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प्रस्तावना
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स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव अन्य कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, अथवा अनुत्कृष्ट स्थितिका । अनुभागबन्धकी सन्निकर्षप्ररूपणामें यही विचार अनुभागको लेकर किया गया है कि अमुक कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव उसी समयमें अन्य दूसरे कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, या अनुष्कृष्ट ? प्रदेशबन्धकी सन्निकर्षप्ररूपणामें यह विचार किया गया है कि विवक्षितकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धको करनेवाला जीव उसी समय बंधनेवाले अन्य कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धको करता है, अथवा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धको करता है । इस प्रकार इस अनुयोगद्वारमें मूल और उत्तर प्रकृतियोंके चारों बन्धोंका सन्निकर्ष ओघ और आदेशसे बहुत विस्तारके साथ किया गया है।
(१६) नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय- इस अनुयोगद्वारमें नाना जीवोंकी अपेक्षा चारों प्रकारके बन्ध करनेवाले जीवोंके भंगोंका विचार किया गया है। जैसे प्रकृतिबन्धकी अपेक्षा विवक्षित किसी एक समयमें ज्ञानावरणादि कर्मोका बन्ध करने वाले अनेक जीव पाये जाते हैं और अनेक अबन्धक भी पाये जाते हैं । अर्थात् दशवें गुणस्थान तकके जीव तो ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोके बन्धकरूपसे सदा पाये जाते हैं, किन्तु ग्यारहवेंसे ऊपरके गुणस्थानवाले जीव उन कोक अबन्धक ही हैं। स्थितिबन्धकी अपेक्षा आठों कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला कदाचित् एक भी जीव नहीं पाया जाता । कदाचित् एक पाया जाता है और कदाचित् नाना पाये जाते हैं। इसी प्रकार कर्मोकी अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीव कदाचित् सब होते हैं, कदाचित् एक कम सब होते हैं और कदाचित् नाना होते हैं। इसलिए अबन्धकोंको मिलाकर इनके भंग इस प्रकार होते हैं- कदाचित् ज्ञानावरणकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिके सब अबन्धक होते हैं, कदाचित् बहुत जीव अबन्धक और एक जीव बन्धक होता है, कदाचित् अनेक जीव अबन्धक और अनेक जीव बन्धक होते हैं। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध करनेवाले जीवोंके भंगोंका विचार इस अनुयोगद्वारमें किया गया है। अनुभागबन्धकी अपेक्षा आठों कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागके कदाचित् सब जीव अबन्धक हैं, कदाचित् नाना जीव अबन्धक हैं और एक जीव बन्धक है । कदाचित् नाना जीव अबन्धक हैं और नाना जीव बन्धक हैं। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध करनेवाले जीवोंके भंगोंका भी विचार इस अनुयोगद्वारमें किया गया है। इसी प्रकार प्रदेशबन्धके संभव भंगोंको भी जानना चाहिए। इस प्रकार इस अनुयोगद्वारमें सभी मूल और उत्तर प्रकृतियोंके चारों प्रकारके बन्धोंके भंगोंका ओघ और आदेशसे बहुत विस्तारके साथ विचार किया गया है ।
(१७) भागाभागप्ररूपणा- इस अनुयोगद्वारमें विवक्षित कर्म-प्रकृतिके चारों प्रकारके बन्ध करनेवाले जीव सर्व जीवराशिके कितने भागप्रमाण हैं, और कितने भागप्रमाण जीव उसके अबन्धक है, इस प्रकारसे भाग और अभागका विचार किया गया है। जैसे प्रकृतिबन्धकी अपेक्षा
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