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छक्खंडागम
(८-११) सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रूव प्ररूपणा- कर्मका जो बन्ध एक वार होकर और फिर रुककर पुनः होता है, वह सादिबन्ध है । बन्धव्युच्छित्तिके पूर्वतक अनादिकालसे जिसका बन्ध होता चला आ रहा है, वह अनादिबन्ध कहलाता है । अभव्योंके निरन्तर होनेवाले बन्धको ध्रुवबन्ध कहते हैं और कभी कभी होनेवाले भव्योंके बन्धको अध्रुवबन्ध कहते हैं। कर्मोकी मूल और उत्तर प्रकृतियों से किस प्रकृतिके उक्त चारमेंसे कितने बन्ध होते हैं और कितने नहीं, इसका चारों बन्धोंकी अपेक्षा विस्तारसे विचार महाबन्धमें किया गया है ।
(१२) स्वामित्वप्ररूपणा- इस अनुयोगद्वारमें मूल और उत्तर प्रकृतियोंके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य बन्ध करनेवाले स्वामियोंका विस्तारसे विवेचन किया गया है ।
(१३) एकजीवकी अपेक्षा कालप्ररूपणा- इस अनुयोगद्वारमें एकजीवके विवक्षित कर्मप्रकृतिका, उसकी स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यरूप बन्ध लगातार कितनी देर तक होता रहता है, इसका गुणस्थान और मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा विस्तारसे विचार किया गया है। जैसे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और लगातार उत्कृष्ट बन्धका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्टबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल है । जघन्य स्थितिबन्ध जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। अजघन्य बन्धका अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त काल है ।
(१४) अन्तरप्ररूपणा- इस अनुयोगद्वारमें विवक्षित प्रकृतिका बन्ध होनेके अनन्तर पुनः कितने कालके पश्चात् फिर उसी विवक्षित प्रकृतिका बन्ध होता है, इस बन्धाभावरूप मध्यवर्ती कालका विचार किया गया है । जैसे मोहकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल है । मोहकर्मकी जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर सम्भव नहीं हैं; क्योंकि मोहनीयकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध क्षपकश्रेणीवाले जीवके नवें गुणस्थानमें होता है, उसका पुनः लौटकर सम्भव ही नहीं है । अजघन्य बन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इस प्रकार सभी मूल और उत्तर प्रकृतियोंको चारों प्रकारके बन्धोंके अन्तरकालकी प्ररूपणा ओघ और आदेशसे बहुत विस्तारके साथ की गई है ।
(१५) सन्निकर्षप्ररूपणा- विवक्षित किसी एक कर्मप्रकृतिका बन्ध करनेवाला जीव उसके सिवाय अन्य कौन-कौनसी प्रकृतियोंका बन्ध करता है और किस-किस प्रकृतिका बन्ध नहीं करता, इस बातका विचार प्रकृतिबन्धकी सन्निकर्षप्ररूपणामें किया गया है। इसी प्रकार स्थितिबन्धकी सन्निकर्षनरूपणामें इस बातका विचार किया गया है कि किसी एक कर्मकी उत्कृष्ट
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