Book Title: Kalyankarak
Author(s): Ugradityacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govind Raoji Doshi Solapur
Catalog link: https://jainqq.org/explore/001938/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - सखाराम नेमचंद ग्रंथमाला पुष्प १२९ - - - श्रीउग्रादित्याचार्यकृत ★ कल्याणकारक. ★ ( राष्ट्रभाषानुवादसहित ) - -- - संपादक व अनुवादक ----- श्री. पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, ( विद्यावाचस्पति न्यायकाव्यतीर्थ ) संपादक जैन धक व वीरवाणी, सोलापुर. - प्रकाशकश्री. सेठ गोविंदजी रावजी दोशी, सोलापुर. प्रथमावृत्ति १००० । वीर संवत् २४६६ सन् १९४० मूल्य दस रुपये Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकश्री. सेठ गोविंदजी रावजी दोशी, सग्वाराम नेमचंद ग्रंथमाला सोलापुर. सर्वाधिकार सुरक्षित है ! - - मुद्रकपं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, कल्याण पॉवर प्रिंटिंग प्रेस, सोलापुर. For Private & Personal use only. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAKHARAM NEMCHAND GRANTHAMALA No. 129 THE KALYANA-KARĀKAM OF UGRADITYACHARYA WITH INTRODUCTION, TRANSLATION, NOTES, INDEXES & DICTIONARY Edited EDITOR:-JAIN BODHAK & VARDHAMAN PARSHWANATH SHASTRI VIDYAWACHASPATI, NYAYA KAVYA-TIRTHA by SETI VEERAWANI SHOLAPUR. Published by GOVINDJI RAOJI DOSIII SAKHARAM NEMCHAND GRANTHAMALA SHOLAPUR. 1940 PRICE RS. TEN ONLY. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by SETH GOVINDJI RAOJI DOSUI SAKHARAM NEMCHAND GRANTHAMALA SHOLAPUR All Rights are Reserved. Printed by V. P. SIIASTRI. PROPRIETOR KALYAN POWER PRINTING PRESS SUOLAPUR Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Recene प्रकाशक के दो शब्द, learn EFINIRALA lme P ara मेरे परमपूज्य स्वर्गीय धर्मवीर पिताजीकी बडी इच्छा थी कि यह ग्रंथ शीघ्र प्रकाश में आकर आयुर्वेद जगत् का उपकार हो । परंतु यमराज की निष्ठुरता से उनकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी । अतः यह कार्य मेरी तरफ आया। उनकी स्मृति में इसका प्रकाशन किया जा रहा है । आशा है कि स्वर्ग में उनकी आत्मा को संतोष होगा । ____श्री. विद्यावाचस्पति पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने इस ग्रंथ का संपादन व अनुवादन किया है। श्री. आयुर्वेदाचार्य पं. अनंतराजेंद्र व वैद्य बिंदुमाधवने संशोधन करने का कष्ट किया है । विस्तृत प्रस्तावना के सुयोग्य लेखक वैद्यपंचानन पं. गंगाधर गुणे शास्त्री हैं । इन सबका मैं आभारी हूं । इसके अलावा जिन धर्मात्मा सज्जनोंने आर्थिक सहयोग दिया है, उनका भी मैं कृतज्ञ हूं। यदि आयुर्वेद प्रेमी विद्वानोंने इस ग्रंथ का उपयोग कर रोगपीडितों को लाभ पहुंचाया तो सबका परिश्रम सफल होगा । इति. गोविंदजी रावजी दोशी. सोलापुर. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + PII समपण. /II/IIIII AUTHORITISHALIMIMAR! T ODAAINA. IMALAMUAAIIAणा IMERUM श्री धर्मवीर, दानवीर, जिनवाणीभूषण, विद्याभूषण, सेठ रावजी सखाराम दोशी. धर्मवीर ! ___ आपने अपने जीवन को जैनधर्म की प्रभावमा, जैनसाहित्य की सेवा व जैनसाधुवोंकी सुश्रूषा में लगाया था । आप वर्तमानयुगके महान् धार्मिक नेता थे । आपके ही आंतरिक सत्प्रयत्न से इस महान् ग्रंथ का उद्धार हुआ है । इस का आस्वाद लेनेकी अभिलाषा अंतिम घडीतक आपके मन में लगी थी। परंतु आप अकस्मात् स्वर्गीय विभूति बन गए । इसलिए आपके द्वारा प्रेरित, आपके ही सहयोग से संपादित, आपकी इस चीज को आपको ही समर्पण कर देता हूं, जिससे मैं आप के अनंत उपकारोंसे उऋण हो सकूँ । इति. गुणानुरक्त-- वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री. संपादक. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कल्याणकारक वैद्यक-ग्रंथ की प्रस्तावना. आयुर्वेद अर्थात् जीवनशास्त्रकी उत्पत्ति के संबंध में कोई निश्चित काल नहीं कहा जासकता है । कारण कि जहां से प्राणियों के जीवन का संबंध है वहींसे आयुर्वेद की भी आवश्यकता होती है। समाजके या प्राणिमात्र के धारण-पोषणके लिए इस शास्त्रकी परम आवश्यकता होनेसे चार आदमियोंने एकत्रित होकर जहां समाज बनाया यहां पर आयुर्वेदके स्थूल सिद्धांतों के संबंध में विचार-विनिमय होने लगते हैं। बिलकुल अशिक्षित दशा में पडा हुआ समाज भी अपने समाजके रोगियों की परिचर्या या चिकित्साकी व्यवस्था किसी हद तक करता है । प्रायशः इन समाजों में देवपूजा करने वाले या मंत्रतंत्र करनेवाले उपाध्याय ही चिकित्सा भी करता है। आज भी ऐसे अनेक अशिक्षित [ गांवडे ] समाज उपलब्ध है जिनकी चिकित्सा ये पुरोहित ही करते हैं । (इन सब बातों का सविस्तर उल्लेख स्पेन्सर कृत ' नीतिशास्त्र' व Nights of Toil नामक पुस्तकमें है ) इस अवस्थामें चिकित्साशास्त्रकी शास्त्रीयदृष्टिसे विशेष उन्नति नहीं हो पाती है । केवल चार आदमियों के अनुभव से, दो चार निश्चित बातों के आधार से चिकित्सा होती है व वही चिकित्सापद्धति एक चिकित्सकसे दूसरे चिकित्सक को मालुम होकर समाज में रूढ हो जाती है । समाज की जैसी जैसी उन्नति होती है उसी प्रकार अन्य शास्त्रों के समान चिकित्साशास्त्र या आयुर्वेदशास्त्र की भी उन्नति होती है । बुद्धिमान व प्रतिभाशाली वैद्य इस चिकित्सापरंपरामें अपने बुद्धिकौशल से कुछ विशेषताको उत्पन्न करते हैं । क्रमशः आयुर्वेद बढ़ता रहता है। साथ में आयुर्वेद शास्त्र के गूढतत्वों को निकालने व शोधन करने का कार्य सत्वबुद्धियुक्त संशोधक विद्वान् करते हैं । इस प्रकार बढते बढते यह विषय केवल श्रुति में न रहकर इनकी संहिता बनने लगती है । वैदिककाल के पूर्व भी ऐसी सुसंगत संहिताओं की उपलब्धि थी यह बात संहिता शब्दसे ही स्पष्ट होजाती है। वेद या आगमके कालमें भी आयुर्वेदका सुसंगत परिचय उपलब्ध था। ऋग्वेद इस भूमंडलका सबसे प्राचीन लिखित ग्रंथ माना जाता है। उसमें अनेक प्रकारकी शस्त्रक्रिया, नानाप्रकार की दिव्यऔषधि, मणि, रत्न व त्रिधातु आदि का उल्लेख मिलता है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) - चन्द्रमाको लगे हुए क्षय की चिकित्सा अश्विनौ देवोंने अपने चिकित्सासामर्थ्यसे की, इस का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है । च्यवनऋषीकी कथा पुनयौवनत्व प्राप्त करदेनेवाले योग का समर्थक है । ऋग्वेदकी अपेक्षा भी अथर्ववेद में प्रार्थना व सूक्तोंके बजाय मणिमंत्र औषधि आदि का ही विचार अधिक है । अथर्ववेद में वशीकरण विधान समंत्रक व निमंत्रकरूप से किया गया है । इसी प्रकार किसी किसी औषधि के संबंध में कौनसे रोगपर किस औषधि के साथ संयुक्त कर देना चाहिए, इस का उल्लेख जगह जगह पर मिलता है । औषधि गुण-धर्मका उगमस्थान यही मिलता है । भिन्न २ अवयवों के नाम अथर्ववेद में मिलते हैं । अथर्ववेद आयुर्वेद का मुख्य वेद गिना जाता है, अर्थात् आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। यजुर्वेद में यज्ञ-यागादिक की प्रक्रिया वर्णित है । उस में यज्ञीय पशुओं को प्राप्त कर उन २ विशिष्ट अवयवों के समंत्रक हवन का वर्णन किया गया है । यजुर्वेद ब्राह्मण व आरण्यकों में विशेषतः ऐतरेय ब्राह्मणों में शारीरिक संज्ञा बहुत से स्थानपर आगई है । वैदिकवाड्मय का प्रसार जिस प्रकार होता गया. उसी प्रकार भिन्न भिन्न विषयों का ग्रंथसंग्रह भी बढने लगा। इसी समय आयुर्वेद का स्वतंत्र ग्रंथ या संहिताशास्त्र का अग्निवेशादिकों ने निर्माण किया । जैनागमों का विशेषतः विस्तार इसी काल में हुआ एवं उन्होंने भी आयुर्वेद-संहिताका निर्माण इसी समय किया । कल्याणकारक ग्रंथ, उसकी भाषा, विषयवर्णनशैली, तत्वप्रणाली इत्यादि विचारों से वह वाग्भट के नंतर का ग्रंथ होगा यह अनुमान किया जासकता है । परन्तु अग्निवेश, जतुकर्ण, क्षारप्राणी, भेल, पाराशर, इन की संहितायें अत्यंत प्राचीन हैं | इनमें से अग्निवेशसंहिता को दृढबल व चरकने संस्कृत कर व बढाकर आज जगत् के सामने रखखा है । यह ग्रंथ आज चरकसंहिता के नाम से प्रसिद्ध है । चरकसंहिता की भाषा अनेक स्थानों में औपनिषदिक भाषासे मिलती जुलती है । इस चरक का काल इसवी सन् के पूर्व हजार से डेढ हजार वर्षपर्यंत होना चाहिये इस प्रकार विद्वानों का तर्क है । चरक की संहिता तत्कालीन वैद्यक का सुंदर नमूना है। चरकसंहिता में अग्निवेश का भाग कितना है, दृढबल का भाग कितना है और स्वतः चरक का अंश कितना है यह समझना कठिन है । १जैनाचार्यों के मतसे द्वादशांग शास्त्र में जो दृष्टिवाद नाम का जो बारहवां अंग है। उसके पांच भेदों में से एक भेद पूर्व ( पूर्वगत ) है। उसका भी चौदह भेद है। इन भेदों में जो प्राणावाद पूर्वशास्त्र है उसमें विस्तारके साथ अष्टांगायुर्वेदका कथन किया है। यही आयुर्वेद शास्त्रका मूलशास्त्र अथवा मूलवेद है। उसी वेद के अनुसार ही सभी आचायोंने आयुर्वेद शास्त्र का निर्माण किया है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) फिर भी प्रथम अध्याय के न्यायवैशेषिक तत्व का समावेश, ग्यारहवें अध्याय के तीन एषणाका कथन कर, उस की सिद्धि के लिए प्रमाणसिद्धि का भाग, आत्रेय भद्रकालीय अध्याय के क्षणभंगी न्याय, इन भागों को चरकाने प्रतिसंस्कार किया तब समावेश किया मालुम होता है । कारण कि वैदिक व औपनिषदिक काल में न्यायवैशेषिकों का उदय नहीं हुआ था, और बौद्धों का उदय तो प्रसिद्ध ही है । चरकसंहिता ग्रंथ विशेषतः कायचिकित्सा - विषयक है । उस के सर्व भागों में इसी विषय का प्रतिपादन है । चिकित्सा का तात्विक विषय व प्रत्यक्ष कर्म का ऊहापोह बहुत अच्छी तरह चरकने किया है । कल्याणकारक ग्रंथ का चिकित्साविषय मधु, मद्य, मांस के भागको छोडकर बहुत अंश में चरक से मिलता जुलता है । शल्यचिकित्सा आयुर्वेद के अंगोंमें एक मुख्य अंग है । शल्यचिकित्सा का प्रतिपादन व्यवस्थित व शास्त्रीयपद्धती से सुश्रुताचार्य ने किया है । इस से पहिले भी उपधेनु, उम्र, पुष्कलावत आदि सज्जनों के शल्यतंत्र ( Treatises on Surgery ) बहुतसे थे । परन्तु सब को व्यवस्थित संग्रह करने का श्रेय सुश्रुताचार्य को ही मिल सकता है । सुश्रुतने अपने ग्रंथ में शवच्छेदन से लेकर सर्व प्रत्यक्ष - शरीर का परिज्ञान करने के संबंध में काफी प्रकाश डाला है । शल्यतंत्रकारने अर्थात् वैद्य ने " पाटयित्वा मृतं सम्यक् " शरीरज्ञान प्राप्त करें, इस प्रकार का दण्डकसूत्र का सुश्रुतने अपनी संहिता में प्रतिपादन किया है । सुश्रुत के पहिले व तत्समय में अनेक तंत्र ग्रंथकार हुए हैं। जिन्होंने शरीरज्ञान के लिए विशेष प्रयत्न किया था । ऐसे ही ग्रंथकारों के प्रयत्न से शरीरज्ञान का निर्माण हुआ है । सौश्रुत-शारीर का अनुवाद आगे के अनेक ग्रंथकारों ने किया है । सुश्रुतशारीर कायचिकित्सक व शस्त्र चिकित्सक के लिए उपयोगी है । सुश्रुत इस शारीर के आधार पर शल्यतंत्र का निर्माण कर उसका विस्तार किया है । अनेक प्रकार के शस्त्र, यंत्र, अनुयंत्र, आदि का वर्णन सुश्रुत ग्रंथ में मिलता है । अष्टविध शस्त्रकर्म किस प्रकार करना चाहिए. व पश्चात् कर्म किस प्रकार करना चाहिए आदि बातों का ऊहापोह इस संहिता में किया गया है । शस्त्र क्रिया के पहिले की क्रिया व शस्त्रक्रिया के बाद की व्रणरोपणादि क्रियाओं का जिस उत्तम पद्धति से वर्णन किया गया है, उस में आधुनिक शस्त्रविद्या प्रवीण विद्वानों को भी बहुत कुछ सीखने लायक है । और शस्त्रकर्म प्रवीण पाश्चात्य वैद्योंने सुश्रुतकी पद्धतिको Indian Methods के नामसे लिया भी हैं । सुश्रुतसंहिता में छोटी छोटी शस्त्रक्रियाओं का ही वर्णन नहीं अपितु कोष्ठपाटनादि बडी बडी शस्त्रक्रियाओं का भी प्रतिपादन है । बद्धगुदोदर, अश्मरी, आंत्रवृद्धि, भगंदर आदि पर शस्त्रक्रियाओं का ठीक आधुनिक पद्धति से ही जो वर्णन 1 --- Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) - - उस में मिलता है, उसे देखकर मन दंग रहता है । मूढगर्भ व शल्यहरण के भिन्न २ विधानोंका वर्णन है, इतना ही नहीं, पेट को चीरकर बच्चेको बाहर निकालना व फिरसे उस गर्भाशय को सीकर सुरक्षित करने का कटिन विधान भी सुश्रत में है । नेत्ररोग के प्रति ही अनेक प्रकार के शस्त्रकर्मों का विधान सुश्रुतने बहुत अच्छी तरह से किया है । कल्याणकारक ग्रंथ में शस्त्रकर्म का बहुतसा भाग आया है। अष्टविधशस्त्रकर्म व उन के विधान भी कल्याणकारक में सुव्यवस्थितरूपसे वर्णित है । शस्त्रचिकित्सा अत्यंत उपयोगी चिकित्सा होने से महाभारतादि ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है । भीष्म जिस समय शरपंजर में पडा था, उस समय शल्योद्धरण-कोविदों को बुलाने का उल्लेख महाभारत में है । सारांश है कि आयुर्वेद में शल्यचिकित्सा बहुत उत्तम पद्धति से दी गई है एवं उस का प्रचार प्रत्यक्ष व्यवहार में इस भारत में कुछ समय पूर्वतक बराबर था । जैनाचार्योंने खासकर कल्याणकारककर्ताने शल्यतंत्रका वर्णन अपने ग्रंथ में अच्छीतरह किया है । परन्तु कायचिकित्साके सम्बन्धमें अधिकरूपसे रस शास्त्रोंका उपयोग व उसकी प्रथा इन्ही जैनशास्त्रकारोंने डाल दी है । चरक, मुश्रुत के समय में वनस्पति व प्राण्यंग को औषधिके रूपमें बहुत उपयोग करते थे। परन्तु यह प्रथा अनेक कारणांसे पीछे पडकर रस, लोह ( Metals) उपधातु, [ गंधक, माक्षिकादि ] व वनस्पतिक कल्प चिकित्सा में अधिक रूपसे उपयोग में आने लगे, और शल्यतंत्र धीरे धीरे पीछे पडने लगा। ___ यवनोंके आक्रमणपर्यंत आयुर्वेद का परिपोष बराबर बना था । आर्य, जैन व बौद्ध मुनियों ने इस के आठो ही अंगों के संरक्षण के लिए काफी प्रयत्न किया। परन्तु यावनी आक्रमण के बाद वह कार्य नहीं हो सका । इतना ही नहीं, बडे २ विद्यापीठ व अग्रहारोंके ग्रंथालयोंको विध्वंस करने में भी यवनोंने कोई कमी नहीं रखखी । इतिहासप्रसिद्ध अल्लाऊद्दीन खिलजी जिस समय दक्षिण पर चढाई करते हुए आया था, उस समय अनेक पुस्तकालयों को जलाने का उल्लेख इतिहास में मिलता है । आयुर्वेदशास्त्र को व्यवस्थितरूप से बढ़ने के लिए जिस मानसिक-शांति की आवश्यकता होती है, वह इस के बाद के सहस्रक में विद्वानोंको नहीं मिली। कोई फुटकर निबंधग्रंथ अथवा संग्रहग्रंथ इस काल में लिखे गए । परन्तु उन में कोई नवीनता नहीं है। यह जो आघात आयुर्वेद पर हुआ उसकी सुधारणा विशेषतः मराठेशाही में भी नहीं हो सकी । और उस के बाद के राजावों को तो अपने स्वतः के सिंहासन को सम्हालते सम्हालते ही हैरान होना पडा । और आखेर के राजाओंने तो पलायन ही किया। इस प्रकार इस भारतीय आयुर्वेद के उद्धार के लिए राज्याश्रय नहीं मिला। हां! नहीं कहने के लिए श्रीमंत Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) - - नाना साहेब पेशवे ने अपने शासन में एक हकीम व एक गुर्जर वैद्य को थोडा वर्षासन: देने का उल्लेख मिलता है। यह सहायता शास्त्रसंवर्धन की दृष्टि से न कुछ के बराबर थी । चंद्रगुप्त व अशोक के काल में उन्होंने अपने राज्य में जगह २ पर रुग्णालय व बडे २ औषधालयों का निर्माण कराया था। इसीलिए उस समय अष्टांग आयुर्वेद की अत्यंत उन्नति हुई । काय, बाल, ग्रह, ऊर्ध्वाग, शल्य, दंष्ट्रा, जरा व वृष, इस प्रकार आठ अंगों से चिकित्सा का वर्णन आयुर्वेद में किया गया है। कल्याणकारक ग्रंथ में भी इन आठ अंगों से चिकित्साका प्रतिपादन किया गया है। कायचिकित्सा-संपूर्ण धातुक शरीर की चिकित्सा ! बालचिकित्सा---- बालकों के रोग की चिकित्सा । ग्रहचिकित्सा- इस का अर्थ अनेक प्रकार से हो सकता है । परन्तु वे सर्व रोग सहस्रार व नाडीचक्र में दोषोत्पन्न होने से होते हैं। ऊोगचिकित्सा-इसे शालाक्यचिकित्सा भी कहते हैं। नाक, कान, गला, आंख, इन के रोगों की चिकित्सा ऊवांगचिकित्सा कहलाती है । शल्यचिकित्सा-शस्त्रास्त्रों से की जानेवाली चिकित्सा जिसका वर्णन ऊपर कर चुके हैं। दंष्ट्राचिकित्सा-इस के दो भाग हैं। [१] सर्पादि विषजंतुओं के द्वारा दंष्ट्र होनेपर उसपर कीजानेवाली चिकित्सा । [२] स्थावर, जंगम विष के किसी प्रकार शरीर में प्रवेश होनेपर कीजानेवाली चिकित्सा। जराचिकित्सा-पुनयौवन प्राप्त करने के लिए की जानेवाली चिकित्सा । इसे ही रसायनचिकित्सा के नाम से कहते हैं । वृषचिकित्सा-का अर्थ वाजीकरण चिकित्सा है। इन चिकित्सांगोंका सांगोपांगवर्णन कल्याणकारकमें विस्तारके साथ आया है। अतएव उसके संबंध में यहांपर विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं । मुख्य प्रश्न यह है कि आयुर्वेद की चिकित्सापद्धति किस तत्वके आधार पर अवलंबित है ? किसी भी वैद्यक को लिया तो भी उसके मूल में यह उपपत्ति अवश्य रहेगी कि शरीर सुस्थिति में किस प्रकार चलता है, और रोग के होनेपर उसकी अव्यवस्थिति किस प्रकार होती है ? आज ही नाना प्रकार के वैद्यकोंकी उपलब्धि इस भूमंडलपर हुई हो यह बात नहीं, अपितु बहुत प्राचीन काल से ही अनेक वैद्यकपंथ विद्यमान थे। शरीर त्रिधातुओं से बना हुआ है और उस में दोष, धातु व मलमूल है । [ दोषधातुमलमूलं हि शरीरम् ] त्रिधातु शरीर के धारण पोषण करते हैं। वे समस्थिति में रहें तो शरीर में स्वास्थ्य बना रहता है। एवं उनका वैषम्य होनेपर शरीर बिगडने लगता है । " य एव देहस्य समा विवृध्यै १ यह चंद्रगुप्त जैनधर्म का उपासक था। जैनाचार्य भद्रबाहु का परमभक्त था। जैनधर्म में कथित उत्कृष्ट महाव्रतको धारण कर उसने संन्यास ग्रहण किया था। See. Inscriptions of Shravanbelgola. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) त एवं दोषा विषमा वधाय"। त्रिधातु अत्यंत सूक्ष्म होकर व्यापी हैं। शरीर के अनेक मंडलों में वह व्याप्त होकर रहते हैं । अवयवों में व्याप्त हैं, घटक में व्याप्त हैं । और परमाणु में भी उन की व्याप्ति है। उन के भिन्न २ स्थान हैं। उन के कार्य शरीर में रात्रिंदिन चालू ही रहते हैं । यद्यपि उन का नाम वायु, पित्त व कफ है । तथापि कुछ वैद्यक ग्रंथोंमें खासकर भेलसंहितामें वे " प्रतिमूलधातु" के नाम से कहे - वात, पित्त व कफ के स्थान व कार्योंका सविस्तर वर्णन कल्याणकारक ग्रंथ में है। वात, पित्त व कफ यह त्रिधातु जीवन के मूल आधारभूत हैं । किसी भी प्राणी के शरीर में इनका अस्तित्व अनिवार्य है । बिलकुल सूक्ष्मशरीरी प्राणी को भी देखें तो मालुम होगा कि उसके श्लेष्मभय शरीर में जल का अंश रहता ही है । वह अपने आहार को ग्रहण कर उसका पचन करते हुए अपने शरीर की वृद्धि करता ही है । यह कार्य उस के शरीर में स्थित पित्त धातु के कारणसे होता है। इतना ही क्यों ? अत्यंतात्यंत सूक्ष्मशरीर में भी यह सर्व व्यापार होते रहते हैं। और उस में सप्तधातुओंमें से रसधातु विद्यमान रहता है। आगे जैसे जैसे वह प्राणी अनेकावयवी बनता है तब उसका शारीरिकव्यापार भी बढता जाता है । . प्राण्यंग जैसे जैसे बढता जाता है वैसे ही उस में प्रतिमूलधातु किंवा स्थूल धातु अधिकाधिक श्रेणी से उपलब्ध होता है, किन्ही प्राणियोंमें रस व रक्त यही धातु मिलते हैं। किन्हीमें रस, रक्त व मांस और किन्हीमें रस, रक्त, मांस, अस्थि, मजा व शुक्र ऐसे धातु रहते हैं । प्रतिमूल धातु किंवा सप्तधातु-स्थूल धातुवोंमें कोई भी धातु प्राण्यंग में रहे या न रहे परंतु त्रिधातु तो अवश्य रहते ही हैं। वे तीनों ही रहते हैं। तीनोंकी सहायता से शारीरिक व्यापार चलता है । मानवीय शरीर में अत्यंत प्रकृष्ट धातुक शरीर रहने पर प्रतिमूल धातु रहते हैं। ओजसदृश (धातुसार-तेज ) भी रहते हैं । परंतु इन सबके मूल में त्रिधातु रहते हैं । ___मानवीय शरीर में विधातुवोंका भिन्न भिन्न स्थान व कार्य मौजूद है। इन पदार्थोके गुण भिन्न २ हैं । वायु शरीर के भिन्न २ अवयवसमूहोंमें कार्य करनेवाला है। इसी प्रकार पित्त व कफ भी हैं। यह भी सर्व शरीरभर एक ही न होकर भिन्न २ प्रकार के समुच्चयरूप हैं। उनकी जाति एक, परंतु आकार भिन्न है । स्थूल, सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म इस प्रकार उनके स्वरूप हैं । त्रिधातुवोंका व्यापार शारीरिक व मानसिक ऐसे दो प्रकार से होता है। मन के सत्व, रज व तम इन त्रिगुणोंपर वायु, पित्त व कफ का परिणाम होता है । मानसिक व्यापारोंका नियंत्रण त्रिधातुवोंके कारण से होता है । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (?) अवयवोंसे बने हुए पचन श्वसनादि मंडलो में त्रिधातु रहते हैं । अत्रयवोमें, उनके घटकोमें, घटक परमाणु त्रिधातुवोंकी व्याप्ति रहती है । इसलिए उनको व्यापी कहा है । व्यापी रहते हुए भी उनके विशिष्ट स्थान व कार्य हैं । सचेतन, सेंद्रिय, अतींद्रिय, अतिसूक्ष्म व बहुत परमाणुत्रों के समूह से इस जीवंत देह का निर्माण होता है । परमाणु अतिसूक्ष्म होकर इस शरीर में अब्जावधिप्रमाण से रहते हैं । एक गणितशास्त्रकारने इनकी संख्या को तीस अब्जप्रमाण में दिया हैं । शरीर के सर्व व्यापार इन परमाणुओंके कारण से होते हैं । इन्हीं परमाणुओंसे शरीर के अनेक अवयव भी बनते हैं । यकृत, प्लीहा, उन्दुक, ग्रहणी, हृदय, फुप्फुस, सहस्रार, नाडी आदि का अंतिम भाग इन परमाणुओंके स्वरूप में हैं । अनेक परमाणुओं से अवयत्रोंका घटक बनता है । घटकोंसे अवयव, अवयवोंसे मंडल बनते हैं । वातमंडल, श्वसन, पचन, रुधिराभिसरण, उत्सर्ग ये शरीर के मुख्य मंडल हैं । परमाणुओं में रहने वाले त्रिधातु अतिसूक्ष्म और अवयवांतर्गत, वातमंडलांतर्गत त्रिधातु सूक्ष्म रहते हैं तो भी उस के स्थूलव्यापार के त्रिधातु स्थूलस्वरूप के रहते हैं । उदाहरण के लिए पचन व्यापार आमाशय, पक्काशय, ग्रहणी, यकृतादि अवयवोंमें होता है । आमाशय, पक्काशय गैरह में रहनेवाला पाचकपित्त स्थूलस्वरूप का रहता है । वह अपनेको प्रत्यक्ष देखने में आसकता है । वह विस्र, सर, द्रव, आम्ल आदि गुणोंसे देखने में आता है । इस पित्त का अन्न के साथ संयोग होता है। और अन्न के साथ उसकी संयोग- मूर्च्छना होकर पचन होता है । पचन के बाद सार - किट्टपृथक्त्व होता है । सारभाग का पक्काशय में शोषण होता है । सार - किड विभजन, सारसंशोषण यह कार्य पित्त के कारण से होते हैं | इतर रसादि प्रतिमूल धातुओंके समान पित्त कफादिकोंका भी पोषण होना आवश्यक है । वह पोषण भी पचनव्यापार में होता है । पित्त का उदीरण होकर पित्तस्राव होता रहता है | स्राव होने के पहिले पित्तादि धातु उन उन घटकोंमें सूक्ष्मरूप से रहते हैं । सूक्ष्मव्यापार में वे दीख नहीं सकते । बाहर उनका स्राव होनेके बाद वे देखने में आते हैं । अतः पित्त पित्तका स्थूलरूप, वित्तोत्पादक घटकस्थितपित्त सूक्ष्मरूप और परमाण्वंतर्गतपित्त अतिसूक्ष्मस्वरूप का रहता है, यह सिद्ध हुआ । भुंक्तमात्र अन्न के षड्रसोंके पाक से पाचकपित्त का उदीरण होता है । आमाशय में पाचकपित्त व क्लेदककफ का उदीरण होकर वह धीरे धीरे अन्न में मिल जाते हैं । व अन्न का विपाक होता है । अन्नपचन का क्रम करीब करीब चार घंटे से छह घंटे १ शरीरावयवास्तु खलु परमाणुभेदेनापरिसंख्येया भवति, अतिबहुत्बादतिसूक्ष्मत्वादतींद्वियत्वाच्च ॥ चरकशरीर ७. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) - - - तक चलता है । आमाशय, पकाशय व ग्रहणी में अन्न का पचन होता रहता है । अन्न की पुरःस्सरण क्रियासे अन्न आगे आगे सरकता रहता है । इस क्रियाके लिए व अन्न की गौलाई वगैरे को कायम रखने के लिए समानवायु की सहायता आवश्यक है । समानवायु के प्रस्पंदन, उद्वहन, धारण, पूरण, इन कार्योंसे पचन में सहायता मिलती है। विवेक लक्षण से अन्न के सार-किट्टविभजन होता है । सारभाग का शोषण [ Absorbtion ] होता है । और किट्टभाग गुदकांड तक पहुंचाया जाता है । स्थूल ग्रहणी का कुछ भाग गुदकांड व गुदत्रिवली में अपानवायु का कार्य होकर किट्ट [ मल ] बाहर फेंका जाता है । यह सर्व कार्य होते समय धातुवोंके स्थूलस्वरूप को प्रत्यक्ष दिखाया जा सकता है । पाचकपित्त [अमाशयस्थरस, स्वादुपिंडस्थरस, यकृतपित्त, पक्काशयस्थपित्त आदि ] का उदीरण हमें प्रत्यक्ष प्रयोग से दिखाया जा सकता है । प्रसिद्ध रशियन-शास्त्रज्ञ पावलो ने इन का प्रयोग किया है। और भोजन में उदीरित होनेवाले पित्त को नलीमें लेकर बतलाया है । पित्तके साथ ही वहांपर क्लेदयुक्त कफ का भी उदीरण होता है । और बाद में समानवायु के भी कार्य पचनव्यापार में होते हैं यह सिद्ध कर सकते हैं। अन्नांतर्गत स्थूलवायु को वायुमापक यंत्र से माप सकते हैं। यह सब आधुनिक प्रयोगसाधन से सिद्ध हो सकते हैं । फिर क्या ये ही त्रिधातु हैं ? और यदि ये ही आयुर्वेद के प्रतिपादित त्रिधातु हो तो आयुर्वेद की विशेषता क्या है ? और वह स्वतंत्रशास्त्र के रूपमें क्यों चाहिए ? आयर्वेदप्रतिपादित त्रिधातुवोंमें स्थूलस्वरूपयुक्त त्रिधातुवोंका ऊपर कथन किया ही है । इससे आगे बढकर यह विचार करना चाहिए कि यह उदीरित पित्तकफ कहां से उत्पन्न हुए ? शरीरावयव, उनके घटक व परमाणु सर्वतः समान रहते हुए यह विशेष कार्य कौनसे द्रव्यके या गुणकर्म के कारण से होता है ? गुणकर्म द्रव्याश्रयी हैं । तब इन भिन्न २ अवयव विभागोंमें पित्तकफादि सूक्ष्म द्रव्य अधिकतर रहते हैं, अतएव उस से पित्तकफ का उदारण हो सकता है । यह युक्ति से सिद्ध होता है। यदि कोई कहें कि उन उन अवयवों का स्वभाव ही वह है तो आगे यह प्रश्न निकलता है कि ऐसा स्वभाव क्यों ? तब पित्तकफ के सूक्ष्मांश का अस्तित्व रहने से ही पित्तकफ का उदीरण उस से हो सकता है। स्थूलसमान से स्थूल कार्य होते हैं व स्थूलांशों का अनुग्रह होता है । स्थूलांशको बलदान सूक्ष्माश से प्राप्त होता है। सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म त्रिधातु का कार्य अतिसूक्ष्म परमाणुपर्यंत चालू रहता है। यह कार्य त्रिवातुओंमें जिस धातु का अविकतर चालू हो उन २ धातुवोंका उन अवयवो में स्थूलकार्य चालू रहता है । वस्तुतः [सामान्यतः ] तीनों ही धातुवोंके विना जीवन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A utomuman रह ही नहीं सकता । विशेषत्वसे उन उन धातुवों का विशेष कार्य होता रहता है। पचन कार्य में पाचकपित्त, क्लेदककफ व समानवायु के स्थूलस्वरूप की सहायता मिलती है । इनकी सहायता होकर अन्न में मिश्र हुए विना अन्न पचता नहीं है एवं शरीर में अन्नरसका शोषण नहीं होता है । रसधातु बनता नहीं । एवं रससे रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा, शुक्र, ओज व परमओज यहांतक के स्थूल धातु बनते नहीं है। विपाक के बाद अन्नरस तैयार होता है । उस में त्रिधः । के अंश मिले हुए रहते हैं, उसे रसधातु संज्ञा प्राप्त होती है। अन्नरस में त्रिधातु का मिश्रण होकर वहां रसका पचन होता है । रसधातुका पचन होकर रक्तांश तैयार होते हैं व उनका रक्तमें मिश्रण होकर रक्त बनता है, उसमें भी त्रिधातु रहते हैं। रक्तसे आगे आगेके धातु बनते हैं । इसके लिए भी त्रिधातुवोंकी सहायता की आवश्यकता है । पूर्व धातुसे परधातु जब बनता है, उस समय पूर्वधातुके अपने अंशको लेकर आत्मसात् करनेका कार्य परधातु में चलता है । यह कार्य त्रिधातुवोंके कारणसे ही होता है । भूतांशोंका पचन धात्वग्निके कारणसे होता है, इस प्रकार मुक्त अन्नसे धातु-स्नेह परंपरा चालू रहती है । भोज्य व धातुवोंकी परिवृत्ति यह चक्रके समान चालू रहती है । ( सततं भोज्यधातूनां परिवृत्तिस्तु चक्रवत ) इसे ही धातुपोषणक्रम कहते हैं । धातुवोंके पोषणसे अवयव घटक व परमाणु पुष्ट होते हैं। इन सब परिपोषणोंकलिए वायु, पित्त, व कफ कारणीभूत हैं। ये ही प्रतिमूल [रसरक्त मांसादिक धातुवोंके परिपोषण क्रममें सहायक होते हैं । उसी प्रकार अपने स्वतःका भी परिपोषण करलेते हैं। धातु परिपोषणके एक प्रकारका ऊपर वर्णन किया गया है। वायु, पित्त व कफ, इन त्रिधातुवोंका स्वतः भी परिपोषण होनेकी आवश्यकता है। उनकी समस्थितिमें रहने की बडी जरूरत है । रोजके दैनंदिन व्यापार में उनका व्यय होता रहता है । यदि उनका पोषण नहीं हुआ व वे समस्थितिमें न रहे तो उनका हास होकर आरोग्य विगडता है। इनका भी पोषण आहारविहारादिकसे होता है । षड्रस अनके विपाकमें जो रस निर्माण होता है उससे अर्थात् आहारद्रव्योंके वीर्यसे इनकी पुष्टि होती है । शरीरमें पहिलेसे स्थित त्रिधातुद्रव्योंके समान गुणोंकी आहारके समान गुणात्मक रसोंसे, वीर्यसे व प्रभावसे वृद्धि होती है । यह कार्य स्थूल, सूक्ष्म व अतिसूक्ष्मस्वरूपके धातुपर्यंत चलता है । धातुवोंके समानगुणोंके आहारादिकसे जब वृद्धि होती है तो असमानगुणोंके आहारादिकसे उनका क्षय होता है । रोजके रोज होनेवाली कमीकी पूर्ति समान रसवीयोंसे होती है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 10 ) मनपर त्रिधातुवोंका कार्य होता है तो मनका भी त्रिधातुवोंपर कार्य होता है । इस प्रकार वे परस्परानुबंधी हैं। दोनोंके व्यापार में आहारादिकों की सहायता लगती है । सात्विक, राजस व तामस, इसप्रकार आहार के तीन भेद हैं। उनका परिणाम शरीर के धातुवोंपर होता है एवं मनके सत्व, रज व तमोगुणपर होता है ! आहार के समान औषधिका भी परिणाम मनके त्रिगुणपर होता हैं । 1 धातुवोंकी समता रहनेपर स्वास्थ्य बना रहता है । उनका वैषम्य होनेपर स्वास्थ्य बिगडने लगता है | त्रिधातु जब समस्थितिमें रहते हैं, तभी उनको धातुसंज्ञा दी गई है। वे शरीर को चलाते हैं, बढाते हैं व स्वस्थ बनाये रखते हैं । असात्म्येंद्रियार्थसंयोग, प्रज्ञापराध व परिणामादि कारणों से धातुपर परिणाम होता है । धातुवोंकी समता नष्ट होती है, अर्थात् वैषम्य उत्पन्न होता है । उनमें वैषम्य उत्पन्न होनेपर वे शरीरोपकारक नहीं होसकते । क्यों कि विकृतिके उत्पन्न होनेसे शरीरापायकारक होते हैं । तभी उनको दोष कहते हैं । दोषकी उत्पत्ति दुष्टद्रव्योंसे होती है अर्थात् विषमस्थितिमें रहनेवाले धातु दुष्टद्रव्य या दोष कहलाते हैं । दोषद्रव्योंका गुणकर्म धातुत्रों से बिलकुल भिन्न स्वरूपका हैं | ये दोषद्रव्य अर्थात् विषमस्थितीके वात, पित्त, कफदोष रोगके कारण દાંતે | धातुवोंका जिस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म भेद होता है उसीप्रकार दोषों का भी होता है । धातुवोंके कारणसे जिस प्रकार शरीर व मानसिक व्यापार में सुस्थिति बनी रहती है, उसी प्रकार दोषोंसे शरीर व मानसिक व्यापार में बिगाड उत्पन्न होती है। वायु - रूक्ष, लघु, शीत, खर, सूक्ष्म व चल; पित्त - सस्नेह, तीक्ष्ण, उष्ण, सर व द्रव; और कफ - स्थिर, स्निग्ध, श्लक्ष्ण, मृत्स्न, शीत, गुरु, व मंद गुणयुक्त है । पित्तकफ द्रवरूप और वायु अमूर्त है । ज्ञेय है । दोषोंका अतिसंचय होनेपर वे मलरूप होते हैं । इसी प्रकार शरीरके व्यापारकेलिए निरुपयोगी व शरीरको मलिन बनाकर कष्ट देनेवाले द्रव्यों को भी मल कहते हैं । जो मल कुछ काल पर्यंत शरीर के लिए उपयुक्त अर्थात् संधारण कार्य के लिए उपयुक्त रहते हैं, उनको मलधातु कहते हैं । मलका भी स्थूलमल ( पुरीष, मूत्र, स्वेद, वगैरे ) व अत्यंत सूक्ष्ममल (मलानामतिसूक्ष्माणां दुर्लक्ष्यं लक्षयेत्क्षयम् ) इस प्रकार दो भेद है । मथितार्थ यह हुआ कि शरीरसंधारण करनेवाले धातु ( धारणाद्धातवः ) शरीरको दूषित करनेवाले दोष, (दूषणादोषाः ) व शरारको मलिन करनेवाले मल ( मलिनीकरणान्मलाः ) इसप्रकार तीन द्रव्योंसे शरीर बना हुआ है । इसलिये कहा है कि दोषधातुमलमूलं हि शरीरम् । धातु के समान दोष भी शरीर में रहते ही हैं । वे अत्यंत सन्निध वास करते हैं । शरीर क्षणभर भी व्यापाररहित नहीं रह सकता है । निद्रावस्था में भी शरीरव्यापार चालू ही रहता है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) परंतु कुछ व्यापार बंद रहते हैं। उतनी ही उसे विश्रांति समझनी चाहिसे । शरीर के व्यापार होते हुए धातुओमें कुछ वैषम्य उत्पन्न होता ही है। वातपित्तकफ के व्यापार में उन उन धातुवोंका व्यय होता ही रहता है। उससे उनमें वैषम्य उत्पन्न होता है व दोषद्रव्य का निर्माण होता है । धातु-दोष सन्निध वास करते हैं । जबतक धातुद्रव्योंका बल अधिक रूपसे रहता है तबतक स्वास्थ्य टिकता है। दोष द्रव्योंका बल बढनेपर वे धातुओंको दूषित करते हैं व स्वास्थ्य को बिगाडते हैं । दोष व मलोंसे शरीरसंधारकधातु दूषित होते हैं व रोग उत्पन्न होता है। इस प्रकार धातु-दोष मीमांसा है। असात्म्येद्रियार्थसंयोग, प्रज्ञापराध व परिणाम अथवा काल ये त्रिविध रोग के कारण होते हैं। [ असात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः प्रज्ञापराधः परिणामश्चेति त्रिविधं रोगकारणम् ] असात्म्येद्रियार्थसंयोग से स्पर्शकृतभाव विशेष उत्पन्न होते हैं । स्पर्शकृतभाव विशेषोंसे त्रिधातु व मनपर परिणाम होता है, एवं दोष उत्पन्न होते हैं। प्रज्ञापराधका मनपर प्रथम परिणाम होता है। नंतर शरीरपर होता है । तब दोषवैषम्य उत्पन्न होता है । कालका भी इसीप्रकार शरीर व मनपर परिणाम होकर दोषोत्पत्ति होती है। एवं दोषोंका चय, प्रकोप, प्रसर व स्थानसंश्रय होते हैं। उससे संरभ, शोथ, विद्रधि, व्रण, कोथ होते हैं । दोषोंकी इस प्रकारकी विविध अवस्था रोगोंके नियमित कारण व दोषदूष्य संयोग अनियमितकारण और विष, गर, सेंद्रिय-विषारी क्रिमिजंतु इत्यादिक रोगके निमित्तकारण हैं। आधुनिक वैद्यकशास्त्र में जंतुशास्त्रका उदय होनेसे रोगोंके कारणमें निश्चितपना आगया है, इसप्रकार आधुनिक वैद्योंका मत है। जंतुके मिलने मात्र से ही वह उस रोगका कारण, यह कहा नहीं जासकता । कारण कि कितने ही निरोगी मनुष्यों के शरीरमें जंतुके होते हुए भी वह रोग नहीं देखाजाता है | जंतु तो केवल बीजसदृश है। उसे अनुकूल भूमि मिलनेपर वह वढता है । उससे सेंद्रिय, विषारी जंतु बनता है व रोग उत्पन्न होता है। परंतु अनुकूलभूमि न रहनेपर अर्थात् जंतु की वृद्धि के लिए अनुकूल शारीरिक परिस्थिति नहीं रहनेपर, ऊसर भूमिपर पडे हुए सस्यबीज के समान जंतु बढ नहीं सकता है और रोग भी उत्पन्न नहीं कर सकता है। यह अनुकूलपरिस्थिति का अर्थ ही दोषदुष्टशरीर है। कॉलरा व प्लेग मरखेि भयंकर रोगोंमें भी बहुत थोडे लोगोंको ही ये रोग लगते हैं। सबके सब उन रोगोंसे पीडित नहीं होते । इसका कारण ऊपर कहा गया है, अर्थात् जंतु तो इतर निमित्तकारण के समान एक निमित्तकारण है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12 ) 1 काले, अर्थ व कर्म या असात्म्येंद्रियार्थसंयोग, प्रज्ञापराध व परिणाम इनके हीन मिथ्यातियोगोंके कारणसे शरीर संधारक धातुओं में वैषम्य होता है, एवं दोषोत्पत्ति होती है । और दोषोंके चयप्रकोपादिक के कारण से रोगोत्पत्ति होती है । इस प्रकार आयुर्वेद का रोगोत्पत्ति के सम्बन्ध में अभिनवसिद्धांत है । रोग की चिकित्सा करते हुए इस अभिनव सिद्धांत का बहुत उपयोग होता है जिसे विशिष्टक्रिया के कारणसे शरीर के धातु सम अवस्था में आयेंगे, उस प्रकार की क्रिया करना, यही चिकित्सा का रहस्य है । धातुसाम्य करने की क्रिया करनेसे धातुव में समता आती है। धातु वैषम्योत्पादक कारणोंसे धातुवोंमें विषमता उत्पन्न होकर दोष रोगादिक उत्पन्न होते हैं । चिकित्साशास्त्र का सर्व विस्तार, अनेक प्रकार की प्रक्रियायें व पद्धति, ये सभी इसी एक सूत्र के आधार पर अवलंबित है । इस का बहुत विस्तार व सुंदर विवेचन के साथ सांगोपांगकथन कल्याणकारक ग्रंथ में किया गया है । धातु वैषम्यको नष्ट कर समताको प्रस्थापित करना यही चिकित्साका ध्येय है और वैद्यका भी यही कर्तव्य है । विषमै हेतुवोंका त्याग व समत्वोत्पादक कारणोंका अवलंबन करना ही चिकित्साका मुख्य सूत्र है, यह ऊपर कहा ही है । इस सूत्र का अवलंबनकर ही वैद्यको चिकित्सा करनी पडती है । चिकित्सा करते हुए दूय, देश, बल, काल, अनल, प्रकृति, वय, सत्व, साभ्य, आहार व पृथक् पृथक् अवस्था, इनका अवश्य विचार करना पडता है । 1 दूष्यका अर्थ रसरक्तादि स्थूलधातु । इनमें दोषों के कारणसे दूषण आता है । जिस प्रदेशमें अपन रहते हैं वह देश कहलाता है । यह जांगल, आनूप व साधारण के भेदसे तीन प्रकार है | शरीरशक्तिको बल कहते हैं । यह कालज, सहज व युक्तिकृत के भेद से तीन १ कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिमात्रकः । सम्यग्योगश्च विज्ञेयो रोगारोग्यैककारणम् ॥ अ. छ. सू. १ २ याभिः क्रियाभिर्जायंते शरीरे धातवः समाः । चिकित्सा विकाराणां कर्मतद्भिषजां स्मृतम्॥ चरक सूत्र अ. ३ त्यागाद्विषमहेतूनां समानां चोपसेवनात् विषमा नानुबध्नंति जायंते धातवः समाः । चरकसूत्र ४ दृष्यं देश बलं कालमनलं प्रकृतिं वयः | सत्यं साम्यं तथाहारमवस्थाश्च पृथग्विधाः । सूक्ष्मसूक्ष्माः समीक्ष्यैषां दोषोपधनिरूपणे | यो चिकित्सायां न स स्खलात जातुचित् !! असं सूत्र १२ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 18 ) प्रकार है । काल शीत, उष्ण व वर्षाके भेदसे तीन प्रकारका है। अग्निका अर्थ पाचकाग्नि । वह मंद, तीक्ष्ण, विषम व समाग्निके भेदसे चार प्रकारका है । इनमें समाग्नि श्रेष्ठ है । शरीरको मूलस्थितिमें संभाल रखने का अर्थ प्रकृति है। शुक्र [ पुंबीज ] व आर्तव [ स्त्रीबीज ] के संयोगसे बीज धातु बनता है। बीज धातुकी जिस प्रकार स्थिति हो उस प्रकार शरीर बनता जाता है । इसके कारण शरीरकी प्रकृति व मनका स्वभाव बनता है। वात धातुसे वातप्रकृति बनती है। इसी प्रकार अन्यधातुवोंके बलाबलकी अपेक्षा तत्तद्धातुवोंकी प्रकृति बनती है। बय बाल, तारुण्य व वार्धक्य के भेद से तीन प्रकारकी है। सत्वका अर्थ मन व सहनशक्ति । आहार, आदतें व शरीर के अनुकूल विहार आदि का विचार करना सात्म्य कहलाता है । आहार व रोग की विविध अवस्थावोंको [ आम, पक्क व पच्यमान वगैरह ] ध्यान में लेकर उनका सूक्ष्म विचार करके ही चिकित्सा करनी पडती है । चिकित्साशास्त्र का प्रधान आधार निदान है। निदान शब्द का अर्थ " मूल कारण " ऐसा होता है । परंतु शब्दार्थके योगरूढार्थसे वह गोगपरीक्षण इस अर्थ में प्रयुक्त होता है । __ आयुर्वेदीयनिदान में मुख्यतः दोषदुष्टिका विचार करना पडता है। भिन्न २ अनेक प्रकार के कारणोंसे दोषदुष्टि होती है । दोषोंका चय, प्रकोप व प्रसर होते हैं। दोष भिन्न २ दूष्योंमें जाते हैं । दोषदृष्य संयोग होता है । उसके बाद भिन्न २ स्थान दुष्ट होते हैं । उसका कारण दोषोंका स्थान-संश्रय है। किसी भी कारण से दोषों की दुष्टि होती है । इसलिए निदान करते हुए पहिले कारणोंका ही विचार करना पडता है। दोषोंका स्थानसंश्रय होनेके पहिले चयादिक होते हैं । तब निश्चित रोगस्वरूप आता है । इस समय रोग के पूर्वलक्षण प्रगट होते हैं । इसलिए निदान करते हुए पूर्वरूप या पूर्वलक्षणोंपर विचार करना पडता है । इसके अनंतर दोष दृष्यसंयोग होकर स्थानसंश्रय होता है व सर्वलक्षण स्पष्ट होते हैं। रोग निदान में लक्षणोंका विचार बहुत गहरी व बारीक दृष्टि से एवं विवेकपूर्वक करना पडता है । भावना अर्थात् मनसे जानने के लक्षण व शारीरिक लक्षण इस प्रकार लक्षण दो प्रकार के हैं । दोषद्रव्य व शरीरसंधारकधातुवों में संघर्षण होने से लक्षण उत्पन्न होते हैं। मानसिक लक्षण भी उसीसे प्रगट होते हैं। नवीन रोगोंमें लक्षण बहुत जल्दी मालुम होते हैं । और रोगी भी उन लक्षणोंको झट कह सकता है। परंतु पुराने रोगोंके लक्षण बहुत गूढ रहते Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (14) - - हैं और रोगी को भी उन्हें स्पष्टतया समझने में दिक्कत होती है । सो उसकेलिए उपर्शय ( सात्म्य ) व अनुपशयके प्रयोगसे लक्षणोंको जानलेना चाहिये। [गूढलिंगं व्याधि उपशयानुपशयाभ्यां परीक्षेत ] इन चार साधनोंसे रोगकी संप्राप्ति ( Pathology ) को जानलेनी चाहिये । निदान, पूर्वरूप या पूर्वलक्षण, रूप, उपशय, व संप्राप्ति, इनको निदानपंचक कहते हैं। दर्शन, स्पर्शन व प्रश्न, इन साधनोंसे एवं निदान पंचकोंके अनुरोधसे रोगीकी परीक्षा करें। रोग परीक्षा होकर रोगनिश्चिति होनेपर, उसपर ज्ञानपूर्वक चिकित्सातत्वके आधारपर निश्चित औषधियोंकी योजना या उपचार जो हो सो करें । ध्रुव आरोग्यको प्राप्त करादेना यह आयुर्वेदीयचिकित्साका ध्येय है। चिकित्सा करते हुए दैवव्यपाश्रय, युक्तिव्यपाश्रय व सत्वावजय इनका अवलंबन करना पडता है । द्रव्यभूतचिकित्सा व अद्रव्यभूतचिकित्सा इस प्रकार चिकित्साके दो भेद हैं । द्रव्यभूतचिकित्सामें औषध व आहारोंका नियमपूर्वक उपयोग करना पड़ता है। अद्रव्यभूतचिकित्सामें साक्षात् औषध व आहारके प्रयोगकी आवश्यकता नहीं होता है । रोगीको आवश्यक सूचना देना, व मंत्र, बलि, होम वगैरहका बाह्यतः उपयोग करना पडता है । आयुर्वेदने औषधका उपयोग बहुत बडे प्रमाणमें, अचूक, निश्चित व विना श्रमके ही किया है । औषधमें प्राण्यंग, वनस्पति, खनिजवस्तु व दूध वगैरे पदार्थोंका उपयोग किया है। कल्याणकारक ग्रंथमें प्राण्यंगका विशेष उपयोग नहीं है। कस्तूरी, गोरोचन सदृश प्राणियोंके शरीरसे मिलनेवाले अपितु प्राणियोंको कष्ट न होकर प्राप्त होनेवाले पदार्थीका उपयोग किया है । वनस्पति, खनिज, व इतर द्रव्योंका उपयोग करते हुए उनका रस, विपाकवीर्य व प्रभावका आयुर्वेदने बहुत सुंदर विवेचन किया है । वनस्पतिके अनेक कल्प बनाकर उनका उपयोग किया गया है। खनिज द्रव्योंको जैसेके तेसे औषधके रूपमे देनसे उनका शोषण शरीरमें होना शक्य नहीं है । खनिज द्रव्योंके रासायनिक कल्प ( Chemical Compounds ) का भी शरीर में शोषण होना कठिन होता है । इसलिए खनिज या इतर निरिंद्रिय द्रव्यपर सेंद्रिय वनस्पति के अनेक पुटभावना से संस्कार किया जाता है। हेतु यह है कि सेंद्रिय द्रव्योंके संयोग से उनका शरीर में अच्छी तरह शोषण होजाय । आयुर्वेद का रसशास्त्र इस प्रकार की संस्कारक्रियासे ओतप्रोत भरा हुआ है । रसशास्त्र पर जैनाचार्योन बहुत परिश्रम किया है। आज जो अनेकानेक सिद्धौषध, आयुर्वेदीयवैद्य प्रचारमें १. गूढलिंग रोगकी परीक्षाके लिए जो औषधोंका प्रयोग, अन्न व विद्दार होता है उसे उपशय कहते हैं । वह छह प्रकारका होता है । (१) हेतु विपरीत (२) व्याधिविपरीत (३) हेतुच्याधि विपरीत (४) हेतु विपर्यस्तार्थकारी (५) ज्यांधिविपर्यस्तार्थकारी (६) हेतुव्याधिविपर्यस्तार्थकारी ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 15 ) - - लाते हैं, वह जैनाचार्य व बौद्धोंकी नितांत प्रतिभा व अविश्रांत परिश्रम का फल है । अनेक प्रतिभावान्, त्यागी, विरागी आचार्योंने जन्मभर विचारपूर्वक परिश्रम, प्रयोगपूर्वक अनुभव लेकर अनेक औषधरत्नोंका भंडार संगृहीत कर रखा है। रसशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, प्राणिशास्त्र, निघंटु व औषधिगुणधर्मशास्त्र वगैरे अनेक शास्त्रोंका निर्माण अप्रतिमरूप से कर इन आचार्योने आयुर्वेदजगत् पर बड़ा उपकार किया है । रोग की चिकित्सा करते हुए अनेक भिन्न भिन्न तत्वोंका अवलंबन आयुर्वेदने किया है । बृंहण व लंघनचिकित्सा करते हुए अनेक भिन्न भिन्न प्रक्रियाओंका उपयोग किया है । अव्यभूतचिकित्सा व द्रव्यभूतचिकित्सा ये दोनों दोषप्रत्यनीक चिकित्सा पद्धतिपर अवलंबित हैं। शरीर में दूषित दोषदुष्टि को दूर कर अर्थात् दोषवैषम्य व उससे आगके दोषोंको नाश कर धातुसाम्यप्रवृत्ति करना यह चिकित्सा का मुख्यमर्म है । इस ध्रुवतत्व को सामने रखकर ही आयुर्वेदीय सूत्र, और उस से संचालितपद्धतिका विकास हुआ है । वह चिकित्सा निश्चित, कार्यकारी व शास्त्रीय है। दोषोंके अनुरोध से चिकित्सा की जाय तो रोगी अच्छीतरह व शीघ्र स्वस्थ होता है । एवं धातुसाम्यावस्था शीघ्र आकर उसका बल भी जल्दी बढता है । मांसवृद्धि शीघ्र होकर रुग्णावस्था अधिक समय तक टिकती नहीं । समस्त वैद्य व डॉक्टर बंधुवोंसे निवेदन है कि वे इस प्रकार की दोषप्रत्यनीकचिकित्सापद्धति का अभ्यास करें व उसे प्रचार में लानेका प्रयत्न करें, तो उन को सर्वत्र यश निश्चित रूपसे मिलेगा। अब आयुर्वेद के स्वास्थ्यसंरक्षणशास्त्र के संबंध में थोडासा परिचय देकर इस विस्तृतप्रस्तावनाका उपसंहार करेंगे। आयुर्वेद का दो विभाग है । एक स्वास्थ्यानुवृत्तिकर व दूसरा रोगोच्छेदकर । उन में रोगोच्छेदकर शास्त्र का ऊहापोह ऊपर संक्षेप में किया गया है । स्वाथ्यानुवृत्तिकर शास्त्र या जिसे आरोग्यशास्त्र के नामसे भी कहा जासकता है, उसका भी विचार आयुर्वेदशास्त्रने किया है। जल, वायु, रहनेका स्थान, काल इत्यादिका विचार जानपदिक आरोग्यमें करना पडता है । अन्न, जल, विहार, विचार आचार आदिका विचार व्यक्तिगत आरोग्यमे करना पडता है। स्वास्थ्यका शरीरस्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य व ऐंद्रियिक स्वास्थ्य इस प्रकार तीन भेद हैं। केवल रोगराहित्यका नाम स्वास्थ्य नहीं है । अपितु शरीरस्थ सर्वधातु की समता, समाग्नि रहना, धातुक्रिया १. समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नारमेंद्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥ वाग्भट Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) - - - - - व मलक्रिया सम रहना, मन व इंद्रिय सम रहकर वृद्धिप्रकर्ष उत्कृष्ट प्रकारसे रहना, इसे स्वास्थ्य कहते हैं । वातादिक त्रिधातुवोंके प्रकृतिभूत रहनेपर आरोग्य टिकता है । [ तेषां प्रकृतिभूतानां तु खलु वातादीनां फलमारोग्यम् ] । वातादिकोंके साम्यपर स्वास्थ्य अवलंबित है। जिससे स्वास्थ्य टिककर रहेगा ऐसा वर्तन प्रतिनित्य करें, इस प्रकार आयुर्वेदका उपदेश है । आहार, स्वप्न व ब्रम्हचर्य ये आरोग्यके मुख्य आधार हैं । हितकर आहार व विहार के कारणसे रोगोत्पत्ति न होकर आरोग्य कायम रहता है । स्वास्थ्य प्राप्त होता है। किसी भी कार्यको करते हुए विचारपूर्वक करना, समबुद्धि रखकर चलना, सत्यपर रहना, क्षमावन् रहना, इंद्रियभोगोंपर अनासक्त रहना, व पूर्वाचार्योक आदेशानुसार सुमार्गका अवलंबन करना, इन बातोंसे इंद्रियस्वास्थ्य बना रहता है। ब्रम्हचर्य, व मानसिक संयमसे विशेषतः सकलेंद्रियार्थसंयमसे मानसिक स्वास्थ्य टिकता है। शुक्रधातुका ओज व परमओज ये शरीरके मुख्य प्रभावक हैं । ब्रम्हचर्यके पालनसे शरीरमें ये जमकर रहते हैं । शरीरका ओज अत्यंत बुद्धिवर्धक, स्मृतिवर्द्धक, बलदायक होनेसे ब्रम्हचर्यके पालनसे बुद्धी अधिक तेजस्वी होती है । स्मृति तीव्र बनी रहती है । शरीरका बल व तेज उत्तम होता है, वह मनुष्य बडा पराक्रमी शूर व वीर होता है। अपने आर्यशास्त्रोमें ब्रम्हचर्यके महत्वका वर्णन किया है, वह सत्य है। __ ब्रह्मचर्य का पालन विवाहके बाद भी करना चाहिए । ब्रह्मचर्यसे रहकर धर्मसंततिको चलाने के लिए, पुत्र की कामना से ही स्त्री-सेवन करना चाहिए। केवल विषयवासनाकी पूर्ति के लिए आसक्त होना, यह व्यभिचार है। इस प्रकार शास्त्रोंका आदेश है । जैनाचार्योंने स्वदारसंतोषत्रत [ ब्रह्मचर्य ] का उपदेश करते हुए स्वस्त्रीमें भी अत्यासक्ति रखने की मनाई की है। यदि ब्रह्मचर्य के इस उद्देश को लक्ष्य में रखकर संयम का पालन करें तो मनुष्य का शरीर व मन अत्यंत स्वस्थ व सुदृढ बन सकते हैं । सारांश यह है कि युक्त आहार, विहार व ब्रह्मचर्य के पालन से आजन्मस्वास्थ्य व दीर्घजीवित की प्राप्ति होती है । __ आयुर्वेद में और उसी का कल्याणकारक ग्रंथ होनेसे उस में रोगच्छेदकर शास्त्रका व स्वास्थ्यानुवृत्तिकर शास्त्रका बहुत विस्तृत व सुंदर विवेचन किया गया है। १. तच्च नित्यं प्रयुजीत स्वास्थ्यं येनानुवर्तते । अजातानां विकाराणामनुत्पतिकरं च यत् ॥ चरकसूत्र अ. ५।१० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रकृतग्रंथका वैशिष्ट्य. कल्याणकारक ग्रंथ की रचना जैसी सुंदर है, उसी प्रकार उस में कथित अनेक चिकित्सा प्रयोग भी अश्रुतपूर्व व अन्य वैद्यक ग्रंथोंके प्रयोगोंसे कुछ विशेषताओंको लिएहुए हैं। सदा ध्यानाध्ययन व योगाभ्यास में रत रहनेवाले महर्षियोंकी निर्मलबुद्धि के द्वारा प्रकृतग्रंथ का निर्माण होने से इस ग्रंथ में प्रतिपादित प्रयोगोंमें खास विशेषता रहनी चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं। आयुर्वेदप्रेमी वैद्योंको उचित है कि वे ऐसे नवीन योगोंको प्रयोग [ Practical ] में लाकर संशोधनात्मक पद्धति से अनुभव करें जिससे आयुर्वेद विज्ञान का उत्तरोत्तर उद्योत हो। प्रकृत ग्रंथ में प्रत्येक रोगोंका निदान, पूर्वरूप, संप्राप्ति, चिकित्सा, साध्यासाध्य विचार आदि पर सुसंबद्ध रूपसे विवेचन किया गया है । इसके अलावा अनेक रस रसायन व कल्पोंका प्रतिपादन स्वतंत्र अध्यायोंमें किया गया है। साथ में महामुनियोंके योगाभ्यास से ज्ञात रहस्यपूर्ण रिष्टाधिकार भी दिया गया है । एक बात खास उल्लेखनीय है कि इस ग्रंथ में किसी भी औषधप्रयोग में मद्य, मांस व मधु का उपयोग नहीं किया गया है । मद्य, मांस, मधु हिंसाजन्य हैं। जिनकी प्राप्ति में असंख्यात जीवोंका संहार करना पडता है। अतएव अहिंसा-धर्म के आदर्श को संरक्षण करने के लिए इनका परित्याग आवश्यक है। इसके अलावा ये पदार्थ चिकित्सा-कार्य में अनिवार्य भी नहीं हैं । क्यों कि आज पाश्चात्य देशोंमें अनेक वैज्ञानिक वैद्य इन पदार्थोंकी मानवीय शरीर के लिए निरुपयोगिता सिद्ध कर रहे हैं । आर्यसंस्कृति के लिए तो हिंसाजन्य निंद्य पदार्थोकी आवश्यकता ही नहीं । हमारे वैद्यबंधु अनुदिन की चिकित्सा में सर्वथा वनस्पति, कल्प व रसायनोंका उपयोग करने की आदत डालेंगे तो, भारत में औषधि के बहाने से होनेवाली असंख्यात प्राणियोंकी हिंसा को बचाने का श्रेय उन्हें गिल जायगा। इस ग्रंथ के उद्धार में अथ से इति तक स्व. धर्मवार सेठ रावजी सखाराम दोशी ने प्रयत्न किया था। उनकी मनीषा थी कि इस ग्रंथ का प्रकाशन समारंभ मेरी ही अध्यक्षता में कर, उस प्रसंग में अनेक वैद्योंको एकत्रित कर आयुर्वेद की महत्तापर खूब ऊहापोह किया जाय । परंतु कालराज की क्रूरता से उनकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी। तथापि आयुर्वेद के प्रति उनका जो उत्कट प्रेम था, उसके फलस्वरूप आज हम उनकी इच्छा की पूर्ति इस प्रस्तावना के द्वारा कर रहे हैं। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 18) इस ग्रंथका संपादन श्री. विद्यावाचस्पति पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री के द्वारा हुआ है । श्री. शास्त्रीजी ने वैद्य न होते हुए भी जिस योग्यता से इस ग्रंथ का संपादन व अनुवादन किया है, वह श्लाघनीय है। उनको इस कार्य में उतनी ही सफलता मिली है, जितनी कि एक सुयोग्य वैद्य को मिल सकती है । उनके प्रति आयुर्वेद-संसार कृतज्ञ रहेगा। __ ग्रंथ के अंतमें ग्रंथमें आए हुए वनौषाचे शब्दोंके अर्थ भिन्न २ भाषाओं में दिए गए हैं, जिससे हिंदी, मराठी व कानडी जाननेवाले पाठक भी इससे लाभ ले सकें। इससे सोनेमें सुगंध आगया है । आयुर्वेदीय विद्वान् प्रकृत ग्रंथ के योगोंसे लाभ उठायेंगे तो संपादक व प्रकाशक का श्रम सार्थक होगा । इति. ता० १ - २ - १९४० आपकागंगाधर गोपाल गुणे, (वैद्यपंचानन, वैषचूडामणि) भूतपूर्व अध्यक्ष निखिल भारतीय आयुर्वेद महामंडल व विद्यापीठ, संपादक भिषाग्विलास, अध्यक्ष आयुर्वेदसेवासंघ, प्रिंसिपल आयुर्वेद महाविद्यालय, संस्थापक आयुर्वेद फार्मसी लि. अहमदनगर. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय वक्तव्य. पूर्वनिवेदन. 1 सबसे पहिले मैं यह निवेदन करना आवश्यक समझता हूं कि मैं न कोई वैध हूं और न मैंने इस आयुर्वेदको कोई क्रमबद्ध अध्ययन ही किया है । इसलिए इसके संपादन में अनुवादन में अगणित त्रुटियोंका रहना संभव है । परंतु इसका संशोधन मुंबई व अहमदनगर के दो अनुभवी वैद्यमित्रोंने किया है । इसलिए पाठकों को इसमें जो कुछ भी गुण नजर आयें तो उसका श्रेय उनको मिलना चाहिये । और यदि कुछ दोष रहगये हों तो वह मेरे अज्ञान व प्रमादका फल समझना चाहिये । सहसा प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर मैने इस कार्य को हाथमें क्यों लिया ? 1 जैनाचार्योंने जिसप्रकार न्याय, काव्य, अलंकार, कोश, छंद व दर्शनशास्त्रोंका निर्माण किया था उसीप्रकार ज्योतिष व वैद्यक ग्रंथोंका भी निर्माण कर रक्खा है । जैन महर्षियो में यह एक विशेषता थी कि वे हरएक विषयमें निष्णात विद्वान् होते थे । प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद, परमपूज्य समंतभद्र, जिनसेनगुरु वीरसेन, गुणभंडार श्रीगुणभद्र, महर्षि सोमदेव, सिद्धवर्णी रत्नाकर व महापंडित आशाधर आदि महापुरुषोंकी कृतियोंपर हम एकदफे नजर डालते हैं तो आश्चर्य होता है कि इन्होने अनेक विषयोंपर किसप्रकार प्रौढ प्रभुत्व को प्राप्त किया था । प्रत्येक ऋषि अपने कालके गाने हुए हैं । उनका पांडित्य सर्व दिगंतव्यापी होरहा था । उन महर्षियोने अपने जपतपध्यान से बचे हुए अमूल्य समयको शिष्यों के कल्याणार्थ लगाया । और परंपरासे सबको उनके ज्ञानका उपयोग हो, इस हेतुसे अनेक ग्रंथोंको निर्माणकर रक्खा, जिससे आज हमलोगोंके प्रति उनका अनंत उपकार हुआ है । जैनसंसार में खासकर दि. जैन संप्रदाय में साहित्याभिरुचि व तदुद्धारकी चिंता बहुत कम है यह मुझे बहुत दुःख के साथ कहना पडता है । इस बात की सत्यता एक दफे दूसरे संप्रदाय के द्वारा प्रकाशित साहित्योंसे तुलना करने से मालुम हो सकती है । सत्ताकी दृष्टि से संस्कृत, हिंदी, कर्णाटक भाषाओं में दिगंबर संप्रदाय का जो साहित्य है, उतना किसीका भी नहीं है । उद्धार की दृष्टि से दिगंबरियोंके साहित्य के समान अल्पप्रमाण किसी का भी नहीं है । प्रत्युत लोग समय का फायदा लेने लगे हैं । एक तरफ से हमारे समाज के कर्णधार कई प्रकारसे साहित्य के प्रचार को रोक रहे हैं । कोई आम्नाय के पक्षपातसे प्रकाशनका विरोध कर रहे हैं, तो कोई पैसे के लोभ से दूसरों को दिखाने की उदारता नहीं बतलाते । कई शास्त्रभंडार तो वर्षों से बंद हैं। उन्हें खुलवाने का न कोई खास प्रयत्न ही किया जाता है और करने 1 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) पर सफलता भी कम मिलती है। ऐसी अवस्था में जब दिगंबर संप्रदाय के सज्जनों पर प्रमाद देवता की खूब कृपा है, उसे देखकर अन्य लोग कोई प्रशस्ति बदलकर, कोई मंगलाचरण बदलकर, कोई कता की मरम्मत कर, कोई ग्रंथ के नाम को बदलकर, कोई अपने मतलब की बात को निकाल घुसेडकर, इस प्रकार तरह तरह से दिगंबर साहित्यों को सामने लारहे हैं । कुछ साहित्यप्रेमी सज्जनोंकी कृपासे हमारे न्याय, दर्शन व साहित्य तो केवल आंशिक रूपमें बाहर आये हैं । परंतु वैद्यक व ज्योतिष के ग्रंथ तो बाहर आये ही नहीं है। इन विषयोंकी कृति भी जैनाचार्यांकी बहुत महत्वपूर्ण हैं । परंतु उनके उद्धार की चिता जैन वैद्य य ज्योतिषियोंमें बिलकुल देखी नहीं जाती। धर्मवीर, दानवीर, जिनवाणीभूषण, विद्याभूषण स्व० सेठ रावजी सखाराम दोशी को प्रबल मनीषा था कि इस विभाग में कुछ कार्य होना चाहिए । इस विचार से उन्होंने इस ग्रंथ के उद्धार में अथ से इति तक प्रयत्न किया । जब उनको मालुम हुआ कि यह एक समग्र जैन वैद्यक-ग्रंथ मौजूद है तो उन्होने मैसूर गवर्नमेंट लायब्ररी से इस ग्रंथ की प्रतिलिपि कराकर मंगाई । तदनंतर मुझ से इसका संपादन व अनुवादन करने के लिए कहा । मुझे पहिले २ संकोच हुआ कि एक अनभ्यस्त विषय पर मैं कैसे हाथ डालूं । परंतु बादमें स्थिर किया कि जब जैन वैद्योंकी इस ओर उपेक्षा है तो एक दफे अपन इस पर प्रयत्न कर देखें । फिर मैने चरकादि ग्रंथोंकी रचना का अध्ययन किया जिस से मुझे प्रकृत ग्रंथ के संपादन व अनुवादन में विशेष दिक्कत नहीं हुई । कहीं अडचन हुई तो उसे मेरे विद्वान् मित्र संशोधकोंने दूर किया । धर्मवीरजी की लगन. इस ग्रंथ के उद्धार में सब से बडा हाथ श्री. धर्मवीर स्व० सेठ रावजी सखाराम दोशी का था यह हम पहिले बता चुके हैं। उन्होंने इस ग्रंथ की पहिली लिपि कराकर मंगाई। ग्रंथके अनुवादन व संपादन में प्रोत्साहित किया। इस ग्रंथके मुद्रण के लिए खास कल्याणकारक के नाम पर कल्याण मुद्रणालय को संस्थापित करने में पूर्ण सहयोग दिया । समय समय पर लगनेवाले संपादन साधनों को एकत्रित कर दिया । अनेक धर्मात्मा साहित्य-प्रेमियों से पत्र-व्यवहार कर इसके उद्धार में आर्थिक-सहयोग को भी कुछ अंशोंमें प्राप्त किया । उनकी बड़ी इच्छा थी कि यह ग्रंथ शीघ्र प्रकाश में आजावे । लोकमें अहिंसात्मक आयुर्वेद का प्रचार होने की बडी आवश्यकता है। वे चाहते थे कि इस ग्रंथ का प्रकाशन समारंभ बहुत ठाटवाट से किया जाय । वे गत दीपावली के पहिले जब बीमार पडे तब वैद्य Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 21 ) 'पंचानन पं. गंगाधर गुणे शास्त्रीजी इलाज के लिए आये थे । उन से उन्होंने कहा था कि मुझे जल्दी अच्छा कर दो। क्यों कि इस दीपावली कन्शेसन टिकेट के समय में यहां पर एक वैद्यक सम्मेलन करना है । उस समय जैन वैद्यकग्रंथ कल्याणकारक का प्रकाशन समारंभ करेंगे । जैनायुर्वेद की महत्ता के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे । किसे मालुम था कि उनकी यह भावना मनके मन में ही रह जायगी । विशेष क्या ? धर्मवीरजीने इहलोक यात्राको पूर्ण करने के एक दिन पहिले रोगशय्या पर पडे २ मुझसे यह प्रश्न किया था कि " पंडितजी ! कल्याणकारकका औषधिकोष तैयार हुआ या नहीं ? अब ग्रंथ जल्दी तैयार होगा या नहीं " उत्तर में मैने कहा कि " रावसाहेब ! आप बिलकुल चिंता न करें । सब काम तैयार है । केवल आपके स्वास्थ्यलाभकी प्रतीक्षा है " परंतु भवितव्य बलवान् है । बीज बोया, पानीका सिंचन किया, पाल पोसकर अंकुरको वृक्ष बनाया | वृक्षने फल भी छोडा, माली मनमें सोच रहा था कि फल कब पकेगा और मैं कब खाऊं ? परंतु फलके पकनेके पहिले ही वह कुशल व उद्यमी माली चल बसा । यही हालत स्व. धर्मवीरजीकी हुई । पाठक उपर्युक्त प्रकरण से अच्छी तरह समझ सकेंगे कि धर्मवीरजीकी आत्मा इस ग्रंथके प्रकाशनको देखने के लिए कितने अधिक उत्सुक थी ? परंतु दैवने उसकी पूर्ति नहीं होने दी । आज ये सब स्मृतिके विषय वनगये हैं । किसे मालुम था कि जिनके नेतृत्व में जिसका प्रकाशन होना था, उसे उनकी स्मृति में प्रकाशित करनेका समय आयगा ? । परंतु स्वर्गीय आत्मा स्वर्ग में इस कार्य को देखकर अवश्य प्रसन्न हो जायगा । उसके प्रति हम श्रद्धांजलि समर्पण करते हैं । ग्रंथ प्रकाशनमें कुछ विलंब अवश्य हुआ । उसके लिए हमें जो इस ग्रंथकी प्रतियां प्राप्त थी वही कारण है । प्रायः सर्व प्रतियां अशुद्ध थी । इसके अलावा प्रेस कापीका संशोधन पहिले मुंबईके प्रसिद्ध वैद्य पं. अनंतराजेंद्र आयुर्वेदाचार्य करते थे । बाद में अहमदनगर के वैद्य पं. बिंदुमाधव शास्त्री करते थे । इसमें काफी समय लगता था । औषधि - कोषको कई भाषावोमें तैयार करने के लिए बेंगलोर आदि स्थानोंसे उपयुक्त ग्रंथ प्राप्त किए गए थे । अंतिम प्रकरण जो कि बहुत ही अशुद्ध था जिसके लिए हमें काफी समय लगाना पडा, तथापि हमें संतोष नहीं हो सका । इत्यादि अनेक कारणोंसे ग्रंथ के प्रकाशन में विलंब हुआ। हमारी कठिनाईयों को लक्ष्यमें रखकर इसे पाठक क्षमा करेंगे । प्रतियोंका परिचय. 1 इस ग्रंथ के संपादन में हमने चार प्रतियोंका उपयोग किया है, जिनका विवरण निम्न लिखित प्रकार है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (22) - १ मैसोर गवर्नमेंट लायब्ररीके ताडपत्रकी प्रतिकी प्रतिलिपि । प्रतिलिपि सुंदर है। जैसे बाह्यलिपि सुंदर है, उस प्रकार लेखन बिलकुल शुद्ध नहीं है । साथमें हिताहिताध्याय का प्रकरण तो लेखक के प्रमाद से बिलकुल ही रह गया है। २ यह प्रति ताडपत्र की कानडी लिपिकी है। स्व. पं. दोर्बली शास्त्री श्रवणबेलगोला के ग्रंथ-भांडार से प्राप्त होगई थी। गांधी नाथारंगजी जैनोन्नति फंड की कृपा से यह प्रति हमें मिली थी । ताडपत्र की प्रति होने पर भी बहुत शुद्ध नहीं कही जा सकती है । ३ मुंबई ऐ. प. सरस्वती भवन की प्रति है। जो कि उपर्युक्त नं. २ की ही प्रतिलिपि मालुम होती है । मूलप्रति में ही कहीं २ हस्तप्रमाद होगया है । उत्तर प्रति में तो पूछिये ही नहीं, लेखकजी पर प्रमाद-देवता की पूर्ण कृपा है । ४ रायचूर जिले के एक उपाध्याय ने लाकर हमें एक प्रति दी थी। जो कि कागद पर लिखी हुई होने पर भी प्राचीन कही जा सकती है । ग्रंथ प्रायः शुद्ध है । अनेक स्थलोंपर जो अडचनें उपस्थित होगई थी, उनकी इसी प्रति ने दूर किया । प्रति के अंतमें लेखक की प्रशस्ति भी है । उस में लिखा है कि ___“ स्वस्तिश्रीमत्सर्वज्ञसमयभूषण केशवचन्द्रत्रविद्यदेवशिष्यैालचंद्रभट्टारकदेवर्लिखितं कल्याणकारक" जैसे ग्रंथप्रामाण्य के लिए गुरुपरंपरा की आवश्यकता है उसी प्रकार लेखन प्रामाण्य को दिखलाने के लिए लेखक ने लेखन परंपरा का उल्लेख किया है। वह इस प्रकार है ___" पूर्वदल्लि लिखितव नोडिकोंडु बरदरु- अर्थात् बालचन्द्र भट्टारकने पूर्वलिखित ग्रंथको देखकर इस ग्रंथकी लिपि की । उन्होने अपने गुरुके गुणगौरवको उल्लेख करते हुए निम्न लिखित श्लोकको लिखा है । केचित्तर्कवितर्ककर्कशधियः केचिच्च शब्दागम-- क्षुण्णाः केचिदलं कृतिप्रवितथ-प्रज्ञान्विताः केवलं । केचित्सामयिकागमैकनिपुणाः शास्त्रेषु सर्वेष्वसौ । प्रौढः केशवचंद्रसूरिस्तुलः प्रोद्यनिविद्यानिधिः ॥ आगे लिखा है कि स्वस्तिश्री शालिवाहन शक वर्ष १३५१नेय सौम्यनाम संवत्सरद ज्येष्ठ शुद्ध २ गुरुवारदल्लु श्री बालचंद्र भट्टारकर बरद ग्रंथ । अदनोडि अवर शिष्यरु बरदुकोडरु. आ प्रति नोडि स्वस्तिश्री शक वर्ष १४७६ वर्तमान आनंदनाम संवत्सरद कार्तिक शुद्ध १५ शुक्रवारदल्लु श्रीमत्तुमटकर बस्तिय इंद्रवंशावय देचण्णन सुत वैद्य नेमण्ण पंडितनु मुन्नजर प्रति नोडि उद्धरिसिदरु, अदु प्रतिनोडि शकवर्ष १५७३ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (28) ने य खरनाम संवत्सरद वैशाख शुद्ध शुक्रवारदल्लु श्रीमत् चाकूरु शुभस्थान श्री पार्श्वजिननाथ सन्निधियल्लु इंद्रवंशान्वय रायचूर वैद्य चंदप्पय्यन पुत्र वैद्य भुजबलि पंडित बरेद प्रति नोडि श्रीमनिर्वाण महेंद्रकीर्तिजीयवरु बरदरु ॥ श्री ॥ अर्थात् शालिवाहन शकवर्ष १३५१के सौम्य संवत्सरके ज्येष्ठ शु.२ गुरुवारको श्रीबालचंद्र भट्टारकजीने इस ग्रंथकी प्रतिलिपि की। उसपरसे उनके शिष्योनें प्रतिलिपि ली । उन प्रतियों को देखकर स्वस्तिश्री शक वर्ष १४७६ , आनंदनाम संवत्सर, कार्तिक शु. १५ शुक्रवार के रोज तुमटकरके इंद्रवंशोत्पन्न देचण्णका पुत्र वैद्य नेमण्णा पंडितने प्रति की । उस प्रतिको देखकर शकवर्ष १५७३ के खरनाम संवत्सर, वैशाख शुद्ध शुक्रवारके रोज श्री चाकूर शुभस्थान श्री पार्श्वनाथ स्वामीके चरणोमें रायचूरके इंद्रवंशान्वय वैद्य चंदप्पय्यके पुत्र वैद्य भुजबलि पंडितके द्वारा लिखित प्रतिको देखकर श्री निग्रंथ महेंद्रकीर्तिजीने लिखा"। ___ इस प्रकार चार प्रतियोंकी सहायता से हमने इसका संशोधन किया है । कई प्रतियोंकी मिलान से शुद्ध पाठको देनेका प्रयत्न किया गया है। कहीं कहीं पाठ भेद भी दिया गया है । अंतिम प्रकरण हिताहिताध्याय दो प्रतियोंमें मिला । वह लेखक की कृपा से इतना अशुद्ध था कि हम उसे बहुत प्रयत्न करने पर भी किसी भी प्रकार संशोधन भी नहीं कर सके । इसलिए हमने उस प्रकरण को ज्यों का त्यों रख दिया है । क्यों कि अपने मनसे आचार्यों की कृति में फरक करना हमें अभीष्ट नहीं था। आगे और कभी साधन मिलने पर उस प्रकरण का संशोधन हो सकेगा। जैन वैद्यकग्रंथोंकी विशेषता. जैनाचार्योके बनाये हुए ज्योतिष ग्रंथ जैसे हैं वैसे ही वैद्यक ग्रंथ भी बहुतसे होने चाहिये। परंतु उनमें आजतक एक भी ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ है। जिन ग्रंथोंकी रचनाका पता चलता है उन ग्रंथोंका अस्तित्व हमारे सामने नहीं है। समंतभद्रका वैद्यक ग्रंथ कहां है ? " श्रीपूज्यपादोदितं " आदि श्लोकोंको बोलकर अनेक अजैन विद्वान् वैद्यकांसे अपना योगक्षेम चलाते हुए देखे गये हैं। परंतु पूज्यपादका समग्र आयुर्वेद ग्रंथ कितने ही ढूंढनेपर भी नहीं मिल सका । और भी बहुतसे वैद्यक ग्रंथोंका पता तो चलता है ( आगे स्पष्ट करेंगे ) परंतु उपलब्धि होती नहीं । जो कुछ भी उपलब्ध होता है, उन ग्रंथोंके रक्षण व प्रकाशनकी चिता समाजको नहीं है यह कितने खेदकी बात है । आज भारतवर्ष में जैनियोंका प्रकाशित एक भी वैद्यक ग्रंथ उपलब्ध नहीं, यह बहुत दुःख के साथ कहना पडता है वैद्यक ग्रंथोंका यदि प्रदर्शन भरेगा तो क्या जैनियोंका स्थान उसमें शून्य रहेगा ? अत्यंत दुःख है । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (24) जैनेतर वैद्यक ग्रंथोंकी अपेक्षा जैन वैद्यक ग्रंथो में विशेषता न हो तो अजैन विद्वान् जैन वैद्यक ग्रंथोंके आधारसे ही अपना प्रयोग क्यों चलाते । अजैन ग्रंथों में भी जगह २ पर पूज्यपादीय आदि आयुर्वेदके प्रमाण लिये गये हैं। एक बातकी विशेषता है कि जैनधर्म जिस प्रकार अहिंसा परमो धर्म को सिद्धांतमें प्रतिपादन करता है, उसी प्रकार उसे वैद्यक ग्रंथमें भी अक्षुण्ण बनाये रखता है। जैनाचार्योके वैद्यक ग्रंथमें मद्य, मांस, मधु का प्रयोग किसी भी औषधि में अनुपानके रूपसे या औषधके रूपसे यहीं बताया गया है। केवल वनस्पति, खनिज, क्षार, रत्नादिक पदार्थोका ही औषध में उपयोग बताया गया है। अर्थात् एक प्राणिकी हिंसा से दूसरी प्राणी की रक्षा जैनधर्म के लिए संमत नहीं है। इसलिए उन्होंने हिंसोत्पादक द्रव्योंका सेवन ही निषिद्ध बतलाया है ।। दूसरी बात आगमोंकी स्वतंत्र कल्पना जैन परंपराको मान्य नहीं है । वह गुरुपरंपरा से आनेपर ही प्रमाण कोर्टिमें ग्राह्य है । उस नियम का पालन वैद्यक ग्रंथमें भी किया जाता है । मनगढंत कल्पना के लिए उस में भी स्थान नहीं है। इतर वैद्यक ग्रंथों में औषधियोंका प्रयोग, स्वास्थ्यरक्षा आदि बातें ऐहिक प्रयोजन के लिए बतलाई गई है। शरीर को निरोग रखकर उसे हट्टा कट्टा बनाना व यथेष्ट इंदिय भोग को भोगना यही एक उनका उद्देश्य सीमित है। परंतु शरीरस्वास्थ्य, आत्मस्वास्थ्य के लिए है, इंद्रियोंके भोगके लिए नहीं, यह जैनाचार्योने जगह जगह पर स्पष्ट किया है । इसलिये ही औषधियोंके सेवनमें भी जैनाचार्योनें भक्ष्याभक्ष्य सेव्यासेव्य आदि पदार्थोका ख्याल रखने के लिये आदेश किया है। इस प्रकार जैन-जेनेतर आयुर्वेद ग्रंथोंको सामने रखकर विचार करनेपर जैनाचार्यों के वैद्यक ग्रंथीमें बहुत विशेषता और भी मालुम हो जायगी। जैन वैद्यककी प्रामाणिकता जैनागममें प्रामाणिकता सर्वज्ञ-प्रतिपादित होनेसे है। उसमें स्वरुचिविरचितपनेको स्थान नहीं है । सर्वज्ञ परमेष्टीके मुखसे जो दिव्यध्वनि निकलती है उसे श्रुतज्ञानके धारक गणधर परमेष्ठी आचारांग आदि बारह भेदोमें विभक्त कर निरूपण करते हैं । उनमें से बारहवें अंगके चौदह उत्तर भेद है। उन चौदह भेदोमें (पूर्व ) प्राणावाय नामक एक भेद है । इस प्राणावाय पूर्वमें " कायचिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेदः भूतकर्मजांगुलिप्रक्रमः प्राणापानविभागोपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्रणावायम्" अर्थात् जिस शास्त्रमें काय, तद्गतदोष व चिकित्सादि अष्टांग आयुर्वेदका वर्णन विस्तार से किया गया हो, पृथ्वी आदिक भूतोंकी क्रिया, विषैले जानवर व उनकी चिकित्सा वगैरह, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (25) तथा प्राणापानका विभाग जिसमें किया हो उसे प्राणायायपूर्व शास्त्र कहते हैं। इस प्राणावाय पूर्व के आधारपर ही उपदित्याचार्य ने इस कल्याणकारक की रचना की है। ऐसा महर्षिने ग्रंथमें कई स्थानोंपर उल्लेख किया है । ओर ग्रंथके अंतमें उसे स्पष्ट किया है। सर्वार्धाधिकमागधीयविलसद्भापाविशेषाजल-, प्राणावायमहागमादवितथं संगृह्य संक्षेपतः उग्रादित्यगुरुर्गुरुर्गुरुगणैरुद्भासिसौख्यास्पदं । शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयाः ॥ अ. २५ श्लो० ५४ सुंदर अर्धमागधी भाषामें अत्यंत शोभा से युक्त महागंभीर ऐसा प्राणावाय नामक जो महान् शास्त्र है, उसको यथावत् संक्षेप मे संग्रह कर महात्मा गुरुवोंकी कृपासे उग्रादित्याचार्यने सर्व प्राणियोंका कल्याण करने में समर्थ इस कल्याणकारकको बनाया । वह अर्धमागधी भाषा में है और यह संस्कृत भाषामें है । इतना ही दोनोमें अंतर है। इसलिए यह आगम उस द्वादशांग का ही एक अंग है । और इस ग्रंथ की रचना में महर्षिका निजी कोई स्वार्थ नहीं है । तत्वविवेचन ही उनका मुख्य ध्येय है । इसलिए इसमें अप्रामाणिकता की कोई आशंका नहीं की जा सकती। अतएव सर्वतो प्रामाण्य है। उत्पत्तिका इतिहास. ग्रंथ के प्रारंभ में महर्षिने आयुर्वेद-शास्त्रकी उत्पत्ति के विषयमें एक सुदर इतिहास लिखा है । जिसको बांचने पर उसकी प्रामाणिकता में और भी श्रद्धा सुदृढ हो जाती है । ___ ग्रंथ के आदि में श्री आदिनाथ स्वामीको नमस्कार किया है । तदनंतरतं तीर्थनाथमधिगम्य विनम्य मूर्ना । सत्मातिहार्यविभवादिपरीतमूर्तिम् । सप्रश्रयाः त्रिकरणोरुकृतपणामाः पप्रच्छुरित्थमखिलं भरतेश्वरायाः ॥ श्री ऋषभनाथ स्वामी के समवसरण में भरतचक्रवर्ति आदि भव्योंने पहुंचकर श्री भगवंत की सविनय वंदना की और भगवान् से निम्न लिखित प्रकार पूछने लगे-. भो स्वामिन ! पहिले भोगभूमि के समयमें मनुष्य कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न अनेक प्रकार के भोगोपभोग सामग्नियोंसे सुख भोगते थे। यहां भी खूब सुख भोगकर तदनंतर स्वर्ग में पहुंचकर वहां भी सुख भोगते थे । वहांसे फिर मनुष्य भवमें आकर अनेक पुण्यकार्योको कर अपने २ इष्ट स्थानोंको प्राप्त करते थे । भगवन् ! अब भारतवर्षको कर्मभूमि का रूप मिला है । जो चरमशरीरी हैं व उपपाद जन्ममें जन्म लेनेवाले हैं उनको तो अब भी अपमरण नहीं है। उनको दीर्घ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (26) आयुष्य प्राप्त होता है । परन्तु ऐसे भी बहुतसे मनुष्य पैदा होते हैं जिनकी आयु दीर्घ नहीं रहती, और उनको वात, पित्त कफादिक दोषोंका उद्रेक होता रहता है। उनके द्वारा कभी शीत और कभी उष्ण व कालक्रमसे मिथ्या--आहार सेवन करनेमें आता है। इसलिये अनेक प्रकार के रोगोंसे पीडित होते हैं। वे नहीं जानते कि कोनसा आहार ग्रहण करना चाहिये और कोनसा नहीं लेना चाहिये । इसलिये उनके स्वास्थ्यरक्षा के लिये योग्य उपाय आप बतावें । आप शरणागतों के रक्षक है । इस प्रकार भरतके प्रार्थना करनेपर, आदिनाथ भगवंतने दिव्यध्वनिके द्वारा पुरुषका लक्षण, शरीर, शरीरका भेद , दोषोत्पत्ति, चिकित्सा, कालभेद आदि सभी बातोंका विस्तारसे वर्णन किया। तदनंतर उनके शिष्य गणधर व बादके तीर्थंकरोंने व मुनियोने आयुर्वेदका प्रकाश उसी प्रकार किया! वह शास्त्र एक समुद्र के समान है, गंभीर है। उससे एक बूंद को लेकर इस कल्याणकारक की रचना हुई है अथवा उस शास्त्रकी यह एक बृन्द है। सर्वज्ञ भाषित होने के कारण सबका कल्याण करनेवाला है । इस प्रकारके ग्रंथके इतिहासको प्रकट करते हुए प्रत्येक अध्यायके अंतमें यह श्लोक लिखते हैं। इति जिनवक्त्रविनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः। सकलपदार्यविस्तृततरंगकुलाकुलतः । उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो निमृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ वैद्यकशब्दकी निरुक्ति. . वैद्य शब्दकी व्याख्या करते हुए आचार्य ने लिखा है कि जीवादिक समस्त पदार्थों के लक्षण को प्रगट करनेवाले केवलज्ञान को विद्या कहते हैं । उस विद्या से इस ग्रंथ की उत्पत्ति हुई है, इसलिए इसे वैद्य कहते हैं । इस ग्रंथके अध्ययन व मनन करने वाले विद्वान् को भी वैद्य कहते हैं। यथा.. विद्येति सत्यकटकेवललोचनाख्या तस्यां यदेतदुपपत्रमुदारशास्त्रम । वैद्यं वदंति पदशास्त्रविशेषणज्ञा एतद्विचिंत्य च पठति च तेपि वैद्याः ॥ अ. १ श्लो. १८ क्या ही सुंदर अर्थ आचार्यने वैद्य शब्द का किया है। इस में किसी को विवाद ही नहीं हो सकता। आयुर्वेद. - इस शास्त्र को आयुर्वेद शास्त्र भी कहते हैं । उस का कारण यह है कि इस शास्त्र में सर्वइतीर्थकरके द्वारा उपदिष्ट तत्वका विवेचन किया है। इसके हानसे मनुष्य को आधुसंबंधी समस्त बाते मालुम हो जाती है या इन बातो को मालुम करनेके लिए Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - यह वेदके समान है । इसलिए इस शास्त्र का अपरनाम आयुर्वेद के नामसे भी कहा जाता है। वैयकग्रंथके अध्ययनाधिकारी. वद्यकशास्त्र का अभ्यास कौन कर सकता है इस संबंध में लिखते हुए आचार्य ने आज्ञा दी है कि - राजन्यविश्वरवैश्यकुलेषु कश्चित् । धीमाननिधचरितः कुशलो विनतिः।। - प्रातः गुरुं समुपसृत्य यदा तु पृच्छत् । सोयं भवेदमलसंयमशास्त्रभागी ॥ अ. १. श्लोक २१. जो ब्राम्हण क्षत्रिय व वैश्य इन तीन उच्च वर्गों में से किसी एक वर्ण का हो, निर्दोष आचरण वाला हो, कुशल व स्वभावतः विनयी हो एवं बुद्धिमान हो वह वैद्यक शास्त्रके अध्ययनकी उत्कट इच्छासे प्रातःकाल में गुरु के निकट जाकर प्रार्थना करें, वही इस शास्त्र के अध्ययनका अधिकारी हो सकता है । गुरूका कर्तव्य. इस संबन्धमें आचार्य स्पष्ट करते हैं कि वह उस शिष्यके जातिकुल व गुण आदि का परिचय कर लेवें एवं अच्छीतरह उस की परीक्षा कर लेवें । तदनंतर श्रीभग. वान् अर्हत के समक्ष उस शिष्य को अनेक व्रत देवें । तदनंतर उक्त शिष्य को अध्ययन प्रारंभ करावें । इस से प्राचीन काल में शिष्योंको विद्याध्ययनकी परिपाटी कैसी थी ? उस संस्कारके प्रभाव से वे किस श्रेणी के विद्वान् बनते थे ? इत्यादि प्रश्नोंका उत्तर सहज मिल सकता है। वैद्यशास्त्रके उपदेशका प्रयोजन. लोकोपकारकरणार्थमिदं हि शास्त्रं । शास्त्रप्रयोजनमपि द्विविधं यथावत् । स्वस्थस्य रक्षणमथामयमोक्षणं च । संक्षेपतस्सकळमेव निरूप्यतेऽत्र ॥ अ. १ श्लो. २४ वैद्यक शास्त्र की रचना लोक को उपकार करनेके लिए होती है । इस शास्त्र का प्रयोजन भी दो प्रकार का है । स्वस्थपुरुषोंका स्वास्थ्यरक्षण व रोगियों का रोग मोक्षण करना ही इस का उद्देश्य है । उन सब बातों को यहां इस ग्रंथमें संक्षेप से वर्णन किया गया है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (28) स्वास्थ्यके भेद. आचार्यने स्वास्थ्यके भेद दो प्रकार से बतलाया है एक पारमार्थिकस्वास्थ्य आर दूसरा व्यावहारिकस्वास्थ्य । ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों के नाश से उत्पन्न अविनश्वर अतींद्रिय व अद्वितीय आत्मीयसुखको पारमार्थिक स्वास्थ्य कहते हैं । देह स्थित सप्तधातु, अग्नि व वातपित्तादिक दोषोंमें समता रहना, इन्द्रियोंमें प्रसन्नता व मनमें आनंद रहना एवंच शरीर निरोग रहना इसे व्यावहारिक-स्वास्थ्य कहते हैं। स्वास्थ्पके बिगडने के लिये आवार्यने असातावेदनीय कर्मको मुख्य बतलाया है। और वात, पित्त व कफ में विषमता आदि को बाह्य कारणमें ग्रहण किया है। इसी प्रकार रोगके शांत होने में भी मुख्यकारण असाता वेदनीय कर्मकी उदीरणा व साताका उदय एवं धर्मसेवन आदि हैं बाह्यकारण तद्रोगयोग्य चिकित्सा व द्रव्यक्षेत्र काल भावकी अनुकूलता आदि हैं। चिकित्साका हेतु. वैद्य को उचित है कि वह निस्पृह होकर चिकित्सा करें । इस विषय में आचार्य ने बहुत अच्छी तरह खुलासा किया है। ___सातवें अध्यायमें इस विषय को स्पष्ट करते हुए आचार्यने लिखा है कि चिकित्सा पापोंकों नाश करनेवाली है । चिकित्सासे धर्म की वृद्धि होती है । चिकित्सासे इहलोक व परलोकमें सुख मिलता है। चिकित्सासे कोई अधिक तप नहीं है। इसलिए चिकित्सा को कोई काम, मोह व लोभवश होकर न करें। और न चिकिसामें कोई प्रकारसे मित्रताका अनुराग होना चाहिए । और न शत्रुताके रोष रखकर ही चिकित्सा करनी चाहिए । बंधुवुद्धि से, सत्कार के निमित्त से भी चिकित्सा नहीं होनी चाहिए । अर्थात् चिकित्सकको अपने मनमें कोई भी प्रकारका विकार नहीं रहना चाहिए। किंतु वह रोगियोंके प्रति करुणाबुद्धिसे व अपने कौके क्षयके लिए चिकित्सा करें। इस प्रकार निस्पृह व समीचीन विचारोंसे की गई चिकित्सा कभी व्यर्थ नहीं होती उस वैद्य को अवश्य ही हरतरहसे सफलता प्राप्त होती है। जैसे किसान यदि परिश्रम पूर्वक खेती करता है तो उसका फल व्यर्थ नहीं होता, उसी प्रकार परिश्रम पूर्वक किये हुए उद्योगमें भी वैद्यको अवश्य अनेक फल मिलते है । चिकित्सक : चिकित्सा करने वाला वैद्य कैसा होना चाहिए इस विषयपर ग्रंथकारने जो प्रतिपादन किया है वह प्रत्येक वैद्योंको ध्यानमें रग्बने लायक है । उनका कहना है कि-- .. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 29 ) - - चिकित्सकः सत्यपरः सुधीरः क्षमन्वितः हस्तलघुत्वयुक्तः । स्वयंकृती दृष्टमहाप्रयोगः समस्तशास्त्रार्थविदप्रमादी । अ. ७. श्लो. ३८ अर्थात् वैद्य सत्यनिष्ठ, धीर, क्षमासम्पन्न, हस्तलाघवयुक्त, स्वयं औषधि तैयार करने में समर्थ, बडे २ रोगोंपर किए गए प्रयोगोंको देखा हुआ, संपूर्ण शास्त्रोंको जानने वाला व आलस्यरहित होना चाहिए । वैद्यको उचित है कि वह रोगियों को अपने पुत्रोंके समान मानकर उनकी चिकित्सा करें। तभी वह सफल वैद्य हो सकता है। इस विषय को प्रथमाध्याय में आचार्य ने इस प्रकार विवेचन किया है कि ग्रंथ के अर्थ को जाननेवाला, बुद्धिमान, अन्य आयुर्वेदकारों के मत का भी अभ्यासी, अच्छी तरह बडे २ प्रयोगों को करने में चतुर, बहुत से गुरुओंसे अनुभव प्राप्त, ऐसा वैद्य विद्वानोंके लिए भी आदरणीय होता है । वैद्य दो प्रकार के होते हैं । एक शास्त्र वैद्य व दूसरा क्रियावैध । जो केवल वैद्यक शास्त्रोंका अध्ययन किया हो उसे शास्त्रवैद्य कहते हैं । जो केवल चिकित्सा विषय में ही प्रवीण हो उसे क्रियावैद्य कहते हैं। परंतु दोनों बातों में प्रवीणता को पाना यह विशिष्ट महत्वसूचक है। वही उत्तम वैद्य है । जिस प्रकार किसी मनुष्य का एक पैर बांध देने से वह नहीं चल सकता है, उसी प्रकार दोनोंमें से एक विषय में प्रवीण वैद्य रोगोंकी चिकित्सा ठीक तौरसे नहीं कर सकता है । उसके लिए दोनों विषयों में निष्णात होने की जरूरत है । ___ लोकमें कितने ही अज्ञानी वैद्य भी चिकित्सा करते हैं । कभी २ अंधे के हाथ में बटेरके समान उस में उन्हें सफलता भी होती है । परंतु वह प्रशंसनीय नहीं है । क्यों कि वे स्वयं यह नहीं समझते कि औषधि का उपयोग किस प्रकार करना चाहिए। और किस रोगपर किस प्रयोग का उपयोग करना चाहिए । प्रकृतरोगका कारण क्या है। उनकी उपशांति किस प्रयोग से हुई यह जानने में भी वे असमर्थ रहते हैं। कभी ऐसे अज्ञानी वैद्योंकी कृपासे रोगियोंको अकालमें ही इहलोकसे प्रस्थान करना पडता है। इसलिए शास्त्रकारोंने कहा कि अज्ञानी वैद्य यदि लोभ व स्वार्थवश किसीकी चिकित्सा करता है तो वह रोगियोंकों मारता है। ऐसे मूर्ख वैद्योंपर राजावोंको नियंत्रण करना चाहिए । इस संबंध में ग्रंथकारका कहना है कि---- अज्ञानतो वाप्यातिलोभमोहादशास्त्रविद्यः कुरुते चिकित्सा । सर्वानसौ मारयतीह जन्तून् क्षितीश्वरैरत्र निवारणीयः ॥ अ. ७ श्लोक ४९ अज्ञानी के द्वारा प्रयुक्त अमृततुल्य-औषधि भी विष व शस्त्र के समान होते हैं। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (30) - - www - - इस प्रकार आगेके श्लोकोंसे आचार्य ने प्रकट किया है । इसलिए वैद्य को उचित है कि वह गुरूपदेश से शास्त्र का अध्ययन करें। तदनंतर बडे २ वैद्योंके निकट रहकर प्रयोगों को देखकर अनुभव करें । तब ही कहीं जाकर वह स्वयं चिकित्सा करने को समर्थ हो सकता है। रोगियोंका कर्तव्य. रोगियोंके कर्तव्य को बतलाते हुए आचार्य ने सातवें अध्याय में लिखा है कि रोंगी जिस प्रकार अपने माता, पिता, पुत्र, मित्र कलत्र पर विश्वास करता हो, उसी प्रकार वैद्य के प्रति भी विश्वास करें। वैद्यसे किसी विषय को छिपाये नहीं। मायाचार व वंचना नहीं करें ऐसा होनेपर ही उसका रोगमोक्षण हो सकता है। इस प्रकार और भी बहुतसे जानने लायक विषयोंको आचार्यने इस खूबीके साथ वर्णन किया है जिसका स्वाद समग्र ग्रंथको प्रकरणबद्धरूपसे बांचनेसे ही आसकता है। एक प्रति में हमें औषधि लेते समय प्रयोग करनेवाले मंत्र का भी उलेख मिला है। उसे पाठकोंके उपयोग के लिए यहां उद्धृत कर देते हैं । रोगाकांतेऽपि मे देहे औषधं सारमामृतम् । वैद्यस्सौषधिप्राप्तो महर्षिरिव विश्रुतः ॥ रोगान्विते भूरितरां शरीरे सिद्धौषधं मे परमामृतं स्तात् । आचैव वैद्यो ममरोगहारी सर्वोषधिमाप्त इवर्षिरस्तु ॥ रोगान्विते भूरितरां शरीरे दिव्यौषधं मे परमामृतं स्तात् । सौषधर्घिमुनये च निरामयाय श्रीमजिनाय जितजन्मरुजे नमास्तु ॥ : जैन वैद्यक ग्रंथकर्ता. प्रकृत ग्रंथके देखनेसे मालुम होता है कि अन्य जैनाचार्योने वैधक ग्रंथकी जो रचना की है व उस विषयमें उनका अपूर्व पण्डित्य था । ग्रंथकारने प्रकृत प्रथमें जगह जगहपर अन्य आचार्यों के वैद्यक संबंधी मतको उद्धृतकर अपना विचार प्रकट किया है। उन अंधकारोंमे श्रुतकीर्ति, कुमारसेन, वीरसेन, पूज्यपाद पात्रस्वामी (पात्रकेसरी) सिद्धसेनं दशरथगुरु, मेघनाद, सिंहनाद, समंतभद्र एवं जटाचार्य आदि आचार्योके नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । इसमे स्पष्ट है कि इन आचार्योने भी वैद्यक ग्रंथकी रचना की है। परंतु खेद है कि वे ग्रंथ अभी उपलब्ध नहीं होते हैं। जिन ग्रंथोंके आधारसे उमादित्याचार्यने प्रकृत संदर ग्रंथका निर्माण किया है उसके मूलाधार न मालुम कितने महत्व Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (31 - - पूर्ण होंगे ? क्या उन महर्षियोंकी कृतियां सबकी सब नष्ट होगई ? या उन्होने ग्रंथरूपमें रचना ही नहीं की थी ? उन महर्षियोने वैद्यक ग्रंथोंकी रचना की है यह बात प्रकृत ग्रंथ के निम्नलिखित श्लोकसे स्पष्ट होता है । शालाक्यं पूज्यपादप्रकटितमधिक शल्यतंत्रं च पात्रस्वामित्रोक्तं विषाग्रग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः प्रसिद्धैः । काये या सा चिकित्सा दशरथगुरुभिर्मेघनादैः शिशूनां वैधं वृष्यं च दिव्यामृतमपि कथित सिंहनादेमुनौद्रेः ॥ अ. २० श्लोक ८५ अर्थात् पूज्यपाद आचार्यन शालाक्य-शिराभेदन नामक ग्रंथ बनाया है । पात्र स्वामिने शल्यतंत्र नामक ग्रंथ की रचना की है । सिद्धसेन आचार्य ने विष व उग्र ग्रहोंका शमनविधि का निरूपण किया है । दशरथ गुरु व मेघनाद आचार्य ने बाल रोगोंकी चिकित्सा सम्बन्धी ग्रंथ का प्ररूपण किया है। सिंहनाद आचार्य ने शरीरबलवर्द्धक प्रयोगों का निरूपरण किया है । और भी लीजिए-~.. अष्टांगमप्यखिलमत्र समंतभद्रैः प्रोक्तं सविस्तरवचो विभर्विशेषात् ।। संक्षेपतो निगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम् ॥ अर्थात् श्रीसमंतभद्राचार्यने अष्टांग नामक ग्रंथ में विस्तृत व गंभीर विवेचन किया है। उसके अनुकरण कर मैंने यहांपर संक्षेप से यथाशक्ति संपूर्ण विषयोंसे परिपूर्ण इस कल्याणकारक को लिखा है। अब पाठक विचार करें कि वे सब ग्रंथ कहां चले गए ? नष्ट होगए ! इसके सिवाय हमारे पास और क्या उत्तर है ? हा! जैनसमाज ! सचमुचमें तेरा दुर्भाग्य है ! न मालुम उनमें कितने अमूल्य-रत्न भरे होंगे ? .. - श्रीपूज्यपाद. . महर्षि पूज्यपादने वैद्यक ग्रंथ का निर्माण किया है, यह विषय अब निर्विवाद हुआ है । प्रकृत ग्रंथ में भी आचार्यने पूज्यपाद के ग्रंथ का उल्लेख किया है । इस के अलावा शिलालेखों में भी उल्लेख मिलता है । न्यासं जैनेंद्रसज्ञ सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो । न्यास शावतारं मनुजासतिहित वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्वार्थस्य टीका व्यरचयदिह तो भात्यसौ पूज्यपादः । स्वामी भूपालगंधः स्वपरहितक्या पूर्णदग्बोधवृत्तः ।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (12) इसी प्रकार अन्य वैद्यक ग्रंथकारोने भी स्थान २ पर पूज्यपादीय वैद्यक प्रयोगोंका उल्लेख किया है। बसवराजीयमें । सिंदूरदर्पणं तद्वत्पूज्यपादोयमेव च ' इत्यादि रूपसे उल्लेख किया है । इसीप्रकार बसवराजने अपने वैद्यक ग्रंथमें पूज्यपाद के अनेक योगोंका ग्रहण किया है। अशीतिवातानां कालाग्निरुद्ररसोऽग्नितुण्डी वा। शुद्धसूतं विषं गंधमजमोदं फलत्रयम् । सर्जक्षारं यवक्षारं बहिसैन्धवजीरकम् ॥ सौवर्चलं विडंगानि टङ्कणं च कटुत्रयम् । विषमुष्टिः सर्वसमो जंबीरमर्दयेदिनम् ॥ मरीचमात्रवटिका ह्यग्निमान्धं प्रणाशयेत् । अशांतियातजारोगान्गुल्मं च ग्रहणीगदान् । र:कालाग्निरुद्रोऽयं पूज्यपादविनिर्मितः ॥ [ षष्ठं प्र. पृ. १०३ बसराजीये ।। भ्रमणादिवातानां (गन्धकरसायनम् ) - बसवराजीये षष्ठे प्रकरणे पृ. ११० । षटपलं गन्ध चूर्ण च त्रिफला चित्रतण्डलाः । शुण्ठीमरीचवैदेहीपणिष्कं च पृथक्पृथक् ॥ चित्रकं च पलैकं तु चूर्णितं वस्त्रगालितम् । एकनिष्क द्विनिक वा पयसाध्यसितैः पिबेत् ।। सर्वरोगविनिर्मुक्तो मृगराजपराक्रमः । दीर्वायुः कुञ्जरबलो दिवा पक्ष्यति तारकाः ॥ दिव्यदेहो बली भूत्वा खेचरत्वं प्रपद्यते । तस्य मूत्रपुरीषाणि शुक्लं भवति काञ्चनम् ॥ हन्त्यष्टादशकुष्ठानि महण्यश्च चतुर्विधाः । मन्दाग्निमतिसारं च गुल्ममष्टविधं तथा ॥ अशीतियातरोगांश्च हाशास्यष्टविधानि च । मनुष्याणां हितार्थं हि पूज्यपादेन निर्मितः ॥ वातादिरोगाणां त्रिकटुकादिनस्यम् ( पूज्यपादीये ) यूषणं चित्रकं चैव लांगली चेन्द्रवारुणी। वचामधुकबीजानि तत्र पाठानदीफलम् ।। तालकं वत्सनाभं च अङ्कोलक्षारयुग्मकम्। एवं पंचदशैतानि समभागानि कारयेत् । सूक्ष्मचूर्णीकृतं चैव निर्गुण्डीतितिणीरसैः । आर्द्रकस्य रसैमर्थ त्रिविधैश्च विचक्षणः।। एवं नस्यं प्रदातव्यमर्कमूलरसेन च । अपस्मार च हवाग वातसङ्कुलमेव च ॥ धनुर्वात भ्रमं हन्ति ह्युन्मादं सन्निपातकम्। पूज्यपादकृतो योगी नराणां हितकाम्यया .प. प्र., ब. रा., पृष्ट १११ वरगांकुशः [ माधवनिदाने ] रसाम्बसारगन्धं च जैपालबीजटंकणम् । दन्तीकाथैर्विमृद्याथ मुद्गमात्रा वटी कृता।। चणमात्राथवा शेया नागवल्लीदलाविता । देया सर्वज्वरान्हन्ति संजर तरुणवरम्।। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8) - -m mersion शर्कराक्षीरदधिभिः पथ्यं चैव प्रदापयेत् । पूज्यपादोपदिष्टोऽयं सर्ववरगजांकुशः प्र. १ पृ. ३०. ज्वाराणां चण्डभानुरसः [ नित्यनार्थीये ] मृतातत्रैगुण्यगन्धं परिमितममृतं तीक्ष्णक भानुनेत्र । तालं स्यात्तच्चतुष्कं गगनमथयुगं मारिचं सर्वतुल्यम् ।। एवं दद्यानिहन्ति ज्वरवनदहनस्तामसाहेः खगेन्द्रः । कासश्वासापहन्ता क्षयतरुदहनः पाण्डुरोगापहन्ता । वातव्याधीभसिंहो ह्युदरजलनिधेः शोषको वाडवानिः। नष्टानेदीपकः स्याज्जठरमलमहालंशहद्रोगहारी ! मूळव्याध्यन्धकारमशमनतपनः कुष्ठरोगापहन्ता । नाम्नायं चण्डभानुः सकलगदहरो भाषितः पूज्यपादैः ॥ शोफमुद्गररसः रसं गन्धं भृतं तानं पथ्यावालुकगुग्गुलं । सपमाज्यन संयुक्तं गुलिकाः कारयेत्ततः एकैकां सेवयद्वैद्यः शोफपाण्ड्वापनुत्तये । शीतलं च जलं देयं तकं चाम्लं विवर्जयेत् शोफमुद्रनाम्नाय पूज्यपादेन निर्मितः । रसरत्नसमुचयकारने कणेरी पूज्यपादश्च इत्यादिरूप से पूज्यपादका उल्लेख अपने प्रथमें किया है । __ इससे भी स्पष्ट है कि पूज्यपादने वैद्यक ग्रंथ का निर्माण किया था । महर्षि चामुंडरायने पूज्यपाद स्वामीकी निम्नलिखित शब्दोंसे प्रशंसा की है। मुकविषणुतव्याकरणकर्तृगळू गगनगमनसामर्थ्यरताकिंक तिळिकरेंदु पोगवुदु सकलजनं पूज्यपादभट्टारकरम् ॥ प्राचीन ऋषि श्री शुभचंद्र ने अपने ज्ञानार्णवमें पूज्यपाद की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि अपाकुति यद्वाचः कायवाक्चित्तसंभवम् । कलंकमंगिनां सोऽयं देवनंदी नमस्यते ॥ इसी प्रकार पार्श्वपंडितने पूज्यपाद स्वामी के संबंध में लिखते हुए उसी आशयको पष्ट किया है कि Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (34) monaam सकळोनुतपूज्यपादमुनिपं तो पेल्द कल्याणकारकदि देहद दोषमं विततवाचादोषमं शब्दसाधकजैनेंद्रदिनी जगज्जनद मिथ्यादोषमं तत्वबांधक तत्वार्थद वृत्तिायेंद कळेदं कारुण्यदुग्धार्णवं ॥ उपर्युक्त शुभचंद्राचार्य के वचनोंका यह ठीक समर्थक है अर्थात् सर्वजनपूज्यश्री पूज्यपाद ने अपने कल्याणकारक नामक वैद्यक ग्रंथ के द्वारा प्राणियोंके देहज दोषोंको, शन्दसाधक जैनेंद्र व्याकरण से वचनके दोषोंको और तत्वार्थवृत्ति की रचना से मानसिक दोष [ मिथ्यात्व ] को दूर किया है । इससे भी यह स्पष्ट होता कि पूज्यपादने कल्याण कारक नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना की है । इसके अलावा कुछ विद्वानोंका जो यह कहना है कि सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद व वैद्यकग्रंथ के कर्ता पूज्यपाद अलग २ हैं वह गलत मालुम होता है। कारण इससे स्पष्ट होता है कि पूज्यपादने ही भिन्न २ विषयोंके ग्रंथों का निर्माण किया था। कुछ विद्वान् वैद्यक-ग्रंथकर्ता पूज्यपाद को १३ वें शतमानमें डालकर उनमें भिन्नता सिद्ध करना चाहते हैं। परंतु उपर्युक्त प्रमाणोंसे वे दोनों बातें सिद्ध नहीं होती । प्रत्युत् यह स्पष्ट होता है कि पूज्यपाद ने ही व्याकरण सिद्धांत व वैद्यक ग्रंथकी रचना की है। जब उग्रादित्याचार्यने भी पूज्यपादके वैद्यक-ग्रंथका उल्लेख किया है और जब कि उग्रादित्याचार्य जिनसेन के समकालीन थे ( जो आगे सिद्ध किया जायगा) तो फिर यह बहुत अधिक स्पष्ट हो चुका कि पूज्यपाद का पंधक ग्रंथ बहुत पहिले से होना चाहिए। वे और कोई नहीं है । अपितु सर्वार्थसिद्धिके कर्ता पूज्यपाद ही हैं । उग्रादित्याचार्य के कल्याणकारक से तो यह भी ज्ञात होता है कि पूज्यपाद ने कल्याणकारक के अलावा शालाक्य तंत्र ( शल्यतंत्र ) नामक ग्रंथका भी निर्माण किया था,जिसमें आपरेशन आदिका विधान बतलाया गया है । पूज्यपाद स्वामीका समग्र वैद्यक ग्रंथ तो उपलब्ध नहीं होता । तथापि यह निस्संदेह कह सकते हैं कि उनकी वैद्यकीय रचना भी सिद्धांत व व्याकरण के समान बहुत ही महत्वपूर्ण होगी । उन्होंने अपने ग्रंथमें जैनमत प्रक्रियाके शब्दोका ही प्रयोग किया है। इसीसे उनके. ग्रंथकी महत्ता मालुम हो सकती है कि उन्होंने अपने ग्रंथ में कुमारी भुंगामलक तैलके क्रमको अनुष्टप् श्लोकके ४६ चरणोंसे प्रतिपादन किया है । गंधक रसायन के क्रम को ३७ चरणोंमें, महाविषमुष्टितैलकी विधिको ४८ चरणोंमें, और भुवनेश्वरी चूर्ण के विधानको ३० चरणोमें प्रतिपादन किया है । मरिचकादि प्रक्रिया जो उनके ग्रंथमें कही गई है वह निम्नलिखित प्रकार है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) PARANAKAAAAAAnnn मरिचमरिचमरिचं तिक्ततिक्तं च तिक्तम् । कणकणकणमूळं कृष्णकृष्णं च कृष्णम् । मेघ मेघं च मेघो रजरजरजनी यष्टियष्टयाह्वयष्टी ॥ वज्र वज्रं च व जलजलजलजं ,गिभृगी च भृगम् । श्रृंगं श्रृंगं च श्रृंगं हरहरहरही वालुकं वालुकं वा ॥ कंटत्कंटकर्कटं शिवशिवशिवनी नंदिनंदी च नंदी। हेमं हेमं च हेमं वृषवृषवृषभा अग्निअग्नी च अग्ने ॥ वातिर्वातं च पैत्यं विषहरनिमिषं पूजितं पूज्यपादैः !! इससे स्पष्ट है कि पृथ्यपादका वैद्यक ग्रंथ महत्वपूर्ण व अनेक सिद्धौषध प्रयोगोंसे युक्त है । परंतु खेद है कि आज हम उसका दर्शन भी नहीं कर सकते उपर्युक्त कल्याण कारक व शालाक्यतंत्रके अलावा पूज्यपादने वैद्यामृत नामक वैद्यकग्रंथकी रचना भी की है। यह ग्रंथ कानडीमें होगा ऐसा अनुमान है । गोम्मटदेव मुनिने पूज्यपादके द्वारा निर्मित वैद्यामृत नामक ग्रंथ का निम्न लिखित प्रकार उल्लेख किया है। सिद्धांतस्य च वेदिनो जिनमते जैनेंद्रपाणिन्य च । कल्पव्याकरणाय ते भगवते देव्यालियाराधिपा (?) | श्रीजैनेंद्रवचस्सुधारसवरैः वैद्यामृतो धार्यते । श्रीपादास्य सदा नमोस्तु गुरवे श्रीपूज्यपादौ मुनेः ॥ ___समंतभद्र. पूज्यपाद के पहिले महर्षि समंतभद्र हर एक विषय में अद्वितीय विद्वत्ता को धारण करनेवाले हुए। आपने न्याय, सिद्धांत के विषय में जिस प्रकार प्रौढ प्रभुत्व को प्राप्त किया था उसी प्रकार आयुर्वेद के विषय में भी अद्वितीय विद्वत्ता को प्राप्त किया था। आप के द्वारा सिद्धांतरसायनकल्प नामक वैद्यक ग्रंथ की रचना अठारह हजार श्लोक परिमित हुई थी। परंतु आज वह कीटोंका भक्ष्य बन गया है। कहीं २ उसके कुछ श्लोक मिलते हैं जिन को संग्रह करने पर २ . ३ हजार श्लोक सहज हो सकते हैं । अहिंसाधर्म-प्रेमी आचार्य ने अपने ग्रंथमें औषधयोंग में पूर्ण अहिंसाधर्म का ही समर्थन किया है । इसके अलावा आपके ग्रंथमें जैन पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग एवं संकेत भी तदनुकूल दिये गये हैं। इसलिए अर्थ करते समय जैनगत की प्रक्रियावोंको ध्यानमें रखकर अर्थ करना पडता है । उदाहरणार्थ “ रत्नत्रयौषध" का उल्लेख ग्रंथमें आया है । इसका अर्थ बत्रादि रत्नत्रययोंके द्वारा निर्मित औषधि ऐसा सर्व-सामान्याष्टिसे Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) होसकेगा । परंतु वैसा नहीं है । जैन सिद्धांत में सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रको रत्नत्रयके नामसे कहा है । वे जिसप्रकार मिथ्यादर्शन ज्ञानचारित्ररूपी त्रिदोषोंको नाश करते हों इसीप्रकार रस, गंधक व पाषाण इन त्रिधातुवोंका अमृतीकरण कर तैयार होनेवाला रसायन वात, पित्त व कफरूपी त्रिदोषोंको दूर करता है । अतएव इस रसायनका नाम त्यौषध रक्खा गया है । इसी प्रकार औषध निर्माण के प्रमाण में भी जैनमत प्रक्रियाके अनुसार ही संकेत संख्यायोंका विधान किया है । जैसे रससिंदूर को तैयार करनेकेलिए कहा है कि " सूतकेसरिगंधकं मृगनवासारद्रुमं " | यहां विचारणीय विषय यह है कि यह प्रमाण किस प्रकार लिया हुआ है । जैन तीर्थंकरोंके भिन्न २ चिन्ह या लांछन हुआ करते हैं । उसके अनुसार जिन तीर्थकरों के चिन्हसे प्रमाणका उल्लेख किया जाय उतनी ही संख्या में प्रमाणका ग्रहण करना चाहिये । उदाहरणार्थ ऊपर के वाक्य में सूतं केसरि पद आया है । her sairat चिन्ह है, केसरि शब्दसे २४ संख्याका ग्रहण होना चाहिये । अर्थात् रस २४ गंधकं मृग अर्थात् मृग सोलहवें तीर्थंकरका चिन्ह होने से गंधक १६, इत्यादि प्रकारसे अर्थ ग्रहण करना चाहिये । समंतभद्र के प्रथमें सर्वत्र इसीप्रकार के सांकेतिक व पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है । रस सिंदूर के गुणको उन्होने सिद्धांत रसायन कल्प में निम्नप्रकार कहा है । सिद्र शुद्धस्तो विषधरशमनं रक्तरेणुश्च वर्ण । वातं पित्तन शीतं तपनिलसहितं विंशतिर्महत्रि । तृष्णादावार्तगुल्मं पिशगुदररजी पांडशोफोदराणां । कुष्टं चाष्टादशघ्नं सकलवणहरं सन्निशूलाग्रगंधि | दीपा धातुपुष्टं वडबशिखिकरं दीपनं पुष्टितेजं । बालीसौख्यसंगं जरमरणरुजाकांतिमायुःप्रवृद्धिं । वाचाशुद्धिं सुगानां ( 2 ) सकलरुजहरं देहशुद्धिं रसेंद्रे: । इन ग्रंथोंके पारिभाषिकशब्दों को स्पष्ट करने के लिए उसी प्रकारके कोषोंका भी जेवाचार्यांने निर्माण किया है । उस में इन पारिभाषिक शब्दों का अर्थ लिखा गया है। उपलब्ध कोषों में श्री आचार्य अमृतनंदि का कोप महत्वपूर्ण होने पर भी अपूर्ण है । इस कोष में बाईस हजार शब्द हैं फिर भी सकार में जाकर अपूर्ण होगया है । सकारके शब्दों को लिखते लिखते सप्त-सप्ति पर्यंत आचार्य लिख सके । बाद में ग्रंथपात होगया है । स, स से लेकर ह ळ क्ष पर्यंत के शब्दोंको वे क्यों नहीं लिख सके ? आयु का Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (37) : 17- अवसान हुआ होगा इसके सिवाय और क्या कहा जा सकता है। प्रारंभसे जिस विस्तृतिके साथ कोष का निर्माण हुआ है, उस से अवशेष शब्दोंका पात करीब ३००० की संख्यामें ले सकते है, यह हमारे दुर्भाग्य का विषय है । ग्रंथ में वनस्पतियोंका नाम जैन पारिभाषिक के रूप में आये हैं । जैसे अभव्यः-हंसपादि, अहिंसा-वृश्चिकालि, अनंत= सुवर्ण, ऋषभ पावठेकी टता, ऋषभा-आमलक, मुनिखर्जरिका-राजखर्जर, वर्धमाना: मधुर मातुलंग, वर्धमानः-श्वेतैरंड, वीतराग:-आम्र इत्यादि । ऐसे कोषों का भी उद्धार होने की परम आवश्यकता है। .. समंतभद्रके पूर्वके वैद्यकग्रंथकार. जैनवैद्यक विषय श्रीभगवान की दिव्य ध्वनि से निकला हुआ होने से इस की परंपरा गणधर, तच्छिष्यपरंपरा से बराबर चला आ रहा है, यह हम पहिले लिख चुके हैं। समंतभद्र के पहिले भी कुछ वैद्यक ग्रंथकर्ता उपलब्ध होते हैं। वे क्रि. पू. दुसरे तीसरे शतमान में हुए हैं । और वे कारवार जिल्ला, होन्नावर तालुका के गेरसप्पाके पास हाडमिळ में रहते थे। हाडमिळमें इंद्रगिरि, चंद्रगिरि नामक दो पर्वत हैं। यहांपर वे तपश्चर्या करते थे। अभी भी इन दोनों पर्वतोपर पुरातत्व अवशेष हैं । हमने इस स्थान का निरीक्षण किया है। इन मुनियोंने वैद्यक ग्रंथोंका निर्माण किया है । महर्षि समंतभद्रने अपने सिद्धांत रसायनकल्प ग्रंथमें स्वयं उल्लेख किया है कि " श्रीमद्भलातकाद्रौ वसति जिनमुनिः मूतवादे रसाब्ज" इ. साथमें जब समंतभद्राचार्यने अपने वैद्यकग्रंथकी रचना परिपक्वशैलीमें की एवं अपने ग्रंथमें पूर्वाचार्योकी परंपरागतताको भी "रसेंद्र जैनागमसूत्रबद्धं" इत्यादि शब्दों से उल्लेख किया तो अनुमान किया जा सकता है कि समंतभद्र के पहिले भी इस विषय के ग्रंथ होंगे । उन पूर्व मुनियोंने इस आयुर्वेद में एक विशिष्ट कार्य किया है । जो कि अन्यदुर्लभ है। - पुष्पायुर्वेद. जैनधर्म अहिंसाप्रधान होने से, उन महात्रतधारी मुनियोंने इस बातका भी प्रयत्न किया कि औषधनिर्माण के कार्य में किसी भी प्राणीको कष्ट नहीं होना चाहिए । इतना १ यह कोष बैंगलोरके वैद्यराज पं. यल्लप्पाकी कृपासे हम देखने को मिला व अनेक परा. मर्श भी मिले । इसके लिए हम उक्त वैद्यराजका आभारी है। सं. . २ भट्टारकीर प्रशस्ति में इस हाडटिळका उल्लेख संगीतपुर के नाम से मिलता है । क्यों कि कर्णाटक भाषामें हाडु शब्द का अर्थ संगीत है । हटिळ शब्द का अर्थ ग्राम है । इसलिए यह निश्चित है कि हाडजळका का ही संस्कृत नाम संगीतपुर है । सं० - Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (38) - - - ही नहीं एकेंद्रिय प्राणियोंका भी संहार नहीं होना चाहिए । अतएव उन्होंने पुष्पायुर्वेद का भी निर्माण किया । आयुर्वेद ग्रंथकारोंने वनस्पतियोंको औषधमें प्रधान स्थान दिया। चरकादि ग्रंथकारोंने मांसादिक अभक्ष्य पदार्थोका प्रचार औषधि के नामसे किया। परंतु जैनाचार्योने तो उस आदर्शमार्गका प्रस्थापन किया जिससे किसी भी प्राणीको कष्ट नहीं होसके। इसीलिए पुष्पायुर्वेद में ग्रंथकार ने अठारह हजार जाति के कुसुम (पराग ) रहित पुष्पों से ही रसायनौषधियों के प्रयोगोंको लिखा है। इस पुष्पायुर्वेद ग्रंथ में क्रि. पू. ३ रे शतमान की कर्णाटक लिपि उपलब्ध होती है जो कि बहुत मुष्किलसे बांचने में आती है । इतिहास संशोधकों के लिए यह एक अपूर्व व उपयोगी विषय है । अठारह हजार जाति के केवल पुष्पों के प्रयोगोंका ही जिसमें कथन हो,उस ग्रंथ का महत्व कितना होगा यह भी पाठक विचार करें । विशेष क्या ? हम बहुत अभिमान के साथ कह सकते हैं कि अभीतक पुष्पायुर्वेद का निर्माण जैनाचार्यो के सिवाय और किसीने भी नहीं किया है। आयुर्वेद संसारमें यह एक अद्भुतचीज है । इसका श्रेय जैनाचार्योको ही मिल सकता है । महर्षि समंतभद्र का पीठ गेरसप्पामें था । उस जंगल में जहां समंतभद्र वास करते थे, अभीतक विशाल शिलामय चतुर्मुख मंदिर, ज्वालामालिनी मंदिर व पार्श्वनाथ जिन चैत्यालय दर्शनीय मौजूद है। जंगल में यत्र तत्र मूर्तियां बिखरी पडी हैं ।दंतकथा परंपरासे ज्ञात है कि इस जंगल में एक सिद्धरसकूप है । कलियुग में जब धर्मसंकट उपस्थित होगा उस समय इस रसकूप का उपयोग करने के लिए आदेश दिया गया है । इस कूप को सर्वांजन नामक अंजन नेत्रोंमें लगाकर देख सकते हैं । सर्वांजन को तैयार करने का विधान पुष्पायुर्वेद में कहा गया है । साथ में उस अंजन के लिए उपयोगी पुष्प उसी प्रदेशमें मिलते हैं ऐसा भी कहा गया है । अतएव इस प्रदेशकी भूमि का नाम "रत्नगर्भा वसुंधरा" के नाम से उल्लेख किया है । ऐसी महत्वपूर्ण-कृतियोंका उद्धार होना आवश्यक है । पूज्यपादके बादके जैन वैद्यक ग्रंथकार पूज्यपादके बाद भी कई वैद्यकग्रंधकार हुए हैं। उन्होंने तद्विषयक पांडित्यसे अनेक आयुर्वेद ग्रंथोंका निर्माण किया है । इस का उल्लेख अनेक अंधोंमें मिलता है । गुम्मटदेवमुनि. इन्होंने मेरुतंत्र नामक वैद्यकथकी रचना की है। प्रत्येक परि छेद के अंतमें उन्होंने श्रीपूज्यपाद स्वामी का बहुत आदरपूर्वक स्मरण किया है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (39) - सिद्धनागार्जुन. यह पूज्यपादके भानजे थे । इन्होंने नागार्जुनकल्प, नागार्जुनकक्षपुट आदि ग्रंथोंका निर्माण किया था। इसके अलावा मालुम होता है कि इन्होंने 'वज्रखेचरघुटिका” नामक सुवर्ण बनाने की रत्नगुटिका को तैयार की थी। जब ये इस औषध को तैयार करने के संकल्पसे आर्थिकमदत को मांगनेके लिए किसी राजाके पास गये थे, तब राजाने पूछा कि यदि आपके कहने के अनुसार गुण न आवे तो आपका प्रण क्या रहेगा ? नागार्जुनने उत्तर दिया कि मेरी दोनों आंखों को निकाल सकते हैं । राजाने उन को सहायता दी, उन्होंने प्रयत्नकर एक वर्षके अंदर इस औषध को तैयार करके एवं उसकी तीन मणियोंको बनाकर उन पर अपने नामको खोदा । बाद जब नदीमें ले जाकर उन मणियोंको धोरहे थे तब हाथसे फिसलकर नदी में गिर पड़ी। राजाने प्रतिज्ञाके अनुसार दोनों आंखोंको निकलवाई । नागार्जुन दोनों आंखोंसे अंधे हुए व देशांतर चले गये। एक वेश्या-त्रीको उन मणियोंको निगली हुई मछलीके मिलने पर चीरकर देखी तो तीन मणियां मिल गई । वेश्याने उन्हे लेजाकर झूलेपर रखी तो झूलेपर लटके हुए लोहेकी सांकल सोने की बन गई । तदनंतर वह वेश्या रोज लोहेको सोना बनाया करती थी । बडे २ पहाडके समान उसने सोना बनाया । एवं विपुल धनव्ययकर एक अन्नसत्र का निर्माण कर उसका "नागार्जुनसत्र" ऐसा नाम दिया। नागार्जुनने फिरते२ आकर सत्रको अपने नाम मिलनेका कारण पूच्छा । मालुम होनेपर उन्होंने उन रत्नोंको पुनः पाकर उनके बल से गई हुई आंखोंको पुन: पाया एवं राजसभामें जाकर उसके महत्वको प्रकट किया। आयुर्वेदीय औषधोमें कितना सामर्थ्य है यह पाठक इससे जान सकते हैं। कर्णाटक जनवैधग्रंथकार. उपर्युक्त विद्वानोंके अलावा कर्णाटक भाषा में अनेक विद्वानोंने वैद्यक ग्रंथ की रचना की है । । उनमें कीर्तिवर्भ का गोवैद्य, मंगराज का खगेंद्रमणिदर्पण, अभिनवचंद्र का यशास्त्र, देवेंद्र मुनि का बालग्रह चिकित्सा, अमृतनंदि का वैद्यक निघंटु, जगदेक महामंत्रवादि श्रीधरदेव का २४ अधिकारोंसे युक्त द्यामृत, साळवके द्वारा लिखित रस रत्नाकर व वैद्यसांगत्य आदि ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय हैं । जगद्दळ सोमनाथ ने पूज्यपादाचार्य के द्वारा लिखित कल्याणकारक ग्रंथ का कर्णाटक भाषा में भाषांतर किया है। यह ग्रंथ भी बहुत महत्वपूर्ण हुआ है । ग्रंथ पीठिकाप्रकरण, परिभाषाप्रकरण, षोडशवरचिकित्सानिरूपणप्रकरण आदि अष्टांगसे संयुक्त है। यह ग्रंथ कर्णाटक भाषाके वैद्यक ग्रंथोंमें सबसे प्राचीन है । एक जगह कर्णाटक कल्याणकारकमें सोमनाथ कविने उल्लेख किया है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (40) सुकरं तानेने पूज्यपाद मुनिगळ मुंपळ्द कल्याणकारकम वाहटसिद्धसारचरकाद्युत्कृष्टमं सद्गुणाधिकमं वर्जितमद्यमांसमधुवं कर्णाटदि लोकर-- क्षकमा चित्रमदागे चित्रकवि सोम पेल्दनि तळितथि ॥ .. इससे यह भी स्पष्ट है कि पूज्यपादक ग्रंथमें भी मद्य, मांस व मधुका प्रयोग बिल कुल नहीं किया गया है । चरकादियोंके द्वारा रचित ग्रंथसे वह उत्कृष्ट है । अनेक गुणोंसे परिपूर्ण है। इस प्रकार अनेक जैन वैद्यक ग्रंथकार हुए हैं। जिन्होंने लोककल्याणके लिए अपने बहुमूल्य समय व श्रमको गमाकर निस्पृहतासे ग्रंथ निर्माणका कार्य किया । परंतु आज उन ग्रंथों का दर्शन भी हमें नहीं होता है । जो कुछ भी उपलब्ध हैं, उन के उद्धार की कोई चिंता हमारे उदार धनिकोंमें नहीं है । ६ ग्रंथ धीरे २ कीटभन्य बनते जा रहे हैं। उग्रादित्याचार्यका समय उग्रादित्याचार्यकृत प्रकृत। कितना सरस व महत्वपूर्ण है । इसे बतलानेकी कोई आवश्यकता नहीं है । क्यों कि पाठक उसे अध्यनन कर स्वयं अनुभव करेंगे ही। परंतु सहसा यह जानने की उत्कंठा होती है कि ये किस समय हुए ? इस कल्याणकारककर्ता लोककल्याणकारक महात्माने किस शतमान में इस धरातल को अलंकृत किया था। हमें प्राप्त सामग्रियोंसे हम उस विषय पर यहांपर ऊहापोह करते हैं। उग्रादित्यने प्रकृत ग्रंथमें पूज्यपाद, समंतभद्र, पात्रस्वामि, सिद्धसेन, दशरथगुरु, भेवनाद, सिंहसेन, इन आचार्योंके वैद्यक ग्रंथों का उल्लेख किया है । इससे इनसे उप्रादित्याचार्य आर्वाचीन हैं यह स्पष्ट है । ये सब आचार्य छटवीं शताब्दी के पहिले के होने चाहिए ऐसा अनुमान किया जाता है। ग्रंथकारने ग्रंथके अंतमें एक वाक्य लिखा है । जिससे उनके समयका निर्णय करने में बहुत अनुकूलता होगई है । वे लिखते हैं कि--- - इत्यशेषविशेषविशिष्टदुष्टपिशिताशिवैद्यशानेषु मांसनिराकरणार्थमुग्रा. दित्याचाथै पतुंगवल्लभेंद्रसभायामुद्घोषितं प्रकरणम्” इससे स्पष्ट होता है कि औषध में मांस की निरुपयोगिताको सिद्ध करनेकेलिए स्वयं आचार्यने श्रीनृपतुंगवल्लभेद्रकी सभामें इस प्रकरणका प्रतिपादन किया । इसका समर्थन इसके ऊपर ही आये हुए इस श्लोकसे होता है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे विषय बिलकुल स्पष्ट होगया है कि नृपतुंग बल्लभ साराजाधिराज के दरबार में जहां मांसाशनको समर्थन करनेवाले अनेक विद्वान् थे, उनके सामने सांसुकी निष्फलताको सिद्ध कर दिया है। नृपतुंग अमोघवर्ष प्रथमका नाम है, और अमोघवर्षको ही वल्लभ, और महाराजाधिराजका उपाधि थी । नृपुतुंग भी उसकी उपाधि ही श्री* । इतिहासवेत्तावने इस अमोघवर्ष के राज्यरोहण के समयको शक सं. ७३६ (वि.सं. ८७१ - ई. स. ८१५ ) का लिखा है । गुणभद्रसूरिकृत उत्तरपुराण से ज्ञात होता है कि यह अमोघवर्ष ( प्रथम ) प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेनका शिष्य था । ( 41 ) ख्यात श्रीनृपतुंगवल्लभ महाराजाधिराजस्थितः । मसभांतरे बहुविधप्रख्यात विद्वज्जने ॥ मांसाशिक रेंद्रनाखिलभिषग्विद्याविदामग्रतो । मांस निष्फलवां निरूप्य नितरां जैनेंद्र वैद्यस्थितम् ॥ यस्य प्रांशुनखांशुजाळ विसरद्धारांतराविर्भवस्पादाम्भोजरजः पिशंगमुकुटमत्यग्ररत्नद्युतिः ॥ संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोहमद्येत्यलम् । स श्रीमानि सेन पूज्य भगत्पादो जगन्मंगलम् ॥ पावाभ्युदय काव्य की रचना श्री महर्षि जिनसेनने की थी । उसमें सर्गके अंतमें निम्नलिखित प्रकार उल्लेख मिलता है । इत्यमोत्रवर्षपरमेश्वरपरमगुरुश्री जिनसेनाचार्यविरचितं मेघदूतवेष्टिते पार्श्वाभ्युदये भगवत्केवल्यवर्णनं नाम चतुर्थः सर्गः इत्यादि । इससे स्पष्ट हुआ कि अमोघवर्षके गुरु जिनसेन थे । इसी बातका समर्थन Mediaeval Jainism नामक पुस्तकमें प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता प्रोफेसर सालेतोरने किया है । The next prominent Rastrakuta ruler who extended his patronage to Jainism was Amoghavarsa I, Nripatiunga, Atishayadhawala (A. D. 815-877). From Gunabhadra's Uttarpurana ( A. D. S9S ), we know that king Amoghvarsa I was the disciple of dinsena, the author of the Suuskrit work Adipurana ( A. D. 783) The Jaina leaning of king Amoghavarsa is further corroborated by Mahaviracharya the author of the Jain Mathematical work Ganitasarasangraha, who relates that, that monarch was follower of the Syadwad Doctrine. Mediaeval Jainism P. 38. इस से यह स्पष्ट है कि अमोघवर्ष श्री भगवज्जिनसेनाचार्य के शिष्य थे । अमोघ .. * इसकी आगे लिखी उपाधियां मिलती हैं - उपतुंग ( महाराज शर्व ) महाजराणु, अति ह्ययघयल, वीरनारायण, पृथिवीम, श्री पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज, भटार, परमभट्टारक भारत के प्राचीन राजवंश भी. ३५ ४७ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (42) वर्ष के स्वाद्वादमतके अनुयायित्वको गणितसार संग्रह के कर्ता महावीराचार्य ने भी समर्थन किया है । इसी अमोघवर्षके शासनकाल में ही प्रसिद्ध राद्धांत ग्रंथकी टीका जयधवला की (श, सं. ७५९ वि. सं. ८९४ ई. स. ८३७) रचना हुई थी । रत्नमालिका के निम्न श्लोक से यह भी स्पष्ट है कि अंतिमवय में अमोघवर्ष वैराग्य जागृति से राज्यभोग छोडकर आत्मकल्याण में संलग्न हुआ था। विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका। रचितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः ॥ __ अमोघवर्ष के संबंधमें बहुत कुछ लिग्वा जासकता है । क्यों कि वह एक ऐसा वीर राष्ट्रकूट नरेश हुआ है, जिसने जैनधर्मकी महत्ताको समझकर उसकी धवलपताका को विश्वभर में फैलाई थी। परंतु प्रकृतमें हमें इतना ही सिद्ध करना था कि अमोघवर्षकी ही उपाधि नृपतुंग, वल्लभ, भहाराजाधिराज आदि थे । हरिवंश पुराण के कर्ता जिनसेनने भी ग्रंथ के अंत में “ श्रीवल्लभे दक्षिणां" पदसे दक्षिण दिशाके राजा उस समय श्रीवल्लभ का होना गाना हैं। हमारे ख्याल से यह श्रीवल्लभ उग्रादित्याचार्य के द्वारा उल्लिखि श्रीवल्लभ अमोघवर्ष ही होना चाहिए । इसलिए अब यह विषय बहुत स्पष्ट होगया है कि उग्रादित्याचार्य नृपतुंग ( अमोघवर्ष) के समकालीन थे । २५३ परिच्छेदमें उन्होंने जो अपना परिचय संक्षेपमें दिया है, उससे यह ज्ञात होता है कि उनके गुरु श्रीनंदि आचार्य थे, जिनके चरणोंको श्रीविष्णु राजपरमेश्वर नामक राजा पूजता था । यह विष्णुराज परमेश्वर कौन है ? हमारा अनुमान है कि यह विष्णुराज अमोघवर्षके पिता गोविंदराज तृतीय का ही अपरनाम होना चाहिए । कारण महर्षि जिनसेनने पार्थाभ्युदयमें अमोघवर्षको परमेश्वरकी उपाधि से उल्लेख किया है । हो सकता है कि यह उपाधि राष्ट्रकूटों की पितृपरंपरागत हो । परन्तु ऐतिहासिक विद्वान् विष्णुराजको चालुक्य राजा विष्णुवर्धन मानते हैं । इससे उग्रादित्याचार्य के समय निर्णय करने में कोई बाधा नहीं आती है । क्यों कि उस समय इस नामका कोई चालुक्य राजा भी हो सकता है। इसलिए यह निश्चित है कि श्रीउग्रादित्याचार्य महाराजाधिराज श्रीवल्लभ नृपतुंग अमोघवर्षके समकालीन थे। इस विषयका समर्थन प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्राक्तनाविमर्शविचक्षण, महामहोपाध्याय, प्राच्यविद्यावैभव, रायबहादुर नरसिंहाचार्य M. A. M. RA... ने निम्न लिखित शब्दोंसे किया है। " Another manuscript of some interest is the medical work Kalyanakaraka of Ugraditya, a Jaina autbor, who was a conteinporary of the Rashtrakuta king Amogha varsha I and of the Eastern Chalukya king kali Vishnuvardhana V. The work opens with the statement that the science of medicine is divided into two parts, namely prevention and cure, and gives at the end a long disco. urse in Sanskrit prose on the uselessness of a flesh diet, said ta Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 48 ) have been delivered by the author at the court of Amoghavarsha, where many learned men and doctors had assembled. Mysore Archaeological Report 1922. Page 23. अर्थात् एक कई मनोरंजक विषयों से परिपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ कल्याणकारक श्री उमादित्य के द्वारा रचित मिला है, जो कि जैनाचार्य थे और राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम व चालुक्य राजा कलि विष्णुवर्धन पंचम के समकालीन थे । ग्रंथ का प्रारंभ आयुर्वेद तत्व के प्रतिपादन के साथ हुआ है, जिसका दो विभाग किया गया है । एक रोगरोवन व दूसरा चिकित्सा 1 अंतिम एक गद्यात्मक प्रकरण उस विस्तृत भाषणको लिखा है. जिस में मांस की निष्फलताको सिद्ध किया है जिसे कि अनेक विद्वान् व वैद्योंकी उपस्थिति में नृपतुंगी सभामें उम्रादित्याचार्य ने दिया था । इतना लिखने के बाद पाठकों को यह समझने में कोई कठिनता ही नहीं होगी कि उग्रादित्याचार्यका समय कौनसा है । सारांश यह है कि वे अमोघवर्ष प्रथम के समकार्लान अर्थात् श. संवत् के ८ वीं शताब्दिमें एवं विक्रम व किस्त की ९ वीं शताब्दि में इस धरातलकों अलंकृत कर रहे थे यह निश्चित है । विशेष परिचय. उग्रादित्यने अपना विशेष परिचय कुछ भी नहीं लिखा है । उन की विद्वत्ता, वस्तु विवेचन सामर्थ्य, आदि बातों के लिए उन के द्वारा निर्मित ग्रंथ ही साक्षी है । उनके गुरु श्रीनंदि, ग्रंथनिर्माण स्थान रामगिरि नामक पर्वत था। रामगिरि पर्वत वेंग में था । aगि त्रिकलिंग देशमें प्रधान स्थान है । गंगासे कटकतक के स्थानको उत्कलदेश कहते हैं । वही उत्तरकालंग है । कटकसे महेंद्रगिरि तकके पहाडी स्थानका नाम मध्यकलिंग है। महेंद्रगिरि से गोदावरीतक के स्थान को दक्षिणकलिंग कहते हैं । इन तीनोंका ही नाम त्रिकलिंग है | ऐसे त्रिकलिंग के बेंगीमें सुंदर रामगिरि पर्वतके जिनालय में बैठकर उम्रादित्यने इस ग्रंथकी रचना की है। यह रामगिरि शायद वही हो सकता है जहां पद्मपुराण के अनुसार रामचंद्रने मंदिर बनावाये हों । इससे अधिक महर्षि का परिचय भले ही नहीं मिलता हो तथापि यह निश्चित है कि उम्रादित्याचार्य ८ वीं शताब्दी के एक माने हुए प्रौढ आयुर्वेदीय विद्वान् थे । इसमें किसीको भी विवाद नहीं हो सकता । अंतिम प्रकरण में आचार्यश्रीने मद्य, मांसादिक गर्ह्य पदार्थों का सेवन औषधि के नाम से या आहार के नाम से उचित नहीं है, इसे युक्ति व प्रमाण से सिद्ध किया है । एक अहिंसा धर्मप्रेमी इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि एक व्यक्ति को सुख पहुंचाने के लिए अनेक जीवोंका संहार किया जाय । अनेक पाश्चात्य वैज्ञानिक वैद्यकविद्वान भी आज मांसकी निरुपयोगिता को सिद्ध कर रहे हैं । अखिल कर्णाटक आयुर्वेदीय महासम्मेलनमें आयुविज्ञानमहार्णव आयुर्वेदकलाभूषण विद्वान् के शेषशास्त्री ने सिद्ध किया था कि मद्य मांसादिक का उपयोग औषध में करना उचित नहीं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 44 ) है और ये पदार्थ भारतीयों के शरीर के लिए हितावह नहीं है । काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आयुर्वेद समारंभोत्सव में श्री कविराज गणनाथ सेन महामहोपाध्याय एम्. ए. विद्यानिधि ने इन मद्य मांसादिक का तीव्र निषेध किया था। ऑल इंडिया आयुर्वेद महासम्मेलन के कानपुर अधिवेशन में श्री कविराज योगींद्रनाथ सेन एम्. ए. ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि अंग्रेजी औषध प्रायः मद्यादिक मिश्रित रहते हैं । अतः वह भारतीयों के प्रकृति के लिए कभी अनुकूल नहीं हो सकते । इत्यादि अनेक भारतीय व विदेश के विद्वान् इन पदार्थोंको त्याज्य मानते हैं । वनस्पतियोंमें वह सामर्थ्य है जिस से भयंकर से भयंकर रोग दूर हो सकते हैं। क्या समंतभद्राचार्य का भस्मक रोग आयुर्वेदीय औषधिसे दूर नहीं हुआ ? महर्षि पूज्यपाद और नागार्जुन को गगनगमनसामर्थ्य व गतनेत्रों की प्राप्ति वनस्पति औषधोंसे नहीं हुई ? फिर क्यों औषधि के नाम से अहिंसा धर्म का गला घोंटा जाय ? आशा है कि हमारे वैद्यबंधु इस विषयपर ध्यान देंगे । उनको औषधि बहानेसे यम लोक में पहुंचने वाले असंख्यात प्राणियोंको प्राण दान देने का पुण्य मिलेगा | ग्रंथकार ने कई स्थलोंपर सश्रुताचार्यको स्याद्वादवादी लिखा है | सश्रुताचार्यकी द्रव्यगुण व्यवस्था जैनसिद्धांतते बिलकुल मिलती जुलती है । इस विषय पर ऐतिहासिक विद्वानों को गंभीर-नजर डालनी चाहिए । कृतज्ञता. इस ग्रंथका संशोधन हमारे दो विद्वान् वैद्य मित्रोंने किया है। प्रथम संशोधन मुंबई के प्रसिद्ध वैद्य, दि. जैन औपवालय भूलेश्वर के प्रधान - चिकित्सक, आयुर्वेदाचार्य पं० अनंतराजेंद्र शास्त्री के द्वारा हुआ है । आप हमारे परमस्नेही होने के कारण आपने इस कार्य में अथक श्रम किया है । द्वितीय संशोधन अहमदनगर आयुर्वेद महाविद्यालय के प्राध्यापक व ला. मेंबर आयुर्वेदतीर्य पं. बिंदुमाधव शास्त्री ने किया है। श्रीवैद्य पंचानन पं. गंगाधर गोपाल गुणे शास्त्री ने प्रस्तावना लिखने की कृपा की हैं । धर्मवीरजीके स्वर्गवास होनेपर भी अपने पिता इस कार्यकी पूर्ति उनके सुपुत्र सेठ गोविंदजी रावजीने करने की उदार कृपा की है। इन सब सज्जनोंके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है । आशा है कि उनका मेरे साथ इसी प्रकार सतत सहयोग रहेगा । इसके अलावा जिन २ विद्वान मित्रोंने मुझे इस ग्रंथ के संपादन, अनुवादन, आदि में परामर्शादि सहायता दी है उनका भी मैं हृदयसे आभारी हूं । श्रीमंगलमय दयानिधि परमात्मा से प्रार्थना है कि प्रकृतग्रंथ के द्वारा विश्वके समस्त जीवोंको आयुरारोग्यैश्वर्यादिका लाभ हो, जिससे कि वे देश, धर्म व समाजके उत्थान के कार्य में हर समय सहयोग दे सकें । इति. विनीत--- सोलापुर ता. १-२-१९४० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री. संपादक. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकल्याणकारक. NOO प्रकाशक श्री.धर्मवीर, दानवीर, जिनवाणीभूषण, विद्याभूषण, सेठ रावजी सखाराम दोशी, सोलापुर. संपादक व अनुवादक विद्यावाचस्पति श्री. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री. संपादक जैनबोधक व वीरवाणी, सोलापुर. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ International www.jainelibrary il सशाधक श्री. आयुर्वेदाचार्य पं. अनंतराजेंद्र वैद्य. 0 0 8 प्रस्तावना लेखक श्री. वैद्य पंचानन वैद्यचूडामणि गंगाधर गोपाळ गुणे शास्त्री संशोधक श्री. आयुर्वेदतीर्थ पं. बिंदुमाधवशास्त्री D ES G Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेदः मंगलाचरण व आयुर्वेदोत्पत्ति भगवान आदिनाथ से प्रार्थना भगवान् की दिव्यध्वनिः वस्तु चतुष्टयनिरूपण आयुर्वेदशास्त्रका परंपरागमनक्रम ग्रंथकार की प्रतिज्ञा ग्रंथरचनाका उद्देश दुर्जननिंदा आचार्यका अंतरंग वैद्यशब्द की व्युत्पत्ति आयुर्वेदशब्दका अर्थ शिष्यगुणलक्षण कथनप्रतिज्ञा आयुर्वेदाध्ययनयोग्य शिष्य वैद्यविद्यादानक्रम विद्याप्राप्ति के सावन वैद्यशास्त्रका प्रचानध्येय लोकशब्द का अर्थ चिकित्सा के आधार चिकित्सा के चार पाद वैद्यलक्षण चिकित्सापद्धति अरिष्टलक्षण रिष्टसूचक दूतलक्षण अशुभशकुन शुभशकुन विषयानुक्रमणिका. पृष्ट सं. २ ३ ४ 8 १० १० ११ ११ १२ १२ १३ सामुद्रिकशास्त्रानुसार अल्पायु महायु परीक्षा उपसंहार द्वितीय परिच्छेदः मंगलाचरण और प्रतिज्ञा स्वास्थ्यका भेद परमार्थस्वास्थ्यलक्षण व्यवहारस्वास्थ्यलक्षण साम्यविचार प्रकारांतर से स्वस्थदक्षण अवस्थाविचार अवस्थाओंके कार्य अवस्थांतर में भोजन विचार जठराग्निका विचार विकृत जठराग्नि मेद विषमआदिक चिकित्सा समानिके रक्षणोपाय बलपरीक्षा बलकी प्रधानता बलोत्पत्तिके अंतरंग कारण बलवान्मनुष्यके लक्षण जांगलादित्रिविध देश जांगलदेशलक्षण अनूपदेशलक्षण साधारण देशलक्षण सात्म्य विचार पृष्ठ सं. १४ १५ १७ १७ १७ १७ १८ १८ १८ १८ १९ १९ १९ २० २० २० २० २० २१ २१ २१ २२ A W २३ २४ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( II ) ന് ന ന my m005.1 ന ന ന് प्रत्येकपदार्थ सात्म्य हो सकता है: २४ प्रकृतिकथनप्रतिज्ञा ऋतुमती स्त्री नियम गर्भाधानक्रम ऋतुकाल में गृहीतगर्भका दोष । गोत्पत्ति क्रम जीवशब्द की व्युत्पत्ति मरणस्वरूप शरीरवृद्धीके लिए षट्पर्याप्ति शरीरोत्पत्ति में पर्याप्ति की आवश्यकता २७ गर्भमें शरीराविर्भावक्रम २७ गर्भस्थबालककी पोषणविधि २८ कर्मकी महिमा २८ शरीरलक्षणकथनप्रतिज्ञा अन्तिमकथन २९ तृतीय परिच्छेदः मंगलाचरण व प्रतिज्ञा अस्थि, सन्धि आदिकी गणना। धमनी आदिकी गणना मांतरज्जु आदिकी गणना मर्मादिककी गणना दंत आदिककी गणना घसा आदिकका प्रमाण मूत्रादिकके प्रमाण पांच प्रकारके वात मनिर्गमन द्वार शरीरका अशुचित्व प्रदर्शन धर्मप्रेम की प्रेरणा जानिस्मरणविचार जातिस्मरण कारण जातिस्मरणलक्षण प्रकृतिकी उत्पत्ति वातप्रकृति के मनुष्य का लक्षण ३४ पित्तप्रकृतिके मनुष्यका लक्षण कफप्रकृतिके मनुष्य का लक्षण ३५ क्षत्रलक्षणकथनप्रतिज्ञा औषधिग्रहणार्थ अयोग्यक्षेत्र औषधिग्रहणार्थ प्रशस्त क्षेत्र सुक्षेत्रोत्पन्न अप्रशस्तप ध . ३७ प्रशस्तऔषधिका लक्षण ३७ परीक्षापूर्वक ही औषधप्रयोग करना चाहिये ३७ अधिकमात्रासे औषविप्रयोग करनेका फल ३७ औषधिप्रयोगविधान जीर्णाजीर्णऔषधविचार स्थूल आदि शरीरभेदकथन । प्रशस्ताप्रशस्तशरीरविचार . . स्थूलादिशरीरकी चिकित्सा साध्यासाध्य विचार स्थूलशरीरका क्षीणकरणोपाय क्षीणशरीरको समकरणोपाय मध्यमशरीररक्षणोपाय स्वास्थ्यबाधककारणोंका परिहार वातादिदोषों के कथन वातादिदोषलक्षण कफका स्थान पित्तका स्थान mmmmmm 2. ३ __mr 0 0 0 0 0 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( III) - - - - - - & r r r r 5 3 w w w w w वातका स्थान प्रकुपितदोष सब को कोपन करता है ४२ दोषप्रकोपोपशमके प्रधान कारण ४३ वातप्रकोपका कारण पित्तप्रकोप के कारण कफप्रकोप के कारण दोषोंके भेद प्रकुपितदोषोंका लक्षण वातप्रकोपके लक्षण पित्तप्रकोपके लक्षण कफप्रकोपके लक्षण प्रकुपितदोषों के वर्णन अन्तिमकथन चतुर्थपरिच्छेदः कालस्यक्रमबन्धनानुपर्यंतम् मंगलाचरण और प्रतिज्ञा कालवर्णन व्यवहारकाल के अवान्तरमेद मूहूर्तआदिके परिमाण ऋतुविभाग प्रतिदिनमें ऋतुविभाग दोषोंका संचयप्रकोप प्रकुपितदोषोंसे व्याधिजननक्रम वसंतऋतुमें हित ग्रीष्मर्तु वा वर्षतु में हित शिशिरऋतु हित आहार काल भोजनक्रम ५५ भोजनसमयमें अनुपान अनुपान काल व उसका फल शालि आदि के गुणकथन कुधान्योंके गुण कथन । द्विदल धान्यगुण माष आदिके गुण अरहर आदिके गुण तिल आदिके गुण वर्जनीय धान्य शाकवर्णन प्रतिज्ञा मूलशाकगुण शालूकआदि कंदशाक गुण अरण्यालु आदि कंदशाकगुण वंशाग्र आदि अंकुर शाकगुण जीवन्तो आदि शाकगुण शार्केष्टादि शाकगुण गुह्याक्षी आदि पत्रशाकगुण बन्धूक आदि पत्रशाकोंके गुण शिग्रु आदि पुष्पशाकोंके गुण पंचलवणीगणका गुण पंचबृहतीगणका गुण पंचवल्लीगुण गृध्रादिवृक्षजफलशाकगुण पीलु आदि मूलशाकगुण आम्र आदि अम्लफलशाकगुण आम्र आदि अम्लफलशाक गुण बिस्वादिफलशाकगुण द्राक्षादि वृक्षफलशाकगुण तालादिशाकगुण उपसंहार अंत्यमंगल w w ४८ । ६२ ४८ ४२ w w w w occww w w w w rrrr ur ar w w w w Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( IV) ७६ ७८ पंचमपरिच्छेदः द्रवद्रव्याधिकारः मंगलाचरण रसोंकी व्यक्तता कैसे हो ? जलवर्गः पृथ्वीगुणबाहुल्यभूमिका लक्षण __व वहांका जलस्वरूप ६९ जलगुणाधिक्यभूमि एवं वहांका __ जलस्वरूप ६९ वाताधिक्यभूमि एवं वहांका ___जलस्वरूप ६९ अग्निगुणाधिक्य भूमि एवं वहांका जलस्वरूप ७० आकाशगुणयुक्तभूमि एवं वहांका जलस्वरूप ७० पेयापेयपानाके लक्षण जलका स्पर्श व रूपदोष जलका गंधरस व धीर्यदोष जलका पाकदोष जलशुद्धिविधान वर्षाकालमें भूमिस्थ व आकाश जलके गुण ७२ कायेतजलगुण सिद्धान्नपानवर्गः । यवागूके गुण मंडगुण मुद्यूषगुण मुद्गयूष सेवन करने योग्य मनुष्य ७४ दुग्धवर्ग ७४ अष्टविधदुग्ध दुग्धगुण धारोष्णदुग्धगुण, श्रुतोष्ण दुग्धगुण ७५ श्रृतशीत दुग्धगुण दहीके गुण तक्रगुण उदश्वित्के गुण खलगुण नवनीतगुण घृतगुण ७८ तैलगुण कांजीके गुण मूत्रवर्गः अष्टमूत्रगुण क्षारगुण द्रवद्रव्योंके उपसंहार अनुपानाधिकारः अनुपानविचार सर्वभोज्यपदार्थोके अनुपान कषायादिरसोंके अनुपान आम्ल आदि रसोंके अनुपान अनुपान विधानका उपसंहार भोजनके पश्चात् विधेयविधि तत्पश्चात् विधेय विधि अंत्य मंगल षष्ठः परिच्छेदः दिनचर्याधिकारः मंगलांचरण व प्रतिज्ञा ७९ ० ० / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R amand ८३ ८६ दंतधावन दांतूनकरने के अयोग्यमनुष्य तैलाभ्यंगगुण तैलघृताभ्यंगगुण अभ्यंगकेलिये अयोग्यव्यक्ति व्यायामगुण व्यायामके लिये अयोग्यव्यक्ति बलावलक्षण विशिष्ट उद्वर्तनगुण पवित्रस्नानगुण स्नानकेलिये अयोग्यव्यक्ति तांबूलभक्षणगुण तांबूलसेवन के लिये अयोग्यव्यक्ति ८७ जूता पहिनने व पादाभ्यंगके गुण ८७ रात्रिचर्याधिकारः मैथुनसेवनकाल भैथुनके लिये अयोग्यव्यक्ति सततमैथुनके योग्यव्यक्ति ब्रह्मचर्यके गुण मैथुनके लिये अयोग्य स्त्री व काल ८९ मैथुनानंतर विधेयविधि निद्राकी आवश्यकता दिनमे निद्रा देने का अवस्था विशेष सर्वतुसाधारण चर्याधिकारः हितमितभाषण शैल.द्यारोहणनिषेध पापादि कार्योंके निषेध हिंसादिके त्याग ९१ वृष्याधिकारः कामोत्पत्तिके साधन कामोद्दीपन करनेवाली स्त्री वृष्यामलकयोग वृष्यशल्यादियोग वृष्यसक्तू वृष्यगोधूमचूर्ण वृष्यरक्ताश्वत्थादियोग वृष्यामल कादि चूर्ण छागदुग्ध वृष्यभूकूष्मांडादि चूर्ण नपुंसकत्वके कारण व चिकित्सा ९४ संक्षेपसे वृष्यपदार्थोके कथन रसायनाधिकारः त्रिफलारसाययन वृष्यविडंग व यष्टिचूर्ण रसायनके अनुपान रसायनसेवनमें पथ्याहार विडंगसाररसायन बलारसायन नागबलादि रसायन वाकुची रसायन ब्राम्यादि रसायन वज्रादि रसायन रसायन सेवन करने का नियम ९९ चन्द्रमृत रसायन विविध रसायन चन्द्रामृतादि रसायन के अयोग्य मनुष्य १०२ दिव्यौषध प्राप्त न होने के कारण १०३ १०२ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिमकथन सप्तमपरिच्छेदः मंगलाचरण व प्रतिज्ञा पुरुषनिरूपणप्रतिज्ञा आत्मस्वरूप विवेचन आमाके कर्तव्य आदि स्वभाव आत्मा स्वदेद्दपरिमाण है आत्माका नित्यानित्यादि स्वरूप आत्माका उपर्युक्त स्वरूप चिकित्सा रोगोत्पत्ति मुख्य कारण कर्मोपशांति करनेवाली क्रिया ही चिकित्सा है के लिए अत्यावश्यक है १०५ सविपाकाविपाक निर्जरा उपाय और कालपाकका लक्षण गृहनिर्माण कथन प्रतिज्ञा गृहनिर्माण विधान शय्या विधान शयनविधि रोगीकी दिनचर्या ( VI ) १०३ कर्मो के उदय के लिए निमित्त कारण १०६ रोगोत्पत्ति के हेतु १०७ कर्मका पर्याय १०७ १०७ चिकित्सा प्रशंसा चिकित्सा के उद्देश्य निरीहचिकित्साका फल चिकित्सा से लाभ १०४ १०४ १०४ १०५ १०५ १०५ १०९ ११० ११० ११० रोगोपशमनार्थ बाह्याभ्यंतर चिकित्सा ११२ बाह्यचिकित्सा ११२ ११३ ११३ ११३ ११४ १०८ १०८ १०९ १०९ वैद्यको नित्यसंपत्तिकी प्राप्ति वैद्यके गुण रोगी गुण औषधी गुण परिचारकके गुण पादचतुष्टयकी आवश्यकता वैद्यकी प्रधानता वैद्य रोगीका विश्वास ११४ ११४ ११५ ११५ ११५ ११५ ११६ ११६ ११६ ११७ प्रागुक्तकथनसमर्थन ११७ उभयज्ञ वैद्यही चिकित्सा के लिये योग्य ११७ अवैधानि ११८ अज्ञवैद्यकी चिकित्साकी निंदा ११८ अज्ञवैद्यकी चिकित्सासे अनर्थ ११८ चिकित्सा करनेका नियम ११८ स्पर्शपरीक्षा ११९ प्रश्नपरीक्षा ११९ दर्शनपरीक्षा १२० महान् व अल्पव्याधि परीक्षा १२० रोग के साध्यासाध्यभेद १२० अनुपक्रमयाप्यके लक्षण १२१ कृच्छ्रसाध्य सुसाध्यके लक्षण १२१ विद्वानोंका आद्यकर्तव्य १२१ चिकित्सा के विषय में उपेक्षा न करें १२२ अंतिम कथन १२२ अष्टमपरिच्छेदः रोगी के प्रति वैद्यका कर्तव्य योग्य वैद्य वातरोगाधिकारः मंगलाचरण व प्रतिज्ञा १२३ १२३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( VII ) - J س or irr १३३ ४ سد 00 १२४ । १३७ वातदोष प्राणवात उदानवायु समानवायु अपानवायु व्यानवायु १२५ कुपितवात व रोगोत्पत्ति १२५ कफ पित्त रक्तयुक्त वातका लक्षण १२५ वातव्याधि के भेद १२६ अपतानकरोगका लक्षण १२६ अदितनिदान व लक्षण १२६ अर्दितकाअसाध्य लक्षण व पक्षाघातकी समाप्ति व लक्षण १२७ पक्षघातका कृछताध्य व . असाध्य लक्षण १२७ अपतानक व आक्षेपको असाध्य ___ लक्षण १२७ दण्डापतानक, धनुस्तंभ, बहिरायामअंतरायामकी संप्राप्ति व लक्षण १२८ गृध्रसी अवबाहुकी संप्राप्ति व लक्षण १२८ कलायखंज, पंगु, उरुस्तंभ वातकंटक व पादहर्षके लक्षण १२८ तूनी, प्रतितूनी, अष्टीला व आत्मान के लक्षण १२९ वातव्याधिका उपसंहार १३० वातरक्तका निदान, संप्राप्ति व लक्षण१३१ पित्तकफयुक्त व त्रिदोषज वातरक्तका ___ लक्षण १३१ क्रोष्टुकशीर्षलक्षण वातरक्त असाध्य लक्षण १३२ वातरोगचिकित्सा वर्णनकी प्रतिज्ञा १३२ अमाशयात वातरोग चिकित्सा १३३ स्नेहपान विधि स्नेहपानके गुण स्नेहनके लिये अपात्र स्वेदनका फल स्वेदनके लिये अपात्र १३४ वमनविधि १३५ सुवांतलक्षण व वमनानन्तर विधि वमनगुण वमनके लिये अपात्रा वमनापवाद कटुत्रिकादि चूर्ण महौषधादि क्वाथ व अनुपान १३८ पक्काशयगत वातके लिये विरेचन १३८ वातनाशक विरेचकयोग १३८ विरेचन फल विरेचनके लिये अपात्र विरेचनांपवाद १३९ सर्वशरीरगत वात चिकित्सा १४० अनुवासन बस्तिका प्रधानत्व प्रतिज्ञा बस्तिनेत्र लक्षण बस्तिनेत्रा निर्माणके योग्य पदार्थ व छिद्रप्रमाण वस्तिके लिए औषधि बस्तिके लिए औषध प्रमाण १४२ औषधका उत्कृष्ट प्रमाण बस्तिदानक्रम सुनिरूढलक्षण निम्ह के पश्चाद्विधेयविधि व . अनुवासनबस्तिप्रयोग १४४ अनुवास के पश्चाद्विधयविधि १४५ १३९ १४० १४२ १३२ १४४ वषयविधि Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( VIII) wwwwwwww w new -immamtartenmvases O romorror or or no. 00000 १५० अनुवासनका शीघ्रविनिर्गमन कारण व उसका उपाय १४५ अनुवासनबस्तिकी संख्या १४५ बस्तिकर्मके लिए अपात्र बस्तिकर्मका फल शिरोगतवायुकी चिकित्सा नस्य का भेद अवमर्षनस्य अवपीडननस्य १४८ नस्यके लिए अपात्र नस्यफल अन्तिम कथन नवमपरिच्छेदः पित्तरोगाधिकारः प्रतिज्ञा १५० पित्तप्रकोपमे कारण तज्जरोग पित्तका लक्षण व तज्जन्य रोग पित्तप्रकोपका लक्षण पित्तोपशमनविधि १५१ पित्तोपशमनका बाह्य उपाय पित्तोपशमकारक अन्य उपाय १५२ पित्तोरशमक द्राक्षादि योग १५२ कासादि क्वाथ पित्तोपशामक वमन व्योषादि चूर्ण एलादि चूर्ण निंबादि क्वाथ १५४ रक्तपित्त विधान रक्तपित्तका पूर्वरूप १५९ रक्तपित्त का असाध्य लक्षण १५५ साध्यासाध्य विचार १५५ द्राक्षा कषाय १५५ कासादि स्वरस १५५ मधुकादि घृत १५६ घ्राणप्रवृत्तसविरचिकित्सा १५६ घ्राणप्रवृत्त रक्त में नस्यप्रयोग १५६ ऊधिःप्रवृस रक्तपित्तकी चिकित्सा १५७ रक्तपित्तनाशक वस्तिक्षीर १५७ रक्तपित्तको पथ्य १५७ खजूरादि लेप लेप व स्नान १५८ रक्तपित्त आसाथ्य लक्षण १५८ प्रदराधिकारः १५९ असृग्दरनिदान व लक्षण प्रदरचिकित्सा १५९ विसाधिकारः विसपनिदान चिकित्सा विसर्पका भेद विसर्पका असाध्यलक्षण वातरक्ताधिकारः १६० वातरक्तचिकित्सा रास्नादि लेप मुद्गादि लेप पुनर्नवादि लेप जब्बादि लेप मुस्तादि लेप विब्यादि घृत अजपयःपान १६२ टुंटुकादि दुग्ध १६२ ० जराग १५० ० १५१ १६० १५१ ar-~~~ Moorwww. SIrrrrrururururur १६१ १५२ १५३ १५३ ८ १५३ १५४ १५४ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोधूमादिलेप क्षीरद्रुमादितैल सर्वरोगनाशक उपाय वातरक्तचिकित्साका उपसंहार ज्वराधिकारः ज्वरनिदान ज्वरलक्षण ज्वरका पूर्वरूप ( fx ) १६३ १६३ १६४ १६४ १६५ १६५ १६५ १६५ वातज्वरका लक्षण १६५ पित्तज्वररक्षण १६६ कफज्वरलक्षण १६६ द्वंद्वज्वर लक्षण १६७ सन्निपातज्वरका असाव्यलक्षण १६७ १६८ सन्निपातज्वर के उपदव ज्वरकी पूर्वरूप में चिकित्सा १६८ लंघन व जलपान विधि १६९ वातपित्तञ्चर में पाचन १६९ कफज्वर में पाचन व पक्कज्वरक्षण १६९ वात व पित्तकफज्वरचिकित्सा १७० पक श्लेष्मज्वरचिकित्सा १७० लंघन आदिके लिये पात्रापात्ररोगी १७० बातज्वर में कवाय पितज्वरमें क्वाथ कफज्वर में कवाय सन्निपातकज्वर में काथ विषमज्वरचिकित्सा १७२ विषमज्वरनाशक वृत १७२ भूतज्वर के लिये धूर १७२ स्नेह व रूक्षोत्थितज्वरचिकित्सा १७३ ज्वरमुतलक्षण १७३ १७९ १७१ १७१ १७१ ज्वरका पुनरावर्तन पुनरागतज्वरका दुष्टफल अतिसाराधिकारः अतिसारनिदान वातातिसारलक्षण पित्तातिसारलक्षण श्लेष्मातिसार सन्निपातातिसार, आमातिसार व पक्वातिसारका लक्षण अतिसारका असाध्यलक्षण अन्यअसाध्यलक्षण आमातिसार में वमन वमनपश्चात् क्रिया वातातिसार में आमावस्थाकी पित्तातिसार में आमावस्थाकी कफातिसार में आमावस्थाकी सिद्धक्षीर उग्रगंधादिकाथ क्षीरका विशिष्टगुग अतिसार में पथ्य अन्तिमकथन पक्वातिसारमें आम्र।स्थ्यादिचूर्ण गादिपुटपाक जम्न्यादिपाणितक १७४ १७४ १७४ १७४ १७४ दशमपरिच्छेदः कफरोगाधिकारः श्लेष्मरोगाभिधानप्रतिज्ञा १७५ १७५ चिकित्सा १७७ १७५ १७६ १७६ चिकित्सा १७७ १७६ १७७ चिकित्सा १७७ १७८ १७८ १७९ १७९ १७९ १७९ १८० १८० १८१ १८१ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (x) Ram - RA १८१ १८१ १९२ २ १८४ १८४ س १८५ سلہ भंगलाचरण प्रकुपितकफका लक्षण श्लेप्मनाशकगण कफनाशक उपाय १८२ भा.दिच कफनाशक व खदिरादिचूर्ण व्योषादिचूर्ण चतुष्क १८३ हिंग्यादि चूर्णत्रय विल्वादिलप १८४ शिवादिलेप धाव्यादिलेप धूमपानकबलधारणादि १८५ एलादिचर्ण १८५ तालीसादिमोदक कफनाशकगण १८६ कफनाशक औषवियों के समुच्चय १८६ वातनाशकगण वातघ्न औषधियों के समुच्चय १८८ त्वगादिचूर्ण १८८ दोषोंके उपसंहार १८८ लघुताप्रदर्शन १८९ चिकित्सासूत्र १८९ औषधिका यथालाभप्रयोग साध्यामाध्यरोगोंके विषयों वैद्यका कर्तव्य १९० अन्तिमकथन महामयसंज्ञा महामयवर्णनक्रम प्रमेहाधिकारः १९२ प्रमेहनिदान प्रमेहका पूर्वरूप १९२ प्रमहकी संप्राप्ति १९२ प्रमेह विविध १९२ प्रमेहका रक्षण १९३ दशविधप्रमेहपिटका शराविका लक्षण सर्षपिका लक्षण १९३ जालिनी लक्षण पुत्रिणी, कच्छपिका, मसूरिका लक्षण १९४ विदारि, विद्रधि, विनताका लक्षण १९४ पिटिकाओंके अन्वर्थनाम कफप्रमेहका उपद्रव पैत्तिकप्रमेह के उपद्रव वार्तिकप्रमेहके उपद्रव प्रमेहका असाध्यलक्षण प्रमेहचिकित्सा कर्षणबृंहणचिकित्सा प्रमेहियोंके पथ्यापथ्य प्रमेहाके लिए वमनविरेचन १९७ निरूहबस्तिप्रयोग प्रमेहीके लिए भोज्यपदार्थ आमलकारिष्ट १९७ निशादिक्वाथ १९८ चन्दनादिकाथ कपित्यादिकाथ १९५ १९५ १९५ १९६ १९७ एकादशपरिच्छेदः महामयाधिकारः १९१ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा १९१ সনি। १९१ वर्णन कम Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (XI ) १९९ १९९ २०० २०० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० २०० खर आदिके मलोपयोग त्रिफलाक्काथ प्रमेहीके लिए विहार कुलीनको प्रमेहजयार्थ क्रियाविशेष १९९ प्रमेहजयार्थ नीचकुलोत्पन्नका क्रियाविशेष १९९ पिटिकोत्पत्ति प्रमेहपिटिका चिकित्सा विलयनपाचनयोग धारणशोधनरोपणाक्रिया शोधनऔषधियां रोपण औषधियां रोपणवर्तिका सद्योत्रणचिकित्सा बन्धनक्रिया बन्धनपश्चाक्रिया बन्धनफल व्रणचिकित्सासमुच्चय शुद्ध व रूढवणलक्षण प्रमेहविमुक्तलक्षण प्रमेहपिडिकाका उपसंहार कुष्टरोगाधिकारः हकी संप्राप्ति कुष्टका पूर्वरूप सप्तमहाकुष्ट क्षुद्रकुष्ठ २०४ रकशकुष्टलक्षण कुष्ठमें दोषोंकी प्रधानता एकविचचिविपादिका कुष्ठलक्षण २०५ परिसर्पविसर्पणकुलक्षण २०५ ० ० ० ० ० MAGGG ० ० ० किटिभपामाकच्छुलक्षण २०५ असाध्यकुष्ट वातपित्तप्रधानकुष्ठलक्षण कफप्रधान व त्वस्थ कुष्ठलक्षण कुष्टमें कफका लक्षण २०६ रक्तमांसगतकुष्ठलक्षण २०६ मेदसिरास्नायुगतकुष्ठलक्षण २०७ मज्जास्थिगतकुष्टलक्षण २०७ कुष्ठका साध्यासाध्यविचार असाध्यकुष्ठ असाध्यकुष्ठ व रिष्ट कुष्ठीके लिये अपथ्यपदार्थ कुष्ठचिकित्सा २०८ कुष्ठमें पथ्यशाक कुष्ठमें पध्यधान्य कष्ठमें वमनविरेचन व त्वस्थ कुष्टकी चिकित्सा रक्त व मांसगतकुष्ठचिकित्सा मेदोऽस्थ्यादिगतकुष्ठचिकित्सा त्रिदोषकुष्ठचिकित्सा निंबास्थिसारादिचूर्ण पुन्नागबीजादिलेप पलाशक्षारका लेपद्य सिद्धार्थादिलेप २११ भल्लातकारथ्यादिलप भल्लातकादिलेप अवधि:शोधन कुष्ठमें वमनविरेचन रक्तमोक्षणका क्रम २१२ ० ० ० ० ~~~ MANN M ० ० ० ० y ० ० ० ०. ७०. ० ०. ० . . orror or or oram . . or orn ० ० ० m 3000 ० ० २०५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XII) - - २१५ २१६ २१६ CAnnn २१६ २१७ २१७ २२६ २१७ -~~- २१८ खदिरचूर्ण तीक्ष्णलोहभस्म लोहभस्मफल नवायसचूर्ण संक्षेपसे संपूर्णकुष्ठचिकित्साका कथन खदिरप्रयोग उदररोगाधिकारः उदररोगनिदान बातोदरलक्षण पितोदरलक्षण कफोदरलक्षण सनिपात'दरनिदान सन्नितोदरलक्षण यकृत्प्लिहोदरलक्षण बडादरलक्षण सविउदरलक्षण जलोदरनिदान जलोदरलक्षण उदररागके साधारणलक्षण असाध्योदर कृसाध्यादर भैषजशस्त्रसाध्योदरोंके पृथक्करण असाध्य लक्षण अथोदराचकित्सा वातोदरचिकित्सा पित्तोदरचिकिता पैत्तिकोदर, निरूहस्ति कफादर सन्निपातोदरचिकित्सा 1 ० armram.orxxx ० ० ० निदिग्धिकादिघृत एरण्डतैलप्रयोग २२३ उदरनाशकयोग अन्यान्ययोग नाराचघृत महानाराचवृत २२४ मूत्रवर्तिका २२५ द्वितीयवर्तिका २२५ वर्तिकाप्रयोगविधि २२५ दृष्योदरचिकित्सा २२५ यकृत्प्लीहोदरचिकित्सा यकृष्प्लीहानाशकयोग २२६ पिप्पल्यादिचूर्ण २२६ षट्पलसर्प २२६ बद्ध व स्राव्युदरचिकित्सा २२७ जलोदरचिकित्सा २२७ उदरसे जलनिकालने की विधि २२७ जलोदरीको पथ्य २२८ दुग्धका विशेषगुण २२८ अन्तिमकथन २२८ द्वादशपरिच्छेदः वातरोगचिकित्सा २३० मंगल व प्रतिज्ञा २३० वातरोगका चिकित्सासूत्रा त्वसिरादिगतवातचिकित्सा २३० अस्थिगतवातचिकित्सा श्लेष्मादियुक्त व सुप्तवातचिकित्सा २३१ कफपित्तयुक वातचिकित्सा २३१ वातघ्न उपनाह . . २३२ सर्वदेहाश्रेत बातचिकिता २३२ ا س २२० २२१ २२१ २२१ २३० س ० २२१ س سے २२२ ه २२२ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XIII ) २३३ २३४ २३४ २३६ स्तब्धादिवातचिकित्सा २३२ सर्वांगगतादिवातचिकित्सा .. २३३ अतिवृद्धवातचिकित्सा वातरोगमें हित २३३ तिल्वकादिघृत अणुतैल सहस्रविपाक तैल २३५ पत्रलवण क्वाथसिद्धलवण २३६ कल्याणलवण साध्यासाध्यविचारपूर्वक चिकित्सा करनी चाहिये २३७ अपतानकका असाध्यलक्षण २३७ पक्षाघातका असाध्यलक्षण आक्षेपक अपतानकचिकित्सा २३८ घातहरतैल २३८ वातहरतलका उपयोग आदितवातचिकित्सा शुद्ध ब मिश्रवातचिकित्सा पक्षाघात आदितवातचिकित्सा २३९ आदितवात के लिये कामादि तैल । २३९ गृध्रसीप्रभृति वातरोगचिकित्सा २३९ कोष्ठगतवातचिकित्सा वातव्याधिका उपसंहार कर्णशूलचिकित्सा २४० मूढगर्भाधिकारः २४० मूढगर्भकथनप्रतिज्ञा गर्मपातका कारण गर्भावस्वरूप २४१ मूढगर्भलक्षण मूढगर्भको गतिके प्रकार मूढगर्भका अन्यभेद मूढगर्भका असाध्यलक्षण शिशुरक्षण मृतगर्भलक्षण २४२ मूढगर्भउद्धरणविधि २४३ सुखप्रसवार्थ उपायान्तर मृतगर्भाहरणविधान २४४ स्थूलगर्भाहरणविधान गर्भको छेदनकर निकालना सर्वमूढगर्भापहरणविधान २४४ प्रसूताका उपचार २४४ बलातैल शतपाकबलातैल २४६ नागबलादितैल प्रसूतास्त्री के लिये सेव्य औषधि २४६ गर्मिणी आदिके सुखकारक उपाय २१७ बालरक्षाधिकारः २४७ शिशुसेव्य घृत २४७ घात्रीलक्षण २४७ बालप्रहपरीक्षा २४७ बालग्रहचिकित्सा २४८ बालरोगचिकित्सा २४८ बालकोंको अग्निकर्म आदिका निषेध २४८ अर्शरोगाधिकारः २४४ अर्शकथनप्रतिज्ञा २४८ अर्शनिदान २४९ अर्शभेद व वातार्शलक्षण २.९ २४६ २३८ २३९ mr0 ० २४० ० ० Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरक्त कफार्श लक्षण सन्निपातसहजारीलक्षण अर्शके स्थान अर्शका पूर्वरूप मूलरोग संज्ञा अर्शके असाध्यलक्षण अर्शनाशकपाणितक पाटलादियोग अर्शन कल्क २५० २५० २५० मेदादिस्थानोंमें अर्शरोगकी उत्पत्ति २५१ अर्शका असाध्यलक्षण २५१ अन्य असाध्य लक्षण २५१ अरोगकी चिकित्सा २५१ मुष्ककादिक्षार २५२ अर्शयंत्रविधान २५२ अर्शपातनविधि २५३ भिन्न २ अशी भिन्न २ चिकित्सा २५५ अर्शघ्न लेप अदृश्यार्शनाशकचूर्ण अर्शघ्नयोगद्वय चित्रकादिचूर्ण अर्शनाशकत सूरणमोदक तक्रकल्प भल्लातककल्क भल्लातका स्थिरसायन भल्लातकतैलरसायन अर्शहर उत्कारिका वृद्धदारुकादिचूर्ण अर्शमें तिलप्रयोग अंतिमकथन ( XIV ) २४९ २४९ २५० २५५ २५५ २५६ २५६ २६६ २५६ २५७ २५७ २५७ २५७ २५८ २५८ २५९ २५९ २५९ २५९ २६० त्रयोदशपरिच्छेदः शर्कराधिकारः www. मंगलाचरण व प्रतिज्ञा बस्तिस्वरूप शर्करा संप्राप्ति शर्करालक्षण शर्करामूल अश्मर्यधिकारः अश्मरीभेद कफाश्मरी लक्षण पैत्तिकाश्मरीलक्षण वातिकाश्मरीलक्षण बालाश्मरी बालकोत्पन्नश्मरीका सुखसाध्यलक्षण२६४ शुक्रश्मसंप्राप्ति शुक्राश्मरी लक्षण अश्मरीका कठिन साध्यलक्षण अश्मरीका असाध्य लक्षण वाताश्मरीनाशक घृत वाताश्मर के लिए अन्नपान पित्ताश्मरीनाशक योग कफाश्मरीनाशक योग पाटलीकादि काथ कपोतवकादि काथ अजदुग्धपान नृत्यकाण्डादिकल्क तिलादिक्षार उत्तरवस्तिविधान पुरुषयोग्य नेत्रदक्षण २६१ २६१ २६१ २६१ २६१ २६२ २६२ २६२ २६२ २६३ २६३ २६४ २६४ २६४ २६५ २६५ २६५ २६६ २६६ २६७ २६७ २६७ २६८ २६८ २६८ २६८ २६९ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ २७९ २७९ २८० (XV) mar कन्या व स्त्रीयोग्यनेत्रलक्षण २६९ भगंदरमें अपथ्य २७७ द्रवप्रमाण अश्मरी आदिके उपसंहार .२७७ उत्तरबस्तीके पूर्वपश्चाद्विधेयविधि २६९ वृद्धि उपदंश आदिक वर्णनकी उतरवस्त्यर्थ उपवेशनविधि २७० प्रतिज्ञा २७८ अगारधूमादिवति । २७० सप्तप्रकारकी वृषणवृद्धि २७८ उत्तरबारतका उपसंहार २७० वृद्धि संप्राप्ति वात, पित्त, रक्तज वृद्विलक्षण २७८ भगंदररांगाधिकारः २७१ कफ, मेदजवृद्धिलक्षण २७८ भगंदरवर्णनप्रतिज्ञा २७१ मूत्राजवृद्धिलक्षण भगंदरका भेद अंत्रजवृद्धिलक्षण शतयोनक व उष्ट्रगटलक्षण २७१ सर्ववृद्धि में वर्जनीयकार्य परिस्रावि व कंबुकावर्तलक्षण २७१ वातवृद्धिचिकित्सा २७९ उन्मार्गिभगंदरलक्षण २७२ स्वेदन, लेपन, बन्धन व दहन २८० भगदरकी व्युत्पत्ति व साध्यासाप पित्तरक्तजवृद्धिचिकित्सा विचार २५२ कफजवृद्धिचिकित्सा २८० भगंदरचिकित्सा २७२ मेदजवृद्धिचिकित्सा २८० चिकित्सा उपेक्षासे हानि २७२ मूत्राजवृद्धिचिकित्सा २८१ भगंदरका अपाध्यलक्षण २७३ अंत्रवृद्धिचिकित्सा भगंदरकी अंतर्मुखबहिर्मुखपरीक्षा २७३ अंडवृद्धिघ्नलेप भगंदरयंत्रा २७३ अंडवृद्धिध्नकल्क भगंदरमें शस्त्राग्निक्षारप्रयोग २७३ सुवचिंकादिचूर्ण २८२ भगंदरछेदनक्रम उपदंशशूकरोगवर्णन प्रतिज्ञा बृहत्वणका दोष व उसका निषेध २७४ अन्तिमकथन २८२ स्वेदन २७५ चतुर्दशपरिच्छेदः भगंदरघ्न उपनाह २७५ उपदंशाधिकारः शल्पजभनंदरचिकित्सा मंगलाचरण व प्रतिज्ञा शोधनरोपण २८३ २७६ उपदंशचिकित्सा भगंदरग्नतेल व घृत दो प्रकारका शोथ २८३ उपरोक्त तेल धृतका विशेषगुण २७७ उपदंशका असाध्यलक्षण २८४ हरीतक्यादिचूर्ण २७७ । दंतोद्भव उपदंशचिकित्सा ० २८१ २८१ २८१ २७४ २८२ २८३ २७६ २८३ २८४ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XVI) - २८७ २८९ २८९ शूकदोषाधिकारः २८५ शूकरोगनिदान व चिकित्सा २८५ तिलमधुकादिकल्क - २८५ श्लीपदाधिकारः २८६ श्लीपदरोग २८६ त्रिकटुकादिउपनाह वल्मीकपादनतेलघृत २८७ वल्मीकपादचिकित्सा २८७ अपचीलक्षण २८८ अपचीका विशेषलक्षण २८८ अपचीचिकित्सा २८८ नाडीव्रण अपचीनाशकयोग गलगण्डलक्षण व चिकित्सा अर्बुदलक्षण अर्बुद चिकित्सा ग्रंथिलक्षण व चिकित्सा सिराजप्रन्थिके असाध्य कृछ्रसाध्यलक्षण २९१ द्विविध विद्रषि विद्रधिका असाध्यदुःसाध्यलक्षण २९१ विद्रधिचिकित्सा २९२ आमविदग्धविपकलक्षण अष्टविधशस्त्रकर्म व यंत्रनिर्देश बाह्यविद्रधिचिकित्सा अंतर्षिविनाशकयोग २९५ विद्रधि रोगीको पध्याहार - क्षुद्ररोगाधिकारः २९५ क्षुद्ररोगवर्णनप्रतिज्ञा २९० अकथितर गोंकी परीक्षा २९६ अजगल्लीलक्षण २९६ अजगल्लीचिकित्सा २९६ अलजी, यव, विवृतलक्षण २९७ कच्छपिका वल्मीकटक्षण २९७ इन्द्रविद्धा गर्दभिका लक्षण २९७ पाषाणगर्दभ जलकालीलक्षण २९८ पनसिका लक्षण २९८ इरिवेल्लिका लक्षण २९८ कक्ष लक्षण २९९ गंधनामा ( गंधमाला) चिप्पलक्षण२९९ अनुशयी लक्षण विदारिका लक्षण शर्कराव॑दलक्षण विचार्चका, वैपादिका, पामा, कच्छु, ___ कदर, दारीरोगलक्षण ३०० इंद्रलुप्त लक्षण ३०१ जतुमणिलक्षण व्यंगलक्षण माष, तिल न्यच्छलक्षण नालिका लक्षण तारुण्यपिड का लक्षण धतिका लक्षण सन्निरुद्धगुदलक्षण अग्निरोहिणी लक्षण ३०३ स्तनरोगचिकित्सा ३०४ क्षुरोगोंकी चिकित्साका उपसंहार ३०४ सर्वरोगचिकित्सासंग्रह नाडीव्रणनिदान व चिकित्सा ३०५ मुखकांतिकारकवृत २९० ० ० ० ० ० ० 'mr mr mr mr meer mmmm Mor mornar mmm ० ० ० ० ० ० ० ० ३०५ ० Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xvir) Poudelia - --- ---- - -- - --- ---- - - --- - - --- - --- - - H omsaamaanwrsampa ३ ३०७ ३०७ mr or mrrrr ३०७ mr ३०९ س मुखकांतिकारकलेप अंतिमकथन पंचदशपरिच्छेदः शिरोरोगाधिकारः मंगलाचरण शिरोरोगकथनप्रतिज्ञा शिरोरोगोंके भेद क्रिमिज, क्षयनशिरोरोग सूर्यावर्त, अर्धावभेदकलक्षण शंखकलक्षण ३०८ रक्तपित्तज, वातकफजशिरोरोगके विशिष्टलक्षण ३०९ शिरोरोगचिकित्सा क्रिमिनशिरोरोगघ्नयोग शिरोरोगका उपसंहार कर्णरोगाधिकारः ३१० कर्णशूलकर्णनादलक्षण बधिर्यकर्ण व क्षोदलक्षण कर्णस्रावलक्षण पूर्तिकर्णकृमिकर्णलक्षण कर्णकण्डू, कर्णगूथ, कर्णप्रति नादके लक्षण ३११ कर्णपाक, विधि, शोथ, .. ... अर्शका लक्षण ३११ वातजकर्णव्याधिचिकित्सा ३११ कर्णस्वेदन घृतपान आदि । ३१२ कर्णरोगांतकवृत ...... ३१२ कफाधिककर्णरोगचिकित्सा ३१२ कृमिकर्ण, कर्णपाकचिकित्सा ३१२ क्रिमिनाशकयोग कर्णगत आगंतुमलचिकित्सा ३१३ पूतिकर्ण, कर्णस्राव, कर्णाश, विद्रधि, चिकित्सा ३१३ कर्णरोगचिकित्साका उपसंहार ३१४ नासारोगाधिकारः ३१४ नासागतरोगवर्णनप्रतिज्ञा ३१४ पीनस लक्षण व चिकित्सा ३१४ पूतिनासाके लक्षण व चिकित्सा ३१४ नासापाकलक्षण व चिकित्सा प्यरक्तलक्षण व चिकित्सा दीप्तनासालक्षण व चिकित्सा ३१५ क्षवथुलक्षण व चिकित्सा आगंतुक्षवतु लक्षण ३१६ महाभ्रंशनलक्षण व चिकित्सा ३१६ नासाप्रतिनाहलक्षण व चिकित्सा ३१६ नासापरिस्रावलक्षण व चिकित्सा ३१६ नासापरिशोषलक्षण व चिकित्सा ३१६ नासागतरोगमें पथ्य सर्वनासारोगचिकित्सा नासार्श आदिकोंकी चिकित्सा ३१७ नासारोगका उपसंहार व मुखरोग __ वर्णनप्रतिज्ञा ३१५ मुखरोगाधिकारः ३१८ मुखरोगोंके स्थान अष्ठविध ओष्टरोग वातपित्त, कफज, ओष्ठरोगों लक्षण ३.१८ س س wwww w . ० ० س لم Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XVIII ) - - - - a ३१९ in ३२६ لم اعر ३२० ३२८ R or m ३२१ सन्निपातरक्तमसभेदोत्पन्न ___ अठोग के लक्षण ३१८ सर्वओटरोगचिकित्सा दंतरोगाधिकारः ३१९ अष्ठविधदतवर्णनप्रतिज्ञा व दालनलक्षण ३१२ कृमिद तलक्षण दंतहर्षलक्षण भजनकलक्षण ३२० दंतशर्करा, कापालिकालक्षण ३२० इया मदतक हनुमोक्षलक्षण ३२० दंततहर्षचिकित्सा ३२१ दंतशर्करा कापालिका चिकित्सा ३२१ हनुमोक्षचिकित्सा जिह्वागतपंचविधरोग पातपित्तकफजजिह्मारोगलक्षण व चिकित्सा ३२२ जिहालसकलक्षण जिव्हालसइचिकित्सा उपजिव्हाचिकित्सा ३२३ सीतोदलक्षण व चिकित्सा ३२३ दंतपुप्पटलक्षण व चिकित्सा दंतवेष्टलक्षण व चिकित्सा ३२३ मुपिरलक्षणचिकित्सा ३२४ महामुषिररक्षण व चिकित्सा ३२४ परिस्रदरलक्षण ३२४ उपकुशलक्षण ३२४ वैदर्भ, खलवर्धन (खल्लीवर्धन) लक्षण ३२५ अधिमांसलक्षण व चिकित्सा ३२५ दण्डनाडीलक्षण व चिकिपा ३२५ दंतमूलगातरोगांचे करना उपकुशमें गंडप व नस्य ३२६ वैदर्भचिकित्सा ३२६ खलवर्धनचिकित्सा रोहिणीलक्षण ३२६ रोहिणी साध्यासाव्यविचार ३२७ साध्यहिणीको चिकित्सा ३२७ कंठशाइकलक्षण व चिकित्सा ३२७ विजिग्दिका (अधिजिव्हिका लक्षण३१७ बलपलक्षण महालसलक्षण एकवृन्दलक्षण ३२८ वृन्दलक्षण ३२८ शत नीलक्षण शिलातु [ गिलायु ] लक्षण गलविद्रधि व गलौघलक्षण ३२९ स्वरप्नलक्षण ३२९ मासरोग [ मांसतान ] लक्षण ३२९ गलमयचिकित्सा य तालुरोग वर्णनप्रतिज्ञा ३३० नवप्रकारके तालुरोग ३३० गलशुंडिका [ गलशुद्धी ! लक्षण ३३० जलशुंडिका चिकित्सा व टिकरी लक्षण व चिकित्सा ३३० अधुपलक्षण व चिकित्सा ३३० कच्छपलक्षण व चिकित्सा ३३१ रक्तार्बुदलक्षण व मांससंघातलक्षण ३३१ तालुपुप्प ( प ) ट लक्षण तालुशोषलक्षण ३३१ तालुपाकलक्षण सर्प पुखगतरोगवर्णनप्रतिज्ञा ३६६ ३२२ ३२२ mmmmmm अभिमा ३३१ ३३२ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XIX ) ० م س ० س الله ० س س ع ० 00 ccccc 0 AM س ० س س سم سم لل س فلم ० عم للي سم يه له سه ३३५ ३३६ विचारीलक्षण पथ्यभोजनपान पातजसर्वसर [मुखपाक] लक्षण वाताभिप्यन्दनाशक अंजन पित्तजसर्वसरलक्षण ३३३ घाताभिप्यन्दचिकित्सोपसंहार कफजसर्वसरटक्षण ३३३ पैत्तिकाभिष्यन्दलक्षण सर्वसर्वसररोगचिकित्सा पैत्तिकाभिष्यन्दचिकित्सा मधूकादि धूपनवर्ति पित्ताभिष्यन्दमें लेप व रसक्रिया मुखरोगनाशकधूप ३३४ अंजन ३४१ मुखरोगनाशकयोगांतर ३३४ अक्षिदाहचिकित्सा ३४१ भंगराजादितल ३३४ पित्ताभिष्यन्दमें पथ्यभोजन ३४१ सहादितैल ३३४ पित्ताभिष्यन्दमें पथ्यशाक व जल ३४२ सुरेन्द्राकाष्टादियोग ३३५ पित्तजसर्वाक्षिरोगचिकित्सा ३४२ सर्वमुखरोगचिकित्सासंग्रह रक्तजामिष्यन्दलक्षण ३४२ मुखरोगीको पथ्यभोजन ३३५ रक्ताजाभिष्यन्दचिकित्सा ३४२ मुखगत असाध्यरोग कफजाभिष्यन्दलक्षण दन्तगत असाध्यरोग कफजाभिप्यन्दचिकित्सा ३४३ रसनेन्द्रिय व तालुगत असाध्यरोग कफाभियन्दमें आश्चोतन व संक ३४३ कंठगत व सर्वगत असाध्यरोग ३३६ कफाभिष्यन्दमें गण्डूष व कबल __ धारण ३४३ नेत्ररोगाधिकारः ३३६ कफाभिप्यन्दमें पुटपाक ३४३ नेत्रका प्रधानत्व ३३६ मातुलुंगाद्यंजन नेत्ररोगकी संख्या ३३७ मुरंग्यांजन नेत्ररोगके कारण कफजसर्वनेत्ररोगोंके चिकित्सा नेत्ररोगोंके आश्रय ३३७ संग्रह ३४४ पंचगंडलषदांधि फफाभिष्यन्दम पथ्यभोजन ३४४ षट्पटल कफाभिष्यन्दमें पेय अभिष्यन्दवर्णन प्रतिज्ञा ३३८ अभिष्यन्दकी उपेक्षा अधि मंथकी वाताभिष्यन्दलक्षण उत्पत्ति ३४५ यातिभिष्यन्दचिकित्सा अधिमथका सामान्य लक्षण ३४५ वाताभिष्यन्दमें विरेचन आदि अधिमंथोंगे दृष्टिनाशकी अवधि ३४५ प्रयोग ३३९ । अधिमंथचिकित्सा ا لله للها Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (XX) - - - - - ३५३ ३४८ ३४८ हताधिमंथलक्षण शोफयुक्त,शोफरहितनेत्रपाकलक्षण ३४६ वातपर्ययलक्षण ३४६ शुष्काक्षिपाकलक्षण अन्यतोवातलक्षण आम्लाच्युषितलक्षण ३४७ शिरो पातलक्षण ३४७ शिराप्रहर्षलक्षण ३४७ नेत्ररोगोंका उपसंहार ३४८ संध्यादिगतनेत्ररोगवर्णन संधिगतनवविधरोग व पर्वणी लक्षण ३४८ अलजी लक्षण पूयालस, कफोपनाह लक्षण ३४९ कफजस्रावलक्षण ३४९ पित्तजस्राव व रक्तजस्रावलक्षण कृामनाथ लक्षण वर्मगतरोगवर्णनप्रतिज्ञा उत्संगिनीलक्षण कुंभोकलक्षण ३५० पोथकी लक्षण ३५० वर्मशर्करा लक्षण ३५० अर्शवमका लक्षण शुष्काशं व अंजननामिका लक्षण ३५१ बलवर्मलक्षण ३५१ वर्मबन्धलक्षण ३५१ क्लिटवर्मलक्षण ३५२ कृष्णकर्दमलक्षण पागलवर्मलक्षण ३५२ लिन्नवर्मलक्षण ३५२ mmmmmmmmmm ०००० अपरिक्लिनवर्मलक्षण ३५३ वातहतवर्मलक्षण ३५३ अर्बुदलक्षण ३५३ निमेषलक्षण रक्तार्शलक्षण लगणलक्षण ३५४ बिसवर्मलक्षण ३५४ पक्ष्मकोपलक्षण ३५४ वर्मरोगोंके उपसंहार ३५४ विस्तार्यम व शुक्लार्मके लक्षण ३५५ लोहितार्म व अधिमांसार्मलक्षण ३५५ स्नायुअर्म व कृशशुक्तिके लक्षण ३५५ अर्जुन व पिष्टकलक्षण ३५५ शिराजाल व शिराजपिडिका लक्षण ३५६ कृष्णमंडलगतरोगाधिकारः ३५६ अत्रण व सत्रणशुक्ल लक्षण ३५६ अक्षिपाकात्ययलक्षण अजकलक्षण ३५७ कृष्णगतरोगोंके उपसंहार ३५७ दृष्टिलक्षण ३५७ दृष्टिगतरोगवर्णनप्रतिज्ञा ३५७ प्रथमपटलगतदोषलक्षण ३५८ द्वितीयपटलगतदोषलक्षण ३५८ तृतीयपटलगतदोषलक्षण ३५८ नक्तांध्यलक्षण ३५८ चतुर्थपटलगतदोषलक्षण ३५९ लिंगनाशका नामांतर व · वातज लिंगनाशलक्षण : ३५९. पित्तकफरक्त जलिंगनाशलक्षण ३५९ सन्निपातिकलिंगनाशलक्षण व वातजवर्ण ३५२ ३५९ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तकफजवर्ण रक्तजसन्निपातजवर्ण विदग्धदृष्टिनामक षड्विधरोग व पित्तविदग्धलक्षण कफविदग्धदृष्टिलक्षण धूमदर्शी लक्षण हस्वजातिलक्षण नकुलान्यलक्षण गंभीरदृष्टिलक्षण निमित्तजलक्षण अनिमित्तजन्यलक्षण नेत्ररोगोंका उपसंहार छहत्तरनेत्ररोगोंकी गणना वातज असाध्य रोग वातजयाप्य, साध्यरोग पित्तज, असाध्य, यायगोग पित्तजसाध्य रोग सन्निपातजसाध्य रोग नेत्ररोगों का उपसंहार चिकित्साविभाग छेद्य रोगों के नाम भेद्य रोगोंके नाम लेख्यरोगों के नाम ( XX1 ) याप्यरोगों के नाम व असाध्य नेत्ररोगोंके नाम अभिन्ननेत्राभिघातचिकित्सा भिन्ननेत्राभिघातचिकित्सा ३६० ३६० ३६० ३६१ ३६१ ३६१ ३६१ ३६२ ३६२ ३६२ ३६२ ३६४ कफज असाध्य, साध्यरोग ३६४ रक्तज असाध्य, याप्य, साध्य रोगलक्षण ३६४ सन्निपातज असाध्य व याप्यरोग ३६५ ३६५ ३६६ ३६६ ३६७ ३६७ ३६७ ३६३ ३६३ ३६३ ३६३ ३६८ व्यध्यरोगों के नाम शस्त्रकर्म वर्जित नेत्ररोगोंके नाम ३६८ ३६८ ३६९ ३६९ वातजरोगचिकित्साधिकारः ३६९ वातादिदोषज नेत्ररोगोंकी चिकित्सा वर्णनप्रतिज्ञा मारुतपर्यय व अन्यतोवात चिकित्सा शुष्काक्षिपाक में अंजन तर्पण शुष्काक्षिपाक में सेक पित्तजनेत्ररोगचिकित्साधिकारः ३७० सर्वपित्तज नेत्ररोगचिकित्सा अम्लाघ्युषितचिकित्सा शुक्तिरोग में अंजन ३७० ३७१ ३७१ कफजनेत्ररोगचिकित्साधिकारः २७१ धूमदर्शी व सर्व श्लेष्मजनेत्ररोगों की वलासप्रथितमें क्षारांजन पिष्टकमें अंजन परिक्लिन्नवर्त्म में अंजन कंडूनाशक अंजन ३६९ ३६९ ३७० ३७० चिकित्सा ३७१ ३७२ ३७२ ३७२ ३७३ रक्तजनेत्ररोगचिकित्साधिकारः ३७३ प्यासप्रनिवाचिकित्सा सर्वनेत्ररोगचिकित्सा पीडायुक्त रक्तजनेत्ररोगचिकित्सा शिरोत्पातशिरोहर्षकी चिकित्सा अर्जुन व अत्र शुक्ककी चिकित्सा ३७४ ३७४ लेख्यांजन ३७४ नेत्रपाकचिकित्सा ३७५ महाजन ३७५ રૂખ ३७३ ३७३ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXII) - - - س س س ३७९ ३८७ سه शस्त्रप्रयोगाधिकारः ३७५ नेत्ररोगोंमें शस्त्रप्रयोग लेखन आदि शस्त्रकर्म ३७६ पक्ष्मकोपचिकित्सा ३७६ पक्ष्मप्रकोपमें लेखन आदि कार्य ३७७ कफजलिंगनाशमें शस्त्रकर्म ३७७ शलाकानिर्माण ३७८ लिंगनाशमें त्रिफलाचूर्ण मौाद्यंजन हिमशीतलांजन सौवर्णादिगुटिका तुभ्याधंजन प्रसिद्धयोग ३८० अंतिमकथन अथ षोडशपरिच्छेदः मंगलाचरण प्रतिज्ञा ३८२ श्वासाधिकारः ३८२ श्वासलक्षण क्षुद्रतमकलक्षण छिन्न व महाश्वास लक्षण ऊर्चश्वासलक्षण साव्यासात्यविचार श्वाशचिकित्सा ३८३ पिपल्यादिधुत व भार्यादिचूर्ण ३८४ मृगराजतैल व त्रिफलायोग ३८४ स्वगादिचूर्ण ३८४ तस्पोटकयोग ३८४ कासाधिकार ३८५ कासलक्षण ३८५ कासका भेद व टक्षण ३८५ वातजकासचिकित्सा ३८५ वातजकासमें योगांतर ३८६ वातजकासनयोगांतर पैत्तिककासचिकित्सा पैत्तिककासघ्नयोग ३८६ कफजकासचिकित्सा ३८७ क्षतज,क्षयजकासचिकित्सा ३८७ सक्तुप्रयोग विरसरोगाधिकारः ३८७ विरसनिदान व चिकित्सा तृष्णारोगाधिकारः तृष्णानिदान ३८८ दोषजतृष्णालक्षण क्षतजक्षयजतृष्णालक्षण ३८८ तृष्णाचिकित्सा ३८९ तृष्णानिवारणार्थ उपायांतर ३८९ वातादिजतृष्णाचिकित्सा ३८९ आमजतृष्णाचिकित्सा तृष्गानाशकपान उत्पलादिकपाय सारिबादिकाध छदिरोगाधिकारः ३९० दि । बमन ] निदान व चिकिमा३९ आगतुंजछदि चिकित्सा छर्दिका असाध्यलक्षण ३८८ ३८२ or m mmmmm mm V mmmmm 3000 AN Ay Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXIII) - - - ل لدم تا ३९3 000020 हदिमें ऊोधःशोधन अपानवातरोवज उदावर्त ३९९ छदिदगीको पथ्यभोजन व मूत्रावरोधज उदावर्त वातजछर्दिचिकित्सा ३९२ । मलावरोधज उदावर्त यातजछदिमें सिद्धदुग्धपान ३९२ शुक्रावरोधज उदावर्त पितजछििचकित्सा घमनाघरोधज अश्रुरोधज उदापत ४०० कफजछतिचिकित्सा ३९२ क्षुतनिरोधज उदावर्त सनिपातजछर्दिचिकित्सा ३९२ शुक्रोदावर्त व अन्योदावर्तकी वमनमें सक्तुप्रयोग ३९३ चिकित्सा ४०० छदिमें पथ्यभोजन अथ हिक्कारोगाधिकारः ४०० अथारोचकरोगाधिकारः । हिक्का निदान ४०० अरोचकनिदान हिक्का पंचभेद ४०१ अरोचकचिकित्साः अननयमिका हिक्कालक्षण वमन आदि प्रयोग क्षुद्रिका हिकालक्षण ४०१ महाप्रलय व गंभीरकाहिकालक्षण १०२ मातुडुंगरसप्रयोग ३९४ हिक्का असाध्यलक्षण मुखप्रक्षालादि पध्यभोजन हिकाचिकित्सा हिक्कानाशकयोग ४०३ स्वरभेदरोगाधिकारः हिकानाशकयोगद्वय ४०३ स्वरभेदनिदान व भेद ३९५ हिक्का न अन्योन्ययोग ४०३ वातपित्तकफज स्वरभेदलक्षण ३९५ अधिकऊर्धवातयुक्त हिक्काचिकित्सा ४०३ त्रिदोषज, रक्तजस्वरभेदलक्षण ___ प्रतिझ्यायरोगाधिकारः मेदजस्वरभेद टक्षण स्वरभेदचिकित्सा ३९६ प्रतिश्यायनिदान वातपित्तकफजस्वरभेदचिकित्सा प्रतिश्यायका पूर्वरूप १०४ नस्यगंडूष आदिके प्रयोग वातजप्रतिश्यायके लक्षण ४०४ मेदजसन्निपातज व रक्तज- ३९७ पित्तजप्रतिश्यायके लक्षण ४०४ स्वरभेदचिकित्सा ३९७ कफजप्रतिश्यायके लक्षण ४०५ स्वरभेदनाशकयोग ३९८ रक्तनप्रतिश्यायलक्षण ४०५ . उदावर्तरोगाधिकारः ३९८ सन्निपातजप्रतिश्यायलक्षण उदावर्त संघाति ३९८ दुष्प्रतिश्याया। ३२.४ .. M WW . ३९५ 30030030 ४०३ mmm ० Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Xxiv ) - प्रतिश्यायकी उपेक्षाका दोष ४०६ प्रतिश्यायचिकित्सा वात, पित्त, कफ व रक्तज, प्रतिश्यायचिकित्सा, .. ४०७ प्रतिश्यायपाचन के प्रयोग ४०७ सनिपातज व दुष्टप्रतिश्याय चिकित्सा ४०७ प्रतिश्यायका उपसंहार अंतिमकथन تم ror 3000 ४०९ 2 कृमिनाशकतैल सुरसादियोग ४१२ कृमिघ्नयोग ४१३ पिप्पलामूलकलक ४१३ रक्त जकृमिरोगचिकित्सा कृमि रोगमें अपथ्य अजीर्णरोगाधिकारः ४१३ आम, विदग्ध, विष्टब्धाजीर्णलक्षण ४१३ अजीर्णसे अलसक विलंबिका विशू चिकाकी उत्पत्ति अलसकलक्षण विलम्बिका लक्षण विशूचिका लक्षण अजीर्णचिकित्सा ४१५ अजीर्ण में लंघन ४१५ अजीर्णनाशकयोग ४१५ अजीर्णहृदोगत्राय कुलत्थकाथ विशूचिका चिकित्सा त्रिकटुकाद्यंजन विशूचिका दहन व अन्यचिकित्सा ४१७ अजीर्णका असाध्यलक्षण ४१७ मूत्र व योनिरोगवर्णनप्रतिज्ञा मूत्रघाताधिकारः वातकुंडालका लक्षण मूत्राष्ठलिका लक्षण - ४१८ वातबस्तिलक्षण मूत्रातीतलक्षण मूत्रजठरलक्षण ४१८ मूत्रोत्संगलक्षण मूत्रायलक्षण अथ सप्तदशः परिच्छेदः मंगलचरण व प्रतिज्ञा सर्वरोगोंकी त्रिदोषोंसे उत्पत्ति ४०९ त्रिदोषोत्पन्न पृथक् २ विकार ४०९ रोगपरीक्षाका सूत्रा : अथ हृद्रोगाधिकारः४१० बातजहृद्रोगचिकिसा .४१० वातजहृदोगनाशकयोग पित्तजहयोगचिकित्सा ४१० कफजहृद्रोगांचेकित्सा ४१० हृदोगमें वस्तिप्रयोग ४१० . अथ क्रिमिरोगाधिकारः ४११ क्रिमिरोगलक्षण ४११ कफपुरीषरक्तजकृमियां कृमिरोगचिकित्सा कृमिरोगशमनार्थशुद्धिविधान ४११ कृमिघ्नस्वरस . . ४१२ विडगचूर्ण . . . ४१२ मूषिककर्णादियोग .. tururar ४१७ क्षण ४११ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXV ) -- ४१९ ४२८ १२० ४२९ c ० ४३१ मूत्राश्मरीलक्षण मूत्राशुक्रलक्षण उष्णवातलक्षण ४२० पित्तजमूत्रोपसादलक्षण कफजमूत्रोपसादलक्षण ४२० मूत्ररोगनिदानका उपसंहार अथ मूत्ररोगचिकित्सा ४२० कपिकच्छ्वादिचूर्ण ४२१ मूत्रामयघ्नघृत ४२१ अथ मूत्रकृच्छ्राधिकारः ४२२ आठप्रकारका मूत्रकृछ ४२२ अष्टविधमूत्रकृच्छोंके पृथक्लक्षण ४२२ मूत्रकृच्छचिकित्सा ४२३ मूत्रकृच्छ्रनाशकयोग ४२३ मधुकादिकल्क दाडिमादिचूर्ण कपोतकादियोग तुरगादिस्वरस ४२४ मधुकादियोग ४२४ क्षारोदक ४२५ त्रुट्यादियोग ४२५ अथ योनिरोगाधिकारः ४२५ योनिरोगचिकित्सा ४२५ वातजयोनिरोग पित्तजयोनिरोग कफजयोनिरोग ४२६ सन्निपातजयनिरोग ४२७ सर्वजयोनिरोगचिकित्सा occcccccc वातलायोनिचिकित्सा ४२८ अन्यवातजयोनिरोगचिकित्सा । ४२८ पित्तजयोनिरोगचिकित्सा कफजयोनिरोगप्रयोग ४२८ कफजयोनिरोगचिकित्सा कर्णिनीचिकित्सा ४२९ प्रस्रंसिनीयोनिरोगचिकित्सा ४२९ योनिरोगचिकित्साका उपसंहार ४२९ __ अथ गुल्मरोगाधिकारः ४३० गुल्मनिदान गुल्मचिकित्सा गुल्ममें भोजनभक्षणादि गुल्मनाशकप्रयोग गुल्मघ्नयोगांतर ४३१ विशिष्टप्रयोग गुल्ममें अपथ्य पांडुरोगाधिकारः पांडुरोगनिदान वातजपांडुरोगलक्षण ४३२ पित्तजपांडुरोगलक्षण कामलानिदान ४३२ पांडुरोगचिकित्सा ४३३ पांडुरोगघ्नयोग कामलाकी चिकित्सा ४३३ पांडुरोगका उपसंहार ४३४ मुझेन्मादापस्माराधिकारः ५३४ मू निदान ४३४ मू चिकित्सा ४२४ ccccccc cococcccccccc 0000 ococccc Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्मादनिदान वातिक उन्मादके लक्षण पैत्तिकोन्माद के लक्षण नस्य व त्रासन उन्मादनाशक अन्यविधि उन्मादमें पथ्य लैष्मिकोन्माद ४३६ सन्निपातज, शोकजोन्मादलक्षण ४३७ उन्मादचिकित्सा ४३७ अपस्मारनिदान अपस्मारकी उत्पत्ति में भ्रम रोगोंकी लिंबाविलंब उत्पत्ति अपस्मार चिकित्सा नयोजन आदि भारिष्ट अंतिमकथन मंगलाचरण अथाष्टादशः परिच्छेदः राजयक्ष्माधिकारः शोषराज की सार्थकता क्षयके नामांतरोंकी सार्थकता शोषरोगी भेदाभेदविवक्षा राजयक्ष्माकारण पूर्वरूप अस्तित्व क्षयका पूर्वरूप वात आदिके भेदस राजयक्ष्माका लक्षण राजयक्ष्माका असाध्यलक्षण राजयक्ष्माकी चिकित्सा ( XXVI ) ४३५ ४३६ ४३६ ४३७ ४३८ ४३८ ४३८ ४३९ ४३९ ४४० ४४० ४४१ ४४१ ४४३ ४४३ ४४४ ४४४ ४४४ ४४५ ४४५ ४४५ ४४६ ४४७ ४४७ राजयक्ष्मीको भोजन क्षयनाशक योग तिलादियोग क्षयनाशक योगांतर क्षयनाशकघृत क्षयरोगतिकघृत महाक्षयरोगांतक भल्लातकादिवृत शबरादि घृत क्षयरोगनाशकदधि क्षयरोगीको अन्नपान मसूरिका रोगाधिकारः मसूरिकानिदान मसूरिकाकी आकृति विस्फोटलक्षण अरुंषिका मसूरिका के पूर्वरूप मसूरिका असाध्यलक्षण जिव्हा दिस्थानों में मसूरिकाकी उत्पत्ति मसूरिकामें पित्तकी प्रबलता और पित्तजमसूरिकालक्षण कफजरक्तजसन्निपातजमसूरि का लक्षण मसूरिका के असाध्यलक्षण मसूरिका चिकित्सा पथ्यभोजन तृष्णा चिकित्सा व शयनविधान दाहनाशकोपचार ४४७ ४४८ ४४८ ४४८ ४४९ ४४९ ४५० ४५१ ४५१ ४५१ ४५२ ४५२ ४५२ ४५२ ४५३ ४५३ ४५३ ४५४ वातिकलक्षण ४५४ ४५४ ४५४ ४५५ ४५५ ४५५ ४५५ ४५६ ४५६ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXVII ) - - - - ४६७ ४५९ शर्करादिलेप ४५६ शैवलादिलेप व मसूरिकाचिकित्सा ४५६ मसूरिकानाशकक्वाथ ४५७ पच्यमानमसूरिकामें लेप १५७ पच्यमानपक्कमसूरिकामें लेप ४५७ व्रणावस्थापन्नमसूरिकाचिकित्सा ४५८ शोषणक्रिया व क्रिमिजन्यमसूरिका चिकित्सा ४५८ वीजन व धूप ४५८ दुगंधितपिच्छिलमसूरिकोपचार ४५८ मसरिकी को भोजन ४५८ संधिशोथचिकित्सा सवर्णकरणोपाय ४५९ उपसर्गजमसूरिकामें मंत्रप्रयोग ४६० भूतादिदेवतायें मनुष्योंको कष्टदेनेका कारण ग्रहबाधायोग्यमनुष्य ४६१ बालग्रहके कारण किन्नरग्रहगृहीतलक्षण ४६२ किन्नरग्रहध्नचिकित्सा किन्नरप्रहध्नअभ्यंगस्नान ४६२ किन्नरग्रहध्नधूप किन्नरग्रहध्नबलि व होम किन्नरग्रहध्नमाल्यधारण ४६३ किंपुरुषग्रहगृहातलक्षण ४६३ किंपुरुषग्रहध्नतैल व घृत ४६४ किंपुरुषग्रहनधूप ४६४ स्नान, बलि, धारण ४६४ गरुडप्रहगृहीतलक्षण गरुडप्रहघ्न, स्नान, तैल, लेप ४६५ गरुडग्रहप्नधृतधूपनादि ४६५ गंधर्व ( रेवती ) ग्रहगृहीत लक्षण ४६५ रेवतीमध्नस्नान, अभ्यंग, घृत ४६६ रेवतीग्रघ्नधूप ४६६ पूतना ( भूत ) ग्रहगृहीतलक्षण ४६६ पूतनाग्रहध्नस्नान ४६६ पूतनाग्रहघ्नतैल व धूप ४६७ पूतनाग्रहघ्नबलिस्नान ४६७ पूतनाग्रहध्नधूप पूतनानधारण व बलि ४६७ अनुपूतना [यक्ष ] ग्रहगृहीतलक्षण ४६८ अनुपूतनाघ्नस्नान ४६८ अनुपूतनाघ्नतैल व घृत ४६८ अनुपूतनाप्नधूप व धारण ४६८ बलिदान ४६९ शीतपूतनाग्रहगृहीतलक्षण शीतपूतनाघ्नस्नान व तैल ४६९ शीतपूतनाघ्न घृत ४६९ शीतपूतनाघ्नधूप व धारण ४६९ शीतपूतनाघ्नबलि स्नानका स्थान ४७० पिशाचग्रहगृहीतलक्षण ४७० पिशाचग्रहध्नस्नानौषधि व तैल ४७० पिशाचग्रहघ्नधूप व घृत ४७० पिशाचग्रहनधारणबलि व स्नान स्थान ४७१ राक्षसगृहीतलक्षण ४७१ राक्षसमध्नस्नान, तेल, धृत ५७१ राक्षसमध्नधारण व बलिदान ४७१ राक्षसग्रहगृहीतका स्नानस्थान व मंत्र आदि ४७२ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXVIII) ४७४ ४८५ देवताओं द्वारा बालकोंकी रक्षा ४७२ ग्रहरोगाधिकारः ४७२ प्रहोपसर्गादिनाशक अमोघ उपाय ४७२ मनुष्योंके साथ देवताओंके निवास ४७२ ग्रहपीडाके योग्य मनुष्य ४७३ देवताविशिष्ठमनुष्यकी चष्टा ४७३ देवपीडितका लक्षण ४७३ असुरपीडितका लक्षण ४७३ गंधर्वपीडितका लक्षण ४७४ यक्षपीडितका लक्षण ४७४ भूतपितृपीडितका लक्षण राक्षसपीडितका लक्षण ४७४ पिशाचपीडितका लक्षण ४७५ नागग्रहपीडितका लक्षण ४७५ ग्रहोंके संचार व उपद्रव देने का काल ४७५ शरीर में ग्रहों का प्रभुत्व ४७६ ग्रहामयचिकित्सा ग्रहामयमें मंत्राबलिदानादि ४७६ ग्रहामयनघृततैल ग्रहामयनघृत, स्नानधूप, तैल ४७८ उपसंहार ४७८ अंत्यमंगल अथैकोनविंशः परिच्छेदः विषरोगाधिकारः मंगलाचरण व प्रतिज्ञा १८० राजाके रक्षणार्थ वैद्य ४८० वैद्यको पासरखने का फल ४८१ राजाके प्रति वैद्यका कर्तव्य विषप्रयोक्ताकी रक्षा ४८१ प्रतिज्ञा ४८२ विषयुक्तभोजनकी परीक्षा ४८२ परोसे हुए अन्नकी परीक्षा व हाथमुखगत विषयुक्त अन्नका लक्षण ४८३ आमाशयपक्काशयगत विषयुक्त अन्नका लक्षण ४८३ द्रवपदार्थगतविषलक्षण मद्यतोयदधितकदुग्धगतविशिष्ट विषलक्षण ४८४ द्रवगत व शाकादिगत विषलक्षण ४८४ दंतकाष्ठ, अवलेख, सुखवास व लेपगतविषलक्षण वस्त्रमाल्यादिगतविषलक्षण ४८५ मुकुटपादुकगतविषलक्षण ४८५ वाहननस्यधूपगतविषलक्षण ४८६ अंजनाभरणगतविषलक्षण विषचिकित्सा विषघ्नवृत ४८८ विषभेदलक्षणवर्णनप्रतिज्ञा ४८८ त्रिविधपदार्थ व पोषकलक्षण ४८९ विघात व अनुभयलक्षण ४८९ मद्यपानसे अनर्थ ४८९ विषका तीन भेद ४९० दशविधस्थावरविष मूलपत्राफलपुष्पविषवर्णन ४९१ सारनिर्यासत्वधातुविषवर्णन मूलादिविषजन्यलक्षण त्वक्सारनिर्यसनविषजन्यलक्षण ४९२ धातुविषजन्यलक्षण ४७७ ४८० ४९२ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXIX) - अथ जंगमविषवर्णन ५०० ५०० ० ५०१ त्रयोदशविधकंदजविष व कालकूटलक्षण ४९३ कर्कट व कर्दमकविषजन्यलक्षण ४९३ सर्षपवत्सनाभविषजन्यलक्षण मूलकपुंडरीकविषजन्यलक्षण ४९४ महाविषसांभाविषजन्यलक्षण ४९४ पालकवैराटविषजन्य लक्षण ४९४ कंदजविषकी विशेषता ४९५ विषके दशगुण ४९५ दशगुणोंके कार्य दूर्षीविषलक्षण ४९६ दूषीविषजन्यलक्षण ५०१ ० ५०२ ४९५ ५०२ ४९६ ४९७ स्थावराविषके सप्तवेग प्रथमवेगलक्षण द्वितीयवेगळक्षण तृतीयवेगलक्षण चतुर्थवेगलक्षण पंचम व षष्टवेगलक्षण सप्तमवेगलक्षण जंगमविषके घोडशभेद दृष्टिनिश्वासदंविष ५०१ दंष्ट्रनखविष मलमूत्रदंष्टशुक्रलालविष स्पर्शमुखसंदंशवातगुदविष अस्थिपित्तविष शूकशनविष ५०२ जंगमविषमें दशगुण ५०२ पांचप्रकराके सर्प सर्पविषचिकित्सा ५०३ सर्पदंशके कारण ५०३ त्रिविधदंश व स्वर्पितलक्षण ५०४ रचित ( रदित ) लक्षण । ५०४ उद्विहित (निर्विष) लक्षण ५०४ सांगाभिहतलक्षण दकिरसर्पलक्षण .