिणामों का वर्णन है। विशेष और परिणाम दोनों द्रव्य के पर्याय हैं क्योंकि दोनों परिवर्तनशील हैं। परिणाम में काल-भेद की प्रधानता रहती है, जबकि विशेष में देश-भेद मुख्य होता है। जो काल की दृष्टि से परिणाम हैं, वे ही देश दृष्टि से विशेष हैं । इस प्रकार पर्याय, विशेष, परिणाम, उत्पाद और व्यय प्रायः एकार्थक हैं । द्रव्य की विविध अवस्थानों में इन सभी शब्दों का समावेश हो जाता है। द्रव्य और पर्याय का स्वरूप समझ लेने के बाद यह जानना भी आवश्यक है कि द्रव्य और पर्याय का सम्बन्ध क्या है ? द्रव्य और पर्याय भिन्न हैं या अभिन्न ? इस प्रश्न को सामने रखते हुए भगवतीसत्र में भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यों और भगवान महावीर के शिष्यों में हए एक विवाद का वर्णन है। पार्श्वनाथ के शिष्य यह कहते हैं कि उनके प्रतिपक्षी सामायिक का अर्थ नहीं जानते । महावीर के शिष्य उन्हें समझाते हैं कि "आत्मा ही सामायिक है। आत्मा ही सामायिक का अर्थ है।" यहाँ पर आत्मा एक द्रव्य है और सामायिक प्रात्मा की अवस्था विशेष है अर्थात पर्याय है। सामायिक प्रात्मा से भिन्न नहीं है अर्थात् पर्याय द्रव्य से भिन्न नहीं है। यह द्रव्य और पर्याय की अभेददृष्टि है । इस दृष्टि का समर्थन प्रापेक्षिक है। किसी अपेक्षा से आत्मा और सामायिक दोनों एक हैं, क्योंकि सामायिक आत्मा की ही एक अवस्था है-प्रात्मपर्याय है । अन्यत्र द्रव्य और पर्याय के भेद का भी समर्थन किया गया है। "पर्याय अस्थिर होने पर भी द्रव्य स्थिर रहता है", इस वाक्य से स्पष्ट भेद-दृष्टि झलकती है । यदि द्रव्य और पर्याय का सर्वथा अभेद होता तो पर्याय के नष्ट होते ही द्रव्य भी नष्ट हो जाता । इसका अर्थ यह है कि पर्याय ही द्रव्य नहीं है। द्रव्य और पर्याय कथंचित् भिन्न भी हैं । द्रव्य की पर्याय बदलती रहती है, किन्तु द्रव्य अपने आप में नहीं बदलता। द्रव्य का गुण कभी नष्ट नहीं होता, भले ही उसकी अवस्थाएं मिटती रहें और पैदा होती रहें। पर्याय-दृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के भेद का समर्थन किया जा सकता है और द्रव्य-दृष्टि की प्रधानता से द्रव्य और पर्याय के अभेद की पुष्टि की जा सकती है। दृष्टि-भेद से द्रव्य और पर्याय के भेद और अभेद की कल्पना करना ही भगवान महावीर को अभीष्ट था। इस प्रकार आत्मा और ज्ञान के विषय में भी भगवान् महावीर ने वही बात कही। ज्ञान प्रात्मा का एक गुण है। वह सदैव स्थिर रहता है किन्तु उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है। फिर भी ज्ञान की प्रात्मा से भिन्न स्वतंत्र सत्ता नहीं है । वह आत्मा का ही • एक अंश-विशेष है। इस दृष्टि से ज्ञान और आत्मा अभिन्न हैं । यदि आत्मा और ज्ञान में एकान्त अभेद होता तो उनमें गुण-गुणी भाव न होता। ऐसी अवस्था में अनेक धर्मात्मक अात्मा-द्रव्य की उपलब्धि न होती। यदि ज्ञान और प्रात्मा में एकान्त भेद होता तो एक व्यक्ति के ज्ञान और दूसरे व्यक्ति के ज्ञान में कोई अन्तर न होता। एक व्यक्ति के ज्ञान | धम्मो दीतो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only W inelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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