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छक्खंडागम है। इस अनुयोगद्वारमें आठों मूल कर्मों और उनकी उत्तर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितियोंका, उनके अबाधाकालों और निषेककालोंका बहुत विस्तारसे निरूपण किया गया है ।
___ अनुभागबन्धकी प्ररूपणा करनेवाले चौवीस अनुयोगद्वारों से पहला अनुयोगद्वार संज्ञाप्ररूपणा है। इस अनुयोगद्वारमें कर्मोंके स्वभाव, शक्ति या गुणके अनुसार विशिष्ट संज्ञा ( नाम ) रखकर उनके अनुभागका विचार किया गया है । संज्ञाके दो भेद हैं-- घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । घातिसंज्ञामें कर्मोके अनुभागका सर्वघाती और देशघातीके रूपसे विचार किया गया है। स्थानसंज्ञामें कर्मोके अनुभागका लता, दारु, अस्थि और शैल इन चार प्रकारके स्थानोंसे विचार किया गया है।
प्रदेशबन्धकी प्ररूपणामें चौवीस अनुयोगद्वारोंके क्रमानुसार पहला अनुयोगद्वार स्थानप्ररूपणा नामका है । इसके दो भेद किये गये हैं- योगस्थानप्ररूपणा और प्रदेशबन्धप्ररूपणा । योगस्थानप्ररूपणामें पहले उत्कृष्ट और जघन्य योगस्थानोंका चौदह जीवसमासोंके आश्रयसे अल्पबहुत्व कहा गया है। तत्पश्चात् प्रदेशअल्पबहुत्वका विचार अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व इन दश अनुयोगद्वारोंके द्वारा विस्तारसे किया गया है ।
भागाभागप्ररूपणा नामक अनुयोगद्वार चौबीसों अनुयोगद्वारोंमें यद्यपि सत्रहवां हैं, तथापि आ. भूतबलिने प्रदेशबन्धकी प्ररूपणामें कमोंके भागाभागका विचार सबसे पहले किया है। इसका कारण यह रहा है कि बन्धके समयमें आनेवाले कर्मपरमाणुओंके विभाजनका ही नाम प्रदेशबन्ध है। उसके जाने विना आगेके अनुयोगद्वारोंका यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता था, अतः आचार्यने उसकी प्ररूपणा करना पहले आवश्यक समझा है।
भागाभागप्ररूपणामें बतलाया गया है कि यदि किसी जीवके विवक्षित समयमें आठों कर्मोंका बन्ध हो रहा है, तो उस समयमें जितने कर्मपरमाणु आयेंगे, उनमेंसे आयुकर्मको सबसे कम भाग मिलता है, क्योंकि आयुकर्मका स्थितिबन्ध अन्यकर्मोकी अपेक्षा सबसे कम है। आयुकर्मकी अपेक्षा नाम और गोत्र कर्मको विशेष अधिक भाग मिलता है। उनसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मको विशेष अधिक भाग मिलता है और उनसे मोहनीय कर्मको विशेष अधिक भाग मिलता है। यतः इन सब कोका स्थितिबन्ध उत्तरोत्तर अधिक है। अतः प्रदेशोंका विभाग भी उत्तरोत्तर अधिक प्राप्त होता है। मोहनीयकमसे अधिक भाग वेदनीयकर्मको मिलता है, हालां कि उसका स्थितिबन्ध मोहनीयकी अपेक्षा कम है । इसका कारण यह बतलाया गया है कि वह जीवोंके सुख और दुःखमें कारण पड़ता है। इसलिए उसकी निर्जरा बहुत होती है। यदि वेदनीयकर्म न हो, तो सब कर्म जीवको सुख और दुःख उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हैं, इसलिए
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