५०५ मंडलीसर्पलक्षण राजीमतसर्पलक्षण ५०५ सर्पजविषोंसे दोषोंका प्रकोप ५०६ वैकरंजके विषसे दोषप्रकोप व दर्वीकरदष्टलक्षण ५०६ मंडलाराजीमंतदष्टलक्षण ५०६ दकिरविषजसप्तवेगका लक्षण ५०६ मंडलीसर्पविषजन्यसप्तवेगोंके लक्षण ५०७ राजीमंतसर्पविषजन्यसप्तवेगोंका ,, ५०७ दंशमें विषरहनका काल व सप्तवेगकारण ५०८ सर्पदष्टचिकित्सा ५०५ ४९७ ४९८ ४९८ ४९८ विषचिकित्सा प्रथमद्वितीयवेगचिकित्सा तृतीयचतुर्थवेगचिकित्सा पंचमषष्टवेगचिकित्सा सप्तमवेगचिकित्सा गरहारीघृत उपविषारित दूषविषारिअगद ५०० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXX ) - ५०९ ५२३ ५११ ५२५ ५१२ WW सर्पषिमें मंत्रकी प्रधानता ५०९ विषापकर्षणार्थ रक्तमोक्षण रक्तमोक्षणका फल दवाकरसोंके सप्तवेगोमें पृथक् २ चिकित्सा ५१० मंडली व राजीमंतसोके सप्तवेगोंकी पृथक २ चिकित्सा ५१० दिग्धविद्धलक्षण विषयुक्तव्रणलक्षण विषसंयुक्तवणचिकित्सा सर्पविषारिअगद सर्वविषारिभगद द्वितीयसविषारिअगद तृतीयसविषारिअगद ५१३ संजीवन अगद ५१४ श्वेतादि अगद मंडलिविषनाशक अगद वाचादिसे निर्विषीकरण ५१५ सर्पके काटे विना विषकी अप्रवृत्ति ५१५ विषगुण विषपीतलक्षण सर्पदष्टके असाध्यलक्षण हिंस्रकप्राणिजन्यविषका । असाध्यक्षण • मूषिकाविषलक्षण मूषिका विषचिकित्सा मूषिकाविषघ्नघृत ५२० कीटविषवर्णन ५२० कीटदष्टलक्षण कोटभक्षणजन्यविषचिकित्सा or or or or or mamoror سه سر سه क्षारागद ५२१ सर्वविषनाशक अगद ५२२ विषरहितका लक्षण व उपचार ५२३ विषमें पथ्यापथ्य आहारविहार ५२३ दुःसाध्यविषचिकित्सा अंतिमकथन ५२४ अथ विंशः परिच्छेदः । मंगलाचरण सप्तधातुओंकी उत्पत्ति ५२५ रोगके कारण लक्षणाधिष्ठान ५२५ साठप्रकारके उपक्रम व चतुर्विधर्म५२६ स्नेहनादिकर्मकृतमयोको पथ्यापथ्य ५२७ अग्निवृद्धिकारक उपाय ५२८ अग्निवर्धनार्थजलादिसेवा ५२८ भोजनके बारह भेद ५२९ शीत व उष्णलक्षण ५२९ स्निग्ध, रूक्ष, भोजन __ ५२९ द्रव, शुष्क, एककाल, द्विकाल ___ भोजन ५३० भैषजकर्मादिवर्णनप्रतिज्ञा पंचदश औषधकर्म ५३१ .. दश औषधकाल ५३१ निर्भक, प्राग्भक्त, ऊर्धभक्त व __ मध्यभकलक्षण ५३१ अन्तरभक्तसभक्तलक्षण ५३२ सामुद्गमुहुर्मुहुलक्षण ५३२ ग्रासमासांतरलक्षण ५३३ स्नेहपाकादिवर्णनप्रतिज्ञा .५३३ ५१६ ५१६ ५१८ ل م س Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXXI ) - Raman ५३४ ५४८ ५४९ ५४९ ५५१ काथपाकविधि ५३३ कटीकतरुण ५४७ स्नेहपाकविधि कुकुंदुर, नितंब, पार्श्वसंधि स्नेहपाकका त्रिविधभेद ५३४ मर्मवर्णन . ५४७ मृदचिक्कणखरचिक्कणपाकलक्षण ५३४ बृहती, असफलकमर्मलक्षण ५४७ स्नेह आदिकोंके सेवनका प्रमाण ५३५ क्रकन्या असमर्मलक्षण रसोंके त्रैसठभेद ५३५ ऊर्वजत्रुगतमर्मवर्णन ५४८ अयोगातियोगसुयोगलक्षण ५३७ कृकाटिकाविधुरमर्मलक्षण ५४९ फण अपांगमर्मलक्षण रिष्टवर्णनप्रतिज्ञा शंख, आवर्त, उत्क्षेपक, स्थपनी रिष्टसे मरणका निर्णय ५३७ सीमंतमर्मलक्षण मरणसूचकस्वप्न ५३८ शृंगाटक अधिमर्मलक्षण ५५० विशिष्टरोगोंमें विशिष्टस्वप्न व संपूर्णमौके पंचभेद ५५० निष्फलस्वप्न ५३९ सद्यप्राणहर व कालांतर दुष्टस्वप्नोंके फल ५३९ प्राणहरमर्म शुभस्वप्न ५४० विशल्यनवैकल्यकर व रुजाकर अन्यप्रकारके भरिष्टलक्षण ५४० मर्म अन्यरिष्ट ५४१ मौकी संख्या ५५२ रिष्टलक्षणका उपसंहार और मर्मवर्णनका उपसंहार ५५३ __ मर्मवर्णनप्रतिज्ञा ५४३ उग्रादित्याचार्यका गुरुपरिचय ५५४ शाखागतमर्मवर्णन ५४३ अष्टांगोंके प्रतिपादक पृथक् २ आचार्योके शुभनाम क्षिप्र व तलहृदयमर्म अष्टांगके प्रतिपादक स्वामी कूर्चकूर्चशिरगुल्फमर्म ५४४ समंतभद्र ५५५ इंद्रबस्तिजानुमर्म प्रन्थनिर्माणका स्थान ५५५ आणि व ऊवीमर्म ग्रंथकर्ताका उद्देश ५५५ रोहिताक्षमर्म ५४५ मुनियोंको आयुर्वेदशास्त्रकी विटपमर्म ५४५ गुदबस्तिनाभिमभवर्णन आवश्यकता ५५६ ५४५ हृदय, स्तनमूल, स्तनरोहितमर्म आरोग्यकी आवश्यकता ५५६ लक्षण शुभकामना ५५७ कपाले, अपस्तंभमर्मलक्षण ५४६ । अतिमकथन m00 ५४४ ५४४ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथैकविंशः परिच्छेदः । उत्तरतंत्र मंगलाचरण लघुताप्रदर्शन शास्त्रकी परंपरा चतुर्विधकर्म चतुर्विधकर्मजन्य आपत्ति प्रतिज्ञा अथ क्षाराधिकारः क्षारका प्रधानत्व व निरुक्ति क्षारका भेद क्षारका सम्यग्दग्ध लक्षण व पश्चात् क्रिया क्षारगुण व क्षारवर्ण्यरोगी क्षारका श्रेष्ठत्व, प्रतिसारणीय व पानीयक्षारप्रयोग अग्निकर्मवर्णन क्षारकर्मसे अग्निकर्मका श्रेष्ठत्व, अग्निकर्मसे वर्ज्यस्थान व दद्दनोपकरण त्वग्दग्ध, मांसदग्धलक्षण दद्दनयोग्यस्थान, दहन साध्यरोग व दद्दनपश्चात् कर्म अग्निकर्मके अयोग्य मनुष्य अन्यथा दग्धका चतुर्भेद स्पृष्ट, सम्यग्दग्ध, दुर्दग्ध, अतिदग्धका लक्षण दुग्धत्रण चिकित्सा ( Xxxii ) ५५९ ५५९ ५५९ ५६० ५६१ ५६१ ५६२ ५६२ ५६२ ५६२ ५६५ अग्निकर्मवयकाल व उनका भेद ५६६ ५६६ ५६३ ५६३ ५६४ ५६५ ५६६ ५६७ ५६७ ५६८ ५६८ सम्यग्दग्धचिकित्सा दुर्दग्ध चिकित्सा अतिदग्ध चिकित्सा रोपण क्रिया सवर्णकरणविधान अनुशस्त्रवर्णन ५६९ ५६९ ५६९ ५७० ५७० ५७० रक्तस्राव के उपाय ५७१ जलौकस शब्दनिरुक्ति व उसके भेद ५७१ सविषजलौकोंके लक्षण ५७२ कृष्णाकर्बुरलक्षण ५७२ अलगर्दा, इंद्रायुधा, सामुद्रिका क्षण५७२ गोवंदनारक्षण व सविषजूलूकादष्ट लक्षण ५७३ ५७३ सविषजल कदष्ट चिकित्सा निर्विषजलोकोंके लक्षण ५७३ ५७३ ५७४ ५७४ ५७५ ५७५ ५७५ ५७६ ५७७ कपिला लक्षण पिंगलामूषिका शङ्कुमुखी लक्षण पुंडरीकमुखीसावरिकालक्षण जौकों के रहनेका स्थान जौं कपालन विधि प्रयोग रक्तचूसने के बाद करने की क्रिया शुद्ध रक्काहरण में प्रतिक्रिया शोणितस्तंभन विधि शोणितस्तंभनापरविधि अयोग्यजलायुका लक्षण शस्त्रकर्मव अष्टविधशस्त्रकमोंमें आनेवाले शस्त्र विभाग ५७७ ५७७ ५७८ ५७८ ५७८ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शल्याहरणविधि ५७९ सीवन, संधान, उत्पीडन, रोपण ५७९ ५७९ ५८० ५८० शस्त्रकर्मविधि अर्शविदारण शिराव्यधविधि अधिकरक्तास्रवसे हानि ५८० रक्तकी अतिप्रवृत्ति होनेपर उपाय ५८१ शुद्ध रक्तका लक्षण व अशुद्ध रक्त के ५८१ निकालने का फल वातादिसे दुष्ट व शुद्धशोणितका लक्षण शिराव्यधका अवस्थाविशेष शिराव्यधके अयोग्यव्यक्ति . अंतिमकथन द्वाविंशः परिच्छेदः । मंगलाचरण व प्रतिज्ञा स्नेहादिकर्मयथावत् न होने से रोगोंकी उत्पत्ति जीर्णघृतका लक्षण घृत जीर्ण होनेपर आहार ( xxx11f ) स्नेहपान विधि व मर्यादा वातादि दोषों में घृतपान विधि अच्छपान के योग्यरोगी व गुण घृतपानकी मात्रा ५८५ घृतपानका योग अयोगादिके फल ५८५ घृतके अजीर्णजन्य रोग व उसकी चिकित्सा सभक्तघृतपान सद्यस्नेहनयोग ५८२ ९८२ ५८३ ५८३ ५८५ ५८६ ५८६ ५८६ ५८६ ५८७ ५८७ ५८७ ५८७ ५८८ स्नेहन योग्यरोगी रुक्षमनुष्यका लक्षण सम्यग्स्निग्ध के लक्षण अतिस्निग्ध के लक्षण अतिस्निग्ध की चिकित्सा घृत [ स्नेह ] पान में पथ्य स्वेदविधिवर्णनप्रतिज्ञा ५९० स्वेदका योग व अतियोगका फल ५९० स्वेदका भेद व ताप, उष्मस्त्रेद लक्षण५९० ५९१ ५९१ बन्धन, द्रव, स्वेदलक्षण चतुर्विधस्वेदका उपयोग स्वेदका गुण व सुस्वेदका लक्षण स्वेदगुण ५९१ ५९१ स्वेद के अतियोगका लक्षण ५९२ स्वेदका गुण ५९२ वमनविरेचन विधिवर्णनप्रतिज्ञा ५९२ दोषोंके बृंहण आदि चिकित्सा ५९३ संशोधन में वमन व विरेचनकी ५.८ ५८८ ५८९ ५८९ ५८९ ५८९ वमन में भोजनविधि संभोजनीय अथवा वाम्यरोगी मनका काल व औषध वमनविरेचनके औषधका स्वरूप बालकादिक के लिये वमनप्रयोग वमनविध सम्यग्वमनके लक्षण मनपश्चात्कर्म प्रधानता ५९३ ५९३ ५९३ ५९४ ५९४ ५९४ ५९५ ५९५ ५९५ वमनका गुण मनके बाद विरेचनविधान ५९५ १९६ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXXIV ) ६१३ ६१४ विरेचन के प्रथमदिन भोजनपान ५९६ विरेचक औषधदान विधि ५९७ विविधकोष्ठोमें औषधयोजना ५९७ सम्पग्विरिक्त के लक्षण व पेयपान ५९७ यवापानका विधि ५९८ संशोधनभैषज के गुण विरेचन प्रकीर्णविषय दुर्बल आदिकोंके विरेचनविधान ५९९ अतिस्निग्बको स्निग्धरेचनका निषेध ५९९ संशोधनसंबन्धी ज्ञातव्यबाते ६०० संशोधनमें पंद्रहप्रकारकी व्यापत्ति ६०० विरेचनका ऊर्ध्वगमन व उसकी । चिकित्सा ६०१ धमन का अधोगमन व उसकी चिकित्सा ६०१ आमदोषसे अर्धपीत औषधपर योजना ६०२ विषमऔषध प्रतीकार ६०२ सावशेषऔषध व जीर्ण औषधका लक्षण व उसकी चिकित्सा६०३ अल्पदोपहरण, वातशूल का लक्षण उसकी चिकित्सा ६०३ अपोगका लक्षण व उसकी चिकित्सा६०४ दुविरेच्यमनुष्य ६०५ अतियोगका लक्षण व उसकी चिकित्सा ६०६ जीवशोणितलक्षण ६०७ जीवदान, आध्मान, परिकर्तिका लक्षण व उनको चिकित्सा ६०८ परिस्रावलक्षण परिस्रावव्यापत्तिचिकित्सा प्रवाहिका लक्षण प्रवाहिका हदयोपसरण व विबन्धकी चिकित्सा ६११ कुछ व्यापत्तियोंका नामांतर ६१२ बस्तिके गुण और दोष ६१३ बस्तिआपच्चिकित्सावर्णनप्रतिज्ञा ६१३ बस्तिप्रणिधान में चलितादि व्याप चिकित्सा ऊर्बोक्षिप्तव्यापचिकित्सा अवसन्नव्यापच्चि कित्सा नेत्रदोषजव्यापत्ति व उसकी चिकित्सा बस्तिदोष जव्यापत्ति व उसकी चिकित्सा ६१५ पीडनदोषजन्यव्यापत्ति व उसकी चिकित्सा ६१५ औषधदोषजव्यापत्ति और उसकी चिकित्सा ६१६ शय्यादोपजन्यव्यापत्ति व उसकी चिकित्सा ६१६ अयोगादिवर्णन प्रतिज्ञा अयोग,आध्मानलक्षण व चिकित्सा ६१७ परिकर्तिका लक्षण व चिकित्सा ६१८ परिस्रावका लक्षण प्रवाहिका लक्षण इन दोनोंकी चिकित्सा हृदयोपसरणलक्षण ६१९ हृदयोपसरणचिकित्सा ६२० अंगग्रह अतियोगलक्षण व चिकित्सा ६२० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवादान व उसकी चिकित्सा बस्तिव्यापद्वर्णनका उपसंहार अनुवस्तिविधि अनुवासन बस्ति की मात्रा व खाली पेट में बस्तिका निषेध स्निग्धाहारीको अनुवासन बस्तिका निषेध रात्रंदिन बस्तिका प्रयोग अनुवासनबस्तिकी विधि बस्तिके गुण तीन सौ चोवीसबस्तीक गुण सम्यगनुवासितके लक्षण व स्नेह बस्तिके उपद्रव वातादिदोषोंसे अभिभूत स्नेहके भोजनविधि अशुद्धशरीरको अनुवासनका निषेध६२३ अनुवासनकी संख्या उपद्रव अन्नाभिभूतस्नेहके उपद्रव अशुद्धकोष्ठ के मलमिश्रित स्नेह के ( XXXV ) ६२१ ६२१ ६२१ ६२२ ६२२ ६२३ ६२३ ६२३ ६२४ ६२५ ६२५ ६२६ ६२६ ६२७ उपद्रव ऊर्ध्वगत स्नेहके उपद्रव असंस्कृतशरीरको प्रयुक्त स्नेहका उपद्रव ६२८ अल्पाहारीको प्रयुक्तस्नेहका उपद्रव ६२८ स्नेहका शीघ्र माना और न आना ६२९ स्नेहवस्तिका उपसंहार ६२९. निरुह बस्तिप्रयोगविधि ६२९ ६३० सुनिरूटलक्षण सम्पगनुवासन व निरूह के लक्षण ६३० ६२७ ६२७ वातघ्ननिरूह बस्ति पित्तन्ननिरूह बस्ति कफन्ननिरूह बस्ति शोधनवस्ति लेखनबस्ति बृंहणवस्ति शमनवस्ति वाजीकरणवस्ति पिच्छिल बस्ति संग्रहणवस्ति बंध्यात्वनाशक बस्ति गुडतैलिकति ६३० ६३१ ६३१ ६३१ ६३१ ६३२ ६३२ ६३२ ६३२ ६३२ ६३३ ६३३ ६३३ ६३४ ६३४ गुडतैलिक बस्ति में विशेषता युक्तरथवस्ति शूलघ्वस्ति सिद्धबस्ति गुडतैलिक बस्तिके उपसंहार अथ त्रयोविंशः परिच्छेदः ६३४ ६३४ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा ६३६ नेत्रवस्तिका स्वरूप ६३६ उत्तरबस्तिप्रयोगविधि ६३६ ६३७ उत्तरवस्तिके द्रवका प्रमाण उत्तरवस्तिप्रयोग के पश्चात् क्रिया ६३७ बस्तिका प्रमाण ६३८ वातादिदोषदूपितरजोवीर्यके [ रोग ] ६३८ लक्षण ६३८ साध्यासाव्यविचार और वातादि दोषजन्यवीर्यरोगकी चिकित्सा रजोवीर्य विकार उत्तरवस्तिका प्रधान व कुणपगंधवीर्यचिकित्सा६३९ ६३८ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथिभूत व पूयनिभवीर्यचिकित्सा ६३९ विधि व क्षीणशुक्रकी चिकित्सा ६४० पित्तादिदोषजन्यार्तव रोग ६४० ६४० ६४० ६४१ ६४१ ऋतुकाल व सद्योगृहीतगर्भलक्षण ६४१ शुद्रशुक्रका लक्षण शुद्धार्तवका लक्षण स्त्री-पुरुष नपुंसककी उत्पत्ति गर्भाधानविधि 35 गर्भिणीचर्या ६४२ निकटप्रसवा के लक्षण और प्रसवविधि ६४३ जन्मोत्तरविधि ६४३ अनंतर विधि अपरापतन के उपाय सूतिकोपचार मार्कल [ मक्कल ] शूल और उसकी चिकित्सा उत्तरवस्तिका विशेषगुण धूम, कवलग्रह, नम्यविधिवर्णन प्रतिज्ञा और धूमभेद स्नेहन धूमलक्षण प्रायोगिक, वैरेचनिक, कासन धूमलक्षण धूमपानकी नलीको लम्बाई धूननलीके छिद्रप्रमाण व धूम पानविधि धूम निर्गमनविधि धूमपान के अयोग्यमनुष्य धूम सेवनका काल धूमसेनका गुण योगायोग तिरोग ( XXXVI ) ६४४ ६४४ ६४४ ६४५ ६४५ ६४५ ६४५ ६४६ ६४६ ६४६ ६४७ ६४७ ६४७ ६४८ ६४८ धूमके अतियोगजन्य उपद्रव धूमपान के काल गंडूष व कवलग्रवर्णन गंडूषधारणविधि गंडूषधारणका काल गंडूषधारणको विशेषविधि high का प्रमाण और कवलविधि ६५१ नस्यवर्णनप्रतिज्ञा व नस्य के दो भेद ६५१ स्नेहनस्यका उपयोग ६५१ विरेचननस्य का उपयोग व काल ६५२ स्नेहननस्य की विधि व मात्रा ६५२ प्रतिमर्शनस्य ६५३ प्रतिमर्शनस्य के नौकाल व उसके फल६५३ प्रतिमर्शका प्रमाण ६५४ ६५४ प्रतिमर्शनस्यका गुण शिरोविरेचन ( विरेचननस्य ) का वर्णन ६५४ ६५५ ६५५ शिरोविरेचनके सम्यग्योग का लक्षण ६५६ ६५६ ६५६ ६५७ ६५७ ६५७ ६५८ विदग्वशोधलक्षण ६५८ पक्कशोथलक्षण ६५९ कफजन्यशोध के विशिष्टपकलक्षण ६५९ शिरोविरेचनद्रवकी मात्रा मात्रा के विषय में विशेषकथन ६४९ ६४९ ६४९ ६५० ६५० ६५० प्रधमननस्यका यंत्र योगातियोगादि विचार व्रणशोधवर्णन व्रणशोथका स्वरूपभेद शोधों के लक्षण शोधकी आमावस्थाके लक्षण Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXXVII ) Farrur ur urururur शोथोपशमनविधि बन्धन विधि अज्ञवैद्यनिंदा पलितनाशकलेप केशकृष्णीकरणपरलेप केशकृष्णीकरणतृतीयविधि केशकृष्णीकरणतैल केशकृष्णीकरणहरीतक्यादिलेप केशकृष्णीकरणश्यामादितैल महाअक्षतैल वयस्तंभकनस्य उपसंहार अंतिम कथन ur ur ururururururur MMMMMMMMMA ६६२ ६६३ ६६४ ६८५ ६६६ ६६७ ६६७ ६६८ ६८६ रससंस्कारफल सिद्धरसमाहात्म्य पारदस्तंभन रससंक्रमण पारदप्रयोजन ६८२ सिद्धरसमाहात्म्य ६८२ सिद्धघृतामृत रसग्रहणविधि दीपनयोग रससंक्रमणौषध तिमकथन अथ पंचविंशतितमः परिच्छेदः मंगलाचरण ६८६ प्रतिज्ञा हरीतकी प्रशंसा ६८६ हरीतकी उपयोगभेद ६८६ हरीतक्यामलकभेद त्रिफलागुण त्रिफलाप्रशंसा ६८७ शिलाजतुयोग शिलोद्भवकल्प ६८८ शिलाजतुकल्प ६८८ क्षयनाशककल्प बलवर्धकपायस शिलावल्कलांजनकल्प ६८९ कृशकर व वर्धनकल्प शिलाजतुकल्प शिलजीतकी उत्पनि शिलाजतुयोग ६८७ ६८७ अथ चतुर्विशः परिच्छेदः मंगला चरण ६६९ रसवर्णनप्रतिज्ञा ६६९ रसके त्रिविधसंस्कार त्रिविधसंस्कारके भिन्न २ फल ६७० मूर्छन व मारण ६७० मृतरससे रनविधि बद्धरसका गुण रसबन्धनविधि रसशालानिर्माणविधि ६७२ रससंस्कारविधि रसप्रयोगविधि ६७५ रसप्रयोगफल ६०८ रसबृंहणविधि ६७८ सारणाफल ६८० ६८८ ६७० w w rur ६८९ ६८९ ६७२ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णशिलाजतुकल्प वाम्येषाकल्प पाषाणभेदकल्प भल्लातपाषाण कल्प भल्लातपाषाणकल्पके विशेषगुण द्वितीयपाषाणभल्लातकल्प खर्परीकल्प खर्परीकल्पके विशेषगुण वज्रकल्प वज्रकल्प के विशेषगुण मृत्तिकाकल्प गोश्रृंग्यादि कल्प एरंडादिकल्प नाग्यादिकल्प क्षारकल्प क्षारकल्पविधान चित्रककल्प त्रिफलादिकल्प कल्पका उपसंहार ग्रंथकर्ताको प्रशस्ति अंतिमकथन मंगलाचरण व प्रतिज्ञा रिष्टवर्णनोदेश अथ परिशिष्टरिष्टाध्यायः वृद्धोंमे सदा मरणभय मृत्युको व्यक्त करनेका निषेध मृत्युको व्यक्त करने का विधान ( XXXVIII ) ६९१ ६९१ ६९२ ६९२ ६९३ ६९३ ६९.४ ६९४ ६९५ ६९५ ६९६ ६९६ ६९६ ६९७ ६९७ ६९७ ६९८ ६९९ ६९९ ७०१ ७०३ ७०४ ७०४ ७०४ ७०५ ७०५ रिष्टलक्षण द्विवार्षिक मरणलक्षण वार्षिक मृत्युदक्षण एकादश मासिक मरणलक्षण नवमासिकमरणलक्षण अष्टमासिक मरणलक्षण सप्तमासिकमरणलक्षण षाण्मासिक मरणलक्षण पंचमासिकमरणलक्षण चतुर्थमासिकमरणलक्षण त्रैमासिकमरणलक्षण द्विमासिकमरणचिन्ह मासिकमरणचिन्ह पाक्षिकमरणचिन्ह द्वादशरात्रि कमरणचिन्ह सप्तरात्रकमरणचिन्ह त्रैरात्रिक मरणचिन्ह द्विरात्रि कमरणचिन्ह एकत्रिकरणचिन्ह त्रैवार्षिकादिमरणचिन्ह नवान्हिकादिमरणचिन्ह मरणका विशेषलक्षण रिष्टप्रकट होने पर मुमुक्षु आत्मका कर्तव्य रिष्टवर्णनका उपसंहार अथ हिताहिताध्यायः वनौषधिशब्दादर्श [ कोष ] ७०५ ७०६ ७०६ ७०६ ७०६ ७०७ ७०७ ७०७ ७०७ ७०८ ७०८ ७०८ ७०८ ७०९ ७०९ ७०९ ७०९ ७१० ७१० ७११ ७११ ७११ ७१२ ७१२ ७१४ ७४९ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XXXIX) साहित्यप्रेमी-सज्जन. - - - इस ग्रंथके उद्धार कार्य में निम्नलिखित साहित्यप्रेमी सज्जनोंमे उदार हृदय से भाग लेकर सहायता दी है । एतदर्थ उनके हम हृदयसे आभारी हैं । "१ स्वस्तिश्री जिनसेन भट्टारक पट्टाचार्य महाराज नांदणी १०१) २ श्री ध. रायबहादुर सेठ भागचंदजी सोनी . L. A. अजमेर १०१) ३ श्रीमंत सेठ लक्ष्मीचन्दजी साहब भेलसा. १०१) ४ श्री. धर्मनिष्ठ सेठ काळप्पा अण्णाजी लेंगडे शाहपुर बेळगांव १०१) ५ श्री. रा. सा. सेठ मोतीलालजी तोतालालजी रानीवाले व्यावर १०१) M ६ संघभक्तशिरोमणि सेठ पूनमचंद घासीलालजी जोहोरी मुंबई १०१) ७ चतुर्विध दानशाला सोलापुर ८ रायबहादुर सेठ लालचंदजी सेठी उज्जैन ९ बा. निर्मलकुमार चक्रेश्वरकुमारजी रईस आरा १० सेठ वीरचंद कोदरजी गांधी फलटण [ अपनी मातृस्मृति में ] Hi! ११ सिंघई कुंवरसेनजी रईस सिवनी १२ सेठ भगवानदास शोभारामजी पूना १३ सेठ मोतीचन्द उगरचंद फलटणकर पूना १४ सेठ प्रभुदास देवीदास चवरे कारंजा । १५ स्व. सेठ रावजी परमचंद करकंब [मातुश्री जमनाबाईकी स्मृतिमें] ५०) १६ सेठ शंकरलालजी गांधी मुंबई १७ सेठ रामचंद धनजी दावडा नातेपुते || १८ सेठ रावजी बापुचंद पंदारकर सोलापुर I. १९ सेठ माणिकचंद गुलाबचंद पिंपळेकर सोलापुर ॥ २० सेठ जग्गीमलनी साहव रईस देहली || २१ सेठ जोहोरीलालजी कन्हैयालालजी कलकत्ता || २२ सेठ लादुराम शिखरचंदजी कोडरमा - ॥६६६६६६६६६६६६६६ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( XL ) - DEF % 3D २३ दिगम्बर जैन पंचान नारायणगंज [ ढाका ] २४ सेठ चांदमलजी चूडीवाल चरमगुडिया २५ सेठ सुंदरलालजी जोहोरी रईस जयपुर २६ सेठ येमूसिंगई पासुसिंगई अंजनगांव २७ चन्द्रसागर औषधालय नांदगांव २८ रायबहादुर बालकृष्णदास वेंकटदास बागलकोट २९ दत्तात्रय मारुती मोहीकर पूना ३० श्री. ब्र. रखमाबाईजी सोलापुर ३१ श्री. मैनाबाई तारापुरकर सोलापुर ३२ श्री. ब्र. सोनुबाई मूरतकर ३३ श्री. ब्र. जीऊबाई बिजापुरकर ! ३४ श्री. माणिकबाई भंडारकवठेकर || ३५ श्री. गंगुबाई पदमशी करकंचकर 60.73 2005 - - - ०) - - - - - - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उग्रादित्याचार्यकृतं कल्याणकारकम् हिंदीभाषानुवादसहितम् । मंगलाचरण व आयुर्वदोत्पत्ति श्रीमत्सुरासुरनरेंद्रकिरीटकोटिमाणिक्यरश्मिनिकरार्वितपादपीट: तीर्थाधिपो जितरिपुर्वपभो बभूव साक्षादकारणजगत्रितयकर्षः॥१॥ भावार्थ:-जिनका पादपीठ ऐश्वर्यसंपन्न देवेंद्र, भवनवासी, व्यंतर व ज्योतिकेंद्र एवं चक्रवर्तिके किरीटमें लगे हुए पद्मराग रत्नोंकी कांतिसे पूजित है, जिन्होंने इस भरतखण्डमें सबसे पहिले मोक्षमार्गका उपदेश दिया है, व ज्ञानावरणादि कर्मरूपी शत्रुवोंको जीत लिया है ऐसे तीन लोकके प्राणियोंका साक्षात् अकारणबंधु श्री ऋषभनाथ स्वामी सबसे पहले, तीर्थकर हुए ॥ १ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) कल्याणकारके भगवान् आदिनाथसे प्रार्थना । तं तीर्थनाथमधिगम्य विनम्य मूर्ना सत्यातिहार्यविभवादिपरीतमूर्तिम् सप्रश्रयं त्रिकरणोरुकृतप्रणामाः पप्रच्छरित्थमखिलं भरतेश्वरायाः॥२॥ भावार्थ:-अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, छत्र, चामर, रत्नमय सिंहासन, भामण्डल व देवदुंदुभिरूप अष्टमहाप्रिितहार्य व बारह प्रकारकी सभावोंसे वेष्टित श्रीऋषभनाथ तीर्थकरके समवसरणमें भरत चक्रवर्ती आदिने पहुंच कर विनयके साथ त्रिकरणशुद्धिसे त्रिलोकीनाथ को नमस्कार किया एवं निम्नलिखित प्रकार पूछने लगे ॥२॥ प्राग्भोगभूमिषु जना जनितातिरागाः कल्पद्रुमापितसमस्तमहोपभोगा; दिव्यं सुखं समनुभूय मनुष्यभावे स्वर्ग ययुः पुनरपीष्टसुखं सुपुण्याः ॥३॥ भावार्थ:- प्रभो ! पहिले दूसरे तीसरे कालमें जब कि यहां भोगभूमिकी दशा थी लोग परस्पर एक दूसरे को अत्यंत स्नेहकी दृष्टि से देखते थे एवं उन्हे कल्पवृक्षोंसे अनेक प्रकारके इच्छित सुख मिलते थे । मनुष्यभवमें जन्मभर उत्कृष्टसे उत्कृष्ट सुख भोग कर वे पुण्यात्मा भोगभूमिज जीव इष्टसुख प्रदायक स्वर्गको प्राप्त होते थे ॥ ३ ॥ अत्रीपपादचरमोत्तमदेहिवर्गाः पुण्याधिकास्त्वनपवर्त्यमहायुषस्ते अन्येऽपवर्त्यपरमायुष एव लोके तेषां महद्भयमभूदिह दोषकोपात् ॥ ४॥ भावार्थ:- इस क्षेत्रको भोगभूमिका रूप पलटकर कर्मभूमिका रूप मिला ।। फिर भी उपपादशय्यामें उत्पन्न होनेवाले देवगण, चरम व उत्तम शरीरको प्राप्त करनेवाले पुण्यात्मा, अपने पुण्यप्रभावसे विषशस्त्रादिकसे अपघात नहीं होनेवाले दीर्घायुषी शशरके ही प्राप्त करते हैं । परंतु विषशस्त्रादिकसे घात होने योग्य शरीरको धारण करनेवाले भी बहुतसे मनुष्य उत्पन्न होने लगे हैं । उनको वात, पित्त व कफके उद्रेकसे महाभय उत्पन्न होने लगा है ॥ ४ ॥ देव ! त्वमेव शरणं शरणागतानामस्माकमाकुलधियामिह कर्मभूमौ शीतातितापहिमवृष्टिनिपीडितानां कालक्रमात्कदशनाशनतत्पराणाम् ॥ ५॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्यरक्षणाधिकारः (३) भावार्थ:-- स्वामिन् ! इस कर्मभूमिकी हालतमें हम लोग ठण्डी, गर्मी, व बर्सात आदिसे पीडित होकर दुःखी हुए हैं । एवं कालक्रमसे हम लोग मिथ्या आहार विहार का सेवन करने लगे हैं । इस लिये देव! आप ही शरणागतोंके रक्षक हैं ॥ ५॥ नानाविधामयभयादतिदुःखितानामाहारभेषजनिरुक्तिमजानतां नः तत्स्वास्थ्यरक्षणविधानमिहातुराणां का वा क्रिया कथयतामथ लोकनाथ ! ॥६॥ भावार्थ:-त्रिलोकीनाथ ! इस प्रकार आहार, औषधि आदिके क्रमको नहीं जाननेवाले व अनेक प्रकारके रोगोंके भयसे पीडित हम लोगोंके रोगको दूर करने और स्वास्थ्यरक्षण करनेका उपाय क्या है ? । कृपया आप बतलावें ॥ ६ ॥ __भगवानकी दिव्यध्वनि विज्ञाप्य देवमिति विश्वजगद्भितार्थ तूष्णीं स्थिता गणधरप्रमुखाः प्रधाना: तस्मिन्महासदसि दिव्यनिनादयुक्ता वाणी ससार सरसा वरदेवदेवी ॥ ७॥ भावार्थ:---इस प्रकार भगवान् आदिनाथ स्वामीसे, जगत् के हितके लिए वृषभसेन गणधर, भरतचक्रवर्ती आदि प्रधान पुरुष निवेदन कर अपने स्थानमें स्वस्थरूपसे बैठ गये । तब उस समवसरणमें भगवंतकी साक्षात् पट्टरानीके रूपमें रहनेवाली सरस शारदा देवी दिव्यध्वनिके रूपमें बाहर निकली ॥ ७ ॥ वस्तुचतुष्टयनिरूपण तत्रादितः पुरुषलक्षणमामयानामप्यौषधान्यखिलकालविशेषणं च संक्षेपतः सकलवस्तुचतुष्टयं सा । सर्वज्ञमूचकमिदं कथयांचकार ॥८॥ भावार्थ:--यह सरस्वतीदेवी (दिव्यध्वनि) सबसे पहिले पुरुष, रोग, औषध और काल इस प्रकार, समस्त आयुर्वेद शास्त्र को चार भेद से विभक्त करती हुई, इन वस्तुचतुष्टयोंके लक्षण, भेद, प्रभेद आदि सम्पूर्ण विषयोंको, संक्षेपसे वर्णन करने लगी जो कि भगवान् के सर्वज्ञत्व को सूचित करता है ॥ ८ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) कल्याणकारके आयुर्वेदशास्त्रका परम्परागमनक्रम दिव्यध्वनिप्रकटितं परमार्थजातं साक्षात्तथा गणधरोऽधिजग समस्तम् पश्चात् गणाधिपनिरूपितवाक्प्रपंच मष्टार्धनिर्मलधियां मुनयोऽधिजग्मुः॥९॥ भावार्थ:- इस प्रकार भगवान्की दिव्यध्वनि द्वारा प्रकटित ( आयुर्वेदसम्बधी) समस्त तत्वोंको ( चार प्रकारके) साक्षात् गणधर परमेष्ठीने जान लिया । तदनंतर गणवरोंकेद्वारा निरूपित वस्तुस्वरूप को निर्मल मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय ज्ञानको धारण करनेवाले योगियोनें जान लिया ॥ ९ ॥ एवं जिनांतरनिबंधनसिद्धमार्गादायातमायतमनाकुलमथगाढम् । स्वायंभुवं सकलमेव सनातनं तत् साक्षाच्छूतं श्रुतदले श्रुतकेवलिभ्यः ॥ १० ॥ भावार्थ:----- इस प्रकार यह सम्पूर्ण आयुर्वेदशास्त्र ऋषभनाथ तीर्थंकर के बाद, अजित, आदि महावीर तीर्थकरपथत चला आया है, ( अर्थात् चब्बीसो तीर्थकरोंने इसका प्रतिपादन किया है ) अत्यंत विस्तृत है, दोषरहित है , एवं गम्भीर वस्तुविवेचनसे युक्त है। तीर्थंकरोंके मुखकमल से अपने आप उत्पन्न होने से स्वयम्भू है । बीजांकुर न्यायसे ( पूर्वोक्तकमसे ) अनादिकाल से चले आनेसे सनातन है. और गोवर्धन, भदबाहु आदि श्रुतकेवलियोंके मुखसे, अल्पांगज्ञानी या अंगांगज्ञानी मुनियों द्वारा साक्षात् सुना हुआ है । तात्पर्य श्रुतकेवलियोंने, अन्य मुनियोंको इस शास्त्र का उपदेश दिया है। ॥ १० ॥ ग्रंथकारकी प्रतिक्षा । । प्रांद्यज्जिनप्रवचनामृतसागरान्त:प्रोद्यत्तरंगनिसृताल्पसुशीकरं वा वक्ष्यामहे सकललोकहितकधाम कल्याणकारकमिति प्रथितार्थयुक्तम् ॥ ११ ॥ १-तात्पर्य यह कि यह आयुर्वेदशास्त्र त्रिलोकहित तीर्थंकरोंके द्वारा प्रतिपादित है ( इसलिये यह जिनागम है ) उनसे, गणधर, प्रतिगणधरोंने, इनसे श्रुत केवली, इनसे भी, बादमें होनेवाले अन्य मुनियोंने यथाक्रमसे इसको जानलिया है । इसप्रकार परम्परागतशास्त्रोंके आधार मे, अथवा उनका सारस्वरुप, इस कल्याणकारक नामक ग्रंथको उग्रादित्याचार्य प्रतिपादन करेंगे । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्यरक्षणाविकारः भावार्थ:-उमडते हुए जिनप्रवचनरूपी अमृतसमुद्रके बीचमें उठा हुआ जो तरंग है उससे निकली बूंदोंके समान जो है ऐसे समस्त प्राणियोंको हित उत्पादन करने के लिए अद्वितीय स्थान ऐसे, अन्वर्थनामसे युक्त कल्याणकारक नामक ग्रंथको हम कहेंगे इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ ११ ॥ ग्रंथरचनाका उद्देश नैवातिवाक्पटुतया न च काव्यदर्पाअवान्यशास्त्रमदभंजनहेतुना वा किंतु स्वकीयतप इत्यवधार्य वर्य माचार्यमार्गमधिगम्य विधास्यते तत् ॥ १२ ॥ भावार्थ:-अपने वाक्चातुर्यको दिखाने के लिए या काव्यके अभिमानसे या दूसरे विद्वानोंकी विद्वत्ताके मदको भंग करनेके लिए मैं इसकी रचना नहीं कर रहा हूं। परंतु मैं ग्रंथरचना को एक अपना तप समझता हूं। इसलिए पूर्वाचार्योंकी सरणिको समझकर इसका निरूपण किया जायगा ॥ १२ ॥ स्वाध्यायमाहुरपरे तपसां हि मूलं मन्ये च वेद्यवरवत्सलताप्रधानम् तस्मात्तपश्चरणमेव मया प्रयत्ना दारभ्यते स्वपरसोख्यविधायि सम्यक् ॥ १३ ॥ भावार्थ:-महर्षिगण स्वाध्यायको तपश्चरण का मूल कहते हैं । वैद्योंके प्रति, वात्सल्य भावसे ग्रंथरचना करना, इसको भी मैं प्रधान तपश्चरण मानता हूं । इसलिए समझना चाहिए कि मेरे द्वारा यह स्वपरकल्याणकारी तपश्चरण ही यत्नपूर्वक प्रारम्भ किया जाता है ॥ १३ ॥ दुर्जननिंदा। अत्रापि संति बहवः कुटिलस्वभावा दुर्दृष्टयो द्विरसनाः कुमतिपयुक्ताः छिद्राभिलाषनिरताः परबाधकाच घोरोरैगरुपमिताः पुरुषाधमास्ते ॥॥१४॥ भावार्थ:-लोकमें सर्प महाभयंकर होते हैं, उनकी गति कुटिल हुआ करती है, उनकी दृष्टि से ही मनुष्योंको अपाय होता है, उन्हे दो जिव्हा होती हैं, सदा कुबुद्धि रहती है, सदा बिलमें घुसनेकी अभिलाषामें रहते हैं एवं दूसरोंको बाधा पहुंचाते हैं, इसी प्रकार लोकमें जो नाच मनुष्य हैं वे भी भयंकर हुआ करते हैं, उनका स्वभाव Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके कुटिल रहता है, वे मिथ्यादृष्टि होकर चाडीखोर भी हुआ करते हैं, सदा अज्ञानके वर्शाभूत रहते हैं, दूसरोंके दोष को ढूंडते रहते हैं एवं दूसरोंको अपने कृत्योंसे बाधा पहुंचाते रहते हैं, इसलिये ऐसे नीच मनुष्य जहरीले सर्पके समान हैं, ॥ १४ ॥ केचित्पुनः स्वगृहमान्यगुणाः परेषां दुष्यंत्यशेषविदुषां न हि तत्र दोषः पापात्मनां प्रकृतिरेव परेष्वमूया पैशुन्यवाक्परुषलक्षणलक्षितानाम् ॥ १५ ॥ भावार्थ:- कितने ही दुर्जन ऐसे रहते हैं कि जिनके गुण उनके घरके लोगोंको ही पसंद रहते हैं । बाहर उनकी कोई कीमत नहीं करता है । परंतु वे स्वतः समस्त विद्वानोंको दोष देते रहते हैं। मात्सर्य करना, चाडीखोर होना, कठोर वचन बोलना आदि लक्षणोंसे युक्त पापियोंका दूसरे सज्जनोंके प्रति ईर्ष्याभाव रखकर उनकी निंदा करना जन्मगत स्वभाव ही है । उससे विद्वानोंका क्या बिगडता है? ॥१५॥ केचिद्विचाररहिताः प्रथितप्रतापा :: साक्षात्पिशाचसदृशाः प्रचरंति लांक तैः किं यथाप्रकृतमेव मया प्रयोज्यं मात्सर्यमार्यगुणवर्यमिति प्रसिद्धम् ॥ १६ ॥ भावार्थ:-कितने ही अविचारी व बलशाली दुर्जन, लोगोंको अनेक प्रकारसे कष्ट देते हुए पिशाचोंके समान लोकमें भ्रमण करते हैं । क्या उन लोगों का सामना कर उनसे मात्सर्य करना हमारा धर्म है ? क्या मत्सर करना सजनोंका उत्तम गुण है ! कभी नहीं. ॥१६॥ आचार्यका अंतरंग। एवं विचार्य शिथिलीकृतमत्सरीऽहं शास्त्रं यथाधिकृतमेवमुदाहरिष्ये सर्वज्ञवक्त्रनिसृतं गणदेवलब्धं पश्चान्महामुनिपरंपरयावतीर्णम् ॥ १७ ॥ भावार्थ:---इसप्रकार विचार करते हुए उन लोगोंसे मत्सरभावको छोडकर मेरी की हुई प्रतिज्ञाके अनुसार सर्वज्ञोंके मुखसे निर्गत व गणवरोंके द्वारा धारित एवं तदनंतर महायोगियों की परम्परा से इस भूतलपर अवतरित इस शास्त्रको कहूंगा ॥ १७ ॥ १ मात्सर्यमार्यगणवळमिति प्रसिद्ध इति पाठांतरं । सत्पुरुष मात्सर्यको छोडें ऐसा लोकमें प्रसिद्ध है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्यरक्षणाधिकारः वैद्यशद्वकी व्युत्पत्ति विद्येति सत्प्रकटकेवललोचनाख्या तस्यां यदेतदुपपन्नमुदारशास्त्रम् वैद्यं वदंति पदशास्त्रविशेषणज्ञा एतद्विचिन्त्य च पठंति च तेऽपि वैद्याः॥१८॥ भावार्थ:--अच्छीतरह उत्पन्न केवलज्ञानरूपी नेत्रको विद्या कहते हैं। उस विद्यासे उत्पन्न उदारशास्त्रको वैद्यशास्त्र ऐसा व्याकरणशास्त्रके विशेषको जाननेवाले विद्वान कहते हैं । उस वैद्यशास्त्रको जो लोग अच्छीतरह मनन कर पढते हैं उन्हें भी वैद्य कहते हैं ॥१८॥ . आयुर्वेदशद्रका अर्थ वेदोऽयमित्यपि च बोधविचारलाभात्तत्वार्थमूचकवचः खलु धातुभेदात् आयुश्च तेन सह पूर्वनिबद्धमुद्य च्छास्त्राभिधानमपरं प्रवदंति तज्ज्ञाः ॥ १९ ॥ भावार्थ:- वैद्यशास्त्रको जाननेवाले, इस शास्त्रको, आयुर्वेद भी कहते हैं । वेदशब्द विद् धातुसे बनता है। मूलधातुका अर्थ, ज्ञान, विचार, और लाभ होता है। इस प्रकार धातु के अनेकार्थ होनेसे यहां वेद शब्दका अर्थ, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको, बताने वाला है, इस वेद शद्बके पीछे आयुः शब्द जोड दिया जाय तो ' आयुर्वेद ' बनता है जिससे यह स्पष्ट होता है कि जो हितआयु, अहितआयु, सुखायु, दुःखायु इनके स्वरूप, आयुष्य लक्षण, आयुष्यप्रमाण, आयुके लिए हिताहित द्रव्य इत्यादि आयुसम्बन्धी यथार्थस्वरूप को प्रतिपादन करता है उस का नाम आयुर्वेद है । इसलिए यह नाम अन्वर्थ है ॥ १९ ॥ शिष्यगुणलक्षणकथनप्रतिज्ञा एवंविधस्य भुवनैकहिताधिकोद्यद्वैद्यस्य भाजनतया प्रविकाल्पता ये तानत्र साधुगुणलक्षणसाम्यरूपा न्वक्ष्यामहे जिनपतिप्रतिपन्नमार्गात् ।। २० ॥ भावार्थ:-समस्त संसार का हित करना ही जिनका उद्देश है अथवा हित करने में उद्युक्त हैं ऐसे वैद्य, या आयुर्वेदशास्त्र के अध्ययनके लिये, पूर्वाचार्योने जिन को योग्य बतलाया हैं उनमें क्या गुण होना चाहिये, उनके लक्षण क्या हैं, रूप कैसा रहना चाहिये इत्यादि बातोंको जिनशासन के अनुसार आगे प्रतिपादन करेंगे ऐसा आचार्यश्री कहते हैं ॥ २० ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) कल्याणकारके आयुर्वेदाध्ययनयोग्य शिष्य । राजन्यविप्रवरवैश्यकुलेषु कश्चिद्धीमाननिंद्यचरितः कुशलो विनतिः प्रातर्गुरुं समुपसृत्य यथानुपच्छेत सोऽयं भवेदमलसंयमशास्त्रभागी ॥ २१ ॥ भावार्थ:-जिसका क्षत्रिय, ब्राह्मण व वैश्य इस प्रकारके उत्तम वर्णोमेंसे किसी एक वर्णमें जन्म हुआ हो, आचरण शुद्ध हो, जो बुद्धिमान्, कुशल व नम्र हो वही इस पवित्र शास्त्रको पठन करनेका आधिकारी है, प्रातःकाल वह गुरूकी सेवामें उपस्थित होकर इस विषयको उपदेश देने के लिये प्रार्थना करें, ॥ २१ ॥ वैद्यविद्यादानक्रम । ज्ञातस्य तस्य गुणतः सुपरीक्षितस्याप्यर्हत्समक्षमुपरोपितसहतस्य देयं सदा भवति शास्त्रमिदं प्रधानं नान्यस्य देयमिति वैद्यविदो वदंति ॥ २२ ॥ भावार्थ:-गुरूको उचित है कि उस शिष्यका गुण, स्वभाव, कुल आदिकी अच्छीतरह परीक्षा सर्व प्रथम करलेवें, उसको यदि अध्ययनार्थ योग्य समझें तो जिनेंद्र भगवान् के समक्ष उसे अहिंसा, सत्य, अचौर्यादि व्रतोंको ग्रहण करावें पश्चात् उस शिष्यको यह प्रधानभूत वैवशास्त्र का अध्ययन कराना चाहिये, दूसरोंको नहीं, इस प्रकार इसके रहस्यको जाननेवाले कहते हैं ॥ २२ ॥ विद्याप्राप्तिक साधन । आचार्यसाधनसहायनिवासवल्मा आरोग्यबुद्धिविनयोद्यमशास्त्ररागाः बाद्यांतरंगनिजसद्गुणसाधनानि शास्त्रार्थिनां सततमेवमुदाहृतानि ।। २३ ॥ भावार्थ:---विद्याध्ययन करनेकी इच्छा रखने वाले विद्यार्थियों के लिये बाल व अंतरंग साधनों की जरूरत है, अध्यापन कराने वाले गुरु, पुस्तक वगेरे, सहाध्यायी, रहने के लिये स्थान, व भोजन ये सब बाह्य साधन हैं. आरोग्य, बुद्धि, विनय, प्रयत्न व विद्यानुराग थे सब अंतता साधन हैं, इन साधनोंसे... सद्गुण प्रकट होते हैं ॥ २३ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्यरक्षणाधिकारः वैद्यशास्त्रका प्रधानध्येय । लोकोपकारकरणार्थमिदं हि शास्त्रं शास्त्रप्रयोजनमपि द्विविधं यथावत स्वस्थस्य रक्षणमथामयमोक्षणं च संक्षेपतः सकलमेव निरूप्यतेऽत्र ॥ २४ ॥ भावार्थ:-यह वैद्यकशास्त्र लोकके प्रति उपकारके लिये है। इसका प्रयोजन, स्वस्थका स्वास्थ्यरक्षण और रोगीका रोगमोक्षणके रूपसे दो प्रकार है। इन सबको संक्षेपसे इस ग्रंथमें कहेंगे ॥ २४ ॥ __ लोकशद्वका अर्थ जीवादिकान् सपदि यत्र हि सत्पदार्थान् सस्थावरप्रवरजंगमभेदभिन्नान् आलोकयंति निजसद्गुणजातिसत्वान् लोकोयमित्यभिमतो मुनिभिः पुराणैः ॥२५॥ भावार्थ:-जिस जगह अपने अनेक जाति व गुणों से युक्त स्थावर जंगम आदि जीव, अर्जावादिक षड्व्य सप्ततत्व व नव पदार्थ आदि पाये जाते हों या देखें जाते हों उसे प्राचीन ऋषिगण लोक कहते हैं ॥ २५ ॥ चिकित्साके आधार । सिद्धांततः प्रथितजीवसमासभेदे पर्याप्तिसंज्ञिवरपंचविधेद्रियेषु तत्रापि धर्मनिरता मनुजाः प्रधानाः क्षेत्रे च धर्मबहुले परमार्थजाताः ।। २६ ॥ भावार्थ:-जैन सिद्धांतकारोंने जीवके चौदह भेद बतलाये हैं, एकेंद्रिय सूक्ष्म पर्याप्त २ एकेंद्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त ३ एकेंद्रिय बादरपर्याप्त ४ एकद्रिय बादरअपर्याप्त ५ द्वींद्रिय पर्याप्त ६ द्वींद्रिय अपर्याप्त, ७त्रींद्रिय पर्याप्त ८ त्रीद्रिय अपर्याप्त ९ चतुरिंद्रिय पर्याप्त १० चतुरिंद्रिय अपर्याप्त ११ पंचेद्रिय असंज्ञी पर्याप्त १२ पंचेद्रिय असंज्ञी अपर्याप्त १३ पंचेद्रिय संज्ञी पर्याप्त १४ पंचेद्रिय संज्ञी अपर्याप्त इस प्रकार चौदह भेद हैं । जिनको आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छास, भाषा व मन ये छह पर्याप्तियोमें यथासंभव पूर्ण हुए हों उन्हे पर्याप्तजीव कहते हैं। जिन्हे पूर्ण न हुए हों उन्हे अपर्याप्त जीव कहते हैं । अपर्याप्त जीवोंकी अपेक्षा पर्याप्त जीव श्रेष्ठ हैं । जिनको हित अहित, योग्य अयोग्य गुण दोष आदि समझमें आता है उन्हे संज्ञी कहते हैं, इसके विपरीत असंज्ञी है। असंज्ञियोंसे Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) कल्याणकारके I संज्ञी श्रेष्ठ है । पंचेंद्रिय संज्ञियो में भी जिन्होंने सर्व तरहसे धर्माचरण के अनुकूल धर्ममय क्षेत्रमें जन्म लिया है ऐसे धार्मिक मनुष्य सबसे श्रेष्ठ हैं ॥ २६ ॥ तेषां क्रिया प्रतिदिनं क्रियते भिषग्भिरायुर्वयोविलसत्वसुदेशसात्म्यम् विख्यातसत्प्रकृतिभेषजदेहरोगान् कालक्रमानपि यथक्रमतो विदित्वा ॥ २७ ॥ भावार्थ::- उन धर्मात्मा रोगियोंकी आयु, वय, अग्निबल, शक्ति, देश, अनुकूलता, वातादिक प्रकृति इसके अनुकूल औषधि, शरीर, रोग व शीतादिक काल, इन सब बातोंको क्रम प्रकार जानकर चिकित्सा करें ॥ २६ ॥ चिकित्सा के चार पाद तत्र क्रियेति कथिता सुनिभिश्चिकित्सा सेयं चतुर्विधपदार्थगुणप्रधाना वैद्याgरौषधमुभृत्यगणाः पदार्थास्तेष्वप्यशेषधिषणो भिषगेव मुख्यः ॥ २८ ॥ भावार्थ:— पूर्वोक्त क्रिया शब्दका अर्थ आचार्यगण चिकित्सा कहते हैं । उस चिकित्सा के लिये अपने गुणों से युक्त चार प्रकार के पदार्थों ( अंगो ) की आवश्यकता होती है । वैद्य, रोगी, औषध व रोगीकी सेवा करनेवाले सेवक, इस प्रकार चिकित्साके चार पदार्थ हैं अर्थात् अंग या पाद हैं उनमें बुद्धिमान् वैद्य ही मुख्य है, क्यों कि उसके विना बाकी सब पदार्थ व्यर्थ पडजाते हैं ॥ २८ ॥ वैद्यलक्षण ग्रंथार्थविन्मतियुतोऽन्यमतप्रवीणः सम्यक्मयोगनिपुणः कुशलोऽतिधीरः धर्माधिकः सुचरितो बहुतीर्थशुद्धो वैद्यो भवेन्मतिमतां महतां च योग्यः ॥ २९ ॥ भावार्थ:- जो वैद्यक ग्रंथके अर्थको अच्छीतरह जानता हो, बुद्धिमान् हो, अन्यान्य आचार्यों के मतों को जानने में प्रवीण हो, रोगके अनुसार योग्यचिकित्सा करने में निपुण हो, औषधियोजना में चतुर हो धीर हो, धार्मिक हो, सदाचारी हो, बहुतसे गुरुजनोंसे जो अध्ययन कर चुका हो वह वैय विद्वान् महापुरुषों को भी मान्य होता है ।। २९ ।। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्यरक्षणाधिकारः चिकित्सापद्धति प्रश्नैर्निमित्तविधिना शकुनागमेन ज्योतिर्विशेषतरलग्नशशांक योगैः स्वप्नैश्च दिव्यकथितैरपि चातुराणा मायुः प्रमाणमधिगम्य भिषग्यते ॥ ३० ॥ भावार्थ:- रोगीकी परिस्थितिसंबंधी प्रश्न, निमित्तसूचना, शकुन, ज्योतिष शास्त्र लग्न, चंद्रयोग आदि, स्वप्न व दिव्यज्ञानियोंका कथन आदि द्वारा रोगीके आयु प्रमाणको जानकर वैद्य चिकित्सा में प्रयत्न करें ॥ ३० ॥ रिष्टर्विना न मरणं भवतीह जंतोः स्थानव्यतिक्रमणतोऽतिसुसूक्ष्मतो वा कृच्छ्राण्यपि प्रथितभूतभवद्भविष्यद्रूपाणि यत्नविधिनात भिषक्प्रपश्येत् ।। ३१ ।। भावार्थ:-- रिष्ट ( मरणसूचक चिन्ह ) के प्रगट हुए बिना प्राणियोंका मरण नहीं होता है, अर्थात् मरने के पहिले मरणसूचक चिन्ह अवश्यमेव प्रकट होता है । इसलिये वैद्य का कर्तव्य है, कि जानने में अत्यंत कठिन ऐसे भूत, वर्तमान, और भवियत्काल में होने वाले मरण लक्षणों को, स्थान के परिवर्तन करके, और अत्यंत सूक्ष्म रीति से प्रयत्नपूर्वक वह देखें, ॥ ३१ ॥ अरिलक्षण रिष्टान्यपि प्रकृतिदेहनिजस्वभावच्छायाकृतिप्रवरलक्षणवैपरीत्यम् पंचेंद्रियार्थविकृतिश्च शकृत्कफानां तोये निमज्जनमथातुरनाशहेतुः || ३२ || भावार्थ:-- वातपित्तकफप्रकृति, देह का स्वाभाविक स्वभाव, छाया, आकार आदि जब अपने लक्षणसे विपरीतता को धारण करते हैं उसे मरण चिन्ह ( रिष्ट ) समझना चाहिये | पंचेंद्रियोंमें बिकार होजाना व मल और कफको पानीमें डालने पर इबजाना यह सब उस रोगीके मरणका चिन्ह हैं ॥ ३२ ॥ ( ११ ) १ - मरण चिन्ह किसी नियत अंग प्रत्यंगो में ही नहीं होता है शरीरके प्रत्येक अवयव में हो सकता है, इसलिये उन को पहिचान ने के लिये, एक अंगको छोडकर, दूसरा, दूसरा छोडकर तीसरा अंग, इस प्रकार प्रत्येक स्थान या अंगो को परिवर्तन कर के देखें ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (12) कल्याणकारके रिष्ट सूचकदूतलक्षण / हीनाधिकातिकृशकृष्णविरूक्षितांग: सव्याधितः स्वयमथायुधदण्डहस्तः संध्यासु साश्रुनयनो भयवेपमानो दूतो भवेदतितरां यमदूतकल्पः॥ 33 // अश्वैः खरै रथवरैः करभैः रथान्यैः प्राप्तः सदा भवति दूतगणोऽतिनिंद्यः यो वा छिनत्ति तृणमग्रगतो भिनत्ति काष्ठानि लोष्ठमथवेष्ठकमिष्टकं वा // 34 // एवंविधं सपदि दूतगतं च रिष्टं दृष्ट्वातुरस्य मरणेकनिमित्तहेतुम् तं वर्जयेदिह भिषग्बिदितार्थसूत्रः [शुभदूतलक्षण / ] सौम्यः शुभाय शुचिवस्त्रयुतः स्वजातिः // 35 // भावार्थ:--वैद्यको बुलानेकेलिए अत्यंत कृश, हीन वा अधिक काला, रूखा शरीरवाला, एवं बीमार दूत आगया हो, जिसके हाथमें तलवार आदि आयुध या दण्ड हों, संध्याकालमें रोते हुए एवं डरसे कंपते हुए आरहा हो उस दूतको रोगीके लिए यम दूतके समान समझना चाहिए। जो दूत घोडा, गधा, हाथी, रथ आदि वाहनोंपर चढकर वैद्यको बुलानेकेलिए आया हो वह भी निंदनीय है / एवं च जो दूत सामने रहनेवाले घास वगैरेको तोडते हुए, एयं लकड़ी, मट्टीका ढेला, पथ्थर ईंठ वगैरहको फोडते हुए आरहा हो वह भी निंद्य है / इस प्रकारके दूतलक्षणगत मरणचिन्हको जानकर रोगीका मरण होगा ऐसा निश्चय करें / तदनंतर सर्वशास्त्रंविशारद वैद्य उक्त रोगीकी चिकित्सा न करें। शांत, निर्मलवस्त्रयुक्त रोगीके समानजातियुक्त दूतका आना शुभसूनक है // 33 // 34 // 35 // अशुभशकुन / उद्वेगसंक्षवथुलग्ननिराधशद्धप्रस्पद्धिसंस्खलितरोषमहोपतापाः ग्राामाभिघातकलहानिसमुद्भवाद्याः वैद्यैः प्रयाणसमये खलु वर्जनीयाः // 36 // भावार्थ-वैद्य रोगांके घर जानेके लिये जब निकलें तब उद्वेग, छींक, निरोध (बांधो, रोको, बन्दकरो आदि) ऐसे विरुद्ध शद्रोंको सुनना स्पर्धा, स्खलन, क्रोध, महासंताप, ग्राममें Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्यरक्षणाधिकारः (१३ ) उत्पात, कलह, आगलगना, आदि सब अपशकुन हैं । वैसे अपशकुनोंको टालना चाहिये तात्पर्य यह है कि ऐसे अपशकुनोंको देखकर निश्चय करना चाहिये रोगी की आयु थोडी रह गई है ॥ ३६ ॥ मार्जारसर्पशशशल्यककाष्ठधाराण्यग्निवराहमहिषा नकुलाः शृगालाः रक्ताः स्रजस्समलिना रजकस्य भाराः अभ्यागताः समृतकाः परिवर्जनयिाः ॥ ३७ ॥ भावार्थ:-रोगकि घर जाते समय सामने से आनेवाले मार्जार, सर्प, खरगोश, आपत्ति, लकडीका गट्टा, अग्नि, सूअर, भैंस,नौला लोमडी, लालवर्णकी पुष्पमाला, मलिनवस्त्र, व शरीरादि से युक्त मनुष्य अथवा चाण्डाल आदि नीच जातिके मनुष्य धोबीके कपडे, मुर्देके साथ के मनुष्य ये सब अपशकुन हैं ॥ ३७ ॥ शुभशकुन शांतासु दिक्षु शकुनाः पटहोरुभेरी शंखांबुदप्रवरवंशमृदंगनादाः छत्रध्वजा नृपसुतः सितवस्त्रकन्याः गीतानुकूलमृदुसौरभगंधवाहाः ॥ ३८॥ श्वेताक्षताम्बुरुहकुक्कुटनीलकंठा लीलाविलासललिता वनिता गजेंद्राः स्वच्छांबुपूरितघटा वृषवाजिनश्च प्रस्थानपारसमयेऽभिमुखाः प्रशस्ताः ॥ ६९॥ भावार्थः-प्रस्थान करते समय वैद्यको सभी दिशायें शांत रहकर पटह, भेरी, शंख, मेघ, बांसुरी, मृदंग आदिके शुभ शब्द सुनाई देरहे हों, सामनेसे छत्र, ध्वजा, राजपुत्र, धवलवस्त्रधारिणीकन्या, शीत अनुकूल व सुगंधि हवा, सफेद अक्षत, कमल, कुक्कुट, मयूर, खेल व विनोदमें मग्न स्त्रियां हाथी व स्वच्छ पानीसे भरा हुआ घडा, बैल, घोडा आदि आवें तो प्रशस्त हैं । शुभशकुन हैं । इनसे वैद्यको विजय होगी ॥३८॥३९॥ एवं महाशकुनवर्गनिरूपितश्रीः पाप्यातुरं प्रवरलक्षणलक्षितांगम् दृष्ट्वा विचार्य परमायुरपीह वैद्यो यातं कियत्कियदनागतमेव पश्येत् ॥ ४०॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके भावार्थ:-इस प्रकारके शकुनोंसे रोगीके भाग्यको निश्चय करके रोगीके पास जाकर उसके सर्व शरीरके लक्षणोको देखें । वह रोगी दीर्वायुषी होनेपर भी वैद्यको उचित है कि वह रोगीकी उमरमैं कितने वर्ष तो बीत गये ओर कितने बाकी रहे इस बातका विचार करें ॥ ४० ॥ सामुद्रिकशास्त्रनुसार अल्पायुमहायपरीक्षा यस्याति कोमलतरावतिमांसलौच स्निग्धावशांकतरुपल्लवपंकजाभौ नानासुरूपयुतगाढावशालदीर्घ रेखान्वितावमलिनाविह पाणिपादौ ॥ ४१ ॥ यस्यातिपेशलतरावधिकौच कर्णी नीलोत्पलाभनयने दशनास्तथैव मुक्तोपमा सरसदाडिमबीजकल्पा स्निग्धोन्नतायतललाटकचाच यस्य ॥ ४२ ॥ यस्यायताः श्वसितवीक्षण बाहुपुष्टाः स्थलास्तथांगुलिनखानननासिकास्स्यु हुस्वा रसेंद्रियगलोदरमेदजंघाः निम्नाश्च संधिवरनाभिनिगूढगुल्फाः ॥४३॥ यस्यातिविस्तृतमुरस्तनयाभ्रुवोर्वा दीर्घातरं निभतगृहशिराप्रतानाः यस्याभिषिक्तमनुलिप्तमिहामेव शुष्यच्छरिमथ मस्तकमेव पश्चात् ॥४४॥ आजन्मनः प्रभति यस्यःहि रोगमुक्तः कायः शनेश्च परिवृद्धिमुपेति नित्यम् शिक्षाकलापमपि यस्य मतिः मुशक्ता ज्ञातुं च यस्य निखिलानि दृढेंद्रियाणि ॥ ४५ ॥ मुस्निग्धमूक्ष्ममदुकेशचयश्च यस्य प्रायस्तथा प्रविरलाः तनुरोमकूपाः यस्येदृशं वपुरनिंद्यसुलक्षणांक तस्याधिक धनमतीव च दीघेमायुः ॥ ४६॥ इत्येवंसकलसुलक्षणैः पुमांस्यादीर्घायुस्तदपरमर्धमायुरधैः Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्यरक्षणाधिकारः हीनायुर्विदितविलक्षणस्य साक्षा तत्स्वास्थ्य प्रवरवयो विचार्यतेऽतः ॥ ४७ ॥ भावार्थ:-जिसके हाथ व पाद अत्यंत कोमल, मांस भरित, स्निग्ध, अशोक के कोपल या कमलके समान हो एवं अनेक शुभसूचक रेखावोंसे युक्त होकर निर्मल हों, जिसके दोनों कर्ण मनोहर व दीर्घ हैं अत्यधिक मांससे युक्त हैं दोनों नेत्र नीलकमलके समान हैं, दांत मोती या रसपूर्ण अनारदानेके समान हैं, ललाट व केश स्निग्ध, उन्नत व दीर्घ हो, जिसका श्वास व दृष्टि लंबे हैं, बाहु पुष्ट हो, अंगुलि, नख, मुख, नासिका, ये स्थूल हों, रसनेंद्रिय, गला, उदर, शिश्न, जंघा ये हस्व हों, संधिव नाभि गढे हुए हों, गुल्फ छिपा हुआ हो, जिसकी छाती अत्यंत विस्तृत हो, स्तन व भ्रूके बीच में दीर्घ अंतर हो, शिरासमूह बिलकुल छिपा हुआ हो, जिसको स्नान करानेपर या कुछ लेपन करनेपर पहिले मस्तक को छोडकर उर्च शरीर ( शरीर के ऊपर का भाग) सूखता हो फिर अधोशरीर एवं अंतमें मस्तक सूखता हो, जन्मसे ही जिसका शरीर रोगमुक्त हो और जो धीरे २ बढरहा हो, जिसकी बुद्धि शिक्षा कला आदिको जाननेकेलिये सशक्त हो व इंद्रिय दृढ हों, जिसका केश स्निग्ध, बारीक व मृदु हों, एवं जिसके रोमकूप प्रायः दूर २ हों, इस प्रकारके सुलक्षणोंसे युक्त शरीर को जो धारणा करता है वह विपुल ऐर्थ संपन्न व दीर्घायुषी होता है । इन सब लक्षणोंसे युक्त मनुष्य पूर्ण ( दीर्घ ) आयुष्यके भोक्ता होता है । यदि इनमेंसे आधे लक्षण पाये गये तो अर्ध आयुष्यका भोक्ता होता है, एवं इनसे विलक्षण शरीरको धारण करनेवाला हीनायुषी होता है, मनुष्यके वय, स्वास्थ्य आदि इन्ही लक्षणोंसे निर्णीत होते हैं ॥४१॥४२॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ ___ उपसंहार. एवं विद्वान्विशालश्रुतजलधिपरंपारमुत्तीर्णबुद्धिशैत्वा तस्यातुरस्य प्रथमतरमिहायर्विचार्योर्जितश्रीः व्याधस्तत्वज्ञतायां पुनरपि विलसनिग्रहचापि यत्नम् कुर्याद्वैद्यो विधिज्ञः प्रातेदिनममलां पालयन्नात्मकीर्तिम् ॥ ४८॥ भावार्थ:--इस प्रकार शास्त्रसमुद्रपारगामी विविज्ञ विद्वान् वैच को सबसे पहिले उस रोगीकी आयुको जानकर तदनंतर उसकी व्याधिका परिज्ञान करलेना चाहिये एवं विधि पूर्वक उस रोगकी निवृत्तिके लिये प्रयत्न करें। इस प्रकार चिकित्सा कर, अपनी कीर्तिकी प्रतिदिन रक्षा करें। ।। ४८ ॥ | Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) कल्याणकारके इति जनशक्त्रनिर्गत सुशास्त्रमहांबुनिधेः सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो निस्सृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ४९ ॥ भावार्थ:- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इहलोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है परंतु यह जगतका एक मात्र हित साधक है ( इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ) ॥ ४९ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके स्वास्थ्यरक्षणाधिकारे शास्त्रावतारः प्रथमः परिच्छेदः इत्युप्रादित्याचार्य कृत, कल्याणकारक ग्रंथ के स्वास्थ्यरक्षणाधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में शास्त्रावतार नामक प्रथम परिच्छेद समाप्त हुआ । १ महासंहितायां इत्यधिक पाठमुपलभ्यते, क. पुस्तके । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भोत्पत्तिलक्षणम् (१७) अथ द्वितीयः परिच्छेदः । मंगलाचरण और प्रतिज्ञा अशेषकर्मक्षयकारणं जिनं । प्रणम्य देवासुरवृंदवंदितम् । ब्रवीम्यतस्वास्थ्यविचारलक्षणं । यथोक्तसल्लक्षणलक्षितं बुधैः ॥१॥ भावार्थ:--देव व असुरोंके द्वारा पूजित, समस्त कर्मोको नाश करनेके लिये कारण स्वरूप श्री जिनेंद्र भगवानको नमस्कार कर महर्षियों द्वारा कथित लक्षणों से लक्षित स्वास्थ्यका विचार कहेंगे ॥ १॥ ___ स्वास्थ्यका भेद। अथेह भव्यस्य नरस्य सांप्रतं । द्विधैव तत्स्वास्थ्यमुदाहृतं जिनैः । प्रधानमाद्यं परमार्थमित्यतो द्वितीयमन्ययवहारसंभवम् ॥ २॥ भावार्थ:-भव्यात्मा मनुष्यको जिनेंद्रने पारमार्थिक, व्यवहारके रूपसे दो प्रकारका स्वास्थ्य बतलाया है । उसमें पारमार्थिकस्वास्थ्य मुख्य है व्यवहार स्वास्थ्य गौण है ॥ २॥ परमार्थस्वास्थ्यलक्षण ।। अशेषकर्मक्षयजं महाद्भुतं । यदेतदात्यंतिकमवितीयम् । अतींद्रियं पार्थितमर्थवेदिभिः । तदेतदुक्तं परमार्थनामकम् ॥ ३ ॥ भावार्थ:-आत्माके संपूर्ण कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न, अत्यद्भुत, आत्यंतिक व अद्वितीय, विद्वानोंके द्वारा अपेक्षित, जो अतींद्रिय मोक्षसुख है उसे पारमार्थिक स्वास्थ्य कहते हैं ॥ ३ ॥ व्यवहारस्वास्थ्यलक्षण । समाग्निधातुत्वमदोपविभ्रमो । मलक्रियात्मेंद्रियसुगसन्नता । मनःप्रसादश्च नरस्य सर्वदा । तदेवमुक्तं व्यवहारज खलु ॥ ४॥ भावार्थ:--मनुष्यके शरीरमें सम आग्नका रहना, सम धातुका रहना, वात आदि विकार न होना, मलमूत्रका ठीक तौरसे विसर्जन होना, आत्मा, इंद्रिय व मनकी प्रसन्नता, रहना ये सब व्यावहारिक स्वास्थ्य का लक्षण है ॥ ४ ॥ १—समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः । प्रसन्नात्मेंद्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते । ( वाग्भट) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) कल्याणकारके साम्य विचार सुसौम्यभावः खलु साम्यमुच्यते । रुचिश्च पाको बलमेव लक्षणम् । हितो मिताहारविधिश्च साधनं । बलं चतुर्वर्गसमाप्तिरिष्यते ॥ ५॥ भावार्थ:-परिणाम में शांति रहना उसे साम्य कहते हैं । आहार में रुचि रहना, पाचन होना, और शक्ति बना रहना, साम्य का लक्षण हैं अर्थात् साम्यका द्योतक है। हित, मित आहार सेवन करना, रुचि आदि के बनाये रखने के लिये साधन है। बल से धर्म अर्थ काम मोक्षरूपी चतुर्वौकी पूर्ति होती है ॥ ५॥ न चेदृशस्तादृश इत्यनेकशो । वचाविचारेण किमर्थवेदिनाम् । वधुर्बलाकारविशेषशालिनाम् । निरीक्ष्य साम्यं प्रवदंति तद्विदः ॥६॥ भावार्थः--वह ( साम्य )अमुक प्रकार से रहता है, अमुक तरह से नहीं इत्यादि वचनविचारसे तत्वज्ञानियों को क्या प्रयोजन ? शरीरका बल, आकार आदिसे सुशोभित मनुष्यों को देखकर तज्ज्ञ लोग साम्य का निश्चय करते हैं ॥ ६ ॥ प्रकारांतरसे स्वस्लथक्षण किमुच्यते स्वस्थविचारलक्षणं । यदा गदैर्मुक्ततनुर्भवेत्पुमान् । तदैव स स्वस्थ इति प्रकीर्तितस्सुशास्त्रमार्गान च किंचिदन्यथा ॥ ७ ॥ भावार्थ:-स्वरथशशिरका लक्षण क्या है ? जब मनुष्य रोगोंसे रहित शरीरको धारण करें उसे ही स्वस्थ कहते हैं। यह आयुर्वेदशास्त्रोंकी आज्ञासे कहा गया है। अन्यथा नहीं ॥ ७ ॥ अवस्था विचार वयश्चतुर्धा प्रविकल्पतं जिनैः । शिशुर्युवामध्यमवृद्ध इत्यतः। दशभकारैर्दशकैः समन्वितैः । शतायुरेवं पुरुषः कलौ युगे ॥ ८॥ भावार्थ:-मनुष्यकी दशा (आयु) चार प्रकारसे विभक्त है। बालक दशा, यौवनदशा, मध्यम दशा व वृद्ध दशा इस प्रकार चार भेद हैं । एवं सौ वर्षकी पूर्ण आयुमें वह दस दस वर्षमें एक २ अवस्थाको पलटते हुए दस दशात्रोंको पलटता है । इस प्रकार कलियुगमें मनुष्य प्रायः सौ वर्षकी आयुवाले होते हैं ॥ ८ ॥ अवस्थाओंके कार्य दशेति बाल्यं परिवृद्धिरुद्धतं । युवत्वमन्यच्च सहैवमेव यत् । त्वर्गस्थिशुक्रामलविक्रमाधिकः। प्रधानबुद्धीदिय सन्निवर्तनत् ॥९॥ १-त्वगक्षि इति पाठांतरं । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भोत्पत्तिलक्षणम् ( १९ ) भावार्थ:- - पहिली दशा बालक है, उसीकी दशा वृद्ध होकर जवानी दशा होती है, इसी प्रकार और भी दशायें होती है जिनमें त्वचा, हड्डी, वीर्य, बल, बुद्धि व इंद्रिय आदि इन सभी बातों में परिवर्द्धन होता है जिनका अलग २ दशामें भिन्न २ रूपसे अनुभव होता है ॥ ९॥ अवस्थांतर में भोजनविचार । अथत्ति कचित्पय एव बालकः । पयोन्नमन्यस्त्वपरः सुभोजनम् । विधैवमाहारविधिः शिशौ जने । परेषु संभोजनमेव शोभनम् ॥ १० ॥ भावार्थ:- माता के गर्भ से बाहर आनेके बाद बालक सर्व प्रथम केवल माताके दूध पीकर जीता है । आगे वही कुछ मास वृद्धिंगत होनेपर माका दूध और अन्न दोनों को खाता है । इस अवस्थाको भी उल्लंघनकर आगे केवल भोजन करता है । इस प्रकार बालकों में तीन ही प्रकार के आहारक्रम है । बाकीकी दशाओ में ( स्वस्थाव1 स्था में ) भोजन करना ही उचित है ॥ १० ॥ I जठराग्निका विचार । तथा वयस्थष्वथवोत्तरेष्वपि । क्रियां मुकुर्याद्भिषगुत्तरोत्तरम् । विचार्य सम्यक्पुरुषोदरानलं । समत्ववैषम्यमपीह शास्त्रतः ॥ ११ ॥ भावार्थ : - यौवन, मध्यम व वृद्ध दशाको प्राप्त मनुष्यों के भी जठराग्नि सम है ? विषम है ? या मंद है ? इत्यादि बातोंको शास्त्रीयक्रम से अच्छीतरह विचार कर, वैद्य, तद्योग्य चिकित्सा करें ॥ ११ ॥ विकृतजठराग्निके भेद । अथाग्निरत्रापि निरुच्यते त्रिधा । विकारदोषैर्विषमोऽतितीक्ष्णता । गुणोप मंदानिलपित्तसत्कः । क्रमेण तेषामिह वक्ष्यते क्रिया ।। १२ ।। भावार्थ:: -वात आदि दोषों के प्रकोप से, विषैमाग्नि, तीक्ष्णाग्नि, मंदाग्नि इस प्रकार विकृत जठराग्नि के तीन भेद शास्त्रो में वर्णित है । अर्थात् वातप्रकोप से विषमाग्नि, पित्तप्रकोप से तक्ष्णिाग्नि, कफप्रकोप से मंदाग्नि होती है, अब इन विकृताग्नियों की चिकित्सा यथाक्रम से कहेंगे ॥ १२ ॥ १. विषमाग्नि योग्य प्रमाण से, योग्य आहार खाने पर कभी ठीक तरह से पच भी जाता है कभी नहीं उसे विषमाग्नि कहते हैं, २ तीक्ष्णाग्नि- उपयुक्त मात्रा से या अत्यधिक मात्रा से सेवन किये गये आहार को भी जो भग्न ठीक तरह से पचा देती हैं उसे तीक्ष्णाग्नि कहते हैं । ३ मंदाग्नि- जो अल्पप्रमाण में खाये गये आहार को भी पचा नहीं सकती उसे मंदान कहते हैं. । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) कल्याणकारके विषमाग्नि आदि की चिकित्सा मुबस्तिकारथ सद्विरेचनैः तथानुरूपैर्वमनैः सनत्यकैः । क्रमान्मरुत्पित्तकफपीडिता-निहोदराग्नीनपि साधयेद्भिषक् ॥१३॥ भावार्थ:--वात, पित्त, व क के द्वारा क्रमसे पीडित उदराग्निको वैद्य बस्तिकार्य, विरेचन, योग्य वमन, व नस्योंसे यथाक्रम चिकित्सा करें ॥१३॥ - समाग्नि के रक्षणोपाय । समाग्निमेवं परिरक्षयेत्सदा । यथतुकाहारविधानयोगतः । त्रिकालयोग्यैरिह बस्तिभिस्सदा विरेचनैः सद्वमनैश्च बुद्धिमान् ॥१४॥ भावार्थ:---त्रिकालयोग्य बाति, विरेचन व वमनोंसे एवं ऋतुके अनुसार भोजन प्रयोगसे बुद्धिमान् वैद्य समाग्निकी सदा रक्षा करें ॥१४॥ बलपरीक्षा कृशोऽपि कश्विद्धलवान्भवेत्पुमान् । सदुर्बलः स्थूलतरोऽपि विद्यते बलं विचार्य बहुधा नृणां भवे-दतीव भारैरपि धावनादिभिः ॥१५॥ भावार्थ.-काई २ मनुष्य कृश दिखनेपर भी बलवान् रहते हैं, कोई मोटे दिखनेपर भी दुर्बल रहते हैं, इसलिये मनुष्योंके शरीरको न देखकर उनको दौडाकर या कोई वजन उठवाकर उनके बलको विचार ( परीक्षा ) करना चाहिये ॥ १५ ॥ बलकी प्रधानता बलं प्रधानं खलु सर्वकर्मणामतो विचार्य भिषजा विजानता। नरेषु सम्यक् बलवत्तरेष्विह क्रिया सुकार्या सुखासिद्धिमिच्छता ॥ १६ ॥ भावार्थ:-सर्व कार्योंके लिये बल ही मुख्य है । इसलिये मतिमान् वैद्य उस बलको पहिले विचार करें । बलवान् मनुष्योमें किये हुए प्रयोग मे ही वह अपनी सफलता की भी आशा रखें अर्थात् चिकित्सा में सफलता प्राप्त करना हो तो बलवान् मनुष्यों की चिकित्सा करें ॥ १६॥ बलोत्पत्तिके अंतरंग कारण स्वकर्मणामोपशमात् क्षयादपि । क्षयोपशम्यादपि नित्यमुत्तमम् । सुसत्वमुद्यत्पुरुषस्य जायते । परीषहान्यो सहते सुसत्ववान् ॥१७॥ १ योग्य प्रमाण से सेवन किये गये आहार को जो ठीक तरहसे पचाती है उसे समामि कहते हैं। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भोत्पत्तिलक्षणम् ( २१ ) भावार्थ:- वीर्यंतराय कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशम से मनुष्यको उत्तम बलकी वृद्धि होती है । वह बलवान् मनुष्य अनेक परीषहोंको सहन करने में समर्थ होता है ॥ १७ ॥ बलवान् मनुष्यके लक्षण स सत्यवान्योऽभ्युदयक्षयेष्वपि । प्रफुल्लसौम्याननपंकजस्थितिः । न विध्यते तस्य मनः सुदुस्सहैः क्रियाविशेषैरपि धैर्यमाश्रितम् ॥ १८ ॥ भावार्थ:- -उस बलवान् मनुष्यकी संपत्ति आदिके नष्ट होनेपर भी वह अपने धैर्यको नहीं छोड़ता और उसके सुखकी कांति, शांति वगैरह सभी बातें तदवस्थ रहकर मुख, कमलके समान ही प्रफुलित रहता है । दुरसह क्रियावों के द्वारा उसका मन जरा भी विचलित नहीं होता है ॥ १८ ॥ जांगलादि त्रिविध देश स जांगल पनि जाभिधानवान् । प्रधानसाधारण इत्यथापरः । सदैव देशस्त्रिविधः प्रकीर्तितः । क्रमात्त्रयाणामपि लक्षणं ब्रुवे ॥ १९ ॥ भावार्थ - जांगल, अनूप व साधारणके भेदसे देश, तीन प्रकारसे वर्णित है । साधारण देश प्रधान हैं । अब उन तीनों देशोंके लक्षणको यथाक्रम कहेंगे ॥ १९ ॥ जांगल देश लक्षण कचिच्च रूक्षाः तृणसस्यवीरुधः कचिच्च सर्जार्जुनभूर्जपादपाः । कचित्पलाशासनशाकशाखिन : कचिच्च रक्तासितपांडुभूमयः ॥ २० ॥ कचिच्च शैलाः परुषोपलान्विताः कचिच्च वेत्कटकोटराटकी | कचिच्च शार्दूलकर्क्षदुर्मृगाः कचिच्च शुष्काः कुनटीः सशर्कराः ॥ २१ ॥ क्वचित्प्रियंगुरकाच कोद्रवाः कचिच मुद्राश्चणकाश्च शांतनु । कचित्खराश्वाश्वगवाष्ट्रजातयः । कचिन्महाछागगणैः सहावयः ।। २२ ।। क्वचिच्च कुग्रामवहिश्च दूरतो । महत्स्वगाधातिभयंकरेषु यत् सदैव कूपेषु जलं सुदुर्लभं । हरंति यंत्रैरतियत्नतो जनाः ॥ २३ ॥ निजेन तत्रातिकृशास्सिरातताः स्थिराः खरा निष्ठुरगात्रयष्टयः । जना सदा वातकृतामयाधिकास्ततस्तु तेषामनिलघ्नमाचरेत् ॥ २४ ॥ भावार्थ:-- जिस देशमें कहीं २ रूक्ष तृण, सस्य व पौधे हों, कहीं सर्ज, अर्जुन व भूर्ज वृक्ष हों, कहीं पलाश, अशन वृक्ष ( विजय सार ) सागवान वृक्ष हों कहीं लाल, काली व सफेद जमीन हों, कहीं कठोर पत्थरोंसे युक्त पर्वत हों, कहीं बांसोंके समूह व वृक्षकोटरसे युक्त जंगल पाये जाते हों, कहीं शार्दूल भेडिया आदि Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) कल्याणकारके क्रूर मृग हों कहीं बालू रेत सहित सूखी कुनटी ( मनः शिला ) का सस्य हों, कहीं प्रियंगु, चरक (जंगली मूंग ) कोदव आदि सस्य हों, कहीं मूंग, चना, शांतनु ( धान्यविशेष ) हों, कहीं कहीं खच्चर, घोडा, गाय, ऊंट आदि हों, कहीं बकरे, मेंढे आदि जनावर अधिक हों, कहीं गामके बाहर बहुत दूरमें कूआ हो और वह भी बहुत ऊण्डा हों, उसमें जल भी अत्यंत दुर्लभ हों उनमें से मनुष्य जल बहुत कठिनतासे यंत्रोंकी सहायतासे निकालते हों, एवं जहांपर स्वभावसे ही मनुष्योंका शरीर कृश व सिरासमूह से व्याप्त हों एवं शरीर स्थिर, रूखा, व कठिन रहता हों, उस देशको जांगल देश कहते हैं । वहांके रहनेवाले मनुष्योंमें अधिकतरह वातविकार से उत्पन्न रोग होते हैं, इसलिये वै वातहर प्रयोगों की योजना करें ॥ २० ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ अनूपदेश लक्षण | य एवमुक्तः स च जांगलस्ततः पुनस्तथानूपविधानमुच्यते । यथाक्रमाद्यत्र हि शीतलोदका । मही सदा कर्दमदुर्गमा भवेत् ॥ २५ ॥ स्वभावतो यत्र महातिकोमलास्तृणक्षुपागुल्मलतावितानकाः वटा विटंकोत्कटपाटलीनुमा । विकीर्णपुष्पोत्करपारिजातकाः ।। २६ ।। अशोककक्कोललंवगकंगुका विलासजातीवरजातिजातयः । समल्लिका यत्र च माधवी सदा । विलोलपुष्पाकुलमालती लता ।। २७ ॥ महीधरा यत्र महामहीरुहैरलंकृता निर्जरधौतसानवः । घनाघनाकंपितचंपकद्रुमा । मयूरकेकाकुलचूतकेतकाः ॥ २८ ॥ तमालतालीवरनालिकेरकाः क्रमाच्च यत्र क्रमुकावली सदा । सतालहिंतालवनानुवेष्टिता । हूदा नदा स्वच्छजलातिशोभिताः ।। २९ ॥ शरन्नभःखण्डनिभाश्व यत्र स - तटाकवापी सरितस्तु सर्वदा । बलाकहंसादयकुक्कुटोच्च लद्रिलालपद्मोत्पल षण्डमण्डिताः ॥ ३० ॥ प्रलंबतांबूललताप्रतानकः । समंततो यत्र च शालिमाषकाः । महेक्षुः वाटा परिवेष्टनोज्वला भवंति रम्या कदलीकदंबकाः ।। ३१ ।। विपक गोक्षीरसमाहिषोज्वलद्दधिमभूतं पनसाम्रजांबवम् । प्रकीर्णखर्जूरसनालिकेरकं गुडाधिकं यत्रःच मृष्टभोजनम् || ३२ || सदा जना यत्र च मार्दवाधिकाः ससौकुमार्योज्वलपादपल्लवाः । अतीव च स्थूलशरीरवृत्तयः कफाधिका वातकृतामयान्विताः ||३३|| ततश्च तेषां कफवातयोः क्रिया सदैव वैद्यैः क्रियतेऽत्र निश्चितः इतीत्थभानूपविधिः प्रकीर्तितः तथैव साधारणलक्षणे कथा ॥ ३४ ॥ १- महेवाटी इतिपाठांतरं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भोत्पत्तिलक्षणम् (२३) भावार्थ:-इस प्रकार जांगल देश का लक्षण कह चुके हैं । अब अनूप देशका लक्षण कहेंगे । अनूप देशमें ठण्डा पानी अधिक होता है । इसलिये वहांकी जमीन सदा कीचडसे युक्त रहती है । जिस देशमें तृण, वृक्ष, गुल्म लता आदि अत्यंत कोमल होते हों, वटवृक्ष, विटंकवृक्ष, पाटली (पाढल) वृक्ष, व पुप्प सहित पारिजातक वृक्ष आदि जहां होते हों, अशोक वृक्ष, कंकोल वृक्ष, इलायची वृक्ष, लवंग वृक्ष, कंगु[कांगनी]जाति वृक्ष, मल्लिका (मोतीया भेद) वृक्ष, माधवी लता, पुष्पयुक्त मालती (चमेली) लता आदि हो, जहांके पर्वत वृक्षोंसे अलंकृत हों, और पर्वत तट झरने वगैरहसे युक्त हों, मेघसे कंपित चंपावृक्ष हों, मयूर, केकादि पक्षियोंके शबसे युक्त आम व केवडे के वृक्ष हों, जहां तमाखू , ताड नारियल, सुपारी आदिका वृक्ष हों, और ताड, हिंताल आदि वृक्षोंसे युक्त तटवाले एवं स्वच्छ जलसे पूर्ण सरोवर नदी आदि हों, जहांके सरोवर वापी नदी शरत्कालके आकाशके टुकडके समान मालुम होरहे हों, जो सदा बतक, हंस, जलकुक्कुट व पद्म, नीलकमल आदिके समूहोंसे अलंकृत रहते हों, जहां लंबी २ तांबूल लतायें हों, सर्वत्र धान, उडद आदि हों, बडे २ इक्षु बाटिकाओं के समूहसे युक्त केले व कदंब के वृक्ष हों, जहां गायका दूध, भैसका दूध व दही से तैयार किया हुआ एवं पनस, आम, खजूररस, नारियल, गुड आदि पदार्थीको अधिक रूपसे उपयोग कर स्वादिष्ट भोजन किया जाता हो, जहांके मनुष्य विनीत होते हों, जिनके पाद सुकुमारतासे युक्त हो, लाल रहते हों, अतीव स्थूलशरीर व वृत्तिको धारण करनेवाले हों, उस देशको अनूप देश कहते हैं । वहां अधिक कफसे युक्त वातकृत रोग उत्पन्न होते हैं । इसलिये वहांपर कुशल वैद्य सदा कफवातकी चिकित्सा करें । अब साधारण देशका स्वरूप कहा जायगा ॥ २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ साधारण देश लक्षण। न चातिरक्ता नच पाण्डुवासिता । न चातिरूक्षा न च सांद्रभूमयः। न चातिशीतं नच निष्ठरोष्णता न चातिवाता न च वृष्टिरङ्गुता ॥ ३५॥ न चात्र भूभद्गणना सुराटवी । न चात्र निश्शैलतरावनिर्भवत् । न चातितोयं न च निर्जलान्वितं । न चातिचारा नच दुष्टदुर्मगाः ॥३६॥ सुसस्यमेतत् सुजनाधिकं जगत् । समतुकाहारविधानयोगतः । समानिभावान्न च दोषकोपता न चात्र रोगस्तत एव सर्वदा ॥ ३७॥ ततश्च साधारणमेव शोभनं यतश्च देशद्वयलक्षणेक्षितम् । जनास्सुखं तत्र वसंति संततं क्रमात्सुसात्म्यक्रम उच्यतेऽधुना ॥ ३८॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) कल्याणकारके भावार्थ:- जिस देशकी भूमि न तो अधिक लाल है और न सफेद है, न अधिक रूक्ष है और न घन है, जहां न तो अधिक शीत है ओर न भयंकर गर्मी है, न तो अधिक हवा है और न भयंकर बरसात है, न तो बहुत पहाड है और न भयंकर जंगल है एवं पहाडरहित जमीन भी नही है, न तो अत्यधिक जल है और न निर्जलप्रदेश है, न तो अधिक चोर है और न दुष्ट क्रूर जानवर हैं जहां सरयकी समृद्धि एवं सज्जनोंकी अधिकता है, जहां ऋतुके अनुकूल आहार के ग्रहण करनेसे एवं समान अभि होनेसे दोषों का विकार नही होता है, अत एव सदा रोगकी उत्पत्ति भी नहीं होती, उस देश को साधारण देश कहते हैं । इस देशमें रोगकी उत्पत्ति न होने से दोनों प्रकार के देशों की अपेक्षा यह साधारण देश ही प्रशरत है, उस देशमें मनुष्य सुखसे रहते हैं । अब साम्यक्रम ( शरीर आनुकूल्य ) कहा जाता है || ३५ ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ सात्म्य विचार नरस्य सात्म्यानि तु भेषजानि । प्रधानदेशोदक रोगविग्रहाः । यदेतदन्यच्च सुखाय कल्पते । निषेवितं याति विरुद्धमन्यथा ।। ३९ ॥ भावार्थ - जिनके सेवन से मनुष्यको सुख होता हो ऐसे औषधि, साधारणदेश रोग, शरीर आदि एवं और भी सुखकारक पदार्थ सात्म्य कहलाते हैं । इसके विरुद्ध अर्थात् जिनके सेवन से दुःख होता हो उसे असात्म्य कहते हैं ॥ ३९ ॥ जल, प्रत्येक पदार्थ सात्म्य हो सकता है । यदल्पमल्पं क्रमतो निषेवितं विषं च जीर्ण समुपैति नित्यशः । ततस्तु सर्व न निवाधते नरं दिनैर्भवेत्सप्तभिरेव सात्म्यकम् ॥ ४० ॥ भावार्थ - यदि प्रति नित्य थोडा थोडा विष भी क्रमसे खाने का अभ्यास करें तो विपका भी पचन होसकता है । विषका दुष्प्रभाव नहीं होता है । इसलिये क्रमसे सेवन करनेपर मनुष्यको कोई पदार्थ अपाय नहीं करता । किसी भी चीज को सात दिनतक बरोबर सेवन करें तो [ इतने दिनके अंदर ही ] वह सात्म्य बनजाता है ॥ ४० ॥ प्रकृति कथन प्रतिज्ञा इति प्रयत्नाद्वरसात्म्यलक्षणं निगद्य पुंसां प्रकृतिः प्रवक्ष्यते । विचार्य सम्यक् सह गर्भलक्षणम् प्रतीतजातिस्मरणादिहेतुभिः ॥ ४१ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भोत्पत्तिलक्षणम् (२५) भावार्थ:-इस प्रकार बहुत यत्न पूर्वक सात्म्य लक्षणको प्रतिपादन कर अब गर्भलक्षण, जातिस्मरण के कारणादिकके विचारसे युक्त मनुष्योंकी प्रकृतियों के संबंध कहेंगे ॥ ४१ ॥ ऋतुमती स्त्री के नियम । यदर्तुकालं वनिता मुनिव्रता । विसृष्टमाल्याभरणानुलेपना। शरावपत्रांजलिभोजनी दिने । शयीत रात्रावपि दर्भशायिनी ॥ ४२ ॥ भावार्थ:-जब स्त्री रजस्वला होजावें तब वह मुनियोंके समान हिंसा आदि पंचापापोंका बिलकुल त्याग करें और मौन व्रत आदि से रहें एवं तीन दिनतक पुष्पमाला, आभरण, सुगंधलेपन आदिको भी छोडना चाहिये । दिनमें वह सरावा, पत्र या अंजुलि से भोजन करें एवं रात्रीमें दर्भशय्या पर सोवें ॥ ४२ ॥ गर्भाधानक्रम । विवर्जयेत्तां च दिनत्रयं पतिः। ततश्चतुर्थेऽहनि तोयगाहनः॥ शुभाभिषिक्तां कृतमंगलोज्वलां । सतैलमुष्णां कृशरानभोजनाम् ॥४३॥ स्वयं घृतक्षीरगुडप्रमेलितं-प्रभूतवृष्याधिकभक्ष्यभोजनः । . स्वलंकृतः साधुमना मनस्विनीं । मनोहरस्तां वनितां मनोहरीम् ॥४७॥ निशि प्रयायात्कुशलस्तदंगनां । सुतेऽभिलाषो यदि विद्यते तयो प्रपीड्य पाव वनिता स्वदक्षिणं । शयीत पुच्यामितरं मुहूतकम् ॥ ४५ ॥ भावार्थ:-तीन दिन तक पति उस स्त्रीका संस्पर्श नही करें । चौथे दिनमें वह स्त्री पानीमें प्रवेशकर अच्छीतरह स्नान करलेवें, तदनंतर वस्त्र, आभूषण व सुगंध द्रव्योंसें मंगलालंकार कर, अच्छीतरह भोजन करें जिसमें तैलयुक्त गरम खिचडी वगैरह रहें। पुरुष भी स्वयं उस दिन घी, दूध, शक्कर, गुड, और अत्यधिक वाजीकरण द्रव्यों से संयुक्त, भक्ष्यों को खाकर अच्छीतरह अपना अलंकार करळेवें, फिर रात्रिमें प्रसन्न चित्तसे वह सुंदर पुरुष उस प्रसन्न मनवाली पूर्वोक्त प्रकारसे संस्कृत सुंदरी स्त्रीके साथ संभोग करें। यदि उन दोनोंको पुत्रकी इच्छा है तो संभोग के बाद स्त्री अपने दाहिने बगलसे एक मुहूर्त सोवें, यदि पुत्रीकी इच्छा है तो बांये बगलसे एक मुहूर्त सोवे ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ऋतुकालमें गृहीतगर्भका दोष कदाचिदज्ञानतयैवमंगना । गृहतिगर्भा प्रथमे दिने भवेत् अपत्यमेतन्म्रियते स्वगर्भतो द्वितीयरात्रावपि मूतकांतरे ॥ ४६ ॥ तृतीयरात्री म्रियतेऽथवा पुनः सगद्गदोधो बधिरोऽतिमिम्मिनः स्वभावतः क्रूरतरोऽपि वाऽभवेत् ततश्चतुर्थेऽहनि बीजमावहेत्॥४७॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) कल्याणकारके भावार्थ:--कदाचित् स्त्री पुरुषों के अज्ञानसे उस स्त्रीको रजस्वलाकी अवस्थामें ही यदि पहिले. दिन गर्भ धारण कराया जाय तो उससे उत्पन्न बालक गर्भमे ही मर जाता है । यदि दूसरे दिन गर्म रहा तो उत्पन्न होने के बाद दस दिनके अंदर मर जाता है । तीसरे दिन गर्भ रहा तो वह या तो जल्दी मर जाता है । यदि जीता रहा तो वह हकला, अंधा, वहिरा, सोतला एवं स्वभावसे अत्यधिक क्रूर होता है । इसलिये चौथे दिनमें हो बीज धारण कराना चाहिये अर्थात् संभोग करना चाहिये ॥ ४६॥ ४७॥ गमीत्पत्ति कम रजस्वलायां पुरुषस्य यत्नतः क्रमेण रेतः समुपैति शोणितम् तदा विशत्यात्मकृतोरुकर्मणाप्यनाद्यनंतः कृतचेतनात्मकः ॥४८॥ भावार्थ:--उपर्युक्त प्रकारसे रजस्वला होनेके चौथे दिनमें रित्रके साथ यत्नपूर्वक संभोग करें तो पुरुषका वीर्य स्त्रीके रक्त में (रज) जाकर (गर्भाशयमें) मिलता है । उसी समय यदि गर्भ ठहरनेका योग हो तो वहां अनादि, अनंत, और चैतन्य स्वरूपी आत्मा अपने पूर्वकर्म वश प्रवेश करता है ॥ ४८ ॥ जीवराद्धकी व्युत्पत्ति स जीवतीहेति पुन: पुनश्च वा स एव जीविष्यति जीवितः पुरा । ततश्च जीवोऽयमिति प्रकीर्तितो विशेषतः प्राणगणानुधारणात् ॥ ४९॥ भावार्थ:--वह शरीरादि प्राणोंको पाकर र्जाता है, पुनः पुनः भाविष्यमें भी जीयेग भूतकालमें जी रहा था इसलिये जीवके नाम से वह आत्मा कहा जाता है ॥ ४९ ॥ ____ मरणस्वरूप। मनोवचः कायबलेंद्रियैस्सह प्रतीतनिश्वासनिजायुपान्वितः । दशैव ते प्राणगणाः प्रकीर्तितास्ततो वियोगः खलु देहिनो वधः ॥ ५०॥ भावार्थ:-मनोबल, वचनबल, कायवल इस प्रकार तीन बलप्राण, स्पर्शनेंद्रिय, रसनेंद्रिय, घ्राणेंद्रिया, चक्षुरिंद्रिय व श्रोनेंद्रिय इस प्रकार पांच इंद्रियप्राण एवं श्वासोच्छ्वास व आयु प्राण, इस प्रकार प्राणियोंको कुल देश प्राण हैं । जिनके वियोग से प्राणियोंका मरण होता है ।। ५० ॥ शरीरवृति केलिए पट्पयाति । ततस्तदाहारशरीरविश्रुतस्स्वकेंद्रियाच्यासमनावचास्यपि । प्रधानपर्याप्तिगणास्तु वर्णिता ययात्रामाज्जीवशरीरवद्धये ॥ ५१ ॥ १-इन प्राणों के रहनेपर. जीव जिन्दा कर लाता है। . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भो पत्तिलक्षणम् (२७) भावार्थ:-तदनंतर उन यथासंभव प्राणोंको प्रात जीवको आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास मन व बचन इस प्रकारकी छह पाप्ति कही गई हैं जो क्रमसे जीवके लिए शरीर वृद्धिके कारण हैं ।। ५१ ॥ __ शरीरोपत्ति में पर्याक्तिकी आवश्यकता । सशुक्ररक्तं खलु जीवसंयुतम् क्रमाच्च पर्यातिविशेषसद्गुणान् । मुहूर्तकालादधिगम्य पडिधानुपति पश्चादिह देहभावताम् ॥ ५२ ॥ भावार्थ:-जीवयुक्त रजोवीर्य का वह पिण्ड क्रम से छह पर्याप्तियोंको अंतर्मुहूर्तसे प्राप्तकर तदनंतर वहीं शरीरके रूप को धारण करलेता है ॥ ५२ ॥ गर्भ में शरीराविर्भावक्रस ( चंपक मालिका) अथ दशरात्रतः कललतामुपयाति निजस्वभावतो। दशदशभिर्दिनैः कलुपतां स्थिरतां व्रजतीह कर्मणा। पुनरपि बुद्धदत्वघनता भवति प्रतिमासमासतः ।। पिशितविशालता च बहिकृत स हि पंचमांसतः॥ ५३ ॥ अवयवसंविभागमधिगच्छति गभेगती हि मासतः । पुनरपिचर्मणा नखांगरुहोद्गम एव मासतः। सशुषिरमुत्तमांगमुपलभ्य मुहुः स्फुरणं च मासतो। नवदशमासतो निजनिजविनिर्गमनं विकृतीस्ततोऽन्यथा ॥५४॥ भावार्थ:-गर्भ ठहरने के बाद दश दिनमें वह कलल के रूपमें बनजाता है । फिर दस दिनमें वह गंदले रूपमें बनजाता है, फिर दस दिनमें वह स्थिर हो जाता है। पुनः एक महीनेमें बुदबुदेके समान और एक महीने में कुछ कठोर बनजाता है । इस प्रकार अपने कर्मके अनुसार उसमें क्रमसे वृद्धि होकर पांचवा महीने में बाहर की ओरसे मांसपेशियां विशाल होने लगती हैं । तदनंतर एक ( छठवा ) महीनेमें उस बालकका अवयव विभाग की रचना होती है एवं फिर एक ( सात्वां) मासमें चमडा, नख व रोमोंकी उत्पत्ति होती है । तदनंतर एक [ आठवां ] महीनेमें मस्तकका रंध्र ठीक २ व्यक्त होकर स्फुरण होने लगता है। नौ या दसवें महीने में वह बालक या बालकीरूप संतान बाहर निकलती है । दस महीनेके अंदर वह गर्भ बाहर न आवे तो उस का विकार समझना चाहिये ॥५३॥५४॥ १-विशित विशालताच बलिकृतकाश्च हि पंचमासतः इति पाटातरं । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) कल्याणकारके गर्भस्थ बालककी पोषणविधि । निजरुचितामपक्क समलाशयमध्यमगर्भसंस्थितः । सरसजरायुणा परिवृतो बहुलोग्रतमेन कुंठितः । प्रतिदिनमंबिकादशन चर्वितभक्ष्यभोज्यपानकान्युपरि निरंतरं निपतितान्यतिपित्तकफाधिकान्यलम् ।। ५५ ।। विरसपुरीषगंधपरिवासितवांतरसान्समंततः । पिबति विभिन्नपार्श्वघटवत्कुणपोंऽबुयुतो घटस्थितः । अभिहित सप्तमासतस्तदनंतरमुत्पलनालसनिभं । भवति हि नाभिसूत्रममुना तत उत्तरमश्नुते रसान् ॥ ५६ ॥ इति कथितक्रमादधिनीतवृद्धिमनेकविघ्नतः । समुदितमातुरंगपरिपीडन मुग्रमुदीरयन्पुनः । I प्रभवति वा कथंचिदथवा म्रियते स्वयमंबिकापि वामनुजभवे तु जन्मसदृशं न च दुःखमतोऽस्ति निश्चितम् ॥ ५७ ॥ भावार्थ: - - वह गर्भगत बालक स्वभाव से आमाशय पक्काशय व मलाशय के में स्थित गर्भाशय में रसयुक्त जरायुके द्वारा ढका हुआ होकर अत्यंत अंधकार से कुंठित रहता है । प्रतिनित्य माता जो कुछ भी भक्ष्य, भोजन व पान द्रव्य आदियों को दांतों से चाकर खाती है, उससे बना हुआ पित्त व कफाधिक रस एवं नीरस, मलके दुर्गंध से परिवासित, अंतस्थित रसों को, चारों तरफसे पीता है, जैसे पानीके घडे में रखा हुआ मुर्दा चारों तरफ से पानीको ग्रहण करता हो । ( इस आहारसे गर्भगत बालक सात महीने तक वृद्धि को प्राप्त होता हैं ) । सात महीने होनेके बाद उस बालककी नाभि स्थानसे कमल नालके समान एक नाल बनता है वह माता के हृदयसे सम्बंधित होता है। तदनंतर वह उसी नालसे रस आदिका ग्रहण करता है । इस उपर्युक्त क्रमसे अनेक विघ्न व कष्टों के साथ गर्भगत बालक वृद्धिको प्राप्त होता है । जिस बीचमें माताको उम्र अंगपीडा आदि उत्पन्न करता है । ऐसा होकर भी कभी वह सुखसे उत्पन्न हो जाता है, कभी २ मरजाता है, इतना ही नही, कभी २ माताका भी प्राण लेकर चला जाता है । इस लिये मनुष्य भवमें आकर जन्म लेनेके समान दुःख लोक में कोई दूसरा नहीं, यह निश्चित है । ५५ ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ कर्मकी महिमा । अशुचिपुरीषमूत्ररुधिरस्रावगुह्यमलप्रदिग्धता । निष्ठुरतरवित्र प्रतियहुमिश्रितरोमचयातिदुर्गमम् । सुषिरमधोमुखं गुदसमीपविवर्ति निरीक्षणासह कथयितुमप्ययोग्यमधिगच्छति कर्मवशात्सगर्भजः ॥ ५८ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भोत्पत्तिलक्षणम् (२९) भावार्थ:-वह गर्भगत बालक अपने कर्मवश ऐसे स्थानसे बाहर निकलता है जो कि कहनेके लिए भी अयोग्य है । जहां अत्यंत अशुचि मल, मूत्र, रक्त आदियोंका स्राव होता रहता है । गुह्य मलसे लिपा हुआ होनेके कारण जिसमें अत्यधिक दुर्गंध आत है, बहुत से रोम जिसमें है, देखने व जाननेके लिए अत्यंत घृणित है, असहनीय है, गुदस्थानके बिलकुल पासमें है, जिसके मुख नीचे की तरफ रहता हैं। ऐसे अपवित्र रंध्र स्थान को भी कर्मवशात् बालक प्राप्त करता है ॥ ५८ ॥ शरीरलक्षणकथन प्रतिज्ञा। प्रतीतमित्थं वरगर्भसंभवं निगद्य यत्नादुरुशास्त्रयुक्तितः। यथाक्रमातस्य शरीरलक्षणं प्रवक्ष्यते चारु जिनेंद्रचोदितम् ॥ ५९ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार लोकमें प्रसिद्ध गर्भोत्पत्तिके संबंधमें अत्यंत यत्नके साथ शास्त्र व तदनुकूल युक्तिसे प्रतिपादन कर अब जिनेंद्रभगवंत के कथनानुसार क्रमसे उसके शरीरलक्षणका प्रतिपादन (अगले अध्यायमें) कियाजायगा ॥ ५९॥ अंतिमकथन। इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः । उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ।। ६०॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमे जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ६० ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके स्वास्थ्यरक्षणाधिकारे गर्भोत्पत्तिलक्षणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः। -:०:इत्युग्रादित्याचार्य कृत कल्याणकारक ग्रंथ के स्वास्थ्यरक्षणाधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में गर्भोत्पत्तिलक्षण नामक द्वितीय परिच्छेद समाप्त हुआ । ---X* X --- Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) कल्याणकारके अथ तृतीयः परिच्छेदः । मंगलाचरण व प्रतिज्ञा सिद्धं महासिद्धिमुखहेतुं श्रीवर्धमानं जिनवर्द्धमानम् । नत्वा प्रवक्ष्यामि यथोपदेशाच्छरीरमाद्यं खलु संविदानम् ॥ १ ॥ भावार्थः – जो सिद्धगतिको प्राप्त हुए हैं सिद्ध [मोक्ष] सुखके लिये एकमात्र कारण हैं, जिनकी अंतरंग बहिरंग श्री बढी हुई है, ऐसे श्रीवर्द्धमान भगवंत को नमस्कार कर, सबसे पहिले गुरूपदेशानुसार शरीर के विषय में कहेंगे ॥ १ ॥ अस्थि, संधि, आदिककी गणना अस्थीन्यथ प्रस्फुटसंघयश्च स्नायुश्शिराविस्तृतमांसपेश्यः । संख्याक्रममात्रिं त्रिनवप्रतीतं सप्तापि पंच प्रवच्छतानि ॥ २ ॥ भावार्थ:- : - इस मनुष्य शरीरमें तीनसौ अस्थि [हड्डी ] हैं, तीनसौ संधि [ जोड ] और स्नायु (नसें नौ सौं हैं। सात सौ शिरायें [ बारीक रगे ] हैं और पांच सौ मांस पेशी हैं ॥२॥ धमनी आदिकी गणना । नाभेः समंतांदिह विंशतिश्च तिर्यक्चतस्त्रच धमन्य उक्ताः । नित्यं तथा षोडश कंदराणि रिक्तां च कूर्चानि षडेवमाहुः ॥ ३ ॥ । भावार्थ : - - नाभिके ऊपर और नीचे जानेवाली धमनी ( नाडी ) वीस हैं अर्थात् ऊपर दस गयी हैं, नीचे दस गयी हैं । और इधर उधर चार [ तिर्यक् रूपसे ] धमनी रहती हैं । इस प्रकार धमनी चव्वीस हैं । सोलह कंदरा [ मोटी नसें ] हैं । कूर्च [ कुंचले ] छह हैं ॥ ३ ॥ १ यहां तीनसौ हड्डी, और तीन सौ संधि बतलायी गयी हैं । लेकिन जितनी हड्डी हैं उतनी ही संधि कैसे हो सकती हैं ? क्योंकि दो हड्डियों के जुडने पर एक संधि होती है । इसलिये अस्थि संख्या से, संधियोंकी संख्या कम होना स्वाभाविक है । सुश्रुत में भी ३०० अस्थि २१० संधि बतलायी गई हैं । यद्यपि हमें प्राप्त तीन प्रतियों मे भी "त्रि वि नवप्रतीतं” यही पाठ मिलता है । तो भी यह पाठ अशुद्ध मालूम होता है । यह लिपिकारोंका दोष मालूम होता है । २ - सुश्रुतसंहिता में "नाभिप्रभवाणां धमनीनामूर्ध्वगा दश दश चाधोगामिन्यश्चतस्त्रः स्तिर्यग्गाः " इस प्रकार चव्वीस धमनियों का वर्णन हैं । इसलिये " समंतात् " शब्द का अर्थ चारों तरफ, ऐसा होनेपर भी यहां ऊपर और नीचे इतना ही ग्रहण करना चाहिये। इसी आशय को आचार्य प्रवरने स्वयं, " तिर्यक्चतस्त्रश्च धमन्य उक्ताः यह लिखकर व्यक्त किया है । अन्यथा समंतात् से तिर्यक् भी ग्रहण हो जाता है । "" Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रावर्णनम् मांसरज्जु आदि की गणना । द्वे मांसरज्जु त्वच एव सप्त । स्रोता तथाष्टौ च यकृतप्लिहाः स्युः । आमोरुपक्काशयभूत नित्यं । स्थूलत्रपंक्तिः खलु षोडशैव ॥ ४ ॥ 1 भावार्थ — मांसरज्जु (बांधनेवाली मांसरज्जु) दो हैं । त्वचा [ चर्म] सात हैं । स्रोत आठ हैं । एवं यकृत् व (जिगर) प्लिहा (तिल्ली ) एक एक हैं । तथा एक आमाशय (खाया हुआ कच्चा अन्न उतरनेका स्थान जिसको मेदा भी कहते हैं) और पक्काशय (अन्नको पकाने वाला स्थान) के रूप में रहनेवाली स्थूल (बृहद् ) आंतडयों की पंक्ति सोलह हैं ॥ ४ ॥ मर्मादिककी गणना । सप्तोत्तरं मर्मशतं प्रदिष्टं । द्वाराण्यथात्रापि नवैव देहे । लक्षण्यशीतिश्च हि रोमकूपा । दोषात्रयस्थूणविशेषसंज्ञाः ॥ ५ ॥ ( ३१ ) भावार्थ:-- शरीर में एकसौ सात १०७ मर्म हैं । नौद्वारे ( दो आंख में, दो नाक में दी कान में, एक मुंह में, एक गुदा में और एक लिंग में ) हैं, अस्सीलाख रोम कूप ( रोमोंके छिद्र ) हैं । एवं स्थूण ऐसा एक विशेषनाम को धारण करनेवाले (वात, पित्त, कफ, नामक ) तीन दोष हैं ॥ ५ ॥ दंत आदिक की गणना । द्वात्रिंशदेवात्र च दंतपंक्तिः । संख्या नखानामपि विशंतिः स्यात् । मेदः सशुक्रं च समस्तुलुंग | प्रत्येकमेकांजलिमानयुक्तम् || ६ || भावार्थ:- इस शरीर में दांत बत्तीस ही रहते हैं अधिक नहीं, नखोंकी संख्या भी बीस है । मेद शुक्र व मस्तुलुंग इनके प्रत्येकके प्रमाण एक २ अंजली है ॥ ६ ॥ वसा आदिकका प्रमाण । सम्यक्त्रयोऽप्यंजलयो बसायाः । पित्तं कफश्च प्रसृतिश्च देहे । प्रत्येकमेकं षडिह प्रदिष्टा । रक्तं तथाधटॅकमात्रयुक्तंम् ॥ ७ ॥ १ – जिस स्थान पर, चोट आदि लगने से (प्रायः) मनुष्य मर जाता है उस स्थान विशेष को मर्म कहते हैं । २–मल आदि के बाहर व अंदर जाने का मार्ग. ( सूराक, वा छिद्र, ) ३ -- मेद आदि के जो प्रमाण यहां कहा है और आगे कहेंगे वह उत्कृष्ट प्रमाण है अर्थात् अधिकसे अधिक ( स्वस्थ पुरुषके शरीर में ) इतना हो सकता है । इसलिये स्वस्थ पुरुष व व्याधिग्रस्त के शरीर में इस प्रमाण में से घट बढ़ भी हो सकता है 1 ४- प्रसृति - ८ तोले. ५. आढक - २५६ तोले. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) कल्याणकारके भावार्थः-इस शरीरमें वसा [चर्बी] तीन अंजलि प्रमाण रहती हैं। पित्त और कफ प्रत्येक छह २ प्रसृति प्रमाण रहता हैं एवं रक्त अर्ध आढक प्रमाण रहता है ॥७॥ - मूत्रादिक के प्रमाण मत्र तथा प्रस्थपरिप्रमाणं । मध्येऽर्धमप्याढकमेव वर्चः । देहं समावृत्य यथाक्रमेण । नित्यं स्थिता पंच च वायवस्ते ॥ ८॥ भावार्थ:-शरीरमें मूत्र एक प्रस्थ प्रमाण रहता है । और मल अर्ध आढक रहता है, एवं देहमें व्याप्त होकर पांच प्रकारके वायु रहते हैं ॥ ८ ॥ पांचप्रकारके वात प्राणस्तथापानसमानसंज्ञौ । व्यानोऽप्यथोदान इति प्रदिष्टः । पंचैव ते वायव एव नित्य-माहारनीहारविनिर्गमार्थाः ॥ ९॥ भावार्थ:-देहमें प्राण वायु, अपानवायु, समानवायु, व्यानवायु व उदान वायुके नामसे पांच वायु हैं । जो आहारको पचाने अदंर लेजाने आदि काम करती हैं । एवं नीहार [ मलमूत्र ] के निर्गमनके लिये भी उपयोगी होती हैं ॥ ९ ॥ मलनिर्गमन द्वार अक्षिण्यथाश्रत्कटचिक्कणं च । कर्णे तथा कर्णज एव गृथः । निष्ठीवसिंहाणकवातपित्तजिहाद्विजानां मलमाननेस्मिन् ॥ १० ॥ भावार्थ:--आखोंसे आंसू व चिकना अक्षिमल, कानोंसे कर्णमल निकलता है, इसी प्रकार थूक, सिंघाण, वात, पित्त, निह्यामल व दंतमल इस प्रकार मुखसे अनेक प्रकारके मल निकलते हैं ॥ १० ॥ सिंहाणकश्चैव हि नासिकायां नासापुटे तद्भव एव गूथः । मूत्रं सरेतः सपुरीषरक्तं स्रवत्यधस्ताद्विवरद्वये च ॥ ११॥ भावार्थ:--सिंघाण नामक मल ही नाक से निकलता है । नाकके रंध्रमें उसी सिंघाणसे उत्पन्न शुष्कमल निकलता है । तथा नाचेके दो रंध्रोंसे वीर्य व मूत्र, एवं मल व रक्त का स्राव होता है ॥ ११ ॥ शरीरका अशुचित्व प्रदर्शन एवं स्रवद्भिन्नघटोपमानो देहो नवद्वारगलन्मलाढ्यः । स्वेदं वमत्युत्कटरोमकूपयुकासलिक्षाष्टपदाच तज्जाः ॥ १२ ॥ १-प्रस्थ-६४ तोले. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रव्यावर्णनम् (३३) भावार्थ:---इस प्रकार यह शरीर फूटे घडेके समान है जिसमे सदा रात्रिंदिन नव द्वारसे मल गलता रहता है । एवं रोमकूपोंसे पसीना बहता रहता है जिसमें अनेक j, आदि छोटे २ जीव पैदा होते हैं ॥ १२ ॥ धर्मप्रेम की प्रेरणा इत्यं परीरं निजरूपकष्टं कष्टं जरात्वं मरणं वियोगः । जम्मातिकष्टं मनुजस्य नित्यं तस्माच धर्मे मतिमत्र कुर्यात् ॥१३॥ भावार्थ:--इस प्रकार यह शरीर स्वभावसे ही कष्ट (अशुचि) स्वरूप है। उसमें बुढापा, मरण व इष्ट वस्तुवोंका वियोग आदि और भी कष्ट हैं; जन्म लेना महाकष्ट है। इस प्रकार मनुष्यको चारों तरफ से कष्ट ही कष्ट है । इसलिये मनुष्यको उचित है कि बह सदा धर्मकार्यमें प्रवृत्ति करें ॥ १३ ॥ आतिस्मरण विचार। एवं हि जातस्य नरस्य कस्यचित् । जातिस्मरत्वं भवतीह किंचित् । तस्माच्च तल्लक्षणमत्र मूच्यते । जन्मांतरास्तित्वनिरूपणाय तत् ॥ १४ ॥ भावार्थ:-इसप्रकार (पूर्वोक्त क्रमसे) उत्पन्न मनुष्योंमें किसी २ को कभी २ जातिस्मरण होता है । इसलिये उसका लक्षण यहां कहा जाता है जिससे पूर्वजन्म व परजन्मका अस्तित्व सिद्ध हो जायगा ॥ १४ ॥ जातिस्मरणके कारण । माणांतिके निर्मलबुदिसत्वता । शाखबताधर्मविचारगौरवम् । बकेतरमाप्तिविशेषणोद्भवो । जातिस्मरत्वे स्युरनेकहेतवः ॥ १५ ॥ भावार्थ:-प्राण जाते समय ( मरण समय ) बुद्धि और मन में नैर्मल्य रहना, शाचज्ञानका रहना, धार्मिक विचार की प्रबलता का रहना, ऋजु गतिसे जन्मस्थानमें उत्पन्न होना, सरल परिणामकी प्राप्ति आदि जातिस्मरण के लिये अनेक कारण होते हैं ॥१५॥ जातिस्मरणलक्षण। श्रुत्वा च दृष्ट्वा च पुरा निषेवितान् । स्वप्नाद्भयात्तत्सदृशानुमानतः । साक्षात्स्वजातिं परमां स्मरति तां । कर्मक्षयादोपशमाच्च देहिनः ॥१६॥ भावार्थ:-पहिलेके जन्ममें अनुभव किये हुए विषयोंको सुनकर या देखकर, एवं स्वप्न व भय अवस्थामें तत्सदृश पदार्थोको देखकर उत्पन्न, तत्सदृश अनुमानसे तथा मति ज्ञानावरणीय कर्मके क्षय, उपशम व क्षयोपशमसे मनुष्य अपने पूर्वभव संबंधी विषयोंको साक्षात् स्मरण करता है उसे जातिस्मरण कहते हैं ॥ १६ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके प्रकृतिकी उत्पत्ति निर्दिश्य जातिस्मरलक्षणत्वं वक्ष्यामहे सत्प्रकृति यथाक्रमात् । रक्तान्विते रेतसि जीवसंचरे दोपोत्कटांत्था प्रकृतिर्नृणां भवेत् ॥ १७ ॥ भावार्थ:--इस प्रकार जातिस्मरणके लक्षणको निरूपण कर. अब मनुष्यके शरीरकी बातपित्तादि प्रकृति के विषय में.. वर्णन करेंगे । यथाक्रम गर्भाशयस्थ, रज और चार्यमिश्रित पिण्डमें जिस समय जीवका संचार ( जीवोत्पत्ति ) होता है, उसी समय, अस जीवसंयुक्त पिण्ड में जिस दोप की अधिकता हो, उसी, दोष की प्रकृति बनती है। यदि. उस पिण्ड में पित्तका आधिक्य हो तो, उस से उत्पन्न संतान की पित्तं प्रकृति होती है । इसी तरह अन्य प्रकृतियों को जानना । यदि तीनों दोष समान हों तो समप्रकृति बनती है ॥ १७ ॥ वात प्रकृतिक मनुष्यका लक्षण । वातोद्भवा या प्रकृतिस्तया नरः शीतातिविद्विट् परुषः सिरान्वितः। जागर्ति रात्री सततं प्रलापवान दौर्भाग्यवान् तस्करवृत्तिरपियः ।।१।। मात्सर्यवानार्यविवर्जितो गुणे । रूक्षाल्पकेशी नखदंतभक्षकः । रोगाधिकस्तूर्णगतिः खलोऽस्थिरों निस्सौहदो धावति गायकस्सदा ॥१९॥ साक्षात्कृतघ्नः कृशनिष्ठुरांगः संभिन्नपादो धमनीसनार्थः । धैर्येण हीनोऽस्थिरबुद्धिरल्पः स्वप्ने च शैलाग्रनभोविहारी ॥ २०॥ भावार्थ:----वात प्रकृति का मनुष्य शतिद्वेषी, अधिक व कटिन सिरावोंसे युक्त होता है, रात्रिमें ( विशेष) जागता है व सदा बडबड करता रहता है एवं वह भौग्यहीन, चोर व दुनियाको अप्रिय, मत्सरी सज्जनों के गुणों से रहित, रूक्ष वं अल्पकेश सहित, नख व दंत को भक्षण कारनेवाला, अधिक रोगसे पीडित, फुर्तीसे चलनेवाला, दुर्जन, अस्थिर व जिसका कोई भित्र नहीं होते, विशेष दौडने वाला एवं हमेशा मानेवाला होता है । ए साक्षात् तन्न, कृश व निष्ठुर ( खरदरापन आदि-लिये हुए) शरीरवाला होता है और जिसके दोनों पाद फटे रहते हैं । अधिकथमनिसे व्याप्त रहता है । धैर्य रहिल अस्थिर, व अप बुद्धिवाला होता है । तथा स्वप्न में. पर्वतः के अग्रभाग व आकाश में विहार करता है अर्थात् पर्वताग्रभाग व आकाश में गमन करने या विप्न देखता है ॥ १८ ॥ १९॥ २० ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रव्यावर्णन पित्तप्रकृतिक मनुष्यका लक्षण पित्ताद्भवायाः प्रकृतः सकाशात् । क्रोधाधिकरतीक्ष्णतरः प्रगल्भः।" संस्वेदनः पतिसिवितानः । यतः प्रियस्ताम्रतगष्ठतालुः ॥ ३१ ।। मेधान्वितः शूरतरोऽप्रधृष्यो । वाग्मी कविर्वाचकपाठकः स्यात् । शिल्पप्रवीणः कुशलोऽतिधीमान । नजाऽधिकः सत्यपगतिसत्वः ।। २२ ॥ पीतोऽतिरक्तः शिथिलोष्णकायो । रक्तांबुजीपम्पकराधियुग्मः ।। क्षिणं जरातः खलताप्रमुष्टः सौभाग्यवान संततभाजनार्थी ।। २३ n स्वभे सुवर्णाभरणानि पश्य । द्जास्रजोऽलक्तकमासवगीन । उल्काशतिप्रास्फुरदग्निराशीन । पुप्पोत्करान किंशुककर्णिकारान् ॥ २४ ॥ भावार्थः पित्त प्रकृतिकाः मनुष्य क्रोनी, तिक्ष्ण बुद्धीवाला, चतुर, पसीनाथुक्तम पीतवर्णकी सिरायुक्त, प्रिय, लालआष्ट व तालुसे युक्त, बुद्धिमान् ; सूर अभिमान या धिटाईसे युक्त, वक्ता, कवि, वाचक, पाटक, शिल्पकलामें प्रवीण, कुशल, अत्यधिक विद्वान् , पराक्रमी, सत्यशील, बलवान् , पति, रक्त, शिथिल व उष्ण कायको धारण करनेवाला, लाल कमल के समान हाथ पैरको धारण करनेवाला, जल्दा बुढापेसे पीडित, खलित्व। बालोंका उग्वड जाना ] रोग से पीडित, सौभाग्यशाली, सदा भोजनेच्छ हुआ करता है एवं स्वप्नमें सुधर्ण निर्मित आभरण, बुंधुची का हार, लाक्षारस, मांस वगैरह, मेल्कापात, बिजली, तथा प्रज्वलित 'अग्निराशि, किंशुक, (पलाश) कोर्णकार ढाक ( कुनेर ) आदि लालवर्ण वाले पुष्प समूहोंको देखता है ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ।। कफप्रकृति के मनुष्यका लक्षण ! 'योद्भवायाः प्रकृतर्नरः स्यान्मधाधिकः स्थूलतरः प्रसन्नः । दुवोकुरश्यामलगात्रयष्टिमयः कृतज्ञः प्रतिवद्धवरः ॥ २५ ॥" श्रीमान् मृदंगांवुदसिंहघोपः स्निग्धः स्थिरः सन्मधुरगियश्च । माधुर्यवीर्याधिकधैर्ययुक्तः कांतः सहिष्णुव्यसनविहीनः ॥ २६ ॥ शिक्षाकलावानपि शीघ्रमेव ज्ञातुं न शक्तः सुभगः सुनेत्रः ।। हंसाठ्यपद्मोत्पलपण्डवापीस्रोतस्विनीः पश्यति संप्रमशः ॥ २७ ॥ भावार्थः-कफ प्रकृति के मनुष्यको बुदि. अधिक होती है । वह मोटात प्रसन्न चित्तयुक्त, दर्भ के अंकुर के समान सांबलावर्णवाला, कृतज्ञ, दूसरोंके साथ बद्धतर, श्रमित, मृदंग, मेघ व सिंहके समान ( कण्टस्वर..), : शद्वयुक्त, स्नेही, स्थिरचित्त, *-भुजा, इति पाठांतरं ।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) कल्याणकारके मोठे पदार्थीका प्रेमी, माधुर्यगुणसे युक्त, वीर, धीर, मनोहर, सहिष्णु सुख, दुःख, शीत, उष्ण आदि को सहन करनेवाला, व्यसनरहित, शिक्षाकलावोंसे युक्त, ( इनमें प्रवीण ) शीघ्र जानने में असमर्थ अर्थात् गम्भीर, सुंदर शरीर धारक, सुंदरनेत्री, होता है, और स्वप्न में हंस पक्षी, पद्म, नीलकमल, युक्त, वापी ( ा ) व नदीको देखता है ॥ २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥ क्षेत्रलक्षण कथन-पतिज्ञा । इत्थं लसत्सत्प्रकृतिं विधाय । वक्ष्यामहे भेषजलक्षणार्यम् । मुक्षेत्रमाणगुणप्रशस्तम् । श्वभ्रात्मवल्मीकविषैविहीनम् ॥ २८ ॥ भावार्थ:---इस प्रकार प्रकृति लक्षणका निरूपण कर अब औषध ग्रहण करने के लिये योग्य श्रेष्ठगुण युक्त, छिद्र, नरककुण्डसदृश वामी व विषरहित प्रशस्त क्षेत्रका वर्णन करेंगे ॥ २८ ॥ औषधिग्रहणार्थ अयोग्य क्षेत्र । देवालयं प्रेतगणाधिवासं । शीतातपात्यंतहिमाभिभूतम् । सोयावगाढं विजलं विरूपं । निस्साररूक्षक्षुपवृक्षकल्पम् ।। २९ ॥ क्षेत्रं दरीगुबगुहागभूतं । दुर्गधसांद्रं सिकतातिगाढम् । वयं सदा नीलसितातिरक्तं । भस्माभ्रकापोतकनिष्ठवर्णम् ॥ ३० ॥ भावार्थः---देवालय भूतप्रेतादि के निवास भूमि ( स्मशान आदि ) अत्यंत शीतप्रदेश, अत्यंत उष्ण प्रदेश अत्यंत हिमयुक्त प्रदेश, अत्यधिक जलयुक्त प्रदेश, निर्जल, विरूप प्रदेश, निम्सार रूक्ष, क्षुद्रवृक्षों के समूहसे युक्त, ऐसे पर्वत, पर्वतोंके अत्यधिक गुह्य ( अंधकारमय ) गुफा, दुर्गध से युक्त, अधिक बाल रेत सहित, नील, सफेद, अत्यंत लालवर्ण, भस्मवर्ण, आकाशवर्ण व कबूतरका वर्ण आदि नीच वर्णोसे युक्त क्षेत्र औषध ग्रहण करने के लिये आयोग्य हैं अर्थात् ऐसे प्रदेशोमें उत्पन्न औषध ग्राह्य नहीं हो सकता है ॥ २९ ॥ ३० ॥ औषधग्रहणार्थ प्रशस्तक्षेत्र । स्निग्धमराहाकुलफुलवल्ली लीलाफलालालमहीरुहाख्यम् । माधुर्यसौंदर्यसुगंधबंधि प्रस्पष्टपुष्टोरुरसमधानं ॥ ३१ ॥ सुस्वादुतोयं सुसमं सुरूपं साधारणं सर्वरसायनान्यम् । क्षवं सुकृष्णं मृदुसुमसनं ज्ञेयं सदा यौषधसंग्रहाय ।। ३२ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रव्यावर्णनम् भावार्थ:-जहांपर नधे २ अंकुरोंसे व्याप्त प्रफुल्लितलतायें उत्पन्न होती हों, फल भरित वृक्ष हों, सर्वत्र मधुरता, सुंदरता व सुगंधि छारही हो, जहां पर मधुर आदि श्रेष्ठ रस अधिक मात्रासे व्याप्त हों, जहांका पानी अयंत स्वादिष्ट हो, जो समशीतोष्ण प्रदेश हो, सुरूप हो, सर्व रसायनोंसे युक्त साधारण देश हो, काले वर्ण युक्त मृदुव प्रसन्न जमीन हो, ऐसा क्षेत्र औषध संग्रहके लिए योग्य है ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ सुक्षेत्रोत्पन्न अप्रशस्त औषधि । अत्रापि संजातमहोषधं यदावानलाद्यातपतीयमार्गः । शखाशनिमस्फुटकीटवातैः संवाध्यमानं परिवर्जनीयं ॥ ३३ ॥ भावार्थ:-ऐसे सुक्षेत्र में भी उत्पन्न उत्तम औषधि, दावानल, धूप, जल आदिसे और शस्त्र, बिजली, कीडे, हवा आदि कारणसे दूषित हुई हो तो उसे भी छोडदेनी चाहिये ॥ ३३ ॥ प्रशस्त औषधिका लक्षण स्वल्पं मुरूपं सुरसं सुगंधं । मृष्टं सुखं पथ्यतमं पवित्रम् । साक्षात्सदा दृष्टफलं प्रशस्त । संप्रस्तुतार्थ परिसंगृहीतं ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-यह औषधि स्वल्प क्यों न रहे परंतु सुरूप, सुरस, सुगंध, सुखकारक, स्वादिष्ट, पथ्यरूप, शुद् व साक्षात्फलप्रद होती है, वही प्रशस्त है । ऐसी औषधि चिकित्साकर्म केलिये संग्रहणीय है ।। ३४ ॥ परीक्षापूर्वक ही औषधप्रयोग करना चाहियं एवविध भेषजमातुराग्नि-व्याधिस्वरूपं मुनिरीक्ष्य दत्तं । रोगाभिहंत्याशु तदातिघोरान् । हीनाधिकं तद्विफलादिदोषं ॥ ३५ ॥ __ भावार्थः ---उपर्युक्त प्रकारकी निर्दोष औषधिका प्रयोग यदि रोगीकी अग्नि, वय, बल, देश, काल, रोगस्वरूप आदिको देखकर किया गया तो वह शीघ्र भयंकर रोगों को भी नाश करती है। यदि औषध दोषसहित हो या अग्नि आदि का विचार न करके पयोग किया जाय तो विफल होता है ॥ ३५॥ . अधिकमात्रासे औषधिपयोग करनेका फल मूर्खामदग्लानिविदाहतोदात्याध्मानविष्टंभविमोहनादीन् । मात्राधिक घोषधमत्र दत्तं । कुर्यादजीणे विषमाग्नितां च ॥ ३६ ॥ भावार्थ:-मात्रासे अधिक औषधिका प्रयोग करें तो मूर्छा, मद, ग्लानि, दाह पीडा, अफराना, मलका अवरोध, भ्रम एवं अजीर्ण व विषमाग्नि आदि अनेक रोगोंकी उत्पत्ति होती है ।। ३६ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८) कल्याणकारके औषध प्रयोग विधान। हीनं त्वकिंचित्करतामुपैति तस्मात्समं साधु नियोजनीयं ।' दत्वाल्पमल्प दिवसत्रयेण मात्रां विदध्यादिह दोषशांत्यै ॥ ३७॥ भावार्थ:-यदि हीन मात्रासे औषधि प्रयोग किया जाय, तो वह फलकारी नहीं होता है । इसलिए [ न हीनमात्रा हो न अधिक ] सममात्रासे ठीक २ प्रयोग करना चाहिए । (प्रयत्न करने पर भी, अग्नि आदिका प्रमाण स्पष्ट मालूम न हो तो ) दोष शांतिके लिए, अल्पमात्रासे आरम्भकर थोडा २ तीन दिन तक बढाकर, योग्य मात्राका निश्चय कर लेना चाहिए ॥ ३७॥ जीर्णाजीर्ण औषध विचार । सवाणि सााणि वरौषधानि वीर्याधिकानीति वदंति तज्ज्ञाः । सर्पिर्विडंगाः सह पिप्पलीमिर्जीणा भवंत्युत्तमसद्गुणाढ्याः ॥ ३८ ॥ भावार्थ:----संपूर्ण आर्द्र अर्थात् नये औषधियोंमें अधिक शक्ति है ऐसा तज्ज्ञ लोग कहते हैं । लेकिन् , विडंग, पीपल, और घी ये पुराने होनेपर नये की अपेक्षा विशेष गुण युक्त होते हैं ॥ ३८ ॥ स्थूल आदि शरीरभद कथन । मूत्रक्रमाद्भेषजसंविधानमुक्त्वा तु दहनविभागमाह। स्थूलः कृशो मध्यमनामकश्च तत्र प्रधानं खलु.मध्यमाख्यम् ॥ ३९॥ भावार्थ:-इस प्रकार औषधिके संबंध में आगमानुसार कथन कर :अनः देहके भेदको कहेंगे । वह देह, कृश, स्थूल व मध्यमके भेदसे तीन प्रकारका रहे, उसमें मध्यम नामक देह प्रधान हे ॥ ३९ ॥ प्रशास्ताप्रशस्त शरीर विचार स्थलाकृशश्चायतिनिंदनीयो भाराश्वयानादिषु वर्जनायो । ..। सर्वास्ववस्थास्वपि सर्वथेष्टः सर्वात्मना मध्यमदेहयुक्तः ॥४०॥ भावार्थ:--स्थूल व कृश देह अत्यंत निंद्य हैं । एवं भारवहन, घोडकी सवारी आदिकार्यमें ये दोनों शरीर अनुपयोगी हैं । सर्व अवस्थावो में, सर्व तरह से, सर्वथा मध्यम देह ही उपयोगी है ॥ ४०॥ __ स्थूलादि शरीर की चिकित्सा स्थूलस्य कार्य करणीयमत्र रूक्ष्यौषधै जनपानकाद्यैः । स्निग्धैस्तथा पुष्टिकरैः कृशस्य पथ्यैस्सदा मध्यमरक्षणं स्यात् ॥ ४१.... Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रव्यावर्शनम् भावार्थ:-सदा कक्ष औषधि, भोजन पान आदिकोंसे स्थूल शरीर को कृश करना चाहिये, कृश शरीरको स्निग्ध तथा पुष्टिकर औषधि, अन्न पानोंसे.पुष्ट बनाना चाहिये, और पथ्यसेवन से मध्यम देहका रक्षण करना चाहिये अर्थात् स्थूल, व कृश होने नहीं देवें ॥ ४१ ॥ ... साध्यासाध्य विचार दोषैः स्वभावाच्च कृशत्वमुक्तं दापोद्भवं साध्यतमं वदंति । स्वाभाविकं कृच्छ्रतमं नितांतं यत्नाच्च तद्वंहणमेव कार्य ॥ ४२ ॥ भावार्थः- कृश शरीर एक तो दोषों से उत्पन्न दूसरा स्वाभाविक, इस प्रकार दो भेदसे युक्त, है,। दोषोंसे उत्पन्न साध्य कोटिमें है, परंतु स्वाभाविक कृश, अत्यंत कठिन, साध्य है । उसको प्रयत्न कर पोषण करना ही पर्याप्त है ॥ ४२ ॥ . स्थूलशरीरका क्षीणकरणोपाय । स्थूलस्य नित्यं प्रवदंति तज्ज्ञा विरेचनैर्योगविशेषजातैः । रूः कपायैः कटुतिक्तवगैराहारभैषज्यविधानमिष्टं ।। ४३ ॥ भावार्थ:-स्थूल शरीर वालेको [ कृश करने के लिये. ] विरेनन के नानाप्रकारका योग, रूक्ष, कषाय, कटु, तिक्तादिक औषधिवर्ग, व तत्सदृश आहारग्रहण आदि उपयुक्त है ऐसा आयुर्वेदज्ञ लोग कहते हैं ॥ ४३ ॥ क्षीणशरीर को समकरणोपाय । क्षीणस्य पानयिमतः प्रशस्तं । भुक्त्वोत्तरं क्षीरमपीह देयम् । . नस्यावलेहैः कवलग्रहर्वा । नित्यं तदग्निः परिरक्षणीयः ॥ ४४ ॥ भावार्थ:--कृश शरीरवालेको भोजन के बाद दूध या पानीको पिलामा चाहिये। एवं नस्य, अवलेह, कवलग्रहण आदि यथायोग्य उपायोंसे उसकी अग्नि की. सदा रक्षा करें ॥ ४४ ॥ मध्यमशरीर रक्षणोपाय । वाम्यो वसंते स च मध्यमाख्यो वर्षासु बस्ति विदधीत तस्य । वोचनं शारदिकं विधानम् । स्वस्थस्य संरक्षणमिष्टमायः ॥ ४५ ॥ भावार्थ:---मध्यम शरीवालेको वसंतऋतुमें वन कराना चाहिये, वर्षाऋतुम बस्तिक का प्रयोग करना चाहिये, एवं शरत्कालमें विरेचन देना चाहिये, इस प्रकार मध्यम शरीवाले के स्वास्थ्यकी रक्षा करनी चाहिये ॥ ४५ ॥ १. वसंतऋतुमें कफ, वर्षाऋतु में वायु, व शरदृतु में पित्त का प्रकोप ऋतुस्वभावसे होता है । इन दोषों के जीतने के लिये यथाक्रम वमन, बस्ति व विरेचन दिया जाता है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) कल्याणकारके स्वास्थ्य बाधक कारणों का परिहार। अत्यम्लरूक्षाधिकभोजनाति--व्यायामवातातपमैथुनानि । नित्यं तथैकस्य रसस्य सेवा । वानि दोषावहकारणानि ॥४६ ॥ भावार्थ:-अत्यधिक खट्टे पदार्थ, रूक्षपदार्थोसे युक्त भोजन, अत्यधिकव्यायाम करना, अत्यधिक हवा खाना, अत्यधिक धूप व गर्मी को सहन करना, अत्यधिक मैथुन सेवन करना एवं नित्य एक ही रसका सेवन करना आदि बातें जिनसे शरीरमें अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं सदा वर्ण्य हैं ।। ४६ ॥ ___ वातादिदोषों के कथन देहक्रमं साधु निरूप्य रोगान् वक्ष्यामहे मूत्रविधानमार्गात् । वातः कफः पित्तमिति प्रतीता दोषाः शरीरे खलु संभवंति ॥४७॥ भावार्थ:- इस प्रकार देहके भेद व उनके रक्षणोपाय आदि विषय अच्छीतरह निरूपण कर अब आचार्योंके द्वारा उपदिष्ट आगममार्गसे, शरीरस्थ रोगोंका निरूपण करेंगे । इस शरीरमें वात, पित्त व कफके नामसे प्रसिद्ध तीन दोष हैं जो उद्रिक्त होकर अनेक रोगोंको उत्पन्न करते हैं ॥ ४७ ॥ वातादि दोषलक्षण। वातः कटू रूक्षतरश्चलात्मा पिचं द्रवं तिक्ततरोष्णपीतम् । स्निग्धः कफः स्वादुरसोतिमंदः स्वतो गुरुः पिच्छिलशीतलः स्यात्॥४८॥ भावार्थ:--वात दोष कटु, रूक्षतर व चलस्वभाववाला होता है । पित्तदोष द्रवरूप है, तीखा व उष्ण है। उसका वर्ण पीला है। एवं कफ स्निग्ध होता है, मधुर रसयुक्त व गाढा रहता है तथा उसका स्वभाव वजनदार पिलपिला व ठण्डा है। इस प्रकार तीनों दोषोंका लक्षण है ।। ४८ ।। कफका स्थान । आमाशये वक्षसि चोत्तमांगे कंठे । च संधिष्वखिलेषु सम्यक् । स्थित्वा कफः सर्वशरीरकार्य कुर्यात्स संचारिमरुद्रशेन ॥ १९ ॥ भावार्थ:-उस कर्फ को [ मुख्यतः ] रहने के स्थान पांच है। लेदक कफ आमाशयमें, अवलम्बक कफ वक्षस्थल ( छाती ) में, तर्पक कफ शिर में, बोधककफ कण्ठ (गले ) में और श्लेष्मक कफ सर्व संधियोंमें रहता है । इस प्रकार स्वस्थानोंमें रहते हुए संचार स्वभावयुक्त वातकी सहायता से सर्व शरीर कार्य को करता है ॥ ४९॥ .. १-कफ के भेद पांच है । उस के नाम इस प्रकार है । क्लेदक, अवलम्बक, तर्पक, बोधक और श्लेष्मक । (आगे देखें) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रव्यावणनम् (४१) पित्तका स्थान । पक्वाशयामाशययोस्तु मध्ये हृद्वत्क्वचित्मोक्तयकृप्लिहासु। पिचं स्थितं सर्वशरीरमेव व्याप्नोति वातातिगमेव नीतम् ॥ ५० ॥ भावार्थ:--आमाशय और पक्वाशयके बीचमे, हृदय स्थानमें, पहिले कहे हुए यकृत् ( जिगर ) व प्लीहा के ( तिल्ली ) स्थानमें पित्त रहता है और वह वातके द्वारा चलन मिलकर सर्व शरीरमें व्याप्त होता है ॥ ५० ॥ वातका स्थान शोणीकटीवंक्षणगुप्तदेशे । वायुः स्थितः सर्वशरीरसारी । दोषांश्च धातून् नयति स्वभावात् । दुष्टः स्वयं दृषयतीह देहम् ॥ ५१ ॥ अवलम्बकः--यह स्वशक्ति के बल से हृदय को बल देता हैं एवं अन्य कास्थानो में कफ पहुंचाते हुए उनको अवलम्बन करता है इसलिये इस का अवलम्बक नाम सार्थक है । क्लेदकः-यह आमाशय में आए हुए अन्नको क्लेदित [धीला ] करता है, अत एव पाचन क्रिया में सहायक होता है। तर्पका-यह शिर में रहते हुए आंख, नाक आदि गले के ऊपर रहने वाले इन्द्रियों को तृप्त करता है तर्पण करता है । इस हेतुसे इसका तर्पक नाम सार्थक है । बोधकः-यय जीभ में रहते हुए मधुर अम्ल आदि रसोंके ज्ञान [बोध ] में सहायक होता है । इसलिये इसका नाम बोधक है। श्लेष्मकः-यह सम्पूर्ण हड्डियों के जोड में रहकर, चिकनाहट करता है इसलिये हड्डियों में परस्पर रगड खाने नहीं देता हैं और गाडीके पहियों के बीच में लगाया गया तेल जिस प्रकार उनको उपकार करता है वैसे ही यह संधियों को मजबूत रखता है। इसलिये इसका श्लैष्मिक नाम भी सार्थक है। १-पित्त का भी पाचक भ्राजक, रंजक आलोचक साधक इस प्रकार पांच भेद है। पाचकः-यह आमाशय, और पक्वाशय के बीच में रहता है । अन्नको पचाता है इसी लिथे इसको जठराग्नि भी कहते हैं | अन्न के सारभूत पदार्थ और किट [निःसार मल) को अलग करता है। एवं स्वस्थान में रहते हुए अन्य पित्त के स्थानों में पित्त को रवाना कर उन को अनुग्रह करता है। भ्राजक:-इस के रहने का स्थान त्वचा हैं । यह शरीर में कांति उत्पन्न करता है। रंजकः-यह जिगर और तिल्ली में रहता है। और इन में आये हुए रसको रंग कर रक्त बना हेता है। आलोचकः—यह आंख मे रहता हैं और रूप देखनेमें सहायक होता है । साधकः-यह हृदय में रहता है । बुद्धि, मेधा, अभिमान आदिको उत्पन्न करता है। और अभिप्रेत अर्थ के सिद्ध करने में सहायक होता है । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) कल्याणकारके भावार्थः-----सर्व शरीरमें संचरण करनेवाला वायु विशेषकर नितंब प्रदेश, कटी, जांघोंका जोड [रांङ] व गुप्त प्रदेशमें निवास करता है। एवं दोष व रसादि धातुओंको, अपने स्वभाव से यथास्थान पहुंचाता रहता है । यदि कदाचित् स्वयं दूषित होजाय तो देहको भी दूषित करता है ॥ ५१.॥ प्रकुपित दोष सबको कोपन करता है। एको हि दोषः कुपितस्तु दोषान् तान्दूपयत्यात्मनिवाससंस्थान् । तेषां प्रकोपानिह शास्त्रमार्गाद्वक्षामहे व्याधिसमुद्भवार्थान् ।। ५२ ।। भावार्थः ---कोई भी एक दोष यदि कुपित होजाय तो उसके आश्रयमें (स्थान में रहनेवाले ) समस्त दोषोंको वह कुपित करता है जिससे अनेक रोगजाल उत्पन्न होते हैं। ऐसे दोषप्रकोपोंके विषयमें अब आगम मार्गसे कथन करेंगे ॥ ५२ ॥ . १-यहां जो नितम्ब आदि वातका स्थान बतलाया है वह प्राण अपान, समान उदान, व्यान नामवाला पंचप्रकार के वातका नहीं है । लेकिन यह साधारण कथन है। अन्य ग्रंथो में भी ऐसा कथन पाया जाता है जैसे वातका स्थान छह है । आठ पित्त का स्थान है आदि । इस प्रकार कथन कर के भी पांचप्रकार के वातोंके स्थान का वर्णन पृथक् किया है। उसका स्पष्ट इस प्रकार है। प्राणवायु:-यह हृदय में रहता हैं किसी आचार्य का कहना है कि वह मस्तक में रहता है । लेकिन छाती, व कण्ठ, में चलता फिरता है । खाया हुआ अन्न को अंदर प्रवेश कराता हैं बुद्धि हृदय, इंद्रिय व मनः को धारण करता है अर्थात् इनके शक्ति को मजबूत रखता है । एवं थक, छींक, डकार, निश्वास, आदि कार्यों के लिये कारण भूत है। उदानवायुः---यह छाती में रहता है । नाक, नाभि, गल इन स्थानोंपर संचरण करता है । एवं बोलना, गाना आदि से जो शब्द, या स्वर की उत्पत्ति होती है उसमें यह साधनभूत है । समानवायुः--यह आमाशय, और पक्वाशय में रहता है इन ही में चलता फिरता है। अग्नि के दीपन मे सहायक है । अन्न को ग्रहण करता है, और पचाता है सारभाग, और मलभाग को अलग २ करता है एवं इनको जाने देता है। अपानवायुः--यह पकाशय में रहता है बस्ति ( मूत्राशय, शिश्भेन्द्रिय, गुद इन स्थानों में चलता फिरता है । एवं वायु, मूत्र, मल मूत्र, शुक्र, रज, और गर्भको, योग्य काल में बाहर निकाल देता है। व्यानवायुः—यह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहता है लेकिन इसका ठहरनेका मुख्य स्थान हृदय है । चलना, आक्षेपण, उत्क्षेपण आंख मचिना, उधडना, रस रक्त आदिको लेजाना, पसीना, रक्त आदिको बाहर निकालना आदि, शरीर के प्रायः सम्पूर्ण कार्य इसी वायु के ऊपर तीनों दोषों का जो नियत स्थान बतलाया है वह अविकृत दोषोंका है विकृत दोषोंका नहीं है । एवं ये दोष इन स्थानों में ही रहते हों अन्य स्थान में नहीं रहते हों यह बात नहीं। यों तो सम्पूर्ण दोष सर्व शरीर में रहते हैं । यहां एक ही दोष का पांच भेद बालाया है । लेकिन इन सब के लक्षण एक ही है । स्थान विशेष में रहकर विशिष्ट काम को करने के कारण, अलग २ नाम, व भद किये गये है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रव्यावर्णनम् दोषप्रकोपोपशम के प्रधानकारण वाह्यातंरंगात्मनिमित्तयोगात कर्मोदयोदीरणभावतो वा । क्षेत्राद्यशेषोरुचतुष्टयादा दोषाः प्रकोपोपशमी व्रजति ॥ ५३॥ भावार्थ:-प्रतिकूल व अनुकूल बाह्य व अंतरंग कारण से, व असाता व सातवेदनीय कर्मके उदय वः उदीरणा से विपरीत, व अविपरीत, द्रव्य, क्षेत्र काल, भावसे, वात आदि दोषोंके प्रकोप व उपशम होता है । विशेष—प्रत्येक कार्यकी निष्पत्ति के लिये दो प्रकारके निमित्त कारणोंकी आवश्यकता होती है । एक बाह्यनिमित्त व दूसरा अंतरंग निमित्त । रोगकी निवृत्तिके लिये बाह्य निमित्त औषधि, सेवा, उपचार वगैरह है । अंतरंग निमित्त तत्तत्रोगसंबंधी असातावेदनीय कर्मका उदय हे । कर्मोकी स्थितिको पूर्णकर फल देनेकी दशाको उदय कहते हैं । एवं कर्मोकी स्थिति विना पूरी किये ही कर्मके फल देकर खिरजानेको सिद्धांतकार उदीरणा कहते हैं। सातावेदनीय कर्मका उदय व असातावेदनीयकी उदीरणा भी रोगकी निवृत्ति केलिये कारण है । योग्य औषधि आदिक द्रव्य, औषधिसेवन योग्य क्षेत्र, तद्योग्य काल व भाव भी रोगकी निवृत्ति के लिये कारण है । इसलिये इन सब बातोंके मिलनेसे दोषोंके प्रकोपका उपसम होता है । इन बातोंकी विपरीततामें दोषोंका प्रकोप व अनुकूलतामें तदुपशम होता है ॥५३॥ वातप्रकोप का कारण। व्यायामतो वाप्यतिमैथुनाद्वा दूराध्वयानादधिरोहणाद्वा । संधारणात्स्वप्नविपर्ययावा तोयावगाहात्पवनाभिघातात् ॥ ५४ ॥ श्यामाकनीवारककोद्रवादि दुर्धान्यनिष्पावममूरमाणैः । मुद्दाढकीतिक्तकषायशुष्कशाकादिरूक्षादिलघुप्रयोगैः ॥ ५५ ॥ हर्षातिवातातिहिमप्रपातात् जुंभात्क्षताद्वादिविघातनाद्वा । रूक्षानपानरतिशीतलैर्वा वातःप्रकोपः समुपैति नित्यम् ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-अति व्यायाम करनेसे, अति मैथुन करनेसे, बहुत दूर पैदल मार्ग चलनेसे, कोई सवारी वगैरहमें चढनेसे, अधिक वजन ढोनेसे, ठीक २ समय नींद नहीं करनेसे पानीमें प्रवेश करनेसे (अधिक तैरना आदि) वायुके आघातसे, साँमाधान, नीवारक तिन्नीके चावल, कोदों, खराब धान्य, शिम्बी धान्य (सेम का जातिविशेष ) मसूर, उडद, मूंग, अडहर, तीखा, कषायला, शुष्क, और रूक्ष साग आदि एवं लघु पदार्थोंका प्रयोग करनेसे, अति हर्ष, अतिवात, जखम होना, जाई, बरफ गिरना, आघात आदिसे, रूक्ष अन्न पान व अतिशीत अन्न पानके प्रयोगसे हमेशा वात कुपित होता है । ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (88) पित्तप्रकोप के कारण शोकाधिकको भयातिहर्षा तीव्रोपवासादतिमैथुनाच्च । कवम्लतीक्ष्णातिपटुप्रयोगात् संतापिभिः सर्षपतैलमिश्रैः ॥ ५७ ॥ पिण्याकतैलातपशाकमत्स्यैः छागाविगोमांसकुलत्थयूंपैः । तत्राम्लसौवीरसुराविकारैः पित्तप्रकोपो भवतीह जंतोः ।। ५८ ।। भावार्थ:- -अधिक शोक, क्रोध, भय, और हर्षसे, तीव्र उपवास व अधिक मैथुन करनेसे, कटु ( चरपरा ) खट्टा, क्षार आदि तीक्ष्ण, एवं नमकीन पदार्थोके अधिक सेवन से सरसोंके तैलसे तला हुआ पदार्थ, तिलका खल, तिलके तैलके भक्षणसे, धूपका सेवन से उष्ण शाकोंके उपयोगसे मछली, बकरी, भेड, गाय, इनके मांस, कुलथीका यूष (जूस) खड्डी कांजी, और मदिरा के सेवन से शरीर में पित्तप्रकोप होता है ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ कफप्रकोप के कारण । कल्याणकारके नित्यं दिवास्वप्नतयाव्यवायः व्यायामयोगादुरुपिच्छिलाम्लैः । स्निग्धातिगाढातिपटुप्रयोगैः पिष्ठेक्षुदुग्धाधिकमाषभक्ष्यैः ।। ५९ ।। दध्ना संधानक मृष्टभेोज्यैः वल्लीफलैरध्यशनैरजीर्णैः । अत्यम्लपानैरतिशीतलान्नैः श्लेष्मप्रकोपं समुपैति नॄणाम् ॥ ६० ॥ भावार्थ:- प्रति नित्य दिनमें सोनेसे, मैथुन व व्यायाम न करनेसे, अधिक लिवलिवाहट खड्डा स्निग्ध ( चिकना घी तैल आदि ) अतिगाढा या गुरु और नमकीन पदार्थों के सेवनसे, अधिक गेहूं, चना आदिके पठि [आटा ] ईखका रस, (गुड, शक्कर आदि इक्षुविकार) दूध, एवं उसे मिश्रित या इनसे बने हुए भक्ष्योंके सेवनसे, दही, मदिरा आदि, संवित पदार्थ, मिठाई आदि भोज्य पदार्थ, और कूष्माण्ड ( सफेद कद्दू) के सेवनसे, भोजन के ऊपर भोजन करनेसे, अजीर्णसे, अत्यंत खड्डे रसोंके पीनेसे, अतिशीतल अन्नके सेवनसे मनुष्योंके कफ प्रकुपित होता है । ।। ५९ ।। ६०॥ दोषोंके भेद भवंति दोषाः । रक्तंच दोषैस्सह संविभाज्यं धातुस्तथा दूषकदूष्यभावात् ।। ६१ । प्रत्येक संयोगसमूहभंगेः पुंसो दशैवात्र १- दघ्नालसंदाल्कन इति पाठांतरं । -पंचादशैवात्र, इति पाठांतरं । ... Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रव्यावर्णनम् ( ४५ ) भावार्थ:- - दोषोंके प्रत्येक के हिसाब से तीन भेद हैं यथा - वात १ पित्त २ कफ ३ संयोग [द्वंद] के कारण तीन भेद होते हैं. यथा - वातपि १ वातकफ २ कफ पित्त ३, सन्निपात के कारण ४ भेद होते हैं यथा - वातपित्तकफ १, मन्दकफवातपित्ताधिक २, मन्दपित्तवातकफाधिक ३, मंदवातपित्तकफाधिक ४ इस प्रकार दोषोंके भेद दस हैं । रक्त की भी दोषोंके साथ गणना है अर्थात् रक्त को दोष संज्ञा हैं । वातादिदूषकों द्वारा दूषित होनेके कारण वही रक्त धातु भी कहलाता है ॥ ६१ ॥ प्रकुपित्तदोषका लक्षण तेषां प्रकोपादुदरे सतोदः । संचारकः साम्लकदाहदोषाः ॥ हल्लासतारोचकताच दोषास्ससंख्यानतो लक्षणमुच्यतेऽतः ॥ ६२ ॥ भावार्थ:- - उन बातादि दोषोंके प्रकोपसे, क्रमशः अर्थात् वातप्रकोप से पेटमें इधर उधर चलनेवाली, तुदनवत् (सुईचुभने जैसी) पीडा आदि होती हैं । पित्तप्रकोपसे, खड्डापना, दाह आदि लक्षण होते हैं । कफ प्रकोपसे, डकार, अरुचि आदि लक्षण प्रकट होते हैं । आगे दोषक्रमसे, इनके प्रकोप का लक्षण विशेष रीतिसे कहेंगे ॥ ६२ ॥ वात प्रकोप के लक्षण ! संभेदोत्ताडनतोदनानि संछेदनोन्मंथनसादनानि विक्षेपनिंर्देशनभंजनानि विस्फाटनोत्पाटनकंपनानि ॥ ६३ ॥ विश्लेषणस्तंभनजृंभणानि निःस्वासनाकुंचनसारणानि । नानातिदुःखान्यनिमित्तकानि वातप्रकोपे खलु संभवति ।। ६४ ।। भावार्थ:-शरीर टूटासा होना, कोई मारते हों ऐसा अनुभव होना, सुई चुभने जैसी पीडा होना, कोई काटते हों ऐसा होना, कोई मसलते हों ऐसा अनुभव आना, शरीरका गलना, हाथ पैर आदि को इधर उधर फेंकना शरीरमें कुछ डसा हो ऐसा अनुभव होना, शरीरका टुकडा होगया हो ऐसा अनुभव होना, शरीरमें फफोले उठने जैसी पीडा हो, फटा जैसा अनुभव होना, कंप होना, शरीर के अंग प्रत्यंग भिन्न २ होगये हों ऐसा अनुभव होना, बिलकुल स्तब्ध होना, जंाई अधिक आना, आधक श्वास छूटना शरीरका संकोच होना और प्रसारण होना इत्यादि अनेक अकस्मात् प्रकार के दुःख, वात प्रकोप होने पर होते हैं ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ पित्तप्रकोप लक्षण उष्मातिशोषातिविमोहदाहधूमायनारोचकरोषातापाः देहोष्मतास्वेद बहुप्रलापाः पित्तप्रकोपे प्रभवंति रोगाः ॥ ६५ ॥ १ - वात, पित्त, कफ ये तीनों दोष धातुओंको दूषित करते हैं इसलिए दूषक कहलाते हैं । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) कल्याणकारके भावार्थ:-...अत्यंत उष्णताका अनुभव होना, कंठशोषण आदि का अनुभव होना मूर्छा होना, दाह होना, मुखसे धुंआ निकलता सा अनुभव होना, भोजनमें अरुचि होना बहुत क्रोध आना, संताप होना, देह गरम रहना, अधिक पसीना आना, अधिक बडबडाना ये सब विकार पित्त प्रकोपसे उत्पन्न होने हैं ।। ६५ ॥ कफ प्रकोप लक्षण सुप्तत्वकंडूगुरुगात्रतातिश्वेतत्वशीतत्वमहत्वनिद्राः । संस्तंभकारोचकताल्परुकच श्लेष्मप्रकोपोपगतामयास्ते ॥६६॥ भावार्थ:--म्पर्शज्ञान चलाजाना, शरीरका अधिक खुजाना, शरीर भारी होजाना, शरीर सफेद होजाना, शरीरमें शीत मालूम होना, मोह होना, अधिक निद्रा आना, स्तब्ध होना, भोजनमें अरुचि होना, मंद पीडा होना आदि कफके प्रकोपसे होनेवाले विकार हैं अर्थात् उपर्युक्त रोग कफके विकारसे उत्पन्न होते हैं ॥ ६६॥ . प्रकुपित्त दोषीके वर्ण एषां भस्मातिरूक्षः प्रकटतरकपोतातिकृष्णो मरुत्स्यात् । पित्तं नीलातिपीतं हरिततममतीवासितं रक्तमुक्तम् । श्लेष्मा स्निग्धातिपाण्डुः स भवति सकलैः संनिपातः सवर्णैः । दोषाणां कोपकाले प्रभवति सहसा वर्णभेदो नराणम् ॥ ६७॥ भावार्थ:--इन दोषोंके प्रकोप होने पर, मनुष्योंके शरीरमें नीचे लिखे वर्ण प्रकट होते हैं । वातप्रकोप होने पर शरीर भस्म जैसा , कपोत , (कबूतर जैसा ) व अत्यंत काला होता है एवं रूक्ष होता है । पित्त के प्रकोप से , अत्यंत नीला , पीला , हरा , काला , व लालवर्ण हो जाता हैं । कफ के प्रकोप से, चिकना होते हुए सफेद होता है । जिस समय तीनो दोषों का प्रकोप एक साथ होता है उस समय, उपरोक्त तीनों दोषों के वर्ण , ( एक साथ ) प्रकट होते हैं ॥६॥ संसर्गादोषकोपादधिकतरमिहालोक्य दोषं विरोधात्कर्तव्यं तस्य यत्नादुरुतरगुणवद्भेषजानां विधानम् । सम्यक्सूत्रार्थमार्गादधिकृतमखिलं कालभेदं विदित्वा । वैद्येनोद्युक्तकर्मप्रवणपटुगुणेनादारादातुराणाम् ॥ ६८॥ भावार्थः-रोगियों की चिकित्सा में उद्युक्त , गुणवान् वैद्य को उचित है कि आयुर्वेदशास्त्र के कथनानुसार कालभेद , देशभेद , आदि सम्पूर्ण विषयों को अच्छी तरह से जान कर , द्वटुंज , सान्निपातिक आदि व्याधियों में दोषों के बलाबल को , अच्छीतरहसे निश्चय कर, जिस दोष का, प्रकोप हुआ हो उस से विरुद्ध, अर्थात् उसको शमन व शोधन करने वाले, गुणाढ्य औषधियोंके प्रयोग, वह आदरपूर्वक करें ॥६८॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रव्यावर्णनम् (४७) अंतिमकथन। इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः । उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ६९ ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमे जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ६९ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके स्वास्थ्यरक्षणाधिकारे सूत्रव्यावर्णनं नाम तृतीयः परिच्छेदः। इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के स्वास्थ्यरक्षणाधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में सूत्रव्यावर्णन नामक तृतीय परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) कल्याणकारके अथ चतुर्थः परिच्छेदः । ॥ कालस्य क्रमबंधनानुपर्यंतम् ॥ ( शार्दूलविक्रीडित ) मंगलाचरण और प्रतिज्ञा यो वा वेत्यखिलं त्रिकालचरितं त्रैलोक्यगर्भस्थितं । द्रव्यं पर्ययवत्स्वभावसहितं चान्यैरनास्वादितम् । नत्वा तं परमेश्वरं जितरिपुं देवाधिदेवं जिनम् । वक्ष्याम्यादरतः क्रमागतमिदं कालक्रमं सूत्रतः ॥ १ ॥ भावार्थः – जो परमेश्वर जिनेंद्र भगवान् तीनलोकसंबंधी भूतभविष्यद्वर्तमान - कालवर्ती द्रव्यपर्यायके समस्त विषयोंको युगपत् प्रत्यक्षरूपसे जानते हैं जो कि अन्य हरि रादि देवों के द्वारा कदापि जानना शक्य नहीं है, जिन्होने ज्ञानावरणादि कर्म रूपी शत्रु वको जीता है ऐसे देवाधिदेव भगवान् जिनेंद्रको नमस्कारकर इस समय क्रमप्राप्त कालभेदका वर्णन आगमानुसार यहां हम करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा श्री आचार्य करते हैं ।। १ ॥ कालवर्णन कालोऽयं परमोऽनिवार्यबलवान् भूतानुसंकालनात् । संख्यानादगुरुर्नचा तिलघुरप्याद्यंतहीनो महान् । अन्योऽनन्यतरोऽव्यतिक्रमगतिः सूक्ष्मो ऽविभागी पुनः । सोऽयं स्यात्समयोऽप्यमूर्तगुणवानावर्तनालक्षणः ॥ २ ॥ भावार्थ:-संसार में काल बडा बलवान् है एवं अनिवार्य है । संसार में कोई भी प्राणियोंको यह छोड़ता नही है । यह अनंत समयवाला है । अगुरुलघु गुणसे युक्त होने के कारण उसमें न्यून वा अधिक नही होता है । और अनाद्यनंत है । महान् है । द्रव्यलक्षणकी दृष्टिसे अन्य द्रव्योंसे वह भिन्न है । द्रव्यत्वसामान्यकी अपेक्षा से भिन्न नहीं है । अथवा लोकाकाशमें सर्वत्र उसका अस्तित्व होनेसे अन्यद्रव्योंसे भिन्न नहीं है । सिलसिलेवार क्रमसे चक्र के समान जिसकी गति है, जो सूक्ष्म है अविभागी है और अमूर्त गुणवाला है एवं वर्तना ( आवर्तना ) लक्षणसे युक्त है अर्थात् सर्व द्रव्योंमें प्रतिसमय होनेवाला सूक्ष्म अंतनत पर्याय परिवर्तन के लिये जो कारण है । इस प्रकार काल संसारमें एक आवश्यकीय व अनिवार्य द्रव्य है ॥ २ ॥ १ – इस श्लोक में परमार्थ कालका वर्णन है । २ – जिसकी गति अविच्छिन है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यादिगुणागुणविचार सोऽयं स्याद्विविधोऽनुमानविषयो रूपाद्यपेतोऽकियो लोकाकाशसमस्तदेशनिचितोप्येकैक एवाणुकः कालोऽद्रियगोचरः परम इत्येवं प्रतीतस्सदा । तत्पूर्वी व्यवहार इत्यभिहितः सूर्योदयादिक्रमात् ॥ ३ ॥ भावार्थ - यह काल प्रत्यक्ष गोचर नहीं है । अनुमानका विषय है । वह काल दो प्रकारका है । एक निश्चय अर्थात् परमार्थ काल दूसरा व्यवहार काल है । निश्चय काल अमूर्त है अर्थात् स्पर्शरस गंधवर्णसे रहित है । लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेश में एक एक अणुके रूपमें स्थित है । वह इंद्रिय गोचर नही अर्थात् अतींद्रिय केवल ज्ञानसे जिसका ज्ञान होसकता है वह परमार्थ अथवा निश्रय काल है । इसके अलावा सूयोर्दयादिके कारणसे वर्ष मास दिन घडी घंटा मिनिट इत्यादिका जो व्यवहार जिस कालसे होता है उसे व्यवहार काल कहते हैं ॥ ३॥ व्यवहारकाल के अवांतर भेद । संख्यातीततया प्रतीतसमेया स्यादावलीति स्मृता । संख्यातावलिकास्तथैवमुदितासोच्छ्राससंज्ञान्विताः सप्तोच्छ्रासगणो भवत्यतितरां तोकस्सविस्तारतः । तोकात्प्लवो भवेयुतास्त्रिंशल्लवान्नाडिका ॥ ४ ॥ भावार्थ - असंख्यात समयोंको एक आवली कहते हैं । संख्यातआवलियोंका एक तोक होता है । सात तोकोंसे एब एक उच्च्छास होता है । 1 होता है अडतीस लवोंकी एक नाडी होती है ॥ ४ ॥ मुहूर्त आदिके परिमाण | नाड्यौ द्वे च मुहूर्तमित्यभिहितं त्रिंशन्मुहूर्ताद्दिनं । पक्षःस्यादशपचचैव दिवसास्ती शुक्ल ष्णौ समौ । मासाद्वादश च ते ऋतुगणाः चैत्रादिकेषु क्रमात् । द्वे चैवाप्ययने तयोर्मिलितयोर्ष हि संज्ञाकृता ॥५॥ भावार्थ:-- दो नाडियोंसे एक मुहूर्त होता है। तीस है। पंद्रह दिनोंका एक पक्ष होता है । उस पक्षका शुद्ध पक्ष और दो भेद हैं । इन दोनों पक्षोंका एक मास होता है । यह मास चैत्र ( ४९ ) १ – एक पुगल परमाणु एक आकाश प्रदेश से दूसरे प्रदेशको मंदगति से गमन करने के लिये जितना समय लेता है उतने कालको एक समय कहते हैं । मुहूर्तीका एक दिन होता कृष्णपक्ष इस प्रकार वैशाख आदि बारह Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) कल्याणकारके होते हैं उन चैत्र वैशाख आदि बारह मासोमें छह ऋतु होते हैं तांग तीन ऋतुओंका एक अयन होता है । वह दक्षिणायन, उत्तरायनके रूपसे दो प्रकारका है । इन दोनों अयनोंके मिलने से एक वर्ष बनता है ।। ५॥ ऋतुविभाग | आद्यः स्यान्मधुरुर्जितः शुचिरिहाप्यं मोधराडंबरः । शत्तापकरी शरद्विमचयो हेमंतक: शैशिरः ॥ यथासंख्यविधानतः प्रतिपदं चैत्रादिमासद्वयं । नित्यं स्यातुरित्ययं द्यभिहितः सर्वक्रियासाधनः ॥ मधुकी वृद्धि होती है अर्थात् । इसका · समय चैत्र व वैशाख । श्रावण भाद्रपद वर्षाऋतुक भावार्थ - सबसे पहिला ऋतु वसंत है जिसमें फूल व फल फूलते व फलते हैं । इसे मधुऋतु भी कहते हैं मास है। दुसरा ग्रीष्मऋतु है जो जेष्ठ व आषाढ मास में होता है समय है जिस समय आकाशमें मेघका आडंबर रहता है । आश्विन व कार्तिक में सदा सैतापकर शरत्ऋतु होता है । मार्गशीर्ष व पौष मासमें हेमंतऋतु होता है जिसमें अत्यधिक ठण्डी पडती है । माघ व फाल्गुनमें शिशिरऋतु होता है जिसमें हिम गिरता है इस प्रकार दो २ मासमें एक २ ऋतु होता है । एवं प्रति दिन सर्वकार्यों के साधन स्वरूप छहों ही ऋतु होते हैं ॥ ६ ॥ ६ ॥ प्रतिदिन में ऋतुविभाग | पूर्वा तु वसंतनामसमयो मध्यंदिनं ग्रीष्मकः । प्रावृष्यं ह्यपराण्हमित्यभिहितं वर्षागमः प्रानिशा । मध्यं नक्तमुदाहृतं शरदिति प्रत्युषकालो हिमो । नित्यं वत्सरवत्कमात्प्रतिदिनं षण्णां ऋतुनां गतिः ॥ ७ ॥ भावार्थ::- प्रातः काल के समयपर वसंतऋतुका काल रहता है, मध्यान्हमें ग्रीष्मऋतुका समय रहता है । अपरह अर्थात् सांझ के समय में प्रावृट् जैसा समय रहता है, रात्रिका आद्य भाग बरसातका समय है, मध्यरात्रि शरत्कालका समय है, प्रत्यूषकालमें ( प्रातः ४ बजेका समय ) हिमवंतऋतु रहता है इस प्रकार वर्ष में जिस तरह छह ऋतु होते हैं उसीतरह प्रतिदिनं छहों ऋतुवोंकी गति होती है ॥ ७ ॥ १ - प्रत्येक दिन में भी कोनसा दोष किस समय संतय प्रकोप आदि होते हैं इसको जानने के लिये, यह प्रत्येक दिन छह ऋतुवोंकी गति बतायी गई है । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यादिगुणागुणविचार दोषों का संचयप्रकोप | श्लेष्मा कुप्यति सद्संतसमये हेमंतकालार्जितः । प्रावृष्येव हि मारुतः प्रतिदिनं ग्रीष्मे सदा संचितः ॥ पित्तं तच्छरदि प्रतीतजलदव्यापारतोत्युत्कटं तेषां संचयकोपलक्षणविधर्दोषांस्तदा निर्हरेत् ॥ ८ ॥ भावार्थ हेमंत ऋतु में संचित कफ वसंतऋतु में कुपित होता है । ग्रीष्मऋतु में संचित वायुका प्रावृट् ऋतुमें प्रकोप होता है । और वर्षाऋतुमें संचित पित्त का प्रकोप शरत्काल में होता है । यह दोषोंका संचय, व प्रकोप की विधि है । इस प्रकार संचित दोषोंको इनके प्रकोप समयमें बातको बस्तिकर्मसे पित्तको विरेचनसे, कफ को वमनसे शोधन करना चाहिये । अन्यथा तत्तदोषोंसे अनेक व्याधियांकी उत्पत्ति होती हैं ॥ ८ ॥ ( ५१ ) विशेष --- आयुर्वेद शास्त्र में दो प्रकारसे ऋतुविभागका वर्णन है इनमेंसे एक तो चैत्रमास आदिको लेकर वसंत आदि छह विभाग किया है जिसका वर्णन आचार्य श्री. स्वयं श्लोक नं. ६ में कर चुके हैं । द्वितीय प्रकारके ऋतुविभाग की सूचना श्लोक ७ में दी है। 1 इसीका स्पष्टीकरण इस प्रकार है । भाद्रपद आश्वयुज ( कार ) मास वर्षाऋतु, कार्तिक मार्गशीर्ष (अगहन ) मास शरदऋतु, पुष्यमाघमास हेमंतऋतु, फाल्गुन चैत्रमास वसंतऋतु, वैशाख ज्येष्ठमास ग्रीष्मऋतु और आषाढ श्रावणमास प्रावृट्ऋतु कहलाता है । प्रावृट् व वर्षाऋतु में परस्पर भेद इतना है कि पहिले और अधिक वर्षा जिसमें वरसता हो वह प्रावृट् हैं और इसके पीछे ( प्रथम ऋतुकी अपेक्षा ) थोडी वर्षा जिसमें वरसता हो वह वर्षाऋतु है । इन दोनोंमें प्रथम प्रकारका ऋतु विभाग, शरीरका बल, और रसकी अपेक्षाको लेकर है। जैसे वर्षा, शरद, हेमंतऋतु में अम्ललवण मधुररस बलवान होते हैं और प्राणियोंका शरीरबल उत्तरोत्तर बढता जाता है इत्यादि । उत्तर दक्षिण अयनका विभाग भी इसीके अनुसार है । द्वितीय विभाग दोषोंके संचय, प्रकोप, व संशोधन की अपेक्षाको लेकर किया है । इस श्लोक में दोषोंके, संचय आदिका जो कथन है वह इसी ऋतुविभाग के अनुसार है । इसलिये सारार्थ यह निकलता है कि, भाद्रपद आश्वयुजमासमें पित्तका, 1 म कफ का, और वैशाख ज्येष्ठमास में बातका, संचय ( इकठ्ठा) होता है । कार्तिक मार्गशीर्ष में पित्त, फाल्गुन चैत्रमें कफ, और आषाढ श्रावणमें वात प्रकु - पित होता है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) कल्याणकारके दोषोंका संशोधन जिस ऋतुमें प्रकुपित होता है उस ऋतुके द्वितीय मासमें करना चाहिये । अन्यथा दोषोंके निग्रह अच्छी तरहसे नही होता है । इसलिये वातका श्रावण में, पित्तका, मार्गशीर्षमें, कफका, चैत्रमें, संशोधन करना चाहिये । वस्ति आदिके प्रयोगसे संशोधन तब ही करना चाहिये, जब कि दोष अत्यधिक कुपित हो । मध्यम या अल्पत्रमाणमें कुपित हो तो, पाचन लधन आदिसे ही जीतना चाहिये । प्रकुपित दोषोंसे व्याधिजनन क्रम । क्रुद्धास्ते प्रसरति रक्तसहिता दोषास्तथैकैकशो। द्वन्द्वी काप्यथवा त्रयस्त्रय इमे चत्वार एवात्र वा । अन्योन्याश्रयमाप्नुवंति विसृता व्यक्तिप्रपन्नाः पुनः ॥ ते व्याधि जनयंति कालवशगाः षण्णां यथोक्तं बलम् ॥ ९ ॥ भावार्थ---पूर्वकथित कारणोंसे प्रकुपित दोष कभी एक २ ही कभी दो २ मिलकर कभी तीनों एकसाथ कभी २ रक्तको साथ लेकर, कभी चारों एक साथ, मिलकर शरीरमें फैलते हैं । इस क्रमसे दोषोंका प्रसर पंद्रह २ प्रकारके होते हैं । इस तरह फैलते हुए स्रोतोंके वैगुण्यसे जिस शरीरावयवको प्राप्त करते हैं तत्तदवयवोंके अनुसार नाना प्रकारके व्याधियोंको उत्पन्न करते हैं जैसे कि यदि उदरको प्राप्त करें तो, गुल्म, अतिसार अग्निमांद्य, अनाह, विशूचिका आदि रोगोंको पैदा करते हैं, बस्तिको आश्रय करें प्रमेह मूत्रकृछु, मूत्राघात, अश्मरी आदिको उत्पन्न करते हैं इत्यादि । तदनंतर व्याधियोंके लक्षण व्यक्त होता है जिससे यह साधारण ज्ञान होता है कि वह ज्वर है अतिसार है, वमन है आदि । इसके बाद एक अवस्था होती है जिससे व्याधिके भेद स्पष्टतया मालूम होता है, कि यह वातिक ज्वर है या पैत्तिक! पित्ततिसार है या कफातिसार आदि । इस प्रकार तीनों दोष कालके वशीभूत होकर व्याधियोंको पैदा करते हैं । दोपोंके संचय, प्रकोप, प्रसर, अन्योन्याश्रय, ( स्थानसंश्रम ) व्यक्ति, और भेद इन छह अवस्थाओंके बलाबलको शास्त्रोक्त रीतिसे जानना चाहिये । विशेष-जैसे एक जलपूर्ण सरोवरमें और भी अधिक पानी आ मिल जाय तो वह अपने बांधको तोडकर एकदम फैल जाता है वैसे ही प्रकुपित दोष स्वस्थान को उल्लंघन कर शरीरमें फैल जाते हैं । इसीको प्रसर कहते हैं । __ पंद्रह प्रकार का प्रसर--- १ वात २ पित्त ३ कफ ४ रक्त (दो) ५ वातपित्त ६ वातकफ. ७ कफपित्त । तीनों ) ८ वातपित्तकफ ( रक्तके साथ ) ९ वातरक्त १० कफरक्त ११ पित्तरक्त १२ वातपित्तरक्त. १३ यातकफरक्त. १४ कफापत्तरक्त. १५ (चारों ) वातपित्तकफरक्त Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यादिगुणागुणविचार (५३) इस प्रसरका भेद पंद्रह ही है ऐसा कोई नियम नहीं है । ऊपर स्थूल रीतिसे भेद दिखलाया है । सूक्ष्मरीतिसे देखा जाय तो अनेक भेद होसकता है। दोषोंके शरीरावयवोमें आश्रय करने की अवस्था को ही अन्योन्याश्रय, या, स्थानसंश्रय कहते हैं । स्थानसंश्रय होते ही पूर्वरूप का प्रादुर्भाव होता है । इसी को व्यक्ति कहते हैं । इसी को भेद कहते हे ॥ ९ ॥ सम्यक्संचयमत्र कोषमखिलं पंचादशोत्सर्पणम् । चान्योन्याश्रयणं निजप्रकटितं व्यक्तिप्रभेद तथा । यो वा वेत्ति समस्तदोषचरितं दुःखपद प्राणिनाम् । सोऽयं स्याद्भिषगुत्तमः प्रतिदिनं षण्णां प्रकुर्याक्रियाम् ॥ १० ॥ भावार्थ:--इस ऊपर कहे गये, सर्व प्राणियोंको दुःख देने वाले, दोषों ( वात पित्त कफ ) के संचय, प्रकोप ( पंद्रह प्रकारके ) प्रसर, अन्योन्याश्रय (स्थानसंश्रय ) व्यक्ति और भेद इत्यादि संपूर्ण चरित्र को अच्छीतरह से जो जानता है। वही उत्तम भिषक् (वैद्य ) कहलाता है । उसको उचित है कि उपरोक्त संचय आदि छह अवस्थाओंमें, शोधन, लंघन, पाचन, शमन आदि यथायोग्य चिकित्सा करें अर्थात् संचय आदि पूर्व २ अवस्थाओंमें योग्य चिकित्सा करें, तो, दोष आगे की अवस्थाको, प्राप्त नहीं कर सकते हैं । और चिकित्सा कार्य में सुगमता होती है । उत्तरोत्तर अवस्थाओंमें कठिनता होती जाती है। दोषोंके संचय आदि दो प्रकार से होता है। एक तो ऋतु स्वभावसे, दूसरा, अन्य स्वस्व कारणोंसे । यहां छह अवस्थाओंमें चिकित्सा करनेकी जो आज्ञा दी है, वह स्वकारणोंसे संचय आदि अवस्था प्राप्त दोषोंका है । क्यों कि ऋतुस्वभावसे संचित दोषोंकी चिकित्सा उसी अवस्थामें नहीं बतलायी गई है । परंतु प्रकोपकालमें, शोधन आदि का कथन किया है ॥ १० ॥ एवं कालविधानमुक्तमधुना ज्ञात्वात्र वेद्यो महान् । पानाहारविहारभेषजविधि संयोजयेद्वद्धिमान् ।। तत्रादौ खलु संचये प्रशमयेदोषाकोपे सदा। सम्यक्शाधनमादरादिति मतं स्वस्थस्य संरक्षणम् ॥ ११ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार अर्भातक काल भेद को जानकर तत्तत्कालानुकूल प्राणियोंके लिए अन्नपानादिक आहार व विहार औषधि आदिकी योजना करें । सबसे पहिले संचित दोषोंको (प्रकोप होनके पूर्व ही ) उपशम करनेका उपाय करना चाहिए । यदि ऐसा न करने के कारण दोष प्रकोप हो जाय तो उस हालत में आदर पूर्वक सम्यक् Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) कल्याणकारके प्रकारसे, वमनादिकके द्वारा शोधन करें । अर्थात् शरीर से प्रथक् करें। यही स्वास्थ्यके रक्षण का उपाय है ऐसा आयुर्वेद के विद्वानोंका मत है ॥ ११ ॥ वसंत ऋतुमे हित । रूक्षक्षारकपायतिक्तकटुकमायं वसंते हितं । भोज्यं पानमपीह तत्समगुणं प्रोक्तं तथा चोषकम् ॥ कौपं ग्राम्यमथाग्नितप्तममलं श्रेष्ठं तथा शीतलं । नस्यं सद्वमनं च पूज्यतमामित्येवं जिनेद्रोदितं ॥ १२ ॥ भावार्थ:-----वसंत ऋतुमें रूक्ष, ( रूखा ) क्षार [ खारा ] कषायला, कडुआ, और कटुक ( चरपरा ) रस, प्रायः हितकर होते हैं । एवं भोजन, पान में भी ऊपर कहा गया ] रूक्ष क्षारादि गुण ब रस युक्त पदार्थ हितकर होते हैं । पीनेके लिए पानी कुवे का गाम का हो अथवा अग्निसे तपाकर ठण्डा किया गया हो। इस ऋतु में नस्य व वमन का प्रयोग भी अत्यंत हितकर होता है ऐसा श्रीजिनेंद्र भगवानने कहा है ॥१२॥ ग्रीष्मर्तु व वर्षतुम हित । ग्रीष्मे क्षीरधृतगभूतमशनं श्रेष्ठं तथा शीतल। पानं मान्यगुडे क्षुभक्षणमपि प्राप्त हि कोपं जलं ।। वर्षासूत्करतिक्तमल्पकटुकं प्रायं कषायान्वितं । दुग्धक्षुपकरादिकं हितकरं पेयं जलं यच्छ्रितम् ॥ १३ ॥ भावार्थ:-ग्रीष्मकाल में दूध, घी; से युक्त भोजन करना श्रेष्ठ है। एवं ठण्डे पदार्थोका पान करना उपयोगी है । गुड और ईख [गन्ना ] खाना भी हितकर है । कुवे का जल पीना उपयोगी है । बरसातमें अधिक मात्रा में कडुआ कषैलारस; अल्प प्रमाण में कटु [ चरमरा ] रस, या रसयुक्त पदार्थोके सेवन, एवं दूध ईख; या इनके विकार [ इनसे बना हुआ अन्य पदार्थ शक्कर दही आदि ] का उपयोग हितकर है। तथा पीने के लिये जल, गरम होना चाहिये ॥ १३ ॥ सक्षीरं घृतशर्कराव्यमशनं तिक्तं कषायान्वितं । सर्व स्यात्सलिलं हितं शरदि तच्छ्योऽर्थिनां प्राणिनां । हेमंत कटुतिक्तशीतमहितं क्षारं कषायादिकं । सर्पिरतैलसमेतमम्लमधुरं पथ्यं जलं चोच्यते ॥ १४ ॥ भावार्थ:-श्रेय को चाहने वाले प्राणियोंकों शरत्कालमें घो शक्करसे युक्त भोजन व कषायला पदार्थस युक्त, भोजन हितकर है । जल तो नदी कुआ, तालाब वगैरेहका Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यादिगुणागुणविचार (५५) सर्व उपयोगी होगा. हेमंतऋतुमें कडुबा, तीखा, खट्टा, व शीत पदार्थ अहित है और खारा व कषायला द्रव्यसे युक्त भोजन उपयोगी है, घी और तेल, खटाई व मिठाई इस ऋतुमें हितकर है । इस ऋतुमें प्राथः सर्व प्रकार के जल पथ्य होता है ॥ १४ ॥ शिशिर ऋतु में हित। अम्लक्षीरकषायतिक्तलवणास्पष्टमुष्णाधिकं । भोज्यं स्याच्छिशिरे हितं सलिलमप्युक्तं तटाकस्थितं । ज्ञात्वाहारविधानमुक्तमखिलं षण्णामृतूनां क्रमा-। देयंस्यान्मनुजस्य सात्म्यहितकद्वेलाबुभुक्षावशात् ॥ १५ ॥ भावार्थ:-शिशिरऋतुमें खट्टापदार्थ, दूध, कषायला पदार्थ, कडुआ पदार्थ, नमकीन और अधिक उप्ण गुणयुक्त पदार्थका भोजन करना विशेष हितकर है । जल तालाबका हितकर है । इसप्रकार उपर्युक्त क्रमसे छहों ऋतुके योग्य भोजनविधानको जानकर, समय और भूखकी हालत देखकर, मनुष्यके शरीरकेलिये जो हितकारी व प्रकृतिकेलिये अनुकूल हो ऐसा पदार्थ भोजन पानादिकमें देना चाहिये, वही सर्वदा शरीर संरक्षणकेलिये साधन है ॥ १५ ॥ आहारकाल। विण्मूत्रे च विनिर्गते विचलिते वायौ शरीरे लघौ । शुद्धेऽपींद्रियवाङमनःसुशिथिले कुक्षौ श्रमव्याकुले । कांक्षामप्यशनं प्रति प्रतिदिनं ज्ञात्वा सदा देहिना-। माहारं विदधीत शास्त्रविधिना वक्ष्यामि युक्तिक्रमं ॥ १६ ॥ भावार्थ:--जिस समय शरीर से मलमूत्र का ठकि २ निर्गमन हो, अपानवायु भी बाहर छूटता हो, शरिर भी लधु हो, पांचों इंद्रिय प्रसन्न हों, लेकिन वचन व मन में शिथिलता आगई हो, पेट भी श्रम [भूक] से व्याकुलित हो तथा भोजन करने की इच्छा भी होती हो, तो वही भोजन के योग्य समय जानना चाहिये । उपरोक्त लक्षण की उपस्थिति को ज्ञातकर उसी समय आयुर्वेदशास्त्रोक्त भोजन विधिके अनुसार भोजन करें। आगे भोजन क्रमको कहेंगे ॥ १६ ॥ भोजनक्रम स्निग्धं यन्मधुरं च पूर्वमशनं मुंजीत भुक्तिक्रमे ।। मध्ये यल्लवणाम्लभक्षणयुतं पश्चात्तु शेषावसान्। ज्ञात्वा सात्म्यबलं सुखासनतले स्वच्छ स्थिरस्तत्परः क्षिप्रं कोष्णमथ द्रवोत्तरतरं सर्वर्तुसाधारणम् ।। १७ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके भावार्थ:--भोजन करने के लिये, जिसपर सुखपूर्वक बैठ सके ऐसे साफ आसन पर, स्थिर चित्त होकर अथवा स्थिरतापूर्वक बैठे । पश्चात् अपनी प्रकृति व बलको विचार कर उसके अनुकूल, थोडा गरम ( अधिक गरम भी न हो न ठण्डा ही हो) सर्व ऋतु के, अनुकूल, ऐसे आहार को, शीध्र ही [अधिक विलम्ब न भी हों व अत्याधिक जल्दी भी न हों ] उसपर मन लगा कर खावें । भोजन करते समय सबसे पहिले चिकना, व मधुर अर्थात् हलुआ, खीर बर्फी लडु आदि पदार्थों को खाना चाहिए । तथा भोजन के बीचमें नमकीन; खट्टा आदि अर्थात् चटपटा मसालेदार चीजों को व भोजनांत में दूध आदि द्रवंप्राय आहार खाना चाहिए ॥ १७ ॥ भोजन समय में अनुपान भुक्त्वा वैदलसुप्रभूतमशनं सौवीरपायीभवेन्मय॑स्त्वोदनमेवचाभ्यवहरंस्तत्कानुपानान्वितः । स्नेहानामपि चोष्णतो यदमलं पिष्टस्य शीतं जलं पीत्वा नित्यसुखी भवत्यनुगतं पानं हितं प्राणिनाम् ॥१८॥ भावार्थ:-दालसे बनी हुई चीजोंका ही, मुख्यतया खाते वखत कांजी पीना चाहिये । भात आदि खाते समय, तक्र [छाच पीना योग्य है। घी आदिसे बनी हुई चीजों से भोजन करते हुए, या स्नेह पीते समय, उष्ण जलका अनुपान करलेना चाहिये । पिट्टी से वनी पदार्थों को खाते हुए ठण्डा जल पीना उचित है । प्राणियोंके हितकारक इस प्रकार के अनुपान का जो मनुष्य नित्य सेवन करता है वह नित्यसुखी होता है॥ १८ ॥ अनुपानकाल ब उसका फल प्राग्भक्तादिह पीतमावहति तत्कार्य जलं सर्वदा । मध्ये मध्यमतां तनोति नितरां प्रांते तथा बृंहणम् ॥ ज्ञात्वा सद्रवमेव भोजनविधिं कुर्यान्मनुष्योन्यथा । भुक्तं शुष्कमजीणेतामुपगतं बाधाकरं देहिनाम् ॥ १९ ॥ भावार्थ:--भोजन के पहिले जो जल लिया जाता है; वह शरीरको कश करता है। भोजनके बीचमें पीवे तो वह न शरीरको मोटा करता है न पतला ही किंतु मध्यमता को करता है । भोजन के अंत में पीवें तो यह बृहण ( हृष्ट पुष्ट ) करता है । इसलिये १. जो. भोजन के पश्चात् अर्थात् साथ २ पान किया जाता है वह अनुपान कहलाता हैं । अनुगतं पानं अनुपानं इस प्रकार इस की निष्पत्ति है । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यादिगुणागुणविचार । इम सब वातों को जान कर, भोजन के साथ २ योग्य द्रव पदार्थ को ग्रहण करना चाहिये । यदि अनुपान का ग्रहण न करें तो भोजन किया हुआ अन्न आदि शुष्कता को प्राप्त होकर अजीर्णको उत्पन्न करता है और वह प्राणियों के शरीरमें बाधा उत्पन्न करता है'१९ अब भोजनमें उपयुक्त धान्यादिकोंके गुणोंपर विचार करेंगे। शालिआदि के गुण कथन शालीनां मधुरत्वशीतलगुणाः पाके लघुत्वात्तथा। पित्तघ्नाः कफवर्दनाः प्रतिदिनं मृष्टातिमूत्रास्तु ते । प्रोक्ता बीहिगुणाः कषायमधुराः पित्तानिलघ्नास्ततो । नित्यं बद्धपुरीषलक्षणयुताः पाके गुरुत्वान्विताः ॥ २० ॥ भावार्थ:--शालिधान मधुर होता है, ठण्डागुणयुक्त होता है, पचनमें लघु रहता है, अतएव पित्तको दूर करनेवाला है, कफको बढानेवाला है, मूत्रको अधिक लानेवाला है । इसीप्रकार ब्रीहि ( चावलका धान ) कषायला होकर मधुर रहता है । भतएव पित्त और वायुको नाश करनेवाला है । एवं नित्य बद्धमल करनेवाला है । पचनमें भारी है ॥ २० ॥ कुधान्यों के गुण कथन उष्णा रूक्षतराः कषायमधुराः पाके लघुत्वाधिकाः । श्लेष्मघ्नाः पवनातिपित्तजनना विष्टंभिनस्सर्वदा ॥ श्यामाकादिकुधान्यलक्षणमिदं प्रोक्तं नृणामश्नतां । सम्यग्वैदलशाकसवगणेष्वत्यादरादुच्यते ॥ २१ ॥ भावार्थ:-साँमा आदि अनेक कुधान्य उप्ण होते हैं, अतिरूक्ष होते हैं । कषाय और मधुर होते हैं। पचनमें हलके हैं। कफको दूर करनेवाले हैं और वात पित्तको उत्पन्न करनेवाले हैं । सदा मलमूत्रका अवरोध करते हैं अर्थात् इस प्रकार साँमा आदि कुधान्योंको खाने से मनुष्यों को अनुभव होता है । अब अच्छे दाल, शाक, द्रव आदि पदार्थ जो खाने योग्य हैं उनके गुण कहेंगे ॥२१॥ द्विदल धान्य गुण रूक्षाः शतिगुणाः कषायमधुरास्सांग्राहिका वातलाः। सर्वे वैदलकाः कषायसहिताः पित्तासजि प्रस्तुताः ॥ उक्ताः सोष्णकुलत्थकाः कफमरुधाधिप्रणाशास्तु ते । गुल्माष्ठीलयकृत्प्लिहाविघटनाः पित्तामृगुद्रकिणः ॥ २२ ॥ १-भोजन के बादमें क्या करें इसे जानने के लिये पंचम परिच्छेद श्लोक नं ४३-४४ को देखें। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) कल्याणकारके भावार्थ:-प्रायः सर्व द्विदल ( अरहर चना मसूर आदि) धान्य रूक्ष होते हैं । शीत गुणयुक्त हैं कषाय, व मधुर रस संयुक्त हैं । मलावरोध करते हैं । वात का उद्रेक करते हैं । ये कषायरस युक्त होनेके कारण रक्तपित्तमें हितकर हैं । कुलथी भी उष्ण है, कफ और वात को नाश करती है. गुल्म अष्ठीला यकृत् [ जिगर का बढ़ जाना ] और प्लिहा [ तिल्लीका बढना ] रोग को दूर करनेवाली है । रक्तपित्त को उत्पन्न करनेवाली है ॥ २२ ॥ माष आदि के गुण। भाषाः पिच्छिलशीतलातिमधुरा वृष्यास्तथा बृंहणाः । पाके गौरवकारिणः कफकृतः पित्तामृगाक्षेपणाः । नित्यं भिन्नपुरीपमूत्रपवनाः श्रेष्ठास्सदा शोषिणां । साक्षात्केवलवातलाः कफमया राजादिमाषास्तु ते ॥ २३॥ . भावार्थः-उडद लिबलिवाहट होते हैं; शीतल व अति मधुर होते हैं; वाजिकरण करनेवाले व शरीरकी वृद्धि के लिये कारण हैं । पचनमें भारी हैं । कफको उत्पन्न करनेवाले हैं रक्तपित्त को रोकनेवाले हैं । नित्य ही मल मूत्र व वायु को बाहर निकाल ने वाले हैं और क्षयरोगियोंके लिये हितकर है । राजमाष [ रमास ] केवल वात और कफके उत्पादक है ॥ २३ ॥ अरहर आदि के गुण। आढक्यः कफपित्तयोहिततमाः किंचिन्मरुत्कोपनाः । मुद्दास्तत्सदृशास्तथा ज्वरहरा सर्वातिसार हिताः। मुपस्तेषु विशेषतो हितकरः प्रोक्ता मसूरा हिमाः । सर्वेषां प्रकृतिस्वदेशसमयव्याधिकमायोजनं ॥ २४ ॥ भावार्थ:--अडहर [तूबर ] धान्य कफ और पित्तके लिये हितकारक हैं, और जरा वातप्रकोप करनेवाला है। मूंग भी उसी प्रकारके गुणसे युक्त है। एवं ज्वरको नाश करने वाला है । सर्व अतिसार ( अतिसार रोग दस्तोंकी बीमारीको कहते हैं ) रोगमें हितकर है । इनके दाल, ज्वर, आतिसार में विशेषतः हितकर है । मसूरका गुण ठण्डा है । इस प्रकार सर्व मनुष्योंकी प्रकृति, देश, काल, रोग इत्यादि की अच्छीतरह जांचकर उसीके अनुकूल धान्यका प्रयोग करना चाहिये ।। २४ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यादिगुणागुणविचार | तिल आदिके गुण | उष्णा व्याकपायतिक्तमधुरास्सांग्राहिका दीपनाः । पाके तलघवस्तिला व्रणगतास्संशोधना रोपणाः ॥ गोधूमास्तिवाश्च शिशिरा बाल्यातिवृष्यास्तु ते ॥ तेषां दोषगुणान्विचार्य विधिना भोज्यास्सदा देहिनाम् || २५ || भावार्थ:- -तिल उष्ण होता है । कपाय और मीठा है, द्रवस्रावको स्तंभन करनेवाला है। अग्निको दीपन करनेवाला है । पचनमें हल्का है । फोडा वगैरहको शोधन करनेवाला और उन को भरनेवाला है। गेहूं और जो भी तिल सदृश हो हैं अपितु वे ठण्डे हैं और कच्चे हों तो शक्तिवर्द्धक और पौष्टिक हैं । इस प्रकार इन धान्योंका गुण दोषको विचारकर प्राणियोंको उनका व्यवहार करना चाहिये । अन्यथा अपाय होता है ॥ २५ ॥ वर्जनीय धान्य | यच्चात्यंतविशीर्णजीर्णमुषितं कीटामयाद्याहतं । यच्चारण्यकुदेश जातमनृतौ यच्चाल्पपकं नवं । यच्चापथ्यम सात्म्यमुत्कुणपभूभाग समुद्धृतमित्येतद्धान्यमनुत्तमं परिहरेन्नित्यं मुनींद्वैस्सदा ॥ २६ ॥ भावार्थ: जो धान्य अत्यंत विशीर्ण होगया हो अर्थात् सडाहुआ या जिसमें झुर्रियां लगी हुई हों, बहुत पुराना हो, जला हुआ हो, कीटरोग लग जाने से खराब होगया हो जो जंगल के खराब जमीन में उत्पन्न हो, अकालमें जिसकी उत्पत्ति होगई हो, जो अच्छीतरह नहीं पका हो जो बिलकुल ही नया हो, जो शरीर के लिये अहितकर हों, प्रकृतिके लिये अनुकूल न हों अर्थात् विरुद्ध हों, स्मशानभूमिमें उत्पन्न हों, ऐसे धान्य खराब हैं । शरीरको अहित करनेवाले हैं अतएव निंद्य हैं । मुनीश्वरोंकी आज्ञा है कि ऐसे धान्यको सदा छोडना चाहिये ॥ २६ ॥ शाक वर्णन प्रतिज्ञा ( मूल शाक गुण ) प्रोक्ता धान्यगुणागुणाविधियुताश्शाकेष्वयं प्रक्रम- । स्तेषां मूलतएव साधु फलपर्यंतं विधास्यामहे || ( ५९ ) मूलान्यत्र मृणालमूलकलसत्प्रख्यातनालीदला- । श्वान्ये चालुकयुक्तपिण्डमधुगंग हस्तिशूकादयः ॥ २७ ॥ १ मधुगंगा अनेक को में देखने पर भी इसका उल्लेख नहीं मिलता । अतः इस के स्थान में मधुकं - द ऐसा होवें तो ठीक मालूम होता हैं. ऐसा करने पर, आलुका भेद यह अर्थ होता हैं । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) कल्याणकारके __ भावार्थ- इस प्रकार यथाविधि धान्यके गुण को कहा है । अब शाक पदार्थोके गुणनिरूपण करेंगे । शाकोंके निरूपणमें उनके मूलसे ( जड ) लेकर फलपर्यंत वर्णन करेंगे । कमलकी मूली, नाडीका शाक और भी अन्य आलु व तत्सदृशकंद, मधुगंगा हस्तिकंद [ स्वनामसे प्रसिद्ध कोकण देशमें मिलनेवाला कंद विशेप । उसका गिरिवासः नागाश्रयः कुष्ठहता नागकंद आदि र्थाय हैं ] शूकरकदं ( वाराहीकंद ) आदि मूल कहलाते हैं ॥ २७ ॥ शालूक आदि कंदशाकगुण । शालकोरुकशेरुकोत्पलगणः प्रस्पष्टनालीविदा-। र्यादीनि श्वविपाककालगुरुकाण्येतानि शीतान्यपि ॥ लष्मोद्रेककराणि साधुमधुराण्युद्रिक्तपित्तामजि । प्रस्तुत्यानि बहिर्विसष्टमलमूत्राण्य क्तशुक्राणिच ॥ २८ ॥ भावार्थ:-कमलकंद, कशेरु, नीलोत्पल आदि, जो कमल के भेद हैं उनके जड, नाडी शाक का कंद, विदारीकंद, एवं दूसरे दिन पकने योग्य कंद, आदि कंदशाक पचनमें भारी हैं । शीत स्वभावी हैं । कफोद्रेक करनेवाले हैं। अच्छे व मोठे होते हैं । रक्त पित्तको जीतने वाले हैं । मल, मूत्र शरीर से बाहर निकालने में सहायक हैं और शुक्रकर हैं ॥ २८ ॥ अरण्यालु आदि कंदशक गुण । आरण्यालुलराटिकामुरटिका भूशर्करामाणकी। बिंदुव्याप्तसुकुण्डलीनमलिकाप्यार्थोऽनिलघ्न्यम्लिका ॥ श्वेताम्ली मुशली वराहकणिकाभहस्तिकण्योदयो । मृष्टाः पुष्टिकरा विपप्रशमना वातामयेभ्यो हिताः ॥ २९ ॥ भावार्थ:-----जंगली आलु, कमलकंद ( कमोदनी) मुरटिका ( कंद विशेष ) भूशर्करा ( सकर कंद व तत्सदृश अन्य कंद) मानकंद, कुण्डली, नमलिका, जमीकंद [ सूरण ] लहसन, अम्लिको श्वेताम्ली मूसलीकंद, वाराहीकंद ( गेठी ) कणिके, भूकर्णी हस्तिकणी आदि कंद स्वादिष्ट पुष्टिकर व विषको शमन करनेवाले होते हैं । एवं वातज रोगोंके लिए हितकर हैं ॥ २९ ॥ १ गुडूच्यां, सर्पिणी वृक्षे, कांचनारवृक्ष, कपिकच्छौ, कुमायाँ । २ अम्लनालिकायां । ३ पीठोंडीति प्रसिद्धवृक्ष विशेषे पर्याय-अम्लिका पिष्टोडी, पिण्डिका, आदि । ४ अग्निमंथवृक्षे । ५ स्वनामल्यात कदंविशेष, इस का पर्याय-हस्त्तिकर्ण, हस्तिपत्र, स्यूलकद अतिकद आदि । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यादिगुणागुणविचार | वंशाग्र आदि अंकुरशाकगुण । वंशाग्राणि शतावरीशशशिरावेत्राग्रवज्रीलता । शेवालीवरकाकनाससहिताः माकुराः सर्वदा ॥ शीताः श्लेष्मकरातिवृष्यगुरुकाः पित्तमशांतिप्रदाः । रक्तोष्मापहरा वर्गितमलाः किंचिन्मरुत्कोपनाः || ३० ॥ I भावार्थ:-वांत, शतावर, गुर्च, बेंत, हडजुडी, सूक्ष्म जटामांसी, काकनासा [ कडआटोंटी ] मारिषशाक [ मरसा ] आदिके कोपल शीत हैं कफोत्पादक हैं । कामोदीपक हैं । पचन में भारी हैं पित्त शमन करने वाले हैं । रक्तके गर्मीको दूर करनेवाले हैं मल को साफ करनेवाले हैं साथ में जरा बातको कोपन करने वाले हैं ॥ ३० ॥ जीवंती आदि शाकगुण ( ६१ ) जीवंती तरुणी बृहच्छगलिका वृक्षादनी पंजिका । चुचुः कुन्डलता च विवसहिताः सांग्राहिका वातलाः । वाष्पोत्पादकपालकद्वयवहा जीवंतिका श्लेष्मला । चिल्लीवास्तुकतण्डुलीयकयुताः पित्ते हिता निर्मलाः ॥ ३१ ॥ भावार्थ:- जीवतीलता धीकुवार विधारा, वांदा, मंजिका, कुंदलता चंचुं (चेवुना) कुंदुरु ये मलको बांधने वाले और बातोपादक हैं । मरसा, दो प्रकार के पालक, वडा, जीवंती इतने शाक कफ प्रकोप करने वाले हैं । चिल्ली बथुआ, चौलाई, ये पित्त में हितकर है ॥ ३१ ॥ I शार्केष्ट्रादि शाकगुण शांfिष्टा सपटोलपानिकचरी काकादिमाचीलता । मण्डूक्या सह सप्ताद्रवणिका छिन्नोद्भवा पुत्रिणी । निवाद्यः सकिराततिक्तझरसी श्वेता पुनर्भूस्सदा । पित्तश्लेष्म हराः क्रिमिप्रशमनास्त्वग्दोषनिर्मूलनाः ॥ ३२ ॥ भावार्थ:-- बडीकरंज परवल, जलकाचरी, मकोय मालकांगनी, ब्राह्मी, सातला, ( थूहर का भेद ) द्रवणिका, गुडूचि, पुत्रिणी ( बंदा बदां ) नीम, चिरायता चीनी अथवा केनावृक्ष, सफेद पुनर्नवा, आदि पित्त और कफ का दूर करने वाले हैं, क्रिमिरोग को, उपशमन करने वाले हैं, एवं चर्मगत रोगोंको दूर करने वाले हैं ॥ ३२ ॥ १ खनामख्यात पुष्पवृक्षे । २ पर्याय- चिंचा चचु चेंचुकी दीर्घपत्रा सतिक्तक आदि । ३ गंवरास्नायां । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके गुह्याक्षी आदि पत्र शाकगुण गुह्याक्षी सकुसुंभ शाकलवीराज्याजिगंधादयो । गौराम्लाम्रदलाखलाकुलहला गंडीरवेगुण्डिकाः। शिग्रजीरशतादिपुष्पसुरसा धान्यं फणी सार्जकाः । कासघ्नी क्षवकादयः कफहरास्सोष्णाः सवाते हिताः ॥३३॥ भावार्थ:-गुत्याक्षी, कुसुम्भ, शेगुनवृक्ष, सीताफल का वृक्ष, राई, अजमोद, सफेदसरसों इमली आम के पत्ते, झ्यामतमाल, कुलाहल, गण्डरिनामकशाक, कंदूरी, सेंजन, जीरा, सोफ, सोआ धनिया, फणीवृक्ष, रालवृक्ष, कटेरी. चिरचिरा आदि कफको नाश करनेवाले हैं उष्ण हैं एवं वातरोग में हितकारी हैं ॥ ३३ ॥ बंधूक आदि पत्राशाकों के गुण । बंधूक। भृगुशोलिफेनदलिता वेण्याखुकाढकी। वधापीतमधुस्रवादितरलीकावंशिनी पडगुणा । मत्स्याक्षीचणकादि पत्रसहिता शाकमणीता गुणाः । पित्तघ्नाः कफवर्द्धना बलकराः रक्तामयभ्या हिताः ॥ ३४॥ भावार्थः ---दुपहरिया का वृक्ष, भृगु वृक्ष, वनहलदी, रीठा, दलिता, पीत देवदोली, मूसांकर्णी, अरहर कचूर, कुसुमके वृक्ष, तरलीवृक्ष, त्या एक प्रकारका कांटेदारवृक्ष ) बंशिनी, मछीचना इत्यादि कों के पत्तों में इन शाकोंमें उक्त गुण मौजूद हैं। एवं पित्त को नाश करनेवाले हैं कफको बढानेवाले हैं, बल देनेवाले हैं। एवं रक्तज व्याधि पीडितों के लिये हितकर हैं ॥ ३४ ॥ शिआदिपुष्पशाकों गुण । शिग्वारग्वधशेलुशाल्मालशमीशालकसत्तित्रिणी । कन्यागस्त्यसणप्रतीतवरणारिष्टादिपुष्पाण्यपि । वातमकराणि पित्तरुधिरे शांतिप्रदान्यादरात् । कुक्षौ ये क्रिमयो भवंति नितरां तान् पातयंति स्फुटं ॥ ३५ ॥ भावार्थ:---सैंजन अमलतास, लिसोडा, सेमल, छौंकरा कमलकंदादि, तितिडीक बडी इलायची अथवा वाराही कंद, अगस्त्य वृक्ष, सन, वरना, नीम इत्यादि के पुष्प वात १ क्षुदवृक्षविशेषे, गोरक्षमुण्डीक्षुपे । २ समष्ठीलावृक्ष, किसी भाषा में शुण्डिग्नाशाक कहते हैं ३ मरुवकाक्षे. ( भरुआवृक्ष ) क्षुदतुलस्यां । ४. बग्वापाटमधुस्रवाटितरलीकावंसती सण्णिगुडा । इति पाठातरं ॥ ५ मेप्यां च । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यादिगुणागुणविचार। (६३) कफको उत्पन्न करनेवाले हैं। पित्त, रक्त को शांतिदायक हैं अर्थात् शमन करनेवाले हैं । एवं पेट में जो कृमि उत्पन्न होते हैं उनको गिरा देते हैं ॥ ३५ ॥ पंचलवणगिण का गुण कुक्कुट्या समसूरपत्रलवणी युग्ममणी राष्ट्रिका । पंचैते लवणीगणा जलनिधेस्तीरं सदा संश्रिताः । वातघ्नाः कफपित्तरक्तजननाश्शोषावहा दुजेरा। अश्मर्यादिविभेदनाः पटुतरा मूत्राभिषंगे हिताः ॥ ३६ ॥ • भावार्थ-शाल्मलीवृक्ष, मसूर, कचनारका पेड, दाडिमकावृक्ष, और कटाईका पेड ये पांच लवणीवृक्ष कहलाते हैं । ये वृक्ष समुद्रके किनारे रहते हैं । ये वातको दूर करनेवाले होते हैं कफ, पित्त और रक्तको उत्पन्न करते हैं । शरीरमें शोषोःपादक हैं। व कठिनतासे पचने योग्य हैं । पथरी रोग [ मूत्रगतरोग ] आदिको दूर करनेवाले हैं। मूत्रगत दोषोंको दमन करनेके लिये विशेषतः हितकर हैं ॥ ३६ ॥ पंचबृहती गणका गुण व्याघ्री चित्रलता बृहत्यमलिनादर्कोप्यधोमानिनी। त्येताः पंचबृहत्य इत्यनुमताः श्लेष्मामयेभ्यो हिताः ॥ कुष्ठघ्नाः क्रिमिनाशना विषहराः पथ्या ज्वरे सर्वदा । वार्ताकः क्रिमिसंभवः कफकरो मृष्टोतिवृष्यस्तथा ॥ ३७॥ भावार्थ-----कटेहरी, मजीठ अधोमानिनी वडी कटेली सफेद आक ये पांच बृहती कहलाते हैं, कफसे उत्पन्न बीमारियोंकेलिये हितकर हैं, कोढको दूर करनेवाले हैं, पेटकी क्रिमियोंको नाश करनेवाले हैं। ज्वरमें सदा हितकर हैं । बडी कटेली अथवा बेंगन कफ और क्रिमिरोगको उत्पन्न करनेवाले है । स्वादिष्ट और कामोद्दीपक है ॥३७॥ पंचवल्ली गुण तिक्ता बिंबलताच या कटुकिका मार्जारपाती पटीलात्यंतोत्तमकारवेल्लिसहिता पंचैव बल्य स्मृताः ॥ पित्तघ्नाः कफनाशनाः क्रिमिहराः कुष्ठे हिता वातलाः कासश्वासविषज्वरप्रशमना रक्ते च पथ्यास्सदा ।। ३८ ॥ . १ यस शद्वका अर्थ प्रायः नहीं मिलता है । मानिनी, इतना ही हो तो फूल प्रियंगु ऐसा अर्थ होता है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) कल्याणकारके भावार्थ:-कडुआ कुंदुरीका बेल, कडुआ तुम्बीका का बेल, मार्जारपादी [लता विशेष ] का बेल, (कडुआ) परवल का वेल. करेला का वेल, ये लतायें पंच वल्ली कहलानी हैं । कडु आलुका वेल ये पित्तको दूर करनेवाले हैं । कफको नाश करने वाले हैं । क्रिमिको नाश करनेवाले हैं। कुष्ठरोग के लिए हितकर हैं। कास श्वास [दमा] विषज्वरको शमन करनेवाले हैं । रक्तमें भी हितकर हैं अर्थात् रक्त शुद्धिके कारण हैं ॥३८॥ गृध्रादिवृक्षज फलशाकगुण । गृध्रापाटलपाटलीद्रुमफलान्यारेवतीनेत्रयोः । कर्कोट्यामुशलीफलं वरणकं पिण्डीतकस्यापि च ॥ रूक्षस्वादुहिमानि पित्तकफनिर्णाशानि पाके गुरू-। ण्येतान्याश्वनिलावहान्यतितरां शीघ्रं विषघ्नानि च ॥ ३९॥ भावार्थ:-काकादनी, आशुधान, पाडल नेत्र ( वृक्षविशेष ) ककोडा, मुसली, वरना वृक्ष, पिण्डीतक, ( मदन वृक्ष-तुलसी भेद ) अमलतास इनके फल रूक्ष होते हैं मधुर होते हैं । ठण्डे होते हैं पित्त और कफको दूर करनेवाले होते हैं । पचनमें गुरू हैं शीघ्र ही वात को बढ़ाने वाले और विषको नाश करते हैं ॥ ३९ ॥ पीलू आदि मूलशाक गुण पीलूष्माकशिग्रमललशुनप्रोद्यत्पलाडूंपणा-। द्येलाग्रंथिकपिप्पलीकुलहलान्युष्णानि तीक्ष्णान्यपि । शाकेषक्तकरीरमप्यतितरां श्लष्मानिलघ्नान्यमू न्यग्नेर्दीपनकारणानि सततं रक्तप्रकोपानि च ॥ ४०॥ भावार्थ:-पीलुनामक वृक्ष अदरख, सेजिनियाका जड, लहसन, प्याज कालीमि रच इलायजी पीपलमूल कुलहल नामक क्षुद्रवृक्षविशेष, ये सर्व शाक उष्ण हैं। और तीक्ष्ण हैं । एवं शाकमें कहा हुआ करील भी इसी प्रकारका है । ये सब विशेषतया कफ और वायुको दूर करनेवाले हैं । उदरमें अग्निदीपन करनेवाले हैं । एवं सदा रक्तविकार करनेवाले हैं ॥ ४० ॥ आम्रादि अम्लफल शाकगुण कूष्मांडत्रपुषोरुपुष्पफलिनी कारुकोशातकी। तुंबीबिंबलताफलप्रभृतयो मृष्टाः सुपुष्टिप्रदा ॥ श्लेष्मोद्रेककरास्सुशीतलगुणा पितेऽतिरक्ते हिताः । किंचिद्वातकरा बहिर्गतमलाः पथ्यातिवृष्यास्तथा ॥ ४१॥ १ पुन्नागवृक्षे रोहिष तृणे. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यादिगुणागुणविचार (६५) भावार्थ-काशी फल, (पीला कडू) खीरा पेठा ( सकेदकदू ) तुरई लौकी, कंदूरी (कुंदर ) आदि लता से उत्पन्न ( लताफल ) फल स्वादिष्ट और शरीरको पुष्ट करनेवाले होते हैं । कफको उद्रेक करते हैं और ठण्डे हैं। पित्त और रक्तज व्याधियोंमें अत्यंत हितकर है । थोडा वातको उत्पन्न करनेवाले हैं और मल साफ करनेवाले हैं। शरीरके लिये हितकर व कामोद्दीपक है ॥ ४१ ॥ . आम्रादि अम्लफल शाकगुण । आम्राम्रातकमातुलंगलकुचप्राचीनसत्तित्रिणी- । कोद्यदाडिमकोलचव्यवदरीकर्कदुपारावताः ॥ प्रस्तुत्यामलकप्रियालकरबंदीवेत्रजीवाम्रको- । वारुपोक्तकुशांब्रचिर्भटकपित्थादीन्यथान्यान्यापि ॥४२॥ नारंगद्वयकर्मरंगविलसत्प्रख्यातवृक्षोभ्दवा- । न्यत्यम्लानि फलानि वातशमनान्युद्रिकक्तरक्तान्यपि ॥ पित्तश्लेष्मकराणि पाकगुरुकस्निग्धानि लालाकरा ण्यंतर्बाह्यमलातिशोधनकराण्यत्यंततीक्षणानिच ॥ ४३ ॥ भावार्थ:-आम, अम्बाडा, बिजौरा लिंबू , बडहर, पुरानी तिंतिडीक, अनार, छोटीबेर चव्य ( चाव ) बडीवेर, झडिया बेर, फालसा, आंवला, चिरोंजी, करवंदी (1) वेत, जीव आम्रक ककडी (खट्टी ) कुशाम्र कचरिया कथ, और इस प्रकार के अन्यान्य अम्ल फल, एवं, नारंगी, निंबू कमरख आदि, जगत्प्रसिद्ध वृक्षोसे उत्पन्न, अत्यंत खट्टे फल, वात को शमन करते हैं । रक्त को प्रकुपित करते हैं । पित्त कफ को पैदा करते हैं। पाक में गुरु है, स्निग्ध है लारको ( यूंक ) उत्पन्न करते हैं । भीतर बाहर के दोनों प्रकारके मल को शोधन करनेवाले हैं और तीक्ष्ण हैं ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ बिल्वादिफलशाकगुण । बिल्वाश्मंतकशैलबिल्वकरवीगांगरुकक्षीरिणाम । जंबूतोरणतिदुकातिवकुला राजादनं चंदनम् ॥ क्षुद्रारुष्करसत्परूपकुतुलक्यादिद्रुमाणां फलान्यत्यंतं मलसंग्रहाणि शिशिराण्युक्तानि पित्ते कफे ॥ ४४ ॥ १ क्षुद्र फलवृक्ष विशेष जीवत्यां, जीवके २ आमरस, ३ यह शब्द प्रायः कोशोभे नहीं दीख पडता है । इस के स्थान में " कोशाग्र " ऐसा हो तो छोटा अाम, और " कुशाच" ऐसा हो तो च क यह अर्थ होता है । ४ गोरक्षकर्कटी। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) कल्याणकारके भावार्थ:- -बेल, पाषाणभेद, पहाडीबेल, अजवायन, गंगेरन क्षीरीवृक्ष ( बड, गूलर पीपल पाखर, फारस, पीपल) जानून, तोरणं, (!) तेंदू, मोलसिरी, खिरनी, चंदन कटेली, भिलावा, फालसा, तुलकी ( ! ) इत्यादि वृक्षों के फल, मल को बांधने वाले हैं । शीत हैं और पित्त, कफोत्पन्नव्याधियों में हितकार हैं ॥ ४४ ॥ द्राक्षादिक्षफलशाकगुण । द्राक्षामोचमधूककाश्मरिलसत्खर्जूरिशृंगाटक | प्रस्पष्टोज्वलनालिकेरपनसप्रख्यात हिंताल सत्तालादिद्रुमजानिकानि गुरुकाण्युदृप्तशुक्र कराण्यत्यंतं कफवर्द्धनानि सहसा तालं फलं पित्तकृत् ॥ ४५ ॥ भावार्थ:- - अंगूर केला, महुआ कुम्भेर सिंघाडे, नारियल, पनस ( कटहर ) हिंतल ( तालवृक्षका एकभेद ) आदि इन वृक्षोंसे उत्पन्न फल पचनमें गुरु हैं । शुक्रको करने वाले हैं । एवं अत्यंत कफवृद्धिके कारण हैं । तालफल शीघ्र ही पित्तको उत्पन्न करनेवाला है ॥ ४५ ॥ तालादिशाकगुण | तालादिद्रुमकेतकीप्रभृतिषु लक्ष्मापहं मस्तकं । स्थूणीकं तिलकल्कमप्यभिहितं पिण्याकशाकानि च । शुष्काण्यत्र कफापहान्यनुदिनं रूक्षाणि वृक्षोद्भवान्यस्थीनि प्रबलानि तानि सततं सांग्राहिकाणि स्फुटं ॥ ४६ ॥ भावार्थ:- -ताड, केतकी ( केवडा ) नारियल आदि, वृक्षोंके मस्तक ( ऊपरका ) भाग एवं स्थूणीक ( ! ) तिल का कल्क, मालकांगनी आदि शाक कफको नाश करने वाले हैं । इस वृक्षोंते उत्पन्न, शुष्कबीज भी कफनाशक हैं, रूक्ष हैं, अत्यंत वात को उत्पन्न करने वाले हैं एवं हमेशा शरीर के द्रवस्राव को सुखाने वाले हैं ॥ ४६ ॥ - उपसंहार । शाकान्येतानि साक्षादनुगुणसहितान्यत्रलोकप्रतीतान्युक्तान्यस्माद्द्वाणां प्रवचनमिहसंक्षेपतस्संविधानैः । अत्रादौ तोयमेव प्रकटयितुमतः प्रक्रमः प्राणिनां हि । प्राण बाह्यं द्रवाणामपि परममहाकारणं स्वप्रधानम् ॥ ४७ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धान्यादिगुणागुणविचार भावार्थ::- - इस प्रकार लोकमें प्रसिद्ध, शाकों के इस परिच्छेद में साक्षात् कर चुके हैं । अब यहां से आगे, संक्षेप से, द्रवपदार्थों का वर्णन करेंगे । इन द्रवद्रव्यों में से का वर्णन प्रारम्भ किया जायगा । कयों कि प्राणियों के लिये दूध आदि अन्य द्रव पदार्थों की उत्पत्ति में भी जल ही प्रधान द्रव पदार्थों में जल ही प्रधान है ॥ ४७ ॥ अत्यमंगल । इति जिनवक्त्र निर्गत सुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः || उभयभवार्थसाधन तटद्वयभासुरतो । निस्सृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ:- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिये प्रयोजनीभूत सावनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ४८॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके स्वास्थ्यरक्षाणाधिकारे धान्यादिगुणागुणविचारो नाम चतुर्थः परिच्छेदः । 10:1 इयुग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के स्वास्थ्यरक्षणाधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधित्रिभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखितभावार्थदीपिका टीका में धान्यादिगुणागुणविचार नामक चौथा परिच्छेद समाप्त हुआ । - ***-- -जीवनं तर्पणं हृद्यं इति ग्रंथांतरे । (६७) वर्णन, उन के गुणों के साथ : अर्थात् अगले परिच्छेद में भी सब से पहिले जल जेल ही बाह्य प्राण है और कारण है । इसलिये सर्व FILTER Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) कल्याणकारके अथ पंचमपरिच्छेदः। द्रवद्रव्याधिकार । मंगलाचरण । अथ जिनमुनिनाथं द्रव्यतत्वप्रवीणं । सकलविमलसम्यग्ज्ञाननेवं त्रिणेत्रम् ॥ अनुदिनमभिवंद्य प्रोच्यते तोयभेदः । क्षितिजलपवनाग्न्याकाशभृमिप्रदेशैः ॥१॥ भावार्थ:-अब हम जिन और मुनियोंके स्वामी द्रव्यस्वरूपके निरूपण करने में कुशल, निर्मल केवलज्ञानरूपी नेत्रसे युक्त, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपी तीन नेत्रोंसे सुशोभित, भगवान् अर्हत्परमेष्ठीको नमस्कार कर, पृथ्वी जल वायु अग्नि आकाश मुणयुक्त भूमिप्रदेश के लक्षण के साथ, तत्तभूमि में उत्पन्न जलका विवेचन करेंगे ऐसा श्री आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥१॥ रसों की व्यक्तता कैसे हो ? अभिहितवरभूतान्योन्यसर्वप्रवेशेऽप्यधिकतरवशेनैवात्रतोयैः रसस्स्यात् ॥ प्रभवतु भुवि सर्व सर्वथान्योन्यरूपं । निजगुणरचनेयं गौणमख्यप्रभेदात् ॥ २ ॥ भावार्थ-पृथ्वी, अप, तेज वायु आकाश ये पांच भूत, प्रत्येक, पदार्थों में मधुरादि रसों की व्यक्तता व उत्पत्ति के लिये कारण हैं । उपर्युक्त पंच महाभूतोंके अन्योन्यप्रवेश होनेसे यदि उसमें जलका अंश अधिक हो तो वह द्रवरूपमें परिणत होता है । इसीतरह पानीमें भी रसके व्यक्त करने के लिये वे ही भूत कारण हैं। लेकिन शंका यह उपस्थित होती है कि, जब जल में ये पांचों भूत एकसाथ अन्योन्यप्रवेशी होकर रहते हैं, तो मधुर आदि खास २ रसोंकी तक्तता कैसे हों? क्यों कि एक २ भूतसे एक २ रस की उत्पत्ति होती है । इस का उत्तर आचार्य देते हैं कि, जिस जलमें जिस भूतका आधिकांशसे विद्यमान हो, उस भूत के अनुकूल रस व्यक्त होता है । इसी प्रकार संसारमें जितने भी पदार्थ हैं उन सब में पांचों भूतों के समावेश होते हुए भी, गौण मुख्य भेदसे अपनी विशिष्ट २ गुणों की रचना होती है ॥२॥ . Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नपानविधिः अथ जलवर्गः । पृथ्वीगुणबाहुल्य भूमिका लक्षण व वहांका जलस्वरूप । स्थिरतरगुरुकृष्णश्यामला खोपलाढ्या । बृहदुरुतृणवृक्षा स्थूलसस्यावनी स्यात् ॥ क्षितिगुणबहुलात्तत्राम्लतामेति तोयं । लवणमपि च भूमौ क्षेत्ररूपं च सर्वे ॥ ३ ॥ भावार्थ:- जो भूमि अत्यंत कठिन व भारी हो, जिसका वर्ण, काला व श्याम हो, जहां अधिक पत्थर, अधिक बडे २ तृण वृक्ष और स्थूल सस्यों से युक्त हो तो उस भूमि को, अत्यधिक पृथ्वी गुण युक्त समझना चाहिये। वहां का जल, पृथ्वीगुण के बाहुल्य से, खट्टा व खारा स्वादवाला होता है । क्यों कि जिस भूमि का गुण जैसा होता है तदनुकूल ही सभी पदार्थ होते हैं ॥ ३ ॥ जलगुणाधिक्य भूमि एव वहांका जलस्वरूप । शिशिरगुणसमेता संततो यातिशुक्ला । मृदुतरतृणवृक्षा स्निग्धसस्या रसाच्या ॥ जलगुणबहुतेय भूस्ततः शुक्लमंभो । मधुररससमेतं मृष्टमिष्टं मनोज्ञम् ॥ ४ ॥ भावार्थ:- जो भूमि शीतगुणसे युक्त है, सफेदवर्णवाली है, कोमल तृण व वृक्षों से संयुक्त है तथा स्निग्ध, और रसीले सस्य सहित हैं, वह जलगुण अधिकवाली भूमि है। वहां का जल सफेद, स्वच्छ, मधुररससंयुक्त, [ इसलिये ] स्वादिष्ट, और मनोज्ञ होता है ॥ ४ ॥ वाताधिक्य भूमि एवं हां का जलस्वरूप । परुषविषमरूक्षायकापांतवर्णा । (६९) विरसतृणकुसस्या कोटरप्रायवृक्षा || पवनगुणमयी स्यात्सा मही तत्र तोयं । कटुक खलु कषायं धूम्रवर्णं हि रूपम् ॥ ५ ॥ भावार्थ:- जहांकी भूमि कठिन हो, ऊंचीनीची विषम रूपसे स्थित हो, रुक्ष हो भूरे वर्णकी हो, कबूतरी रंगकी हो, और जहांके तृण प्रायः रसरहित हों, कुसम्यसे युक्त Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके हो एवं वृक्ष प्रायः कोटरोंसे युक्त हों वह भूमि अधिक वायूगुणवाली है । ऐसी भूमिमें उत्पन्न होनेवाला जल कडुवा होता है कषायाला होता है, उसका वर्ण धूंचा जैसा होता है ॥५॥ अग्निगुणाधिक्यभूमि एवं वहांका जलस्वरूप | बहुविवणीत्यंतधातूष्णयुक्ता । विमलतृणसस्या स्वल्पपाण्डुमरोहा || दहनगुणधरेयं धारिणी तोयमस्यां । कटुकमपिच तिक्तं भासुरं धूसरा ॥ ६ ॥ भावार्थ:- जो बहुत प्रकार के श्रेष्ट वर्ण, व उष्ण धातूओंसे संयुक्त, निर्मल तृण व सस्यसहित हो और जहां थोडा सफेद अंकुर हों ऐसी भूमि, अग्नि गुणसे युक्त होती है । ऐसी भूमिमें उत्पन्न जल कटु ( चिरंपरा ) व कडुआ रसवाला होता है तथा उसका वर्ण, भासुर वधूसर है || ६ ॥ (७०) आकाशगुणयुक्त भूमि एवं वहा का जलस्वरूप | समतलमृदुभागाश्वभ्रमत्यनुदामा । विरलसरलसज्जमांशुवृक्षाभिरामा ॥ वियदमलगुणाढ्या भूरिहाय्यं सर्वं । व्यपगतरसवर्णोपेतमेतत्प्रधानम् ॥ ७ ॥ भावार्थ:-- जो भूमि, समतल वाली हो, अर्थात् ऊंची नीची न हो, मृदु हो छिद्र व खड्डे से युक्त न हो विरल रूपसे स्थित सरल, सान, आदि ऊंचे वृक्षों से सुशीभित हो, तो उस भूमि को श्रेष्ट आकाश के गुणों से युक्त जानना चाहिये । इस भूमि मैं उत्पन्न जल, विशेष ( खास ) वर्ण व रस से रहित है। यही प्रधान है । अत एव पीने योग्य है || ७ || पेयांपेय पानी के लक्षण । व्यपगतरसगंध स्वच्छमत्यंतशीतं । लघुतममतिमेध्यं पेयमेतद्धि तोयम् ॥ गिरिगहन कुदेशोत्पन्नपत्रादिजुष्टं । परिहृतमितिचोक्तं दोषजालैरुपेतम् ॥ ८ ॥ भावार्थ:- जिस जलमें रत और गंध नहीं है, स्वच्छ है एवं अत्यंत शीत है, हलका है बुद्धिप्रबोधक है वह पीने योग्य है । और बडे पहाड, जंगल खोटा स्थान, इत्यादिसे उत्पन्न व वृक्षके पत्ते इत्यादियोंसे युक्त जल दोषयुक्त है । उसे नहीं पीना चाहिये ॥ ८ ॥ १ बुद्धिप्रबोधनम् । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नपानविधिः । (७१) जलका स्पर्श व रूप दोष । खरतरमिह सोष्णं पिच्छिलं दंतचय । सुविदित जलसंस्थं स्पर्शदोपप्रसिद्धम् ।। बहलमलकलंकं शैवलात्यंत कृष्णं । भवति हि जलरूपे दोष एवं प्रतीतः ।। ९॥ भावार्थ-जो पानी द्रवीभूत न हो, उष्ण हो, दांतसे चाबनेमें आता हो, चिकना हो वह जल स्पर्श दोषसे दूषित समझना चाहिये । एवं अत्यंत मलसे कलंकित रहना, शेवालसे युक्त होनेसे काला होना यह जलके रूपमें दोष है ॥ ९॥ जलका, गंध, रस व वीर्यदोष । भवति हि जलदोषोऽनिष्टगंधस्सुगंधो । विदितरसविशेषोप्येष दोषो रसाख्यः ॥ यदुपहतमतीवामानशुलप्रसकान् । तृषमपिजनयेत्तत् वीर्यदोषभिपाकं ॥ १० ॥ भावार्थ-जलमें दुर्गंध रहना अथवा सुगंध रहना यह जलगत गंधदोष है । कोई विशेष रस रहना ( मालूम पडना ) यह जलगत रसदोष है। जिस जलको थोडा पीनेपर भी, आध्मान ( अफराना ) शूल, जुखाम आदि को पैदा करता है एवं प्यासको भी बढाता है, वह वीर्य दोष से युक्त जानना चाहिये ॥ १० ॥ जलका पाक दोष । यदपि न खलु पीतं पाकमायाति शीघ्रं । भवति च सहसा विष्टंभिपाकाख्य दोषः ॥ पुनरथकथितास्तु व्यापदः षड्विधास्सत् ।। प्रशमनमिह सम्यकथ्यते तोयवासः॥११॥ भावार्थ-जो जल पीने पर शीघ्र पचन नहीं होता है और सहसा, मलरोध होता है यह जलका पाक नामक दोष है । ऊपर जलमें जो २ छह प्रकारके दोष बतलाये गये उनको उपशमन करनेके जो उपाय हैं उनको अब यहांपर कहेंगे ॥११॥ जलशुद्धि विधान । कतकफलनिघृष्टं वातसीपिष्टयुक्तं । दहनमुखविपकं तालाहाभितप्तं ॥ दिनकरकरतप्तं चंद्रपादैनिशीथे । परिकलितमनेकैश्शोधितं गालितं तत् ॥ १२ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) कल्याणकारके जलजदललवंगोश रिसबंदनायै । हिमकरतुटिकुष्टप्रस्फुरन्नागपुष्पैः ॥ सुरभिवकुलजातीमल्लिका पाटलीभिः । सलवितलवलीनीलोत्पलैश्वोचचारैः ॥ १३ ॥ अभिनवसहकारैश्चंपकाद्यैरनेकै- । सुरुचिरवरगंधैर्मृत्कपालैस्तथान्यैः ॥ असनखदिरसारैर्वासितं तोयमेत- । च्छमयति सहसा संतापतृष्णादिदोषान् ॥ १४ ॥ भावार्थ - कतकफल ( निर्मली बीज ) व अतसीके आटा डालना, अग्निसे तपाना, तपे हुए लोहको बुझाकर गरम करना, सूर्यकिरण में रखना, रात्रिमें चान्दनीमें रखना आदि नाना प्रकार के उपायोंसे शोधन किया गया, तथा वस्त्र वगैरहसे छना हुआ, कमलपत्र, · लौंग, खश, चन्दन, कर्पूर छोटी इलायची, कूट, श्रेष्ट नागपुष्प (चंपा ) अत्यंत सुगंधि बकुल जाई, मल्लिकापुष्प, पाढन के फूल, जायफल, हरपारेवडी, नीलोपल, दालचीनि शरीभेद नवीन व अत्यंत सुगंधि युक्त आमका फूल, चम्पा आदि अनेक सुगंधि युक्त पुष्पोंसे, तथा मृत्कपाल, ( भृष्टखर्पर) विजयसार खैरसार आदिकोंसे, सुगंध किया गया जल, शीघ्र ही ताप, तृष्णा आदि दोषोंको शमन करता है ।। १२॥१३॥१४॥ वर्षाकाल मे भूमिस्थ, व आकाशजलके गुण । न भवति भुवि सर्वं स्नानपानादियोग्यं । विषमिव विषरूपं वार्षिकं भूतलस्थम् ॥ विविधविषम रोगाने हतुर्विशेषा । दमृतमिति पठन्त्येतत्तदाकाशतोयम् ॥ १५ ॥ भावार्थ:-- लोक में सभी पानी स्नान और पीने योग्य नहीं हुआ करते हैं, कोई विषके समान भी ( जल ) होते हैं । वर्षा ऋतु में भूतलस्थ जल, नाना प्रकार के विषम व्याधियों की उत्पत्ति के लिये कारण है । आकाशसे गिरता हुआ जो कि भूमि के स्पर्श करने के पहिले ही ग्रहण किया गया हो ऐसे पानी अमृत के समान है | ॥ १५ ॥ कथित जल गुण । कथितमथ च पेयं कोष्णमंभो यदैतव्यपगतमलफेनं शुद्धिमद्वा विशिष्टं ॥ श्वसनकसनमेदश्लेष्मवातामनाशं । ज्वरहरमपि चोक्तम् शोधनं दीपनं च ॥ १६ ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नपानविधिः ( ७३ ) भावार्थ: - यह वर्षाऋतुका गरम किया हुआ मंदोष्ण जल जिसमें झाग वगैरह न हो ऐसे निर्मल वा शुद्ध जलको पीना चाहिये । वह जल श्वासकांस, मेद, कफ, वात और आमको नाश करता है एवं ज्वरको भी दूर करनेवाला और मलशोधक, अग्निदीपन करनेवाला है ॥ १६ ॥ सिद्धान्नपानवर्गः । यवागू के गुण । पचति च खलु सर्व दीपनी बस्तिशुद्धिं । वितरति तृषि पथ्या वातनाशं करोति ॥ हरति च वरपित्तं श्लेष्मला चातिलघ्वी- । सततमपि यवागू मानुषन निषिद्धा ॥ १७ ॥ भावार्थ:- यवागू सर्व आहारको पचाती है । अग्निको दीपन करती है, ( मूत्राशय ) शुद्धि को करती है, प्यासमें पीने के लिये हितकर है, वातको नाश करती है, पित्तोद्रेकको भी नाश करता है । कफ को बढाती है अत्यंत लघु है । इसलिये यवागू मनुष्यों को हमेशा पीनेके लिये निषिद्ध नहीं हैं अर्थात् हमेशा पी सकते हैं। विशेष :- यवागू दाल आदि धान्योंकों को छह गुना जल डालकर उतना पकावें कि उस में विशेष द्रव न रह जाय लेकिन ज्यादा घन भी नहीं होना चाहिये । उसको यवागू कहते हैं । अन्यत्र कहा भी है । यवागू षड्गुणस्तोयैः संसिद्धा विरलद्रवा ॥ १७॥ मण्ड गुण | कफकरमतिवृष्यं पुष्टिकृन्मृष्टमेतत् । पवनरुधिरपित्तोन्मूलनं निर्मलंच ॥ बहलगुरुतराख्यं बल्यमत्यंतपथ्यं । क्रिमिजनन विषघ्नं मण्डेमाहुर्मुनींद्राः ॥ १८ ॥ भावार्थ::-माण्ड कफको वृद्धि करनेवाली है, अत्यंत पौष्टिक वृष्य ( कायको बढाने वाली है ) है, स्वादिष्ट है । वायुविकार व रक्तपित्त के विकार को दूर करने वाली है, निर्मल है । जो मण्ड गाढी है वह गुरु होती है । और शरीरको बल देनेवाली एवं हितकर है । क्रिमियोंको पैदा करती है विषको नाश करती है इस प्रकार मुनींद्र 1 मण्डका गुण दोष बतलाते हैं ॥ १८ ॥ १ कहा भी है- मण्डश्चतुर्दशगुणे सिद्धस्तोये त्वसिवथकः । १० Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) कल्याणकारके मुद्यू ष गुण । ज्वरहरमनिलाढ्यं रक्तपित्तप्रणाशं । वदति मुनिगणस्तन्मुद्गग्रूपं कफघ्नं ॥ पवनमीप निहंति स्नेहसंस्कारयुक्तं । शमयति तनुदाहं सर्वदोषप्रशस्तम् ॥ १९ ॥ भावार्थः-पूर्वाचार्य मुद्गयूषका गुण दोष कहते हैं कि वह ज्वरको दूर करने वाला है। वातवृद्धि करनेवाला है, रक्तपित्त और कफको दूर करनेवाला है । यदि वह संस्कृत हो अर्थात् घी, तेल आदिसे युक्त हो तो वायुको भी शमन करता है एवं शरीर दाहको शमन करता है, सर्व दोषोंके लिए उपशामक है ॥ १९ ॥ मुद्गयूष सेवन करने योग्य मनुष्य. व्यपहतमलदोषा ये व्रणक्षीणगात्रा । अधिकतर तृषार्ता ये च धर्मप्रतप्ताः ॥ ज्वलनमुखविदग्धा येऽतिसाराभिभूताः ।। श्रमयुतमनुजास्ते मुद्गयूषस्य योग्याः॥ २० ॥ भावार्थ:----जिन का मल व दोष, वमन आदि कर्मोद्वारा शरीर से निकाल दिया हो, व्रण के कारण जिन का शरीर क्षीण होगया हो, जो अत्यंत प्यासा हो, धूपसे जिनका शरीर तप्त हो, अग्नि के द्वारा दग्ध हो, अतिसार रोगसे पीडित हो, एवं जो थक गये हो ऐसे मनुष्य मुद्गयूष सेवन करने योग्य हैं अर्थात् ऐसे मनुष्य यदि मुद्गयूष सेवन करें तो हित हो सकता है ॥ २० ॥ दुग्धवर्ग। अष्टविधदुग्ध । करभमहिषगोविच्छागमृग्यश्वनारी-। पय इति बहुनाम्ना क्षीरमष्टप्रभेदम् ॥ विविधतरुतृणाख्यातौषधोत्पन्नवीय- । हितकरमिह सर्वप्राणिनां सर्वमेव ।।२१ ॥ १ द्विदल (मूंग मटर आदि) धान्यों को अठारह गुण जल डालकर सिद्ध किया गया दाल को यूष कहते हैं । कहा भी है-स्निग्ध पदार्थो यूष स्मृतो वैदलानामष्टादशगुणेऽम्भसि ।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नपान विधिः ( ७५) भावार्थ-ऊठनी, भैंस, गाय, मेंढी, बकरी, हरिणी, घोडी, और मनुष्य स्त्री, इमसे उत्पन्न लोकप्रसिद्ध दूध आठ प्रकारका है । वह, नानाप्रकारके वृक्ष, तृण, प्रसिद्ध औषधियों द्वारा उत्पन्न है विशिष्ट वीर्य जिसका, अर्थात् उपरोक्त दूध देने वाली प्राणियां नाना प्रकारके वनस्पतियोंको खाती हैं जिसमें प्रसिद्ध औषधि भी होती हैं, उनके परिपाक होनेपर, उन औषधियोंके वीर्य दूधमें आजाता है। इसलिये, सर्व प्राणियोंको सभी दूध हितकर होते हैं ॥ २१ ॥ दुग्धगुण । तदपि मधुरशीतं स्निग्धमत्यंतवृष्यं । रुधिरपवनतृष्णापित्तमूछातिसारं ॥ श्वसनकसनशोषोन्मादजीर्णज्वराति । भ्रममदविषमोदावर्तनिर्नाशनं ज ॥ २२ ॥ हितकरमतिबल्यं यो निरोगप्रशस्तं । . श्रमहरमतिगर्भस्रावसंस्थापनं च ।। निखिलहृदयरोगप्रोक्तबस्त्यामयानां । प्रशमनमिह गुल्मग्रंथिनिर्लोठनं च ॥ २३ ॥ धारोष्णदुग्ध गुण । श्रृतोष्णदुग्धगुण । अमृतमिव मनोज्ञं यच्च धारोष्णमेतत् । कफपवननिहंतप्रोक्तमेतच्छ्रितोष्णम् ।। शमयति बहुपित्तं पकशीतं ततोन्य-। द्विविधविषमदोषोद्धृतरागैकहेतुः ॥ २४ ॥ क्षीरं हितं श्रेष्ठरसायनं च । क्षीरं वपुर्वर्णबलावहं च ॥ क्षीरं हि चक्षुष्यमिदं नराणाम् । क्षीरं वयस्थापनमुत्तमं च ॥२५॥ श्रृतशीतदुग्धगुण क्षीरं हि संदीपनमद्वितीयं । क्षीरं हि जन्मप्रभृति प्रधानं ।। सोष्णं हि संशोधनमादरेण । संधानकृत्ततिशीतलं स्यात् ॥ २६ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) कल्याणकारके भावार्थः--ऊपर कहे गये आठ प्रकार के दूधोंका सामान्य रूपसे गुण दोष बतलाते हैं । वह मधुर है, शीत है चिकना है , कामवर्द्धक है अत्यंत रक्तदोष, वातविकार, तृष्णारोग, पित्त, मूर्छा, अतिसार, श्वास खांस दोष, उन्माद, जीर्णज्वर भ्रम, मद, विषम उदावर्त रोग को नाश करता है ॥ २२ ॥ दूध शरीरको हित करनेवाला है, अत्यंत बल देनेवाला है, योनिरोगोंकेलिये उपयुक्त है । थकावटको दूर करनेवाला एवं गर्भस्रावको रोकनेवाला है, संपूर्ण हृदयके रोगोंको शमन करनेवाला है । बस्ति ( मूत्राशय ) के रोगों को शमन करता है गुल्मग्रंथियों को दूर करनेवाला है । ॥ २३ ॥ यदि वह दूध धारोष्ण हो अर्थात् धार निकालते ही पानेके काममें आवे तो वह अमृतके समान है। यदि उसे फिर गरम करके पिया जाय तो कफ और वात विकारको दूर करनेवाला है। गरम करके ठण्डा किया हुआ दूध पित्तविकारको शमन करता है। बाकी अवस्थामें अनेक विषम रोगोंके उत्पन्न होनेकेलिये कारण है ॥२४॥ दूध शरीरकेलिये हित है एवं श्रेष्ठ रसायन है । दूध शरीरके वर्णकी वृद्धि करनेवाला एवं शरीरमें बलप्रदान करनेवाला है । दूध मनुष्योंकी आंख के लिये हितकर है । दूध पूर्णायुकी स्थितिकेलिये सहकारी है एवं उत्तम है ॥२५॥ क्षीर शरीरमें अग्निको दीपन ( तेज ) करनेवाला है, प्रत्येक प्राणीके लिये यह जन्म कालसे ही प्रधान आहार है, उसे यदि गरम ही पीवें तो मलकी शुद्धि करता है अर्थात् दस्त लाता है । गरम करके ठण्डा किया हुआ दूध मल आदि को बांधने वाला है ॥२६ दही के गुण। दध्युष्णमम्लं पवनप्रणाशी । श्लष्मापहं पित्तकरं विषघ्नं ॥ संदीपनं स्निग्धकरं विदाहि । विष्टंभि वृष्यं गुरुपाकमिष्टम् ॥ २७ ॥ भावार्थ:--दही उष्ण है, खट्टी है, वातविकार दूर करनेवाली है, कफको नाश करनेवाली है, पित्तोत्पदक है, विषको हरनेवाली है, अग्नितेज करनेवाली है । स्निग्ध कारक है, विदाहि है, मलावरोधकारक है, वृष्य ( कामोत्पादक ) है, देरमें पचनेवाला है ॥ २७॥ तक्रगुण। तकं लधूष्णाम्लकषायरूक्ष- । मग्निप्रदं श्लेष्मविनाशनं च । शुक्लं हि पित्तं मरुतः प्रकोपी ॥ संशोधनं मूत्रपुरीपयोश्च ॥ २८॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नपानविधिः । (७७) भावार्थ:-छाछ ( तक) हल का ( जल्दी पचनेवाला है) व उप्ण है, खट्टा व कषायला होता है। रूक्षगुणवाला है, अग्निको बढानेवाला एवं कफको दूर करनेवाला है, शुक्र पित्त व वायु विकारको उद्रेक करनेवाला है मल मूत्रको साफ करनेवाला है ॥२८॥ उदश्वित्के गुण सम्यक्कृतं सर्वसुगंधियुक्तं । शीतीकृतं सूक्ष्मपटसृतं च ॥ स्वच्छांबुसंकाशमशेषरोगः । संतापनुष्यमुदीश्चिदुक्तम् ॥ २९ ॥ भावार्थ:-दहीमें समभाग पानी मिलाकर मथन करें उसे उदश्वित् कहते हैं । जो अच्छीतरह तैयार किया गया हो सुगंध द्रव्यसे मिश्रित हो,ठण्डा किया हो, पतले कपडेसे शोधित हो एवं निर्मल पानीके समान हो, संपूर्ण रोगोंको व संतापको दूर करता हो व पौष्टिक हो उसे उदश्वित् कहते हैं ॥ २९॥ खलगुण । सर्वैः कद्रव्यगणैस्सुपक्कं । सुस्नेहसंस्कारयुतस्सुगंधिः ॥ श्लष्मानिलघ्नोऽग्निकरो लघुश्च । सर्वः खलस्तत्कृतकाम्लिकश्च ॥ ३० ॥ भावार्थ:-उपर्युक्त छाछमें मिरच आदि, कटुद्रव्य डालकर अच्छी तरह पकाकर उसमें घी आदिसे संस्कार ( छौंक ) किया गया हो उसे खल कहते हैं । वह कफ विकार व वात विकारको दूर करनेवाली है, एवं शरीरमें आग्निको तेज करती है । पचनमें हलकी है । इसी छाछकेद्वारा बनाये गये अम्लिका ( कढी ) आदिके भी यही गुण है ॥ ३०॥ नवनीत गुण। शीतं तथाम्लं मधुरातिवृष्यं । श्लेष्मावहं पित्तमरुत्प्रणाशी ॥ शोषक्षतक्षीणकृशातिवृद्ध बालेषु पथ्यं नवनीतमुक्तम् ॥ ३१ ॥ . भावार्थ:-नवनीत ( लोणी ) शीत है, खट्टा रसवाला है । मधुर भी है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) कल्याणकारके अति वृष्य है कफकारक है । पित्तविकारको दूर करनेवाला है । क्षय, उरःक्षत रोग से जो क्षीण होगया हो, अति कृश होगया हो उसे एवं बालक व वृद्धोंके लिये हितकर है ॥ ३१ ॥ घृतगुण । वीर्याधिकं शीतगुणं विपाक । स्वादुत्रिदोषघ्नरसायनं च । तेजो बलायुश्च करोति मेध्यं ॥ चक्षुष्यमेतद्धृतमाहुरार्याः ॥ ३२ ॥ भावार्थ:- घी शक्तिवर्द्धक है, शीत गुणवाला है, पचन कारक है । स्वादिष्ट होता है । वात पित्तकफको दूरकरनेवाला है, रसायन है, शरीर में तेज बल आयु की वृद्धि करनेवाला है । मदको बढानेवाला है एवं आंख के लिये हितकर है ऐसा पूज्य पुरुष कहते हैं ॥ ३२ ॥ तैलगुण | पित्तं कषायं मधुरातिवृष्यं । सुतीक्ष्णमग्निप्रभवैकहेतुम् ॥ केश्यं शरीरोज्वलवर्णकारी । तैलं क्रिमिश्लेष्ममरुत्प्रणाशी ॥ ३३ ॥ भावार्थ:- तेल पित्त करनेवाला है । इस रस मधुर और कषाय है । वृष्य है, अग्निको तीक्ष्ण करनेवाला है । केशों को हित करनेवाला है । शरीरका तेज बढानेवाला है एवं क्रिमको नाश करनेवाला है । कफ और वायुको दूर करनेवाला है ॥ ३३ ॥ कांजिके गुण ॥ सौरमम्लं बहिरेव शीतमंतर्विदाह्यग्निक्रुदश्मरेकम् । गुल्मादिसं भद्यनिलापहारि ॥ हृद्यं गुरु प्राणबलप्रदं च ॥ ३४ ॥ भावार्थ: खड्डी कांजी बाहरसे ही शीत प्रतिभास होती है । परंतु अंदर जाकर जलन पैदा करनेवाली है । गुल्म आदिको भेदन करती है । मूत्रके पत्थरको रेचन करनेवाली, वात विकारको दूर करनेवाली है । हृद्य एवं पचनेमें भारी है | शरीरको शक्ति देनेवाली है ॥ ३४॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नपानविधिः। (७९) अथ मूत्रवर्गः। अष्ट मूत्रगुण गोऽजामहिष्याश्वखरोष्ट्रहास्त- । शस्ताविसंभूतमिहाष्टभेदम् ॥ मत्रं क्रिमिघ्नं कटुतिक्तमुष्णम् । रुक्षं लघुश्लेष्ममरुविनाशि ॥ ३५ ॥ क्षार गुण क्षारस्सदा मूत्रगुणानुकारी । कुष्ठार्बुदग्रंथिकिलासकृच्छ्रान् । अशीसि दुष्टवणसर्वजंतू-। नाग्नेयशक्त्या दहाह देहम् ॥ ३६॥ भावार्थ:--गाय, बकरी, भैंस, घोडा गधा, ऊंठ, हाथी, मेंढा, इन आठ प्राणि योंसे उत्पन्न मूत्र आठ प्रकारका है। यह क्रिमियोंको नाश करनेवाले हैं। कटु ( चिरपरा ) तिक्त व उष्ण हैं । रुक्ष हैं लघु है एवं कफ और वातको दूर करनेवाले हैं । क्षार में उपरोक्त मूत्र के गुण हैं। कुष्ठ, अर्बुद, ग्रंथि, किलासकुष्ठ, मूत्रकृच्छ, बवासीर, दूषितव्रण, और सम्पूर्ण क्रिमिरोग को जीतता है। अपनी आग्नेय शक्ति के द्वारा देह को जलाता है ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ ... द्रवद्रव्यों के उपसंहार एवं द्रवद्रव्यगुणाः प्रतीताः। पानानि मान्यानि मनोहराणि ॥ युक्त्यानया सर्वहितानि तानि । ब्रूयाद्भिषम् भक्षणभोजनानि ॥ ३७॥ भावार्थ:-इस प्रकार द्रव द्रव्यों के गुणका विचार किया गया है । इसी प्रकार प्राणियोंके लिये हितकर मान्य, व मनोहर भक्ष्य पेय ऐसे अन्य जो पदार्थ हैं, उनके गुणोंको वैद्य बतलावें ॥३७॥ अनुपानाधिकारः अनुपानविचार । इत्थं द्रवद्रव्यविधि विधाय । संक्षेपतः सर्वमिहानुपानम् ॥ वक्षाम्यहं सर्वरसानुपानं । मान्यं मनोहारि मतानुसारि ॥ ३८ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) कल्याणकारके भावार्थ:-इस प्रकार सम्पूर्ण द्रवद्रव्यों को वर्णन करके आगे, हम संक्षेप से, सर्व रसों के सम्पूर्ण अनुपान का वर्णन, मनोहर मत के अर्थात् पूर्वाचार्यों के दिव्य मत के अनुसार, सिद्धांताविरूद्ध रूपसे करेंगे ॥ ३८ ।। सर्व भोज्यपदार्थों के अनुपान । भोज्येषु सर्वेष्पपि सर्वथैव । सामान्यतो भेषजमुष्णतोयम् ॥ तिक्तेषु सौवीरमथाम्लतकं । पथ्यानुपानं लवणान्वितेषु ।। ३९ ॥ भावार्थ:-सभी प्रकारके भोजन में सामान्यदृष्टीसे सर्वथा गरम पानी पीछे से पाना यही एक औषध है । भोजनमे कांजी लेना ठकि है ॥ ३९ ॥ ___ कषाय आदि रसोंके अनुपान । नित्यं कषायेषु फलेषु कंदशाकेषु पथ्यं मधुरानुपानम् । श्रेष्ठं कटुंद्रव्ययुतानुपानं । सर्वेषु साक्षान्मधुराधिकेषु ॥ ४० ॥ भावार्थ:--कषाय रसयुक्त फल व कंदमूलके भाजियोमें मठिारस अनुपान करना पथ्य है, जो भोजन साक्षात् मधुर है उसमें चिरपरा रस अनुपान करना अच्छा है ॥४०॥ अम्ल आदि रसों के अनुपान आम्लेषु नित्यं लवणप्रगाढं । तिक्तानुपान कटुकेषु सम्यक् ॥ पथ्यं तथैवात्र कषायपानं । क्षीरं हितं सर्वरसानपानम् ॥४१॥ भावार्थ:-खट्टे पदार्थों के साथ लवणरस अनुपान करना योग्य है। तीखे पदार्थोके लिये कडुआ व कषायले रस अनुपान है दूध सभी रसोंके साथ हितकर अनुपान है ॥४१॥ - - १-कटुस्यात्कटुतिक्तयोः। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नपानविधिः । अनुपानविधानका उपसंहार : केषांचिन्मधुरे भवत्यतितराकांक्षाम्ल संसेवना- 1 दम्लेवान्यतरातिसेवनतया वांछा भवेदादरात् ॥ यद्यद्यस्य हितं यदेव रुचिकृद्यद्यस्य सात्म्यादिकं । तत्तत्सर्वमिहानुपान विधिना योज्य भिपरिभस्सदा ॥ ४२ ॥ 1 भावार्थ:- किसी किसीको अम्लरस के अधिक सेवनले मीठे रसमें अधिक इच्छा रहती है। किसी को अम्लके अतिरिक्त किसी रस का अधिक सेवनसे खट्टे रस की इच्छा होती है । इसी तरह किसी को कुछ, अन्य को कुछ रस सेवन की चाह होती है । इसलिये विद्वान वैद्यको उचित है कि वे जिनको जिस रसकी इच्छा हो और जो हितकर हो और उनकी प्रकृतिके लिये अनुकूल हो उन सबको अनुपान विधि प्रयोग करें ॥ ४२ ॥ भोजन के पश्चात् विधेय विधि । पश्चाद्धौतकरौ प्रमथ्य सलिलं दद्यात्सुचप्रदं । प्रोद्यद्दृष्टिकरं विरूपविविधव्याधिप्रणाशावहं ॥ वक्त्रं पद्मसमं भवेत्प्रतिदिनं तेनैव संरक्षितं । 'वक्रव्यगतिलातिकालकमलानीलीप्रणाशावहम् ॥ ४३ ॥ (८१) भावार्थ:-- भोजन के अनंतर हाथों को धोकर, उन्ही को परस्पर थोडा मलकर और उन्ही से थोडा जल आखों में डालना चाहिये अर्थात् जलयुक्त हाथों से आंखका स्पर्श करना चाहिये । इस से, आखों को हित होता है। तेजी आती है और नाना प्रकारके विरुद्ध अक्षिरोग दूर हो जाते है । इसी तरह, हाथों को मल कर प्रतिदिन, मुख का स्पर्श करे अर्थात्, थोडा सा मलें तो मुख कमल के समान कांतियुक्त होता है, तथा मुखगत व्यंग, तिलकालक, नीली आदि अनेक रोग दूर हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ तत्पश्चाद्विधेय विधि। भुक्त्वाचम्य कषायतिक्तकटुकैः श्लेष्मामु नुदेत् । किंचिद्गर्वितवास्थितः पदशतं संक्रम्य शय्यातले ॥ वामं पार्श्वमथ प्रपीय शनकैः पूर्व शयीत क्षणं । व्यायामादिविवर्जितो द्रवतरासेवी निषण्णो भवेत् ॥ ४४ ॥ भावार्थ:- इस प्रकार, भोजन करनेके पश्चात्, अच्छीतरह कुरला करके कषाय १- भुक्ते राजवत् आसीत । ११ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) कल्याणकारके कडुआ, तीखा रसयुक्त पदार्थोको. अर्थात् सुपारी, कत्था लवंग कस्तूरी ताम्बूल आदि सेवन कर, या हृद्य धूम आदि के सेवन कर, उद्रिक्त कफ को दूर करें ( क्यों कि भोजन करते ही कफकी वृद्धि होती है ) पश्चात् गर्वित होकर बैठे अर्थात् किसीकी कुछ भी परवाह न कर निश्चिंत चित्तसे बैठे । बादमें सौ कदम, चलकर, वाम पार्श्व को थोडा दबाकर उसी बायें बगलसे थोडी देर सोवे और उठते ही व्यायाम आदि न करें और द्रव पदार्थ को सेवन करते हुए थोडी देर बैठना चाहिये ॥ ४४ ॥ अंत्यमंगल । इति जिनवनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निमृतमिदं हि शकिरनिभं जगदेकाहेतम् ॥ ४५ ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत सावनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥४५॥ -*-* इत्युग्रादित्याचायकृत कल्याणकारके स्वास्थ्यरक्षाणाधिकारे अन्नपानविधेिः पंचम परिच्छेदः । इयुग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के स्वास्थ्यरक्षणाधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में अन्नपानविधि नामक पांचवां परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनाविधिः । (८३) अथ षष्ठः परिच्छेदः। अथ दिनचर्याधिकारः । मंगलाचरण व प्रतिक्षा । नत्वा देवं देववृंदार्चितांघ्रि । वीरं धीरं साधु सुज्ञानवाधिम् ॥ स्वस्थं स्वस्थाचारमार्गो यथाव-। च्छास्त्रोदिष्टः स्पष्टमुद्योततेऽतः ॥१॥ भावार्थ:-देवोंके द्वारा वंद्य चरणवाले, धीर वीर और साधुवाके लिए ज्ञान समुद्रके रूपमें हैं ऐसे भगवान्को नमस्कार कर स्वास्थ्याचारशास्त्रमें उपदिष्ट प्रकार श्रेष्ठ स्वास्थ्य का उपदेश यहांपर दिया जाता है ॥ १ ॥ दंत धावन । प्रातः प्रातर्भक्षयेदंतकाष्टं । निर्दोष यद्दोषवर्गानुरूपम् ॥ अन्ने कांक्षा वाक्प्रवृत्तिं सुगंधि । कुर्यादतन्नाशयेदास्यरोगान् ॥२॥ भावार्थ:-प्रतिनित्य प्रातःकाल, नीम बबूल कारंज अर्जुन आदिके दांतूनोंसे जो वात पित्त कफोंके अनुकूल अर्थात् दोषोंको नाश करनेवाले हों एवं निर्दोष हों दांत साफ करना चाहिये । इस प्रकार दांतुन करनेसे भोजनमें इच्छा, वचनप्रवृत्तिमें स्पष्टता, मुखमें सुगंधि एवं सर्व मुखरोगोंका नाश होता है ॥ २ ॥ दांतून करमेके अयोग्य मनुष्य । शोषोन्मादाजीर्णमूर्दिता ये। कासश्वासच्छर्दिहिकाभिभूताः ॥ पानाहाराः क्लिन्नगात्राः क्षतातोः । सर्वे वज्योः दन्तकाष्ठप्रयोगे ॥३॥ भावार्थ:----शोष [ क्षय ] उन्माद, अजीर्ण, मूर्छा, कास श्वास, वमन हिचकी आदि रोगोंसे पीडित, क्षत आदि के द्वारा जिनका शरीर क्लिन्न [आई ] हो और पान, आहर ले चुके हों ऐसे मनुष्य दांतुन नहीं करें ।। ३ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४), टै कल्याणकारके भावार्थ — स्वस्थावस्था में मस्तकमें तेल लगाना चाहिये । इससे इंइंद्रियों को शांति मिलती है । बाल (केश ) को मृदु करने के लिये यह कारण है एवं मस्तकको ठण्डा । गत सर्व रोगोंको यह नाश करता है ॥ ४ ॥ गवता तैलाभ्यंग ग गुण । दद्यात् मस्तकें स्वस्थकाले । कुर्यादेतत्तर्पणं चंद्रियाणाम् । केशानां वा मार्दवं हि प्रशांत रोगान्सर्वान्नाशयेग्गतच ॥ ४ ॥ तैलघृताभ्यंग गुण | तैलाभ्यंग क्षेष्यवातमणाशी । पित्तं रक्तं नाशयेदा छुतस्य ॥ देहं सर्व तर्पयेोमपैवैवर्ण्यादिख्यातरोगापकप ॥ ५ ॥ भावार्थ:- तेल मालिश करना यह कफ और वातको नाश करता है। घी के मालिश करनेसे रक्त पित्त दूर होजाता है । रोमकूपोंस प्रवेश होकर यह सर्व देहको शांति पहुंचाता है | और वैवर्ण्यादि प्रसिद्ध त्वग्गत रोगोंको दूर करता है ॥ ५ ॥ 1 अभ्यंगकेलिये अयोग्य व्यक्ति । मूर्च्छाकांतोजीर्णभक्तः पिपासी । पानाक्रांतो रेचकी क्षीणगात्रः ॥ तं चाभ्यं वर्जयेत्सर्वकालं | संयोग दाहयुक्तज्वरे वा ।। ६ ।। भावार्थ:- मूर्च्छित, अजीर्णरोग से पीडित, पीलिया हो, और रेचन लिया हो जिस का शरीर हो, गर्भधारण कर अल्य समय होगया हो तो, ऐसे ( मालिश ) नहीं करना चाहिये || ६ || प्यासी, मद्य आदि को जिसने अतिकृश हो, दाह ज्वर से युक्त व्यक्तियों को हमेशा अभ्यंग व्यायाम गुण | दीग्नित्वं व्याभिनिर्मुक्तगात्रं । निद्रा तंद्रास्थौल्यficiaनं च ॥ कुर्यात्कांतिपुष्टिमारोग्यमायु- । व्यामोऽयं यौवनं देहदादम् ॥७॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः । भावार्थ:- प्रतिनित्य मनुष्यको व्यायाम करना चाहिये । व्यायामसे अग्नि तेज होता है । शरीरके रोग दूर होते हैं । निद्रा, आलस्य, स्थूलता आदि शरीरदोष दूर होकर शरीर) कांति, पुष्टि स्वास्थ्य और दर्घि आयुकी प्राप्ति होती है । विशेष क्या; यह व्यायाम यौवन को कायम रखता हैं, और शरीरको मजबूत करता है ॥७ व्यायामकोलिये अयोग्यव्यक्ति तं व्यायाम वर्जयेद्रक्तपित्ती । श्वासी वाल: कासहिकाभिभूतः।। " स्त्रीषु क्षीणो मुक्तवासक्षतांग-। स्सोष्णे काले रिनगात्रो ज्वरातः ॥८॥ भावार्थ--- रक्तपित्त श्वासकास (खांसी) हिचकी, क्षत (जखम) और ज्वर से. पीडित, जिसके शरीर से पसीना निकला हो, जो अतिमैथुन से क्षीण हो ऐसे मनुध्य एवं बालक को व्यायाम नहीं करना चाहिये । तथा स्वस्थ पुरुष को भी उष्णकाल (ग्रीष्म शरदऋतु) में व्यायाम छोड देना चाहिये ॥८॥ बलार्ध लक्षण प्रस्वेदादा शक्तिशथिल्यभावा । च्छक्तरंध चावशिष्टं विदित्वा ॥ व्यायामोऽयं वर्जनीयो मनुध्यै ॥ रत्यंताधिक्यान्वितो हंति भयम् ॥९॥ भावार्थ:-~-यथेष्ट व्यायाम करने के बाद पसीना आवे अर्थात् शक्ति कम होगई हो तब अधाश शक्ति रहगई समझकर व्यायाम को छोडना चाहिये। अत्यधिक व्यायाम शरीरको नाश ही करता है ॥९॥ उद्वर्तन गुण त्वग्वैवये श्लेष्ममेदोविकार। कण्डूमाये गात्रकायस्वरूप। वाताक्रांते पित्तरत्तात्रेऽस्मिन् । कार्य तत्रोद्वतेनं सवेदन ।। १० ॥ भावार्थ:-शरीरमें वर्ण विकार, कफविकारमेद धातुका विकार होजाय, प्रायः१ शरीर में जितनी शक्ति उत्सरो अर्ध भाग मात्र व्यायान में खर्च करना चाहिये । ... mernm..HEET - Mara.. Huanrama Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) कल्याणकारके सर्व शरीर वात से पीडित हो, एवं रक्तपित्त से पीडित हो उस अवस्थामें खुजली होजाय व शरीर कृश होजाय तो उद्वर्तन [उवटन ] सर्वदा उत्तम है ॥ १०॥ विशिष्ट उद्धर्तन गुण फेनोध्दर्षाच्छोदसंवाहनायैः ।। गात्रस्थैर्य त्वक्प्रसादो भवेच्च ॥ मेदश्लेष्मग्रंथिकण्डामयास्त । .. नस्युस्सर्वे वातरक्तोद्भवाश्च ॥ ११ ॥ भावार्थ:----गेहूं आदिकी पिट्ठीसे, शरीरको घर्षण करने व औषधोंके चूर्ण को शरीर पर डालनेसे, शरीरमें स्थिरता आजाती है, चर्ममें कांति आजाती है, मेदविकार, श्लेष्मविकार ग्रंथिरोग [संधिरोग ] खुजली और वातरोग, एवं रक्तोत्पन्न रोग भी इससे नष्ट होते है ॥११॥ पवित्र स्नान गुण तुष्टिं पुष्टिं कांतिमारोग्यमायु-। स्सौम्य दोषाणां साम्यमग्नेश्च दीप्तिम् । तंद्रानिद्रापापशांतिं पवित्रम् स्नानं कुर्यादन्नकांक्षामतीव ॥ १२ ॥ भावार्थ:--- स्नान करनेसे मनमें संतोष उत्पन्न होता है। तेज बढता है । आरोग्य रहता है । दीर्घायु होता है । शुचिता प्राप्त होती है । दोषोंका साम्य होता है। अग्नि तेज हो जाती है, आलस्य निद्रा दूर होजाती है । पापको उपशमन कर शरीरको पवित्र करता है भोजनमें इच्छा उत्पन्न करता है । इसलिये पवित्र स्नान अवश्य करना चाहिये ॥१२॥ स्नान के लिये अयोग्य व्याक्त ! स्नानं वयं छर्दिते कर्णशूले-। चाध्मानाजीर्णाक्षिरोगेषु सम्यक् ॥ सद्योजाते पीनसे चातिसारे। भुक्ते साक्षात्सज्वरे वा मनुष्ये ॥ १३ ॥ भावार्थ:--जिसको उल्टी होरह हो, कर्णशूल [ दर्द | होगया हो जिसकी पेट फूलगयी हो अर्जीर्ण होगया हो आंखोंका रोग होगया हो, पीनस रोग होकर अल्प समय होगया हो, अतिसार होगया हो, जिसने भोजन किया हो, साक्षात्ज्वर सहित हो, ऐसे मनुष्य ऐसी अवस्थावोमें स्नान नहीं करें ॥ १३ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः । (८७) तांबूल भक्षण गुण सौख्यं भाग्यं सौरभं सुप्रसादं । कांति प्रल्हादं कामुकत्वं सगर्व ॥ सौख्यं सौंदर्य सौमनस्यं सुरूपं । नित्यं सर्वेषामंगरागः करोति ॥ १४ ॥ कांतिं संतोषं सद्रवत्वं मुखस्य । व्यक्तं वेद्यं भूषणं भूषणानाम् ।। रागं रागित्वं रागनाशं च कुर्यात् ।। पूज्यं तांबूलं शुद्धिमाहारकांक्षाम् ॥ १५॥ भावार्थ:--तांबूल ( पान ) के खानेसे शरीरमें सौख्य भाग्य, सुगंधि, संतोष कांति, उल्लास, सुंदर विषयाभिलाषा आदि गुण बढते हैं । मुखमें कांति होनेके साथ २ मनमें संतोष रहता है । मुखमें द्रवत्व रहता है, लोकमें वह मुखका भूषण भी समझा जाता है। मधुर स्वर पैदा होता है। मुख्में ललाई उत्पन्न होनेके साथ २ बहुतसे रोगोंका नाश भी करता है । आहारमें इच्छाको उत्पन्न करता है । भोजन के बाद मुखशुद्धि करता है, इसलिये ऐसे अनेक प्रकारके गुणोंसे युक्त तांबूल सदा सेव्य है ॥ १४ ॥ १५ ॥ ताम्बूल सेवन के लिये अयोग्य व्यक्ति । तत्तांबूलं रक्तपित्तज्वरातः। शोषी:क्षीणस्सद्विरिक्तोऽतिसारी ॥ क्षुत्तृष्णोन्मादातिकृच्छ्राभिभूतः ।। पीत क्षीरस्संत्यजेन्मधमत्तः ॥१६॥ भावार्थ:-जिसको रक्तपित्त होगया हो, जो ज्वरसे पीडित हो, जिसे क्षयरोग होगया हो जो अत्यंत कृश हो, जिसको विरेचन दे दिया हो अतिसार रोगसे पीडित हो, क्षुधा व तृषासे बाधित हो, उन्माद जिसको हुआ हो, मूत्रकृच्छ्रसे पीडित हो, दूध पिया हो, और शराब पीकर नशेमे मस्त हो ऐसी अवस्थावोमें तांबूल वर्ण्य है ॥ १६ ॥ जूता पहिनने, व पादाभ्यंगके गुण | सोपानत्कस्संचरेत्सवकालं । तेनारोग्यं प्राप्नुयान्मार्दवं च ॥ पादाभ्यंगात्पाददाहप्रशांतिं । निद्रासौख्यं निर्मलां चापि दृष्टिम् ।। १७ ।। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) कल्याणकारके भावार्थ:--हमेशा जूता पहिनकर चलना चाहिये जिससे आरोग्य प्राप्त होता है व शरीर मृदु होजाता है । पैर ( पादतल ) में तेल मालिश करने से पादका जलन शांत होता है । सुखपूर्वक नींद आती है। आंख निर्मल हो जाता हैं ॥ १७ ॥ रात्रिचर्याधिकारः। मैथुनसेवनकाल ! शीते काले नित्यमेकैकवारं । यायात्स्वस्थो ग्राम्यधापयोगम् ॥ ज्ञात्वा शक्ति चोष्णकाले कदाचित् । पक्षादोत्सप्तष पंचरात्रात् ॥१८॥ भावार्थ:-स्वस्थ मनुष्य ठण्डके मौसम में प्रतिनित्य एक दफे मैथुन सेवन कर सकता है । उष्ण काल में अपनी शक्ति का ख्याल रखकर पांच, छह, सात व आठ दिनमें एक दफे मैथुन सेवन करना चाहिये ॥१८॥ मैथुन के लिये अयोग्य व्यक्ति । क्षुत्तष्णार्तो सत्रविदशुक्रवेगी। दूराध्वन्यो य क्षतोत्पीडितांगः ॥ रेतःक्षीणो दुर्बलश्च ज्वरातः । प्रत्यूषे संवर्जयेत्तं व्यवायम् ॥ १९ ॥ भावार्थ:-- क्षुधा तृषासे जो पीडित हो, मल मूत्र व शुक्र का वेग उपस्थित ( बाहेर निकलनेके लिये तैयार हो) हो, दूरसे जो चलकर आनेसे थक गये हों, क्षयसे जो पीडित हो जिनका शुक्र क्षीण हो गया हो, जो शक्तिहीन हो, वर पाडित हो उनको मैथुन सेवन वर्ण्य है । एवंच प्रातःकालके समय मैथुन सेवन (किसीको भी) नहीं करना चाहिये ॥१९॥ सतत मैथुनके योग्य व्यक्ति। कल्याणांगो यो युवा ध्यसेवी । तस्यैवोक्तस्सर्वकाले व्यवायः॥ वृष्यान्योगायोगराजाधिकारे । वक्ष्याम्यषणान् लक्षणैरुत्तरत्र ।।२०। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः। ( ८९) भावार्थ:--जिसका शरीर बिलकुल निरोग है, जो जवान है व वृष्य (कामवर्द्धक, शुक्रजनक) पदार्थीको सेवन करता है उसीको हमेशाह मैथुन सेवन करनेके लिये कहा है । अर्थात् वही सदा सेवन कर सकता है । वह वृष्य पदार्थ कौनसे हैं यह आगे योगराजधिकारमें लक्षण सहित प्रतिपादन करेंगे ऐसी आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ २० ॥ . ब्रह्मचर्य के गुण। वर्णाधिक्यं निर्वलीकं शरीरं । सत्वोपेतं दीर्घमायुस्सुदृष्टिम् । कांतिं गात्राणां स्थैर्यमत्यंतवीर्यम् । मर्त्यः प्राप्नोति स्त्रीषु नित्यं जितात्मा ।। २१॥ भावार्थ:----जो स्त्रियों में नित्य विरक्त रहता है उस के शरीर का वर्ण बढता है, शरीर वली ( चमडेका सिकुडना ) रहित होता है, मनोबलसे युक्त होता है, दीर्घायु होता है, आंख अच्छी रहती है अर्थात् दृष्टि मन्द नहीं होती है। शरीर में कांति व मजबूती आजाती है, वह अत्यंत शक्तिशाली होता है ॥२१॥ मैथुन के लिये अयोग्य स्त्री व काल । दुष्टां दुर्जातिं दुर्भगां दुस्स्वरूपामल्पछिद्रांगीमातुरामातवीं च संध्यास्वस्पृश्यां पर्वसु प्राप्ययोग्यां। वृद्धान्नोपेयाद्राजपत्नी मनुष्यः ॥ २२ ॥ भावार्थ:- दुष्टास्त्री, नीच जातीवाली, दूषितयोनिवाली, कुरूपी, अल्प छिद्र (योनिस्थानका ) वाली, रोग से पीडित, रजस्वला, अस्पृश्या, वृद्धा ऐसी स्त्री तथा राजपत्नी के साथ कभी भी सम्भोग न करें। जो सम्भोग करने के लिये योग्य हो उसके साथ भी, संध्याकाल व अष्टमी चतुर्दशी आदि पर्वदिनों में सम्भोग नहीं करना चाहिये ॥२२॥ मैथुनानंतर विधेय विधि । स्वादुस्निग्धं मृष्टमिष्टं मनोज्ञं । क्षीरोपेतं भक्ष्यमिक्षार्विकार । शीतो वातश्शीतलं चान्नपानं । निद्रा संव्या ग्राम्यधर्मावसाने ॥ २३ ॥ भावार्थ:-स्वादिष्ट, चिकना, स्वच्छ, स्वेच्छाके अनुकूल, मनोज्ञ, तथा क्षीरयुक्त ऐसे भक्ष्य और ईख के विकार शक्कर आदि को मैथुन सेवन के बाद खाना चाहिये Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०) कल्याणकारके एवं ठण्डी हवा लेनेके साथ शीतगुण युक्त अन्न पानकर शांतिसे निद्रा लेनी चाहिये, यह हितकर है ॥२३॥ निद्राकी आवश्यकता । रात्रौ निद्रालुः स्यान्मनुष्यः सुखार्थी । निद्रा सर्वेषां नित्यमारोग्यहेतुः ॥ निद्राभंगे स्यात्सर्वदोषप्रकोपो । वा निद्रा स्यात्सर्वदेवाप्यमोघम् ॥ २४ ॥ भावार्थ:---रात्रिमें जो मनुष्य यथेष्ट निद्रा लेता है वह सुखी बन जाता है । अथवा सुखकी इच्छा रखनेवाला रात्रिमें निद्रा अवश्य लेवें । निद्रा सभी प्राणियोंको आरोग्यका कारण है। निद्राभंग होनेसे वातादि दोषोंका उद्रेक होता है। लेकिन रात दिन निद्रा नहीं लेनी चाहिये ॥२४॥ दिनमें निद्रा लेनेका अवस्थाविशेष । दृराध्वन्यः श्रांतदेहः पिपासी । वातक्षीणो मद्यमत्तोऽतिसारी ॥ रात्रौ ये वा जागरूकास्तदर्धा निद्रा सेव्या तैर्मनुष्यैर्दिवापि ॥ २५ ॥ भावार्थ:--दूरसे जो चलकर आया हो, थका हुआ हो , प्यासा हो, वातरोगसे पीडित हो कर क्षीण होगया हो , अतिसार रोगसे पीडित हो, मद्य पीकर मत्त होगया हो एवं सत्रिमें जो जगा हो वह मनुष्य जागरणसे आधी नींद दिनमें लेसकता है ॥२५॥ सर्वर्तुसाधारणचर्याधिकारः। ___ हितमितभाषण। एवं सहत्तैस्सज्जनं दुर्जनं वा । जन्माचारांतर्गतानिष्टवाक्यः ॥ रागद्वेषात्यंतमोहनिमित्तः । नैव ब्रूयात्स्वस्य संपत्सुखार्थी ॥ २६ ॥ भावार्थ:--जो मनुष्य संसारमें सम्पत्ति व सुख चाहता है उसे चाहिये कि वह सजन २ दुर्जन के प्रति, जन्म ( पैदाइश) सम्बंधी व आचार सम्बंधी अनिष्ट वचनों के प्रयोग न करें जो कि गग, द्वेष, व मोह की उत्पति के लिये कारण होते हों ॥२६॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः । शैलाद्यारोहण निषेध शैलान्वृक्षान्दुष्टवाजीद्विपेंद्रा- । नारोहद्वा ग्राहनकाकुलोमिः ।। नीबस्रोता वाहिनी वारिधीन्वा ॥ गाहेत्तान्यत्पल्वलस्थं न तोयं ॥ २७ ॥ भावार्थ:----सुखच्छु मनुष्य, पहाट , वृक्ष, दुष्टघोडा व हाथी इत्यादिपर नहीं चढ़े, जिसमें मगर व अधिक उर्मी हो, तीव्र स्रोत बहरही हो ऐसी नदी व समुद्र में प्रवेश न करें, तथा पल्वल ( जमीनमें बडे २ गड्डे रहते है इनमें बरसात के समय पानी भरजाता है वह कई दिनोंतक रहता है उनको पल्बल कहते हैं) के जलमें भी स्नानादिक न करें ॥२७॥ पापादिकार्यों के निषेध ॥ यद्यत्पापाथै यच्च पेशून्यहेतु- । र्यद्यल्लोकानामप्रियं चाप्रशस्तं ॥ यद्यत्सर्वेषामेव बाधानिमित्तम् ॥ तत्तत्सर्व वर्जनीयं मनुष्यैः ॥ २८॥ भावार्थ:---जो जो कार्य पापोपार्जनके लिये कारण हो, जो लोकापवादके लिये कारण हों, लोगोंके लिये अप्रिय एवं अमंगल हों और जो सबके लिये बाधा उत्पन्न करने वाले हों, ऐसे कार्यांको बुद्धिमान् मनुष्य कभी न करें ॥२८॥ हिंसादिके त्याग। हिंसासत्यं स्तेयमोहादि सर्वे । त्यक्त्वा धीमांश्चारुचारित्रयुक्तः ॥ साधूसंपूज्य प्राज्यवीर्याधियुक्ता- ॥ नारोग्यार्थी योजयेद्योगराजान् ॥ २९॥ ... भावार्थ:--स्वास्थ्यकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य हिंसा, झूठ, चोरी, परिप्रह, कुशील इत्यादि पापोंको छोडकर सदाचरणमें तत्पर होवें, सज्जन व संयमियोंकी सेवा करके अत्यंत शक्तिवर्द्धक योगराजोंका प्रयोग करें ॥२९॥ वृष्याधिकारः। कामोत्पत्ति के साधन । चित्ताल्हादः कांतिमन्मानसानि । प्रोद्यत्पुष्पोद्भासि वल्लीगृहाणि ॥ चक्षुस्पर्शश्रोत्रनासासुखानि ।। प्रायेणैतत्कामिनां कामहेतु ॥ ३० ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९२) कल्याणकारके ... भावार्थ:-चित्तमें आल्हाद उत्पन्न करनेवाले एवं मनमें हर्ष और प्रसन्नताको बढानेवाले लतागृह जिनमें बहुतसे सुंदर पुष्प खिले हुए दिख रहे हों, विहार करने योग्य हैं । उनसे इंद्रियोंको सुख मिलता है एवं प्रायः ये कामुकोंकेलिये कामकी इच्छा उत्पन्न करने के लिये कारण हैं ॥३०॥ कामोद्दीपन करनेवाली स्त्री। या लावण्योपेतगात्रानुकूला। भूषावेषोद्भासि सद्यौवना च ।। मध्ये क्षामोत्तुंगीनस्तनीया। सुश्रोणी सा वृष्यहेतुर्नराणाम् !॥ ३१ ॥ भावार्थ:- जो सुंदरी शरीरके लिये शोभनेवाले वस्त्राभूषणोंको धारण करती हो, युवती हो, मध्यस्थान जिसका कुश हो और उन्नत एवं मोटे स्तनोंसे युक्त हो, नितंबस्थान जिसका सुंदर हो वह स्त्री, पुरुषोंको कामोद्दीपन करनेवाली होती है ॥३१॥ वृष्यामलक योग। धात्रीचूर्ण तद्रसेनैव सिक्तं । शुष्कं सम्यक्षीरसंभावितं च ॥ खण्डेनाक्तं सेव्यमानो मनुष्यो । वीर्याधिक्यं प्राप्नुयात्क्षीरपानात् ॥ ३२ ॥ ... भावार्यः----. आबले के चूर्ण में, उसीके रस डालकर सुखावें, इसी को भावना कहते हैं। तत् पश्चात् अच्छीतरह दूध की भावना देवें । इस प्रकार भावित चूर्ण के बराबर खांड मिलाकर खायें और ऊपर से दूध पीवे तो अत्यंत वीर्य की वृद्धि होती है। नोट:- जहाँ भावना का प्रमाण नहीं लिखा हो, वहां सम भावना देनी चाहिये ऐसी परिभाषा है । इसलिये यहां भी भावनाप्रमाण नहीं लिखने के कारण, आबले के रस, और दूध के साथ २ भावना देनी चाहिये ॥३२॥ वृष्य, शाल्यादियोग। कृत्वा चूर्ण शालिमाषांस्तिलांश्च । क्षीराज्याभ्यां शर्करामिश्रिताभ्यां ॥ पक्कापूपान्भक्षयेदक्षयं तत् । वृष्यं वांछन् कामिनीतृप्तिहेतुं ॥ ३३ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः । भावार्थ:-धान, उडद, तिल इन तीनोंके आटा बनाकर उनके सम्मिश्रण से बनाया गया पुआ शक्कर दूध घीके साथ खावे तो पौष्टिक है । एवं कामभोगमें कामिनी को तृति करनेके लिये कारण है ॥ ३३ ॥ वृष्य सक्तू। सक्तून्मिश्रान्क्षीरसंतानिकान्वा । माषाणां वा चूर्णयुक्त गुडाव्यम् । जग्ध्वा नित्यं सप्ततिं कामिनीनां । यायावद्धाप्यश्रमेणैव मर्त्यः ॥ ३४ ॥ भावार्थ:--सत्तको मलाई में मिश्रित करके सेवन करें अथवा गुडसे युक्त उडद के आटेका कोई पदार्थ बनाकर खावे तो वह बुड्डा भी हो तो प्रतिदिन सत्तर स्त्रियोंको भी विनाश्रमके सेवन कर सकता है ॥ ३४ ॥ वृष्य गोधूमचूर्ण। गोधूमानां चूर्णमिक्षार्विकारैः । पकं क्षीरेणातिशीतं मनोज्ञ ॥ आज्येनैतत्भक्षयित्वांगनानां । षष्ठिं गच्छेदेकवारं क्रमेण ॥ ३५ ॥ भावार्थ:-गेहूंका आटा शक्कर और दूधके साथ पकाकर अत्यंत ठण्डा करें। इस मनोज्ञ पाक को घीके साथ खावें तो वह मनुष्य एकदफे क्रमसे साठ स्त्रियोंको भोग सकता है ॥ ३५ ॥ वृष्य रक्ताश्वस्थादियोग। रक्ताश्वत्थत्वग्विपकं पयो वा । यष्टीचूर्णोन्मिश्रितं शर्करादयं ॥ पीत्वा सद्यस्सप्तवारान्जेद्वा ॥ निर्वीर्योपि प्रत्यहं कामतप्तः ॥ ३६ ॥ भावार्थः-लाल अश्वत्थकी छालको दूधमें पकाकर अथवा मुलहटीका चूर्ण और शक्करसे मिश्रितदूध को यदि मनुम्य पीवे तो चाहे वह वीर्य रहित क्यों न हो तथापि प्रतिनित्य कामतप्त होकर सातवार स्त्रीसेवन करसकता है ।। ३६ ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) कल्याणकारके वृष्यामलकादि चूर्ण | छागक्षीरेणामलक्याः फलं वा । पकं शुष्कं चूर्णितं शर्करादयम् ॥ मूलानां वायुचटागोक्षुराणां । वीर्ये कुर्याच्छागवीर्येण तुल्यम् ॥ ३७ ॥ भावार्थ:--- बकरी के दूध के साथ आंबलेको पकाकर, सूखनेके बाद चूर्णकर शक्क रके सम्मिश्रणसे खानेसे या चिंचोटकतृण, (उटंगण ) और गोखुर की जड को आंवले के रसायन से, खानेपर, बकरेके वीर्यके समान ही वीर्य बनता है ॥ ३७॥ छागदुग्ध । माषकाथोन्मिश्रितं छागदुग्धं । पीत्वा रात्रौ तद्वृताक्तं गुडादयम् ।। यामे यामे सप्तसप्तैकवारं । स्त्रीव्यापारे याति जातप्रमादः || ३८ ॥ भावार्थ:- बकरी के दूध में उडद का काथ [ काढा ] घी, गुड मिलाकर रात्रिमें पीयें, तो प्रति प्रहरमें उल्लासपूर्वक सात सात वार स्त्रियोंका सेवन कर सकता है ॥ ३८ ॥ वृष्य, भूकूष्माण्डादि चूर्ण । भूकुष्माण्डं चेक्षुराणां च बीजं । गुप्तावीजं वा मुसल्याच मूलम् ॥ चूर्णीभूतं छागदुग्धेन पातुं । तद्वद्देयं रात्रिसंभोगकाले ॥ ३९ ॥ भावार्थ:- जमीन कद्दू तालमखाना विदारिकंद बीज, कौंच के बीज मुसली ( तालमूली) की जड इनको चूर्णकर, बकरके दूध के साथ रात्री में संभोग के समय पीनेके लिये देना चाहिये ॥ ३९ ॥ नपुंसकत्वके कारण व चिकित्सा मर्मच्छेदाच्छुक्रधातुक्षयाद्वा । मेदूव्याधेजनितः लैव्यमुक्तम् ॥ साध्य कैव्यं यत्क्षयाज्जातमेषु । प्रोक्ता योगास्तेऽत्र योज्या विधिज्ञैः ॥ ४० ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नपानविधिः। (९५) भावार्थ:--मर्मच्छेद होनेसे, वीर्यका अत्याधिक नाश होनेसे, और कोई शिश्न रोग आदि कारणों से नपुंसकता आती है । इन में से, शुक्रक्षय से होनेवाला जो नपुंसकत्व है वह साध्य है । इस नपुंसकत्व के निवारणार्थ पूर्वकथित वृष्ययोगोंको विधिज्ञ वैध प्रयोग करें ॥ ४० ॥ रसायनाधिकार ।' संक्षपसे वृष्य पदार्थोंके कथन । यद्यच्छीतं स्निग्धमाधुर्ययुक्तं । तत्तद्रव्यं वृष्यमाहुर्मुनींद्राः ॥ रोगान्सवान् हंतुमत्यंतवीयोन् । योगान्वक्षाम्यात्मसंरक्षणार्थ ॥ ४१ ॥ भावार्थ:-जो २ पदार्थ शीतगुण युक्त हैं, सिग्ध [चिकना] हैं, और माधुर्यगुण युक्त हैं वे सभी वृष्य, ( वीर्यवर्द्धक, कामोत्तेजक ) हैं ऐसा महर्षिगण कहते हैं । आचार्य कहते हैं कि आत्मसंरक्षणके लिए निरोग शरीरकी आवश्यकता है । इसलिए सभी रोंगोंको दूर करनेकोलिए अत्यन्त वीर्ययुक्त योगोंका अर्थात् रसायनोंका निरूपण आगे करेंगे ४३ त्रिफला रसायन । प्रातर्धात्री भक्षयेद्भुक्तकाले । पथ्यामकां नक्तमक्षं यथावत् ॥ कल्याणांगस्तीवचक्षुश्चिरायु भूत्वाजीवेद्धर्मकामार्थयुक्तः ॥ ४२ ।। भावार्थ-- प्रातःकाल भोजनके समय में तीन आंवला रात्रीके समय एक हरड, दो बहेडाको चूर्ण करके घी शकर आदि योग्य अनुपानके साथ सेवन करें, तो शरीर के सभी रोग नाश होकर, शरीर सुंदर बनता है, आंखोंमें तेजी आती है । वह व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम, को पालन करते हुए चिरायु होकर, जीता है ॥ ४२ ॥ १ यद्यपि इस श्लोकमें आंवला, और बहेडे की संख्या निर्देश ठीक तौरसे नहीं की गई है। तथापि अन्य अनेक वैद्यक ग्रंथों में प्राय: इसी प्रकारका उल्लेख मिलता है कि जहांपर त्रिफलाका साधारण कथन हो वहां उपरोक्त प्रकारसे ग्रहण किया जाता है । इमी आधारसे ऊपर स्पष्टतया संख्या निदेश की गई है। दूसरी बात यह है कि श्लोकम बहेडा सेवन करने का समय नहीं बतलाया है । हरडके साथ ही खावें तो मात्रा बढती है, आंवले की मात्रा कमती होती है । इस कारणसे हम यह समझते हैं कि एक हरड, दो बहेडा, तीन आंवला इस क्रमसे लेकर तीनोंको एक साथ चूर्ण करके योग्य मात्रामें शाम सुबह सेवन करना चाहिये । यही आचार्यका अभिप्राय होगा। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके घृष्य विडंग व यष्टिचूर्ण। वैडंग वा चूर्णमत्यंतसूक्ष्म । तद्वद्यष्टीशर्कराचूर्णयुक्तम् ॥ नित्यं प्रातस्सेवमानो मनुष्य- । श्शीतं तोयं चानुपानं दधानः ॥ ४३ ॥ भावार्थ:--विडंग के सूक्ष्म चूर्ण, अथवा मुलहटी के चूर्ण में समभाग शक्कर मिलाकर ठण्डा पानी के साथ प्रतिनित्य प्रात:काल सेवन करनेसे वलीपलित आदि नाश होकर चिरकालतक जीता है ॥४३॥ रसायनके अनुपान। तेषामेव काथसंयुक्तमेतद्भल्लातक्या वा गुडूच्यास्तथैव ॥ द्राक्षाकाथेनाथवा त्रैफलेन । प्रायेणैते भेषजस्योपयोग्याः ॥ ४४॥ - भावार्थ:--- जिस रसायनिक औषवि को, रसायन के रूप में सेवन करना हो उसके लिये उसी औषधि का क्वाथ ( काढा) को अनुपान करना चाहिये । जैसे त्रिफलारसायन के साथ त्रिफलाका ही काढा पीना चाहिये, अथवा भिलावे, गिलोय, द्राक्षा, त्रिफला (हरड बहेडा आंवला) इन एक २ औषधियों के क्वाथ के अनुपान से (रसायन) सेवन करना चाहिये। ये औषधियां प्राय: प्रत्येक रसायन के साथ उपयोग करने योग्य हैं ॥४४॥ रसायनसेवनमें पथ्याहार । एतत्पीत्वा जीर्णकाले यथावत् । क्षीरेणानं साषा मुद्यूषः । सामुद्रायैवेर्जितं प्राज्यरोगान । जित्वा जीवनिर्जरो निर्वलीकः ॥ ४५ ॥ भावार्थः-उपर्युक्त क्वाथ ( अनुपान ) को पीकर जीर्ण होनेके बाद दूधके साथ अथवा घी, मूंग के दाल के साथ भोजन करें। परंतु सामुद्रलवण आदि तीक्ष्ण पदार्थों के साथ उपयोग नहीं करें। इससे बडे २ रोग दूर होजाते हैं। और बुढापा, व वली (चमडे की सिकुडन) रहित होकर, अनेक वर्षांतक जीता है । ।। ४५ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः । (९७) विडङ्गसार रसायन । साराणां वा सद्विडंगोद्भवानां । पिष्टं सम्यक्पिष्टवत्शोधयित्वा ॥ शीतीभूतं निष्कषायं विशुष्कं । धूलीं कृत्वा शर्कराज्याभिमिश्रम् ॥ ४६॥ तद्धांभोधौतनिश्छिद्रकुंभे। गंधद्रव्यैश्वानुलिप्तांतराले ।। निक्षिप्योर्ध्व बंधयेतहमध्ये । वर्षाकाले स्थापयेद्धान्यराशौ ॥४७॥ उद्धत्यैतन्मेघकाले व्यतीते । पूजां कृत्वा शुद्धदेहः प्रयत्नात् ॥ प्रातः प्रातः भक्षयेदक्षमात्रं । जीर्णे सर्पिः क्षीरयुक्तं तु भोज्यम् ॥४८ ॥ स्नानाभ्यंगं चंदनेनानुलेपं । कुर्यादास्यावासमप्यात्मरम्यं ॥ कांताकांतश्शांतरोगोपतापो । मासास्वादादिव्यमाप्नोति रूपं ॥ ४९ ॥ भावार्थ:- वायविडंग के कणों को पिट्टी बनाकर, ( उसको पिट्टी के समान अच्छीतरह से शोधन करके,) जब वह ठण्डे होजाय, कषाय रहित हों सूख गये हों तो उसको अच्छीतरह से चूर्ण करके बराबर, शक्कर, और घी मिल वें । छिद्रहित नया घडा लेकर उसे सुगंधित पानीसे अच्छीतरह धोले । एवं उसके अंदरके भागमें सुगंधद्रव्य को लेपन, करें। उसमें उपर्युक्त अवलेह को रखकर अच्छीतरह उसका मुंह बांधकर बरसात के दिनोमें घरके बीचमें रहनेवाली धान्यकी राशिमें रखना चाहिये । बरसातका मौसम निकल जानेके बाद इसको निकाल लेवें । तत् पश्चात् वमन, विरेचन आदि पंचकोंक द्वारा शरीस्की शुद्धि व प्रयत्नपूर्वक दान करके, देवपूजा आदि सत्कर्मों को करें । तदनंतर इस रसायन को प्रातः प्रतिदिन, एक तोलेके प्रमाण स भवन कर । जीर्ण होने के बाद घी दूधके साथ भोजन करना चाहिये । तैलाभ्यंग, नान, शरीरको चंदनलेपन आदि करना चाहिये । रहनेका स्थान भी सुंदर बनाना चाहिये। इस प्रकार एक महिना करे तो उसका शरीर अतिसुंदर बनता है, शरीर के मर्व रोग दूर होते हैं तथा त्रियेंगे को प्रिय होता है ॥४६-४७-४८-४९॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारक बलारसायन । यत्नालामूलातुलां विशोष्य । अली. तो शुद्धतनुः पलार्धम् ॥ नित्यं पिबेदुग्धविमिश्रितं त-। उजीर्ण घृतक्षारयुतानझुक्तिः ॥ ५० ॥ भावार्थ:---- खोटी की जड़ को अच्छी तरह सुखाकर उसे चूर्ण करें। वमन आदि से शरीर की शुद्धि करके उसे प्रतिनित्य दो तोले दूध के साथ सेवन करें। जीर्ण होने के बाद घी दूध से भोजन करें ॥५०॥ বাৰিতাতি খাল। पिवेत्तथा नागवलातिपूर्वबलातिचूणे पयसा प्रभाते । नवेद्विदायोश्च पिकेन्मनुप्यो। महायलायुष्ययुतो वयुष्मान् ॥ ५१ ॥ भावार्थ:---- इसी प्रकाः गंगेरन, सहदेईका ( कंघी ) चूर्ण कर दूध के साथ व विदारिकन्द के चूर्ण को दूध के साथ उपयोग करें तो शरीर में बल बढता है । दीर्घायु होता है, शरीर सुंदर बनता है ॥५१॥ .. স্বাঃ - বসুন। गुडान्वितं वाकुचियोजचूर्ण-। मयोघटन्यस्तमतिप्रयत्नात् ॥ निधाय धान्ये - अवि सारानं । व्यपेनदोषोऽक्षफलप्रमाणम् ॥ ५२ ।। प्रभक्ष्य तच्छीतजलानुपानं । रसायनाहाराविधानयुक्तः ॥ निरामयस्सर्वमनोहरांग-. । ससमाशतं जीवति सत्वयुक्तः ।। ५३ ।। भावार्थ:-~-गुडसे युक्त वाकुची बीज के चूर्णको लोहेंके धडेम बहुत यत्न पूर्वक रखकर धान की राशि वा भूमि में, अथवा जमीन में गड्डा खोदकर, उसमें धान भरकर, उसके बीच में रखें । तदनंतर शुद्ध शरीर होकर ( वमन विरेचनादिसे शुद्ध होकर.) वह बहेडाके फल के बराबर रोज लेवे, व कारसे ठण्डा पानी पीलय । जीर्ण होनेपर रसायन Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नपानविधिः। सेवन करने के समय जो भोजन ( दूध, घी, भात ) आदि बनलाया है उसके सेवन करें। इस. रसायनको जो सेवन करता है वह मनुष्य निरोग होकर सुंदर शरीरवाला . बनता है एवं, महाबलशाली होकर सौ वर्षतक जीता है ।। ५२-५३ ।। ब्राम्हादि रसायन ब्राही मंडूकपर्णीमधिकतरवचाशर्कराक्षारसपि । मिश्रा संख्याक्रमेण प्रतिदिनममलस्सेवमान। मनुष्यः । रोगान्सान्निति प्रकटतरवलो रूपलावण्ययुक्तो।। जीवत्संवत्सराणां शतमिह सकल ग्रंथतत्वार्थदी ॥ ५४ ॥ भावार्थ:-ब्राह्मी, मजीठ एवं वच इनको चूर्णकर प्रतिदिन शुद्धचित्तसे घी दूध शक्कर के साथ सेवन करनेवाला मनुष्य निरोगी बनजाता है। उसकी शक्ति बढती है, सोंदर्यसे युक्त होकर एवं संपूर्ण शास्त्रोंको जाननेवाला विद्वान् होकर सौ वर्षतक जीता है ॥ ५४ ॥ वत्रादि रसायन । वज्री गोक्षुरवृद्धदारुकशतावर्यश्च गंधानिका । वर्षाभूसपुनर्नवामृतकुमारीत्युक्तदिव्यौषधीन् । हृत्वा चूर्णितमक्षमात्रमखिलं प्रत्येक वा पिबन् । नित्यं क्षीरयुतं भविष्यति नरमंद्राकतेजोऽधिकः ॥ ५५ ॥ भावार्थ:-गिलोय, गोखरु, विधारा शतावरी, काली अगर, भिलावा, रक्तपुननवा, श्वेतपुनर्नवा, वाराहीकंद, बडी इलायची, इन दिव्य औषधियोंको समभाग लेकर चूर्ण करें। इस चूर्ण को एक २ तोला प्रमाण प्रतिनित्य सेवन कर ऊपरसे दूध पीलेवें । अथवा उपरोक्त, एक २ औषधियों के चूर्ण को दूध के साथ सेवन करना चाहिये । इस के प्रभाव से मनुष्य चंद्रसूर्य से भी अधिक कांतिवाला बनजाता है ॥५५॥ रसायन सेवन करनेका नियम । मद्य मासं कषायं कटुकलवणसक्षाररूक्षाम्लवर्ग । त्यक्त्वा सत्यव्रतस्सन् सकलतनुभृतां सद्दयाव्याप्ततात्मा ।।.. क्रोधायासव्यवायातपपवनविरुद्धाशनाजीर्णहीनः । शश्वत्सर्वज्ञभक्तो मुनिगणवृषभान्पूजयेदोषदार्थी ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-औषधसे निरोग बननेकी इच्छा रखनेवाला जीव सबसे पहिले. मद्य, मांस, कषायला पदार्थ तीखा [ चरपरा, नमकीन, यवक्षार ,आदि . क्षार, रूक्षपदार्थ, Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) कल्याणकारके और हर प्रकार के खट्टे रसोंको छोडकर, एवं क्रोध, परिश्रम, मैथुन, धूप, वायु, विरुद्धभोजन, अजीर्णबाधा इत्यादि कष्टसे रहित होकर, सत्यव्रत में दृढ रहे । सभी प्राणियोंके ऊपर दया रखें। सदा काल सर्वज्ञ तीर्थंकरों के प्रति भक्ति करते हुए मुनिगण व धर्मकी उपासना करें। इस उपरोक्तः, आचरण को पालन करते हुए जो रसायन सेवन करता है, वह उन रसायनोंके पूर्ण गुणको पाता है ।। ५६ ॥ चंद्रामृत रसायन। प्रोक्तं लोकप्रतीतं भुवनतलगतं चंद्रनामामृताख्यं ॥ वक्षाम्येतत्सपर्णः प्रतिदिनममलद्रवद्वृद्धि हानि ॥ शुक्ले कृष्ण च पक्षे जति खलु सदालभ्यमेतद्यमावा- । स्यायां निष्पत्रमस्य हृदगहननदीशैलदेशेषु जन्म ॥ ५७ ।। एकानेकस्वभावं जिनमतमिवतीर्यसंज्ञास्वरूपै-। स्तन्यक्षीरं प्रमाणात्कुडबमिह गृहीत्वादारात् प्रातरेव ॥ कृत्वा गेहं त्रिकुड्यं त्रितलमतिघनं त्रि:परीत्य प्रवेशं । तस्यैवांतहस्थो विधुतपारजनस्तत्पिबनिश्चितात्मा ॥ ५८॥ पीत्वा दर्भोल्शय्यातलनिहिततनुर्वाग्यतस्संयलात्मा ॥ त्यक्त्वाहारं समस्तं तृषित इव पिबेच्छीततोयं यथावत ॥ सम्यग्वांतं विरिक्तं विगतमलकलंकोल्वणं पांशुशय्या-। संमुशांग क्षुधाते परिजनमिह तं पाययेत्क्षीरमेव ॥ ५९॥ नित्यं संशुद्धदेहं सुरभितरमृतं क्षीरमत्यंतशीतं ॥ सम्यक्तं पाययित्वा बलममृतसद्भुतमालोक्य पश्चात् ।। स्नानाभ्यंगानुलेपाननुदिनमशनं शालिज क्षीरसर्पि-1 र्युक्तं चैकैकवारं ददतु परिजनास्तस्य निष्कल्मषस्य ॥ ६० ॥ एवं मासादुपानयवहितचरणा वारवाणावृतांग-। स्सोष्णीषो रक्षितात्मा परिजनपरितो निर्बजेदात्मवासात् ॥ रात्री रात्री तथाह्यप्यनलपवनीतातपान्यबुपाना । न्यभ्यस्यन्नित्यमेवं पुनरपि निवसेद्हिमेतत्तथैव ॥६१ ॥ प्रत्यक्ष देवतात्मा स भवति मनुजो मानुषांगो द्वितीय-। चंद्रादित्यप्रकाशस्सजलजलधरध्यानगंभीरनादः। विद्युन्मालासहस्रद्युतियुतीवलसद्भपणभूषितांगा । दिव्यरूक्चंदनाद्यैरमलिनवसनैरन्वितोऽतर्मुहूर्तात् ॥ २ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः । पाताले चांतरिक्ष दिशि दिशि विदिशि द्वीपशैलाधिदेशे । यत्रेच्छा तत्र तत्राप्रतिहतगतिकश्चाद्वितीय बलं च ॥ स्पर्शी दिव्यामृतांगः स्वयमपि सकलान् रोगराजान्वितु । शक्तश्चायुष्यमामोत्यमलिनचरितः पूर्वकोटीसहस्रम् ॥ ६३ ॥ भावार्थः----इस भूमिक अहर चद्रामृत नामका औषधिविशेष है । उसकी विशेषता यह है कि वह अपने पत्तोंके साथ कृष्ण और शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन चंद्रके समान हानि और वृद्धि को प्राप्त होता है अर्थात शुक्ल पक्ष में रोज बढते २ पूर्णिमाके दिन बिलकुल हराभरा होता है। कृष्णपक्षम प्रतिदिन घटता जाता है और प्रत्येक अमावास्या के रोज उसकी सब पत्तियां झडजाती हैं और बहुत काठेनता से मिलता है। यह तालाव गहरीनदी, और पर्वत प्रदेशों में उत्पन्न होता है । जिनमत के स्याद्वाद के समान, इस का वीर्य नाम, स्वरूप आदि, एकानेक स्वभावयुक्त हैं । तात्पर्य यह कि इसकी शक्ति आदि अचिंत्य है । इस औषधिको सेवन करने के लिये एक ऐसा मकान बनावें जो तीन दीवाल, तीन मंजिल का हो और तीन प्रदक्षिणा देने के ही बाद जिस के अंदर प्रवेश हो सकें । इस के गर्भगृह ( बीचवाला कमरा ) में, रसायन सेवन करनेवाला, बंधुबांधव परिचारक आदिकों से वियुक्त होकर अकेला ही बैठे । और १६ तोले स्त्री के दूध में इस चद्रांमृत को मिलाकर निश्चल चित्त से, प्रातःकाल में पीवें । पश्चात् मौनधारण करते हुए दर्भशय्या पर सोवें । सम्पूर्ण आहार को छोडकर, प्यासी के समान बार २ केवल ठण्डा पानी पीयें । उस के बाद उसे, अच्छीतरह वमन विरेचन होकर कोष्ट की शुद्धि होती है । इस प्रकार जिस के शरीर से मल, दोष आदि निकल गये हों जो धूलिशय्या ( जमीन ) में पडा हो, क्षुधा से पीडित हो उस को कुटुंबीजन, केवल दूध पिलावें । फिर चटाईके ऊपर लेटकर मौन धारण करें संपूर्ण आहारोंका त्याग करें। प्यासी के समान वार२ ठण्डा पानी पीलेवें, उसके बाद उसे अच्छीतरह वमन और रेचन होकर उसकी कोष्टशुद्धि हो जायगी तब उसे ऊंची शय्या (पलंग) पर सुलावें । क्षुधारोगसे पीडित उसको कुटुंबीजन केवल दूध पिलावें । प्रतिनित्य (वमन विरेचन होनेके बाद ) उसे इसी प्रकार सुगंधयुक्त गरमकरके ठण्डा किया हुआ दूध पिलावें । एवं इस अमृतके योगसे उसके शरीर में शक्ति आई मालुम पडनेपर मालिश, स्नान, अनुलेपन वगैरह करावें, एवं चावलकी भात वी दूधके साथ दिनमें एकबार खिलायें । इस प्रकारका प्रयोग एक महिने तक करें। तदनंतर यह पैर में जूता, मोजा वगैरह पहन कर, गरम कोर्ट वगैरह से शरीरको ढककर, शिरमें साफा बांधकर, अपने परिवार के लोगोंको साथ लेकर बाहर रात में निकलने का अभ्यास करें। इस प्रकार अग्नि, वायु, ठण्ड गरमी और Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) कल्याणकारके अधिक पानी पीने आदि का अभ्यास करते हुए फिर उसी घर में प्रवेश करें। यह अभ्यास प्रतिनित्य करें। इस रसायनको सेवन करनेवाला व्यक्ति देवोंके समान अद्वितीय बन जाता है, चन्द्रसूर्य के समान प्रकाशवान शरीरवाला होता है । मेघके समान गंभीर शब्दवाला बन जाता है । हजारों बिजलियों के समान चमकनेवाले आभूषणों से युक्त शरीरवाला बन जाता है । स्वर्गीय पुष्पमाला, चंदन, निर्मलबस्त्र इत्यादि से अन्तर्मुहूर्त में शोभित होता है । पाताल में, आकाश में, दिशा विदिशा में, पर्वत में, समुद्रप्रान्त में, जहांपर भी इच्छा है वहींपर बिगर रुकावट गमन करसकता है। म्पर्शकरनेमें उसका शरीर ऐसा मालुम होता है कि दिव्यअमृत ही हो एवं बह बडे २ रोगोंको जीतनेके लिये समर्थ रहता है। इस संसारमें निर्मल चारित्र को प्राप्तकर सहस्र पूर्वकोटी आयुष्यको प्राप्त करता है ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ ५९ ॥ ६० ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ ६३ ।। विविध रसायन । एवं चंद्रामृतादप्यधिकतरबलान्यत्रसत्यौषधानि । । प्रख्यातानींद्ररूपाण्यतिबहुविलसन्मण्डलैर्मण्डितानि ॥ नानारखाकुलानि प्रबलतरलतान्येकपत्र द्विपचा-।। *ण्येतान्येतद्विधानादनुभवनमिह प्रोक्तमासीत्तथैव ॥ ६४ ॥ . भावार्थ:-इस प्रकार इस चंद्रामृतसे भी अधिक शक्तियुक्त बहुतसे औषध मौजूद है। उनके सेवनसे साक्षात् देवेंद्रके समान रूप बनजाता है। उनके पत्तोमें बहुतसी चमकीली नानाप्रकारकी रेखायें रहती हैं। कोई एकपत्र द्विपत्रवाली लतायें रहती हैं । उनको उक्त विधीके अनुसार सेवन करनेसे अनेक प्रकारके फल मिलते हैं ॥ ६४ ॥ चन्द्रामृतादिरसायनके अयोग्यमनुष्य। पापी भीरुः प्रमादी जनधनरहितो भेषजस्यावमानी। कल्याणोत्साहहीनो व्यसनपरिकरो नात्मवान् रोषिणश्च ॥ तेचान्ये वर्जनीया जिनपतिमतबाह्याश्च ये दुर्मनुष्याः। लक्ष्मीसर्वस्वसौख्यास्पदगुणयुतसद्भपश्चंद्रमुख्यः ॥ ६५ । भावार्थ:--ऐश्वर्य, व सुखको उत्पन्न करने वाले, उपर्युक्त चंद्रामृतादि दिव्यऔषधोंको. पापी, भी आलसी, परिवारजनरहित, निर्धन, औषधिके अपममान. करनेवाले, व्यसनोमें मग्न, इन्द्रियों के वशवर्ति ( असंयमी ) क्रोधी, जिनधर्मद्वेषी, और दुर्जन आदिको नहीं देना चाहिये !..६५ ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः दिव्यौषध प्राप्त न होने के कारण । दैवादज्ञानतो व धनरहिततया भेषजालाभतो वा । चित्तस्याप्यस्थिरत्वात्स्वयमिहनियतोद्योगहीन स्वभावात् ॥ आवासाभावती वा स्वजनपरिजनानिष्टसंपर्कतो वा । नास्तिक्यान्नानुवंति स्वहिततरमहाभेषजान्यप्युदाराः ॥ ६६ ॥ भावार्थ:- बडे २ श्रीमंत भी उपर्युक्त महाऔषधियोंको दैवसे, अज्ञानसे, वनाभावसे, औषधिके न मिलनेसे, चित्तकी अस्थिरतासे नियतउद्योगके रहित होनेसे, योग्य मकान के न होनेसे, अनिष्ट निजवंधुमित्रोंके संपर्क एवं नास्तिकभावोंके होने से प्राप्त नहीं कर पाते हैं ॥ ६६ ॥ अंतिमकथन | इति जिनवक्त्रनिर्गतशास्त्रमहांनिषेः । सकलपदार्थविस्तृत तरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ४५ ॥ भावार्थ:- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्री जिनेंद्र के मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्र से निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ६७ ॥ ***-- इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके स्वास्थ्यरक्षाणाधिकारे रसायनविधिष्ट परिच्छेदः । ( १०३ ) -:0: इत्युप्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के स्वास्थ्यरक्षणाधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाविविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में रसायनविधि नामक छठा परिच्छेद समाप्त हुआ । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) कल्याणकारके अथ सप्तम परिच्छेदः। अथ चिकित्सासूत्राधिकार । मंगलाचरण व प्रतिक्षा। जिनेंद्रमानंदितसर्वसत्वं । जरारुजामृत्युविनाशहेतुं ॥ प्रणम्य वक्ष्यामि यथानुपूर्व । चिकित्सितं सिद्धमहाप्रयोगैः ॥ १ ॥ भावार्थ:-जन्मजरामृत्युको नाश करनेके लिए कारणीभूत अतएव सर्वलोकको आनंदित करनेवाले श्री जिनेंद्र भगवानको प्रणामकर सिद्धमहाप्रयोगोंके द्वारा यथाक्रम चिकित्साका निरूपण करूंगा, इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ १ ॥ पुरुष निरूपण प्रतिक्षा। चिकित्सितस्याति महागुणस्य । य एवमाधारतया प्रतीतः ॥ स एव सम्यक्पुरुषाभिधानो। निगद्यते चारुविचारमार्गः ॥ २ ॥ भावार्थ:- महागुणकारक चिकित्साके आधारभूत, और पुरुष नामांकित जो आत्मा है उसके स्वभाव आदि के विषय में सुचारुरूपसे कुछ वर्णन करेंगे इस प्रकार भाचार्य कहते हैं ॥ २ ॥ आत्मम्वरूप विवेचन । अनादिबद्धस्स कथंचिदात्मा । स्वकर्मनिर्मापितदेहयोगात् ॥ अमृतम्रतत्वनिजस्वभाव- ।। म्स एव जानाति स पश्यतीह ।। ३ ॥ भावार्थ:---यह ज्ञानदर्शन म्वरूप ( अर्तिमान ) आत्मा अपने कर्मले रचित शरीरके द्वारा अनादि कालसे बद्ध है इसलिये वह कथंचित अमूर्तत्व कथंचित् मूर्तिमत्व, स्वभाव से युक्त है। ज्ञानदर्शन ही उसका लक्षण है इसलिये, वही सब बातों को जानता है, और देखता भी है । अत एव ज्ञाता द्रष्टा कहलाता है ॥ ३ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः । आत्माके कर्तृत्व आदि स्वभाव । सदैव संस्कर्तगुणोपपन्न- । स्स्वकर्मजस्यापि फलस्य भोक्ता ॥ अनाद्यनंतस्स्वशरीरमात्रः । प्रधान संहारविसर्पणात्मा ॥ ४ ॥ भावार्थ::- यह आत्मा, सदा कर्तृत्व गुण से युक्त है अर्थात् सभी कार्यों को करता है । इसलिये कर्ता कहलाता है । पूर्व में किये गये अपने कर्मफल को स्वयं भोगता है, ( अन्य नहीं ) इसीलिये भोक्ता है । यह आत्मा अनादि व अनंत है, एवं अपने शरीर के प्रमाण में रहनेवाला है और संकोच विस्तार गुण से युक्त है ॥ ४ ॥ आत्मा स्वदेहपरिमाण है । न चाणुमात्रो न कणप्रमाणो । नाप्येवमंगुष्ठसमप्रमाणः || न योजनात्मा नच लोकमात्री । देही सदा देहपरिमाणः ॥ ५ ॥ भावार्थ:- इस आत्मा का प्रमाण अणुमात्र भी नहीं है । एक कण मात्र भी नहीं है । एवं अटके समान प्रमाणवाला भी नहीं है, और न इसका प्रमाण योजनका है, न लोकव्यापी है । देही ( आत्मा ) सदा अपने देहके ही प्रमाणवाला है ॥ ५ ॥ 1 आत्मा का नित्यानित्यादि स्वरूप | ध्रुवोप्यसौ जन्मजरादियोग | पर्यायभेदैः परिणामयुक्तः ॥ गुणात्मको दुःखसुखाधिवासः । कर्मक्षयादक्षमोक्षभागी ॥ ६ ॥ भावार्थ:- यद्यपि यह आत्मा ( मिस ) है अर्थात् अविनाशी है । तथापि जन्मजरा मृत्यु इत्यादि पर्यायोंके कारण परिणनन शील है अर्थात् अनित्य है, विनाशस्वरूपी हैं । अनेक श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त है । दुःखसुखका अधारभूत है अर्थात् उनको स्वयं अनुभव करता है । कर्मक्षय होनेके बाद अक्षय ( अविनाशी ) मोक्षस्थानको प्राप्त करता है || ६ || ( १०५) आत्मा का उपर्युक्त व वालिये अत्यावश्यक है । एवं विध पदार्थभेदो । मतं भवेचस्य चिकित्सकस्य ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके सोऽयं भवेदौपचसंविधानं ।। सुखकहेतुं तनुमद्गणस्य ।। ७ ।। न नित्यमार्ग क्षणिकस्वभावे । क्रिया प्रसिद्धा स्ववची विरोधात् ॥ हेवागमाधिष्ठित युक्तियुक्त। स्थाद्वादवादाश्रयणं प्रधानम् ॥ ८॥ भावार्थ:-जिस चिकित्सकके मतमें उपर्युक्त प्रकार जीवपदार्थका वर्णन किया गता हो वही चिकित्सक प्राणियोंको मुख उत्पन्न करनेवाली चिकित्साको करसकता है। अन्य नहीं । आत्माके स्वभावको सर्वथा नित्य माननेपर अथवा सर्वथा क्षणिक मानोपर चिचिलाको प्रति ही नहीं हो सकती, क्यों कि, म्ववचन से ही विरोध आता है । आमाको सर्वथा नियमाननार चिकिमाकी आवश्यकता ही नहीं । सर्वथा क्षणिक माननेपर फोन किसकी चिकित्सा करें । इसलिए हेतु, आगम, युक्ति से युक्त स्याद्वाद [ अनेकांत ] का आश्रय करना आवश्यक है । अर्थात कचित् नित्य कथंचित् अनित्य मानना गा ।। ७-८ अतः पुमान्व्याधिरिहीषधानि । काल. कथंचिवहारयोग्यः ॥ नः सर्वथेति प्रतिपादनीयम् । युक्त्यागमाभ्यामधिक विरोधात् ॥ ९ ॥ भावार्थ----इसलिये अता, यावि, औषधि, और कालको, ऐसा मानना चाहिये जिसने ये किसी अपेक्षासे व्यवहार में लाने योग्य हो। कभी भी, नित्य ही है, अनित्य ही है , इत्यादि इस प्रकार सर्वथा प्रतिपादन न करना चाहिये । क्यों कि सर्वथा प्रतिपादन करने में, युक्ति, और आगम से, अत्यतं विरोध आता है ॥२॥ कमकि उदय के लिए निमिन कारण। ... जीवस्यकमार्जिनपण्यपाप.. फलं प्रयत्नेन विनापि भुत्ते ॥ दोषप्रकोपोपशमौ च ताभ्या- । मृदाहता हेतनिबंधनाती ॥ १० ॥ मावार्थ:---.- यह जीत अपने कमलाल पुण्यपाप फलको विना प्रयत्नके ही १...पुकर्म जिस मम, पना करने लगता है, तो प्राणियोंको मुम्ब का अनुभव होता है । साप कर्म अपना लगे तो, दासती दुःख का अनुभव होता है । ( इन कर्मोके Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः । (१०७) अवश्य अनुभव करता है । वातपित्तादि दोषोंके प्रकोप और उपशम, पाप की, व पुण्यकर्म के फल देनेमें निमित्त कारण हैं ॥ १० ॥ रोगात्पत्ति के हेतु। सहेतुकास्सर्वविकारजाता स्तषां विषको शुगमुख्यभदात ॥ हेतुः पुनः पूर्वकृतं स्वकर्म। . ततःपरे तस्य विशेषणानि ॥११॥ भावार्थ:----शरीर में सर्व विकार (रोग ) सहेतुक ही होते हैं । परंतु उन हेतुया. को जानने के लिये गोण और मुख्यविवक्षा किसे काम लेनकी जरूरत है। रोगादिक विकारोंका मुख्य हेतु अपने पूर्वकृत कर्म है। बाकीके सब उसके विशेषण है अर्थात् निमित्त कारण हैं । गौण हैं ॥ ११ ॥ कर्म का पर्याय । स्वभावकालग्रहकमदेव- । विधात पुण्यश्वरभाग्यपापम् ।। विधिःकृतांती नियतियमथ । पुराकृतस्यैव विशेषसंज्ञाः ॥ १२ ॥ भावार्थ:--स्वभाव, काल, ग्रह, कर्म, देव, विधाता ( ब्रह्मा ) पुण्य, ईश्वः, भाग्य पार, विधि, कृतांत, नियति, यम, ये सब पूर्वजन्मकृत कर्मका ही अपरनाम है । इसलिये जो लोग ऐसा कहा करते हैं कि "काल बिगडगया, ग्रह दोर मुझे दुःख देरहा है, दैव रुष्ट है, ब्रह्माने ऐसा ही लिखा है, ईश्वरकी ऐसी मर्जी है, यम. महान् दुष्ट है, होनहार बडा प्रबल है " इन सबका यही अर्थ है कि पूर्वोपार्जित कर्नको उदयसे ही मनुष्यको सुखदुःख मिलते हैं ॥ १२ ॥ रागात्पत्ति के शुख्यकारण न भूतकापानच दोषकोपा- | नचैव सांवत्सरिकोपरिष्टात् ॥ ग्रहप्रकापात्प्रभवंति रोगाः। कर्मोदयोदीरणभावतस्ते ॥ १३ ॥ विना सुख दुःख का अनुभव हो ही नहीं सकता) लेकिन इन दोनों कर्मोको अपना फल प्रदान करने में निर्मित कारणों की जरूरत पड़ती है । पुण्यकर्म के लिए निमित्तकारण, दोषोंके उपराम होना है पारकर्म के लिए, दोषोंके प्रकोप होना है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) कल्याणकारके भावार्थ:- पृथ्वी आदि भूतोंके कोपसे रोग उत्पन्न नहीं होते हैं, दोषोंके प्रकोप से ही रोग होते हैं । वर्षफलके खराब होनेसे और मंगल प्रकोप से भी रोगों की उत्पत्ति नहीं होती है । लेकिन कर्मके उदय और रोग उत्पन्न होते हैं ॥ १३ ॥ कमशांति करनेवाली निया ही चिकित्सा है । तस्मात्स्वकर्मोपशमक्रियाया । व्याधिशांतिं प्रवदति तदज्ञाः ॥ स्वकर्माको द्विविधो यथाव- । दुपाय कालक्रमभेदभिन्नः ॥ १४ ॥ भावार्थ: इसलिये कर्मके उपशमनक्रिया ( देवपूजा ध्यान आदि ) को बुद्धिमान् लोग वास्तव में रोगशांति करनेवाली क्रिया अर्थात् चिकित्सा कहते हैं । अपने कर्मका पकना दो प्रकार से होता है । एक तो यथाकाल पकना दूसरा उपायसे पकना ॥ १४ ॥ 1 afauratfare निर्जरा उपायपाको वरोरवीर- । तपः प्रकारैस्ववियुद्धमार्गः ॥ सद्यः फलं यच्छति कालपाकः । कालांतराद्यः स्वयमेव दयात् ॥ १५ ॥ · भावार्थ: उत्कृष्ट वोर वीर तपस्यादि विशुद्ध उपायोंसे कर्मको जबरदस्ती से ( वह कर्मका उदय काल न होते हुए भी) उदयको लाना यह उपाय पाक कहलाता है । इससे उसी समय फल मिलता है । कालांतर में यथासमय पककर स्वयं उदयमें आकर फल देता है वह कारपाक है अपने आयुष्यावसान में ). १५॥ और न कोई आदि ग्रहों के उदीरणा से ही यथा तरुणां फलपाकयोगी । मतिप्रगल्भः पुरुषैर्विधेयः ॥ तथा चिकित्सा प्रविभागकाले । दोपप्रपाको द्विविधः प्रसिद्धः ॥ १६ ॥ भावार्थ: - जिस प्रकार वृक्षके फल स्वयं भी पकते हैं एवं उन्हें बुद्धिमान मनुष्य उपयों द्वारा भी पकाते हैं । इसी प्रकार प्रकुपित दोष भी उपाय (चिकित्सा) और कालक्रम से दो प्रकार से पक्क होते हैं ।। १६॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनविधिः । उपाय और कालपाकका लक्षण । आमघ्नसद्भेषजसंप्रयोगादुपायपाकं प्रवदंति तज्ञाः ॥ कालांतरात्कालविपाकमाहु- । मृगद्विजानाथजनेषु दृष्टम् ॥ १७॥ भावार्थ:---रोगकी कन्चावटको दूर करनेवाली औषधियोंका प्रयोग करके दोषों को पकाना उपाय पाक कहलाता है । कालांतर में ( अपने अवधिक अन्दर ) स्वयमेव ( विना औषधि के ही ) पकजानेको कालपाक कहते हैं, जो पशु पक्षि और अनाथो में देखाजाता है ॥ १७ ॥ गृहनिर्माणाकथन प्रतिक्षा। तस्माच्चिकित्साविषयोपपन्न । नरस्य सद्वृत्तमुदाहरिष्ये ॥ तत्रादितो वेश्मविधानमेव । निगद्यत वास्तुविचारयुक्तम् ॥ १८ ॥ भावार्थ:-~~~-इसलिये चिकित्सा करने योग्य मनुष्यमें क्या आचरण होना चाहिये यह बात कहेंगे। उसमें भी सबसे पहिले रोगीको रहने योग्य मकानके विषयमें वास्तुविद्या के साथ निरूपण किया जायगा । क्यों कि सबसे अधिक उसकी मुख्यता है ॥१९॥ गृहनिर्मापण विधान। प्रशस्तदिग्देशकृतं प्रधान- । माशागतायां प्रविभक्तभागं ॥ प्राचीनमतं प्रभुमंत्रतंत्र- । यंत्रस्सदा रक्षितमक्षरज्ञः ॥ १९ ॥ भावार्थ:-मकान योग्न ( प्रशस्त ) दिशा देशमें बना हुआ होना चाहिये प्रधान दिशा में भी जो श्रेष्ठ भाग है उसमें होना चाहिये । प्राचीन मंत्र यंत्रके विषयको जाननेवाले विद्वानों द्वारा मंत्रयंत्र तंत्रप्रयोग कराकर रक्षित हो ऐसा होना चाहिये ॥१९॥ सदैव संमार्जनदीपधूप-। पुष्पोपहारैः परिशोभमानन् । मनोहरं रक्षकरक्षणीयम् । परीक्षितस्त्रीपुरुषप्रधेशनन् ॥ २० ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) कल्याणकारके भावार्थ:--यह मकान, सदा झाड़ लगाना, दीप जलाना, धूपसे सुगंवितकरना, फूलमालाओं को टागना इन से सुशोभित, मनोहर, और रक्षकों द्वारा रक्षित होना चाहिये । एवं वह योग्य स्त्री पुरुषों के प्रवेश से परीक्षित होना चाहिये ॥२०॥ निवातनिश्च्छि मतदोष-- मासनसोपस्कर भेषजाड्यम् ॥ आपूर्णवणाञ्चलकरीभि ग्लंकृतं मंगलवास्तु शस्तम् ॥ २१ ॥ भावार्थ:---- यह मकान अधिक हवादार छिद्र व दोषयुक्त न हो । अनेक उपकरण और श्रेष्ठ औषधियां जिसके पास हो, सुंदर २ चित्र व गुलछरोंसे शोभित हो ऐसा मंगल मकान प्रशस्त है ॥ २१ ॥ शय्याविधान । तस्मिन्महावेश्मनि नानुवंशं । विशीर्णविस्तीर्णमाभिराम ॥ सखटमाढ्यं शयनं विधेयम् । निरंतरातानवितानयुक्तम् ॥ २२ ॥ , भावार्थ:-उपर्युक्त प्रकार के महान् मकान में, रोगी को सोने के लिये एक अच्छे खाट ( पलंग ) पर, ऐसा विस्तर बिछाना चाहिये, जो, नया, विशाल और मनोहर हो, जिसके चारों ओर पर्दा, ऊपर चन्दोवा ( मच्छरदानी ) हो । ॥ २२॥ शयनविधि। स्निग्धैः स्थिधुभिरप्रमत्त-। रनाकुलेस्साधु विधाय रक्षाम् ॥ पारदक्षिणाशानिहितोत्तमांग-- । · इशयीत तस्मिन् शयने सुखार्थी ॥ २३ ॥ भावार्थ:-मित्रजन, स्थिर चित्तवाले, बंधु, सतर्क और शांत मनुष्योंके द्वारा रोगीकी रक्षा होनी चाहिये । सुखकी इच्छासे वह रोगी उस पलंगपर पूर्व या दक्षिण दिशाके तरफ मस्तक करके शयन करें ॥ २३ ॥ रोगीकी दिनचर्या प्रातः समुत्थाय यथोचितात्मा । नित्यौषधाहारविचारधर्मः ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नपानाविधिः। . आस्तिक्यबुद्धिस्सतताप्रमत्त-। स्सर्वात्मना वैद्यवचोऽनुवर्ती ॥ २४ ॥ भावार्थ:-----प्रातःकाल उठकर प्रतिनित्य अपने योग्य औषधि और आहारके विषय में वह विचार करें कि किस समय कोनसी औषधि लेनी है, क्या खाना चाहिये. भादि । आस्तिक्य बुद्धि रग्वें और सदा सावधान रहें । एवं सर्व प्रकार से वैद्यके अभिप्रायानुसार ही अपना आहारविहार आदि कार्य करें ।। २४ ॥ यमैश्च सर्वनियमरुपेती । । मृत्युंजयाभ्यासरतो जितात्मा ॥ जिनेंद्रबिंबार्चनयात्मरक्षा । दीक्षामिमां सावधिका गृहीत्वा ॥ २५॥ भावार्थ:-प्रतिनित्य यम या नियम नोंसे युक्त रहें । मृत्युंजयादि-मंत्रोंको जपते रहें । इंद्रियोंको वश में कर रखें । जिनेंद्र बिंबकी पूजासे मैं अपनी आत्मरक्षा करलूंगा इस प्रकारकी नियम दीक्षा को लेवें ॥ २५ ।। दिवा निशं धर्मकथास्स धन । समाहितो दानदयापरश्च ॥ शांति पयोमृष्टरसानपान । स्सतर्पयन्साधुमुनींद्रवंदम् ॥ २६ ॥ भावार्थ:-रात्रिंदिन धर्मकथावों को सुनते हुए सदाकाल दया और दानमें रत रहें । सदा सुंदर मिष्ट आहारोंसे शांत साधुगणोंको तृप्त करते रहें ॥ २६ ॥ सदातुरस्सर्वहितानुरागी। पापक्रियाया विनिवृत्तवृत्तिः ॥ वृषान्विमुंचन्नथदाहिनश्च [ ? ] विमोचयन्बंधनजस्थान ॥ २७ ॥ ... भावार्थ : ----सदा गेगी सबका हितैषी बने और मवसे प्रेम । सर्व पाप क्रियाओं को बिलकुल छोड देवें । वंदन में रहे । अन्य प्राणियोंको दयासे छुडावें ॥२७॥ शाम्योपशांति च नरश्चभक्त्या । निनादभन्या जिनचंद्रभक्त्या ।। एवंविथो दृरन पद पापा---- द्विमुच्यते किं खल रांगजालेः ॥ २८ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) कल्याणकारके wi भावार्थ:--उपर्युक्त प्रकार के सदाचरणों से जो मनुष्य अपने आत्माको निर्मल बना लेता है, एवं जो जिनागम व जिनेंद्रके प्रति भक्ति करता है, वह मनुष्य शांति व सुखको प्राप्त करता है। उस मनुष्यको पाप भी दूरसे छोडकर जाते हैं, दुष्ट रोगजाल क्यों उसके पासमें जावेंगे ॥ २८ ॥ सर्वात्मना धर्मपरी नरस्स्या-। त्तमाशु सर्व समुपैति सौख्यम् ।। पापोदयात्ते प्रभवंति रोगा। धर्माच्च पापाः प्रतिपक्षभावात् ॥ २० ॥ नश्यंति, सर्वे प्रतिपक्षयोगा द्विनाशमायांति किमत्रचित्रम् ॥ भावार्थ:-जो व्यक्ति सर्वप्रकारसे धर्मपरायण रहता है उसे संपूर्ण सुख शीघ्र आकर मिलते हैं। ( इसलिये, रोगीको, धर्म में रत रहना चाहिये ) पापके उदयसे रोग उत्पन्न होते हैं । पाप और धर्म ये दोनों परस्पर विरोधी हैं। धर्मके अस्तित्वमें पापनाश होता है । क्यों कि धर्म पापके प्रतिपक्षी है अर्थात् पाप अपना प्रभाव धर्मके सामने नहीं बतला सकता । प्रतिपक्षकी प्रबलता होनेपर अन्य पक्षके नाशहोनेमें आश्चर्य क्या है ! रोगोपशमनार्थ, बाह्याभ्यतंर चिकित्सा धर्मस्तथाभ्यतरकारणं स्या-। द्रोगप्रशांत्यै सहकारिपूरम् ॥ बाह्यं विधानं प्रतिपद्यतेऽत्र । चिकित्सितं सर्वमिहोभयात्म ॥ ३० ॥ भावार्थ:----इस कारणसे रोगशांति के लिये धर्म अभ्यंतर कारण है । बाह्य चिकित्सा केवल सहकारी कारण है उसका निरूपण यहांपर किया जायगा। अत एव संपूर्ण चिकित्सा बाह्य और अभ्यंतरके भेदसे दो प्रकार की है ॥ ३० ॥ बाह्यचिकित्सा। द्रव्यं तथा क्षेत्रमिहापि कालं । भावं समाश्रित्य नरम्मुखी स्यात् ।। स्नेहादिभिवी सुविशेषयुक्तम् ।। छेद्यादिभिर्वा निगृहीतदेहः ॥ ३१ ॥ १ इस श्लोकके दो मूलप्रतियों को टटोलनेपर भी दो ही चरण उपलब्ध हुए। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याधिसमुद्देशः । ( ११३) भावार्थ:-द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावको अनुसरण करके यथायोग्य स्नेहन स्वेदन, वमन विरेचन आदि कर्मों को, तथा छेदनभेदन आदि के योग्य रोगो में छेदन, भेटन आदि क्रिया करें तो रोगपीडित मनुष्य सुखी होता है ॥ ३१ ॥ चिकित्सा प्रशंसा। चिकित्सितं पापविनाशनार्थ । चिकित्सितं धर्मविवृद्धये च । चिकित्सितं चोभयलोकसाधनं ॥ चिकित्सितानास्ति परं तपश्च ।। ३२ ॥ भावार्थ:----गोगयोंकी चिकित्सा करना पापनाशका कारण है। चिकित्सासे धर्मकी वृद्धि होती है। चिकित्सा इह परमें सुख देनेवाली है। किं बहुना ? चिकित्सासे उत्कृष्ट कोई तप नही हैं ॥ ३२ ॥ चिकित्सा के उद्देश तस्माचिकित्सा न च काममोहा- । बचार्थलोभानच मित्ररागात ।। न शत्रुरीषान्नच बंधुबुध्या । न चान्यइत्यन्यभनोविकारात् ।। ३३ ॥ नचैव सत्कारनिमित्ततो वा । नचात्मनस्सद्यशसे विधेयम् ॥ कारुण्यबुध्या परलोकहेतो । कमेक्षयाथे विदधीत विद्वान ॥ ३४ ॥ भावार्थ:----इसलिये वैद्यको उचित है कि वह काम ओर मोहबुद्विसे चिकित्सा कभी नहीं करें । द्रव्यके लोभसे, मित्रानुरागसे, शत्रुरागसे, बधुवुद्धिसे, एवं अन्य मनोविकारोंसे युक्त होकर वह चिकित्सामें प्रवृत्त नहीं हो । आदरसत्कारकी इच्छासे, अपने यशके लिये भी वह चिकित्सा नहीं करें । केवल रोगियों के प्रति दयाभावले एवं परटोक साधनके लिये एवं कर्मक्षय होने के लिये विद्वान् वैद्य चिकित्सा करें ॥ ३३.३४ ।। निरीह चिकिताका फल। एवं कृता सर्वफलप्रसिद्धि । स्वयं विदध्यादिद सा चिकित्सा ।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) कल्याणकारक सम्यकृता साधु कृषियथार्थ । ददाति तत्पूरुषदेवयोगात् ॥ ३५ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार उपर्युक्त उद्देशसे का हुई चिकित्सा उस वैद्यको सर्व फल को स्वयं देती है। विन चाहे उसे धन यश सब कुछ मिलते हैं। जिस प्रकार अच्छीतरह की हुई कृषि कृषीवलके पौरुष दैवयोगसे स्वयं धनसंचय कराती है उसी प्रकार शुद्ध हृदयसे की हुई चिकित्सा वैद्यको इह परमें समस्त सुख देती है ॥ ३५ ॥ चिकित्सा से लाभ। कचिच्च धर्म कचिदर्थलाभं । कचिच्च कामं कचिदेव मित्रम् ॥ कचिद्यशस्सा कुरुते चिकित्सा। कचित्सदभ्यासविशादरत्वम् ।। ३६ ॥ भावार्थ:-उस चिकित्सा से वैद्यको कही धर्म (पुण्य) की प्राप्ति होगी । कहीं द्रव्यलाभ होगा। कहीं सुख मिलेगा। किसी जगह मित्रत्व की प्राप्ति होगी। कहीं यशका लाभ होगा और कहीं चिकीत्सा के अभ्यास बढ जायगा ।। ३६ ॥ वैद्योंको निन्य सम्पत्तीकी प्रानि । न चास्ति देशो मनुजैविहीनो । न मानुषस्त्यक्तनिजामिपा वा ॥ न भुक्तवतो विगतामयास्ते-। प्यतो हि संपद्भिपजां हि नित्यम् ॥ ३७ ॥ भावार्थ:-ऐसा कोई देश नहीं जहां मनुष्य न हों । ऐसे कोई मनुष्य नहीं जो भोजन नहीं करते हों। ऐसे कोई भोजन करनेवाले नहीं जो निरोगी हों । इसलिये विद्वान् वैद्यको सदा सम्पत्ति मिलती है ॥ ३७॥ . वैद्यके गुण। चिकित्सकस्सत्यपरस्सुधरिः । क्षमान्वितो हस्तलघुत्वयुक्तः ।। स्वयं कृती दृष्टमहापयोगः ।। समस्तशास्त्रार्थविदप्रमादी ॥ ३८ ॥ भावार्थ:-चिकित्सक वैद्य, सत्यनिष्ट हो, धीर हो, क्षमा और हस्तलावबसे युक्त हो, कृती [ कृतकृत्य व निरोगी ] हो, जिसने बड़ी २ चिकिःसाप्रयोगों को Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याधिसमुद्देशः । ( ११५ ) देखा हो, सम्पूर्ण आयुर्वेदीय शास्त्र के अथको गुरुमुखसे जान लिया हो, तथा प्रमादरहित हो। इन गुणोंसे सुशोभित वैद्य ही योग्य वैद्य कहलाता है ॥ ३८ ॥ रोगी के गुण | अथातुरोप्यर्थपतिश्चिरायु- । बुद्धिमानिष्टकलत्रपुत्र ॥ सुभृत्यबंधुस्सुसमाहितात्मा । सुसत्ववानात्मसुखाभिलाषी ।। ३९ ।। भावार्थ:- रोगी भी श्रीमंत हो, दीर्घायुपी हो, बुद्धिमान् हो, अनुकूल स्त्रीपुत्र शक्तिशाली हो, जितेंद्रिय हो, एवं आत्मसुख की इच्छा मित्र बंधु भृत्यों से युक्त हो, रखने वाला हो ॥ ३९ ॥ औषधि गुण | सुदेशकालो धृतमल्पमात्र । सुखं सुरूपं सुरसं सुगंधि || निपीतमात्रामयनाशहेतुम् । विशेषतो भेषजमादिशति ॥ ४० ॥ भावार्थ:-सुदेश में उत्पन्न, योग्य काल में उद्धृत [ उखाडी ] परिमाण में अल्प, सुखकारक, श्रेष्ठ रूप, रस, गंध से युक्त और जिसके सेवन करने मात्र से ही रोगनाश होता हो ऐसी औषधि प्रशस्त होती है ॥ ४० ॥ परिचारकके गुण । बलाधिकः क्षांतिपराः सुधीराः । परार्थबुध्यैकरसप्रधानाः ॥ सहिष्णवः स्निग्धतराः प्रवीणाः । भवेयुरेते परिचारकाख्याः ॥ ४१ ॥ भावार्थ:-- -परिचारक अत्यंत बलशाली, क्षमाशील, धीर, परोपकार करनेमें दत्तचित्त, स्नेही एवं चातुर्य से युक्त होना चाहिए अर्थात् रोगीके पास रहनेवाले, परिचारकोंमें उपर्युक्त गुण होने चाहिये ॥ ४१ ॥ पादचतुष्टय की आवश्यकता | एते भवत्यप्रतिमा स्तुपादाचिकित्सितस्यांगतया मतीताः ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) कल्याणकारके तैस्तद्विकारानचिरेण हंति । चतुष्टयनैव बलेन शत्रून ॥ ४२ ॥ भावार्थ:-इन पूर्व कथितगुणांस युक्त, वेद्य, आतुर, औषध, और परिचारक, चिकित्साके विषयमें, असाधारण पाद चतुष्टय कहलाते हैं । ये चारों चिकित्सा के अंग हैं । इनके द्वारा ही, रोगोंक समूह शीघ्र नाश हो सकते हैं । जिसप्रकार राजा चतुरंगसेनाके बलसे शत्रुवोंको नाश करता है ॥ ४२ ॥ वैद्य की प्रधानता। पादस्त्रिभिर्भासुरसगुणाढ्यो । वेद्यो महानातुरमाशु सौख्यं ॥ सम्मापयत्यागमदृष्टतत्वो। रत्नत्रयेणेव गुरुस्स्वशिष्यम् ।। ४३ ॥ भावार्थ:-आगमके तत्वों के अभ्यस्त, सद्गुणी वैद्य उपर्युक्त औषधि और परिचारक य आतुर रूपी प्रधान अंगोंकी सहायतासे भयंकर रोगी को भी शीघ्र आराम पहुंचाता है । जिस प्रकार गुरु सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राके बलसे अपने शिष्योंको उपकार करते हैं ॥ ४३॥ वैटापर रोगीका विश्वास । अथानरो मातृपितृस्वबंधुन् । पुत्रान्समित्रोरुकलत्रवर्गान् ।। विशंकते सर्वहितेकबुदो। विश्वास एवात्र भिषग्वरेऽस्मिन् ॥४४॥ भावार्थ:--रोगी अपने माता पिता पुत्रा मित्र बंधु स्त्री आदि सबको ( औषधिके विषय में ) संदेहकी दृष्टि से देखता है। परंतु सर्वतो प्रकारसे हित को चाहने वाले वैद्यराजके प्रति वह विश्वास रखता है ॥४४॥ रोगीके प्रति वैद्यका कर्तव्य । तस्मात्पितेवात्मसुतं सुवेद्यो । विश्वासयोगात्करुणात्मकत्वात् ॥ सर्वप्रकारेस्सलताप्रमत्तो। रक्षेनरं क्षीणमथी वृषार्थम् ॥ ४५ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याधिसमुद्देशः । ___ भावार्थः----धंद्यको इसलिये उचित है कि जिसप्रकार एक पिता अपने पुत्रकी प्रेम भावसे रक्षा करता है उसी प्रकार रोगीको पुत्रके समान समझकर चिकित्सा करें। क्यों कि वह वैद्यके ऊपर विश्वास रखचुका है अतएव करुणाके पात्र है । इसलिये सर्वप्रकारसे अप्रमादी होकर धर्मके लिये सुवैद्य रोगीकी रक्षा करें ॥४५॥ योग्य वैद्य गुरूपदेशादधिगम्य शास्त्रम् । क्रियाश्च दृष्टाःसकलाः प्रयोगः ॥ स कर्म क भिषगत्र योग्यो । न शास्त्रविनैवच कर्मविद्वा ॥ ४६ ॥ भावार्थ:-गुरूपदेशसे आयुर्वेद शास्त्रको अध्ययन कर औषध योजनाके साथ २ सम्पूर्ण चिकित्सा को देखें व अनुभव करें । जो शास्त्र जानता है और जिसको चिकिसा प्रयोगका अनुभव है वहीं वैद्य योग्य है। केवल शास्त्र जाननेवाला अथवा केवल क्रिया जाननेवाला योग्य वैद्य नहीं हो सकता ॥ ४६ ॥ प्रागुक्तकथनसमर्थन। तावप्यनन्यान्यमतप्रवीणौ। क्रियां विधातुं नहि तौ समर्थी ॥ एकैकपादाविव देवदत्ता-। वन्योन्यबद्धौ नहि तो प्रयातुम् ॥ ४७॥ भावार्थ:---एक शास्त्र जाननेवाले और एक क्रिया जाननेवाले ऐसे दो वैयोंके एकत्र मिलनेपर भी वे दोनों चिकित्सा करनेमें समर्थ नहीं होसकते, जिसप्रकार कि एक एक पैरवाले देवदत्तोंके एक साथ बांधनेपर भी वे चलनमें समर्थ नहीं हो पाते हैं ॥४७॥ उभयशवैद्य ही चिकित्सा के लिये योग्य। यस्तूभयज्ञो मतिमानशेष-। प्रयोगयंत्रागमशस्त्रशास्त्रः ॥ राज्ञोपदिष्टस्सकलप्रजानाम् । क्रियां विधातुं भिषगत्र योग्यः ॥४८॥ भावार्थ:--.--जो दोनों ( क्रिया और शास्त्र ) बातों में प्रवीण है, बुद्धिमान है सर्व औषधि प्रयोग यंत्रशास्त्र, शस्त्र, शास्त्र आदिका ज्ञान रखता है, वह वैच रांजाची आज्ञासे सम्पूर्ण प्रजा की चिकित्सा करने योग्य है ॥ ४८ ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) कल्याणकारके अज्ञ वैद्यसे हानि। अज्ञानतो वाप्यतिलोभमाहा- । दशास्त्रविद्यः कुरुते चिकित्साम् ।। सर्वानसी मारयतीह जंतून् । क्षितीश्वरैरत्र निवारणीयः ॥ १९ ॥ भावार्थ:--अज्ञान, लोभ व मोहसे शास्त्रको नहीं जानते हुए भी चिकित्सा कार्य में जो प्रवृत्त होता है वह सभी प्राणियोंको मारता है । राजावोंको उचित है कि वे ऐसे वैद्योंको चिकित्सा करने से रोके ॥ ४९ ॥ अक्ष वद्यकी चिकित्साकी निंदा । अज्ञानिना यत्कृतकर्मजातं । कृतार्थमप्यत्र विगर्हणीयम् ॥ उत्कीर्णमप्यक्षरमक्षर -। । न वाच्यते तद्गणवर्णमागः ॥ ५० ॥ भावार्थ:--अज्ञानी वैद्यकी चिकित्सा में सफलता मिली तो भी वह चिकित्सा विद्वानोंद्वारा प्रसंशनीय नहीं होती है । जिसप्रकार कि लकडी को उखेरनेवाली कीडा या अज्ञानी मनुष्यके द्वारा उखेरे हुए अक्षर होनेपर भी उसे विद्वान् लोग गणवर्ण इत्यादि शास्त्रोक्त मागसे नहीं बांचते हैं, या ज्ञानके साधन नहीं समझते इसी प्रकार अज्ञ वैद्यकी चिकित्सा निंद्य समझें ॥ ५० ॥ अज्ञ वैद्य की चिकित्सा से अनर्थ । तस्मादनानिभवति कर्मा-। ण्यज्ञानानिना यानि नियोजितानि ।। सभेषजान्यप्यमृतोपमानि । निस्त्रिंशधाराशनिनिष्ठराणि ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-इसलिये अज्ञानियोंद्वारा नियोजित चिकित्सा से अनेक अनर्थ होते हैं चाहे वे औषधियां अच्छी ही क्यों न हों, अमृतसदृश ही क्यों न हो. तथापि खङ्गधारा व बिजलीके समान भयंकर हैं । वे प्राण को घात कर देते हैं ॥ ५१॥ चिकित्सा करनेका नियम । ततस्तुवैद्यास्सुतिथौ सुवारे। नक्षत्रयोगे करणे मुहूर्ते ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याधिसमुद्देशः ।। (११९) सचद्रताराबलसंयुते वा। दूतैर्निमित्तैश्शकुनानुरूपैः ॥ ५२ ॥ क्रियां स कुर्याक्रियया समेतो। राज्ञोपदिष्टस्तु निवेद्य राज्ञे ॥ बलाबलं व्याधिगतं समस्तं । स्पृष्ट्वाथ सवोणि तथैव दृष्ट्वा ॥ ५३ ॥ भावार्थ:-इसलिये राजा के द्वारा अनुमोदित क्रियाकुशल, सुयोग्य वैद्य को उचित है कि, योग्य तिथि, वार' नक्षत्र, योग करण, और मूहूत में, तथा ताराबल, चंद्रबल रहते हुए, अनुकूल दूत व प्रशस्त शकुन को, देखते हुए एंव, दर्शन, स्पर्शन, प्रश्नों के द्वारा व्याधिके बलाबल, साध्यासाध्य आदि समस्त विषयों को अच्छीतरह समझकर और उन को राजासे निवेदन कर वह चिकित्सा करें ॥ ५२ ।। ५३ ॥ বী বাপ্পা स्पृष्ट्वोष्णशीतं कठिनं मृदुत्वं । सुस्निग्धरूक्षं विशदं तथान्यत् ॥ दोषेरितं वा गुरुता लघुत्वं । .. साम्यं च पश्येदपि तद्विरूपं ।। ५४ ॥ भावार्थ:-~-प्रकुपित दोषोंसे संयुक्त, रोगीका शरीर उष्ण है या शीत, कठिन है या मृदु, स्निग्ध है वा रूक्ष, लघु है या गुरु वा विशद, इसीतरह के अनेक (शरीरगत नाडी की चलन आदि) बातोंको, एवं उपरोक्त बातें प्रकृतिके अनुकूल है या विकृत है ? इन को स्पर्शपरीक्षा द्वारा जाननी चाहिये ।। ५४ ॥ प्रश्न परीक्षा। स्पृष्ट्वाथ देशं कुलगोत्रमग्नि-। बलाबलं व्याधिवलं स्वशक्तिम् । आहारनीहारविधि विशेषा-। दसात्म्यसात्म्यक्रममत्र विद्यात ॥ ५५॥ भावार्थ:-रोगी किस देश का है ? किस कुल में जन्म लिया है ? शरीर की प्राकृतिक स्थिति क्या है ? जठराग्नि किस प्रकार है, व कितने आहार को पचासकता है ? ( इत्यादि प्रश्नों से अग्नि के बलाबल ) व्याधि की जोर ( यदि ज्वर हो तो कितनी गर्मी बढजाती है ? यदि अतिसार में तो दस्त कितने होते हैं ? कितने २ समय के बाद होते हैं ? आदि, इसी प्रकार अन्य रोगों में भी प्रश्न के द्वारा व्याधिबलाबल Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०). कल्याणकारके कितनी है ? रोगी की शक्ति कितनी है, आहार क्या खाना चाहता है ? गेहूं का स्वाद कैसा है ? मलमूत्र विसर्जन का क्या हाल है ? कौनसी चीज प्रकृति के अनुकूल पडती है ? कोनसी नहीं ! आदि बातों को प्रश्न परीक्षा ( पूछकर ) द्वारा जानें ॥५५॥ दर्शनपरीक्षा। दृष्ट्वायुषो हानिमथापिवृद्धि-। छायाकृतिव्यंजनलक्षणानि ॥ विरूपरूपातिशयोग्रशांत-। स्वरूपमाचार्यमतैर्विचार्य ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-रोगकि शरीर की छाया, आकृति, व्यंजन, लक्षण, इनका क्या हाल है ? शरीर, विरूप या कोई अतिशय रूपस युक्त तो नहीं तथा रोगीका स्वभाव (प्रकृतिके स्वभाव से ) अत्यंत उग्र या शांत तो नहीं ? इन उपरोक्त कारणों से, आयुध्यकी हानि व वृद्धि इत्यादि बातों को, पूर्वाचार्यों के, वचनानुसार, दर्शनपरीक्षा द्वारा ( देखकर ) जानना चाहिये ॥ ५६ ॥ महान् व अल्पव्याधि परीक्षा। महानपि व्याधिरिहाल्परूपः। स्वल्पोप्यसाध्याकृतिरस्ति कश्चित् ॥ उपाचरेदाशु विचार्य रोगं । युक्त्यागमाभ्यामिह सिद्धसेनैः ॥ ५७ ॥ भावार्थ:-बहुतसे महान् भयंकर रोग भी ऊपरसे अल्परूपसे दिग्व सकते हैं। एवं अल्परोग भी असाध्य रोगके समान दिख सकते हैं परंतु चतुर सिद्धहस्त वैद्यको उचित है कि युक्ति और आगमसे सब बातोंको विचार कर रोगका उपचार शीघ्र करें ॥५॥ रोगके साध्यासाध्य भेद। असाध्यसाध्यक्रमतो हि रोगा। द्विधैव चाक्तास्तु समंतभद्रः ॥ असाध्ययाप्यक्रमतोद्यसाध्य ।। द्विधातिकृच्छातिसुखेन साध्यं ॥ ५८ ॥ भावार्थ:--रोग असाध्य, और साध्य इस प्रकार दो विभागसे विभक्त है ऐसा भगवान् समंतभद्र स्वामीने कहा है । असाध्य [ अनुपक्रम ] याप्य इस प्रकार दो भेद अक्षयके हैं और कृच्छ्रसाध्य, सुसाध्य यह सायके भेद हैं ॥ ५८ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याधिसमुद्देशः । (१२१) अनुपक्रम याप्य के लक्षण । कालांतरासाध्यतमास्तु याप्या । भैषज्यलाभादपशांतरूपाः ॥ प्राणांश्च सद्यः क्षपयंत्यसाध्याः। बिख्याप्य तपमुपक्रमेत ॥ ५९ ।। भावार्थ:-जो रोग उसके अनकूल औषधि पथ्य आदि सेवन करते रहनेसे दब जाते हैं (रोगी का सद्य प्राण वात नहीं करते हैं ) और कालांतरमें प्राणघात करते हैं असाध्य होते हैं वे याप्य कहलाते है। तत्काल प्राणोंका जो हरण करते हैं उनको असाध्य अर्थात् अनुपक्रम रोग कहते हैं। वैद्यको उचित हैं कि इन असाध्य अवस्थाओंकी चिकित्सा करते समय, स्पष्टतया बताकर चिकित्सा आरंभ करें (अन्यथा अपयश होता है)। ५९ ॥ कृच्छ्रसाध्य, सुसाध्य के लक्षण । महाप्रयत्नान्महतःप्रबंधान्महाप्रयोगैरिहकृच्छ्रसाध्याः॥ अल्पप्रयत्नादपिचाल्पकाला- । दल्पौषधैस्साधुतरस्साध्यम् ।। ६० ॥ भावार्थ:-बडे २ प्रयत्नसे, बहुत व्यवस्थासे एवं बडे २ प्रयोगोंके द्वारा चिकित्सा करनेसे जो रोग शांत होते हों, उनको कठिनसाध्य समझना चाहिये। अल्प प्रयत्नसे, अल्प कालमें अल्प औषधियोंद्वारा जिसका उपशम होता हो उसको सुखसाध्य समझना चाहिये। विद्वानोंका आद्यकर्तव्य। चतुःप्रकाराः प्रतिपादिता इमे । समस्तरोगास्तनुविघ्नकारिणः ॥ ततश्चतुर्वर्गविधानसाधनं ।। शरीरमाद्यं परिरक्ष्यते बुधः ॥ ६१ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार वह रोग चार प्रकारसे निरूपण किये गये हैं। जितने भर भी रोग हैं वे सब शरीरमें बाधा पहुंचानेवाले हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी चतुः पुरुषार्थोके साधन करने के लिये शरीर प्रधान साधन है । क्यों कि शरीरके बिना धर्म साधन नहीं होसकता है। धर्म साधनके विना अर्थ, और अर्थक विना काम साधन नहीं बन सकता है । एवं च जो त्रिवर्गस शून्य हैं उनको मोक्षकी प्राप्ति होना असंभव ही है। इसलिये बुद्धिमानोंको उचित है कि चतुःपुरुषार्थोकी सिद्धिक लिये सबसे पहिले शरीरकी हरतरहसे रक्षा करें ॥ ६१॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) कल्याणकारक चिकित्सा के विषय में उपेक्षा न करें। साध्याः कृच्छूतरा भवंत्यविहिताः कृच्छ्राश्च याप्यात्मकाः । याप्यास्तेऽपि तथाप्यसाध्यनिभृताः साक्षादसाध्या अपि ॥ प्राणान्हंतुमिहोयता इति पुरा श्रीपूज्यपादार्पिता-- । द्वाक्याक्षिप्रमिहाग्निसपसदृशान् रोगान् सदा साधयेत् ॥ ६२ ॥ भावार्थ:-शीघ्र और ठीक २ ( शास्त्रोक्तपद्धति के अनुसार ) चिकित्सा न करने से, अर्थात् रोगों की चिकित्सा, शास्त्रोक्त पद्धति के अनुसार, शीघ्र न करने से, जो रोग सुखसाध्य हैं वे ही कृष साध्य हो जाते हैं। जो कृच्छ्रसाध्य हैं वे याप्यत्वको, जो याप्य हैं ये अनुपक्रमत्य अवस्था को प्राप्त करते हैं। और जो अनुपक्रम हैं, वे तत्क्षण ही, प्राण का घात करते हैं। इसप्रकार प्राचीन कालमें, आचार्य श्रीपूज्यपादने कहा है। इसलिये, अग्नि और सर्प के समान, शीघ्र अमूल्यप्राण को नष्ट करने वाले रोगों को, हमेशा शीघ्र ही योग्य चिकित्सा द्वारा ठीक करें ।। ६२ ॥ अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो। निस्तमिदं हि शीकरानिभं जगदेकहितम् ॥ ६३ ॥ . भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी सिके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ६३.॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे व्याधिसमुद्देश आदितस्सप्तमपरिच्छेदः । इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में व्याधिसमुद्देश नामक सातवां परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः । (१२३) अथाष्टमः परिच्छेद। अथ वातरोगाधिकारः मंगलाचरण व प्रतिक्षा । अतींद्रियपदार्थसार्थनिपुणावबंधात्मकं । निराकृतसमस्तदोषकृत दुर्मदाहंकृतिम् ।। जिनेंद्रममरेंद्रमौलिमाणिरश्मिमालार्चितं । प्रणम्य कथयाम्यहं विदितवातरोगक्रियाम् ॥ १॥ भावार्थ:--- समस्त दोषोंको एवं अहंकारको जिन्होने नाश किया है अतएव संपूर्ण पदार्थीको साक्षात्कार करनेवाले अतींद्रियज्ञानको प्राप्त किया है, जिनके चरणमें आकर देवेंद्र भी मस्तक झुकाते हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान्को नमस्कार कर वातरोगकी चिकित्सा के विषय में कहेंगे इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥१॥ वातदोष स वात इति कथ्यते प्रकटवेदनालक्षणः । प्रवात हिमवृष्टिशीततररूक्षसेवाधिकः ॥ प्रदेशसकलांगको बहुविधामयैकालयो। मुहुर्मुहुरुदेति रात्रिकृतदेहदुःखास्पदः ॥ २ ॥ भावार्थ:-जिसका पारुष्य, शीतत्य, खरत्व, सुप्ताव, तोद शूल आदि वेदना, और रूक्ष, शीत खर, चल, लघु आदि लक्षण ( संसार में ) प्रसिद्ध हैं, जो अत्यधिकवा बर्फ, वृष्टि, (बरसात) तथा शीत व रूक्षगुगयुक्त आहार को अधिक सेवन करने से प्रकुपित होता है, एकाङ्ग व सर्वांगगत नानाप्रकार के रोगों की उत्पत्ति के लिये जो मुख्य स्थान है. अर्थात् मूलकारण है, जो बार २ कुपित होता है और रात्रि में विशेष रीति से शरीरको दुःख पहुंचाता है वह वात [ दोष ] कहलाता है ॥ २ ॥ प्राणवात । मुखे वसति योऽनिलः प्रथित नामतः प्राणकः । प्रवेशयति सोऽन्नपानमखिलामिषं सर्वदा ॥ करोति कुपितस्स्वयं श्वसनकासाहिकाधिका-। ननेकविधतीववेगकृतवेदनाव्याकुलान् ॥ ३ ॥ ...... . Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) कल्याणकारके भावार्थ:--मुखमें जो वायु वास करता है उसे प्राणवायु कहते हैं। वह [स्वस्थावस्थामें ] अन्न पान आदि समस्त भोज्य वर्गको पेटमें पहुंचाता है। यदि वह वायु कुपित होजाय तो आपने नाना प्रकार के तीव्रवेगों द्वारा उत्पादित वेदनासे व्याकुलित करनेवाले दमा, खांसी, हिचकी इत्यादि रोग उत्पन्न होते हैं ॥३॥ उदानवायु। शिरांगत इहाप्युदान इति विश्रुतस्सर्वदा । प्रवर्तयति गीतभाषितविशेषहास्यादिकान् ॥ करोति निभृतार्वजत्रुगतरोगदुःखाकुलं । पुमांसमनिलस्ततः प्रकुपितस्स्वयं कारणैः ॥ ४ ॥ भावार्थ:-मस्तक में रहनेघाला वायु उदान नामसे प्रसिद्ध है । वह [स्वस्थावस्थामें ] गीत, भाषण, हास्य आदिकों को प्रवर्तित करता है । यदि वह स्वकारणसे कुपित होजाय तो कंठ, मुख, कर्ण, मस्तक आदि, जत्रुक हड्डीसे (गर्दनसे ) ऊपर होनेवाले रोगोंको पैदा करता है । ४ ।। समानवायु । समान इति योऽनिलोऽग्निसख उच्यते सर्वदा । वसत्युदर एव भोजनगणस्य संपाचकः ॥ करोति विपरीततामुपगतस्स्वयं प्राणिना-। मनग्निमतिसारमंत्ररुजमुग्रगुल्मादिकान् ॥ ५॥ भावार्थ:----जो वायु उदर ( आमाशय व पक्वाशय ) में रहता है, अग्निके प्रदीप्त होने में सहायक है इसलिये अग्निसख कहलाता है तथा भोजनवर्ग को पचाता है उसको समानवात कहते हैं । यदि वह कुपित होजावें तो, अग्निमांद्य, अतिसार, अंत्राशूल गुल्म आदि उग्र रोगों को पैदा करता है ॥५॥ अपानवायु। अपान इति योऽनिलो वसति बस्तिपकाशये । स वात मलमूत्रशुक्रनिखिलोरुगर्भार्तवम् ॥ स्वकालवशता विनिर्गमयति स्वयं कोपतः । करोति गुदवस्तिसंस्थितमहास्वरूपामयान् ॥ ६ ॥ भावार्थ:-~-अपानवायु बस्ति व पक्काशयमें रहता है । यह योग्य समयमें मलमत्र रजोवार्य आर्तव ( स्त्रियोंके दुष्टरज ) व, गर्भ को बाहर निकालता है। यदि वह कुपित होजाय Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। (१२५) तो गुद व मूत्राशयगत मलावरोध, मूत्रावरोध, मूत्रकृच्छ्र इत्यादि महान् रोगोंको उत्पन्न करता है ॥ ६॥ थानवायु। सकृत्स तनुमाश्रितरसततमेव यो व्यान इ.। त्यनेकविधचेष्टयाचरति सर्वकर्माण्यपि ॥ करोति पवनी गदान्निखिलदहगेहाश्रितान् । स्वयं प्रकुपितस्सदा विकृतवेदनालंकृतान् ॥ ७ ॥ भावार्थ:-- जो वायु शरीर के सम्पूर्ण भाग में व्याप्त होकर रहता है उसे व्यानवायु कहते है । यह शरीर में अपनी अनेक प्रकार की चेष्टाओं को दर्शाते हुए चलता फिरता है । शरीरगत सर्वकर्मों ( रक्तसंचालन, पित्तकफ आदि कोंको यथास्थान पंहुचाना आदि) को करता है । वह कुपित होजावें तो हमेशा सर्व देहाश्रित, सर्वांगवात, वा सर्वाङ्गवध, सर्वाङ्गकम्प आदि विकृत वेदनायुक्त रोगोंको पैदा करता है ॥ ७॥ कुपितवात व रोगात्पत्ति। यथैव कुपितोऽनिलस्स्वयमिहामपकाशये। तथर कुरुते गदानपि च तत्र तत्रैव तान् । त्वगादिषु यथाक्रमादखिलवायुसंक्षोभत--- श्शरीरमथ नश्यते प्रलयवातघातादिव ॥ ८ ॥ भावार्थ:-जिसप्रकार आमशय, व पक्वाशय में प्रकुपित (समान) वायु आमाशयगत व पक्वाशयगत छर्दि अतिसार आदि रोगोंको उत्पन्न करता है उसी प्रकार त्वगादि स्वस्थानों में प्रकुपित तत्तद्वायु भी स्त्र २ स्थानगत व्याधिको यथाक्रमसे पैदा करता है। यदि ये पांचो वायु एक साथ प्रकपित होवे तो, शरीर को ही नष्ट कर देते हैं जिस प्रकार प्रलयकाल का वायु समस्त पृथ्वी को नष्ट करता है ॥ ८॥ कफ, पित्त, रक्तयुक्त वात का लक्षण । कफेन सह संयुतस्तनुमिहानिलस्तंभये ।. दवेदनमलेपनानिभृतमंगसंस्पर्शनम् ॥ सपित्तरुधिरान्वितस्सततदेहसंतापक द्भविष्यति नरस्य वातविधिरेवमत्र त्रिधा ॥९॥ भावार्थ:---यदि वायु कफयुक्त हो तो शरीर को स्तम्भन करता है। पीडा उत्पन्न नहीं करता है और स्पर्श में कठिन कर देता है। यदि पित्त व रक्तसे युक्त हो Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके - तो देह में संताप ( जलन ) पैदा करता है। इन तीन सांसर्गिक अवस्थाओ में भी तीन प्रकार से वातकी ही चिकित्सा करनी पडती हे ॥ ९ ॥ वातव्याधि के भेद । मुहुर्मुहुरिहाक्षिपत्यखिलदेहमाक्षेपकः । स संचलति चापतानक इति प्रतीतोऽनिलः । मुखार्धमखिलार्धमर्दितसुपक्षघातादपि । स्थितिभवति निश्चल विगतकमकार्यादिकम् ॥ १० ॥ : भावार्थ-संपूर्ण शरीर को बार २ कम्पन करनेवाला आक्षेप वात, * चावलयुक्त सुप्रसिद्ध अंपतानक, आधे मुखको वक्र करके निश्चल करनेवाला अर्दित, सारे, शरीर के अर्थ भागका निश्चेष्ट करनेवाला पक्षाघात, ये सब वातरोग के भेद हैं ॥ १० ॥ अपतानक रोगका लक्षण । करांगुलिगतोदरोरुहृदयाश्रितान् कंडरान् । क्षिपं क्षिपति मारुतस्स्वकशरीरमाक्षेपकान् ।। कर्फ वीत चोर्ध्वदृष्टितवभुग्नपाहनो। नं चालयति सोऽन्नपानमपि कृच्छ्रतोऽप्यश्नुते ॥ ११॥ भावार्थ:-वह वायु हाथ, उंगुली, उदर, एवं हृदय गत कण्डरा (स्थूल शिरा ) ओंको प्राप्त करके शरीर में झटका उत्पन्न करता है, कम्पाता है। उस से पीडित रोगी, कफका वमन करता है, उसकी दृष्टि ऊर्ध्व होती है । दोनों पार्श्व भुग्न ( टुटासा हो जाना ) होते हैं, वह मुखको नहीं चला सकता है। वह अन्नपान को भी कष्ट से लेता है ॥ ११ ॥ ... . . अर्दितनिदान व लक्षण । विजृभणविभाषणात्काठनभक्षणोद्वगतः। स्थिरोच्चतरशीषभागशयनात्कफाच्छीततः ।। भविष्यति तथादितो विकृतिसिद्रियाणां तथा। मुख भवति वक्रमक्रमगतिश्च वाक्प्राणनाम् ॥ १२ ॥ .. भावार्थ:-अधिक जभाई आनेसे, अधिक बोलनेसे, कठिन पदार्थों को खानेस, उद्वेगसे, सोतेसमय सिरके नाचे ऊंचा और कठिन तकिया रखकर सोनेसे, कफसे व शीतसे अर्दित नामक रोग होता है । उस रोगमें इंद्रियोंका विकार होता है । मुख वक्र होता है। प्राणियोंका वचन. ठीकक्रमसे नहीं निकलता है । अक्रम होकर निकलेता हैं ॥१२॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। (१२७) अर्दित का मसाध्य लक्षण व पक्षाघातकी संप्राप्ति व लक्षण | त्रिवर्षकृतवेपमानशिरसश्चिराङ्गाषिणो। निमेषराहतस्य चापि न च सिध्यतीहार्दितः ॥ रुधा च धमनीशरीरसकलार्धपक्षाश्रितान । प्रपथ पवनः करोति निभृतांगमज्ञाकृतम् ॥ १३ ॥ भावार्थ:-जिस अर्दित रोगी का शिर, बराबर तीन वर्ष से काम्प रहा हो, बहुत देरसे जिसका वचन निकलता हो, आंग्वे जिनकी बंद नहीं होतो हो ऐसे रोगीका अर्दित रोग असाध्य जानना चाहिये । वही वायु शरीर के सम्पूर्ण अर्थ भाग में आश्रित धमनियों को प्राप्तकर, और उनको रोक कर, (विशोषण कर) शरीरको कठिन बनाता है एवं स्पर्शज्ञानको नष्ट करता है ( जिस से शरीर के अर्थ भाग अर्कमण्य होता है) इस रोग को, पक्षवध पक्षाघात, व एकांगरो। भी कहते हैं ॥ १३ ॥ पक्षघातका कृच्छ्रसाध्य व असाध्यलक्षण । स केवलमरत्कृतस्तु भुवि कच्छ्रसाध्य स्मृतो। न सिध्यति च यः क्षताद्भवति पक्षघातः स्फुटं ।। स एव कफकारणाद्गुरुतरातिशोफावह-। स्सपित्तरुधिरादपि प्रबलदाहमूर्छाधिकः ॥ १४ ॥ भावार्थ:-वह पक्षघात यदि केवल बातसे युक्त है तो उसे कठिनसाध्य समझना चाहिये । यदि क्षतसे ( जन्बम ) के कारण पक्षाघात होगया हो तो वह निश्चय से असाध्य है । वह यदि कफ से युक्त हो तो शरीरको भारी बनाता है । एवं शरीरमें सूजन आदि विकार उत्पन्न होते हैं । पित्त एवं रक्तसे युक्त हो तो शरीरमें अत्यधिक दाह व मुर्छा आदि उत्पन्न होते हैं ॥ १४ ॥ अपतानक व आक्षपक के अलाध्यलक्षण । तथैवमपतानकोऽप्यधिकशोणितातिस्रावात् । स्वगर्भपतनात्तथा प्रकटिताभिघातादपि ॥ न सिध्यति परित्यजेदथ भिषक्तमप्यातुर। तथैवमभिघातजान स्वयमिहापि चाक्षेपकान ॥ १५ ॥ भावार्थ:-शरीर से अधिक रक्तके बह जानसे, गर्भच्युति होनेसे, एवं और कोई धक्का लगनेसे उत्पन्न अपतानक रोग भी असाध्य है। ऐसे अपतानकसे पीडित रोगीको एवं जखमसे उत्पन्न आक्षेपक रोगीको वैध असाध्य समझकर छोडे || १५ ।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) दण्डापतानक, धनुस्तम्भ, बहिरायाम, अंतरायामकी संप्राप्ति व लक्षण | समस्तधमनीगतप्रकुपितोऽनिलः श्लेष्मणा । स दण्डधनुराकृतिं तनुमिहातनोत्यायताम् || स एव बहिरंतरंगधमनीगतोऽप्युद्धती । बहिर्बहिरिहांतरांतरधिकं नरं नामयेम् ।। १६ ।। भावार्थ: :- वह वायु समस्त धमनियोंमें व्याप्त होकर कफसे प्रकुपित हो जाय तो वह सारे शरीर को दण्ड व धनुष्यके आकार में नमा देता है बहिरंग धमनीगत हो तो बाहिरके तरफ, यदि अंतरंग धमनीगत हो शरीरको नमाता है 1 । वह वायु यदि तो अंदर के तरफ कल्याणकारके विशेष – प्रकुपित, वायु, कफ से युक्त होता हुआ, शरीर समस्त धमनियोंको प्राप्त होकर, शरीर को दण्ड के समान आयत ( सीधा ) कर देता है । इसको दण्डापतानक वातव्याधि कहते हैं । वही वायु, (कफसे युक्त ) वैसे ही ( समस्त धमनियोंको प्राप्त कर) शरीरको धनुष समान नमादेता है उसे धनुस्तम्भ वातव्याधि कहते हैं । तथा वही वायु शरीर के बहिर्भागकी धमनियोंको प्राप्त होजाय, तो बाहिरके तरफ शरीर को नमादेता है, और अभ्यंतर ( अन्दर के तरफ ) के धमनीगत हो, तो अन्दर के तरफ नमादेता है, इनको क्रमसे, बहिरायाम अंतरायाम वातव्याधि कहते हैं ॥ १६ ॥ गृध्रसी अवाक संप्राप्ति व लक्षण | यदात्मकरपादचारुतरकंदरान् दण्डयन् । स खण्डयति चण्डवेगपवनो भृशं मानुषान ॥ तदा निभृतविश्वसत्प्रकटवेदना गृधसिं । करोति निभृतावबाहुमपिचांसदेशस्थितं ॥ १७ ॥ भावार्थ: जिस समय हाथ और पैरोंके मनोहर कंदराओं को दण्डित ( पीडित करता हुआ ) भयंकर वेगवाला पवन, मनुष्यों को हाथ पैराकोटासा अनुभव कराता हो, उस समय, उन स्थानोंमें असह्य पीडा होती है । इस को गृध्रसी रोग कहते हैं । कंधों के प्रदेश (मूल) में स्थित वायु तत्स्थानगत, सिराओं को संकोचित कर, हाथों के स्पन्दन [ हिलन ] को नष्ट करता है, उसे अबबाहु कहते हैं । ॥ १७ ॥ कलायखज, पंगु, ऊरुस्तम्भ, वातकटक व पादहर्ष के लक्षण । कटीगत इहानिलः खलः कलायखेजत्वकृत | नरं तरलपैगुमंगविकलं समापादयेत् ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। (१२९) तथोरुगतऊरुयुग्ममपि निश्चलं स्तंभयेत ॥ ___ स्ववातकृतकंटकानपि च पादहर्षे पदे ॥ १८॥ भावार्थ:-कटिप्रदेशगत दुष्टवायु जब पैरोंके कंडारा (मोटी नस) ओंको खींचता है तब कलायखंज, व पंगु नामक व्याधि को पैदा करता है जिस ( पंगु ) से, मनुष्य का अंग विकल हो जाता है अर्थात् पैरों के चलनेकी शक्ति नाश हो जाती है । यदि वह ऊरु स्थानको प्राप्त हो तो दोनों ऊरुवोंको स्तंभित करता है जिससे दोनों ऊरु निश्चल हो जाते हैं एवं पादगत वायु पादहर्ष नामक व्याधि को उत्पन्न करता है । इसका खुलासा इस प्रकार है :...-~ कलायखज-जो गमनके आरंभ में कम्पाता है लंगड़े की तरह चलाता है और पैरोंकी संधि छूटी हुईसी मालूम होती है उसे कलायखंज बातव्याधि कहते हैं । पंगु-दोनों पैर चलनक्रियामें बिलकुल असमर्थ हो जाते हैं । उसे पंगु [ पांगला ] कहते हैं। ऊरुस्तम्भ- --जिसमें दोनों आरु, स्तब्ध, शीत, और चेतनारहित होते हैं । तथा इतने भारी हो जाते हैं मानों दूसरोंके पैरोंको लाकरके रख दिया हो। उनमें असह्य पीडा होती है । वह रोगी चिंता, अंगद ( अंग में पीडा ) तंद्रा, अरुचि, घर आदि उपद्रवोंसे युक्त होता है और वह अपने पैरोंको, अत्यंत कष्ट से उठाता है। इत्यादि अनेक लक्षणोंसे संयुक्त इस व्याधिको [ अन्य मतके ] कोई २ आचार्य आढयवात भी कहते हैं। वातकण्टक-पैरोंको विषम रूपसे रखनेते वा अत्यंत परिश्रम के द्वारा प्रकुपित वायु गुल्फसंधि [ गट्टा ] को आश्रित कर पीडा उत्पन्न करता है उसे यातकण्टक कहते हैं। पादहर्ष-जिस में दोनों पाद हर्षित एवं थोडी देरके लिए संज्ञाशून्य होते हैं। और अपने को थोडा मोटा हुआ जैसा प्रतीत होता है ॥ १८ ॥ तृनी प्रतितनी, अष्टीला व आध्मान के लक्षण । तुनिपतितनि च नाभिगुदमध्यकोशलिका- । मनुमतिविलोमकां स कुरुते मरुद्रोधिनीम् ।। तथा प्रतिसमानलामगणनामकाध्मान। करोति भृशशूलमप्यधिकृतोऽनिलः कुक्षिणः ॥ १९॥ . भावार्थ:-प्रकुपित वात तनि प्रतितूनि तथा नाभि और गुदाके बीच में वातको रोकनेवाली अनुलोमाष्टीला ( अष्ठीला ) प्रतिलोमाष्टीला ( प्रत्यष्टीला ) नामक रोग को Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) कल्याणकारके उत्पन्न करता है । कुक्षि ( उदर ) गत वायु अत्यंत शूलेोत्पादक आध्मान, प्रत्याध्मान नामक रोग को पैदा करता है। इसका खुलासा इस प्रकार है: तूनी — जो पक्काशय व मूत्राशय में अथवा दोनो में एक साथ उत्पन्न हो, नीचे (गुदा और गुह्येद्रिय) की तरफ जाता हो, गुझेंद्रिय व गुदा को फोडने जैसी पीडा का अनुभव कराता हो, ऐसी वेदना [शूल ] को तृनी नामक वातव्याधि कहते हैं । प्रतितूनी --जो शूल गुदा और गुझेंद्रिय में उत्पन्न होकर वेगके साथ, ऊपर के तरफ जाता हो, एवं पक्काशय में पहुंचता हो, उसे प्रतितूनी कहते हैं । अष्टीला - जो नाभि व गुदा के बीच में गोल पत्थर जैसी, ग्रंथि ( गांठ ) उत्पन्न हो जाती है, जो चलनशील अथवा अचल होता है, जिसके उपरिम भाग दीर्घ है, तिरछाभाग उन्नत [ऊंचा उठा हुआ] हैं, और जिससे वायु मलमूत्र रुक जाते हैं उसे अष्टीला कहते हैं । प्रत्यष्ठीला -- यह भी उपरोक्त अष्टीला सदृश ही है । लेकिन इसमें इतना विशेष है कि इस का तिरछा भाग दर्वि होता है । आध्मान — जिससे पकाशय में गुडगुड, चल चल, ऐसे शब्द होते हैं उम्र पीडा होती है, वातते भरी हुई थैली के समान, पेट [ पक्वाशय प्रदेश ] फूल जाता है उसे आध्मान कहते हैं । प्रत्याध्वान -- उपरोक्त आध्मान ही आमाशय में उत्पन्न होवें उसे प्रत्याध्मान कहते हैं । लेकिन इस से दोनों पार्श्व [ बगल ] और हृदय में किसी प्रकारकी तकलीफ नहीं होती है ||| १९ ॥ वातव्याधिका उपसंहार । स सर्वगतात बहुविधामयान्सर्वगान । करोत्यवयवे तथावयवशोफशूलादिकान ॥ किमत्र बहुना स्वभेदकृतलक्षणलक्षितै- । दैर्निगदितैर्गदाशनिनिभैः क्रियैका मता ॥ २० ॥ भावार्थ:- यदि बात सर्व देहगत हो तो सर्वांगवात, सर्वंगकम्प आदि नाना प्रकार के सर्वशरीर में होनेवाले रोगोंको उत्पन्न करता है। वहीं वायु शरीरके अवयव में प्राप्त हो तत्तदवयवों में सूजन, शूल आदि अनेक रोगोंको उत्पन्न करता है । इस बात के विषय में विशेष कहने से क्या ? स्थान आदि भेदोंके कारण जो रोग भेद होता है उनके अनुसार प्रकट होनेवाले अन्यान्य लक्षणोंसे संयुक्त, विष, बिजली जैसे शीघ्र प्राणघातक अनेक रोगोंको वह बात पैदा करता है । इन सर्व वातरोगों में [ मुख्यतया ] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। (१३१) एक वातको जीतना पडता है । अतएव सबके लिए एक ही चिकित्सा है ऐसा पूर्वाचाोका अभिमत है ॥ २० ॥ वातरक्त का निदान, सप्राप्ति व लक्षण । विदाहिरससंयुतान्यतिविदाहिकाल भृशं । निषेव्य कटुभोजनान्यतिकटूष्णरूक्षाण्यपि ॥ स्थाश्वतरवाजिवारणखगेष्ट्रवाहादिकां । चिरं समधिरुह्य शीघमिह गच्छतां देहिनाम् ॥ २१ ॥ विदाहकृतदुष्टशोणितमिहांततः पादयोः । करीति भृशमास्यशाफमखिलाङ्गदुःखावहम् ।। सवातरुधिरेण तोदनविभेदनास्पर्शने-। विशोषणविशाषणोर्भवत एव पादौ नृणां ॥ २२ ॥ भावार्थ:-गर्मीके समययें विदाही अन्नोंको सेवन करनेसे, कटुभोजन, अतिकष्ण तथा रूक्ष आहारोंको अत्यधिक सेवन करने से, एवं रथ, घोडा, हाथी, ऊंठ आदि सवारी पर बहुत देरतक चढकर दौडानेसे रक्त विदग्ध होता है तथा वायु भी प्रकुपित होता है । वह विदग्धरक्त जिस समय वायुके मार्ग को रोक देता है तो वह अत्यधिक प्रकुपित होकर और रक्तको दूषित कर देता है । तब रक्त दोनों पादोंमें संचय होते हैं । इसीसे संपूर्ण अंगोंमें दुःख उत्पन्न करनेवाली सूजन हो जाती है । उस समय दोनों पाद तोदन, भेदन आदि पीडासंयुक्त स्पर्शनासह होते हैं और सूख भी जाते हैं । इस को वातरक्त कहते हैं ॥ २१ ॥ २२ ॥ पित्तकफयुक्त व त्रिदोषज वातरक्तका लक्षण । सपित्तरुधिरेण सोष्णमृदुशोफदाहान्वितै। शरीरतरकण्डनौ गुरुघनी च सश्लेष्मणा । सपित्तकफमारुतैरभिहते च रक्ते तथा । भवंति कथितामया विहितपादयोः प्राणिनाम् ॥ २३ ॥ भावार्थ:---वह यदि पित्तसे युक्त हो तो पाद उष्ण, मृदु, सूजन, व दाहसे युक्त होते हैं । यदि कफसहित हो तो खुजली से युक्त, भारी एवं घन ( सूजन होले हैं। एवं पित्त, कफ, वातसे युक्त होजाय नो तीनों विकारोंसे उत्पन्न लक्षण) उसमें पाये जाते हैं ॥ २३ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२.) कल्याणकारके क्रोष्टुकीर्ष लक्षण। स्थिरप्रवलवेदनासहितशोफमत्यायतं । करोति निजजानुनि प्रथिततीव्रसत्कोष्टक- ॥ शिरःप्रतिममित्यनकविधवातरक्तामया । यथार्थकृतनामकाः प्रतिपदं मया चोदिताः ॥ २४ ॥ भावार्थ:---इसी वातरक्तके विकारसे जानुवोमें जो अत्यंत बंदनासे युक्त अत्यंत आयत सूजन उत्पन्न होती है, यह कोष्टक ( गीदड ) के मस्तकके समान होती है । इसलिये उसे कोष्टकशीर्ष नामका रोग कहते हैं। इसी प्रकार उक्तक्रमसे वातरक्तके विकारसे अपने २ नामके समान पादमें अनेक रोग होते हैं ॥ २४ ॥ वातरक्त असाध्य लक्षण । स्फुटं स्फुटति भिन्नसामृतरसं तथा जानुतस्तदेतदिह वातशोणितमसाध्यमुक्त जिनैः ॥ यदंतदिह वत्सराननुगतं च तद्याप्यमि- । त्यथोत्तरमिह क्रियां प्रकटयामि सद्भपजैः ॥ २५ ॥ भावार्थ:--यह अच्छीताह फूटकर जिससमय उस से व घुटने से रक्त रसका स्राव होने लगे, उस वातरक्तको असाध्य समझना चाहिये ! एक वर्षसे पहिले साध्य है, उसके बाद याप्य होजाता है । अब हम वातरोगोंकी चिकित्सा का वर्णन श्रेष्ठऔषधियों के साथ २ करेंगे ॥ २५ ॥ वातरोगचिकित्सावर्णनकी प्रतिज्ञा । त एव तनुभृगणस्य सुखसंपदां नाशकाः । स्फुरद्विषमनिष्टुराशनिविषोपमा व्याधयः ॥ महापलयवातोपमशरीरवातोद्भवा । मया निगदितास्तवस्तु विधिरुच्यते तद्गतः ॥२६॥ भावार्थ:--- शरीर में उत्पन्न होने वाले वह बाला रोग प्राणियोंके सुख संपत्ति योंको नाश करनेवाले हैं । भयंकर बिजली व विषके समान हैं, इतना ही नहीं, महाप्रलय कालक प्रचण्ड मारुत के समान है । इसलिये उनका प्रतीकार शास्त्रोक्तक्रमसे यहां कहाजाता है ॥ २६ ॥ गोदाटके समकके समाप. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः । आमाशयगतवातरोगचिकित्सा । अथ प्रकुपितेऽनिले सति निजामसंज्ञाशये । प्लुतं सलवणोष्णतोयसहितं हितं पाययेत् ॥ ससधैव सुखोष्णतलपारीदिग्धगात्रं नरं । कुधान्य सिकेतादि सोष्णशयने तदा स्वेदयेत् ॥ २७ ॥ भावार्थ:: - - आमाशय में वात प्रकुपित होनेपर, ( उसको जीतने के लिये ) को, सबसे पहिले सेवा - मन कराना चाहिये, उसकी विधि इस प्रकार है । उस रोगी नमक मिला हुआ, सुखोष्ण तेल से मालिश करा कर ( इस विधिसे, स्नेहेन कराकर ) कुधान्य, बालु आदिसे व उष्ण ( कम्बल आदि ) शयन में सुलाकर स्वेदन करें । तत्पश्चात् वमन करानेकेलिये, गरम पानी में सेंधा नमक भिगोकर पिलाना चाहिये । ॥ २७ ॥ स्नेहपान विधि | त्रिराजमिह पाययेन्मृदुतरोदरं पित्तत- । स्तथैव कफतोपि मध्यममिव पंचान्हिकम् || स्ववातकृतनिष्ठुरोरुख र कोष्ठमप्यादरा- । हिनान्यपिच सप्त सर्वविधिषु क्रमोऽयं स्मृतः ॥ २८ ॥ भावार्थ:- वृत तैल आदि किसी स्निग्ध पदार्थ को सेवन कराकर, शरीर को चिकना बना देना यही स्नेहन है। इसकी विधि इस प्रकार है । शरीर में पित्तकी अधिकतासे मृदुकोष्ट, कफकी अधिकतासे मध्यमकोष्ठ, और वाताधिक्यसे खरकोट, इस प्रकार कोष्ट तीन प्रकारसे विभक्त है । मृदुकोष्ट के लिये तीन दिन, मध्यमकोष्ठ के लिए पांच दिन व arth लिए सात दिनतक स्नेहपदार्थ [ घृत ] पिलाना चाहिये [ इस क्रमसे शरीर अञ्छतिरह स्निग्ध होता है ] स्नेहन क्रियामें सर्वत्र यही विधि है ॥ २८ ॥ ( १३३ ) स्नेहपान के गुण । विशेषनिशिताग्नयोऽधिकबलाः सुबर्णोज्वलाः । स्थिराभिवधातवः प्रतिदिनं विशुद्धाशयाः ॥ दृढेंद्रियशतायुषः स्थिरवयस्सुरूपास्सदा । भवंति भुवि संततं घृतमिदं पिबंतो नराः ॥ २९ ॥ १ वमन विरेचन आदि प्रत्येक पंचक्रमों को करने के पहिले स्नेहन, और स्वेदन किया करनी चाहिये ऐसा आयुर्वेद शास्त्र का नियम है । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) कल्याणकारके भावार्थः-- -इस तरह घी पीनेवाले मनुष्यकी अग्नि तीक्ष्ण हो जाती है। अधिक बलशाली व सुवर्णके समान कांतिमान होता है, शरीरमें स्थिर व नये धातुवोंकी उत्पत्ति होती है । आमाशयादि शुद्ध होते हैं, इंद्रियां दृढ़ हो जाती है, वह शतायुषी होजाता है। शरीर सुरूप व सुडौल बनजाता है ।। २० ॥ स्नेहन के लिये अपात्र । अरोचकनवज्वरान् हृदयगर्भमूच्छीमद- । भ्रमलमकृशानमुरापरिगतानाद्रारिणः ॥ अजीर्णपरिपीडितानधिकशुद्धदेहान्नरान् । सबस्तिकृतकर्मणो न धृतमेतदापाययेत् ॥ ३० ॥ भावार्थ:--अरोचक अवस्थामें, नबज्वर पीडितको, गर्भवतीको, मूञ्छितको, मद, भ्रम श्रमसे युक्त, कृश, ऐसे व्यक्तिको एवं मद्य पीये हुए को, उदारीको, अजीर्णसे पीडितको, वमनादिसे अत्यधिक विशुद्ध देहवालेको, बस्तिकर्म जिसको कियागया हो उसको यह घृत नहीं पिलाना चाहिये अर्थात् ऐसे मनुष्य स्नेहनके लिये अपात्र हैं ॥ ३० ॥ __ स्वेदन का फल। अथाग्निरथिवर्द्धते मुदुतरं सुवर्णोज्वलं । शरीरमशने रुचिं निभृतगात्रचेष्टामपि ॥ लघुत्वपवनानुलोम्य मलमूत्रवृत्तिक्रमान् । करोति तनुतापनं सततदुष्टनिद्रापहम् ॥ ३१ ॥ भावार्थ:--शरीर से किसी भी प्रकार से पसीना लाया जाता है उसे स्वेदन क्रिया कहते हैं । स्वेदनसे शरीरमें अग्नि तीत्र हो जाती है । शरीर मृदु व : कांतियुक्त होजाता है । भोजनमें रुचि उत्पन्न होती है । शरीरके प्रत्येक अवयव योग्य क्रिया करने लगते हैं, शरीर हलका हो जाता है । वातका अनुलोम हो कर, मल मूत्रोंकता ठीक २ निर्गम होता है, दुष्ट निद्राको दूर करता है ॥ ३१ ॥ स्वदनके लिय अपात्र । क्षतोष्मपरिपीडितांस्तृषितपाण्डुमेहातुरा । नुपोषितनरातिसारबहुरक्तपित्तातुरान् ॥ जलोदरविपातमूर्छितनराकान् गर्भिणीं।.. स्वयं प्रकृतिपित्तरसगुणमत्र न स्वेदयेत् ॥ ३२ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। (१३५) भावार्थ:-क्षत व उष्णसे पीडित, तृषित, पांडु व मेहरोगके रोगीको उपवास किये हुएको, रक्तपित्तीको, अतिसारीको, जलोदर, विषरोग व मूर्छारोगसे पीडितको, गर्भिणीको एवं पित्तप्रकृतिबालेको, स्वेदन नहीं करना चाहिये ॥३२॥ वमनविधि । ततस्सलवणोग्रमागधिककल्कमित्रैः शुभैः। फलैस्त्रिफलकैस्तथा मदननामकैः पाचितम् ॥ सुखोष्णतरदुग्धमातुरमथागमे पायये- ।' निविष्टमिह जानुदधनमृदुस्थिरोच्चासने ॥ ३३ ॥ भावार्थ:-----इस तरह स्नेहन स्वेदन करनेके बाद सैंधा नमक, वच, पीपल इन तीनोंके कल्क से मिश्रित त्रिफला (हर्ड, बहेडा, आमला) व मेनफलको दूधमें पकाना चाहिये । रोगीको घुटने बराबर ऊंचे, स्थिर व मृदु श्रेष्ठ आसन पर बैठालकर उपर्युक्त प्रकारके सुखोष्ण दुधको प्रातःकालके समय पिलाना चाहिथे ॥ ३३ ॥ सुवांतलक्षण व वमनानंतर विधि । क्रमानिखिलभेषजोरुकफपित्तसंदर्शनात् । सुवांसमतिशांतदोषमुपशांतरोगोद्धतिम् ॥ नरं सुविहितान्नपानविधिना समाप्याययन । सहाप्यमलभेषजैः प्रतिदिनं जयेदामयान ॥ ३४ ।। भावार्थ:- इस के बाद गले में उगंली, या मृदु लकडी डालते हुए वमन करने के लिये कोशिश करनी चाहिये । बाद मे वमन शुरु होजाता है ) उस वमन में पहिले औषधि, फिर कफ, तदनंतर पित्त गिरजाय एवं दोषोपशमन, व रोगोद्रेक की कमी होजाय तो अच्छी तरह वमन होगया है ऐसा समझना चाहिये । पश्चात् ऐसे वामित मनुष्य को, पेया आदि योग्य अन्नपानकी योजना से, अग्नि को अनुकूल कर फिर रोगोंकी उपशांति के लिये औषध की व्यवस्था करनी चाहिये। विशेषः-वमन आदिक द्वारा शुद्ध किये गये मनुष्यका आहार सेवनक्रम:--- वमनादिकों से शरीर की शुद्धि करने के पश्चात् प्रायः उस मनुष्य की अग्नि मंद हो जाती है । उसको निम्नलिखित क्रम से बढ़ाना चाहिये । शुद्धि तीन प्रकारकी है । प्रधान ( उत्तम ) शुद्धि, मध्यमशुद्धि, जघन्य शुद्धि । इन तीनों प्रकार की शुर्दियों से शुद्ध करने के पश्चात् उस व्यक्तिको गरमपानी से स्नान कराकर, भूख लगनेपर जिस दिन शद्धि की हो उसी दिन शामको या दूसरे दिन Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) कल्याणकारके प्रातःकाल, रक्तशालि के अन्न को ( अग्नि बल के अनुसार ) खिलाते हुए, यथाक्रम से तीन २ दो २ एक २ अन्नकालों (भोजनसमय) में पेया, विलेपी, कृताकृतयूष, तथा दूध सेवन कराना चाहिए । तात्पर्य यह है कि किसीको प्रधान [ उत्तम ] शुद्धि द्वारा शब्द किया हो, उस को प्रथम दिन में दो अन्नकालों (सुबह शाम ) में पेया पिलावें, दूसरे दिन प्रथम अन्नकाल में पेया, द्वितीय अन्नकाल में विलेपी, तृतीय दिन प्रथम, द्वितीय अन्नकाल में विलेपी, चौथे दिन, प्रथम द्वितीय अन्नकालमें अकृत यूष ( दालका पानी ) के साथ, पांचवें दिन में प्रथम अन्नकालमें कृतयूष के साथ लाल चावल के भात, ( अथवा एक अन्नकालमें अकृतयुष दो कालोंमें कृतयूष के साथ ) द्वितीय अन्नकाल तथा छटवें दिन दोनों अन्नकालोंमें दूध भात देना चाहिए। सातवें दिन स्वस्थपुरुषके समान आहार देना चाहिए। इसी तरह मध्यमशुद्धि में दो२ अन्नकालों में, जघन्यशुद्धि में एक २ अन्नकाल में पेया आदि देना चाहिए । जवन्यशष्दि में एक २ अन्नकाल में पेया आदि देने के कारण, कृतयूष अकृतयूष इन दोनोंको दे नहीं सकते क्यों कि अन्नकाल एक है। चीज दो है। इसलिये इस शुद्धिमें या तो अकृतयूष ही देवें, अथवा कृताकृत मिश्रकरके देखें। ऊपर जो पेयादि देनेका क्रम बतलाया है वह सर्व साधारण क्रम है। लेकिन, देश, काल, प्रकृति, सात्म्य, दोषोद्रेक आदि के तरफ ध्यान देते हुए, अवस्थाविशेष में उस क्रममें कुछ परिवर्तन भी वैद्य कर सकता है । पेयाके स्थान में यवागू भी दे सकता है । तीव्राग्नि हो तो प्रारंभमें ही दूध भात भी दे सकते हैं आदि जानना चाहिये । - पेयाः-दाल चावल आदि को चौदह गुण जल में इतना पकावे जो पीने लायक रहें और दाल आदि के कण भी उसी में रहें उसे पेया कहते हैं। विलेपी:-जो चतुर्गुण जलमें तैयार की गई हो, जिस में से दाल आदि के कण नहीं निकाले हों, और इस में द्रवभाग अत्यल्प हो अर्थात् वह गाढी हो, उसे विलेपी कहते हैं। युष:----एक भाग धुली हुई दाल को अठारह गुने जल में पकावें । पकते २ जब पानी चतुर्थीश रहें तब, वस्त्र में छान लेवे इस को यूप कहते हैं । अर्थात् दालके पानीको यूष कहते हैं। कृतयूषः----जिस गूप में सोंट मिरछ, पपिल, घी सेंधानमक डाल कर सिद्ध करते हैं उसे कृतयूष कहते हैं। . अकृतयुष-जो केवल दाल का ही यूष हो सोंठ आदि जिसमें नहीं डाला है। उसे अकृतयूष कहते हैं ।। ३४ ।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। वमनगुण। प्रलापगुरुगात्रतां स्वरविभेदनिद्रोद्धतिं । मुखे विरसमग्निमांद्यमधिकास्यदुर्गधताम् ॥ विदाहहृदयामयान्कफनिषेककंठोत्कट । व्यपोहति विषोल्वणं वमनमत्र संयोजित ॥ ३५॥ भावार्थ:-सम्यग् वमनसे रोगीका बडबडाना, शरीरका भारपिन, स्वरभेद, निद्राधिकता, मुखविरसता, अग्निमांद्य, मुखदुर्गंध, विदाहरोग, हृदयरोग, कफ, कंठरोध, विषोद्रेक आदि बहुतस रोग दूर होते हैं ॥ ३५ ॥ वमनकेलिये अपात्र। न गुल्मतिमिरोर्ध्वरक्तविषमार्दिताक्षेपक-। प्रमाढतरवृद्धपांडुगुदजांकुरोत्पीडितान !! क्षतोदरविरूक्षितातिकृशगभीवस्तंभक-।। क्रिमिप्रबलतुण्डबंधुरतरान्नरान्वामयेत् ॥ ३६॥ भावार्थ:-गुल्मरोगी, तिमिररोगी, रक्तपित्त, अर्दित, आक्षेपक, प्रमेह, बहुत पुराना पांडुरोग, बवासीर, और क्षतोदर से पीडित व्यक्तिको एवं रूक्षशरीरवाले को, गर्भिणीको, स्तंभन करने योग्य रोगीको, क्रिमिरोगीका, दंत रोगी को और अत्यंत मुखियों को वमन नहीं देना चाहिये ॥ ३६॥ वमनापवाद । अजीर्णपरिपीडितानतिविपोल्वणश्लैष्मिका-। नुरागतमरुत्कृतप्रबलवेदनाव्यापृतान् । नरानिह निवारितानपि विपक्कयाष्टिजलेः । कणोग्रफलकल्पितैमृदुतरं तदा छर्दयेत् ॥ ३७ ॥ . भायार्थः---ऊपर वमन देनेको जिनको निषेध किया है ऐसे रोगी भी कदाचित् त्यंत अजीर्ण से पीडित हो, विपन विषसे पीडित हो, कफोद्रिक्त हों, छातीमें प्राप्त वातकी प्रबल वेदनासे पीडित हों तो उनको मुलट्टी; पीपल, वच, मेनफलके काथसे मृदु वमन करा देना चाहिये ।। ३७ ॥ कटुत्रिकादिचूर्ण कटुत्रिकविडंगहिंगुविडसैंधवैलानिकान् । ‘सुवर्चलसुरेंद्रदारुकटुरोहिणीजीरकान् ॥ १४ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..( १३८.) कल्याणकारके विचूर्ण्य घृतमातुलंगरससक्ततक्रादिकैः। पिबन्कफसमीरणामयगणान्जयत्यातुरः ॥ ८॥ भावार्थ:-त्रिकटु ( सोंठ, मिरच, पीपल ) वायविडंग, हींग, विडनमक, सैंधानमक, इलायची, चित्रक, कालानमक, देवदार, कुटकी, जीरा, इन चीजोंका चूर्ण करके घी, माहुलंगके रस, छाछ आदिमें मिलाकर या उनके अनुपान के साथ सेवनसे वातजन्य, कफजन्य, रोगसमूह उपशम को प्राप्त होते हैं ॥ ३९ ॥ - महौषधादि क्वाथ व अनुपान । महौषधवराग्निपथबृहतीद्वयैरण्डकैस्सविल्वसुरदारूपाटलसमातुलुंगैः शृतैः ॥ घृताम्लदधितऋदुग्धतिलतैलतोयादिभि-। महातुरमिहानपानविधिना सदोपाचरेत् ॥ ३९ ॥ भावार्थ:-सोंठ, हरड, बहेडा, आंवला, अग्निमंथ, छोटी व बड़ी कटली, एरण्ड देवदारु, पाढल. माहुलुंग बेलगिरि इनके काथसे सिद्ध घी, आम्ल, पदार्थ, दही, छाछ, दूध, तिलका तेल, पानी आदिसे अन्नपान विधिपूर्वक रोगीका उपचार करना चाहिये॥३९॥ पक्वाशयगत वात केलिये विरेचन । अथ प्रकुपितेऽनिले विदितभूरिपक्वाशये । स्नुहित्रिकटुदुग्धकल्कपयसा विपकं घृतं ॥ सुखोष्णलवणांभसानिलविनाशहेतुं तथा । पिवेत् प्रथमसंस्कृतातिहितदेहपूर्वक्रियः ॥ १० ॥ भावार्थः-यदि वह वायु पक्काशयमें कुपित होजाय तो थूहर का दूध, त्रिकटु, ( सोंठ मिरच पीपल ) गायका दूध इन के कल्क, व दूधसे गोघृत को सिद्ध करना चाहिये । वात को नाश करनेवाले इस विरेचन धृत को, स्नेहन, व स्वेदन से जिसका शरीर पहिले ही संस्कृत किया गया हो, ऐसे मनुष्य को सुखोष्ण ( गुनगुना ) नमक के पानी में डाल कर पिलाना चाहिये। इस से विरेचन होकर वात शांत हो जाता है. ॥४०॥ वातनाशक विरेचकयोग। त्रिवृत्त्रिकटुकैस्समं लवणचित्रतैलान्वितं । पिवेदनिलनाशनं धृतविमिश्रितं वा पुनः॥ महौषधहरीतकी लवणकल्कमुष्णोदक। स्सतैलसितपिप्पलीकमयवा त्रिवृद्वातनुत् ॥.४१ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। (१३९) भावार्थ:--निसोत, त्रिकटु ( सोंठ, मिरच, पपिल ) सेंधानमक, इन के चूर्ण को एरण्डतैल अथवा घी के साथ पीने से, सोंठ, हरीतकी, सेंधानमक इन के कल्कको गरम पानीके साथ, व शक्कर पीपल, निसोत के कल्क व चूर्णको तैल के साथ सेवन करने से विरेचन होकर पक्काशयगत वात दूर होजाता है ॥ ४१ ॥ विरेचन फल । मुदृष्टिकरमिष्टमिंद्रियबलावहं बुद्धिकृत् । शरीरपरिवद्धिमिद्धमनलं वयस्थापनम् ॥ विरंचनमिहातनोति मलमूत्रदोषोद्भव- । क्रिमिप्रकरकुष्टकोष्ठगतदुष्टरांगापहम् ॥ ४२ ॥ - भावार्थः-विरेचनसे दृष्टि तीक्ष्ण होती है, इंद्रियोंका बल बढता है, बुद्धीकी वृद्धि होती है। शरीरकी शक्ति बढ़ती है, अग्नि बढती है । दीर्घायुषी होजाता है । एवं चं मलमूत्र के दोषोंसे उत्पन्न होनेवाले रोग, क्रिमिरोग, कुष्टरोग, कोष्ठगत दुष्टरोग आदियोंको यह विरेचन दूर करता है ॥ ४२ ॥ विरेचन के लिये अपात्र । सशोकभयपीडितानतिकृशातिरूक्षाकुलान् । श्रमलमतृषानजीर्णरुधिरातिसारान्वितान् ॥ शिशुस्थविरगर्भिणीविदितमद्यपानादिकान-! संस्कृतशरीरिणः परिहरेद्विरेकैस्सदा ॥ ४३ ॥ भावार्थ:-शोक व भयसे पीडित, अतिकृश, अतिरूक्ष, अत्यंताकुलित, श्रम, कम, तृषा, अजीर्ण, रक्तातिसारसे युक्त, बालक, वृद्ध, गर्भिणी, मद्यपायी, स्वेहन, स्वेदन, आदिसे असंस्कृत शरीरवाले इत्यादि प्रकारके लोगोंको विरेचन नहीं देना चाहिये ॥४३॥ विरेचनापवाद । तथा परिहतानपि प्रवलपित्तसन्तापिता-। नतिक्रिमिमलोदरानपि च मूत्रविष्टम्भिनः ॥ सितत्रिकटुचूर्णकैरहिमवारिणा वान्वितै- । स्त्रिवृल्लवणनागरैमृदुविरैचनर्योजयेत् ॥४४॥ १ यहां निसोत आदि कितना प्रमाण लेना चाहिये ! इसका उल्लेख नहीं किया है। आयुर्वेदशास्त्रका नियम है कि जहां औषधि प्रमाण नहीं लिखा हो वहां सबको समभाग (बरामेर). रेना चाहिये । इसलिये यहां- और आगे भी ऐसे स्थानोमें समभाग ही अहण करें। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) कल्याणकारके भावार्थ:--ऊपर विरेचनके लिये निषेध किये हुए रोगी भी यदि प्रक्लः पितोदेकर्स संतप्त हो, उदरमें क्रिमियों की अत्यधिकता हो, मूत्रबद्ध हो तो उनको शबर विकटुके चूर्णको गरम पानी में मिलाकर विरेचन देना चाहिए अथवा निसोत, नमक, सोंठके कषाय से चूर्ण से मृदु विरेचन कराना चाहिए ॥ ४ ॥ सर्वशरीरगत वातचिकित्सा । समस्ततनुमाश्रित पवनमुग्रमास्थापनः । प्रवृद्धमनुवासेनरिह जयेद्यथोक्तक्रमात ॥ निरूह इति सर्वदोषहरणात्तथास्थापनं ।। वयस्थितिनिमित्ततोऽर्थवशतो निरुक्तं मया ॥ ४५ ।। - भावार्थ:-समस्तशरीर में व्याप्त ( कुपित ) वायुको विधिपूर्वक आस्थापन, अनुवासन बस्तियोंसे शमन करना चाहिए । संपूर्णदोषोंको अपहरण करनेसे उसका नाम निरूह, वयस्थापन करनेसे आस्थापन पड गया है। इस प्रकार उन दोनों बस्तियों के सार्थक नाम है ॥४५॥ अनुवासनबस्तिका प्रधानत्व । अथानमनुवासनादनुवसन्न दुष्यत्यपि । प्रधानमनुवासनं प्रकटितं पुराणः पुरा ॥ ताभयमपीह बस्तियुतनेत्रसल्लक्षण- । द्रवप्रवरभेषजामयवयप्रमाणेब्रुवे ॥ ४६ ॥ भावार्थ:-अनुवासनबस्तिका उपयोग करनेपर भी आहारादिकमें (अग्निमांचः आदि) कोई दोष नहीं आता है। इसलिए इस अनुवासन बस्तिको महर्षिलोग मुख्य बतलाते हैं। आगे हम आस्थापन अनुवासन बस्तियोंकी विधि रोग, वय, अनुकूलप्रमाणेक सायर वस्तिसे युक्त पिचकारी का लक्षण, उस के प्रयोगमें आनेवाले द्रवव्य, उत्कृष्ट औषर्वि गरहका निरूपया करेगे ॥ ४६ ।। प्रतिक्षा ! जिनप्रवचनांबुधैर्विदितचारुसंख्याक्रमा-1 दिहापि गणनाविधिः प्रतिविधास्यते प्रस्तुतः !! विचार्य परमागमादधिगतो बुधैहाते । ... मुखग्रहणकारणादुल्तरार्थसंक्षेपतः ॥ ४७॥ भावार्थ:-जैनशास्त्ररूपी समुद्र में बान्तके विषय में गणनाको जो नियम है उसीको अनुसरण करके यहांपर कथन किया जावेगा । बुद्धिमान लोग समय में Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। (१४१) विचार किए हुए विषयको ही ग्रहण करते हैं। क्यों कि विस्तृत विषयको भी संक्षेप व सुलभता से जानने केलिए परमागम ही साधन है ॥ ४७ ॥ वस्तिनेत्रलक्षण । दृढातिमृदचर्मनिर्मितनिराम्वच्छागल- । प्रमाणकुडवाष्टकद्रवमितोरुवस्त्यन्वितम् ॥ षडष्टगुणसंख्यया विरचितांगुलीभिः कृतं । त्रिनेत्रविधिलक्षणं शिशुकुमारयूनां क्रमात् ॥ ४८ ॥ . भावार्थ:----निरूह व अन्वासन बस्ति देने के लिये एक ऐसी नेत्रा ( पिचकारी ) बनायें जो मजबूत व मृदुचर्म से निर्मित, छिद्रहित बस्ति से संयुक्त हो, जिस में आठ कुडन (१२८ तोले) (?) द्रव पदार्थ मासके, जिसकी लम्बाई, बालकोंके लिये ६ अंगुल, कुमारोंके लिये ८ अंगुल, जवानों के लिये १० अंगुल प्रमाण हो ॥४८॥ तथैकनयरत्नभेदगणितांगुलीसंस्थिता- । क्रमोन्नतसुकर्णिकान्यपि कनिष्ठिकानामिका ॥ स्वमध्यमवरांगुलात्मपरिणाहसंस्कारिता-। न्यनिंद्यपशुबालधिप्रतिमवतुलान्यग्रतः॥४९॥ भावार्थ:-बस्तिनेत्र ( पिचकारी) के अग्रभाग में एक गोल कणिका होनी चाहिये जिसका प्रमाण ( शिशु, कुमार, युवापुरुषों की बस्ति में ) एक, दो, तीन अंगुल का प्रमाण होना जाहिये । नेत्र की मोटाई अग्रभागमें कनिष्ठांगुली, मध्यभाग में अना-.. मिका ( अंगूठेके पान के ) अंगुली, मूल में वाच की अंगुली के बराबर होना चाहिये। एवं श्रेष्ठ गोपुच्छ के समान आकृति से युक्त और अप्रभाग गोल होना चाहिये ॥४॥ बस्तिनवनिर्माण के योग्य पदार्थ व छिद्रप्रमाण । मुवर्णवरतारताम्रतरूनिर्मितान्यक्षता । न्यनूनगुलिकामुखान्यतिविपकमुद्गाढकी ! कलायगतिपातितात्मसुपिरानुधारान्विता-! न्यमूनि परिकल्पयेदुदितलक्षनेत्राण्यलम् ॥ ५० ॥ १ द्विविध नय-द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक, द्रव्यकी विवक्षा करनेवाला नय द्रव्यार्थिक र एयायकी विवक्षः करनेवाला पर्यायार्थिक कहलाता है । २ रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चासिलोपर यथार्थ. विश्वास ( (Goc Conduct ) रखना.सम्यग्दर्शन तत्वोंके यथार्थ सान. (ivya Aloedge: ) सम्यग्ज्ञान, व हेयापाट्य रूपस तत्वाम विवेक जागृति होकर आचरण करना ( Cood Chaiactch: ) सम्यक्चारित्र कहलाता है ! ३ यह इसलिये बनायी जाती हैं कि सम्पूर्ण पिचकारी के पूर्ण भाग को गुदाके अंदर जाने से रोके ।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) कल्याणकारके भावार्थ:--यह पिचकारी सुवर्ण, उत्तम चांदी, ताम्र व लकडी आदि से बनाई हुई होनी चाहिये । वह अक्षत हो, उस के मुखमें एक सुंदर गोली होनी चाहिए । अंदर [ अग्रभाग में ] का छिद्र शिशु, कुमारों युवावस्थावालोंके लिए, क्रम से, पके हुए मूंग, अरहर, व मटरके बराबर होना चाहिए । इस प्रकार के लक्षणोंसे पिचकारी तैयारी करें॥ ५० ॥ वस्ति के लिए औषधि । सतैलघृतदुग्धतक्रदधिकांजिकाम्लद्रवै- । स्त्रिवृन्मदनचित्रबीजकविपकमूत्रेस्समम् ॥ खजाप्रमथितेशृतैस्सह विमिश्रितैः कल्किते। महौषधमरीचमागधिकसैंधवोग्रान्वितैः ॥ ५१ ॥ सदेवतरुकुष्टहिंगुबिडारकैलात्रिबृ-। द्यवान्यतिविपासयष्टिसितसर्षपैस्सर्षपैः ।। सुपिष्टवरभेषजः पलचतुर्थभागांशकै ॥ विलोड्य मथितं कदुष्णमिह सेचयेद्धस्तिषु ॥ ५२ ।। भावार्थ:----बस्तिप्रयोग करनेके लिए, तैल, घी, दूध, तक्र, दही, कांजी ये द्रवपदार्थ, निसोत, मैनफल, एरण्डीज, इनके काढा और गोमूत्र, इनको यथामात्रा मिलाकर मथन करें । इसमें सोंठ, मिरच, पीपल, सेंधानामक, वच, देवदारु, कूट, हींग विडनमक, जीरा, इलायची, निसोत, अजवायन, अतीस, मुलेठी, सफेद सरसों, कालीसरसों इन औषधियोंको एक २ तोला प्रमाण लेकर बारीक पीस लेवें और उपरोक्त, द्रवपदार्थ में इस कल्कको मिलाकर, मंथनीसे मथें । इस प्रकार साधित औषध. अल्प उष्ण रहनेपर, बस्ति नेत्र [ पिचकारी ] में डालें ॥ ५१-५२ ॥ ____ बस्तिके लिए औषध प्रमाण। इहैकनयसच्चतुः कुडबसंख्यया सव्वा । निषिच्य निपुणाः पुरा विहितनेत्रनाडीमुखम् ॥ स्वदक्षिणपदांगुलावधृतवामपादस्थितं । द्रवोपरि निबंधयेद्विहितबस्तिवातोद्गमम् ॥ ५३ ॥ भावार्थ:-----उस पिचकारी में ( शिशु, कुमार, युवकोंको) क्रम से एक कुड (१६ तोले ) दो कुडब ( ३२ तोले ) चार कुडन १६४ तोले ) उपरोक्त दद पदार्थ को भरकर, उस पिचकारी को, वायें पाद के सहारे रखकर दाहिने पैर की Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। (१४३) .उंगलीयों से पकडकर, उस के मुख में बस्ति को बांधे, पश्चात् उससे वायु को निकाल देवें ॥ ५३ ॥ - औषधका उत्कृष्टप्रमाण । वयोबलशरीरदोषपरिवृद्धिभेदादपि । द्रवप्रवणता भवेद्गणनया गुरुद्रव्ययोः ॥ न च प्रमितिरूर्जिता कुडवषटतोन्या मता । तदर्धमिह पक्कतैलघृतयोः प्रमाणं परम् ॥ ५४॥ भावार्थ:-वय, बल, शरीर, दोषोंकी वृद्धि व हानि, गुरुद्रव्य, लघुद्रव्य की अपेक्षासे, द्रवद्रव्योंके प्रयोग होता है । तात्पर्य यह कि द्रवद्रव्यका उपरोक्त प्रमाण से वय आदि को देखते हुए कुछ घटा बढा भी सकते हैं । लेकिन ज्यादासे ज्यादा छंह कुडव तक प्रयोग कर सकते हैं । इस से अधिक नहीं । औषधियों द्वारा सिद्ध किया हुआ तैल या घृतकी मात्रा उपरोक्त द्रवद्रव्यके प्रमाण से अर्धांश है ॥ ५४॥ बस्तिदान क्रम। निपीड्य निजवामपार्श्वमिहनानुमात्रोच्छिते । शयानमिति चातुरं प्रतिवदेद्भिषग्मंचके । प्रवेशय गुदं स्वदक्षिणकरण नेत्रं शनै-।। घृताक्तमुपसंहरन् स्वमुचितांघ्रिवामेतरम् ॥ ५५ ॥ भावार्थ:--धुटने के बराबर ऊंचे तख्त में वामपार्थ को दबाते हुए (उसी करवटसे) रोगीको सुलाकर उस से कहें कि अपने दांये पैर को सिकोडकर, अपने दाहिनेहाथ से घृत से लिप्त उस वस्ति ( पिचकारी को घृत से चिकना किये गये गुदामें, धीरे २ प्रवेश कराओ ॥ ५५ ॥ प्रवेश्य शनकैस्सुखं प्रकटनेत्रनाडीमुखम् । प्रपीडयतु बस्तिमप्रचलितानुवंशस्थितिम् ॥ द्रवक्षयविदातुरं विगमनेत्रमाश्‍वागमात् । करेण करमाहरन्पदभवोत्कुटीकासनम् ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-जिस का मुख खुला हुआ है ऐसी बस्तिनालिका (पिचकारी) को, पूर्वोक्त क्रमसे, धीरे २ प्रवेश करानेके बाद, वंशास्थि ( पीठ के बीचमें जो गले से लेकर कमरतक रहने वाली हड्डी ) की ओर झुकाकर निश्चल रूपसे पिचकारी को दबाना चाहिये। , द्रवपदार्थ खतम होनेके बाद, उस बस्तिको शीघ्र ही हाथों हाथ, गुदद्वार से निकालना Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके चाहिये । पश्चात् प्रयुक्त औषधि के बाहर निकाल ने के लिये, रोगीको [ एक मुहूर्त पर्यंत ] उकरू बैठालना चाहिये ॥ ५६ ॥ सुनिरूढलक्षण। क्रमाद्वपुरीषदोषपरिशुद्धिमालाक्य तः ।। त्पुटत्रयमिहाचरेदपि चतुर्थपंचान्हिकम् ॥ यथा कफविनिगमो भवति वेदनानिग्रह- । स्तथैव समुपाचरेन च निरूहसंख्या मता ॥ ५७ ॥ भावार्थ:-उपरोक्त क्रमसे निरूहबस्ति प्रयोग करने के बाद सबसे पहिले प्रयुक्त द्रव पदार्थ पश्चात् यथाक्रमसे मल, वात, पित्त, कफ बाहर निकल आवे, एवं रोग की उपशांति हो तो जानना चाहिये कि निम्हबस्ति ठीक २ होगयी है। अर्थात् यह सुनिरूढका लक्षण है । यदि सुनिरूढताका लक्षण प्रकट न हो तो फिर चार पांच दिन तक क्रमशः तीन वास्तका प्रयोग करना चाहिये । लेकिन निरूहबस्ति के विषयमें यह कोई नियम नहीं है कि एक, दो, तीन या चार बस्ति प्रयोग करें। जब तक कफ बाहर नहीं आता है और रोग की उपशांति नहीं होती है, तब तक बराबर बस्ति देते जाना चाहिये ॥ ५७ ॥ निरूह के पश्चा द्विधेय विधि व अनुवासनबस्तिप्रयोग। ततश्च मुविशुद्धकोष्ठमुपधौतमुष्णोदकः । . स्वदोषशमनप्रयागलघुभाजनानतरम् ॥ यथोक्तमनुवासनं विधियुतं नियुज्याचरे- । . द्भिषग्जघनपादताडन मुमंचकोत्क्षेपणैः ।। ५८ ॥ भावार्थ:-उपर्युक्त प्रकारसे वस्तिकर्ममे कोप्टशुद्धि होनेके बाद गरम पानीसे स्नान करा कर तत्तदोषोंको शमन करनेवाले औषध योगोंसे सिद्ध किये गये, लघुभोजन कराना चाहिये । तदनंतर उसे विधिपूर्वक अनुवासन बस्ति देनी चाहिये। अनुवासन बस्तिगतद्रव्य शीव्र बाहर नहीं आये, इसके लिये रोगी चितसुलाकर जघन स्थान व पाद को ताडन करना चाहिये । तख्तको ऊंचा उठाना चाहिये ।। ५८ ॥ १ एक मुहूर्त ( दोघडी ) के अंदर निरूहनबस्ति पेट बाहर निकल न जावें तो रोगी की मृत्यु होने की सम्भावना है । कहा भी है । न आगतो परमः कालो मुहूर्ती मूल्य पर। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। (१४५) अनुवास के पश्चाद्विधेय विधि । स्वदक्षिणकरं निपीड्य शयने सुखं संविशेत् । स्वमेवमिति तं वदेन्मलविनिर्गमाकांक्षया ।। ततोऽनिलपुरीषमिश्रघृततैलयोर्वागमात् । प्रशस्तमनुवासनं प्रतिवदन्ति तद्वेदिनः ॥ ५९॥ भावार्थ:----दाहिने हाथको दबाकर अच्छीतरह सुखपूर्वक सोनेके लिये उसे . कहना चाहिये । जिससे मल शीघ्र नहीं निकल सके । उसके बाद वायु व मळसे मिश्रित (पहिले प्रयोग किया हुआ) तेल वा धी निकल जावें तो बस्तिकर्म को जाननेवाले, उत्सम अनुवासन बस्ति हुई ऐसा कहते हैं ॥ ५९ ॥ अनुवासनका शीघ्र विनिर्गमनकारण व उसाका उपाय । पुरीपबहुलान्मरुत्पबलतातिरूक्षादपि । स्वयं धृतसुतलयोरतिकनिष्ठमात्रान्वितात् ॥ स च प्रतिनिवर्तते घृतमथापि तैलं पुन-। स्ततश्च शतपुष्पसैंधवयुतं नियोज्यं सदा ।। ६० ॥ भावार्थ:---कोष्ठ में मलका संचय, वातका प्रकोप, और रूक्षत्व (सूखापना) के अधिक होने से व प्रयुक्त घृत व तैल की मात्रा अत्यल्प होनेसे, प्रयुक्त अनुवासनबस्ति शीघ्र ही लोट आवे तो, घृत या तेलके साथ सोंफ, सेंधानमक को मिलाकर फिर बस्तिप्रयोग करना चाहिये ॥ ६ ॥ अनुवासनबस्ति की संख्या । तृतीयदिवसात्पुनः पुनरपीह संयोजये-। यथोक्तमनुवासनं त्रिकचतुष्कषष्ठाष्टमान् ॥ शरीरबलदोषविद्विविधवेदनानिग्रहं । निरूहमपि योजयेत्तदनुवासमध्ये उनः ॥ ६ ॥ __अर्थः-पुनः तीसरे दिनमें गेकि शरीरबल, दोष-प्रकोप, वेदना की उप शांति आदि पर ध्यान देते हुए उसे तीन, चार, छह, आठ तक अनुवाप्सन बस्ति देनी चाहिये । उम अनुवासन बस्तिके, बीच में आवश्यकता तो निरूहबस्तिका प्रयोग भी करना चाहिये ।। ६१ ॥ १ अनुवासनबस्ति प्रयोग करते ही बाहर आ तो गुणकारी नहीं होती है । इसलिये, पेटके अंद बोडी देर ठहरना अत्यावश्यक है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६ ) कल्याणकारके बस्तिकर्म के लिये अपात्र. अजीर्णभयशोकपाण्डुमदमूच्छनारोचक-। भ्रमश्वसनकासकुष्ठजठरार्तितृष्णान्वितान् ॥ गुदांकुरनिपीडितांस्तरुणगर्भिणीशोषिणः । प्रमेहकृशदुर्बलाग्निपरिवाधितोन्मादिनः ॥ ६२ ।। उरःक्षतयुतान्नरानधिकवातरोगादृते । बलक्षयविशोषितान्प्रतिदिनं प्रलापान्वितान् ॥ अतिस्तिमितगात्रगाढतरनिद्रया व्याकुलान् । संदैव परिवर्जयेदुदितबस्तिसत्कर्मणा ।। ६३ ॥ भावार्थ:--अजीर्ण, भय, शोक, पाण्डुरोग, मद, मूर्छा, अरुचि, भ्रम, श्वास, कास कुष्ठ, उदररोग, तृषा, बबासीर, अल्पवयस्क, गर्भिणी, क्षय, प्रमेह, कृश, दुर्बलाग्नि, उन्माद इत्यादिसे पीडित एवं प्रबल वातरोगसे रहित उरक्षत, शक्तिका ह्वास, शोष, प्रलाप, गात्रस्तब्ध व गाढ निद्रासे व्याकुलित व्यक्तियोंको, बस्ति कभी नहीं देनी चाहिये।। ६२ ।। ६३ ॥ वस्तिकर्म का फल। न चास्ति पवनामयप्रशमनक्रियान्या तथा । यथा निपुणबस्तिकर्म विदधाति सौख्यं नृणां । शरीरपरिवृद्धिमायुरनलं बलं वृष्यतां । वयस्थितिमरोगताममलवर्णमप्यावहेत् ॥ ६४ ॥ भावार्थ:-वात रोगोंके उपशमनके लिए ( अच्छी तरह से प्रयुक्त ) बस्तिकर्म से अधिक उपयोगी अन्य कोई क्रिया नहीं है । उचित रूपसे बस्तिकर्म किया जाय तो वातका शमन होकर रोगीको सुख होता है, शरीरमें शक्ति बढती है, आयुष्य भी बढता है। अग्नि तेज होजाती है । वाजीकरण होता है । वयस्थापन [ काफी आयु होनेपर भी, शरीर यौवनावस्था सदृश सुदृढ रहना ] होता है, निरोगता प्राप्त होजाती है । शरीरकी कांति भी बढती है ॥ ६४ ॥ वम्निकर्म का फल। बलेन गजमश्वमाशुगमनेन बुध्या गुरूं।। दिवाकरनिशाकरावपिच तेजमा कांतितः ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः। (१४७) मुवर्णमिह सूक्ष्मदृष्टिगुणतोऽगजं रूपतो। ___ जयेदमलिनानुवासनसतीपयोगानरः ॥ ६५ ॥ भावार्थ:-ठीक २ अनुवासन बस्ति यदि सो संख्यामें ले लीजाय तो वह मनुष्य बलसे हाथीको, शीघ्रगमनसे घोडेको, बुद्धीसे बृहस्पतिको, तेजसे सूर्य व चंद्रको, कांतिसे सुवर्णको, सूक्ष्मदृष्टिगुणसे हाथीको, रूपसे कामदेवको जीतेगा । इतनी शक्ति उस अनुवासनबस्तिमें है ॥ ६५ ॥ शिरागत वायुकी चिकित्सा । शिरोगतमिहानिलं शिरसि तैलसतर्पणे- । विपक्कवरतैलनस्यविधिना जयेत्संततम् ॥ महौषधिशिरीषशियसुरदारुदायुितः । करंजखरमंजरीरचकहिंगुकांजीरकः ॥६६ ॥ प्रलेपनमपीह तैः कथितभेषजैर्वाचरे-। द्विपकघनकोशधान्यकृतसोष्णसंस्वेदनैः ।। यथोक्तमुपनाहनेस्मुखतरैश्शिरोवस्तिभि- । जयद्रुधिरमोक्षणैरनिलमुत्तमांगस्थितम् ॥ ६७ ।। भावार्थः-मस्तकगत वायु को मस्तक में तैल मालिश करना व तैल भिगोया गया पिचु [ पोया ] रखना, सोंठ, सिरीस का बीज, सेजन, देवदारु, दारुहलदी, करंज लटजीरा [अपामार्ग ] कालानमक, हींग, कांजीर, जीरा इन औषधियों से सिद्ध किये गये तैल के नस्य देना और इन ही । उपरोक्त ] औषधियोंके लेप करना, नागर. मोथा, कडवीतुरई, धनिया इन औषधियों द्वारा उष्ण स्वेदन देना ' विधिपूर्वक उपनाह [पुलटिश ] करना, योग्य शिरोबस्ति व रक्तमोक्षण करना इत्यादि उपायोंसे जीतना चाहिये ।। ६६ ॥ ६७॥ नस्य का भेद . नस्यं सर्व तच्चतुर्धा विभक्तं । लेहेनं स्याक्षजातोषधैश्च ॥ . *स्नेहान्नस्यं चावमर्षे च योज्यम् । वाते पित्त तद्वयव्यापृते वा ॥ ६८ ॥ भावार्थ:-तैल आदि चिकना पदार्थ और अपामार्ग आदि रूक्ष पदार्थ, झा प्रकार दो प्रकारके औषधियोंसे नस्यकर्म किया जाता है । उस स्नेहनस्य का मेर्श जो औषध नाकके द्वारा ग्रहण किया जाता है, उसे नस्य कहते हैं. २ उत्तम, मध्यम अपरके भेडे, थाक्रम १०.८-६ बिन्दु स्नेह जो नाकमें डाला जाता है उसे मर्शनस्य कहते हैं। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) कल्याणकारके अबमर्श [ प्रतिमर्श ] नाम से दो भेद है । और रूक्ष औषधियोंद्वारा किये जानेवाले नस्यके अवपीडन, प्रधमन इस प्रकार दो भेद हैं । चकि विरेचन बृहण आदि जो नस्य के भेद हैं वे सभी उपरोक्त स्नेह व रूक्ष पदाथों द्वारा ही होते हैं इसलिये [मुख्यतः ] सम्पूर्ण नस्यों के भेद चार हैं । वात, पित्त या वातपित्तोंसे उत्पन्न शिरों रोगी में, अवमर्ष नस्य को उपयोग में लाना चाहिये ॥ ६८॥ अवमर्ष नस्य। यद्यन्नस्यं तत्त्रिवारं प्रयोज्यं । यावद्द्वकां प्राप्नुयात्स्नेहबिंदुः ।। तं चाप्याहुश्चावमर्ष विधिज्ञाः। रूक्षद्रव्येयेत्तदत्र द्विधा स्यात् ॥ ६९ ॥ भावार्थ:-सर्वत्रा नस्यको त्रिवार प्रयोग करना चाहिये । जब वह नस्यगत स्नेहबिंदु मुखमें आजावे उसे अवमर्ष नस्य कहते हैं। इसकी मात्रा दो बिंदु है। रूक्षद्रव्यगत नस्थ उपर्युक्ल प्रकार दो तरह का है ॥ ३९॥ अवपीडन नस्य। व्याध्यावपीडनमिति प्रवदंति नस्यं । श्लष्मानिले परिचनागरपिप्पलीनाम् ॥ कोशातकी मरिचशिग्नपमार्गबीज-। सिंधूत्थचूर्णमुदकेन शिरोविरेकम् ।। ७० ।। भावार्थ:-लष्मवात रोगमें मिरच, सोंठ, पीपलके अवपोडन नस्यको देना चाहिये । एवं कडुवातुरई, मिरच, सैंजन, अपामार्ग के बीज व सैंधानमक के चूर्ण को पानीमें पीसकर शिरोविरेचनार्थ प्रयुक्त करना चाहिये । ॥ ७० ॥ मुत्र के लिये अपात जस्येत्वेते वजेनीया मनुष्याः। स्नातास्नातुं प्रार्थयन्मुक्तवंताः ।। अपक्षीणा गर्भिणी रक्तपित्ताः। श्वासैस्सद्यः पीनसेनाभिभूताः ॥ ७१ ॥ .:. १ रूक्ष औषिधेियोंके कल्क क्वाथ स्वरस आदिसे जो नस्य दिया जाता है उसे अवपीडन नस्य कहते हैं। लाहले चुग को नळीमें भरकर, नासा रंध्रमें फूका जाता है उसे प्रधर्मनं नस्य कहते हैं। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यातरोगाधिकारः ___ भार्थ:-स्नान किये हुए व करनेकी इच्छा रखनेवाले को, भोजन किये हुए को, वमन किये हुए को, बहुत कम जीमने वालको, गर्भिणी और रक्त पित्ती को, शास रोगसे व नवीन पीनस रोगसे पीडित व्यक्तिको नस्यका प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥७१ नस्यफल एतच्चतुर्विधपि प्रथितोरुनस्य । कृत्वा भवंति मनुजा मनुजायुषस्त ॥ साक्षादलीपलितवार्जितगात्रयष्टि-। साराश्शशांककमलापमचारुवक्त्राः ।। ७२ ॥ भावार्थ:---इन उपर्युक्त चारों प्रकार के नस्योंके उपयोग करनेसे मनुष्य दीर्वायुषी होते हैं, शरीरमें 'वली नहीं पडती है, बाल सफेद नहीं होते हैं । उनका मुख चंद्रमाके समान कांतिमान् , कमलके समान सुंदर हो जाता है एवं वे लोकमें सर्वगुणसंपन्न होते हैं ।। ७२ ।। अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निमृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ।। ७३ ।। भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परालोकके लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेदके मुखसे उत्पन शाखसमुदसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एकामा हिल साधक है । इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ७३ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे वातरोगविकित्सितं नामादितोऽष्टमः परिच्छेदः । इत्युग्नादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विधाराचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में बातरोगाधिकार नामक आठवां परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) कल्याणकारके अथ नवम परिच्छेदः पित्तरोगाधिकारः प्रतिज्ञा स्तुत्वा जिनंद्रमुपसहतसंवदोष । : दोपक्रमादखिलरोगविनाशतम् ।। पित्तामयप्रशमनं प्रशमाधिकानां । वक्ष्यामह गुरूजनानुमतोपदेशात् ॥ १॥ . भावार्थ:-संपूर्ण दोषोंसे रहित एवं दूसरोंके सम त रोगोंको नाश करने के लिये कारण ऐसे श्री जिनेंद्र भगवतको नमस्कार कर दोषोंके क्रमसे पित्तरोगके उपशमन विधि को प्रशम आदि गुण जिनमें अधिक पाया जाता है उन मनुष्यों के लिये गुरूपदेशानुसार प्रतिपादन करेंगे ॥ १ ॥ पित्तप्रकोपमें कारण व तज्जरोग । कट्वम्लरूक्षलवणोष्णविदाहिमद्य- । सेवारतस्य पुरुषस्य भवंति रोगाः ॥ पित्तोद्भवाः प्रकटमूर्छनदाहशोषः। विस्फोटनमलपनातितृलाप्रकाराः ॥ २॥ . भावार्थ:-कटु ( चरपरा ) खट्टा, रूखा; नमकीन, उष्ण व विदाहि आहारों को और मद्यको अत्यधिक सेवन करते रहनेस, पित्त प्रकुपित होता है। इस से र्जा, [ वेहोश ] दाह [ जलन ] शोष ( सूखना ) विस्फोट ( फफोला ) प्रलाप तृषा आदि रोगों की उत्पत्ति होती है ॥ २ ॥ पित्तका लक्षण व त-अन्य रोग! पित्तं विदाहि कटुतिक्तरस सुतीक्ष्णं । या स्थितं दहति तन करोति रोगान् ।।.. सोगगं सकलदेहपरीतदाह- ।. तृष्णाज्वरनममदासमहातिसारान् ॥३॥ भावार्थ:-विदहि, कटु, तिक्तरस और तक्ष्णि, ये पित्त का लक्षण है। वह यह प्रकुपित्त होकर रहता है उस स्थान का जलाते हुए वहीं रोगों को पैदा करता है! Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः। (१५१) 'यदि यह प्रकुपित पित्त सर्वांग में प्राप्त हो तो सम्पूर्ण शरीर में दाह, प्यास, ज्वर, भ्रम, मद, रक्तपित्त, अतिसार, आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं ॥ ३ ॥ पित्तप्रकोण का लक्षण। आरक्तलोचन मुग्धः कटुवाक्प्रचण्डः । शीतप्रियो मधुरभृष्टरसानसेवी ॥ पीतावभासुरवाः पुरुषोऽतिरांपी। पित्ताधिको भवति वित्तपतेः समानः ॥ ४॥ भावार्थ:-पित्तोद्रेकीका मुम्ब व नेत्र लाल २ होते हैं । कटुवचन बोलता है, उप्र दिखता है। उसे ठण्डी अधिक प्रिय रहती है । मधुर व स्वादिष्ट आहारोंको भोजन करनेकी उसे इच्छा रहती है। शरीर पीले वर्णका होजाता है। वह श्रीमंत मनुष्य के समान अति क्रोधी हुआ करता है ॥ ४ ॥ पित्तोपशमनविधि। शीतं विधानमधिकृत्य तथा प्रयत्ना-। च्छीतान्नपानमतिशीतलवारिधारा-॥ पाताभिषेकहिमशीतगृहप्रवेशः। शीतानिलैश्शमयति स्थिरपित्तदाहः ॥ ५॥ भावार्थ:-पित्तोपशमन करने के लिये, मुख्यतया शीत क्रिया करनी चाहिये । इसलिये प्रयत्नपूर्वक शीत अन्नपानादिका सेवन, ठण्डे पानीकी धारा छोडना, स्नान, ठण्डी मकानमें रहना, डण्डे हवाको खाना इत्यादियोंसे पित्तका प्रबलजलन दूर हो जाती पित्तोपशमन का पाहा उपाय । तत्राभितोऽभिनवयौवनभूषणेन । संभूषिता मधुरवामसरप्रगल्भाः । कान्तातिकान्तकठिनात्मकुचैकभारैः । पाठीनलोचनशतप्रभवः कटाक्षः ॥ ६ ॥ स्निग्धैमनोहरतरैमधुराक्षराठ्य- । स्सम्भाषितैःशशिनिभाननपङ्कजैश्च ।। नीलोत्पलामनयनैनितास्तमाशु । संल्हादयेयुरतिशीतकरावमः ॥ ७॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ( १५२ ) कल्याणकारके .. भावार्थ:- पैत्तिक रोगीको चारों तरफसे, नवीन यौवन व सुंदर आभूषणों से भूषित अत्यंत मधुर वचन बोलनेवाली स्त्रियां, अपनी २ सुमनोहर कठिन कुचों से, मत्स्य जैसे सुंदर आंखों से उत्पन्न कटाक्ष से, प्रेमयुक्त अतिमनोहर व मधुराक्षरसंयुक्त मीठे सम्भाषणोंसे, चन्द्रोपम मुखकमलसे, नीलोपलसदृश अक्षियोंसे, अतिशीतल हाथों के स्पर्शसे शीघ्र ही संतोषित करें तो पित्तोपशमन होता है ॥ ६ ॥ ७ ॥ पितोपशमकारक अन्य उपाय । स्रक्चंदनैर्विमलसूक्ष्मजलार्द्रवस्त्रैः ॥ कल्हारहारकदलीदलपद्मपत्रैः । शीतांबुशीकरकणमकरावकीर्णेः । निर्वापयेदरुणपल्लवतालंवृतैः ॥ ८ ॥ भावार्थ: : --- पुष्प मालावारण, चन्दनलेपन, पानी में भिगोया हुआ पतला यत्र धारण, कमलनाडी का हार पहिनना, केले की पत्ती व कमलपत्ती इनको ऊपर नीचे बिछाकर सोना, ठण्डे पानी के सूक्ष्म कणोंसे प्रक्षेपण, कोंपल व पंखे का शीतल हवा, इत्यादि ठण्डे पदार्थों के प्रयोगसे पित्तोपशमन करना चाहिये | ॥ ८ ॥ पित्तशामक द्राक्षादि योग । द्राक्षासयष्टिमधुकेक्षुजलां बुदानां । तोये लवंगकमलोत्पलकेसराणां कल्कं गुडांबुपरिमिश्रितमाशु तस्मि न्नालोड्य गालितमिदं स पिवेत्सुखार्थी ॥ ९ ॥ I भावार्थ:- द्राक्षा, मुलैठी, ईख, नेत्रवाला,' नागरमोथा इनके जल ( काथ, नीलकमल, पद्मकेशर इन को अच्छी तरह अच्छी तरह घोल लेवें । उस को छानकर सुखार्थी मनुष्य पीवें ॥ ९ ॥ शीतकषाय आदि) में, लवंग, कमल, पीस कर, इसमें गुडके पानी मिलाकर पित्तामयप्रशमन करने के लिये कासादि क्वाथ | कासेक्षुखंडमलयोद्भवशीरवाणां । तोर्य सुशीतलतरं वरशर्कराढ्यं ॥ कर्कोलजातिफलनागलवंगकल्क- । मिश्रं पिवेदधिकतापविनाशनार्थम् ॥ १० ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः। (१५३) भावार्थ:----कास, ईख, चंदन, अनंतमूल इनके ठण्डे पानी में शक्कर मिलाकर फिर उस में कंकोल, जायफल, नागकेसर व लवंगके कल्क मिलाकर पीनेसे पित्तोद्रेकसे उत्पन्न संताप दूर होता है ॥ १० ॥ पित्तोपशामक वमन । शीतांबुना मदनमागधिकोग्रगंधा-। मिश्रेण चंदनयतन गुडाप्लुतेन ॥ तं छर्दयेदधिकपित्तवितप्तदेहं । शीतां पिबेत्तदनुदुग्धघृतां यवागूम् ॥ ११ ॥ भावार्थ:---ठण्डे पानी में मेनफल, पीपल, वच व चंदन को मिलाकर उसमें गुड भिगोवें । यदि अधिक पित्तप्रकोप हुआ तो उक्त पानी से उसे वमन करावें एवं पीछे ठण्डा घृत व दूध मिली हुई यवागू उसे पीनेको देवें ।। ११ ॥ ___व्योषादि चूर्ण। व्योपत्रिजातकघनामलकैस्समांशैः । निःमूत्रचूर्णमिह शर्करया विमिश्रम् ॥ तद्भक्षयेदधिकपित्तकृतामयातः । शीतांबुपानमनुपानमुशंति संतः ॥ १२ ॥ भावार्थ:--त्रिकटु, त्रिजातक [ दालचीनि, इलायची, पत्रज ] नागरमोथा, आमलक इनको समभाग लेकर कपडाछान चूर्ण करके शकरके साथ मिलाकर, ठण्डे पानीके अनुपान के साथ, खावे तो अत्यधिक पित्तोद्रेक भी शांत हो जाता है ॥ १२॥ एलादिचूर्ण संशुद्ध देहमिति संशमनप्रयोगैः । शेष जयेत्तदनुपित्तमिहोच्यमानैः ।। एलालवंगधनचंदननागपुष्प- । लाजाकणामलकचूर्णगडांबुपानः ॥ १३ ॥ भावार्थ:-मन व विरेचनसे संशुद्ध देहवालों के वक्ष्यमाण उपशमन प्रयोगों के द्वारा पित्तको शांत करना चाहिये । इलायची, लवंग, नागरमोथा, चंदन, नागकेसर, लाजा, (खील ) कणा, ( जीरा ) आंवला इनके चूर्णो को गुटके पानीके साथ मिलाकर पीनेसे पित्तोशमन होता है ॥ १३॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( १५४ ) कल्याणकारके निवादि क्वाथ निवाम्रमंबुदपटोलसुचंदनानां । का गुडेन सहितं हिमशीतलं तम् ॥ पीत्वा सुखी भवति दाहतृषाभिभूतः । विस्फोटशोषपरितापमसूरिकासु ॥ १४ ॥ भावार्थ:- निंबु, आम, नागरमोथा, पटोलपत्र, चंदन, इनके कषायमें गुड मिलाकर चांदनी में रखकर ठण्ड करें। फिर उस कषायको पीनेसे पित्तोद्रेकसे उत्पन्न फफोले, शोष मसूरिका आदि रोगो में यदि दाह तृपा आदि पीडा हो जायें तो सर्व शमन होते हैं, जिससे रोगी सुखी होना है। ॥ १४ ॥ रक्तापचनिदान • वाताभिघातपरितापनिमित्ततो वा । पित्तप्रकोपवशतः पवनाभिभूतम् ॥ रक्तं प्लिहा यदुपाश्रितमाशु दुष्टं । कष्टं संवेद्युगदूर्ध्वमधः क्रमाद्वा ॥ १५ ॥ भावार्थ:- वात व अभिवातसे, संताप होने से, पित्त प्रकोप होकर दूषित वायु यकृत् लिहा आश्रित रक्तको दूषित करता है। उससे नीचे ( शिश्न, योनि, गुदामार्ग ) सेवा ऊपर ( आंख, कान, मुख ) से या दोनों मार्गसे रक्तस्राव होने लगता है इसे रक्तविरा रोग कहते हैं ॥ १५ ॥ रक्तपित्तका पूर्वरूप | तस्मिन्भविष्यति गुरूदरदाहकण्ठ- । धूमायनारुचिबलक्षयरक्तगंध - । निश्वासता च मनुजस्य भवंति पूर्व- । रूपाणि शोधनमधः कुरु रक्तपित्त ।। १६ । भावार्थ:: :- रक्त पित्त होनेके पूर्व उदर गुरु होता है । शरीर में जलन उत्पन्न होती है एवं कंठसे धूंआ निकलता हो जैसा मालूम होता है । अरुचि, बलहीनता, श्वासोच्छ्रासमें रक्तका मंत्र इत्यादि लक्षण प्रकट होते हैं । इस रक्तपित्तमें अधः शोधून "विरेचन) करना उपयोगी है ।। १६ ।। १ ऊर्ध्वगत रक्त पित्त हो तो विरेचन देना चाहिये. अधोगत में वमन देना योग्य हैं । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः । रक्तपित्तका असाध्यलक्षण । नीलाति कृष्णमतिपित्तमतिप्रदग्य- । मुष्णं सकोथबहुमांसमतिमलापम् ॥ मूर्छान्वितं रुधिरपित्तमहेंद्रचाप- 1 गोपोपमं मनुजमाशु निर्हति वांतम् ॥ १७ ॥ भावार्थ:- :- वमन किया हुआ रक्तका वर्ण नीला हो, अधिक काला हो, अत्यधिक पित्तसहित हो, जला जैसा हो, अति गरम हो, सउगया जैसा हो, मांस रसके समान एवं इंद्रधनुषके समान वर्णवाला हो, इंद्रगोपनामक लाल कीडा जैसा हो, साथमें: रक्त पित्ती रोगी बहुत प्रलाप कर रहा हो, मूछोंसे युक्त हो, तो ऐसे रक्तपित्तको असाध्य जानना चाहिए । ऐसे रोगी जल्दी नाश होते हैं ॥ १७ ॥ साध्यासाध्य विचार । साध्यं तदूर्ध्वमथ याप्यमधः प्रवृत्तं । वर्ज्य भिषग्भिरधिकं युगपद्विसृष्टम् ॥ तत्रातिपाण्डुमतिशीतकराननांधि । निश्वासमाशु विनिर्हति सरक्तनेत्रम् ॥ १८ ॥ भावाथः -- ऊर्ध्वगत रक्त पित्त साध्य, अधोगत याय एवं ऊर्ध्व और अध युगपत् अधिक निकला हुआ असाध्य [ अनुपक्रम ] समझना चाहिए । रक्त पित्त के रोगीका शरीर हाथ पैर बिलकुल पीला होगया हो, मुख श्वास ठंडा पड गया हो, आंखे लाल होगई हों ऐसे रोगी को यमपुरका टिकिट मिलगया समझना चाहिए ॥ १८ ॥ ( १५६) द्राक्षा कषाय | द्राक्षाकषायममलं तु कणासमेतम् । प्रातः पिवेदुडघृतं पयसा विमिश्रम् ॥ सत्यः सुखी भवति लोहितपित्तयुक्तः । शीताभिरद्भिस्थवा पयसाभिषिक्तम् ॥ १९ ॥ भावार्थ:-- निर्मल द्राक्षाकपायको प्रातःकाल गुंड, घी, दूधके साथ मिलाकर पीनेसे रक्त पिसी सुखी होजाता है । अथवा ठण्डे पानी या दूर्व से स्नान कराना भी उसके लिए हितकर होगा ॥ १९ ॥ कासादिस्वरस | कासेभुखंड पृष्टजातिरसं विगृता । स्नात्वावसहित शिशिरोदकन ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) कल्याणकारके यष्ठ्याहकल्कगुड प्राहिपदुग्धमिश्रं । dharaपित्तमचिरेण पुमान्निर्हति ॥ २० ॥ भावार्थ:- कास, ईख, केवटी मोथा, ( कैवर्तमुस्त) चमेली इनके रस में मुलैठीका कल्क, गुड ( पुराना ) और भैसका दूध मिलाकर ठण्डे पानीले स्नानकर गीली बोती पहने हुए ही पीनेसे रक्तपित रोग शीत्र नाश होता है ॥२०॥ मधुकादित पकं घृतं मधुचंदनसारिवाणां । काथेन दुग्धसदृशेन चतुर्गुणेन || त्यस्रपित्तमचिरेण सशर्करेण । काकोलिकाप्रभृतिमष्टगुणान्वितेन ॥ २१ ॥ भावार्थ:-- मुलैठी, लालचंदन, अनंतमूल इनके चतुर्गुण काथ, चतुर्गुण गोदुग्ध व शक्कर और काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि इन आठों द्रव्यों के कल्क के द्वारा सिद्ध किये गये घृतको सेवन करने से रक्तपित्त शीघ्र ही नाश होता है || २१ ॥ atrugate विकित्सा संतर्पणं शिरसि जीर्णघृतैर्धृतैर्वा । क्षीरद्रुमांबुनिचुलार्जुनतोय वकैः ॥ प्राणमत्तरुधिरं शमयत्यशेषं । aritraरिपयसा परिषेचनं वा ॥ २२ ॥ भावार्थ:-- मस्तक में पुराना घी मलने एवं पंचक्षीरीवृक्ष, ( वड, गूलर, पीपल पाखर, शिरीष ) नेत्रवाला वेत अर्जुनवृक्ष इनके कषायसे पकाये हुए घीको मस्तकमें मनसे यदि नाकसे रक्तपित्त बहरहा हो तो उपाशनको प्राप्त होता है, अथवा वेर का काय आदि की या दूकी बार देनी चाहिये। यह भी हितकर है ।। २२ । वृत्त रक्कमें प्रयोग | जस्येन नाशयति शोणितमाशु सर्वे । दुर्वामृतयः पयसा विपर्क || १ कोई शिरीष के स्थान में वेंत, कोई पपिल का भेदभूत वृक्षविशेष मानते हैं जैसे किन्यग्रोधोदुम्बराश्वस्थ पारीषलक्षपादपाः । पंचते सीरिणो वृक्षाः । केचित्तु पारीव स्थाने "शिरीष तल पर दबाए। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः । (१५७) स्तन्येय दाडिमरसो निचुलस्य वापि । घ्राणागतं घृतमथापि च पूर्वमुक्तं ॥ २३ ॥ भावार्थ:-दूब, नेत्रवाल, गिलोय इनके रस और दूधसे पकाये हुए घृतका अथवा दाडिमका रस, हिजलवृक्ष, व उतका रस व स्तन्य दूधसे पकाये हुए घृतका अथवा पूर्वकथित घृतों के नस्य देखें तो रक्तपित्त शीत्र ही नाश होता है ॥ २३ ॥ ऊधिःप्रवृतरक्तपिसकी चिकित्सा । उर्ध्व विरंचनमयैर्वमनौषधेश्च । तीवात्रपित्तमिहसाव्यमधःप्रयातम् ।। शीतैः सुसंशमनभेषजसंप्रयोगः । रक्तं जयेयुगपर्ध्वमधःप्रवृत्तम् ।। २४ ॥ भावार्थ--रक्तपित्त उर्ध्वगत हो तो विरेचनसे व अधोगत हो तो वमनसे साध्य करना चाहिये । अध और ऊर्ध्व एक साथ स्राव होने लगे तो शीतगुणयुक्त शामक प्रयोगोंसे उसका उपशम करना चाहिये ॥ २४ ॥ रक्तपित्तनाशकवस्तिक्षीर। आस्थापनं च महिषीपयसा विधय-। माज्येन सम्यगनुवासनमत्र कुर्यात् ।। नीलोत्पलांबुजसकेसरचूर्णयुक्तं । क्षीरं पिवेच्छिशिरमिक्षुरसेन सार्धम् ॥ २५ ॥ भावार्थ:-इस रक्तपित्तमें भैसके दृबसे आस्थापनवस्ति व घृतसे अनुवासन बस्ति देनी चाहिये । नीलकमल, कमल, नागकेसर इनके चूर्ण को ठण्डा दूध, और ईखके रस के साय पीना चाहिये ।। २५ ।। रलपिसीको पथ्य और अंत शिविरमियरसाग्नपानं । पितामये विदधील सतीलयुपः ।। मुहानगुडप्रमुदितान्दषिमाहिषं वा! मत्स्याक्षिशाकमवा पतमेधनादम् ॥२६॥ भावार्थ:---इस प्रकारके पित्तरोगोंके उपशमन के लिये धी, दूध इक्षुरस, मटर; व मूंग का दाल गुडविकार ( गुडसे बने हुए पदार्थ ) माहिषदधि, मछेछीका शाक, और मेघनादवृत आदि व्ण्डे अन्नपान का सेवन करना चाहिये ।।२६॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१५८) कल्याणकारके खजूरादि लेप खजूरसर्जरसदाडिमनालिकेर । "हिंतालतालतरुमस्तकमेव पिष्टम् । रंभारसेन घृतमाहिषदुग्धमिश्र मालपयेन्मधुकचंदनशारिवाभिः ॥