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प्रस्तावना
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यहां इतना और भी जान लेना चाहिए कि आ० भूतबलिने इन्हीं चौवीस अनुयोगद्वारोंसे स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका भी वर्णन किया है। केवल पहले प्रकृतिसमुत्कीर्तन अनुयोगद्वारके स्थानपर स्थितिबन्धकी प्ररूपणामें अद्धाच्छेद और अनुभागबन्धकी प्ररूपणामें संज्ञा नामक अनुयोगद्वारको कहा है। इसी प्रकार चौवीसों अनुयोगद्वारोंसे स्थितिबन्धकी प्ररूपणा करनेके पश्चात् भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा भी उसका वर्णन किया है । तथा उक्त चौवीस अनुयोगद्वारोंसे अनुभागबन्धकी प्ररूपणा करनेके पश्चात् भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान इन चार अनुयोगद्वारोंके द्वारा भी अनुभागबन्धका वर्णन किया गया है। प्रदेशबन्धकी प्ररूपणा भी उक्त चौवीस अनुयोगद्वारोंसे की गई है। केवल पहले अनुयोगद्वारके स्थानपर स्थान नामका अनुयोगद्वार कहा है और अन्तमें भुजाकार, पदनिक्षेप, वृद्धि, अध्यवसानसमुदाहार और जीवसमुदाहार इन पांच और भी अनुयोगद्वारोंसे प्रदेशबन्धका निरूपण किया गया है। यहां इतना और विशेष ज्ञातव्य है कि प्रदेशबन्धमें भागाभागका कथन मध्यमें न करके प्रारम्भमें ही किया गया है।
चारों प्रकारके बन्धोंका पृथक्-पृथक् चौबीसों अनुयोगद्वारोंसे वर्णन करनेपर बहुत विस्तार हो जायगा, इसलिए सभी बन्धोंका एक साथ ही संक्षेपसे स्वरूप-निरूपण किया जाता है।
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन- इस अनुयोगद्वारमें मूल प्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या बतलाई गई है। यथा- मूल कर्म आठ है- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनकी उत्तर प्रकृतियां क्रमशः पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, व्यालीस, दो और पांच हैं । ज्ञानावरणकी पांचों प्रकृतियोंका ठीक उसी प्रकारसे विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, जिस प्रकारसे कि वर्गणाखण्डके अन्तर्गत प्रकृति अनुयोगद्वारमें है। शेष कर्मोकी प्रकृतियोंकी संख्याका महाबन्धमें निर्देश मात्र ही है, जब कि प्रकृति अनुयोगद्वारमें प्रत्येक कर्मकी सभी प्रकृतियोंको पृथक्-पृथक् गिनाया गया है । यतः आ० भूतबलि प्रकृति-अनुयोगद्वारमें उक्त वर्णन विस्तारसे कर आये है, अतः यहांपर 'यथा पगदिभंगो तथा कादव्यो' कह कर .उन्होंने इस अनुयोगद्वारको समाप्त कर दिया है।
___ स्थितिबन्धकी प्ररूपणामें पहला अनुयोगद्वार अद्धाच्छेद है। अद्धा अर्थात् कर्मस्थितिरूप कालका अबाधासहित और अबाधारहित कर्म-निषेकरूपसे छेद अर्थात् विभागरूप वर्णन इस अनुयोगद्वारमें किया गया है। एक समयमें बंधनेवाले कर्मपिण्डकी जितनी स्थिति होती है, उसमें अबाधाकालके बाद की स्थितिमें ही निषेक रचना होती है। आयुकर्म इसमें अपवाद है, उसकी जितनी स्थिति बंधती है, उसमें ही निषेक रचना होती है। उसका अबाधाकाल तो पूर्व भवकी भुज्यमान आयुमें ही होता है, अतः बध्यमान आयुकी पूरी स्थितिप्रमाण निषेक रचना कही गई
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