२७॥ भावार्थ:--रक्तपित्तोशमन केलिये, खजर, राल, अनार, नारियल महाताल व ताल ( 3 ) इन वृक्षों के मस्तकोंको ( अग्रभागको) कलंके रस मे पीसकर, उसमें घी, भेंसः' : की दही मिलाकर अथवा मुलेठी, चंदन, अनंतनूल इनको उपरोक्त चीजोंसे पीसकर लेप करना चाहिये ॥ २७ ॥ लेप व स्नान क्षीरद्रुमांकुरशिफान्पयसासुपिष्टा-। नालेपयेद्रधिरपित्तकृतविकारान् ।। जंबकदंवतरुनिंवकषायधीतान् । क्षीरेण चंदनसुगंधिहिमांबुना वा ॥ २८ ॥ भावार्थ:-रक्तपित्ता रोगीको क्षीरीवृक्षोंके कोपल व जड को दूध में पीसकर लेपन करें । तथा जंबूवृक्ष, कदंब निववृक्षकी छाल के कषायसे अथवा दूधसे वा चंदनसे सुगंधित ठण्डे जलसे स्नान कराना चाहिये अथवा लालचन्दन, नागरमोथा खश इन के कषायसे स्नान कराना चाहिये ॥ २८ ॥ .. रक्तपित्त असाध्य लक्षण सश्वासकासबलनाशमद ज्वरात । मछाभिमूतमविपाकविझहयुक्तम् ।। तं वर्जयद्भिपगमुक्परिततदेहम् । .. हिंकान्वित कुपितलोहितातिगंधिम् ॥ २९ ॥ भावार्थ:-----रक्तपित्ती रोगी सास माससे युक्त हो, अहारत हो, मद, घर, आग्निः मांद्य और विदाह. अदिसे पीडित हो, हिचकीसे युक्त हो, कुपितरक्त के सदृश दुर्गध से पीडित हो, ऐसे रोगीको असाध्य समझकर छोडना चाहिये ॥ २९॥ कप के स्थान में कुचित होवे ता और अच्छा मालूम होता है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकार: अथ प्रदराधिकारः। असग्दनिदान व लक्षण संतापगर्भपतनातिमहाप्रसंगात् । योन्यां प्र,त्तमनुतावभिघाततो वा ॥ रक्तं सरक्कमनिलान्वितपित्तयुक्तं। स्त्रीणामसग्दर इति प्रवदंति संतः ॥ ३० ॥.... ___ भावार्थः---स्त्रीयों को, संताप से, गर्भपात, अतिमैथुन व अभिघातले ऋतुसमय को छोडकर अन्य समय में रक्त, वात, व पित्तयुक्त रजोभूत रक्त जो योनिसे निकलता : "है, उसे सत्पुरुष असृग्दर (प्रदर ) कहते हैं ।। ३० ॥ प्रदर चिकित्सा नीलांजनं मधुकतण्डुलमूलकल्क-। मिश्रं सलोध्रकदलीफलनालिकेर-॥ तोयेन पायितमसृग्दरमाशु हंति । ..... पिष्टं च सारिवमजापयसा समेतं ॥ ३१ ॥ भावार्थ:--कालासुरमा, मुलटी, चौलाई की जड इन के कल्क से मिश्रित पठानीलोध, कदलीफल ( केला ) और नारियल के रस [ काथ आदि ] को प्रीनेसे और अनंतमूल को बकरी के दूध के साथ पीसकर पीनेसे, प्रदर रोग शीघ्र ही नाश हो जाता है ॥ ३१ ॥ अथ विसाधिकारः। विसर्पनिदान चिकित्सा। पित्तात्क्षतादपि भवत्यचिराद्विसर्पः। शोफस्तनोविसरणाच्च विसर्पमाहुः ॥ शीतक्रियामभिहितामनुलेपनानि । तान्याचरेत्कृतविधि च विपाककाले ॥ ३२ ॥ भावार्थ:-पित्त प्रकोपसे, क्षत (जखम) हो जाने से, शीघ्र ही विसर्प नामक - रोगकी उत्पत्ति होती है । शरीरमें सूजन शीन ही फैलती है । इसलिये इसे विसर्प कहते हैं। उसके प्रकोप काल में शीतपदार्थो की प्रयोग विधि जो पहिले बतलाई गई है उसका एवं लेपन वगैरह का प्रयोग वमनविरेचन आदि योग्य क्रिया करके करना चाहिये ॥३२॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) कल्याणकारके विसर्प का भेद वातात्कफात्त्रिभिरपि प्रभवेद्विसपः। शोफःस्वदोपकृतलक्षणसज्वरोऽयम् ॥ तस्माज्ज्वरप्रकरणाभिहितां चिकित्सां । कुर्यात्तथा मरुद विहितोपधानि ॥ ३३ ॥ भावार्थ:-इसी प्रकार वातसे, कफसे एवं वातपित्तकफसे भी विसर्प रोग की उत्पत्ति होती है । इसमें विसर्प की सूजन अपने २ दोषोंके लक्षण से संयुक्त [ यथा वातिक विसर्प में वात का लक्षण प्रकट होता है, पैत्तिका हो तो पित्त का लक्षण होती है । एवं ज्वर भी पाया जाता है । इसलिये ज्वर प्रकरणमें कही हुई चिकित्सा एवं वातरक्तके लिये कथित औषधियों के प्रयोग करना चाहिये ॥ ३३ ॥ विसर्प का असाध्यलक्षण । स्फोटान्वितं विविधतीव्ररुजा विदाह-। मत्यर्थरक्तमतिकृष्णमतीवपीतम् ॥ मर्मक्षतोद्भवमपीह विसर्पसंप । तं वर्जयेदाखिलदोषकृतं च साक्षात् ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-जो विसर्प रोग फफोलोंसे युक्त हो, नाना प्रकारकी तीन पीडा सहित हो, अत्यधिक दाहसे युक्त हो, रोगी का शरीर अत्यन्त लाल, काला वा अत्यन्त पीला हो, मर्मस्थानों के क्षत के कारण उत्पन्न हुआ हो, वा सान्निपातिक हो तो ऐसे विसर्प रोगरूपी सर्प को असाध्य समझकर छोड देना चाहिये । ॥ ३४ ॥ अथ वातरक्ताधिकारः वातरक्त चिकित्सा। वातादिदोषकुपितेष्वपि शोणितेषु । पादाश्रितेषु परिकर्मविधि विधारये ॥ संख्यानतस्सकललक्षणलक्षितेषु ।। संक्षेपतः क्षपितदोषगणः प्रयोगैः॥३५॥ भावार्थ:-वात आदि दोषों द्वारा कुपित रक्त, पाद को प्राप्त कर जो रोग उत्पन्न करता है, जिसकी संख्या व लक्षणों को पहिले कह चुके हैं ऐसे वातरक्तनामक रोग की चिकित्सा, तत्तद्दोषनाशक प्रयोगों के साथ २ आगे वर्णन करेंगे ॥ ३५॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः। रास्नादिलेप। रास्नाहरेणुशतपुष्पसुरेंद्रकाष्ठ- । कुष्ठागरुस्तगरबिल्ववलाप्रियालैः ॥ क्षीराम्लपिष्टघृततैलयुतैस्मुखोष्ण-। रालेपयेदनिलशोणितवारणार्थम् ॥ ३६ ॥ भावार्थ:-रास्ना, रेणुकाका बीज, सोंफ, देवदारु, कूट, अगरू, तगर, बेलफल, बला, चिरौंजी, इन औषत्रियोंको दूध व अम्ल पदार्थोंके साथ पीसकर उसमें घी और तेल को मिलायें। फिर उसे थोडा गरमकर लेप करनेसे वातरक्त रोग दूर होजाता है ॥३६॥ ___ मुद्ादिलेप। मुद्गाढकीतिलकलायममूरमाष- । गोधूमशालियवपिष्टमयैर्विशिष्टैः ।। आलपयेत् धृतगुडेक्षुरसातिशीतैः । क्षीरान्वितैरसृजि पित्तयुते प्रगाढम् ।। ३७ ॥ भावार्थ:----पित्तप्रबल वातरक्त में मूंग, अरहर, तिल, मटर, मसूर, उडद, गेंहू, धान, यव इनके पिष्टमें घी, गुड, इक्षुरस दूध इन अत्यंत ठण्डे पदाथोंको मिलाकर फिर गाढ लेपन करना चाहिए ।। ३७ ॥ पुनर्नवादि लेप। श्वेतापुनर्नवबृहत्यमृतातसीना- । मेरण्डयष्टिमधुशिग्रुतिलेक्षुराणाम् ॥ सक्षारमूत्रपरिपिष्टसुखोष्णकल्कै- । रालेपयेदतिकफोल्वणवातरक्ते ।। ३८ ।। भावार्थ:-कफप्रबल वातरक्त में सफेद पुनर्नव, बडी कटेली, गिलोय, एरंड, मुलैठी, सेंजन, तिल, गोखरू इनको क्षार व गोमूत्र के साथ पीसकर उस कल्कको लेपन करना चाहिए ॥ ३८॥ जम्ब्वादिलेप। जंबूकदंवबृहतीद्वयनिवरम्भा। विव्यंबजोत्पलसुगंधिसृगालविना ॥ कल्कैतेकुरसदुग्धयुतानि शीतै-। रालेपयेदधिकमारुतशोणितेऽस्मिन् ॥ ३९ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२) कल्याणकारके . भावार्थ:-वातप्रबल वातरक्तमें जामुन, कंदवृक्ष, दोनों [छोटी बडी] कटेली, नीम, केला, कुंदरु, कमल, नील कमल, पिप्पली मूल, पृस्नपर्णी, इन सवको घी, इक्षुरस, दूध में पीसकर इस कल्कको ठण्डा ही लेपन करना चाहिए।। ३९ ॥ मुस्तादिलेप । ... मुस्ताप्रियालुमधुकाम्रविदारिगंधा । दूर्वोवुजासितपयोजशतावरीभिः ॥ भूनिंबचंदनकशेरुककुष्ठकाष्टा-। पुष्पः प्रलेप इह सर्वजशोणितेषु ॥ ४० ॥ भावार्थ:--सन्निपातज वातरक्तमें नागरमोथा, चिरौंजी, मुलैठी, आमकी छाल, शातपर्णी, प्रियंगु, दूब, कगल, श्वेतकमल, शतावरी, चिरायता, लालचंदन, कशेरु, कूट, दारु हलदी, इनका लेपन करना चाहिये ॥ ४० ॥ . विम्ब्यादिघृत बिंबीकशेरुकबलातिबलाटरूष-। जीवंनिकामधुकचंदनसारिवाणाम् ॥ कल्केन तत्क्वथिततोयपयोविपक्क- । माज्यं पिवेदनिलशोणितपित्तरोगी ॥४१॥ .. . भावार्थ:-पित्ताधिक वात रोगीको कुंदरु, कशेरु, बला, अतिबला, अडूस , जीवंति, मुलैठी, चंदन, सारिव, इनके कल्कको, उन्ही औषधियोंके काढा और दूधके द्वारा पकाये हुए घीको पिलाना चाहिये ॥ ४१ ॥ अजपयःपान । यष्टीकपायपरिपकमजापया वा। शीतीकृतं मधुककल्कसिताज्ययुक्तम् । पीत्वानिलामचिरादुपहन्त्यजम ॥ मम्रान्वितातिवहपिनविकारजातान् ॥ ४२ ॥ भावार्थ:----मुलेठी का कषाय द्वारा पकाये गये बकरीके ठण्डे दूधम, मुलेठी का ही कल्क, खांड और घी मिलाकर पीनेसे, शील ही वातरक्त, रक्तपित्त आदि समस्त पित्तविकार नाश हो जाते हैं ॥ ४२ ॥ खंडकादि दुग्ध । टुंटकपीलुबृहतीद्वयपाटलाग्नि- । मंथाश्वगंधसुषवीमधुकांबुपकम् ।। : Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः । क्षीरं पिवेत् घृतगुडादित भीषदुष्णं । सर्वास्त्रपित्तपत्रनामयनाशनार्थम् ॥ ४३ ॥ भावार्थ:- सर्व रक्तपित्त व वातरक्त रोगोंको नाश करनेके लिये टुंटूक, पीलु, (टैंटू ) दोनों कटेली, पाढ, अगेथु, असगंध, कालाजीरा, मुलैठी, नेत्रवाला, इन से पकाये हुए दूध में घी गुड़ मिलाकर थोडा ठण्डा करके पीना चाहिये ॥ ४३ ॥ शीतं कषायममलापलकां बुदबुः- 1. कुस्तुंबुरुकथितमिक्षु रसप्रगाढम् ॥ प्रातः पिवेत्त्रिफलया कृतमाज्यमिश्रं । विश्वामयप्रशमनं कुशलोपदिष्टम् ॥ ४४ ॥ भावार्थः—आंवला, नागरमोथा, नेत्रवाला, धनिया इनके शीतकषाय अथवा रस मिलाकर वृतमिश्रित त्रिफला चूर्ण के साथ पनिसे समस्त ४४ ॥ काढा में अधिक ईखका रोग दूर हो जाते हैं ॥ गोधूमादिलेप | गोधूमशालितिलमुद्गमसूरमाषै । चूर्णीकृतैरपि पयोघृततैलपकैः ॥ यत्रातिरुग्भवति तत्र सपत्रबंधो । दोषोच्छ्रये कुरुत बास्तियुतं विरेकम् ॥ भावार्थ:-हू, धान, तिळ, मूंग, मसूर, उडद, इनके चूर्णको दूध, जीव तेल से पकाकर जहां अधिक पीडा होती हो वहां पत्ते के साथ बांध देना चाहिये । दोषका उद्रेक अधिक हो तो बस्ति व विरेचन देना चाहिये ॥ ४५ ॥ ( १६३ ) ४५ ॥ arogमादिल । अलेपनं घृतयुतं परिषेचनार्थ | क्षीरgaigaoया परिपक्कतैलम् ॥ अभ्यंग स्तिषु हितं च तथान्नपानं । गोधूमशालय व मुद्रपयोघृतानि ॥ ४६ ॥ भावार्थ:---इस रोगके लिये क्षीरीवृक्ष, नेत्रवाल, क्लाइनकेद्वारा सिद्ध किये हुए तेल को परिषेचन [ धारा गिराना ] अभ्यंग ( मालिश ) व बस्तिकार्य में प्रयोग करना चाहिये । लेपनके लिये घी मिलाकर काममें लेना चाहिये । रोहू, धान, जौ, मूंग, दूध, ये इसमें हितकारी अन्न हैं ।। ४६ । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारक । सर्वरोगनाशक उपाय । शाल्यांदनो वृतदधीक्षविकारदुग्धं । सेवा यथतनुशेधिनसंयमश्च ॥ व्यायामस तनुभृगणंसदयात्मा । पंचेंद्रियाविजयश्च रसायनं स्यात् ॥ ४७ ॥ भावार्थ:-भात, घी, दही, इक्षुविकार ( गुड आदि ) दूध, ऋतुके अनुसार शवीर शोचन [ यमन विरेचन आदिसे करना, संयम धारण करना, व्यायाम करना, सर्वप्राणियोमें अनुकंपा, पंचेंद्रियों को वश में रखना यह सर्व रोगों को जीतनेवाल रसायन है ॥४७॥ वातरक्त चिकित्सा का उपसंहार । नित्यं विरेचनपरो रुधिरममाक्ष-- । बस्तिक्रियापरिगतस्सततोपनाही ।। शीतानपानमधुरातिकषायतिक्त-। सेवी जयत्यनिलशोणितरक्तपित्तम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ-सदा विरेचन लेनेवाला,रक्त मोक्षण करानेवाला, बस्ति क्रियामें प्रवृत्त, पुत्रहिश वांधनेवाला, शीत अन्न पान व मधुर, कषाय, तिक्त रसोंको सेवन करनवाला बात रक्त व रक्तपित्त को जीत लेता है ॥ ४८ ।।। पित्तादृते न च भवत्यतिसारदाह-। तृष्णाज्वरभ्रममदोष्मविशेषदोषाः ॥ वातात्कफात्त्रिभिरपि प्रभवंति तेषा- । मुत्कर्षतो. भवति तद्गुणमुख्यभेदात् ॥ ४२ ॥ भावार्थ:-पित्तोद्रेक बिना अतिमार, दाह, तण', ज्वर, भ्रम, मद, उष्ण इत्यादि विशेष दोष रो।] उत्पन्न नहीं होते हैं। साथ में येहा रोग, शत, कफ, और वातपित्तकफ इन तीनों दोषोले भी उत्पन्न होते है इसीलिये शतातिसार, त्रिदोषातिसार आदि कहलाते है । लेकिन, दोगों के उत्कर्ष, अपकर्ष के कारण, गौण, मुख्य रूपस व्यवहार होता है । जैसे अतिसार के लिये मूल कारण पित्त ही है, तो भी वातातिसार में पित्त की अपेक्षा बात का प्रकोप अधिक है इसलिये वह पित्तोद्भव होने पर भी वातातितार अहलाता ४८ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातरोगाधिकारः । अथ ज्वराधिकार | ज्वरनिंदान आहारतो विविधरोगसमुद्भवाद्वा । कालक्रमाद्विचरणादभिघाततो वा ॥ दोषास्तथा प्रकुपिताः सकलं शरीरं । व्याप्य स्थिता ज्वरविकारकरा भवंति ॥ ५० ॥ भावार्थ:-- मिथ्या आहारसे, अनेक रोगोके जन्म होने से, कालानुसरणसे, मिथ्याविहार से, चोट लगने से दोष ( बात पित्त कफ ) प्रकुपित होकर सारे शरीर में फेल कर ब्बर रोगको उत्पन्न करते हैं ॥ ५० ॥ वरलक्षण | स्वेदावरोधपरितापशिरोंगमद - । निश्वासदेहगुरुतांतिमहोष्मता च ॥ यस्मिन्भवत्यरुचिरप्रतिमांनुतृष्णाः । सोऽयं भवेज्ज्वर इति प्रतिपन्नरोगः ॥ ५१ ॥ भावार्थ:- पसीनेका रुक जाना, संताप, शिर व शरीर टूटासा मालुम होना, अति उष्णका अनुभव होगा, अरुचि व पानी पीनेकी अत्यंत इच्छा होना ये सब ज्वरके लक्षण हैं ॥ ५१ ॥ ज्वरका पूर्वरूप | सर्वागरुक्क्षन थुगौरव रोगहर्षा- । रूपाणि पूर्वमखिलज्वरंसभवेषु || पित्तज्वरानयनरोगविदाहशोषाः । वाताद्विजृंभणमरोचकता कफाच्च ॥ ५२ ॥ भावार्थ:-- सर्वांग में पीड़ा होना, छींक आना, शरीर भारी होजाना, रोमांच होना, यह सब ज्वरोके पूर्वरूप हैं। नयनरोग आंख आना आदि ) नेत्र शरीरमें 'दाइ होना, सोप ये सब पित्तअरके पूर्वरूप हैं। बातरोगका पूर्वरूप जंभाई आना है। अरुचि होना यह कफ उबरका पूर्वरूप है ॥ ५२ ॥ वातज्वरका लक्षण | ( १६५ ) हृत्पृथुगात्रशिरसामतिवेदनानि । विरंभ रूसविरतत्वविजभणानि । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) कल्याणकारक आध्मानशलमललोचन कृष्णताति- । श्वासोरुकासीवपमाष्मककंयनानि ।। ५३ ॥ स्तब्धातिसुप्ततनुतातिहिमाप्रियत्वः । निद्राक्षति वसनसंभवलक्षणानि ।। बातज्वरे सततमेव भवति तानि ।। ज्ञात्वानिलनमचिराहिचरेयधोक्तम् ॥ ५४ ।। भावार्थः -हृदय, पार शरीर व शिरमें अत्यधिक दर्द होना, मलावरोध शरारमें रूक्षपना होजाना, विरसाय, जंभाई, आमानः ( चपंग ) मल ब आंख आदि काला हो जाना व श्वास खासी होना, घरका विएम बंग, व कंपन होना, शरीरका जकडाहट, शरीरके स्पर्शाज्ञान होना, टण्डे पदार्थ अप्रिय लगना, निद्रानाश होना, ये सब वातज्वरके लक्षण हैं उनको जानकर बातविकार को दूर करनेवाली चिकित्सा शाब करनी चाहिये ॥ ५३ ॥ ५४ ।। वित्तज्वरलक्षण। तृष्णाप्रलापमददाहमहोष्मतातिमूभियाननकटुत्वविमोहनानि ।। नाखास्यणाकरुधिरावितपित्तमिश्र- । निष्ठीवनातिशिशिरनियतातिरोषः ॥ ५५ ॥ विड्गपाताल अमिलो धनालिप्रस्वेदनप्रचुररक्तमहालिसाराः ॥ -: निश्वासपूतिरिति पितलक्षणानि । पित्तज्वरों, प्रतिदिमः प्रभवति तानि ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-- वृषा, अकवाद, मद, जलनः जरका तीवेग, मूर्छा, भ्रम, मुख कडुवा होना, वेचैनी होना, नाक व सुका पक जाता, थूकमें रक्त पित्त मिलकर आजाना, ठण्डे पदार्थोंमें अत्यधिक इच्छा, अतिक्रोध, अतिसार, मल मूत्र क नेत्र पीला होजाना, विशेष पसीना आना, रक्तातिसार, श्वयस में दुगंध, --ये सब , लक्षण . पित्तज्वर में पाये जाते हैं ॥ ५५-५६ ॥ कफज्वर लक्षण ! ..... निद्रालुतारुचिरतीवशिरागुरुत्वं ! मंदोपसचिवको . Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः स्रोतावरीधनमिहापिरुगक्षिपात | छर्दिमसेकधवलाक्षिमलाननत्वम् ॥ ५७ ॥ अत्यंग सादनविपाविहीनताति- । 'कासातिपीनसकफी हमकण्डकण्डूः ॥ इलेष्मज्वरे प्रकटितानि च लक्षणानि । सर्वाणि सर्वमहाज्वरसंभवानि ।। ५८ ।। भावार्थ:- निद्राधिकता, अरुचि, अधिक शिर भारी होजाना, शरीर कम गरम रहना, मुखमें मिठास रहना, रोमांच होना, स्रोतोंका मार्ग रुक जाना, अल्प पीडा, ) आंख गल व मुख का वर्ण सफेद होजाना, जुखाम, कफ आता व कंठ खुजलाना, ये सब उपर्युक्त वातपित्तकफज्वरके तीनों प्रकार के सन्निपातज्वर समझना चाहिये ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ द्वंद्वजज्वर लक्षण | दोषद्वयेरितसुलक्षणलक्षितं त- । दोषद्वयोद्भवमिति ज्वरमाहुरत्र ॥ दोषप्रकोपशमनादिह शीतदाहा- । वाद्यं तयोर्विनिमयेन भविष्यतस्तौ ॥ ५९ ॥ भावार्थ:- जिसमें दो दोषोंके ( बात पित्त, वातकफ, या पित्तकफ ) लक्षण प्रकट होते हैं उसे द्वंद्वज ज्वर समझना चाहिये । ज्वर के आदि और अन्य में, दोषोंके प्रकोप व उपशमन के अनुसार शीत, अथवा दाह परिवर्तन से होते हैं । अर्थात् यदि ज्वर आदि से वातप्रकोप हो तो ठण्डी लगती है, पित्तोद्रेक हो तो दाह कम होता है । यही क्रम ज्वर के अंत में भी जानना चाहिए ॥ ५९ ॥ आंख में स्तब्धता, वमन ( थूक आदि अत्यंत शरीरग्लानि, अपचन, खांसी, श्लेष्मज्वर में पाये जाने वाले लक्षण हैं। लक्षण एकत्र पाये जाये तो उसे धन सन्निपात ज्वरका असाध्य लक्षण | सर्वज्वरेषु कथिताखिललक्षणं तं । सर्वरुपद्रवरपि संप्रयुक्तम् ॥ हीनस्वरं विकृतलोचनमुच्छ्रतं । भूमौ प्रलापसहितं सततं पतन्तम् ।। ६० ।। यस्ताम्यति स्वपिति शीतलगात्रयष्टि- 1 रंतर्विदाहसहितः स्मरणादपेतः ॥ C ( १६७ ) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) कल्याणकारके रक्तेक्षणो हृषितरोमचयस्सशूल - । स्तं वर्जयेद्भिषगिहज्वरलक्षणः ॥ ६१ ॥ भावार्थ:- जिस में सन्निपात के पूर्णलक्षण जो वातादि स्वरों में पृथक् २ लक्षण बतलाये हैं वे एक साथ प्रकट होवे यही सन्निपात ज्वर का लक्षण है । इन त्रिदोषोंके संपूर्ण लक्षण एक साथ प्रकट हो, संपूर्ण उपद्रवोंसे संयुक्त हो, स्वर ( अवाज कम होगया हो, नेत्र विकृत होगये हो, ऊर्ध्व श्वाससे पीडित हो, बडबड करके भूमिपर सदा गिरता हो, संताप से युक्त हो, दीर्घनिद्रा लेता हो, जिसका शरीर ठंडा पडगया हो, अंदर से अत्यधिक दाह होरहा हो, जिसकी स्मृतिशक्ति नष्ट होगई हो, आंखे लाल होगई हो, रोमांच होगया हो, शूल सहित हो, ऐसे सान्निपातिक रोगीको ज्वरलक्षण जाननेवाला विद्वान् वैद्य असाध्य समझकर अवश्य छोडें ॥। ६०-६१ ॥ सन्निपातज्वर के उपद्रव | मृच्छागरुक्क्षयतृषावमथुज्वरार्ति - । श्वासैस्सशू. मलमूत्रनिरोधदाहैः ॥ हिक्कातिसारगलशोषणशोफकासै- । रेतैरुपद्रवणैस्सहिताश्च वर्ज्याः ॥ ६२ ॥ तीन प्यास, भावार्थ: – बेहोश अंगों में पीडा होना, धातुदाय, चमन, श्वास, शूल, मलमूत्रावरोध, दाह, हिचकी, अतिसार [ दस्त लगना ] कंठ शोष, सूजन, खांसी ये सब सन्निपात ज्वर के उपद्रव हैं । इन उपद्रवोंके समूहस युक्त ज्वरको वैद्य असाध्य समझकर छोड़ दें ॥ ६२ ॥ ज्वरकी पूर्वरूप में चिकित्सा | रूपेषु पूर्वजनितेषु सुखोष्णतोय- । वfतः पिबेन्निशितशोधनसर्पिरेव ॥ संशुद्धदेहमिति न ज्वरति ज्वरोऽयं व्यक्तज्वरे भवति लंघनेमव कार्यम् || ६३ ॥ " भावार्थ::- ज्वर के पूर्वरूप प्रकट होनपर मंदोष्ण पानीसे वमन कराना चाहिये । एवं तीक्ष्ण विरेचन घृतको पिलाकर विरेचन कराना चाहिये, इस प्रकार शोधित शरीरवालेको ज्वर बाधा नहीं पहुंचाता है अर्थात् बुखार आता ही नहीं । ज्वर प्रकट होनेपर लंघन करना ही उचित है ॥ ६३ ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः घन व जलपान विधि | आनद्धदोषमखिलं स्तिमितयष्टि-1 मालोक्य धनविधिं वितरेतृषार्त्त ॥ तोयं पिवेत्कफमरूज्ज्नरपीडितांगः | सोष्णं सपित्तसहितः श्रुतशीतलं तु ॥ ६४ ॥ भावार्थ:- दोषोंके विशेष उद्रेक व स्तव्य शरीर को देखकर लंघन कराना चाहिये । यदि प्यास लगे तो वातकफज्वरी गरम पानी व पित्तज्वरी गरम करके ठण्डा किय हुआ पानीको पीना उचित है ॥ ६४ ॥ क्षुत्पीडित यदि भवेन्मनुजो यवागूं । पीत्वा ज्वरप्रशमनं प्रतिसंविशेदा । तद्वद्विप्यमपि युगणैः कटुणैः ॥ संयोजयेज्ज्वरविकार निराकरिष्णुः ।। ६५ । ( १६९ ) भावार्थ:- लंबित रोगीको यदि भूक लगे तो क्रमसे धरनाशक दोष्ण यवागू बिपी व यूषों को देना चाहिये, फिर विश्रांती देनी चाहिये ॥ ६५ ॥ वातपित्तज्वर में पाचन | बिल्वानिमंथबृहतीइयपाटलीनां । कार्य पिवेदशिशिरं पवनज्वतिः ॥ काशेक्षुयषिधुचंदनसारिवानां । शीतं कषायमिह पित्तविकारनिघ्नम् || ६६ ॥ भावार्थ:- बेल, अगेथु, दोनों कटेली, पाढ, इनका सुखोष्ण काथ बातावरीको पाचनार्थ पीना उचित है । काश, ईखका जड, मुलेठी, चंदन, सारित्र इनका ठण्डा काथ पाचन के लिये पित्तन्त्रको देना चाहिये ॥ ६६ ॥ कफज्वर में पाचन व पकउपलक्षण । इत्रिकपकतोय- ! भाफलञनकडुनिक मुष्णं पिवेत्कफकृतज्वरपाचनार्थम् ॥ १ यदि दोषोद्रेक आदि अधिक नहीं, उबर भी साधारण हो तो लंबन कराने की जरूरत नहीं | लघु आहार दे सकते हैं | दूसरा यह भी तात्पर्य है जब तक दोषद्रिक अंगोंमें स्तब्धता आदि अधिक हो तब तक लंघन कराना चाहिये । २२ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) कल्याणकारके लवी तनुः प्रकृतिमूत्रमलप्रवृति- । मैदज्वरश्शिथिलकुक्षिरपीह पके ॥ ६७॥ भावार्थ:----भार्डी, फिला, ( हरड वहेडा आंवला ) त्रिकटु [ सोंठ मिरच, पीपल, इनसे पकाया गया पानीको अर्थात् काढा पीनेसे कफज्वरका पाचन होता है। परके पाचन होनेपर शरीर हल्का, मल मत्रोंकी म्वाभाविक प्रवृत्ति, मंदज्वर, पेट शिथिल होजाता है ॥ ६७ ॥ वात व पित्त पकवर चिकित्सा। पकज्वरं समभिवीक्ष्य यथानुरूपं । स्निग्धैर्विरेचनगणरथवा निरूहैः ।। संयोजयेत्समनवातक तज्वरातः । पित्तज्वरे वमनशीतविरंचनैश्च ॥ ६८ ।। भावार्थ:---वर पकजानेपर यदि वह पीडायुक्त वातवर हो तो उसे यथायोग्य नेह [ एरण्ड तेल आदि ] विरेचन अथवा निम हबस्ति देनी चाहिये, यदि पित्तज्वर हो तो यथायोग्य शीत वमन, वा विरेचनसे उपशम करना चाहिये ॥ ६८ ॥ पक्कलमज्वर चिकित्सा। श्लेष्मज्वरे वमनमिष्टमरिष्टतोयैः । संपिष्टसैंधववचामदनप्रभूतैः ॥ . नस्यांजनेष्टकटुमेषजसद्विरेक-। गण्डूपयूषखलतिक्तगणः प्रयोज्यः ।। ६९ ॥ भावार्थ:-कफञ्चरमें नीम कषायमें सैंधानमक, बचा, मेनफल इनका कल्क डालकर वमन देना चाहिये और कट औषधीयों द्वारा नस्य, अंजन, विरेचन तथा तिक्तगणौषधियों द्वारा कवलवारण ( कुरला ) कराना, व यूष देना चाहिये ।। ६९ ॥ लंघन आदिके लिये पात्रापात्र रोगी तत्राल्पदोषकृतलवालवृद... । स्त्रीणां क्रिया भवति संशमनप्रयोगः॥ तीतोपवासमलशोधनसिद्धार्ग- । संभावयेदधिकसत्वलान्ज्वरातन ॥ ७० ॥ भाषा:-पदि दोषोंका उद्रेक अप हो, वृद्ध हो, स्त्री हो, तो उनकी चिकित्सा शमन प्रयोगके द्वारा करनी चाहिये । इससे विपरीत अधिक बलधाले व्यरीको तीन लंघन, उपर्युक्त घनन विरेचनादिसे चिकित्सा करना चाहिये ।। ७० ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः । वातज्वरसे काय वासामृतांबुदपटोल महापधानां । पाठाग्निमंथबृहतीद्वय नागराणाम् ॥ वा श्रृंगवेरपिचुमंदनृपांधिपानाम् । कार्य पिवेदखिलवातकुतज्वरेषु ॥ ७१ ॥ भावार्थ:- संपूर्ण वातिक ज्यरोमें अइसा, गिलोय, नागरमोथा, परवलकी पतियां मोठ इनका वा पाठा, अगेधु, दोनों कटेली, सोट इनका, वा शुंठी, नीम, अमलतास इनका काथ ( काढा ) बनाकर पीना चाहिये ॥ ७१ ॥ पित्तज्वर में काथ । । लाजाजलामलकबालकशेरुकाणां मृद्वीकनागमधुकोत्पलशारिबानां ॥ कुस्तुंबुरोत्पलपयोदपयोरहाणां ॥ काथं पिवेदखिलपित्त कृतज्वरेषु ॥ ७२ ॥ भावार्थ:-- पैत्तिक ज्वरोंमें धानके खील, नेत्रवाला, आंवला, कच्चा कशेरु इनका वा मुनक्का, नागरमोथा, मुलैठी, नीम, कमल, सारिवा इनका, वा धनिया, नीलकमल, नागरमोथा, कमल इनका काथ बनाकर पीना चाहिये ॥ ७२ ॥ कफज्वर में काथ | ( १७१) एलाजमोदमरिचामलकाभयाना- । मारग्वधांबुदमहौषधपिप्पलीनाम् || मूर्निवर्निवबृहतीयनागराणाम् । काथं पिवेदिह कफमचुरज्वरेषु ॥ ७३ ॥ भावार्थ:- कफ ज्वर में इलायची, अजवाईन, मिरच, आंवला, हरड इनका वा अमलतास, नागरमोथा, सुंठी, पीपल इनका, वा चिराता, नीम, दोनों कली, शुंठी इनका काय बनाकर पीनेसे शांति होता है || ७३ ॥ सनिपातिक स्वरमें काश ! मुस्तानिशामलकचंदनसाविनां । छिन्नोद्भवांबुदपटोलहरीतकीनां ॥ पूर्वामृतांबुदविभीतकरोहिणीनां ! वायं पिवेति ॥ ७४ ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) कल्याणकारके भावार्थ:-नागरमोथा, हलदी, आंवला, चंदन, सारिवा, इनका वा गिलोय, नागरमोथा, कडुवा परवल ( महीन पत्र ) हरड इनका अथवा मूर्वा, गिलोय नागरमोथा, बहेडा, कुटकी इनका कषाय नेसे सन्निपात अर का उपशम होता है ॥ ७४ ॥ विषमज्वर चिकित्सा। दोपानुरूपकषितौषधसत्यागः । प्रत्येकसिद्धवृततेलपयःखलारलैः !! अभ्यंगनस्यसतर्ताजनपानकाय- । *कांतरादिविषमज्वरनाशनं स्यात् ।। ७५ ॥ भावार्थ----दोषोंको अनुसरण करके जिन औषधियोंका निरूपण किया गया है उन २ औषधि प्रयोगों से, तथा तत्तदोषधियों का सिद्ध किये गये घृत, तेल, दूध, व्यंजन विशेष, आदि के अभ्यंग, नस्य, अंजन, पान इत्यादि करानेसे एकांतरा, संतत, सतत, अन्येशुष्क, तृतीयक, चतुर्थकादि विषनयर नष्ट होते हैं ।। ७५ ॥ विषमज्वरनाशक वृत। एवं तृतीयकचतुर्थदिनांतरेषु । संभूतवातजमहाविषमज्यरेष ॥ गव्यं कृतं चिकटुक त्रिफलत्रिजात- ।। कारं पिबेदाहिमदुग्धयुतं हितार्थी ।। ७६ ॥ भावार्थ:---इसी प्रकार जिस में बात की प्रधानता रहती है ऐसे तृयायक, चतुर्थक आदि विषमज्वरोंसे मुक्त होनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य त्रिकटुक, त्रिफला व त्रिजात ( दालचीनी, इलायची, तेजपान )चूर्ण मिला हुआ मायके घीको मंदोष्ण दूधके साथ पीवें ॥ ७६ ॥ भूतज्वरके लिये धूप। गो,गहिंगुरिचार्कपलाशसर्प- । निकिनिर्मलमहौषधचापपत्रः ॥ १ संतत--जो, बातपित्त कफी के कारण से, क्रमशः सान, दस, व बारह दिन, तक (वीच न छूटकर ) बराबर आता है उसे संतत कहते हैं। सतत--जो दिन के किसी दो टाइम में आता है उस सतत ज्वर कहते हैं । अन्येाकत, वा दिन किसी, एक काल में जो स्वर आता है, उसे, अन्येशुष्क तृतीयक-बी में एक दिन रुककर जो तीसरे दिन आता है उसै तृतीयक कहते हैं। चतुर्थको बीचके दो दिनों में न आपर, 2 दिन में आता है । Norware कहत हैं। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः। (१७३) कार्पासबीजसितसर्षपबहिबह-। धूपो ग्रहज्वरपिशाचबिनाशहेतुः ॥७७॥ भावार्थ:--होंग, मिरच, अकौवा, पलाश, सर्पकी कचैली, उत्तम सोंठ, चाणपत्र कपासका बीज, सफेद सरसौ, मयूरके पंख इनसे धुप देनेस भूतप्रेतोंके उपद्रमसे उत्पन्न ग्रहज्वर का भी उपशम होता हैं ॥ ७७ ॥ स्नेह व रूक्षीस्थित ज्वरचिकित्सा। स्नेहोस्थितेष्वहिमपेयविलेप्यप । दृष्याद्धि रूक्षणविधिः कथितो ज्वरेषु ॥ स्नेहक्रियां तदनुरूपवरौषधाद्यां । संयोजयेदधिकरूक्षसमुद्भवेषु ॥ ७८ ॥ भावार्थ:-अधिक स्नेहन करनेसे उत्पन्न ज्वरमें गरम पेय, विलेपी, यूषादि धातुओंके रक्षण करने वाली विधिका प्रयोग करना चाहिय, अति रूक्षण करनेसे उत्पन्न घरोंमें स्नेह क्रिया व तद्योग्य औषधियों से चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ७८ ।। स्नेह व रूथिन ज्वरोंमें वमनादि प्रयोग स्नेहोद्भवेषु वमनं च विरंचने स्या-। द्रक्षज्वरेषु विदर्धात स बस्तिकार्यम् ॥ क्षीरं घृतं गुडयुतं सह पिप्पलीभः । पेय पुराणतररूक्षमहाज्वरेषु ॥ ७९ ॥ भावार्थ:-नेहज ज्वरमें वमन विरेचन देना चाहिये, और रूक्षजज्वरमें बस्तिकार्य करना चाहिये, पुराने रूक्षज महावरे गुड व पीपल इनसे युक्त दृध या घी को पीना चाहिये ।। ७९ ॥ ज्वर मुक्त लक्षण कांक्षां लघुक्षवथुमन्नरुचिं प्रसनं । सर्वेद्रियाणि समशीतशरीरभावम् ॥ कण्डूमलप्रकृतिमुज्ज्वलितोदराग्निं । वीक्ष्यातुरं ज्वरविमुक्तमिति व्यवस्येत् ॥ ८० ॥ भावार्थ:-खानेकी इच्छा होना, शरीरका हल्का होजाना, अन्नमें रुचि होना, प्रसन्नचित्त होना, संपूर्ण इंद्रियोंकी अपने २ कार्य करनेमें समर्थता होना, शरीरमें समशीतोष्णता होना, खुजलाना, मल का विसर्जन ठीक २ होना, उदरालिका प्रज्वलित होना यह अविमुक्तका लक्षण है.८८ ! Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४.) कल्याणकारके.. . भरकर पुनरावर्तन । शीतांबुपानशिशिरासनभोजनाद-। व्यायाममारुतगुरुप्लवनाभिघातात् ॥ शीत्र ज्वर: पुनरुपैति नरं यथेष्ट-- ।. चारित्रो ज्यविमुत्तमपीह तविः ॥ ८५ ॥ भावार्थ:---एक दफे अर टूट जानेपर भी ठंडे पानी पीनेसे, ठंडे जगहमें बैठनेसे, अत्यत शीतवीर्थयुक्त भोजन पान आदि करनेसे, अतिव्यायाम करने से, हवा लगने से, विशेष तरनेस, नोट लगनसे, इत्यादि व स्वछंद वृत्तिसे वह पुनः लौट आता है ॥ ८१ ॥ पुनरागत उबर का दुष्टफल। दावानलो दहति काष्ठमिवातिशुष्कं । पन्यागती उबविगतामह ज्वरोऽयं ।। तस्मा रातुर इब घरवक्तगात्रः। रक्ष्या निजाचरणभांजनभषजायेः ॥ ८२ ॥ भावार्थः ----जिस प्रकार अग्नि सूखे लकडीको शीघ्र जलाता है उसी प्रकार उस ज्वरमुक्तको लौटा हुआ यर पीडा देता है, शरीरको नष्टभ्रष्ट करता है । इसलिये उवरागमनके समय जिस प्रकार उसकी रक्षा करते है उसी प्रकार ज्वरमुक्त होनेपर मी निजाचरण, भोजन, औषधिगद्वारा उसकी रक्षा करनी चाहिये ।।८२।। अथ अतिसाराधिकारः । अतिसारनिदान । पित्तं विदग्धमरजा कफमारुताभ्यां । युक्तं मलाशयगत शमितोदराग्निम् ।। क्षिप्रं मलं विमृजति द्रवतामुपेतम् ।। तं व्याधिमाहतियामिनि प्रवीणाः ॥ ८३ ॥ भावार्थ:---स्वकारणले स्वपित्त, , कफ, वायुसे मिलकर जब मलाशय में पहुंच जाता है वहां उदराग्निकाम कर देता है। फिर रम मे गमला रोते लगता है इसे महर्षि लोग अतिसार रोग कहते हैं ॥ ८३ ॥ ...वातातिसार लक्षण शूलान्वितो मलमपानरुजा प्रगाढं ! यस्तोयफेनसहित सहज समद्रम् Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः। Pr रूक्ष सृजत्यतिमुहर्महरल्पमल्पा । वातातिसार इति तं मुनयो वदति ।। ८४ ॥ भावार्थ:-जिसमें अपानवायु के प्रकोपसे, मल अत्यंत गाढा, रुक्ष एवं फेल युक्त होता हुआ बार २ थोडा २ पीडा व साद्ध के साथ २ उतरता है, रोगी शूलसंयुक्त होता है । उसको महर्षिगण बातातिसार कहते हैं। तात्पर्य यह कि ये सब लक्षण वातातिसार के हैं ॥ ८४ ॥ - पिचातिसार लक्षण पीत सरक्तमहिम इरित सदाह । मूतिषावरविषाकपद रुपेतम् ।। शीघ्र सृजत्यतिविभिन्नपुरीषलछ । पित्तातिसार इति न मुनयो वदति ॥ ८५ ।। भावार्थ:--पीला हरावण से युक्त, अधिक उष्ण, रक्तसहित स्वच्छ व पतला मल शीघ्र उतरना, रोगी मूर्छा, प्यास, ज्वर, अपचन, मद, इन से युक्त होना, ये सब लक्षण पित्तातिसार के है, ऐसा आचार्यप्रवर कहते हैं ॥ ८५ ॥ लष्मातिसार श्वेतं बलासबहुतो बहुलं मुशीत । शीतार्दितातिगुरुशीतलगात्रयष्टिः ।। कृत्स्नं मलं सजति मंदमनल्पमल्पं । श्लेष्मातिसार इति तं भुनयो वदंति ॥ ८६ ॥ भावार्थ:-कफ के आधिक्य से, मल का वर्ण श्वेत, गाढा, व अधिक ठण्डा होता है और मंदवेग के साथ, अधिकमात्रा में मल निकलता है, रोगी अत्यंत शीत से पीडित होता है, शरीर भारी, व अति शीतल मालूम पडता है जिसमें ये सब लक्षण प्रकट होते हैं उसे महर्षिगण श्लेष्मातिसार कहते हैं ॥ ८६ ॥ सन्निपातातिसार, आमातिसार व पवातिसारका लक्षण । सर्वात्मकं सकलदोपविशेषयुक्तम् । विच्छन्नमच्छमतिसिस्थमासिवथक वा ।। दुगेधमप्स्वपि निमग्नयमेध्यमामं । पक्कातिसारमति नविपरीतमाहु: ।। ८७ ।। da Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) कल्याणकारके भावार्थ::- वात पित्त कफ इन तीनों अतिसारोंके लक्षणोंसे युक्त, छिन्न २ स्वच्छ, कण सहित व कणरहित मल निकलता है इसे सन्निपातातिसार कहते हैं । मल पानी में डालने पर डूबे, दुर्गंध से युक्त हो तो उसे आमातिसार कहते हैं । इससे विपरीत दक्षण वाले को पक्वातिसार कहते हैं ॥ ८७ ॥ अतिसार का असाध्य लक्षण | शोकादतिप्रबलशोणितमिश्रमुष्ण- । माध्मानशुलसहितं मलमुत्सृजतम् ॥ तृष्णाद्युपद्रवसमेतमरोचकार्तम् । कुक्ष्यामयः क्षपयति क्षपितस्वरं वा ॥ ८८ ॥ भावार्थ:- अति शोक के कारण से उत्पन्न, अत्यधिक रक्तमिश्रित, अतिउष्ण, मल को निकालने वाला शोकातिसार, आध्मान अफरा ) व शूलयुक्त, तृष्णा, सूजन, उर, श्वास, खांसी आदि उपद्रवों से, संयुक्त, अरुचि से पीडित, हीन स्वर संयुक्त रोगी को, [ अतिसार रोग ] नाश करता है | ॥ ८८ ॥ अन्य असाध्य लक्षण । बालातिवृद्धकृशदुर्बलशोषिणां च । कृछ्रातिसार इति तं परिवर्जयेत ॥ सर्पिः प्लिहामधुवसायकृतासमानं । तैलबुदुग्धदधितसमं सर्वतम् ॥ ८९ ॥ भावार्थ:- अतिसार रोगी अति बालक हो, अति वृद्ध हो, कृश, दुर्बल व शोषी [ क्षयरोग से पीडित ] हो, एवं जिनका मल घी, प्लिहा, वसा, यकृत, तेल, पानी, दूध, दही, छाछ के समान वर्णवाला हो, ऐसे रोगियोंका अतिसार महान् कष्ट पूर्ण है । इसलिए उसे छोडना चाहिए । आमातिसार में वमन । ज्ञात्वामपक्कमखिलामय संविधानं । सम्यग्विधेयमधिकामयुतातिसारे ॥ प्रच्छर्दनं मदनसंधव पिप्पलीनां । कल्कान्वितोष्णजलपानत एव कुर्यात् ॥ १० ॥ भावार्थ - अतिसारोंके आमपक्कावस्थावोंको अच्छी तरह जानकर यथायोग्य ( आम में पाचन व पक्कस्तंभन ) चिकित्सा करनी चाहिये । अधिक आमयुक्त हो तो Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः। (१७४) मेनफल, सैंधानमक, पीपल इनके कल्कसे मिश्रित उष्णजलपानसे वमन कराना चाहिये । ॥९ ॥ वमनपश्चाक्रिया वतिं प्रशांतमददाहमपेतदोषं । तिं नदाहनि विवर्जितभुक्तपानं ।। मांग्राहिकोषधविपकविलेप्यवृष-। भन्येधुरल्पमहिमं वितरेद्यथोक्तम् ॥ ११ ॥ भावार्थ:-~-वमन कराने के बाद, जिसका मद, दाह व दोष शांत होगये हों, जो थका हो ऐसे रोगीको उस दिन खाने पीने को कुछ नहीं देना चाहिये । दूसरे दिन प्राहि औषधियोंसे पकाये हुए विलेपी वा यूष (दाल) गरम व अल्पप्रमाण में देना चाहिये । ॥ ९१॥ वातातिसार में आमावस्था की चिकित्सा. अत्यम्लतक्रमनिलामयुतातिसारे । प्रातः पिबेन्मरिचसैन्धवनागराढ्यं ।। हिंगुप्रगाढमथवा मरिचाजमोद । सिन्धूत्थनागरविपकवराम्लिका वा ॥९२॥ भावर्थ-~-वातज अतिसारके आमास्थामें अत्यंत ग्वट्टी छाछमें मिरच, सैंधानमक सोंठ, हींग मिलाकर अथवा मिरच, अजवाईन, सैंधानमक, सोंठ, इनसे पकायी हुई कांजी पीना चाहिये ॥ ९२ ॥ पित्तातिसार में आमावस्था की चिकित्सा । यष्टीकषायपरिपकमजापयो वा। जम्बंबुदाम्रकुटजातिविषाकषायः ॥ पतिस्तथा दधिरसेन तिलांबुकल्कं । पित्ताममाशु शमयत्यतिसाररोगे ॥ ९३ ।।। भावार्थ:-पित्तज अतिसारके आम अवस्थामें मुलैठीके कवायसे सिद्ध किया हुआ बकरी का दूध व जामुन, नागरमोथा. आम, कूटज, अतीस, इनका कषाय अथवा तिल व नेत्रबालेका कल्कको दहीके तोड [ रस ] के साथ पीना चाहिये ।। ९३ ॥ कफातिसार में आमावस्था की चिकित्सा । दीनिशात्रिककांबुदचित्रकाणां। . पाठाजमोदमारिचामलकाभयानाम् ।। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८ ) कल्याणकारके कल् पिवेदशिशिरेण जलेन शुंठी-। मेकां तथा कफकृताम तातिसारे ।। ९४ ॥ भावार्थ:--- श्लेष्मातिमार के आम अवस्था दारू हलदा, हलदी, त्रिकटुक ( सोंठ मिरच, पीपल, ) नागरमोथा, चित्रक इनके वा पाठा, अजवाईन, मिरच, अविला, व हरडा इनके क-कको गरम जल में मिलाकर पीना चाहिये अथवा शुंठीको ही पानीक साथ पीसकर पीना चाहिये ॥९५ ॥ पक्कातिसारमें आम्रास्थ्यादि चूर्ण । आम्रास्थिलोधमधुकं तिलपकाख्यं । सद्धातकीकुसमशाल्मालेबेष्टकं च ॥ विल्वप्रियंगुकुट मातिविपासमंगाः । पकातिसारशमनं दधितायीताः ।। ९५ ॥ भावार्थ:--आमकी गुठली, लोधा, मुलैठी, तिल, पद्माख, धाईके फूल, सेमलके गोंद, बेली गुदा, प्रियंगु ( फूलप्रियंगु) कुटज की छाल अतीस मंजीठ इनको चूर्णकर दहीके तोडके साथ पीसे पकःतिमार शमन होता है ॥ ९५ ॥ स्वगादिपुटपाक। त्वदीर्घवृतकुटजाम्रकदंबजांबू-। वृक्षोद्भवा बहुलतण्डुलतोयपिष्टाः ।। रंभादलेन परिष्ट्य पृटेन दग्धा। निष्पीडिता गलति रक्तरसं सुगंधिम् ॥ ९६ ॥ भावार्थ:---दालचिनी, अग्लु, कुटज, आम, कदंब, जामुन वृक्षोंकी छाल को चावल की माण्डके साथ पीसकर केलेके पत्तेसे लपेटकर पुटपाक विधिसे पकाना चाहिये । फिर उसो निचोडनेपर उससे सुगंध लाल रस निकलता है ॥ ९६ ॥ तं शीतलं मधुककल्कयुतं प्रपेय । कुक्ष्यामयं जयति मंझुतरं मनुष्यः ॥ अम्बष्टिकासरसदाडिम तिंदुकं वा । तके विपाच्य परिपीतमपीह सद्यः ॥ ९७ ॥ भावार्थ:-उस्. शीतल रसमें मुलैठीका कल्क मिलाकर पीनेसे सर्व अतिसार रोग दूर होते हैं । अथवा अंबाडा, उत्तम दाडिम, तेंदु, इनको छाछमें पकाकर पीनेसे भी अतिसार रोगका उपशम होता है ॥ ९७ ॥ ... १ अंबठिकाका अर्थ पाठा ( पहाडल ) भी होता है। . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्तरोगाधिकारः । जम्वादि पाणितक ! जंव्वानिंबधन वृक्षसुधातकीना । मष्टशशिष्टमवतार्य विमाल्य तोयम् ॥ पमिह पाणितकं विपाच्य | लीनातिसारमचिरेण जयेन्मनुष्यः ॥ ९८ ॥ भावार्थ:- जामुन, आम, नीम, नागरमोथा, अमलतास, बाईके फूल, - इनका कषाय आठवां अंश बाकी रहे तब उतारकर उसे छान लेवें, फिर उसको दव प्रलेप [ जबतक करछली में चिपक जाये ] होनेतक पकाकर उतार लेवें । उस अवलेह के सेवन करने से अतिसार रोग दूर होता है ।। ९८ ॥ सिद्धक्षीर । क्षीरं त्रिवत्त्रिफलया परिपकमाशु । कुक्ष्यामयं शमयति त्रिकटुप्रगाढम् || सिंत्थहिंगुमरिचातिविषाजमोद - । शुंठीसमेतमथवा शतपुष्ययुक्तम् ।। ९९ ।। भावार्थ:- त्रिवि [निशोथ ] त्रिफला, ( हरड बहेडा आंवला ) त्रिकटु ( सोंठ मिरच पीपल ) इन से पकाये हुए दूध को पीनेसे अतिसार रोग दूर होजाता है । सैंधानमक, हींग, मिरच, अतीस अजवाईन, सोंठ इन से पकाये हुए दूध अथवा सोंफसे युक्त दूधको पीनेसे अतिसार रोग दूर होता है ॥ ९९ ॥ उग्रगंधादिकाथ | उग्रांबुदातिविषयष्टिकपायमष्ट । भागावशिष्टमतिगाल्य विशिष्टमिष्टं ॥ अम्बष्टकासहितमाशु पिबेन्मनुष्यो । गंगां रुद्धि किमुताल्पतरातिसारम् ॥१००॥ (१७९). भावार्थ:- : - वचा, नागरमोथा, अतीस, मुलैठी इनका अष्टभागावशेष कषाय बनाकर फिर उसको छान लेवें । उस कषायमें अंबाडा डालकर पीवें । इससे गंगा नदीके बाडके समान वहनेवाला अतिसार भो उपशम होता है । अल्प प्रमाणवाले अतिसारकी तो क्या बात है ? ॥ १०० ॥ क्षीरका विशिष्ट गुण । गव्यं क्षीरं सुखोष्णं हितमतिचिरकालातिसारज्वरोन्मा - ! दापस्माराचरात्योदयकुद विष्ट श्वासकासप्लिग || Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) ' कल्याणकारके अष्टीलाशर्करासग्दरमदतनुदाहभ्रमक्षीणरेतो । मूर्छाक्रांतेषु पीतं किमुत तदनुरूपोषधैस्सप्रयुक्तम् ॥ १०१॥ भावार्थ:-मंदोष्ण दूध, पुराना अतिसार, जीर्णज्वर, उन्माद, अपस्मार, अश्मरी, गुल्म, उदर, यकृदुदवात, श्वास फास, प्लिहोदर, अष्टीला, शर्करा, असृग्दर, दाहरोग, भ्रम, क्षीणशुक्र, मूछों आदि अनेक रोगों के लिये हितकर है । उसको यदि तत्तदोगगाशक औषधियों से सिद्धकर प्रयोग किया जाय तो फिर कहना ही क्या है ॥१०॥ अतिसारमें पथ्य! तकं सैंधवनागरायमथवा मुद्रं रसं जीरकै-। व्यामिश्रं घृतसैंधवैः समरिचैस्सस्कारमाप्तं भृशं ॥ क्षीरं वाप्यजमोदधवयुतं सम्यक्त्या संस्कृत-। माहारेषु हितं नृणां चिरतरातीसारजीर्णज्वरे ॥१०२ ॥ भावार्थ:--सेंधानमक, सोंठ से मिली हुई छाछ, अथवा मूंग के पानीमें जीरा मिलाकर उसमें धी, नमक व मिर्च का छोंक देकर पीवें, अथवा अजवाईन, सैंधानमक से सिद्ध किया हुआ दुध, यह सब अतिसार व जीर्ण ज्वरमें हितकर है । ॥१०२॥ अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तुततरंगकुलाकुलतः॥ उभयभवार्थसाधनतटयभासुरतो। निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ।। १०३ ।। भावार्थ:-..-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परालोकके लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई. बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ १०३ ॥ . इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे पित्तरोगचिकित्सितं नामादितो नवमः परिच्छेदः । इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाणिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा खिखित भावार्थदीपिका टीका में पित्तरोगाधिकार नामक नवमा परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कफरोगाधिकारः अथ दशमः परिच्छेदः कफरोगाधिकारः ! ष्मरोगाभिधानप्रतिज्ञा । मंगलाचरण : जीवाजीवाद्यशेषं विधिवदभिहितं येन तद्भेदभिन्नं । धौव्योत्पादव्ययात्मामकटपरिणतिप्राप्तमेतत्क्षणेस्मिन् ॥ तं देवेंद्राभिवंद्य जिनपतिमजितं प्राप्तसत्मातिहार्य | नवा श्लेष्मामयानामनुगतमखिलं संविधास्ये विधानम् ॥ १ ॥ भावार्थ:- जिसने अपने २ भेदोंसे भिन्न तथा ( अपने स्वभावमें स्थित होते हुए भी) परिणति को प्राप्त उत्पाद, व्यय, धौग्योंसे युक्त जीवादि द्रव्योंको विधिप्रकार निरूपण किया है और जो देवेंद्रादियों के द्वारा पूज्य है, अष्टमहाप्रातिहार्यौकर युक्त 蓮 ऐसे श्री अजितनाथ जिनेंद्रको बदनाकर कफरोगों के विषय में निरूपण करेंगे इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ १ ॥ ( १८१ ) प्रकुपितकफका लक्षण स्तब्धं शैत्यं महत्त्वं गुरुतरकठिनत्वातिशतिर्तकडू- । स्नेहक्लेदप्रकाश चैवमधुशिरोगौरवात्यंतनिद्राः ॥ मंदाग्नित्वाचिपाक मुखगतलवणस्वादुता सुप्ततादिः ॥ श्लेष्म व्याधिस्वरूपाण्यविकलमधिगम्याचरेदौषधानि ॥ २ ॥ भावार्थ:-- शरीरका स्तब्ध होना, ठण्डा पडजाना, फूलजाना, भारी होजाना, कठिन, अतिशीत, अतिकंडू [ खाज ] चिकना, गीला होजाना, थूकका पडना, अम्मादिकमें अरुचि, शिरोगुरुता, अत्यधिक निद्रा, मंदाग्नित्व, अपचन, मुख नमकीन वा स्वादु हो जाना, अंगोंमें स्पर्शज्ञानका नाश हो जाना, यह सब कफप्रकोप का लक्षण हैं । ये लक्षण जिन २ व्याधियों में पायें जाते हैं उनको कफजव्याधि समझना चाहिये । इन लक्षणों को अच्छी तरह जानकर कुशल वैद्य तद्योग्य औषधियोंके द्वारा उपचार करें ॥ २ ॥ श्लेष्म नाशक गण । सक्षाररुष्णवगैर्लघुतरविशदैरल्पमात्रान्नपानैः । कौस्यैरतिमदुकानांच Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) कल्याणकारके तीव्रस्वेदोपवासैस्तिलजपरिगतोन्मदनादिव्यवायैः । श्लेष्मोद्रेकमशांतिं व्रजति कटुतिक्तातिरूक्षैः कषायैः ॥ ३ ॥ भावार्थ:- क्षारपदार्थ, उष्ण पदार्थों के वर्ग, लघु व विशद ( स्वच्छ ) अल्पप्रमाण में अन्नपान का सेवन, कुलथी व मूंगका यूष, कटुक रस युक्त मटर वं अरहरका पानी ( पेया आदि ) तीव्र स्वेदन, उपवास, तिल तैलसे मर्दन, मैथुन सेवन, एवं कडुवा, चरपरा, कषायरस, रुक्षपदार्थ इत्यादि से कफविकार ( कफप्रकोप ) शांतिको प्राप्त होता है | ॥ ३ ॥ कफनाशक उपाय । गण्डूपैस्सर्षपाद्यैर्लवणकटुकषायातितिक्तोष्णतीयैः । निर्वैः कारंजकाद्यैस्त्रिकटुकलवणोन्मिश्रितैर्दतकाष्ठैः ॥ नारंगैर्वेत्रजातैश्णकविलुलितमीतु लुगाम्लवगैः । सव्योषैस्सैंधवाद्यैः कफशमनमवाप्नोति मर्त्यः प्रयोगैः ॥ ४ ॥ भावार्थ:- सरसों आदि कफनाशक औषधियों के तथा लवण, चरपरा, कषाय, कडुआ रस, गरम पानी, इत्यादि औषधियों के गण्डूष धारण करने से नीम करंज बबूल आदि कडुआ, चरपरा, कषायरस दांतोन, व सोठं मिरच, पपिल नम-.. क मिश्रित दंतमंजन द्वारा देतवाचन करने से, निंबू, वेत के कोंपल, चने का क्षार, बिजोरी निनूं, जम्बीरी निंबू, तितिडीक आदि अम्लवर्मोक्त पदार्थ एवं त्रिकटू सेंधानमक, कालानमक, सामुइनमक, विंडनमक, व औद्भिद (ऊपर) नमक इनके प्रयोग से कफ शमन होता है ॥ ४ ॥ P भार्यादि चूर्ण | भाङहिंगूग्र गंधामरिचविडयवक्षारसौवर्चलैलाः । कुष्टं शुंठी पाठा कुटजफलम हानिंबबीजा जमोदाः ॥ चव्वाजा जीशता हा दहनगजकगापिप्पली ग्रंथिसिंधून् । चूर्णीकृत्याम्लवर्गेलुळितमसकृदाशोषितं चूर्णितं तत् ॥ ५ ॥ १. अम्लवर्गः– अम्लवेतस जम्बीरलुङ्गाम्ललवणाम्लकाः नगरंगं तितिडीच चिंचा..... फलसनिम्बुकं । चागेरी दा डेमं चैव करमर्द तथैव च । एष चाम्लगणः प्रोक्तो वेतसाम्लसमायुतः ॥ रसेद्रसारसंग्रह | अम्लवेत, जम्बारीनिंबू बिजौरा निंबू, चनेका खार नारंगी तिंतिडीक, इमली के फल - निंबू, चांगेरी, ( चुक्का ) खट्टा अनार और कमरख इन को अम्लवर्ग कहा है । २ औषधियों के कषाय को तबतक मुख में भरकर रखें जबतक कफादि दोष निकम व उमष कहते हैं Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कफरोगाधिकारः G1 ( १८३ ) पीत्वा सौवीरमिश्रं क्षपयति यकृदष्टीलगल्माग्निमांद्यं । कासोश्वासशूलाम जठरकुक्ष्यामया शप्लहादीन् ॥ तक्रेण श्लेष्मरोगान् घृतगुडपयसा पैत्तिकान् हंत्यशेषा - । नुष्णभस्तैलयुक्तं शमयति सहसा वातजातानमोघम् ॥ ६ ॥ भावार्थ:- भार्डी, हिंग, बचा, मिरच, बिडनमक, यवक्षार, कालानमक, इलायची, कूट, सोंठ, पाठा, कुटज फल ( इंद्रजौ ) महानिंत्र ( चकायन ) का बीज, अजवाईन, चात्र, जीरा, सोंफ, चित्रक, गजपीपल, पीपल, सैंधानमक इनको चूर्ण करके आम्लवर्ग के औषधियोंके रसोंसे इसमें अनेकवार भावना देकर कांजी मिलाकर पीयें जिससे यकृदुदर, अष्टीलिका गुल्म, अग्निमांध खांसी, ऊर्भश्वान, शूल, वमन उदर रोग. कुक्षिरोग [ संग्रहणी अतिसार आदि ] प्लिहोदर, आदि रोग दूर होते हैं । तथा इस चूर्ण को छाछ में मिलाकर पीत्रे तो समस्त लेप्मरोग, घृतगुड व दूधमें मिलाकर पीवे तो सर्व पित्तज रोग, एवं गरमपानी व तेल में मिलाकर पीचे तो बातज रोग उपशमन होते हैं । ॥ ६ ॥ कफनाशक व खदिरादि चूर्ण | निवकार्थं सुखोष्णं त्रिकटुकसहितं यः प्रपाय प्रभूतं । छर्दि कृत्वा समांशं खदिरकुटजपाठापटोलानिशानाम् || चूर्ण व्योषगढं प्रतिदिनमहिमेनांभसातत्पिवन्सः । कुष्ठाशः कीटकच्छ्रन् शमयति कफसंभूतमातंकजातम् ॥ ७ ॥ भावार्थ - त्रिकटुकसे युक्त नीमके कषाय को थोडा गरम पिलाकर वमन करान "चाहिये । तदनंतर खैर, कुटज, पाठा, पटोलपत्र, हलदी, त्रिकटु इनके समांश चूर्णको गरम पानी के साथ प्रतिदिन पिलानेसे कुष्ट, बवासीर, कीटकरोग, कछुरोग, एवं कफोत्थ सर्व रोगोंकी उपशांति होती है ॥ ७ ॥ I दोषादि चूर्णचतुष्क व्योषं वा मातुलुंगोद्भवरससहित संघवाव्यं समांश । क्षारं वा मुष्कभस्मोदकपरिगलितं पकमारक्तचूर्ण ॥ चूर्ण गोमूत्रपीतं समधृतमसस्त्रैफलं मार्कवं वा । श्लेष्मव्याधीनशेषान् क्षपयति बहुमूत्रामयानप्रमेयान् ॥ ८ ॥ भावार्थ:-- माहुरंग के रस सहित सैंधानमक, त्रिकुट के समाश चूर्ण. मुष्कवृके [ मोखावृक्ष ] लालवर्ण का क्षार, व समांश त्रिफला व भृंगराज चूर्ण गोमूत्र के Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४ ) कल्याणकारके साथ सेवन करने से सर्व कफ रोगोंको दूर करते हैं । एवं अत्यंत कठिन साध्य बहुमूत्र रोगको भी उपशमन करते हैं ॥ ८ ॥ हिंग्वादि चूर्णत्रय । हिंग्वेला जाजिचव्यत्रिकुटकयवजक्षारसौवर्चलं वा । मुस्तायोषा जमादामलकलवणपाठाभयाचित्रकं वा ॥ शिग्रु ग्रंथ्यक्षपथ्यामरिचमगधजानागरैला विडंगे। चूर्णीकृत्योष्णतोयैर्धृतयुतमथवा पीतमेतत्कफघ्नम् ॥९॥ अथवा भावार्थ: -- हींग, इलायची, जीरा, चात्र, त्रिकटुक, यवक्षार, कालानमक, अथवा नागरमोथा, त्रिकुटु, अजवाईन, आंवला, वालवण, पाठा, हरड, चित्रक, सेंजन, पीपलीमूल, बहेडा, हरड, मिरच पीपलो, सोंठ, इलायची, वायुविडंग, इनको चूर्ण करके गरम पानी या घृत में मिलाकर पीनेसे कफको नाश करता है ।। ९ ॥ बिल्वादिलेप | बिल्वाग्निग्नथिकांताकुलहलकुनटी शिमूलाग्निर्मथा- | नर्कालकग्रगंधात्रिकटुकरजनी सर्षपोष्णीकरंजान् ॥ कल्कीकृत्य प्रदेहः प्रबलकफमरुज्जातशेोफानशेषा - । निर्मूल नाशयेत्तान दवदहन इवामेयतार्णो रुराशीन् ॥ १० ॥ भावार्थ: बेल, चित्रक, पीपलीमूल, रेणु वजि, महाश्रावणी, गोरखमुण्डी, मनःशिला, सेंजनकाजड, अगेधु, अकौवा, सफेद अकौबा, वचा, त्रिकटु, हलदी, सरसौ, प्याज, करंज इनका कल्क बना कर उसे लेपन करें जिससे प्रबल कफ व वातसे उत्पन्न हरतरह की सूजन दूर होजाती हैं । बडे भारी तृणराशी को जिस प्रकार दावानल नाश करदेती है उसी प्रकार उक्त कल्क समस्त वातज और कफज रोगोंको दूर करता है ॥ १० ॥ I शिवादि लेप | शिग्रुव्याघातकाग्नित्रिकटुकहयमाराश्वगंधा जगधैः । aaf चक्रमर्दाल कलवणसद्भाकुची भूशिरीषैः ॥ क्षारांबुक्षीरतकै लवणजलयुतः लक्ष्णपिसमांशै । त्यलेपनार्थं क्षपयाति फिटवान् दककच्छनशेषान् ॥ ११ ॥ भावार्थ:-- सेंजन, करंज, चित्रक, त्रिकटुक, अश्वमार ( करनेर) अश्वगंध, रामतुलसी इनको, अथवा चकोंदा, आंवला सैंधानमक, बाकुची भूशिरीष इनको समांश Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कफरोगाधिकारः। __(१८५) लेकर क्षारजल या दृध या छाछ, लवणजलके साथ पीसकर महीन लेपन करें तो किटिभ कुष्ठ, दद्रु, कच्छू आदि अनेक कुष्ठविशेष दूर होते हैं, ॥ ११ ॥ धान्यादि लेप | धान्यक्षाहाभयाख्या त्रिकटुकरजनीचक्रमाद्रिकर्णी । निंबव्याघातकाग्निद्रुमलवणगणैः कांजिकातक्रपिष्टैः ॥ गाढामावर्तनालेपनयुतविधिना दद्रुकंडूकिलास-। प्रोसिध्मात्युग्रकच्छ्न् शमयति सहसा श्लेष्मरोगानशेषान् ॥१२॥ भावार्थः--आंवला, बहेडा, हरड, त्रिकटु, हलदी, चकोंदा, कोइल, नीम करं भिलावा, पांचो लवण, इनको कांजी व छाछमें पीसकर अवलेपन करनेसे दद्र, कंडू, किलास सिध्मारोग, उग्रकच्छू आदि अनेक श्लेष्म रोग उपशम होते है ॥ १२ ॥ धूमपानकवलधारणादि। धूमै; ग्रंथिहिंगुत्रिकटुककुनटीभव्यभामनिशानां । कल्केनालिप्तसूक्ष्मांवरवृतबृहदेरण्डवृतांतदत्तैः ॥ सिद्धार्थस्सर्षपादैयमरिचमगधजानागरश्शिमलैः । श्लष्मोद्रेकप्रशांतिं ब्रजति कवलगडूपसेकालेपैः ॥ १३ ॥ भावार्थः----पोपलामूल, हींग, त्रिकटु, धनिया, कभरख, भाङ्गी, हलदी, इन के कल्कको पताले वस्त्र पर लेप करके, उस कपडे के वीचमें एक, एरण्डका डंटल रख कर उसको लपेट लेवें । इस वत्तीमें आग लगाकर, इसका धूमपान करनेसे, तथा सफैद सरसों, सरसों, कालीमिरच, पीपल, सोंठ सेजनका जड इनके कवलधारण, गण्डूष, सेक, और लेपसे, कफप्रकोपका शमन होता है ॥ १३ ॥ एलादि चूर्ण एलात्वकागपुष्पोषणकमगधजानागरं भागवृध्या । संख्यातश्च्चूर्णित तत्समसितसहितं श्रेष्टमिष्टं कफघ्नम् ॥ पित्तामृपांडुरोगक्षयमदगुदजारोचकाजीर्णगुल्म-। ग्रंथिश्वासोरुहिक्काज्वरजठरमहाकासहृद्रोगनाशं ।। १४ ॥ भावार्थः ---इलायची एकभाग, दालचीनी दो भाग, नागकेसर तीन भाग, पीपल चार भाग मिरच पांच भाग, सोंठ छह भाग, इनको इस क्रमसे लेकर चूर्णकर सबक बराबर उसमें शक्कर मिलावें । इस चूर्ण के सेवनसे कफ रोग दूर होता है तथा पित्तरक्त, पांडुरोग, मद, क्षय, अरुचि, अजर्णि, खांसी, हृदयरोग को यह चूर्ण नाश करता है। अतएव यह श्रेष्ट है ॥ १४ ॥ २४ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) कल्याणकारके तालीसादि मोदक । तालीसंचैकभागं द्विगुणितमरिचं व्यंशशुंठीचतुर्भा-। गाढ्य सत्पिप्पलीकं त्वगमलबहुलं पंचभागप्रमाणं ॥ चूर्ण कृत्वा गुडेनामलकसमकृतान्मोदकान् भक्षयित्वा । कासोश्वासहिक्काज्वरवमथुमदश्लेष्मरोगानिहंति ॥ १५॥ भावार्थ:----एक भाग तालीस, दो भाग मिरच, तीनभाग सोंठ, चार भाग पीपल, द लचीनी इलायची ये दोनों मिलकर पांचभाग लेकर किये हुए चूर्णमें गुड मिलाकर आंवलेके वरावर गोली बनायें (इसे तालीसादि मोदक कहते हैं) उस मोदकको भक्षण कर से खांसी, ऊर्वश्वास, हिचकी घर, वमन, मद, व श्लेष्म रोग नाश होते हैं ।। १५॥ कफनाशक गण । शार्केष्टानक्तमालाद्वयखदिरफलाशाजकर्णाजशृंगैः । पिप्पल्येलाहरिद्राद्वयकुटजवचाकुष्टपुस्ताविडंगैः॥ निर्गुडीचित्रकारुष्करवरखरभूषार्जुनत्रैः फलाख्य- । भूनिबारग्वधाढ्यैः कफशमनमवाप्नोति सर्वप्रकारैः ॥ १६ ॥ भावार्थः—काकजंघा, दोनों करंज, (करंज पुतीकरंज) खैर, फलाश, विजयसार, मेढ सिंगो, पीपल, इलायची, हलदी, दारू हलदी, कूडाकी छाल, वच, कूट, नागरमोथा, वायुविडंग, निर्गुण्डी, चित्रक, भिलावा, मरवा, अर्जुन, त्रिफला, चिरायता, अमलतास ये सब औषधियां कमशमन को करनेवाली हैं। कुशल वैद्यको उचित हैं कि वह विकारोंके बलाबलको देखकर इन औषधिय का सर्वप्रकार (काथ चूर्ण आदि ) से प्रयोगकर का रोगका उपशमन करना चाहिये ॥ १६ ॥ .....कफनाशक, औषधियों के समुच्चय | यत्तिक्तं यच्च रूक्षं यदपि च कटुकं यत्कषाय विशुष्कं । यत्क्षारं यच्च तक्ष्णिं यदपि च विशदं यल्लघुद्रव्यमुष्णं ॥ तत्तत्सवे कफघ्नं रसगुणमसकृत्सम्यगास्वाद्य सवै । योज्यं भोज्येषु दोपक्रममिममवगम्यातुराणां हितार्थम् ॥ १७ ॥ २. तुगनवि बहुल इति पाठांतरं । इसके अनुसार दाल चीनी की जगह वंशको वन ग्रहण करना चाहिये । लेकिन वंशलोचन बोधक तुगा शब्द है । तुग नहीं है। तुगरा से अन्य किसी औषध का बोध नहीं होता है । तथा तालीसादि चूर्णमें वंशलोचन आदा। वह कफ नाशक भी हैं । इसालये इस को ग्रहण कर सकते हैं । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कफरोगाधिकारः। (१८७) भावार्थ:-जो पदार्थ कडुआ है, रूक्ष है, चरपरा है, कषायाला है, शुष्क है, क्षार है, तदिण है, विशद है, लघु व उष्ण है. ये सा पदार्थ कफनाशक हैं। उन सर्व ‘पदार्थोके रस व गुण बार-२ अच्छीतरह जानकर एवं गोपीयोंके दो पक्रामका भी अभीतरह जानकर उनके हितके लिये उन पदार्टीको भोजनादिमें प्रयोग करना चाहिये ।।१७ वातनाशक गण । एरंण्डौ द्वे बृहत्या, वरणकनृपवृक्षाग्निमंथाग्निशिग्रु- । ख्याताकोलकतकोयमरतरुमगुराख्य टुटूकवृक्षाः ।। मूवाकोरंटपलुिस्नुहियुततिलकास्तित्वकाः केंबुकाख्याः । वर्षाभूपाटलीकाः पवनकृतरुजाः शांतिमांपादयंति ॥ १८ ॥ भावार्थ:--लाल व सफेद एरण्ड, [ छोटी बडी ] दोनों कटेली, वरना, आमलतास, अगेथु, चित्रकका जड, सेंजन, अकौवा, सफेद अकौवा की छाल, पाडल, तारी देवदारु, लटजीरा, टेंटु, मूर्वा, पीयावास, पीलु, सेहुण्ड, मरूआ, लोध, पतंग, पुनर्नवा ये सब वात विकारोंको उपशम करनेवाले हैं ॥ १८ ॥ वातन्ने औषधियोंके समुच्चयन । यत्तीक्ष्णं स्तिग्धमुष्णं लवणमतिगुरुद्रव्यमत्यम्लयुक्तं । यत्सम्यक्पिच्छिलं यन्मधुरकटुकतिक्तादिभेदस्वभावम् ।। तत्तद्वातघ्नमुक्तं रसगुणमधिगम्यातुरारोग्यहेतोः । पानाभ्यंगोपनाहाहृतियुतपरिषेकावगाहेषु योज्यं ॥ १९ ॥ भावार्थ:-जो जो पदार्थ तीक्ष्ण है, स्निग्ध है, उष्ण है, खारा है, अयंत गुरु है, खट्टा है, पिच्छिल [ लिबलिवाहट ] है, मधुर है, चरपरा है, कडुआ आदि स्वभावोंसे युक्त वै वह बातविकारको नाश करनेवाला है । पदार्थों के रस व गुण को समझकर रोगियोंके हित के लिये उन पदार्थोंको पान, अभ्यंग, पुल्टिष, आहार, सेक, अवगाहन, आदि क्रियावों में प्रयोग करना चाहिये ॥ १९॥ पित्तनाशक गण। बिंबीनिंबेंद्रपुष्षीमधुकससहविश्वादिदेवीविदारी । काकोलीबृश्चिकाल्यंजनकमधुकपुष्पैरुशीराम्रसारैः ।। जबूरंभाम्बुदांब्बंम्बुजवरनिचुलैश्चंदनैलासमंगै- । यग्रोधाश्वस्थवृक्षैः कुमुदकुवलयः पित्तमायाति शांतिम् ।। २० ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८ ) कल्याणकारके भावार्थ:- कुंदुरु, नीम, लवंग, मुलैठी, सहदेवी, ( वृक्ष ) गंगेरन विदारीकंद, काकोली, वृश्चिकाली, रसोत, महवेका फूल, खस, आम्र, केला, नागरमोथा, सुगंधवाला, कमल, जलबेत, चंदन, इलायची, मंजिष्ठा, वट, अश्वत्थ, नीलकमल श्वेतकमल, इन पदार्थोके प्रयोग से पित्तका शमन होता है ॥ २० ॥ पित्तन्न औषधियों के समुच्चय । यत्स्निग्धं यच्च शीतं यदपि च मधुरं यत्कषाय सुतिक्तं । यत्साक्षात्पिच्छिलं यन्मृदुतरमधिकं यद्गुरुद्रव्यमुक्तम् ॥ तत्तत्पित्तघ्नमुक्तं रसगुणविधिना सम्यगास्वाद्य सबै । भोज्याभ्यंग प्रलेपप्रचुरतरपरीषेकनस्येषु योज्यम् ॥ २१ ॥ भावार्थ: जो जो पदार्थ स्निग्ध हैं, शीत हैं, मधुर है, कपायला है, तीखा है, चिकना है, मृदुतर है, गुरु है यह सब पित्तको उपशमन करनेवाले हैं । इसप्रकार रस व गुणोंको अच्छी तरह जानकर भोजन, अभ्यंग, लेपन, सेक, व नस्योमें प्रयोग करना चाहिये ॥ २१ ॥ गादि चूर्ण | त्वक्चैला पिप्पलीका मधुरतरतुगा शर्कराचातिशुक्ला | याथासंख्यक्रमेण द्विगुणगुणयुता चूर्णितं सर्वमेतत् ॥ व्यामिश्रं भक्षयित्वा जयति नरवरो रक्तपित्तक्षयासृ- । तृष्णावासीरुहिकाज्वरमदकसनारोच कात्यंतदाहान् ॥ २२ ॥ भावार्थ:- दालचीनी १ भाग, इलायची २ भाग, पीपल ४ भाग, बंशलोचन ८ भाग, शक्कर १६ भाग प्रमाण लेकर सुखाकर चूर्ण करें। फिर सबको मिलाकर खानेसे यह मनुष्य रक्तपित्त, क्षय, रक्त तृष्णा, श्वास, हिचकी, ज्वर, मंद, खांसी, अरुचि व अत्यंत दाह आदि अनेक रोगोंको जीतलेता है ॥ २२ ॥ दोषोंके उपसंहार | एवं दोषत्रयाणामभिहितमखिलं संविधानस्वरूपं । श्लोकैः स्तोकैर्यथोक्तैरधिकृतमधिगम्यामयानप्रमेयान् ॥ तत्तत्सर्व नियुज्य प्रशमयतु भिषग्दोषभेदानुभेद - । व्यामिश्राधिक्ययुक्त्या तदनुगुणलसद्भेषजानां प्रयोगैः ॥ २३ ॥ इसे व्यवहारमें रातोपलादि चूर्णके नामसे कहते हैं । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कफरोगाधिकारः। (१८९) भावार्थ:-इस प्रकार, तीनों दोषों के प्रकोप के कारण, कुपित होनेपर प्रकट होनेवाले लक्षण, और उसके प्रशमन उपाय, आदि सर्व विषय थोडे ही श्लोकों द्वारा, अर्थात् संक्षेप से, निरूपण किया गया है। कठिनतासे जानने योग्य इन रोगों के स्वरूप भेद आदि को अच्छतिरह जानकर, वैद्यको उचित है कि, दोषोंके भेद, अनुभेद, व्यामिश्र भेद, आधिक्य अनाधिक्य झ्यादि अवस्थाओंपर ध्यान देते हुए उनके अनुरूप श्रेष्ठ औषधियों को युक्ति पूर्वक प्रयोगकर के रोगोंको उपशमन करें ॥ २३ ॥ लघुताप्रदर्शन. द्रव्याण्यतान्यचित्यान्यगणितरसवीर्यप्रपाकप्रभावा- । न्युक्तान्यन्यान्यनुक्तान्यधिकतरगुणान्यद्भुतान्यल्पशास्त्रे ॥ वक्तुं शक्नोति नान्यस्त्रिभुवनभवनाभ्यंतरानेकवस्तु-। ... ग्राहिज्ञानकचक्षुस्सकलविदपि प्रांमुह्यते मद्विधःकिम् ॥ २४ ॥ . . भावार्थ:--अभीतक जो औषधियों के वर्णन किये गये हैं वे अचिंत्य हैं, अगणित रस बीर्य विपाक प्रभावोंसे संयुक्त हैं। लेकिन अधिक व अद्भुत गुणयुक्त, और भी अनेक औषध मौजूद हैं जिनके वर्णन यहां नहीं किया है । क्यों कि अगणित शक्तिके धारक, असंख्यात अनंत द्रव्योंका कथन इस अल्पशास्त्र में कैसा किया जासकता है। इस तीनलोक के अंदर रहनेवाले अनेक वस्तुओंको जानने में जिन का ज्ञान समर्थ है, इसीलिये सर्वविद् है ऐसे वेद्यों के कथन में भी औषधद्रव्य अपूर्ण रहजाते हैं तो फिर मुझ सरीखों की क्या बात ? ॥२४॥ चिकित्सासूत्र । दोषान्विचार्य गुणदोषविशेषयुक्त्या । सद्भेषजान्यपि महामयलक्षणानि ॥ योग्यौषधैः प्रतिविधाय भिपग्विपश्चि-- द्रोगान् जयत्यखिलरोगबलममाथी ॥२५॥ भावार्थ:-- सम्पूर्ण रोगरूपी सैन्य को मारने में समर्थ विद्वान् वैद्य, दोषों के विषय में विचार करते हुए, अर्थात् किस दोषसे रोगकी उत्पत्ति हुई है, कोनसा प्रबल है अबल है आदि बातोंपर ध्यान देते हुए श्रेष्ठ भेषजोंके गुणदोषोंको युक्तिपूर्वक समझकर तथा महारोगोंके लक्षणों को भी जानकर योग्य औषधियोंद्वारा चिकित्सा करके रोगों को जीतता है अथवा जीतना चाहिये ॥ २५॥ आषधि का यथालाभ प्रयोग। सैरेतैः प्रोक्तसद्भेपर्वाप्यधैरधैर्वा यथालाभतो वा । योग्यैर्योगैः मल्यनीकैः प्रयोगैः रोगाश्शाम्यत्यद्वितीयैरमोथैः ॥ २६ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९०) कल्याणकारके भावार्थ:-जो तत्तद्रोगनाशक, औषधगण, ( अभीतक कहें हैं । वे स्वकार्य करने में अद्वितीय हैं व अमोघ हैं इसीलिये योग्य योग हैं। अतएव सर्व औषधियों 'द्वारा, यदि गणोक्त सम्पूर्ण औषधियां न मिलें तो आधा, वा उसके आधा, अतंतो जितने मिले. उतनीसी ही औषधियोंसे चिकित्सा करें तो रोग अवश्य शमन होते हैं ॥ २६ ॥ साध्यासाध्य रोगोंके विषय में वैद्यका कर्तव्य । साध्यान्व्याधीन् साधयेदौषधाये-- । र्याप्यान् व्याधीन् यापयेत्कर्मभेदैः ॥ दुर्विज्ञेयान् दुश्चिकिरयानसाध्या- । नुक्त्वा वैद्यो वर्जयेद्वर्जनीयान् ॥ २७ ॥ भावार्थ:-साध्य रोगोंको औषधादिक प्रयोगसे साधन करना चाहिये । याप्यरोगोंको कुशल क्रियावोंके द्वारा याप्य करना चाहिये । दुर्विज्ञेय व दुश्चिकित्स्य ऐसे असाध्य रोगोंको असाध्य समझकर व कहकर छोडना चाहिये ॥२७॥ अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतमुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ।। २८ ।। भावार्थ:- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनीभूत सावनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ २९ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे ... श्लेष्मव्याधिचिकित्सितं नामादितो दशमः परिच्छेदः। इत्युमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषितः वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में कफरोगाधिकार नामक - दशम परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयारोगाधिकारः (१९१.) अथैकादशः परिच्छेद. महामयाधिकारः । मंगलाचरण व प्रतिक्षा. श्रियामधीशं परमेश्वरं जिनं । प्रमाणनिक्षेपनयमवादिनम् ॥ प्रणम्य सर्वामयलक्षणस्तह । प्रवक्ष्यते सिद्धचिकित्सित क्रमात् ॥ १ ॥ भावार्थ:-अंतरंग बहिरंग लक्ष्मीके स्वामी, परमैश्वर्यसे युक्त, प्रमाण, नय व निक्षेप के द्वारा वस्तुतत्वको कथन करनेवाले श्री जिनद्रेभगवानको प्रणाम करके क्रमशः समस्त रोगोंके लक्षणों के साथ सिद्ध चिकित्सा का वर्णन भी किया जायगा ॥१॥ प्रतिज्ञा न कश्चिदप्यस्ति विकारसंभवो । विना समस्तैरिह दोपकारणैः ॥ तथापि नामाकृतिलक्षणेक्षितानेशपरोगान्सचिकित्सितान ब्रुवे ॥ २ ॥ भावार्थ:--वात पित्त कफ, इस प्रकार तीन दोषोंके बिना कोई विकार [रोग] की उत्पत्ति होनेकी संभावना नहीं । फिर भी रोगोंके नाम, आकृति, लक्षण, आदिकोंको कथन करते हुए, तत्तद्रोगोंकी चिकित्सा भी कहेंगे ॥ २ ॥ वर्णनाक्रम महामयानादित एव लक्षण-स्सरिष्टवगैरपि तक्रियाक्रमैः ।। ततः परं क्षुद्रुरुजागणानथ । ब्रवीमि शालाक्यविषौषधैस्सह ॥ ३ ॥ भावार्थ:-सबसे पहिले महारोग उनके लक्षण, मरणसूचक चिन्ह, व उनकी चिकि सा भी क्रमसे कहेंगे । तदनंतर क्षुद्ररोग समुदायोंका, शालाक्यतंत्र व अगदतंत्रा का वर्णन करेंगे ॥ ३ ॥ महामय संज्ञा। महामया इत्यखिलामयाधिकाः । प्रमेहकुष्ठोदरदुष्टवातजः ॥ समूढगर्भ गुदांकुराश्मरी । भगंदरं चाहुरशेषवेदिनः ॥ ४ ॥ भावार्थ:--तब विषयको जाननेवाले [ सर्वज्ञ ] प्रमेह, कुष्ठ, उदररोग वातव्याधि, मूइगर्भ, बवासीर, अश्मरी, भगंदर, इनको महारोग कहते हैं || ४ ।। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२) कल्याणकारके महामय वर्णनक्रम । महामयानामखिलां क्रियां ब्रुवे । यथाक्रमाल्लक्षणतचिकित्सितः । असाध्यसाध्यादिकरोगसंभवप्रधानसत्कारणवारणादिभिः ॥५॥ भावार्थ -- उन महारोगोंकी संपूर्ण चिकित्सा, कमसे लक्षण, साध्यासाध्य विचार रोगोत्पत्ति के प्रधान कारण, रोगोत्पत्ति से रोकने के उपाय, आदियोंके साथ निरूपण करेंगे ॥ ५ ॥ अथ प्रमहाधिकारः । - प्रमेह निदान । गुरुद्रवस्निग्धहिमातिभोजन । दिवातिनिद्रालुतया श्रमालसं ॥. नरं प्रमेहो हि भविष्यतीरितं । विनिर्दिशेदाशु विशेषलक्षणः ॥ ६ ॥ भावार्थ:--गुरु, द्रव्य, स्निग्ध, व ठंडा भोजन अधिक करनेसे, दिनमें अधिक निद्रा लेनेसे, श्रम न करने से, आलस्य करनेसे प्रमेह रोग उत्पन्न होता है। लक्षणोंके प्रकट होनेपर उन्हे देखकर प्रमेह रोग है ऐसा निश्चय करना चाहिये ॥ ६ ॥ . प्रमेहका पूर्वरूप। स्वपाणिपादांगविदाहता तृषा । शरीरसुस्निग्धतयातिचिकणम् ।। मुखातिमाधुर्यमिहातिभोजनम् । प्रमेहरूपाणि भवंति पूर्वतः ॥ ७ ॥ भावार्थ:-अपने हाथ पैर व अंग में दाह उत्पन्न होना, अधिक प्यास लगना, शरीर स्निग्ध व अतिचिकना होना, मुग्व अत्यंत मीठा होना, अधिक भोजन करना, यह सब प्रमेह रोगके पूर्वरूप हैं ॥ ७ ॥ प्रमेहकी संप्राप्ति. अथ प्रवृत्ताः कफपित्तमारुतास्समदसो बस्तिगताः प्रपाकिनः ॥ प्रमेहरोगान् जनयंन्त्यथाविल- । प्रभूतमूत्रं बहुशस्वीत ते ॥ ८॥ भावार्थ:--प्रकुपित कफ पित्त व वात गेहके साथ २ बस्ति में जाकर जब परिपाक होते हैं तब प्रमेह रोगको उत्पन्न करते हैं। इससे गंदला मत्र अधिक प्रमाण से निकलने लगता है यही प्रमेह का मुख्य लक्षण है ॥ ८ ॥ प्रमेह विविध है। इह प्रमहा विविधा स्त्रिदोषजा- स्स्वदोषभेदात् गुणमुख्यभावतः ॥ ते एव सर्वे निजदुर्जया मताः । नटा इवानेकरसस्वभाविनः ॥ ९ ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः (१९३ ) भावार्थ:-यह प्रमेइ, वात, पित्त, कफ, इन दोषोंसे, उत्पन्न होने पर भी दोषभेद, घ दोषों के गौण मुख्य भेद के कारण, अनेक प्रकारका होता है । जैसे, नाटक में एक ही वेषधारी, अनेक रस व स्वभाव में मग्न रहता है वैसे ही यह प्रमेह अनेक प्रकारका होता है । सम्पूर्ण प्रमेह, स्वभाव से ही दुर्जय होते हैं ॥ ९ ॥ . प्रमेहका लक्षण । स पूर्वरूपेषु बहूदकं यदा । सवेत्प्रमेहीति विनिर्दिशेनरं ॥ प्रमीढ इत्येव भवत्पमेहवान । मधुप्रमही पिटकाभिरन्वितः ॥१०॥ भावार्थ:-जब पूर्वरूप प्रकट होते हुए यदि अधिक मूत्र को विसर्जन करने लगेगा तब उसे प्रमेह रोग कहना चाहिए। प्रमेहवान् को प्रमीढ ऐसा कहते हैं । यदि प्रमेहकी चिकित्सा शीघ्र नहीं की जावे तो, वही कालांतरमें मधुमेहके रूपको धारण कर लेता है । इसलिए रोगी मधुमेही कहलाता है एवं प्रमेहपिटिका (फुशी ) से युक्त होता है ॥१०॥ दशविध प्रमेहपिटकाः। शराविका सर्पपिका सजालिनी । सपुत्रिणी कच्छनिका ममरिका ।। विदारिका विद्रधिकालनी पता । प्रमेहिणां स्थुः पिटका दशैव ताः ।।११॥ भावार्थ:-शराविका, सर्पपिका, जालिनी, पुत्रिणी, कच्छपिका, मसूरिका, विदारिका, विद्रधिका, अलजी, विनता, इस प्रकार वह प्रमेहपिटक दश प्रकारके हैं ॥११॥ शराविकालक्षण। समंचका क्लेदयुतातिवेदना । सनिम्नमध्योन्नततोष्ठसंयुता ॥ शरावसंस्थानवरमभाणता । शराबिकेति प्रतिपाद्यते बुधैः ॥ १२ ॥ भावार्थः-वह पिटक अनेक वर्ण व स्राव युक्त हो, अतिवेदनायुक्त हो उसका मध्यभाग नीचा व 'किनारा ऊंचा होकर सरावेके आकार में हो तो उसको विद्वान् छो। शराविका कहते हैं ॥ १२॥ सर्पपिका लक्षण । सशीघ्रपाका महती सवेदना। ससर्पपाकारसमप्रमाणता ॥ समूक्ष्मका स्वल्पधना द्विधा च सा। प्रभाषिता सर्षपिका विदग्धकैः।।१३॥ भावार्थ:-जल्दी पकनेवाला, अतिवेदनासे युक्त, सरसौके आकार के बराबर होता हो, छोटे २ हो, ऐसे पिटकोंको विद्वान् लोग सर्षपिका कहते हैं ॥ १३ ॥ २५ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४) कल्याणकारके जालिनी लक्षण । समांसनाडीचयजालकावृता । महाशयायतिसतोदनान्विता ॥ मुस्निग्धसंस्रावि ससूक्ष्मरंध्रका । स्तब्धा सजालिन्यपि कीर्त्यते ततः॥ भावार्थ:-जो मांस व नाडीसमूह के जालेस आवृत हो, बडा हो, अत्यंत पाडा व तोदनसे युक्त हो, स्निग्य हो, जिससे स्राव होता हो, सूक्ष्मरंध्रांसे युक्त हो, स्तब्ध हो उसको जालिनी पिटक कहते हैं ॥ १४ ॥ . - पुत्रिणी, कच्छपिका, मसूरिका लक्षण। समूक्ष्मकाभिः पिटकाभिरन्विता । प्रवक्ष्यते सा महती सपुत्रिणी। महासमूलातिघनार्तिसंयुता । सकच्छपापृष्ठनिभातितोदना ॥१५॥ सदापि संश्लक्ष्णगुणातिखेदना । निगद्यते कच्छपिकापि पण्डितैः । ममूरकाकारवरप्रमाणा मनाक् सतोदा च मसरिकोक्ता ॥१६॥ भावार्थ:----सूक्ष्मपिटक युक्त हो व बडी हो उसे पुत्रिणी कहते हैं। एवं मूलमें जो बडी हो, बडे भारी पांडासे युक्त हो, कछुवेक पीठ के समान आकारवाली हो, अति सोदनसे युक्त हो, चिकनी हो, अत्यंत खेद उत्पन्न करनेवाली हो उसे विद्वान् लोग कच्छपिका कहते हैं । मसूरके आकारसे युक्त व तोदनसे सहित पिटकको मसूरिका कहते विदारी, विद्रधि, विनताका लक्षण । विदारिका कंदकठोरवृत्तता । विदारिका वेदनया समन्विता। सविद्रधिः पंचविधः प्रकल्पितः । समस्तदोषैरपि कारितैः पुरा ॥१७॥ सवर्णकः शीघ्रविदाहितायास्सविद्रधिश्वेद्विविधो मयोदितः। . उन्नम्य तीवदेहति त्वचं सा स्फोटेवृता कृष्णतरातिरक्ता ॥ १८ ॥ तृण्माहसंजर्तिकरी सदाहा भूयिष्ठकष्टाप्यलजी समुक्ता। पृष्ठोदरायन्यतरप्रसिद्धाधिस्थानभूता महती सतोदा ॥ १९ ॥ गाहातिरुक्क्लेदयुता सनीला । संकल्पितेयं विनता विराजिता ।। त्रिदोषनास्सर्वगुणास्समस्ता - त्रिदोषलक्ष्मांकितवर्णयुक्ता ॥ २० ॥ . भावार्थः---विदारिका कंदके समान कठोर व गोल जो रहती है उसे विदारिका करते हैं । समस्त दोषोंसे उत्पन्न, वेदनासे युक्त विद्रधि पांच प्रकारसे विभक्त है । फिर १. भेदभा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... महामयाधिकारः। भी मुख्य रूपसे यहां सवर्णक व शीघ्रविदाहिके भेदसे दो ही प्रकारसें वर्णन किया है । उठती हुई 'जो त्वचामें खूब दाह उत्पन्न करती हो, फफोलेसे युक्त हो, जिसका वर्ण काला व लाल हो, तृषा व मोह दाह को करती हों जो अत्यंत कष्टमय हो उसे अलजी कहते हैं.। पृष्ठ उदरस्थानोमें से किसी एक स्थान में होकर उत्पन्ना, अत्यंत तोदनसे( सुई चभने जैसी पीडा ) युक्त, पीडा व गाढ बाब से युक्त नीलवर्णवाली, इसे विनता कहते है। . तीन दोषोंसे पिटिकाओंकी उत्पत्ति होती है । इसलिये इसमें तीनों दोषो में कहे गये लक्षण गुण, आदि पाये जाते हैं ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥ २० ॥ पिटिकाओंके अन्वर्थ नाम । शराविकाद्याः प्रथितार्थनामकास्सविद्रधिश्चापि भवेत्सविदाधिः ॥ सरक्तविस्फोटवृतालजी मता-प्युपद्रवान् दोषकृतान् ब्रवीभ्यहम् ।। २१ ॥ भावार्थ:-उपर्युक्त शराविका आदि पिटिकायें अन्वर्थ नामोंसे युक्त हैं। अर्थात नामके अनुसार आकृति गुण आदि पाये जाते हैं । जैसे कि जो विद्रधि के समान है, उसका नाम विद्रधि हैं । तथा, जो लाल स्फोटों [ फफोले जैसे ] से युक्त हो उस का नाम अलजी है । अब हम दोषोंसे उत्पन्न उपद्रवोंको कहते हैं ।। २१ ॥ कफप्रेमहका उपद्रव ।। अरोचकाजीर्णकफप्रसेकता-पीनसालस्यमथातिनिद्राः॥ समक्षिकासर्पणमास्यपिच्छिलं । कफप्रमेहेषु भवेत्युपद्रवाः ॥ २२॥ अर्थ:----अरुचि, अजीर्ण, कफगिरना, पीनस ( नाकके रोगविशेष ) आलस्य, अतिनिद्रा, रोगीके ऊपर मक्खी बैठना, मुखमें लिवलिवाहट होना, इत्यादि कफज प्रमेहमें उपद्रव होते हैं ॥ २२ ॥ ..... पैतिक प्रमहके उपद्रव । समेमुष्कक्षतवस्तितोदनं । विदाहकृच्छ्लपिपासिकाम्लिकम् । ज्वरातिमूीमदपाण्डुरोगताः । सपित्तमेहेषु भवत्युपद्रवाः ॥ २३ ॥ भावार्थ:-लिंग, अण्डकोश में जखम होना व बस्तिस्थान ( मूत्राशय ) में दर्द को करनेवाले शूल अर्थात् पैत्तिक शूल होना, विदाह, पिपासा, ( प्यास ) मुखमें खट्टा मालुम होना, ज्वर, मूर्छा, मद, पाण्डुरोग, ये सब पित्तप्रमेहमें होनेवाले उपद्रव हैं ॥ २३ ॥ . वातिकप्रमेहके उपद्रव । सहृद्ग्रहं लौल्यमनिद्रया सह । प्रकम्पशूलातिपुरीषबंधनम् । ' प्रकासाहकाश्वसनास्यशोषण । स्वालमेहेषु भन्युपञ्चाः ॥२४॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) कल्याणकारके भावार्थः – हृदयका ग्राह (कोई पकड़कर खींचता हो ऐसे मालूम होना ) इंद्रियों के विषय में लोलुपता होना, निद्रा नहीं आना, शरीरमें कंप ( कांपना ) अतिशूल, मलावरोध, खांसी, हिचकी, खास होना, मुखके सूखना, ये सब बातप्रमेह होनेवाले उपद्रव हैं ॥ २४ ॥ प्रमेहका असाध्य लक्षण । वसाघृतक्षौद्रनिभं त्रवंति ये । मदांधगंधेभजलप्रवाहवत् ॥ सृजंति ये मूत्रमजस्रमाविलं । समन्विता ये कथितैरुपद्रवैः ॥ २५ ॥ गुदांसहत्पृष्ठशिरो लोदरस्समजाभिः पिटकाभिरन्विताः ॥ पिबति ये स्वप्नगतास्तरंति ये नदीसमुद्रादिषु तोयमायत्तम् ||२६|| यथोक्तदोषानुगतैरुपद्रवै- स्समन्विता ये मनुवत्रंत्यपि ॥ विशीर्णगात्रा मनुजाः प्रमेहिणोऽचिराम्रियते न च तानुपाचरेत् ||२७|| भावार्थ:- वसा, वृत, मधुके समान व मदोन्मत्त हाथ के गण्डस्थलसे स्राव होनेवाले मदजलके सम्मान जिनका गंदला मूत्र सदा बह रहा हो एवं उपर्युक्त उपद्रवोंसे सहित हो, गुअस ( कंधा ) हृदय, पीठ, शिर, कंठ, पेट, व मर्मस्थान में जिनको पिटिकायें उत्पन्न हुई हों, एवं स्वप्न में नदी समुद्र इत्यादिको तैरते हों या उनका पानी पीते हों, पूर्वोक्त दोषानुसार उपद्रवोंसे युक्त हों, मधुके समान मूत्र भी निकलता हो, जिनका शरीर अत्यंत शीर्ण ( शिथिल ) हो चुका हो ऐसे प्रमेही रोगी जल्दी मरजाते है । उनकी चिकित्सा करना व्यर्थ है ।। २५ ।। २६ ।। २७ ॥ प्रमेहचिकित्सा | सदा त्रिदोषाकृतिलक्षणेक्षित- प्रमेहरूपाण्यधिगम्य यत्नतः ॥ भिषक्तदुद्वेकवशादशेषवित् क्रियां विदध्यादखिलमहिणां ।। २८ ।। भावार्थ:- सर्व विषयको जानने वाले, वैद्यको उचित है कि वह उपर्युक्त प्रकार से त्रिशेषोंसे उत्पन्न प्रमेहका लक्षण व आकरको दोष देकके अनुसार, प्रयत्नपूर्वक जानकर, संपूर्ण प्रहियोंकी चिकित्सा करें ॥ २० ॥ surjer चिसाः । पै 1 कृशस्तथा स्थूल इति प्रमेहिणौ । स्वजन्मतोऽपथ्यनिमित्ततोऽपि यौ || तयोः कृशस्याधिकपुष्टिवर्धनैः । क्रियां प्रकुर्यादपरस्य कर्षणैः ॥ २९ ॥ भावार्थ:- जन्मसे अथवा अपथ्यके सेवन से प्रमेह के रोगी दो प्रकार के होते हैं। एक कृश ( पहला ) दूसरा स्थूल [11 में वृको पुष्टि ऐ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। ( १९७) औषधियोंसे पुष्ट, ध स्थूलको कषण ( पतला करनेवाले ) प्रयोगसे कृश, करना चाहिये ॥ २९॥ प्रमेहियोंके लिये पथ्यापथ्य सुरासवारिष्टपयोघृताम्लिका । अभूतमिष्टान्नदधीक्षुभक्षणम् । विवर्जयेन्मांसमपि अमेहबान । विरूक्षणाहारपरो नगं भवेत् ॥ ३० ॥ भावार्थ:---प्रमेही रोगी मद्य, आसवारिष्ट, दूध, घी, इमली, (अन्य ख पदार्थ, मिष्टान्न, दही, ईख, मांस आदि आहारको छोडकर कक्षाहार को लेने ॥ ३० ॥ प्रलेहीके बसन विरेचन । तिलातसीसपतलभावितं- स्वदेहमेहातुरमाशु वारयेन् । सनिंबतोयमदनोद्भवैः फलै-- विरेचयेच्चापि विरंचनौषधैः ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-प्रमेही रोगी के शरीरको तिल, अलसी व सरसोंके तेलसे स्नेहिस ( स्नेहनक्रिया ) करके नीमका रस व मेनफल के कपाय से वमन कराना चाहिये । एवं विरेचन औषत्रियोंद्वारा विरेचन कराना चाहिये ।। २१ ॥ निरूहबस्ति प्रयोग। विरेचनानंतरमेव सं नरं। निरूहयेच्चापि निरूहणौषधैः । गवांबुयुक्तस्तिलतैलमिश्रिते -- स्ततो विशुद्धांगमर्माभिराचरेत् ॥ ३२॥ भावार्थ:--विरेचन के अनंतर गोमुत्र व तिलतलसे मिश्रित निरूहण औषधियोंके द्वारा निरूह बस्ति देनी चाहिये । उसके बाद उप्त शुद्ध अंगवालेको निम्न लिखित पढ़ाणसे उपचार करें ॥ ३२ ॥ ___ प्रमेहीकालय भोज्यपदार्थ । प्रियंगुकोहालकशालिपिष्टकैः । सकंगुगोधूमयवानभाजनैः । . कषायतिक्तैः कटुकैस्सहाढकी -- कलायमुरैरपि भोजयेद्भिषक् ॥ ३३ ॥ भावार्थः-प्रियगु | फुलप्रियंगु ] जंगली कोडव, शालिधानका आटा; कांगुनी धान, गेहूं, जो तथा कपायले, चरपरे कडुये पदार्थोके साथ एवं अरहर, मटर व मूग का उसे भोजन करना चाहिये ।। ३३ ॥ आमलकारिष्ट। निशां विचूण्यामलकांवुमिश्रितां । घटे निषिक्य प्रपिधाय संस्कृते ॥ जधायकूऐ विहितं यथावल लिहीत महान् कपतो. निषेत्रित्म् ॥ २१... Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) कल्याणकारके TREE भावार्थ:-हलदीको अच्छीतरह पीसकर आंवले के रस या काढेमें मिलावे । फिर उसे एक धूप आदि से संस्कृत घडेमें डालकर उसका मुह अच्छी तरह बांधे। फिर धानसे भरे हुए, गढ़े में । एक महिनेतका रखें । फिर वहां अच्छीतरह संस्कृत होनेके बाद निकालकर ग्रमहीको सेवन करावें तो प्रमेह रोग दूर हो जाता है ॥ ३४॥ निशादिकाथ। निशां समुस्तात्रिफलां सुरेधनम् । विपच्य निष्काथमिह प्रयत्नतः। पपाय नित्यं कफमेहमागम- प्रणीनमार्गाद्विजितेंद्रियो जयेत् ॥ ३५ ॥ भावार्थः . जिसने आगमोक्त मार्गसे, इन्द्रियोंको जीत लिया है ऐसे प्रमेह रोगीको हलदी, नागरमोथा, त्रिफला, देवदारु इनसे बनाये हुए कपायको सदा पिलाकर कफप्रमेहको जीतना चाहिये ॥ ३५ ॥ चंदनादि क्वाथ। 'मचंदनंद्राशनतिंदुकद्रुमैः । क्षरत्पयोवृक्षगणैः फलत्रयैः । कृतं कषायं घनकल्कमिश्रितं स पाययेत्पत्तिकमेहजातकान् ॥ ३६ ॥ भावार्थ:----चंदन, जायफल, इंद्र, असन, तेंदुवृक्ष, पंच क्षीरीवृक्ष [ वड, गूलर, पीपल, पाखर, शिरीष ] त्रिफला इनसे बनाये हुए कषायमें नागरमोथाका कल्क मिलाकर पिलानेसे पैत्तिक प्रमेह दूर होता है ॥ ३६ ।। कपित्यादि क्वाथ । कपित्थीवल्वासनधावनीनिशा । हरीतकाक्षामलकार्जुनांघ्रिपः । श्रितं कषायं प्रपिबेत् जितेंद्रियो। जयेत्प्रमेहानखिलानुपद्रवैः ॥ ३७ ॥ भावार्थ-कैथ, बेल, विजयसार, पिठवन, हलदी, हरडा, बहेडा, आंवला, और अर्जुनवृक्ष की छालसे बनाये हुए कपायको पीनेसे जितेंद्रिय रोगी प्रमेहरोगको उपद्धके साथ २ जीत लेता है ।। ३७ ।।. खर आदिके मलोपयोग। रखरोष्ट्रगोमाहिषवाजिनां शक- द्रसेन संमिश्रितपिष्टभक्षणः ॥ . तथैव तद्भस्मविगलितोदक- प्रपानभोजैर्जयति प्रमेहवान् ॥ ३८ ॥ भावार्थ:---गधा, ऊंठ, गाय, भैंस, घोडा, इनके मलरससे मिश्रित शालि गेंहू आदि के आटे को खानेसे; एवं उसी मलको जलाकर बनाये हुए भस्मसे छने हुए जलको पानं भोजन में उपयोग करनेपर प्रमेह रोग दूर होता है ।। ३८॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापयाधिकारः। ( १९९) त्रिफला काथ। फलत्रिककाथघृतं शिलाजतु । अपाय मेहानखिलानशेषतः ।। जयेत्प्रमेहान् सकलैरुपद्रवः । सह प्रतीतान पिटकाभिरन्वितान् ॥३९॥ भावार्थ:-त्रिफला, घी, शिलाजीत इनका काथ बनाकर पिलावे तो अनेक उपद्रवोंसे सहित एवं प्रमेह पिटकोंसे युक्त सर्वप्रमेह रोगको भी पूर्णरूपेण जीत लेता है ॥ ३९॥ प्रमहीके लिए विहार । सदा श्रमाभ्यासपरो नरो भवेदशेषमहानपहर्तुमिच्छया : गजाश्वरोहेरखिलायुधक्रम-क्रियाविशेषैः परिधावनादिभिः ॥ ४० ॥ भावार्थः-----प्रमेहरोगको नाश करने के लिए मनुष्य सदाकाल परिश्रम करनेका अभ्यास करें । हाथी पर चढना, घोडेपर चढना, आयुध लाटी वगरेह चलाना व दौडना आदि क्रिया विशेषोंसे, श्रम होता है । इसलिये प्रमेहीको ऐसी क्रियावोंमें प्रवृत्त होना चाहिये ॥ ४० ॥ कुलीनको प्रमेहजयार्थ क्रियाविशेष । कुलीनमात धनहीनमद्भुतं । प्रमहिनं साघु वदतिक्रमात् । . मडबघोषाकरपट्टणादिकान् । विहृत्य नित्यं व्रज तीर्थयात्रया ॥४१॥ भावार्थ:---जिसका रोग कृसाध्य है ऐसा प्रमेही यदि कुलीन हो एवं धनहीन हो तो उसे ग्राम नगरादिकको छोडकर पैदल तीर्थयात्रा करने के लिये कहें जिससे उसे श्रम होता है ॥ ४१ ॥ प्रमेहजयार्थ नी कुलोत्पन्न का क्रियाविशेष । कुलेतरः कूपतटाकवापिकाः । ग्वनेत्तथा गां परिपालयेत्मदा । दिवैकवेलापगृहनिभैक्षभु- जलं पिबेगोगणपानमानितम् ॥ ४२ ॥ भावार्थ:-नीचकुलोत्पन्न एवं निधन प्रमेही कुआ, तालाब आदिको ग्वोदें, एवं उसे गाय भैस आदिको चरानेके लिंक के । भिक्षावृति में भोजन को दिनमें एक दफे स्वाना चाहिये । तथा गायोको पनि लायक ऐसा पानी पीना चाहिये ।। ४२ ।। पिरिकोत्पत्ति यथोक्तमार्गाचरणौषधादिभिः । क्रियाविहीनस्थ नरस्य दुस्सहाः। अधःशरीर विविधा विशेपतो। भवन्त्योत्ताः पिटिकाः ममेहिणः ॥१३॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) कल्याणकारके भावार्थ:----उपरोक्त प्रकार में आहार, विहार, औषध आदि द्वारा प्रमेह रोगीकी चिकित्सा न की जावें तो उसके शरीरके नीचले भाग में नाना प्रकारकी दुस्सह, पूर्वकथित पिटिकायें निकलती हैं ॥ ४३ ॥ प्रहपिटिका चिकित्सा । अतस्तु तासां प्रथमं जलायुका - निपातनाच्छोणितमोक्षणं हितम् । विरेचनं चापि मुतीक्ष्णमाचरेन्मधुप्रमेही खलु दुर्तिरिच्यते ॥ ४४ ॥ भावार्थः ....इसलिए सबसे पहिले हितकर है कि उन पिटकोंके ऊपर मोक लगाकर रक्तमोक्षण करना चाहिए उसके बाद तीक्ष्ण विरेचन कराना चाहिए । मधु प्रमेहीको विरेचन कष्टसे होता है ॥ ४४ ॥ विलयन पाचन योग। मुसर्पपं मूलकबीजसंयुतं । स सैंधवोष्णीमधुशिगुणा सह ॥ कटुत्रिकोष्णाखिलभेषजान्यपि । अपाचनान्यामविलायनानि च ॥ ४५ ॥ दारणशोधनरापणाक्रया । पपीडनालेपनबंधनादिकान् । क्रियाविशेषानभिभूय यदलात् ।। स्वयं प्रपकाः पिटिका भिषग्वरो । विदार्य संशोधनरोपजेयत् ।।४६॥ - भावार्थ:-पाचन करनेवाले एवं आम विकारको नष्ट करनेवाले सरसौं, मूलीका बीज, सेंधालवण, संजन व त्रिकटु इन औषधियों ने पीडन, आलेपन, बंधन आदि क्रियावोंको करनी चाहिए, जिससे वह पिटक स्वयं पक जाते हैं। जब वैद्यको उचित है कि उसका विदारण [ चीरना ] करें । तदनंतर उस व्रणको स्वच्छ रखनेवाली औषधियोंसे संशोधन कर, फिर ब्रण भरकर आने योग्य औषधियोंसे भरनेका प्रयत्न करें ।। ४५-४६॥ হাঁঘন আঁধাঘস্থা। करंजकांनीरनिशाससारिवाः । सनिवपाठाकटुरोहिणींगुदी ॥ सराजवृक्षेद्रयवेंद्रवामणी पटोलजातीव्रणशोधने हिताः ॥४७॥ ... मावार्थ:-- करंज, जीरा, हटदी, सारिख, नीम पाठा, कुटकी, इंगुद, अमलतास, इंजौ, इंद्रायन, जंगली परबल, चमेली, ये सब त्रणशोधन (पीप आदि निकालकर शुद्धि करने ) में हितकर औषधियां हैं ॥ ४०॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः रोपण औषधियां । तिलाः सलोधा मधुकार्जुनत्वचः । पलाशदुग्धधिपतृतपडवाः । कदंब जम्ब्वाम्रकपित्थतिंदुका: । समंग एते व्रणरोपणे हिताः ॥ ४८ ॥ भावार्थ: - तिल, लोध, मुलैठी, अर्जुनवृक्षकी छाल, पलाश [ ढाक ] क्षीरीवृक्ष' [ वड, गूलर, पीपल, पाखर, शिरीप ] के कोंपल, कदंब, जामुन, आम, कैथ, तेंदु, मंजिष्ठा, ये सब ओषधियां त्रणरोपण ( भरने ) में हितकर हैं || ४८ ॥ ( २०१ ) रोपण वर्त्तिका । सवज्रवृक्षार्क कुरंटकोद्भवैः । पयोभिरात्तैस्सकरंजलांगलैः । ससैंधवांकोलशिलान्वितैः कृता । निर्हति वर्तित्रेणदुष्टनाडिकाः || ४९|| भावार्थ - दुष्ट नाडीव्रण में थोहर, अकौआ, कुरंटवृक्ष, इनके दूध व करंज, कलिहारी सैंधानमक, अंकोल, मेनशिल इनसे बनाई हुई बत्ती को व्रणपर रखने, दुष्टव्रण, नाडीव्रण आदि नाश होते हैं अर्थात् रोपण होते हैं । ॥ ४९ ॥ सद्योव्रण चिकित्सा | विशोध्य सद्यो व्रणव पूरणं । घृतेन संरोपणकल्कितेन वा ॥ सुपिष्टयष्टीमधुकान्वितेन वा । क्षतोष्मणः संहरणार्थमिष्यते ॥ ५० ॥ भावार्थ:-संयोत्रणको अच्छी तरह धोकर, उसके मुखमें घी [ उपरोक्त ] रोपण कल्क, अथवा मुलेठी के कल्कको जखमकी गर्मी शांत करनेके लिए भरना चाहिए ॥५०॥ बंधनक्रिया । सपत्रदानं परिवेष्टयेणं । सुसूक्ष्मवस्त्रावयवेन यत्नतः । स्वदोषदेहवणकालभावतः सदैव बद्धं समुपचारेद्भिषक् ॥ ५१ ॥ भावार्थ:- इस प्रकार ऋण में कल्फ भरने के बाद, उसके ऊपर पत्ते रख कर, उस पर पतले कपडे से लपेटना चाहिये अर्थात पट्टी बांधनी चाहिये । ततद्दोष, शरीर, व्रण, काल, भाव, इत्यादि पर ध्यान देते हुए, व्रण को हमेशा बांधकर वैद्य चिकित्सा करें ॥ ५१ ॥ धनपश्चाक्रिया । ततो द्वितीयेऽहनि मोक्षणं । विधाय पूयं विनिवर्त्य पीडनैः । Terrain auntys: पुन - विधाय बंधं विदधीत पूर्ववत् ।। ५२ ।। १ शस्त्र अस्त्र आदि से अकस्मात् जो जखम होती है उसे सद्योत्रण कहते हैं । २६ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) कल्याणकारके भावार्थ:- - उ के बाद दूसरे दिन उस पट्टीको खोलकर पीडन क्रियाओंके द्वारा अर्थात् उस व्रणको अच्छी तरह दात्रकर उसके पूयको निकालना चाहिये । फिर कषाय जल से धोकर पूर्ववत् औषधि वगैरह लगाकर उसको बांधना चाहिये ॥ ५२ ॥ बंधन फल | स बंधनात् शुध्यति रोहति वणी | मृदुत्वमायाति विवेदनां भवेत् । अतस्सदा बंधनमेव शोभनं व्रणेषु सर्वेष्वयमेव सत्क्रमः ॥ ५३ ॥ भावार्थ:- उपर्युक्त प्रकारले पट्टी बांधने से वह फोडा शुद्ध होजाता है | भर जाता है, मुदु व वेदनारहित होजाता है । इसलिये उसको बांधना ही योग्य है । सर्व व्रणचिकिरामें यही क्रम उपयुक्त है ॥ ५३ ॥ व्रण चिकित्सा समुच्चय । I यथोक्तसद्भेषजवर्गसाधितं । कषायकल्काज्यतिलोद्भवादिकं । विधीयते साधनसाध्यवेदिना । विधानमत्यद्भुतदोषभेदतः ॥ ५४ ॥ भावार्थ:---रोग के साध्य साधनभाव को जानने वाला वैद्य दोषोंके बलाबल को देखकर पूर्व में कहे हुए औषधियोंसे साबित कषाय, कल्क, घृत व तैल आदिका यथोपयोग प्रयोग करें ॥ ५४ ॥ शुद्ध व रूढ व्रणलक्षण | स्थिरो निरस्रावपरो विवेदनः । कपोतवर्णान्तयुतोऽतिमांसलः ॥ व्रणस्स रोहत्यतिशुद्धलक्षणः । समस्तवर्णो भवति प्ररूढवान् ॥ ५५ ॥ भावार्थ:- जो व्रण स्थिर हो गया हो, जिससे पीप नहीं निकलता हो, वेदना रहित हो, त्रणके अंदरका भाग कपोत वर्णसे युक्त हो, अत्यंत मांससे युक्त हो अर्थात् भरता आ रहा हो, तो उसे शुद्धत्रण समझना चाहिये । शुद्ध व्रण अवश्य भरता है | त्वचाके समतल, व समान वर्ण होना यह रूढ ( भरा हुआ ) ऋण का लक्षण है ॥ ५५ ॥ प्रमेहविमुक्त लक्षण । यदा प्रमेही विशदातितिक्तकं । सरूक्षसक्षारकदुष्णमूत्रकम् ॥ कदाचिदल्पं विसृजेदनाविलं । तदा भवेन्मेहविहीनलक्षणम् ॥ ५६ ॥ भावार्थ:- -जब प्रमेही विशद, अति कडुआ, रूक्ष, क्षार व मंदोष्ण (थोडा गरम ) व निर्मल गंदला रहित मूत्रको कभी २ थोडा २ विसर्जन करता हो तब उसे प्रमेह रोगसे वियुक्त समझना चाहिये ॥ ५६ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२०३) प्रमेह पिडिका का उपसंहार । एवं सर्वमुदीरितं व्रगमिमं ज्ञात्वा भिपक्छोधनैः । शाध्यं शुद्धतरं च रांपणयुतैः कल्कैः कषायैरपि ॥ क्षाराण्यौपधशस्त्रकर्मसहितों येन साध्यो भवे त्तेनैवात्र विधीयते विधिरयं विश्वामयेष्वादरात् ॥ ५७ ॥ भावार्थ:---इस प्रकार उपर्युक्त सर्व प्रकारके व्रण व उनके भेद को जानकर कुशल वैद्यको उचित है कि वह शोधनप्रयोगोंके द्वारा उन व्रणोंका शोधन करें। जब व्रण शुद्ध हो जाय तब कषाय, कल्क आदि रोपण प्रयोगोंके द्वारा रोपण करना चाहिये । एवं क्षार, औषधि, शस्त्रकर्म आदि प्रयोग जो जिससे साध्य हो उसका उपयोग करना चाहिये ॥ ५७ ॥ कुष्ठरोगाधिकार ! कुष्ठं दुष्टसमस्तदोषजनितं सामान्यतो लक्षणः ॥ दोषाणां गुणमुख्यभेदरचितैरष्टादशात्मान्यपि ॥ तान्यत्रामयलक्षणैः प्रतिविधानाद्यैः सरिष्टक्रमैः । साध्यासाध्यविचारणापारणतर्वक्ष्यामि संक्षेपतः ॥ ५८ ॥ भावार्थ:-कुष्ट सामान्य रूपस दृषित वात पिन कफों ( त्रिदोष ) से उत्पन्न होता है । फिर भी दोषोंके गौण मुख्य भेदोंसे उत्पन्न लक्षणोंसे युक्त हैं । इसीलिए अठारह प्रकार से विभक्त हैं । उन अठारह प्रकार के कुष्टोंको लक्षण, चिकित्साक्रम, मरणचिन्ह व साध्यासाव्य विचार सहित यहां पर संक्षेप से कहेंगे ॥ ५८ ॥ कुष्ठकी संप्राप्ति। आचारतोऽपथ्यनिमित्ततो वा, दुष्टोऽनिलः कुपितपित्तकफौ विगृह्य । यत्र क्षिपत्युछूितदोपभेदात्तत्रैव कुष्ठमतिकष्टतरं करोति ॥ ५९ ॥ भावार्थ:----दुष्ट आचार (देव गुरु शास्त्रकी निंदा आदि) से अथवा अपथ्य सेवन से, दूषित वात, कुपित कफ पित्त को लेकर, जिस स्थान में क्षेपण करता है, अर्थात् रुक जाता है उसी स्थान में, उदिक्त दोषोंके अनुसार अति कष्टदायक, दुष्ट कुष्ठकी उत्पत्ति होती है । ॥ ५९॥ कुष्ठका पूर्वरूप. प्रस्वेदनास्वेदनरोमहर्षा- स्सुप्तत्वकृष्णरुधिरातिगुरुत्वकडूः ॥ पारुष्यविस्पंदनरूपकाणि । कुष्ठे भविष्यति सति प्रथमं भवंति ॥ ६॥ त्याल्पो इसि पाठाला। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४.) कल्याणकारके भावार्थ:--अत्यधिक पसीना आना, बिलकुल पसीना नहीं आना, रोमांच, छूनेसे मालूम नहीं होना, रक्त ( खून ) काला होजाना, शरीर अत्यंत भारी होजाना, खाज चलना, कठिनता होना व कंपन ये सब कुष्टके पूर्वरूप हैं ।। ६० ॥ सप्तमहाकुष्ठ । वातोद्भवं कष्ठमिहारुणाख्यं । विस्फोटनररुणवणयतेस्सतादेः। पित्ताकपालज्यकजिहिकात--च्चौदुंबरं करितकाकनकं सदाहम् ॥६॥. भावार्थ:--अरुण कुष्ठ वातस उत्पन्न होता है, जो दर्दसहित लालवर्णके फफोलोंसे युक्त होता है । ऋष्य कपाल, जिह्वा, औदुंबर, काकनक ये चार कुष्ट पित्तसे. उत्पन्न होते हैं ।। ६१ ॥ श्लेष्मोद्भवं दद्रुसपुण्डरीकं । कण्डूयुताधिकसितं बहुलं चिरोत्थम् ।। धातुप्रवेशादाधिकादसाध्यात्। कुष्ठानि सप्त कथितानि महांति लोके॥६२॥ भावार्थ:----कफसे द्रु और पुण्डरीक ऐसे दो कुष्ट उत्पन्न होते हैं जो अधिक खुजली, श्वेतवर्ण युक्त, मोटा, बहुत दिनोंसे चले आने वाले होते हैं। ये सब कुष्ट धातुवोंमे प्रविए होनेसे अधिकतर असाध्य होनेसे ये सात प्रकारके कुष्ठ महाकुष्ठ कहे गये है ॥ ६२॥ क्षुद्रकुष्ठ । क्षुद्राण्यरुष्कुष्ठमिहापि सिध्म । श्लेष्मान्वितं रक्ततया सहस्रम् ॥ प्रदिष्टरूपेऽद्भुतकण्डराणि श्वेतं तनुत्वचि भवं परुषं च सिध्म ॥ ६३ ॥ भावार्थ:- श्लेष्म व रक्तभेदसे क्षुद्रकुष्ठ में हजारों भेद होते है उनमें से अरुष्कुष्ठ, सिध्मकुष्ठ इम दोनों में कफ प्रधान होता हैं। जिसमें अस्वैधिक खाज चले, शरीरके चमडे सफेद होजाय, एवं कठिन होजाय उसे सिध्म कुऐ कहते हैं ॥ ६३ ॥ रकशकुष्ठलक्षण । निस्राववत्यः पिटकाः शरीरे। नश्यति ताः प्रतिदिनं च पुनर्भवति। कण्ड्रयुताः सूक्ष्मबहुप्रकाराः स्निग्धाः कफादधिकृता रकशति दृष्टाः॥६४॥ भावार्थ:---जिनसे पूय नहीं निकलते हों ऐसी बहुतसी फुसियां शरीरमें रोज उत्पन्न होती हैं व रोज नष्ट होती हैं । उनमें खाज चलती है । वे सूक्ष्म व अनेकप्रकारसे होता है । स्निग्ध गुणसे युक्त एवं कफसे उत्पन्न होने पे से रकश कहते हैं ॥१४॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः । कुष्ठमे दोषों की प्रधानता । ainaati परिसमेकं पित्तादतोऽन्यदवशिष्ट्यमिह त्रिदोष्यम् । देहेऽखिले ताडनभेदनत्व- संकोचनं महति कुष्ठपरे तथैकं ॥ ६५ ॥ भावार्थ: बातसे महाकुष्ट उत्पन्न होता है । पित्तसे परिसर्प व अन्य कुठ होते हैं। बाकी सब त्रिदोषसे उत्पन्न होते हैं । महाकुष्टसे युक्त रोगी के शरीर में ताडन भेदन, स्वक्संकोचन आदि लक्षण होते हैं ॥ ६५ ॥ एक विचर्चि विपादिका कुष्ठलक्षण | कृत्स्नं शरीरं घनकृष्णवर्ण । तोदान्वितं समुपयत्यरुणप्रभं वा ॥ दाः सदा पाणितले विचर्चिः । पादद्वये भवति सैव विपादिकारव्या ||६६ || ( २०५ ) भावार्थ:-- जिसमें सारा शरीर काला वर्ण अथवा लाल होजाता है एवं शरीर में दर्द, सुई चुभने जैसी पीडा होती है वह भी एक कुष्ट हैं । जिससे करतलमें जलन उत्पन्न होती है उसे विचर्च कहते हैं. यदि दोनों पादतलोंमें जलन उत्पन्न करें तो उसे विपादिका कुछ कहते हैं ॥ ६६ ॥ परिसर्पविसर्पणकुष्ठलक्षण | पित्तात्सदाहाः पिटकास्तीत्राः | स्रावान्वितास्सरुधिराः परिसर्पमाहुः । सोष्ण समंतात्परिसर्पते य- तीक्ष्णं विसपर्णमिति प्रवदति तज्ज्ञाः ॥ ६७॥ भावार्थ:- पित्त से जलनसहित, तत्रि पूय व रक्त निकलनेवाले पिटक जिसमें होते हैं उसे परिसर्प कहते हैं जो कि उष्ण रहता हैं और सारे शररिमें फैलता है । जो तक्ष्ण रहता है उसे विसर्पण कहते हैं ॥ ६७ ॥ किटिभ पामाकच्छुलक्षण | सत्रावसुस्निग्धमतीवकृष्णं सन्मण्डलं किटिभमाहुरतिप्रगल्भाः । ऊष्मान्वितं शोषयुतं सतीदं पाण्योस्तले प्रबलचर्मदलं वदति ॥ ६८ ॥ पामेति कंवलाः सपूयतीत्रो - । ष्मिका: पिटिकिकाः पदयुग्मजाताः ॥ पाण्योः स्फिचोः संभवति प्रभूता । - या सैव कच्छारित शास्त्रविदोपदिष्टा ॥ ६९ ॥.. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) कल्याणकारके भावार्थ:-~-स्रावसहित, स्निग्ध, अत्यंत काला व मंडल सहित कुष्ठको किटिभ कहते हैं । करतलमें जो कुष्ठ होता है उष्णता, शोष व तुदन जैसी दर्दसे युक्त होता है उसे चर्मदल कुष्ठ कहते हैं । जिस में तीव्र खाज चलती हो, पीपका स्राव होता हो, तीव्र उष्णता से युक्त हो, ऐसे दोनों पादोमें उत्पन्न होने वाली पिटिकाओंको पामाकुष्ठ कहते हैं। वही यदि, हाथ, ब चूतडमें पैदा हो तो उसे आयुर्वेदशास्त्रज्ञ विद्वान् कच्छु कहते हैं ।। ६८ ॥ ॥६ ॥ असाध्यकुष्ठ। अन्यत्किलासाख्यमपीहकुष्ठं कुष्ठात्परं त्रिविधदोषकृतं स्वरूपम् ॥ त्वक्स्थं निरासावि विपाण्डुरं त-त्तवर्णमाप्तसहजं च न सिद्धिमेति ॥७० भावार्थ:----किलास, 4 त्रिदोषोत्पन्नकुष्ठ एवं खावरहित, पांडुवर्ण युक्त, ऐसे स्वचा में स्थित, तथा जो सहज [ जन्म के साथ होने वाले ] कुष्ठ ये सब असाध्य होते हैं । ७० ॥ वातपित्त प्रधान कुष्ठलक्षण । त्वग्नाशशोषस्वरभंगुराद्याः । स्वापे भवंत्यनिलकुष्ठमहाविकाराः । भूकर्णनासाक्षतिरक्षिरागः । पादांगुलीपतनसक्षतमेव पित्तात् ॥ ७१॥ भावार्थ:-बातजकुष्टमें त्वचाका स्वाप ( स्पर्शज्ञान शून्य होना ) शोष, स्वरभंग व निद्राभंग आदि विकार होते हैं । भ्र, कान, नाकमें जखम होना, आंखे लाल होना, पैरके अंगुलियोंका गलना, व जखम होना ये विकार पैत्तिक कुष्ठमें होते हैं ॥७१॥ कफ प्रधान, व स्वस्थ कुष्टलक्षण । कुष्ठमें कफका लक्षण। सस्त्रावकण्डूगुरुगात्रतांग- शेत्यं सशोफमखिलानि कफोद्भवानि । रूपाण्यमून्यत्र भवंति कुष्ठे। त्वक्स्थे स्ववर्णविपरीतविरूक्षणं स्यात् ॥७२॥ भावार्थ:-- स्राव होना, खुजली चलना, शरीर भारी होना, शीत व सूजन होना ये सब लक्षण कफज कुष्ठ में होते हैं । त्वचामें स्थित कुष्ठमें त्वचासे विपरीत वर्ण व रूक्षण होता है ॥ ७२ ॥ रक्तमांसगत कुष्ठ लक्षण । पस्वेदनस्वापविरूपशोफा । रक्ताश्रिते निखिलकुष्ठविकारनाम्नि ।। सत्वाविला: स्फोटनमारसुतीनाः । संधिष्वतिपयलमांसगतोरठे ।। ७३ ।। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभयाधिकारः । (२०७) भावार्थ:-अधिक पसीना आना, अंगमें स्पर्श ज्ञान शून्य होना विरूप व सूजन उत्पन्न होना, यह सब रक्ताश्रित कुष्ठमें होनेवाले लक्षण है । मांसगत प्रबल कुष्ट में सावयुक्त तीत्र फफोले उठते हैं ॥ ७३ ॥ मदलिगम्नायुत कुलप्टक्षण । कौव्यं क्षतस्यापि विसर्पणत्व- मंगक्षति गमनविघ्नमिहावसादम् ।। मेदस्सिरास्नायुगतं हि कुष्टं । दुष्टवणत्वमपि कटतरं करोति ।। ७४ ।। भावार्थ:--मेद, शिरा व स्नायुगत कुष्टमें हाथमें लंगडापना, जखम, फैलना, शरीरक्षति, चलने में विघ्न, अंगग्लानि ब दुष्टत्रण आदि अनेक विकार होते हैं ॥ ७४ ॥ मज्जास्थिगत कुष्ठलक्षण । तीक्ष्णाक्षिरोगक्रिमिसंभवपाटनाद्या । नासास्वरक्षतिरपि प्रबला विकाराः ।। मज्जास्थिसंप्राप्तमहोग्रकुष्ठे ते पूर्वपूर्वकथिताश्च भवति पश्चात् ॥ ७५ ॥ भावार्थ:-मज्जा व अस्थिगत भयंकर कुष्टमें तीक्ष्ण अक्षिरोग, क्रिमियोंकी उत्पत्ति, घटना, नाकमें जखम, स्वरभंग आदि प्रबल विकार होते हैं एवं पूर्व धातुगत कुष्ठके लक्षण उत्तरोत्तर कुष्ठोमें पाये जाते हैं ।। ७५ ॥ कुष्ठका साध्यासाच विचार । त्वग्रक्तमांसश्रितमेव कुष्ठं । साध्यं विधानं विहितौषधस्य । मेदोगतं याप्यमतोन्यदिष्टं । कुष्ठं कनिष्ठमिति सत्परिवर्जनीयम् ॥ ७६ ॥ भावार्थ:-वचा, रक्त, मांसमें आश्रित कुष्टमें औषविप्रयोग करें तो साध्य है । मेदोगत कुष्ठ याप्य है । शेष कुष्ट असाध्य समझकर छोडें ।। ७६ ॥ आसाध्य कुष्ट । यत्पुण्डरीकं सितपयतुल्यं । बंधूकपुष्पसदृशं कनकावभासम् ॥ विवोपम काकणकं सपित्त । नवर्जयेदितजन्मत एवं जातम् ।। ७७ ॥ भावार्थ:--जो सफेद काल के समान रहनेवाला पुण्डरीक कुष्ट है, बंधूक पुष्प व सोनेके समान एवं बिंवफलके सामान जिसका वर्ण है ऐसे पित्त सहित काकनक एवं जन्मगत कुष्ठ असाध्य समझकर छोडना चाहिए ॥ ७७ ।। असाध्यकुछ व रिट्र। यत्कुष्ठिदुष्टार्तवशुक्रजाता-- पत्यं भवेदधिककुष्टिगतं त्वसाध्यम् ॥ - : "रिष्टं भवेत्तीव्रतराक्षिरोग-- नष्टस्वरव्रणमुखी गलितप्रपूयम् ॥ ७८ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८) कल्याणकारके . भावार्थ:-कुष्ठरोगयुक्त मातापितरों के, दूषित रजोवीर्यके संबंध से उत्पन्न संतान. अधिक कुष्ठी हो तो उसे असाध्य समझना चाहिए । तीव्र अक्षिरोग, स्वर, भंग, व व्रणोंसे पूय निकलना यह कुष्ठ में रिष्ट [ मरणचिन्ह ] है ॥ ७८ ॥ __ कुष्ठीके लिए अपथ्य पदार्थ । कुष्ठी सदा दुग्धदधीक्षुजात--निष्पावमाषतिलतैलकुलत्थवर्ग । पिष्टालसांद्राम्लफलानि सर्व । मांस त्यजेल्लवणपुष्टिकरानपानम् ॥७९॥ भावार्थ:-दूध, दही, शक्कर गुड आदि इक्षु रसोत्पन्न पदार्थ, सेम, उडद, तिल, तैल, कुलथी, आटेका पदार्थ व घन पदार्थ, फल, मांस, लवण एवं पुष्टिकर' अन्न पान आदि कुष्ठ रोगवाला ग्रहण नहीं करें ॥ ७९ ॥ ____ अथ कुष्ठचिकित्सा । ___कुष्ठमें पथ्यशाक। वासागुलूचीसपुनर्नवार्क-पुष्पादितिक्तकटुकाखिलशाकर्वगः ॥ आरग्वधारुष्करनिवतोय-पक्कैस्सदा खदिरसारकषायपानः ।। ८० ॥ भावार्थ:--अमलतास, भिलावा, नीम व कत्था इनके पानीसे पकाये हुए अडूसा, . गिलोय, सोंठ, अर्कपुष्पी, व तीरेख व कडुवे शाकवर्गको कुष्टमें प्रयोग करें ।। ८० ।। कुष्ठ में पथ्य धान्य । मुद्दाढकीम्परसप्रयुक्तम् । श्यामाककंगुवरकादिविरूक्षणान्नं ॥ भुंजीत कुष्ठी नृपनिंबवृक्ष- तोयेन सिद्धमथवा खदिरांबुपक्कम् ।। ४१ ॥ भावार्थ:-अमलतास, नीमके कषाय अथवा वरके कषाय से पकाया हुआ एवं मूंग, अरहर श्यामाक धान्य, कंगुनी, मोंट आदि रूक्ष अन्न कष्ठीको देना चाहिये ॥ ८१ ॥ -- कुष्ट में वमन विरेचन व वास्थकुष्ठ की चिकित्सा । मार्गद्वये शोधनमेव पूर्व -- रूपेषु कष्ठजननेषु विधयमत्र । त्वस्थेऽपि कुष्ठेऽधिकशोधनं स्या-त्कुष्ठध्नसीद्वीवर्धभषलपन च ॥८२॥ भावार्थः --कष्टके पूर्वरूपोंके प्रकट होनेपर वमन विरेचन से शरीरका शोधन करना चाहिये, त्वचामें स्थित कुष्टके लिये भी वमन विरेचन से अधिक शोधन व कुष्टनाशक विविध औषधियोंका लेपन भी हितकर है ॥ ८२ ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२०९) रक्त व मांसगत कुष्ठ चिकित्सा । रक्ताश्रिते पूर्वदाहतानि । रक्तस्य मोक्षणकषायनिपेवणं च ।। 'मांसस्थिते पूर्वकृतानि कृत्वा । पश्चान्महाविविधभेषजयोगसिद्धम् ।।८३॥ भावार्थ:---रक्ताश्रित कुष्ट में त्वचागत कुष्ठ की सर्वक्रिया ( वमन विरेचन ) लेपन, रक्त निकालना व कषाय सेवन करना चाहिये। मांसगत कुष्ठ हों तो उसके लिये- उपर्युक्त शोधनादि विधियोंको करके तदनंतर तदुपयोगी अनेक उत्कृष्ट सिद्ध औषधियोंका प्रयोग करना चाहिए ॥ ८३ ॥ मेदोऽस्थ्यादिगतकुष्ठ चिकित्सा। मेदोगतं कुष्ठमिहातिकष्टं । याप्यं भवेदधिकमेपजसविधानः। . अन्यद्भिषग्भिः परिवर्जनीयम् । यत्पंचकर्मगतिमप्यधिगम्य याति ॥८४॥ भावार्थ:- मेदोगत कुष्ठ अत्यंत कष्टतर है । उसे अनेक प्रकारका औषधियोंके प्रयोगसे. यापन करना चाहिये । बाकी के कुष्ठ अस्थि, मजा शुक्रगत, पंचकर्म करनेपर भी ठीक नहीं होते उनको असाध्य समझकर छोडना चाहिये । ८४ ॥ त्रिदोषकुष्ठचिकित्सा । दोषत्रयोद्धृतसमस्तकुष्ट -- दोपहैविविधभेषजसंविधानः ॥ पकं घृतं वापि सुतैल तत् । पीत्वातुरस्तनुविशोधनमेव कार्यम् ॥ ८५ ॥ भावार्थ:--त्रिदोषसे उत्पन्न कुष्टमें कुष्टगर्वको नाश करनेवाले औषधियोंसे पक्क घृत वा अच्छे तेलको पिलाकर कुष्ट रोगीका शरीरशोधन करना चाहिये ॥ ८५॥ ज्ञात्वा शिरामोक्षणंमत्र कृत्या योगानियानक्लिकुष्ठरान्विदध्यात् । दन्ती द्रवंती त्रिवृतं हरिद्रा । कुष्टं वचा कटुकरोहिणिकां सपाठाम् ॥८६ ॥ भल्लातका वल्गुजबीजयुक्तां निवा--स्थिमजसहितां सतिला समुस्ताम् । पथ्याक्षधात्रीसविडंग नीली मूलानि भृगरजसार पुनर्नवानि ॥ ८७ ॥ एनानि सर्वाणि विशोषितानि । सम्यक्तुलासमतानि विचूर्णितानि । निवासनारखधधावनीनां । काथेन सम्यक्परिभावितानि ।। ८८ ॥ ब्राम्हीरसेनापि पुनः पुनश्च । संभावितानि सकलं बदरप्रमाणात् ॥ आरभ्य तयाबादेहाक्षमात्रं । खाडेतनश्शुविहिताशपरिमाणं ८९ ॥ कुष्ठानि मेहानखिलोदराणि । दुनामकान्कृमिभगंदरदुप्टनाडीः ॥ ग्रंथीन सशोफानखिलामयान - प्येतद्धरेम्पनलमेव निपेथ्यमाणम् ॥९९॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१०) कल्याणकारके भावा:-त्रिदोषज आदि कुष्टोंके माध्यासाध्य विषयको अच्छी तरह जानकर सिगमोक्षण करना चाहिये । तदनंतर निम्नलिखित योगोंका प्रयोग करना चाहिये। जमालगोटा, बडः जमाल गोटा, त्रिवि, हलदी, कूट, वचा, कुटकी पाठा, भिलावा, बावुचीका बीज, नीनकी मिगनी, व गूदा, तिल, नागरमोथा, हरड, बहेडा, आंवला, वायु विडंग, नीलीका मूल, भंगरा, पुनर्नव इन सबको समान भागमें लेकर सुखाना चाहिय फिर चूर्ण करना चाहिये । तदनंतर नीम, असनवृक्ष, पृश्नपणी, अमलनास इनकी छालके कषायसे भावना देनी चाहिये । फिर पुनः पुनः ब्राह्मी रससे बना देकर बेरके प्रमाणसे लेकर बहडेके प्रमाण ( एक तोला ) पर्यंत प्रमाणसे उसे खाना चाहिये । जिससे सर्व कुष्ट, प्रमेह, उदर, बवासीर, भगंदर, दुष्ट नाडीत्रण, ग्रंथि, मजन आदि अनेक रोग दूर होते हैं ।। ८६ ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ ८९ ॥ ९० ॥ निवास्थिसारादि चूर्ण । निवास्थिसारं सविडंगचूर्ण । भल्लातकास्थिरजनीद्वयसंप्रयुक्तम् ॥ निम्बास्थितैलेन समन्वितं त- क्षुण्णं निहंति सकलामपि कुष्ठ नातिम् ॥९१३ भावार्थ:--नीमके बीज का गूढा, वायुविडंग, भिलावेका बीज, हलदी, दारु हलदी इनको कपडा छान चूर्ण करके नीमके बीजके तेलके साथ मिलाकर उपयोग करनेसे समात जाति कुष्ठ नाश होते हैं ॥ ११ ॥ पुन्नागवीजादिलेप | अत्युच्छ्रितान्यत्र हि मण्डलानि । शस्त्रैस्सफेननिशितेष्ठिकया विधृष्य । पुन्नागवीजैः सह संधवा- स्सौवर्चलः कुटजकल्कयुतैः प्रलिपेत् ॥१.२। भावार्थः -- जिस कुष्ठमें अत्यधिक उटे हुए मण्डष्ट ( चकने ) हों तो उनको शस्त्रसे, समुद्रफेनसे अथवा तीक्ष्ण ईंठसे घिसकर फिर उसको पकागवृक्ष के बीज, सेंधानमक, अकौवा, · कालानमक, कुरैया की छाल इनके करकको उपन करना चाहिये ॥ ९२ ॥ पलाशक्षारलप। पालाशभस्मन्युदकाश्रिते तत् । सम्यक्परिनुतमिहापि पुनर्विपकम् ॥ तस्मिन् हरिद्रां गृहधूमकुष्ट- । सौवर्चलत्रिकटुकान प्रतिशष्य लिंपन ॥९३॥ भाव र्थः- पलाश [ ढाक ] भस्म को पानीमें घोलकर अच्छीतरह छानना चाहिये । फिर उसको पकाकर उसमें हलदी, घरके धुंआ, कूट, क.लानमक, त्रिकटुक इनको डालें व लेपन करें जिससे कुष्ठ रोग दूर होजाता है ॥ ९३ ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२११) लेपद्वय । आलेपयेत्सैंधवशक्रमर्द- । कुष्टाग्निकत्रिकर्डकैः पशुमूत्रपिष्टैः । सद्धाकुचीसैंधवभूशिरीप- कुष्टाश्चमारकटुकत्रिकचित्रका ॥ २४ ॥ .. भावार्थ:---सेंधानमक, चकमोद [चकोंदा] कूट, चित्रक, त्रिकटुक इनको गोमूत्रके साय पीसकर लपन करना चाहिये । अथवा बावची, सैंधानमक, भूसिरस, कूट, करनेर, सोंठ, मिरच, पीपल व चित्रक इनको गोमूत्रामें पीसकर लेपन करना चाहिये ॥ ९४ ॥ सिद्धार्थादिलेप। सिद्धार्थः सर्षपसैंधवान - कुष्टार्कदुग्धसहितैस्समनश्शिलालैः । चूर्णीकृतैस्तीक्ष्णसुधाविमित्रै - रालेपयेदसितमुष्ककभरमयुक्तैः ॥ ९५ ॥ भावार्थ:-सफेद सरसी, सरसौ, मैंधा नमक, वचा, कूट, मेनशिला, हरसाल, तीवणविष ( वत्सनाभ आदि ) इनको चूर्णकर इसमें काला भोग्वा वृक्षका भस्म व अकौवाके दूध मिलाकर, कुष्ठ रोगमें लेपन करना चाहिये ॥ १५ ॥ श्चित्रष्वपि प्रोक्तमहापलेपा । योज्या भवंति बहुलोक्तचिकित्सितं च । अन्यत्सवर्णस्य निमित्तभूत - मालेपनं प्रतिविधानमिहोच्यतेऽत्र ॥१६॥ भावार्थ:-श्वेतकुष्ठमें भी उपर्युक्त लेपन व चिकित्सा करनी चाहिये। अब धर्मको सवर्ण बनानेकेलिये निमित्तभूत लेपन सवर्णकरण योगोंको कहेंगे ॥९॥ भल्लातकास्थ्यादलेप। भल्लातकास्थ्यग्निकबिल्वपेशी। शृंगार्कदुग्धहरितालमनश्शिलाश्च ॥ द्वैष्यं तथा चर्म गजाजिनं वा । दग्ध्वा विचूर्ण्य तिलतैलयुतः प्रलेपः।।१७। भावार्थ:--भिलावेका बीज, चित्रक, बेलकी मज्जा, भांगरा, अकौवेका दूध, रताल, मेनशिला इनको अथवा चीता व्याघ्र गज व मृग इनके चर्मको जलाकर चूर्ण करके तिलके तेलमें मिलाकर लेपन करें ॥ ९७ ॥ भल्लातकादिलेप। . भल्लातकाक्षामलकामयार्क - दुग्धं तिलास्त्रिकटुकं क्रिमिहापमार्ग ॥ कांजीरधामार्गवतिक्ततुंबी । निवास्थिदग्धनिह तैलयुतः प्रलेपः ।।९८॥ भावार्थ:--मिलावा, बहेडा, आंवला, हरड, अकौवेका दूध, तिल, त्रिष्टुक, वायुविडंग, लट जीरा, कांजीर, कडवी तोरई, कटुतुंबी, नीमका बीज इनको जलाकर सिलतैलभिनजर लेपन करना चाहिये ॥ १८ ॥ | Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) - कल्याणकारके ऊवधिःशोधन । संशोधयेदृर्ध्वमधश्च सम्य -- रक्तस्य मोक्षणमपि प्रचुरं विदध्यात् । दोषेऽवशिष्टेऽपि पुनर्भवति । कुष्ठान्यतः प्रतिविधानपरो नरः स्यात् ||९| भावार्थ:-तुष्ठरोगियों के शरीर वमन, विरेचन द्वारा अच्छीतरह शुद्ध करके रक्तमोक्षण भी खूब करना चाहिये । दोष यदि शेष रहे तो पुनः कुष्ठ होजाता है। इसलिये उसकी चिकिया पथोक्त विविसे करने में लीन होना चाहिये ॥ ९९ ॥ ." कुष्ठ में बमन विरेचन रक्तमोक्षण का क्रम । पक्षादतः पक्षत एव वम्याः । कुष्टातुरान्वरविरंचन व मासात् ॥ मासाच्च तेषां विदर्धात रक्तं । निमोक्षयेदपि च षट्सु दिनेपु षट्स ।।१००॥ भावार्थ:-इसके बाद पंद्रह पंद्रह दिनमें वमन कराना चाहिये । तदनंतर एक २ मास के बाद तीक्ष्ण विरेचन देना चाहिये। छह २ दिन के बाद रक्तमोक्षण करना चाहिये । ॥ १० ॥ सम्यशिरश्शुद्धिमपीह कुर्या- । वैद्यस्त्रिभित्रिभिरहोभिरिहाप्रमादी । सर्वेषु रोगेष्वयमेव मार्ग- स्तत्साध्यसाधनविशेषविदां प्रकर्षः ॥१०१॥ भावार्थ:-इसी प्रकार वैद्य प्रमादरहित होकर प्रति तीन दिन में शिरोविरेचन कराना चाहिये । सम्पूर्ण कुष्ठरोग की यही चिकित्साक्रम हैं। साध्य साधन आदि विशेष बातोंको जाननेवाले वैद्योंको ( कुष्ठरोग के विषय में ) इसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिये ।। १०१ ॥ कुष्ठप्रमेहोदरदुष्टनाडी -- स्थूलेषु शोफकफरोगयुतेषु मेद:- ॥ प्रायेषु भैषज्यमिहातिकार्य - मिच्छत्सु साधु कथयामि यथायोगैः ॥१०२ भावार्थ:---कुठ, प्रमेह, उदर रोग, नाडीव्रण, इन रोगों के कारण से जो स्थूल हैं, तथा, सूजन, कफरोग, मेदवृद्धि से संयुक्त हैं, और वे कृश होना चाहते हैं, अथवा उनको कृश करना जरूरी है उनकेलिय उपयुक्त, औषधियोंके प्रयोग कहेंगे १०२ गोमकान्रेणुयवान्यवान्या । क्षुण्णांस्तुपापहरणानतिशुद्धशुष्कान् । गोमूत्रकेणापि पुनः पुनश्च । संभावितानभिनवामलपात्रभृष्टान् ॥ १०३ ॥ भल्लातकावलाजमाकवाक । मुस्ताविडंगकृतचूर्णचतुर्थभागान् ॥ चूर्णीकुलानक्षपरिप्रमाणन् ! संयोजितान्झटुकतिक्तकषायपिष्टान् ॥१०४॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः ( २१३ ) गोभिस्तथा श्रपि भक्षितांस्ता स्तदनित्यानतिमुमुक्ष्मतरं विचूर्ण्य । सोलानकर्णार्जुन शिशपानां । सालोदकेन सहितान् प्रपिवेत्स सक्थु ॥ १४५॥ • भावाथा - गेहू, रेणुकोमीन, जौ, इनको कूटकर छिलका निकाल कर शुद्धकर अच्छी तरहं सुखाल और रोमूत्र से चार र भावना देकर नये वर्तन में सुनना चाहिये । फिर उन का सूक्ष्म चूर्ण करें। मिलावा, याकुर्ची, भृंगराज [भांगरा ] अकोबा, नागरमोथा, वायविडंग इनकी समभाग लेकर, चूर्ण कर के उपरोक्त चूर्ण में मिलावें । इस का प्रमाण' उपरोक्त ( रोहू आदि के ) चूर्ण से चौथाई हिस्सा होना चाहिये । फिर इनको चरपरा कडुआ, कषाय, रस के द्वारा पीस कर इस सत्थू को साल विजयसार, अर्जुनं और ससिम की छाल के चूर्ण [ वृक्ष ) व साल के कपाय के साथ पीना चाहिये ॥ १०३ ॥ १०४ ॥ १०५ ॥ तानेव स कण, कृत्वा विजातक महाप्रचूर्णमिश्रानः । भातकाद्योपसंप्रयुक्ता निवासनक्षितिप्रवृक्षकपाययुक्तान् ।। १०६ । संच्छर्करानामलका म्ललुंग- वेत्राम्लदाडिमलसचणकाम्लयुक्तान् । सारांघ्रिपकाथ संसैंधवांस्तांस्तांस्तान्पिवेदखिलमंदविकल्प एषः ॥ १०७ ॥ . भावार्थ:- उन्हीं [ पूर्वकथित गोधूमादि ] सत्थूओं को उपर्युक्त प्रकार से तैयार कर के उस में त्रिजातक [ दालचिनी, इलायची तेजपाल ] सोट, और भिलावा आदि [[" उपरोक्त ] औषधियों को मिलाकर, नीम, विजयसार, अमलतास, इनके काढेसे भावना देवें फिर शक्कर, आंवला, खा बिजौरा निंबू, बेत, खड्डा अनार, चनेका क्षार, सेंधानमक मिलाकर और खेर के काढ़े के साथ, निःसंशय होकर पीयें ॥ १०६ ॥ १०७ ॥ तैरेव सक्तुप्रकरैविपक्कान् भक्ष्यानपूपसकलानि सपूर्णकोशान् । धानानुदं मानपिशष्कुलीका ही भक्षयेदखिलकुष्ठमहामयाचैः ॥ भावार्थ:- कुष्ठरोगकि लिये उपर्युक्त प्रकार के सत्यों के साथ 'पुआ, पोळी व पूरी शष्कुली आदि खानेको देना चाहिये ॥ १०८ ॥ दंती त्रिवृच्चित्रकदेवदारु- पूतीकसत्रिकटुकत्रिफलास ॥धि ॥ प्रत्येकमेव कुमा। चूर्ण भवेदमलतीक्ष्णरजोऽर्धभागम् ॥ १०९ ॥ प्रागाज्यकुंभं पुनरग्निदग्धं । जंबूकपित्थसुर साम्रकमातुला- ॥ पत्रैर्विपकं परिषोतमंत - गोदकमरिचमागधिकाचिचूर्णैः ॥ ११० ॥ सच्छर्कभः परिमिश्रितैस्तै- लिप्तान्दर कुसुमवासित रूपितांतः ।। arie सूत्रम् त्वीजवधूर्णमिट क्षिपेत्तत् ॥१२॥ १०८ ॥ हुए भक्ष्य, Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके तस्मिन्गुड स्यार्धतुलां निधाय । सारोदकस्य कुडबाष्टकमिश्रितं सत् ॥ सम्यक्पिधायास्य घटस्य वक्त्रं । संस्थापयेदधिकधान्ययवोरुकूपे ॥ १:२॥ एवं समस्तानमृतपयोगान् । संयोजयत्कथितमार्गत एव सर्वान् ॥ संस्कार एषोऽभिहितम्समस्तः । सर्वोषधादारघटे विधेयम् ॥ १३ ॥ उदृत्य तत्सप्तदिनाच पक्षात् । मासादतः प्रचुरगंधरसं सवीर्य । तद्भक्षयेदाग्नबलानुरूपम् । कुष्ठप्रमहोदरनाशहेतुम् ॥ ११४ ॥ भावार्थ:- जमालगोटेको अड, चित्रक, देवदारु, पूतीकरंज, निशोय, त्रिकदु, त्रिफला, पीपलामूल इनको प्रत्येकको कुडुब (१६ तोला ) प्रमाण लेकर उनका चूर्ण फरें और उसमें अर्थ भाग ( ८ तोला ) लोहेके चूण | भस्म ] को मिलावें, यह चूर्ण सैयार रखें। एक घीका घडा लेकर उसे अग्निमें जलावे, एवं जानुन, कथ, आम्र, तुलसी, मातुलंग इनके पत्तोंको उसमें पकाकर पुनः गंधोदक [ चंदन नेत्रवाला, खशआदि गंधदव्योंके कषाय ] से उसे अच्छीतरह धोना चाहिये। फिर शक्कर के पानीसे मिश्रित काली मिरच, पीपल के चूर्णको घडेके अंदर लेपन कर सुगंध पुष्पों द्वारा उसे सुगंधित करें । पश्चात्याहरसे अच्छीतरह उसे डोरोंसे बुनना चाहिये जिससे यह सुरक्षित रहे। इस प्रकार संस्कार किये गये घडेमे ऊपर तैयार किये हुए चूर्णको डाल देवे, उसमें अर्ध तुला ढाईसेर ' एवं आठ कुडुब प्रमाण खदिरका काढा मिलाकर उसके मुंहको अच्छी तरह चंदकर कोई धान्य कूप [धान व जौसे भरा हुआ गट्ठा ] मे गाडना चाहिये। इसी विधिसे सम्पूर्ण अमृततुल्य प्रयोगोंको तैयार करना चाहिये। तात्पर्य सम्पूर्ण अरिष्टोंको बनानेकी विधि यही है । उस औषधिके आधारभूत घटका संस्कार उपर्युक्त विधिसे ही करना चाहिये। . फिर उसको सात दिनमे या पंद्रह दिनमें या एक महिनेमे जब अच्छी तरह गंध, रस, वीर्य आदि गुण उसमें. व्यक्त हो जाय तब निकालकर रोगीके अग्निबलके अनुसार खिलाये जिससे कुष्ठरोग, उदर व प्रमेहरोग नष्ट होते हैं ॥ १०९ ॥ ११० ॥ १११ ॥ ११२ ॥ ११३ ॥ ११४ ॥ आरग्वधारुष्करमुष्कनिंघ ! रंभार्कतालतिलमंजरिकामुभस्म ॥ द्रोणं चतुद्रोणजीविपकं । रक्तं रसं सवति शुद्धपटाववद्धम् ॥ ११५ ॥ अत्र क्षिपेदाढकसप्रमाणं । शुद्धं गुडं त्रिकटुकं त्रिफलाविडंगम् ॥ प्रत्येकयेकं कुडपपयाण । चूर्ण लवंगलपलीबहुलाप्रगाढम् ॥ ११६ ॥... | Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः । ( २१५ ) कुंभे निधायो बहुमकार | धान्ये स्थितं मासपरिमाणम् ॥ तद्भक्षयेदक्षयरोगराजान । संक्षेपतः क्षपयितुं मनसाभिवांछन् । ११७ ॥ भावार्थ - अमलतास, भिलावा, मोखा, नीम, साडका फूल, केले की जड, अकौवा, तिलका गुच्छ इनका भग तैयार कर एक द्रोण [ १२||| सेर ४ तोला ] भरमको चार द्रोण पानीसे पकाकर शुद्ध कपडेसे छाने । जब लाल बूंदे उससे टपकती है उसमें एक आटक [३ सेर १६ तोला ] शुद्ध गुड, त्रिकटुक त्रिफल व बायुविडंग इनको प्रत्येक सोलह २ तोला प्रमाण चूर्णको डालकर साथमें लवंग, हरपाररेवडी, इलायचीको मिळावे उपयुक्त मकारसे संस्कृत घट डालकार धानसे भरे हुए गड्ढे में गाड़कर रखें फिर एक मास बाद निकालकर रोगी को पिलावें जिससे अनेक प्रकारके कुष्ट प्रमेह आदि रोगराज अत्यंत शीघ्र नष्ट होते हैं ।। ११५ ॥ ११६ ॥ ११७ ॥ खदिर चूर्ण | सारद्रुमाणामपि सारचूर्ग । सारदुमस्वरसभावितशोषितं तत् ॥ साराधिकायुतं प्रपीतं । सारौषधं भवति सारमहामयन्नम् ॥ ११८ ॥ भावार्थ:-- खैर के वृक्षके सारभूत चूणको खैरके रससे भावना देकर फिर उसे सुखाचे, पुनः उस शुष्कचूर्णको खेरके वृक्षके कषाय के साथ मिलाकर पीत्रें तो कुष्ट रोगके लिए उत्तम औषध हैं अर्थात् उसको पनिसे कुष्ठ रोग दूर होजाता है ॥ ११८ ॥ तीक्ष्ण लोह भस्भ. वीक्ष्णस्य लोहस्य तन्रनि यात्रा - ण्यालिप्य पंचलवणाम्लकृतीस्कल्कैः ॥ aver पुटेनैव सुगोमयाग्नौ । निर्वाप्य सारतरुसत्रिफलारसेन ॥ ११९ ॥ एवं पुनः पूर्ववदेव दवा । निर्वाप्य तद्वदिहषोडशवारमात्रम् ॥ पश्चात्पुनः खादिरकाष्टदग्ध । शांतं विचूर्ण्य पटानसृतमत्र कृत्वा ॥ १२० वच्चूर्णमाज्यान्वितशर्करांत । ज्ञात्वा बलं सततमेव निषेव्यमाणम् ॥ कुष्टप्लिहाशी दिकपाण्डुरोगान् । हत्वा वयोवलशरीरसुखं करोति ॥ १२१ ॥ भावार्थ:- तारण लोहके पतळे पतरोंको लेकर पंचलवण, [ सेंधानमक, काळा नमक व सामुद्रनमक बिनमक औद्भिद नमक ] आम्ल पदार्थ इनके कल्कोंसे उन्हे लेपन करें फिर उसे संपुटमें बंद करके कण्डेके अग्निने पृट देना चाहिए । फिर षांने निकालकर पुन: खरकी छाल व त्रिफला इन के काढेसे घोटकर घा लेपन कर पुनः सम्पुट बंद कर के पुट देना चाहिये । इस प्रकार सोलहवार पुट देना चाहिये । पुनः उसे खरकी लकडीके अभिसे पुट देना चाहिये । जब वह शांत हो जाम Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) कल्याणकारके . तब उसे बारीक चूर्ण कर कपडे से छान लें [. इस क्रिया से लोहभस्म हो जाता है ] फिर इस भम्मको घी शक्करके साथ मिलाकर, उसे कपडेसे छान लेवें। शरीरबल, अमिबल आदि देखकर सतत सेवन करें तो वह कुष्ट, लिहा, अर्श, पाण्डु आदि रोगोंको दूर कर शरीरबल वय व सुखको उत्पन्न करता है । १११ ॥ १२० ॥ १२१ ॥ लोह भस्म फल. जीर्णामहायस्कृतिभेपजेऽस्मिन । रोगानुरूपलवणाम्लविवर्जितान्नम् ।। मुक्न्वा तुलामेतदिहोपयुज्य । जीवेदनामयशरीरयुतः शतायुः ॥ १२२ ॥ भावार्थ:--उपर्युक्त प्रकार से तैयार किये हुए तीरणलोहके - भस्म को - उपयोग करते समय रोगके बलाबल को देखकर लवण खंटाई रहित भोजन करते हुए यदि एक तुला [५ सेर ] प्रमाण इस को सेवन करें तो निरोगी होकर सौ वषर्तक जीता है अर्थात् यह रसायन है ॥ १२२॥ . नवायलचूर्ण । मुस्ताविडंग त्रिफलाग्निकैस्स-घोषं विचूर्ण्य नवभाग समं तथायः- ॥ चूर्ण सिताज्येन विमिश्रितं तत् । संभक्ष्य मंशु शययत्यधिकान्विकारान १२३ भावार्थ:- नागरमोथा, वायुविडंग, व चित्रक, त्रिकटु इन को समभाग लेकर चूर्ण करके उसके नौ भाग लोहभरम मिला। फिर उसे शक्कर व वीके साथ मिलाकर खाने से शीघ्र ही पाण्ड आदि अनेक रोग उपशान्त होते हैं ।। १२३ ॥ एवं नवायसमिति प्रथितापधाख्यं । कृत्वोपयुज्य विधिना विविधप्रकासन् ॥ पाण्डप्रमेहादजांकुरदुष्टकुष्ठ-- । नाडीव्रणक्रिभिरुजः शमयेन्मनुष्या: ॥१२४ ॥ भावार्थ:-- इस प्रकार नवापस नामक प्रसिद्ध ओपथि को तैनार कर लो विधि पूर्वक सेवन करते हैं उनके अनेक प्रकारके पौड़, प्रमेह, वासीर; दुष्टकुष्ट, नाडीव्रण क्रिमिरोग आदि अनेक रोग उपशमन होते हैं ।। १२४ ।। संक्षपस सम्पूर्णकु चिकित्सा कथन । कुष्ठनसद्विविधभेषजकल्कतोयः । पकं घृतं तिलजमप्युपहति नित्यं । अभ्यंगपानपरिषेकशिरोविरक- योयुज्य मानगचिरात्मचरपयोगः ॥ १२५ ॥ भावार्थ:---कुष्टदा अनेक कारो औषधिप्रयोगों, औषधि के कल्क-व कषायों से पक धृत का तेल प्रतिनित्य अभ्यंग, पान, मेवा व शिरोविरोचन आदि काममें उपयोग करनेसे शीघ्र कुष्ट दूर होता है ॥ १२५ ।। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाधाधिकारः । खदिरप्रयोग | सर्वात्मना खदिरसारकषायमेकं । पीत्वाभिषिक्ततनुरप्यकुष्टजुष्टः ॥ नीचैर्नखैस्तनुरु है स्तुविशुद्धगात्रः । सद्यः सुखी भवति शांतमहामार्तिः ॥ १२६ ॥ ( २१७ ) भावार्थ:-- अकेला खैर के कबायको ही सतत पानेके काम में एवं स्नान के काम में छेनेसे नख रोम उत्पन्न होकर, शरीर शुद्ध होता है । कुष्ठरोग उपशमन होता है । इसलिये रोगी सुखी होता है ।। १२६ ।। अथ उदररोगाधिकारः । उदररोगनिदान | नृणां समस्तैः पृथगेव दोषै । र्यकृत्प्लिहाभ्यामुदकोपयोगात् || विषप्रयोगांत्रनिरोधशल्या- । द्भवंति घोराणि महोदराणि ॥ १२७ ॥ भावार्थ:- मनुष्यों को समस्त वा व्यस्त दोषोंसे, यकृत, प्लिहा में, जलविकारसे उदर में, विषप्रयोग व अवरोध शल्यसे अनेक प्रकार के घोर उदर से होते हैं । प्रकुपित बात पित्त कफ व इनके सन्निपात, यकृत् प्लिहा में नेहन आदि क्रिया करते समय पानी पीना, विष के प्रयोग, आंतडी में शला के रुक जाना इत्यादि का णोसे घोर उदररोग उत्पन्न होतें हैं । तात्पर्य यह कि, उपरोक्त कारणोंसे, वातोदर, पित्तोदर, कफोदर, सन्निपातिकोदर [ दृष्योदर ] यकृत्प्लीहोदर, बद्धगुदोदर, क्षतोदर [ परित्रात्र्युदर ] दकोदर, इस प्रकार, अष्टविध उदररोग उत्पन्न होते हैं ॥ १२७ ॥ वातोदर लक्षण | अपथ्यमिध्याचरणाहृतिभ्यां । प्रदुष्टवातोऽन्नरसान् प्रदूष्य ॥ सामानमनेकतोदे । महोदरं कृष्णशिरां करोति ॥ १२८ ॥ भाषार्थ:-अपथ्यसेवन मिथ्या आहार विहार के कारण वातप्रकुपित होकर उदररोगको उत्पन्न करता है अर्थात् वातोदर की उत्पति होती है । जिसमें शूल, पेट अफराना [ पेट फूलना ] हुई चुभने जैसी नानाप्रकार की पीडा होना, पेटकी नसें काली पढजामा, आदि लक्षण प्रकट होते हैं । ॥ १२८ ॥ पितोदर लक्षण | सदाहतृष्णाञ्जरशेोषयुक्तम् । सपीतत्रिशिरातानम् || महोदरं शीघ्रविसारि साक्षात् । करोति पित्तं स्वनिमित्तदृष्टम् ॥ १२९ ॥ २४ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) कल्याणकारके भावार्थ:- अपने प्रकोप कारणों से, दूषित पित्तसे उत्पन्न महोदर में दाह, तृष्णा, ज्वर, शोत्र आदि विकार होते हैं । महान्त्र व ( पेटसम्बधी ) शिरा समूह पीले वर्णका होता है, एवं यह शीघ्र पसरनेवाला होता है ॥ १२९ ॥ कफोदर लक्षण | गुरुस्थिरं स्निग्धतरं सुशीतं । महत्सितं शुलशिरावनद्धम् ॥ क्रमात्प्रवृद्धं जठरं सशोफम् । कफः करोति स्वयमेव दुष्टः ॥ १३० भावार्थ --- अपने प्रकोपकारणों द्वारा प्रकुपित कप से उत्पन्न महोदर में उदर भारी, स्थिर, कठिन, चिकना, ठण्डा बडा व सफेद होजाता है एवं शिरा [ उदरसम्बधी ] भी सफेद होती | शरीर शोधयुक्त होता है । एवं रोग धीरे २ बढता है ॥ १३० ॥ सन्निपादर निदान | समूत्रविकारांताने । विषेदापि विषप्रयोगः ॥ सरक्तदोषाः कुपिताः प्रकुर्यु- । महोदरं दूषिविषांदुजातम् ॥ १३१ ॥ भावार्थ:- मल, मूत्र, बीर्य, रजसहित अन्नके सेवन से विषजल के सेवन से एवं अन्य विनोंके प्रयोग रक्त के साथ तीनों दोष, प्रकुपित होकर सान्निपातिकोदर [दूष्योदर ] रोगको उत्पन्न करते हैं । ॥ १३१ ॥ सन्निपातोदरलक्षण | तदेतदत्थंबु ददुर्दिनेषु । विशेषतः कोपमुपैति नित्यम् ॥ तदानुगां मुच्छेति तृष्णया च । विदाहृते दाहपरीतदेहः ॥ १३२ ॥ भावार्थ: - यह विशेषकर बरसात के दिनोंमें उन में भी जिस दिन आकाश अत्यधिक बादल से आच्छादित होता है उसदिन उद्विक्त होता है। इसके प्रकोप होने से रोगी मूर्च्छित होता है एवं अत्यधिक प्यास लगनेसे, सारे अंगों में दाह उत्पन्न होता है, इसलिये वह जलन का अनुभव करता है ॥ १३२ ॥ यकृप्लिहोदर लक्षण । ज्वरातिदाहात्मयुपाना-द्विदाहिभि पितरक्तकोपात् । लिहाभ्यामाकं प्रवृद्धं । महोदरं दक्षिणवामपार्श्वे ॥ १३३ ॥ १ स्त्रियां अज्ञानसे, पुरुषौको वशवर्ति करने के लिये, मल मूत्र आदि अन्न में मिलाकर खिला देती हैं । वैरीगण, मारने आदि के वास्ते, विषप्रयोग करते हैं । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२१९) भावार्थ:-ज्यर, अत्यंत दाह, अत्यधिक पानी पीने व विदाहि पदार्थोंके सेवनसे दूषित रक्तके प्रकोप होनेसे दक्षिण भागमें यकृत् व वाम भागमें टिहा बढ जाता है। इस से, यकृदुदर, प्लीहोदर उत्पन्न होता है या इसी को यकृत्प्लीलोदर कहते बद्धोदर लक्षण । सबालपाषाणतणावरोधात् । सदांत्र एवातिचितं मलं यत् । महोदरं बद्धगुइमतीतं । करोत्यमेध्यादिकगंधयुक्तम् ॥ १३४ ॥ भावार्थ:--भोजन में छोटे कंकर, य घासके टुकडे आदि जाकर आंतडीमें रुक जानेसे सदा मल आंत्रमें ही जमा होजाता है, तब मलावरोध होता है। और बहुत मुश्किल से निकलता है । इसे बद्धोदर कहते हैं एवं उससे अमेध्यादिक दुगंध युक्त होते हैं ॥ १३४॥ स्त्रवि उदर लक्षण । सशल्यमज्ञानत एव भुक्तं । तदंत्रभेद प्रकरोति तस्मात् । परिस्रवीररसप्रवृद्धं । महोदरं सावि भवेत्स्वनाम्ना ॥ १३५ ॥ भावार्थ:--भोजन के समय नहीं जानते हुए कांटे को खाजावे तो वह अंदर जाकर अंत्रभेदन करता है । तब आंतडीसे बहुत, ( पानी जैसा ) रसका स्राव होकर गुद मार्ग से निकलता है । सुई चुभने जैसी पीडा आदि लक्षण प्रकट होते हैं। इसे स्रावि उदर कहते हैं ॥ १३५ ।। जलोदर निदान । यदेव वांतः सुविरिक्तदेह--स्सबस्तिदत्तो वृतरानयुक्तः। पिबेज्जलं शीतलमत्यनल्यं । जलोदरं तत्कुरुते यथार्थम् ॥ १३६ ॥ भावार्थ:-जिस को, वमन व विरेचन कराया हो, बस्ति प्रयोग किया हो, घृत आदि स्नेह जिसने पी लिया हो अर्थात् स्नेहन क्रिया की हो, यदि वह उन हालतों में, ठण्डा जल, अत्यधिक पीयें तो, निश्चयसे उसे जलोदर रोग उत्पन्न होता है जलोदर लक्षण! महज्जलापूर्णधृतिप्रकल्पं । प्रयते क्षुभ्यति विस्तृतं तत् । सचातुरः कश्यति मुद्यतीह । पिपामुरादारविरक्तभावः ॥ १३७ ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२०) कल्याणकारके भावार्थ:-बहुत जलसे भरा हुआ मशक जिस प्रकार हिलता है इसी प्रकार जलोदरसे पीडित व्यक्तिका विस्तृत पेट भी पता है व उसमें क्षोभ उत्पन्न होता है। यह जदोदरी कृश व बेहोश भी होता है। उसे प्यास तो आधेक लगती है। उसे भोजन करनेकी विशेष इच्छा नहीं रहती है ॥ १३७॥ . उदररोग साधारण लक्षण । सदाहमूर्योदरपूरणाग्नि । मरुत्पुरीपातिविरोधनानि ॥ सशोफकायोगनिपीडनानि । भवंति सर्वाणि महोदराणि ॥ १९८॥ - भावार्थ:---सर्व महोदर रोगोमें दाह, मूर्छा, पेट भरा हुआ रहना, अग्निमांच, वातावरोध, मलावरोध, सूजन, कृशता, व शरीरमें दर्द आदि.निकार होते हैं ॥१३॥ असाध्योदर। जलोदराण्येव भवंति सर्वा-ण्यसाध्यरूपाण्यवसानकाले । वदाभिषक्तानि विवर्जयेत्तत् । प्रबद्धसंस्राव्युदराीण चापि ॥१३९॥ भावार्थ:--वृद्धावस्थामें जलोदर हो तो उसे असाध्य समझना चाहिये एवं बद्धो दर स्रावी उदरको भी समझना चाहिये । वैद्यको उचित है कि वह ऐसे रोगियोंकी चिकित्सा नहीं करें ॥ १३२॥ कृच्छ्रसाध्योदर । अथावशिष्टानि महोदराणि । सकृच्छ्रसाध्यानि भवति वानि । भिषक्प्रतिक्रम्य यथानुरूपं । चिकित्सितं तत्र करोति नित्यम् ॥ १४१ ॥ भावार्थ:-बाकीके महोदर रोग कष्टसाध्य होते हैं । यदि. वैद्य कुशल क्रियावों से प्रतिनित्य अनुकूल चिकित्सा करें तो वे कष्टसे अच्छे होते हैं. म १४०॥ भैषजशस्त्रसाध्योदरों के पृथक्करण । तदर्धमप्यष्टमहोदरेषु । वरौषधस्साध्यमथापरार्धम् ॥ .. सशस्त्रसाध्यं सकलानिकालाद्भवंति शस्त्रौषधसाधनानि ॥ ११ ॥ भावार्थः--उपर्युक्त आठ महोदर रोगोमें आदि के चार ( यात पित्त, कफ, व सनियत इन से उत्पन्न ) तो उत्तम औषधियों से साध्य हो सकते हैं । बाकीके चार शत्रकर्म से ठाक होते हैं। बहुतकाल बीतनेपर सर्प ही महोदर शख औषधियोंसे साध्य होते हैं ॥ १४२॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. महामयाधिकारः असाध्य लक्षण । अरोचको यत्परिभग्नपार्श्व । सशोककुदयामयपीडितांगम् ॥ विरिक्तमप्याशु निपूरयतम् । विवर्जयेत्तं जठरामयार्तम् ॥ १४२ ॥ ( २२१ ) भावार्थ:- जिस उदर रोगीको अरुचि अधिक हो, जिसका दोनों पार्श्व टूडेसे मालुम होते हो व सूजन से युक्त हो, विरेश्वन देनेपर भी शीघ्र पानी भर जाता हो उस रोगी को असाध्य समझकर छोडना चाहिये ॥ १४२ ॥ test fचकित्सा । fastriधामधुशिग्रुवल्कं । कषायकल्कं घृतमत्र पौवा ॥ विरेचयेत्तिल्वकसपषासौ । गवांबुना चापि निरूहयेत्तम् ॥ १४३ ॥ भावार्थ :-- विडानमक, बचा, मधुसेंजन, इनके कषाय व कल्कसे सिद्ध घृत को पिलाकर महोदररोगीको तिल्बक घृत प्रयोग से विरेचन कराना चाहिये एवं गोमूत्र से मिरूह वस्ति देनी चाहिये ॥ १४३ ॥ वातोदर चिकित्सा | महोदरं तैलविलिप्तणशु । मरुत्कृतं क्षीरदधिप्रपकैः ॥ सुशिलैस्सकरंजयुग्मै । स्सपत्रदानैरुप नाहयेत्तम् ॥ १४४ ॥ भावार्थ:: - वातज महोदर हो तो उसके पेटपर तेलका लेपनकर दूध व दहसि पकायें हुए सेंजनका जड व दोनो करंज ( करंजपूतीकरंज) के पुल्टिश एरंड आदि वातनाशकक पत्तोंके साथ पेट पर बांधनी चाहिये || १४४ ॥ सदैव संस्वदनमप्यभीक्ष्णं । महोदरे मारुतजे विधेयम् ॥ मधवशिग्रुमूले । स्सुसिद्धदुग्धादिकभोजनं च ॥ १४५ ॥ भावार्थ:- - वातज महोदरमें सदा स्वेदन ( पसीमा लामा ) भी कराना चाहिये । एं उसे सदा सोंठ, सैंधानमक, सैंजनके अडसे सिद्ध दूष आदि भोजन बाराना चाहिये ॥ १४५ ॥ पिचोर चिकित्सा | सपिच दुष्टोदरिणं सुमृ- । विशिटशीतोषघसाघुसिद्धम् ॥ घुसे पाय त्रिवृत्ता येथेष्टं । विरेचयेत समशर्करेण ॥ २४६ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) कल्याणकारके भावार्थ:-पित्ताद्रेकसे उत्पन्न महोदरीको अच्छे व विशेषरस पसे शीत औषधियोंसें अन्छीतरह सिद्ध किया हुआ वृत पिलाकर एवं निशोथ व शकर मिलाकर उसे विरेचन कराना चाहिए ।। १४६॥ ..... पेसिकोदर में निरूह बस्ति । . सशर्करा क्षीरघृतप्रगाहे- । बनस्पतिकाथगणस्सुखोष्णैः ।। निरहणः पित्तकृतोदराते । निरूहयेदौषधसंप्रयुक्तः ॥ १४७ ॥ भावार्थ:-पित्तज महोदरीको जिसमें शक्कर, दूध व घी अधिक हो ऐसे मंदोष्ण निरूहण वनस्पतिके क्वाथसे निरूह बरित देनी चाहिए ॥ १४७ ॥ घृत प्रलिप्तं सुविशुद्धकोष्ठं । सपत्रबद्ध कुरु पायसेन ॥ सुखोष्णदुग्धाधिकभोमनानि । विधीयतां तस्य सतिक्तशाकैः ॥१४८॥ भारार्थ:-कोष्ठ शुद्ध होने के बाद उस के पेटके ऊपर घी लगाकर दूधसे सिद्ध पुटिश बांधनी चाहिए जिस के ऊपर पत्ते बांधने चाहिए। और उसे जिसमें दूध अधिक हो एवं कडुवी तरकारियों से युक्त हो ऐसा भोजन कराना चाहिए ॥ १४८ ॥ . कफोदर। कफोदरं तिक्तकषायरूक्ष- । कटुत्रिकक्षारगणप्रपकैः। घृतस्सतैलैस्समाहितं त- । द्विरेचयेद्वज्रपयः प्रसिद्धैः ॥ १४९ ॥ भावार्थ:-कफोदरीको कडुआ, कषाय रस, रूक्ष औषध त्रिकटु व क्षारसमूह के द्वारा पक घृत तेल से स्नेहन कगकर थोहरके दूधसे विरेचन करना चाहिये ॥१४९॥ गांबुगोक्षारकदुत्रिकाद्यैः। फलत्रयकाथगणैस्सतिक्तैः । निरूहभैषज्ययुतस्सुखोगै- । निरूहयेत्तैरुपनाहयेच्च ॥ १५० ॥ भावार्थ:-गोमूत्र, गायका दूध, त्रिकटु आदि कफनाशक औषध, त्रिफला और निरूहणकारक अन्य औषध इनके सुखोपण कषाय से निरूह बत्ति देनी चाहिए एवं पूर्वोक्त प्रकार कफनाशक पुल्टिश बांधनी चाहिए ॥ १५० ॥ सदैव शोभोजनकाईकाणां । रसेन संपकपयः प्लवान्नम् ॥ कषायतितातिकटुप्रकार-। स्सुशाकवगैस्सह भोजयेत्तम् ॥ १५१ ॥ भावार्थः-उसको सदा सेंजन व अदरख के रस से पक दूधसे युक्त अन्न व कषाय, सीखे, अति कडुए रस से युक्त तरकारियोंसे भोजन कराना चाहिये ॥११॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२२३) साभपातोदर चिकित्सा। यथोक्तदृषीविष महोदरं । त्रिदोषभैषज्यविशेषमार्गतः॥ उपाचरेदाशुकरंजलांगली- । शिरीषककरनुलेपयेदहिः ॥१५२ ॥ भावार्थ:--- यदि दूप्योदर ( सन्निपातोदर ) होजाय तो त्रिदोषके उपशामक औषधियोंसे शीघ्र उपचार करना चाहिए। एवं करंज, कालेझारी, सिरसके कल्कसे बाहर लेपन करना चाहिए ॥ १५२ ।। ____ निदिग्धिकादि घृत। निदिग्धिका निंबकरंजपाटली । पलाशनीली कुटजांघिपांबुभिः ॥ विडंगपाठास्नुहिदुग्धमिश्रितैः । पचेद्धृतं तच्च पिवंद्विषोदरी ॥१५३॥ भावार्थः-कटेली, नीम, करंज, पाडल, पलाश, नील, कुटज, इन वृक्षोंके कषाय व वायविडंग, पाढा, थोहर के दूध, इनके कल्क से पकाये हुए घृत उस विषोदरीको पिलाना चाहिये ॥ १५३ ॥ एरण्डतेल प्रयोग। ससैंधवं नागरचूर्णमिश्रितं । विचित्रवीजोद्भवतैलमेव वा ॥ लिहेत्समस्तोदरनाशहेतुकं । सुखोष्णगोक्षीरतनुं पिवेदपि ॥ १५४ ॥ भावार्थ:---एरण्ड बीजले उत्पन्न तेल अर्थात एरण्ड तेलमें सेंधानमक सोंठके चूर्णको मिलाकर चाटने को देना चाहिये एवं मदोष्ण गायका दूध पिलाना चाहिये जिससे समस्त उदर रोग नाश होते हैं ॥ १५५ ॥ उदर नाशक योग । तथैव दुग्धाकजातिस द्रवै- । विपक्षमाशु क्षायन्छतांशकैः ।। तथा मरुंग्या स्वरसेन साधितं । पुनर्नवस्यापि रसैमहोदरम् ॥ १५५ ॥ भावार्थ:-इसी प्रकार दूध अदरख ब . जाईके रससे सौ वार पकाये गये तथा फालेसेंजनके रससे या पुनर्नवाके रससे सिद्ध एरण्ड तैलके सेवनसे महोदर रोग माश होता है ॥ १५६ ॥ अन्याज्य योग। मुवर्चिका हिंगुथुत सनागरं । सुखोष्णदुग्धं शमयेन्महोदरं ॥ गुडं द्वितीयं सततं निषेवितं । हरीतकीनामयुतं प्रयत्नतः ॥ १५६ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२५.) कल्याणकारके भावार्थ:- यवक्षार हींग व सोंठसे युक्त मंदोष्ण दूधको पनेिसे अथवा हरउके साथ गुडको प्रतिनित्य प्रयत्नपूर्वक सेवन करनेसे उदरमहारोग नाश होता है ॥१५६॥ स्नुहीपयोभावितजातपिप्पली । - सहस्त्रमेवाश जयेन्महोदरम् ॥ हरीतकीचूर्णचतुर्गुणं घृतं निहंति तप्तं माथितं भुविस्थितं ॥ १५७ ॥ भावार्थ:-थोहरके दूधसे भावित हजार पीपलके सेवनसे उदर महारोग शीघ्र नाश होता है। इसी प्रकार हरडेके चूर्णको चतुर्गुण तक्रमें डालकर गरम करके जमीनमें गाढे | पंद्रह दिन या एक मासके बाद निकाल कर पायें तो सर्व उदररोग नाश होता है ॥ १५७ ॥ नाराच घृत । महातरुक्षीरचतुर्गुणं गवां । पयो विपाच्य प्रतितक्रसंधितं ।। खजेन मंथा नवनीतमुध्दृतं । पुनर्विपकं पयसा महातरोः ॥ १५८ ।। तदर्धमासं वरमासमेव वा । पिबेच्च नाराचघृतं कृतोत्तमं ॥ महामयानामिदमेव साधनं । विरेचनद्रव्यकषायसाधितम् ॥ १५९ ॥ भावार्थ:-थोहरके दूधके साथ चतुर्गुण गायका दूध मिलाकर फिर तपाव तदनंतर छाछके संयोगसे उस दूधको जमावे जब वह दही हो जाये तब उसे मथनकर लोणी निकालें उस लोणीमें पुन थोहाके दूध मिलाकर पकाये । इसे नाराच घृत कहते हैं । यह सर्व घृतो श्रेष्ट है । उसे १५ दिन या एक मास तक पायें । जिससे (विरेचन होकर ) सेग दूर होता है । कुष्ठ, उदर आदि महारोगोंके नाशार्थ यही एक उत्तम साधन है। एवं विरेचन द्रव्योंसे साधित अन्य घृत भी ऐसे रोगोंके लिये हिसकर है॥ १५८ ॥ १५९ ॥ महानाराच घृ । त्रिकृत्सदंती त्रिफला सशंखिनी । कषायभागर्नुपवृक्षसत्फलैः ॥ महावाक्षारयुबैस्सचित्रकै- । विडंगयष्पक्षणदा कटुत्रिकैः ॥ १६० ।। पचरसनाचघृतं महाख्यं । महोदराष्टीलकनिष्ठकुष्ठिनाम् । सल्मिकापहमणोद्धतोन्मद- । प्रलापिनां श्रेष्ठविधं विरेचनम् ॥ १६१ ॥ भावार्थ:-जमालगोटेकी जड, त्रिफला, शंखिनी ( यवतिक्ता, चारपुष्णी, पुन्नागवृक्ष. ) इन के कषाय, थोहर का दूध, और अमलतास का गूदा, चीता की जड वाय. विडंग, वश्य, हलदी, खोंठ, मिरच, पीपल, इन के कल्क से घृत सिद्ध करना चाहिए । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः । ( २२५ ) इसका नाम महानाराच घृत है । इस के सेवन से, शीघ्र त्रिरंचन होता है । इसलिये सर्व उदररोग, अष्ट लिका, कुष्ट, गुल्म, अपरमार भयंकर उन्माद और मठापयुक्त रोगीयों के यह अत्यंत हितकर है ॥ १६- ॥१६१ ॥ मूत्रवर्तिका । समस्तसंशाधन भेषजैस्समैः । कदुप्रकारलवणैवां जलैः ॥ महातरुक्षीरयुतैस्सुसाधितै । महामयध्ना वरमुत्रवर्तिका ॥ भावार्थ:--सर्व प्रकार के पीपल आदि संशोगन औषधियां (विरेचन निरूह कारक ) कटु रसयुक्त पंचलवण इनको गोमूत्र व थोहरके दूध के साथ पीसकर, बत्ती बनावें, इसका नाम मूत्रवर्तिका है । इसको गुद में रखने से, उदररोग नाश होत है ॥ १६२ ॥ १६२ ॥ द्वितीय वर्तिका | संशोधनद्रव्ययुक्तस्सुसपै- स्संसंघवक्षारगणानुमिश्रितः ॥ कटुत्रिक मूत्रफलाम्लेपपिते। विधीयते वर्तिरियं महोदरे ।। १६३ ।। भावार्थ:-शोधनद्रव्य, सरसौ, सैंधानमक, क्षारवर्ग ( यवक्षार, सज्जीक्षार आदि पूर्वकथित ) त्रि+टु इनको गोमूत्र, व अम्ल पदार्थ के साथ पीसकर बत्ती बनावे और गुदा में रखें तो वह महोदर रोग में उपयोगी है ॥ १६३ ॥ वर्तिका प्रयोगविधि | गुदे विलिप्ते तिलतैलधवैः । प्रतिवर्ति च विधाय यत्नतः ॥ जयेन्महानाहमिहोदराश्रितान् । क्रिमीन्मरुन्मूत्ररोपरोधनम् ॥ १६४ ॥ भावार्थ:-- गुदस्थान में नमक से मिश्रित तिरके तेलको टेपनकर, उपरोक्त बको भी लेपन करें। फिर ( इन दोनों को चिकना बनाकर ) उसे गुदा के अंदर प्रवेश करना चाहिये । जिससे, उदर में आश्रित, आध्मान ( अफराना ) क्रिमि बात और मल मूत्रावरोध दूर होता है । अर्थात् आम्मान, महोदर, इन रोगोंमें रहने वाले क्रिमिव बायुविकार एवं मल मूत्रावरोध आदि दूर होते हैं ॥१६४॥ get farmer 1 तदाशु दूष्यदरिणं परित्यजे-- द्विषाणि वा सेवितुमस्य दापयेत् ॥ कदाचिदेवाशु च रोगनिवृति- भवेत्कदाचिन्मरणं यथासुखम् ॥१६५॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारक भावार्थ:-दूष्योदरीको असाध्य कहकर छोडना चाहिये । अथवा उस विष सेवन कराना चाहिये । उसके सेवनसे कदाचित् उसके रोगकी निवृत्ति होजायगी अथवा कदाचेत् सुख पूर्वक मरण भी होजायगा ॥१६५॥ यकृत्प्लीहोदर चिकित्सा । यकृत्प्लिहोद्धृतमहोदरे शिरां । स्वदक्षिणे वामकर च मध्यमे ॥ . यथाक्रमात्तां व्यधयेद्विमर्दयन् । प्लिहां करेणातिदधिप्रभोजिनम् ॥१६६॥ भावार्थ:---रोगीको खूब दही खिलाकर यकृददररोग में दाहिने हाथ के, प्लीहोदर में बांयें हाथ के मध्यप्रभाग स्थित शिगको, प्ली:। को, मर्दन करते हुए, व्यधकरना ( फम्त खोलना ) चाहिये ।। १६६ ॥ युधांशतक्षिणाम्बररोपमप्रभा । सुखोष्णगोक्षारविमिश्रितां पिबेत् ॥ यकृत्प्लिहाध्मातमहोदरी नर : । क्रमात्सुखं प्राप्नुमना मनोहरम् ॥१६७|| भावार्थ -. कपूर से मिश्रित सुग्रोण गायके दूव उसे पिलाना चाहिए। जिससे यकृत् , प्लिहा, आध्मान, महोदर आदि रोग दूर होते हैं ॥ १६७ ।। यकृप्लिहानाशकयोग ! सौवर्चिकाहिंगुमहौषधान्विता । पलाशभस्मसृतमिश्रितां पिबेत् ॥ निहंति सक्षारगर्विपाचितं । समुद्रजातं लवणं प्लिहोदरम् ॥१६८ ॥ भावार्थ:----काला नमक, हींग, सोंठ इनको पलाशा भम्मके कषाय में मिलाकर पीना चाहिये | एवं क्षार वर्गके साथ समुद्रलवणको पकाकर पीयें तो प्लिहोदर रोग नाश होता है ॥ १६ ॥ पिप्पल्यादि चूर्ण । सपिप्पलाँसधवचित्रकान्वित । यवोद्भवं साधु विचूर्णित समम् ।।.. रसेन सौभांजनकस्य मिश्रित । लिहेद्यकृत्प्लीह्यदरोपशांतये ॥ १६९ ॥ . भावार्थ:--पीपल, सैंधानमक, चित्रक व विक्षार को समांश चूर्ण करके उसे संजनके रस में मिलाकर रोज चाटे तो यकृत व प्लीहोदर की शांति होती है ॥१६९।। षट्पलपि । सपिप्पली नागरहस्तिपिप्पली : शटीसमुद्राग्नियवोद्भवः शुभैः ॥ कषायकल्कैः पलषदकसंमित- । रिदं घृतं प्रस्थसमांशगोमयम् ॥१७॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः । ( २२७ ) लिहेदिदं षट्पलसपिरुत्तमं । यकृतिप्लहाध्मानमहोदरेष्वपि ॥ सकासगुल्मोध्र्वमरुत्प्रपीडिता । त्युदासमुद्वर्तनिवारणं परम् ॥ १७१ ॥ भावार्थ:- पीपल, सोंठ, गजपीपल, कचोर, समुद्रलवण, चित्रक, व यवक्षारं इनके छहपल ( २४ तोला ) कषाय व छपल कक और एक प्रस्थ ( ६४ सोला ) गोबर का रस डालकर एक प्रस्थ घृत उत्तम वृत्तको सेवन करनेसे, यकृत, सिद्ध 1 करे । इसे पट्पलसर्पि कहते हैं । इस आध्मान, महोदर, कास, गुल्म, प्लिहा, वात, उदावर्तको नाश करता है. ॥ १७० ॥ १७१ ॥ वद्ध वस्त्राभ्युदचिकित्सा | विद्वान्युदरेऽपि वामतो । विपाठ्य नाभेश्वतुरंगुलादधः ॥ तदांत्रमाकृष्य निरीक्ष्य रोधनं । व्यपोह्य सिव्यादचिराद्वहिर्त्रणम् ॥ १७२ ॥ प्रवन्महांत्रं रजतेन कीलये- । च्छ्रितं पयः पातुमिहास्य दापयेत् || सुखोष्णतैलप्रकटावगाहनं । विधाय रक्षेत्परिपाटितांदरम् ॥ १७३ ॥ भावार्थ:-- विबद्ध व स्रावी उदरमें भी बांये ओरसे नाभीके नीचे चार अंगुलके स्थानमें चीरना चाहिये । उसके बाद अंदरसे आंतडी को खींचकर अच्छीतरह देखकर उसमें ककंड कांटे आदि रुके हुए को निकालना चाहिये । छिन्न भिन्न आंतडीको चांदी के पतले तारसे जोडदेना चाहिये । पश्चात् उदर के बाहर के भागको शीघ्र सीकर ओटाये हुए दूधको पिलाना चाहिए। एवं उसको थोड़ा गरम तेल मे बैठालकर उसकी रक्षा करनी चाहिए || १७२ ॥ १७३ ॥ जलोदर चिकित्सा | जलोदरे तैलविलिप्तदेहिनं । सुखोष्णतोयैः परिषिक्तमातुरम् ।। पटेन कक्ष्यात्परिवेष्टितोदरम् । यथोक्तदेशं व्यथयेदधारय ॥ १७४ ॥ भावार्थ:-जलोदरीको सबसे पहिले तेलका लेपन कर मंदोष्ण पानसि स्नानकरना चाहिए । उसके बाद कटी प्रदेशके ऊपर कपडे को लपटना चाहिए । फिर बिगर धारके कोई शस्त्रसे पूर्वोक्तप्रदेश [ नाभिके चार अंगुल नीचे बांयें भाग ] में छेद करना चाहिए ॥ १७५ ॥ उदरसे जल निकालने की विधि | निधाय नाडीं तनुधारयान्वितां । क्रमादिहाल्पाल्पजलं निषेचयेत् ॥ न चैकवारं निखिलं सृजेत्तृषा । तीव्रातिमूच्छी ज्वरदाहसंभवान् ॥ १७६ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) कल्याणकारकै भावार्थ:-उस छेद में एक योग्य दो मुखबाली नलीको रखकर थोडे २ जल उस से निकालना चाहिए । एकदम सब जल नहीं निकालना चाहिए। क्यों कि अत्यंत तृषा तीव्रमूर्छा, ज्वर व दाह इत्यादि होनेकी संभा ना रहती है ॥ १७६ ॥ यथा यथा दोपजलनुतिर्भवेत् । तथा तथा गाढतरातिबंधनम् ॥ विधाय पक्षादयवापि वामतः । समस्तदोषोदकमुत्सृजेद्बुधः ॥१७७॥ भावार्थ:- जैसे २ सदोष जल निकल जावेगा वैसे २ [ कमरके ] कपडेके बंधनको अधिक कसते हुए जाना चाहिए । इस प्रकार बुद्धिमान् वैद्यको उचित है कि पंद्रह दिन तक संपूर्ण दोष युक्त जलको वामपा से निकालना चाहिए ॥ १७७॥ जलोदरीको पथ्य। ततश्व पण्मासमिहोदरादितं । सुखोष्णदुग्धेन सदैव भोजयेत् ।। क्रियासु सर्वास्वथ सर्वथैव । महोदरे क्षीरमिह प्रयोजयेत् ॥ १७८॥ भावार्थ:-उसके बाद छह महीने तक भी उस जलोदरी को मंदोपणदूध के साथ ही भोजन कराना चाहिये। महोदररोगसंबंधी सचिकित्सा करते समय दूधका उपयोग करना चाहिये ॥ १७८ ॥ दुग्धका विशेष गुण क्षीरं महोदरहितं परितापशोष- | तृष्णास्त्रपित्तपवनामयनाशहतुम् ।। वृष्यं बलप्रजननं परिशोधनं च । संधानकृत्तदनुरूपगुणौषधान्यम् ।।१७९॥ भावार्थ:-तत्तद्रोगनाशक. औषधियों से युक्त, दूध, उदररोग संताप, शोष, तृष्णा, रक्तपित्त व वातविकार को नाशकरता है । साथ ही पौष्टिक है । बलप्रद है, शोधक है । और संधानकारी है ॥ १७९ ॥ . अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः॥ उभयभवार्थसाधनतटट्यभासुरतो। निमृतमिदं हि शीकरानिभं जगदेकाहितम् ॥ १८० ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, लत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंदो मुखमें Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२२९) उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हितसावक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ १८० ।। इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे महाव्याधिचिकित्सितं नामादितो एकादशमः परिच्छेदः । इत्युप्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाविधिभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में महारोगाधिकार नामक ग्यारहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। सय Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) कल्याणकारके अथ द्वादशः परिच्छेदः वातरोगचिकित्सा। मंगल व प्रतिज्ञा। देवदेवपाभिवंद्य जिनेंद्र । भावितामखिलवातचिकित्सां ॥ श्रावयामि वरभेषजयुक्तां । सावशेषकथितां सहरिष्टैः ॥ १ ॥ भावार्थ:---देवाधिदेव श्री जितेंद्र भगवतको नमस्कार कर पूर्वऋषियों के द्वारा .. आज्ञापित वात चिकित्सा के संबंधमे पूर्वोक्त प्रकरण से शेषविषयों को औषधविधान व रिष्ट वगैरहके साथ कहेंगे ॥ १ ॥ वातरोग का चिकित्सासूत्र । यत्र यत्र नियताखिलरोगः । तत्र तत्र विदधीत विधानम् ॥ तैललेपनविमदनयुक्त- । स्वदनोपनहनैरनिलघ्नैः ॥ २ ॥ भावार्थ:-शरीरके जिस २ अवयवमें जो २ रोग हो उसी भागमें बात नाशकरनेवाले औषधियोंसे सिद्ध तेललेप, उबटन, स्वेदन, और उपनाहन [ पुलटिस बांधना ) के द्वारा तदनुकूल चिकित्सा करनी चाहिये ॥ २ ॥ - त्वसिरादिगतवातचिकित्सा | त्वक्सिरापिहितसंश्रितवाते । रक्तमोक्षणमथासत्कृटुक्तम् ।। अस्थिसंधिधमनीगतमास्वं- । द्याशु बंधनविधिं विदधीत ॥ ३ ॥ भावार्थ:-यदि वात वचा व शिरागत हो तो वार २ रक्त मोक्षण (खूब निकालना) करना चाहिये । यदि अस्थि संवि व धमनीमें प्राप्त हो सो शीघ्र स्वेदन क्रियाकर बंधन करना चाहिये ॥ ३ ॥ ___ अस्थिगत वातचिकित्सा। अस्थिसंश्रितमथावयवस्थं । शृंगमाशु जयतीह नियुक्तम् ॥ पाणिमन्थनविदारितमस्थ्या । व्यापयनलिकया पवनं वा ॥४॥ भावार्थ:-वह वायु अस्थ्यवयवमें प्रविष्ट हो तो सीग लगाकर रक्त निकालनेसे वह ठीक होता है अथवा हाथसे मलकर व चीर कर नळीसे वायुको बाहर निकालना चाहिये ॥ ४ ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकार: (.२३१) श्लेष्मादियुक्त व सुप्तवात चिकित्सा । श्लेष्मपित्तरुधिरान्वितवायो । तत्प्रति प्रवरभेषजवगैः ।। सुप्तवातममृजः परिमोक्ष- । र्योजयेदुपशपीक्रययापि ॥ ५ ॥ भावार्थ:-यदि बात कफ, पित्त व रक्तसे युक्त हो तो उसके लिये उपयोगी श्रेष्ठ औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये । मुप्तवातके लिये रक्तमोक्षण करना व उसके योग्य उपशम क्रिया करना उपयोगी है ॥ ६ ॥ कफ पित्त युक्त वात चिकित्सा । तापबंधनमहोष्मनिजाख्यः । स्वेदनः कफयुताद्भुतवातम् ॥ स्वेदयेद्रुधिरपित्तसमेतं । क्षीरवारिघृतकांजिकमित्रैः ॥ ६ ॥ भावार्थ:-ताप, बंधन [ उपनाह ] ऊष्म, और द्रव, इस प्रकार स्वेद के चार भेद हैं ।। यदि वात कफयुक्त हो तो ताप, बंधन, और उपनाह के द्वारा स्वेदन करना ( पसीना निकालना ) चाहिये । रक्त व पित्त युक्त हो तो दूध, पानी, बी और कांजी मिलाकर द्रवस्वेद के द्वारा पसीना निकालना चाहिये। इसका विशेष इस प्रकार है। (१) तापस्वेदः-बालुकी पोटली हथेली, वस्त्र, ईंट आदि को गरम कर के, इन से, शरीरको तपाकर ( सेककर ) जो पसीना निकाला जाता है उसे तापस्वेद कहते हैं।... (२) उपनाह बंधन ] स्वेदः-वातघ्न औषधि, तैल, ताक, दही, दूध, अम्ल पदार्थ आदिसे सिद्ध किये हुए औषध पिण्ड से तत्तदंगो में मोटा लेप कर उसके ऊपर कम्बल, कपडा, वातघ्न एरण्ड अकादि पत्तियोंको बांधकर [ इसी को पुलाटश बांधना कहते हैं ] जो पसीना निकाला जाता है उसे उपनाह व बंधन कहते हैं । . (३) ऊमस्वेदः ----१ लोहेका गोटा, ईंठ आदिकोंको तपाकर उस पर छाछ, कांजी आदि स्वादर छिडकना चाहिये । रोगीको कम्बल आदि उढाकर उस तपे हुए गोले व ईंठसे सेके तो उसके बाप्पसे पर्माना आता है। वातान दशमूल आदि औषधोंक काढा व रसको एक घडेमें भरकर तपाय घड़े का मुह बंद करके और उसके पेटमें छिद्र बनाकर उसमें लोहा बांस आदिसे बनी हुई एक नलो लगावे । रोगीको वातन तेल मालिश करके कम्बल आदि ओढाकर बैठाये । पश्चात् घडेकी नलीके मुंहको रोगीके कपडे के अंदर करें तो उसके वाफसे पसीना आता है । . १ देखो श्लोक नंबर ७. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३२), कल्याणकारके मनुष्यके शरीरके बराबर लम्बा और चौडा जमीन खोदकर उसमें खरकी लकड़ी भरकर अलावे । जब वह अच्छीतरह जलजात्रे उसी समय कोयला निकालकर दूध छाछ कांबी आदि छिडककर उसपर बातघ्न निर्गुण्डी एरण्ड, आक आदिके पत्तियोंको विछावे वादमें उसके ऊपर रोगीको सुलावे । ऊपरसे कम्बल आदि ओढावे। इससे पसीना आता है । इत्यादि विधियोंसे जो स्वेद निकाला जाता है इसे ऊष्मस्वेद कहते हैं। . ___ (४)द्रवस्वेदः-वातघ्न ओषधियोंके गरम काढेको लोह ताम्र आदिके बड़े पात्रामें भरकर उसमें तैलसे मालिश किये हुए रोगीको बैठालकर ( रोगीका शरीर छाती पर्यंत काढेमे डूबना चाहिये ) जो पसीना लाया जाता है अथवा रोगीको खाली वर्तनमें बैठाल कर ऊपरसे काढेकी धारा तबतक गिराये जब तक कि नाभिसे छह अंगुल ऊपर तक बडू जावे इससे भी पसीना आता है इनको द्रवस्वेद कहते हैं । इसी प्रक.र घी दूध तेल आदि से यथायोग्य रोगोंमें स्वेदन करा सकते हैं ।। ६॥ वातनउपनाह। तैलतक्रदघिदग्धघृताम्लैः । तण्डुलैर्मधुरभेषनवगैः ।। क्षारमूत्रलवणैस्सह सिद्धं । पत्रबंधनमिदं पवनध्नम् ॥ ७ ॥ भावार्थ:--तैल, छाछ, दही, घृत अम्ल पदार्थ, चावल, व मधुर औषधिवर्ग यवक्षारादि क्षार गोमूत्र व सेंधवादि लवणोंके द्वार' सिद्ध पुलटिसको बांधकर उसके ऊपर वातघ्न पत्तोंका प्रतिबंधन करना चाहिये । यह वातहर होता है ॥ ७ ॥ सर्वदेहाश्रितवातचिकित्सा सर्वदेहमिहसंश्रितवातं । वातरोगशमैनरवगौहः ॥ पकधान्यनिचयास्तरणाद्यैः । स्वेदयेत्कुरुत बस्तिविधानम् ॥ ८॥ भावार्थ:-सर्वदेहमें व्याप्त वा हो तो बात रोग को उपशमन करनेवाले औषधियोंसे सिद्ध काढे में रोगी को अवगाहन, ( बैठालना ) व पके हुए धान्यसमूह के ऊपर सुलाना आदि क्रियायोंके द्वारा स्वेदन कराना चाहिये । फिर बस्तिप्रपोग करना चाहिये ॥८॥ स्तब्धादिवातचिकित्सा । __ स्तब्धदेहमिद्द कुंचितगात्रं । गाढबंधयुतमाचरणीयम् ।। संघजत्रुगलवलास वातं । नस्यमाशुशमयेद्वानं च ॥ ९ ॥ १-२ इन दोनोंका खुलासा ऊष्मद्रवस्वेद में किया है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः । ( २३३ ) भावार्थ:- वातविकार से जिसका शरीर स्तब्ध व आकुंचित हो गया है उसके लिये मोटा पुल्टिश बांधना चाहिये । स्कंध (कंधा), जत्रु ( हंसली ) गल व वक्षस्थान में वात हो तो नस्य और चमनसे शमन करना चाहिये ॥ ९ ॥ सर्वागगतादिवातचिकित्सा । एकदेश सकलांगगवातं । बस्तिरेव शमयेदतिकृच्छ्रम् । उत्तमांगसहितामलबस्ति । धारयेत्क्षणसहस्रमशेषम् ॥ १० ॥ भावार्थ:- एक देशगत व सर्वांगगत अतिकठिनसाध्य वात को वस्तिप्रयोग शमन करसकता है । शिरोगतवायु हो तो शिरोबस्तिको एक हजार क्षणतक धारण करना चाहिये । शिरोवस्तिः - चर्म व चर्मसदृश मोटे कपडेसे टोपीके आकारवाली लेकिन इसके ऊपर व नीचेका भाग खुला रहे [ टोपी में ऊपरका भाग बंद रहता है ] ऐसी बिना | उसके एक मुंहको शिरपर जमाके रखें । उसकी संधिमें उडदकी पिट्टीका लेप करें । इसके बाद उसके अंदर वातघ्न तैल भरकर १००० एक हजार क्षणतक शिरको निश्चल रखकर धारण करावे तो नाक मुंह और नेत्रमें स्राव होने लगता है । तब उसको शिरसे निकाल लेवें । इसे शिरोबस्ति कहते हैं ॥ १० ॥ 1 आवृद्धवाचिकित्सा । स्नेहिकैर्बमनलेपविरेका-- । भ्यंगधूपकबला खिलबस्तिम् ॥ प्रोक्तनस्यमखिलं परिकर्म । प्रारभेत बहुवातविकारे ॥ ११ ॥ भावार्थ:- अत्यधिक वातविकार हो तो स्नेहन वमन, लेप, विरेक, अभ्यंग, धूप, कबल व बस्ति आदि पहिले कहे हुए नस्य प्रयोगोंका आवश्यकतानुसार प्रयोग करें ॥ ११ ॥ वातरोग में हित । स्निग्धदुग्धदधिभोजनपाना- । न्यम्लकानि लवणोष्णगृहाणि ॥ कुष्टपत्र बहुलागुरुयुक्ता । लेपनान्यनिलरोगहितानि ॥ १२ ॥ भावार्थ:- चिकने पदार्थ (तैल वी) व दूध, दही, खट्टा और नमकीन पदार्थोको भोजन व पान में उपयोग, गरम मकान में निवास और कूट, तेजपात, इलायची व अगुरु उनका लेपन करना, वातरोग के लिये हितकर है | ॥ १२ ॥ ३० Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) कल्याणकारके वातरोग में हित। साग्नियानगुरुसंवरणानि । ब्रम्हचर्यशयनानि मृदूनि ॥ ..... धान्ययूषसहितानि खलानि । प्रस्तुतान्यनिलरोगिषु नित्यम् ॥१३॥ . . भावार्थ:-गरम सवारीमें जाना, भारी कपडोंको ओढना, ब्राहचर्यसे रहना, मृदुशयनमें सोना, धान्ययूष सहित खल ( व्यंजनविशेष ), ये सब वातरोग के लिये हितकर हैं ॥ १३ ॥ वातरोग में हित। आज्यतैलयुतभक्षणभौज्यों- । ष्णावगाहपरिषेककरीषेः ॥ स्वेदनान्यतिसुखोष्णसुखानी- । त्येवमाद्यनिलवारणमिष्टम् ॥ १४ ॥ भावार्थ:--घी, तेलसे युक्त भक्ष्य व भोजन, उष्ण काढा आदिमें अवगाहन, करीष [ सूखे गोबर ] को, थोडा गरम कर के सेक कर सुखपूर्वक स्वेदलाना आदि यह सब वातनिवारण के लिये हितकर हैं ॥ १४ ॥ तिल्यकादि घृत । तिल्वकाम्लपरिपेषितकल्कं । बिल्वमात्रमवगृह्य सुदंती ।। क्षीरकंचुकमिति त्रिवृतारव्या-- । न्यक्षमात्रपरिमाणयुतानि ॥१५॥ आढकं दधिफलत्रयजात- । काथमाढकमथापि घृतस्य ।। प्रस्थयुग्ममखिलं परिपकं । वातिनां हितविरेचनसर्पिः ॥ १६ ॥ भावार्थ:--खट्टी चीजोंसे पिसा हुआ तिल्वक ( लोधके वृक्षके आकारवाला, जिसकी पत्तियां बडी होती है, लालवर्ण युक्त, ऐसे विरेचनकारक वृक्षविशेष) कल्क ४ तोले, जमालगोटे की जड, क्षीर कंचुकी [क्षीरीशवृक्ष ] निशोथ ये एक २ तोले लेकर, चूर्ण करें और उपरोक्त ( तिल्यक ) कल्कमें मिलावें । यह कल्क, एक आढक [ ३ सेर, १६ तोले ] दही, एक आढक त्रिफलाक्वाथ, इन चीजोंसें, दो प्रस्थ [ डेढ सेर १२ तोला ] धृत यथाविधि सिद्ध करें। यह तिल्वकादि घृत, वातिक सोगियोंको विरेचन के लिये उपयोगी है ॥ १५ ॥ १६ ॥ अणुतैल । पीलुकोपकरणानि तिलानां । खण्डखण्ड शकलानि विधाय । क्वाथयेद्वहुतरोदकमध्ये । तैलमुत्पतितमत्र गृहीत्वा ॥ १७ ॥ १ रोधाकारे बृहत्पत्रे, रवैरेपनिक वृशे। पंधक शब्दसिंधु. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः तच्च वातहरंभषजकल्क- । क्याथदुग्धदधिभागविपकम् ॥ वातरोगमणुतैलमशेषं । हंति शांतिरिव कर्मकलंकम् ।। १८ ।। भावार्थ:---पीलु वृक्षकी छाल व तिलको टुकडा २ कर बहुतसे पानीमें पकाकर काथ करना चाहिए। उसमें जो तेल निकले उसे निकालकर बात हर औषधियोंका कल्क क्वाथ, दूध, दहीके साथ पकानेपर तैल सिद्ध होता है। उसका नाम अणुतैल है। जिस प्रकार शांतिक्रिया कर्म कलंकको नाश करती है उसी प्रकार उस तेलका एक अणु भी संपूर्ण वात रोग को नाश करता है ॥ १७ ॥ १८ ॥ __ सहस्रविपाक तेल | सर्ववातहरवृक्षविशेषै- । शोषितैरवनिमाशु विदग्धाम् ॥ तैर्विपकवरतैलपटैर्नि- । प्य नक्तमुषितां ह्यपरेयुः ॥ १९ ॥ स्नेहभावितसमस्तमृद निः- । काथ्य पूर्ववदिहोत्थिततैलम् । आम्ल दुग्धदधिवातहरका- । थौषधैरीप ससहस्रगुणांशैः ॥२०॥ सर्वगंधपरिवापविपकं । पूजया सततमेव महत्या ॥ पूजितं रजतकांचनकुंभ- । स्थापितं वरसहस्रविपाकम् ॥ २१ ॥ राजराजसदृशोऽतिधनाढ्यः । श्रीमतां समुचितं भुवि साक्षात् ॥ तैलमंतदुपयुज्य मनुष्यो । नाशयेदखिलवातविकारान् ॥ २२ ॥ भावार्थ:---सर्व वातहर वृक्षोंको सुखाकर उनसे भूमि को जलाये तथा उन्ही वात हर वृक्षोंकी छाल, जड आदि के क्वाथ व कल्कके द्वारा एक आढक तिलके तैल को पकाकर सिद्ध करें । उस तेलको उस जलाई हुई भूमि पर डालें । एक रात्री वैसा ही छोडकर दुसरे दिन उस तेल से भावित मिट्टीको निकालकर क्वाथ करें जिससे यथापूर्व निकल जायगा । उस तेलको हजार गुना आम्ल, दधि, दुग्ध व वातहर औषधियोंके क्वाथ व कल्क के साथ हजार वार पकाना चाहिए । तब वह तेल सिद्ध होजाता है । फिर उसमें सर्व गंधद्रव्यों [ चन्दन कस्तूरी कपूर आदि 1 को डालकर बहुत विजभणके साथ पूजा करके उसे चांदी व सोनेके घडेमें भरकर रखें । इस तैल को तैयार करनेके लिए राजाधिराज सदृश धनाढ्य ही समर्थ हैं । इस तैलको उपयोग करनेसे मनुष्य सर्वप्रकारके बात विकारोंको दूर करता है ॥१९।२०।२१।२२॥ पत्रलवण। नक्तमालबृहतीद्वयपूति- काग्निकेचरकमुष्कपुनर्ने- ॥ रण्डपत्रगणमत्र गृहीत्वा । क्षुण्णमेबुलवणेन समानम् ॥ २३ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) कल्याणकारके तत्सुपात्रनिहितं प्रपिधाया - रण्यगोमयम हाग्निविदग्धम् ॥ पत्रनामलवणं पवनघ्नम् । ग्रंथिगुल्मकफशोफविनाशम् ॥ २४ ॥ भावार्थ:----करंज, छोटी कटेली, बडी कटेली, पूती करंज, चित्रक, गोखुर मोखा, पुनर्नवा, एरण्ड इनकी पत्तियोंको समभाग लेकर चूर्ण करें । इस चूर्ण के बराबर समुद्र नमक मिलाकर उसे एक अच्छे मिट्टी के घडेमें डालकर, उसके मुंह बंद कर दें । फिर जंगली कण्डोंसे एक लघु पुष्ट देवें [ जलाये । बस औषध तैयार होगया । इसका नाम पत्रलवण है। इसके सेवन से वातरोग नाश होते हैं। तथा ग्रंथि, गुल्म, कफ, और शोथ ( सूजन ) को नष्ट करता है ॥ २३ ॥ २४ ।। क्वाथ सिद्धलवण। नक्तमालपिचुंमदपटोला- पाटलीनृपतरूत्रिफलाग्नि- ॥ काथसिद्धलवणं स्नुहिदुग्धो- मिश्रितं प्रशमयेदुदरादीन् ॥२५॥ भावार्थ:-करंज, नीम, पटोलपत्र (कडबी परवल) पाढ, अमलतास की गूदा त्रिफला, चित्रक इनको समांश लेकर बने हुए काथसे सिद्ध नमक में थोहरका दूध मिश्रकर उपयोगमें लेवें तो उदरादि अनेक रोगोंको दूर करता है ॥ २५ ॥ कल्याण लवण। पारिभद्रकुटजार्कमहाव- क्षापमार्गनिचुलाग्निपलाशान् । शिवशाकबृहतीद्वयनादे-- याटरूषकसपाटलबिल्लान् ॥ २६ ॥ नक्तमालयुगलामलचव्या- रुष्करांघ्रिपसमूलपलाशान् । वैजयंत्युपयुतान् लवणेनो- मिश्रितान्कथितमार्गविदग्धान् ॥२७॥ षड्गुणोदकविमिश्रितपक्का- गालितानतिघनापलवस्त्रे । तवं परिपचेत्प्रतिवापै-हिंगुजीरकमहौषधचव्यैः ॥ २८ ॥ चित्रकर्मरिचदीप्यकमित्रैः । पिप्पलीत्रिकयुतैश्च समांशैः । चूर्णितैर्बहलपक्कमिदं कल्याणकाख्यलवणं पवनघ्नम् ॥ २९ ॥ भावार्थ:-बकायन, कुटज, अकौवा, योहर, लटजीरा, चित्रक, पलाश, सेंजन, दोनों ( छोटी बडी ) कटेली, अडूसा, पाढ, बेल, दोनों ( करंज पूतीकरंज ) करंज, चाव, भिलावा, पलाशमूल, अगेथु इन सब औषधियोंको चूर्ण कर उसमें सेंधालवण सन्मिश्रण करके पूर्वोक्त प्रकारसे जलाना चाहिये । तदनंतर उसे षड्गुण जल मिलाकर १ औषधियोंके क्वाथ में उसके बराबर सेंधानमक डालकर तबतक पकावे कि वह जबतक गाढा न होवे । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः।। (२३७) उसको पकावे । फिर अच्छे कपडेसे छानकर उस द्रवमें हींग, जीरा, सोंट चाव चित्रक कालीमिरच अजमोद " तीनों प्रकार के पीपल, इनके समांश चूर्ण को डालकर तबतक पकावे जबतक गाढा न हो इसे कन्यागलपण काह हैं। यह बातविकारको नाश करता है ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ अग्निमांद्यगुदनांकुरगुल्म- । ग्रीथकीटकठिनादरशूला॥ नाहकुक्षिपरिवतविधी । सारांगशमनं लवणं तत् ।। ३० ॥ भावार्थ:-यह लवण अग्निमांद्य, वयः रि, गुलम, अंथि, कृमिरोग कठिनोदर, शूल, आध्मान, कुक्षि, परिवर्त, हजा; अतिसार आदि अनेक रोगोंको उपशमन करता है ॥ ३० ॥ साध्यासाध्य विचारपूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए । उक्तलक्षणमहानिलरोगे- प्वप्यसाध्यमधिगम्य विधिज्ञः ॥ साधयेदधिकसाधनवेदी । वक्ष्यमाणकथितोषधयोगैः ॥ ३१ ॥ .: भावार्थः----इस प्रकार लक्षणसहित कहे गये वातरोगों में चिकित्सा शाख में कुशल वैद्य साध्यासाव्यका निर्णय करें । और साध्यरोगोंको आगे कहनेवाले व कहे गये औषधियोंके प्रयोग से साध्य करें ॥ ३१ ॥ अपतानकका असाध्यलक्षण । स्रस्तलोचनमतिश्रमबिंदु-। व्याप्तगात्रमभिभितमेदम् ॥ मंचकाहतबहिर्गतदेहम् । वर्जयेत्तदपतानकतप्तम् ।। ३२ ॥ भावार्थ:-- जिसकी आंखे खिसक गई हो, अतिश्रमसे युक्त हो जिसके शरीरमें बहुतसे चकत्ते होगये हों, जिसका शिश्न बहुत बढ़ गया हो, खाटपर हाथ पैरको खूब पटकता हो व उस से बाहर गिरता हो ऐसे अपतानक रोगीको असाध्य समझकर छोडना चाहिए ॥ ३२ ।। पक्षाघातका असाध्यलक्षण शूनगात्रमपमुप्तशरीरा- । मानभुनतनुपरुजार्तम् । वर्जयेदधिकवातगृहीतं । पक्षघातमरुजं परिशुष्कम् ॥ ३३ ॥ भावार्थ:-- जिसका शरीर सूजगया हो, सुप्त ( स्पर्शज्ञान शून्य.) हुआ हो, आध्मान (अफराना) से युक्त हो, नमगया हो, व कम्पसे युक्त हो, अत्यधिक वातसे गृहीत १ पिपली २ जलपिप्पली ३ गजपिप्पली. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( -२३८) 'कल्याणकारके हो पीडा रहित हो, अंगोपांग सूख गये हों, ऐसे पक्षाघात रोगी को असाध्य समझकर : छोडना चाहिए ॥ ३३ ॥ आक्षेपकअपतानक चिकित्सा | स्नेहनानुपकृतातुरमोक्ष- । पापतानकृनिपीडितगात्रम् ॥ शोधयेच्छिरसि शोधनवगैः । पाययेद्धृतमनंतरमच्छम् ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-- आक्षेपक अपतानकसे पीडित रोगी को स्नेहन स्वेदन आदि क्रियाक प्रयोगकर [ शिरोविरेचन ] शिरशोधनवर्ग की औषधियोंसे शिरशोधन करना चाहिए | तदनंतर स्वच्छ घृतको पिलाना चाहिए ॥ ३४ ॥ वातहर तैल | ख्यातवातहर भेषजकल्क- । क्वाथकोलयवतोयकुलुत्थी - || त्पन्नयुषदधिदुग्धफलाम्लै । स्तैलमाज्यसहितं परिपक्वम् ||३५|| भावार्थ:- वातको नाश करनेवाली औषधियोंसे बनाया हुआ कल्क व काय चैर' व 'यत्रका पानी, कुलथी का यूप, दही, दूध अम्लफल और घी इनसे तेल सिद्ध 'करना जाहिये || ३५ ॥ वातहर तेल का उपयोग | नस्यतर्पणीशरः परिषेका- स्यंगवस्तिषु विधेयमिहाक्षे- । पापतानकमहानिलरोगे - ध्वष्टवर्गसहितं मिथुनाख्यम् ||३६|| भावार्थ:- उपरोक्त तेल को, अपतानक महावात रोगों में नस्य, सिर का 'तर्पण, परिषेक, अभ्यंग, और बस्तिक्रिया में उपयोग करना चाहिये । एवं जीवक 'ऋषभक, काकोली क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि इन अष्टवर्ग से सिद्ध किये हुए मिथुन नामक तैल को उपरोक्त कार्यों में उपयोग करना चाहिये || ३६ ॥ आर्दित वात चिकित्सा | स्वेदयेदसदर्दितवतं । स्वेदनविधैर्वहुधोक्तः । अर्कतैलमपतानकपत्रा - | म्लाधिकं दधि च पीतमभुक्त्वा ॥ ३७॥ भावार्थ:- अर्दित वातरोग में भोजन न खिलाकर, अम्लरस वा दही को पिलाये पश्चात् अनेक बार कहे गये, नाना प्रकार के स्वेदन विवियों द्वारा वार २ स्वेदन करें । आकके तैल का मालिश करें ।। ३७ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः । शुद्ध व मिश्रवात चिकित्सा ! शुद्ध वातहितमेतदशेषं । मिश्रितेष्वपि च मिश्रितमिष्टम् ॥ दोषभेदरसभेदविधिज्ञो । योजयेत्प्रतिविधानविशेषैः ॥ ३८ ॥ भावार्थ:- ऊपर अभीतक जो वातरोग की चिकित्सा का वर्णन किया है, वे सम्पूर्ण शुद्धवादार अर्थात् केवल बातसे उत्पन्न रोगों में हितकर हैं । अन्यदोषों से मिश्रित ( युक्त ) वातरोगों के लिये भी रसभेद, दोषभेद, व तत्तद्रोगों के प्रतीकार विधान को जाननेवाला वैद्य, तत्तद्दोषों के प्रतिकूल, ऐसी मिश्रित चिकित्सा करें पक्षावात अर्दितवात चिकित्सा । ॥ ३८ ॥ पक्षघातमपि साधु विशोध्या - । स्थापनाद्यखिलरोगचिकित्सा | संविधाय विदितार्दितसंज्ञम् । स्वेदनैरुपचरेदवपीडैः ॥ ३९ ॥ ( २३९) भावार्थ:- पक्षाघात रोगीको अच्छीतरह विरेचन कराकर, आस्थापनाबस्ति आदि वातरोगों के लिये कथित, सम्पूर्ण चिकित्सा करनी चाहिये । अर्दित वातरोगी को स्वेदन व अवपीडननस्य आदि से उपचार करना चाहिये ।। ३९ ।। आदितवत के लिए कासादि तैल | काशदर्भकुशपाटलीबल्व काथभागयुगले सुदुग्धम् ॥ तैलमर्धमखिलं परिपक्कं । सर्वथार्दितविनाशनमेतत् ॥ ४० ॥ भावार्थ:- कास तृण, दर्भा, कुश, पाढ, बेल इनके दो भाग काथ एक भाग दूध एवं उस से [ दूधसे ] आधा भाग तैल डालकर पकायें । इस तेल को नस्य आदि के द्वारा प्रयोग करें तो, आदितवात को विनाश करता है ॥ ४० ॥ गृनसी प्रभृतिवात रोग चिकित्सा | सिप्रभृतिवातविकारा- । व्रक्तमोक्षणमहानिलरोग - ॥ प्रोक्तसर्वपरिकर्मविधानैः | साधयेदुरुतरौषधयोगैः ॥ ४१ ॥ भावार्थ:- गृसि आदि महावात विकार में रक्तमोक्षण करके पहिले कहे गये उत्तम औषधियों के प्रयोग से योग्य चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ४१ ॥ higaaraचिकित्सा | ॥ कोजानपि महानिलरोगान् । कुष्टपत्रलवणादिघृतै बस्तिभिर्विविधभेषजयोगेः । साधयेदनिलरोगविधिज्ञः ॥ ४२ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) कल्याणकारके भावार्थ:- कोष्टगत महावात रोगोंमे पत्र लवणादिक, वृत व वस्तिप्रयोग आदि अनेक प्रकारके प्रयोगों द्वारा संपूर्ण वात रोगोंकी विधीको जाननेवाला कुशल बैद्य चिकित्सा करें ॥ ४२ ॥ वातव्याधिका उपसंहार. केवलोऽयमितरैस्सहयुक्तो । वात इत्युदितलक्षणमार्गीत् ॥ आकलय्य सकलं सविशेषै- । भेषजैरुपचरेद्नुरूपैः ॥ ४३ ॥ भावार्थ::- यह केवल वातज विकार है, यह अन्य दोषोंसे युक्त है । इन का पहिले कहे हुए वातादि दोषोंके लक्षणोंसे निश्चयकर उनके योग्य औषधियों से चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ४३ ॥ कर्णशूल चिकित्सा | कर्णशूलमपि वहिंगु । चच्छृंगवेररसतैलसमेतैः ॥ पूरयेच्छ्रवणमाशु जयेत्तं । छागतोयलशुनार्कपयोभिः ॥ ४४ ॥ भावार्थ:-सैंधानमक, हींग, अदरख के रसको तेल में मिलाकर अथवा बकरेकी मूत, लहसन व अकौका रस इनको मिलाकर गरम करके कानमें भरें और उसको सौ पांच अथवा एक हजार मात्र समयतक धारण करावे तो कर्णशूल शांत होता है । अथ मूढगर्भाधिकारः । मूढगर्भकथनप्रतिज्ञा | उक्तमेतदखिलामययोग्यं । सच्चिकिकित्सितमतः परमन्ये मृदगर्भगतिलक्षणरिष्ट- प्रोयदुद्धरणयुक्तकथेयम् ॥। ४५ ।। भावार्थ:- अभीतक वात रोगों के लिये योग्य चिकित्साविशेषका प्रतिपादन किया है । अब मूढगर्भ के लक्षण, रिष्ट, व उद्धरणकी ( निकालने की ) विधि आदिको कहेंगे ।। ४५ ।। गर्भपात का कारण | वाहनाध्वगमनस्खलनाति । ग्राम्यधर्मपतनाद्यभिघातात् ॥ प्रच्युतः पतति विसृतगर्भ - | स्वाशयात्फलभियांत्रिपदात् ॥ ४६ ॥ १ घुटने चारों तरफ हाथसे एक चक्कर फिराकर चुटकी बजाये । इतने कालकी एक मात्रा होती है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२४१) भावार्थः-अत्याधिक वाहनमें बैठने से, अधिक चलनेसे, स्खलन (पैर फिसलना) होनेसे, मैथुन करनेसे, कहीं गिरपडनेसे, चोट लगनेसे, जिस प्रकार वृक्षसे फलच्युत होता है उसी प्रकार गर्भ अपने स्थानसे अर्थात् गर्भाशयस च्युत होकर गिरजाता है ( इसे गर्भपात कहते हैं ) ॥ ४६ ॥ .. गर्भस्नान स्वरूप । गर्भघातविपुलीकृतवायुः । पार्श्ववस्त्युदरयोनिशिरस्था-॥ नाहशूलजलरोधकरोऽयं । सावयत्यतितरां तरुणचेत् ॥ ४७ ॥ भावार्थ:-वह गर्भ यदि तरुण ( चारेमहीनेतक का ) हो तो गर्भके आघातसे उद्रिक्तवायु पार्श्व, बस्ति उदत्योनि व शिर आदि स्थानोको पाकर आध्मान, शूल, मूत्ररोध को करते हुए अत्याधिक रक्त का स्राव करता है । ( इसी अवस्थाको गर्भस्राव कहते हैं ) ॥ ४७ ॥ मूढगर्भलक्षण । कश्चिदेवमभिवृद्धिथुपेतोऽ- । पानवायुविपुटीकृतमार्गम् ॥ मूढगर्भ इति तं प्रवदंति । द्वारमाश्वलभमानयसुघ्नम् ॥ ४८ ।। भावार्थ:--विना किसी उपद्रव के, कोई गर्भवृद्धि को प्राप्त होकर जब वह प्रसवोन्मुख होता है, तब यदि अपानवायु प्रकुपित हो जाये तो वह गर्भ की गति को विपरीत कर देता है। इसलिये, उसे निर्गमनद्वार शीघ्र नहीं मिल पाता है । विरुद्ध क्रम से बाहर निकलने लगता है। इसे मूढगर्भ कहते हैं। यदि इस की शीघ्र चिकित्सा न की जाय तो प्राणघात करता है ॥ ४९ ॥ मूढगर्भकी गतिके प्रकार। कश्चिदेव करपादयुगाभ्या-- । जुत्तमांगविनिवृत्तकराभ्याम् । पृष्ठपार्श्वजठरेण च कश्चित् । स्फिकछिरोंघिभिरपि प्रतिभुग्नः ॥४९।। भावार्यः---उस मूढगर्भसे पीडित होनेपर किसी किसी बालकका सबसे पहिले हाथ पाइ एक साथ बाहर आते हैं। किसी २के मस्तक ही बाहर आजाता है। हाथ अंदर रहजाता है। किसी २ बालककी पीठ य बगल बाहर आजाते हैं और १ पांचवे या छटवे महीनेमें जो गर्भ गिरजाता है उसे गर्भपात कहते हैं। २ प्रभमसे चार महिनेतक जो गर्भ गिरजाता है उसे गर्भस्राव कहते हैं। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके किसीका पेट, इसी प्रकार किसी २ के पाद और मस्तक एक साथ मिलजानेसे कटिप्रदेश पहिले आजाता है ।। ४९ ॥ . मूढगर्भ का अन्य भेद । योनिवायुगतपादयुगाभ्यां । प्राप्नुयाबहुविधागमभेदैः ॥ मूढगर्भ इति तं प्रविचार्या-- । श्वाहरेदसुहरं निजमातुः ॥ ५० ॥ भावार्थ:----योनिगत कुषित वातसे दोनों पाद ही पहिले आते हैं । इस प्रकार गर्भ अनेक प्रकारसे बाहः आता है इसलिए मूढगर्भका भी अनेक भेद हैं । उस समय मूढगर्भ की गति को अच्छी तरह विचार कर जैसा भी निकल सके, बच्चेको शीघ्र बाहर निकालना चाहिए । नहीं तो वह माताके प्राणका घातक होगा ॥ ५० ॥.... मूढगर्भका असाध्य लक्षण । वेदनाभिरतिविश्रुतमत्या-- । ध्मानपीडितमतिप्रलपंती ॥ मूर्छयाकुलितमुद्गतदृष्टी । वर्जयेदधिकमूढजगाम् ॥ ५१ ॥ भावार्थः-----अत्यंत वेदनामे युक्त, आध्मानसे पीडित, अत्यंत प्रलाप करती हुई, मूर्छाकुलित व जिसकी दृष्टी ऊपरकी ओर हो ऐसी मूढगर्भवाली स्त्री को असाध्य समझकर छोडें ॥ ५१।। शिशुरक्षण! प्राणमोक्षणमपि प्रमदायाः । स्पंदनातिशिथिलीकृतकुक्षिम् । प्राविबुध्य जठरं प्रविपाट्य । प्रोद्धरत्करुणया तदपत्यम् ।। ५२ ॥ भावार्थ:-श्री का प्राग इट जानेपर भी यदि एंट गेंग फडकता हो, पेट शिथिल हो गया हो तो ऐसी अवस्था को पहिले ही जानकर दयाभावसे बच्चे को बचाने की इच्छा से, पेटको चीर कर उसे बाहर निकाले । ५२ ॥ मृतगर्भ लक्षण। श्वासपूतिरतिशूलपिपासा । पाण्डवक्त्रमचलोदरतात्या- ।। भानमाविपरिणाशनमेत- । जायते मृतशिशावबालायाः ॥ ५६ . भावार्थः --यदि बच्चा पेटमें मर गया तो माताको वासगंध, अति:ल, प्यास, पाण्डरामुख, निश्चलपेट, अति आध्मान [ अफराना ] प्रसववेदनविनाश ये सब विकार प्रकट होते हैं ।। ५३ ।। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। मूढगर्भउद्धरणविधि। पढगर्भमतिकष्टामिहांत्रा- । यंतराक्तमपहर्तुमशक्यम् ।। तन्निवेद्य नरपाय परेभ्यः । तस्य कृच्छतरतां प्रतिपाद्य ॥ ५ ॥ पिच्छिलौषधघृतप्रविलिस- । क्लहाकुंठनखरेण करेण ॥ पोद्धरेत्समुचितं कृपया त-- | गर्भिणीमपि च गर्ममहिंसन् ॥ ५५ ॥ भावार्थः ---आंतडी यकृत् प्लीहा आदिके बीच में रहनेवाले मुढगर्भको निकालना अति कठिन व दुपाध्य काम है । इसलिये वैद्य को उचित है कि उसकी कष्ट साध्यता को, राना व अन्य उसके बंधुबांधयों से कहकर लिबलिबाहट फिसलनेवाले ] औषध और घी को, नाखून कटे हुए हाथों में लेपका, अंदर हाथ डालकर योग्य रीतीसे, दयाद्रहृदय होते हुए निकाल लें। परंतु ध्यान रहें कि गर्भिणी व उसाके गर्भ को कुछ भी बाधा न पहुंचे ॥ ५४ ।। '५५ ।। वर्तनातिपरिवर्तनविक्षे- । पातिकर्षणविशेषविधानः । आहरेदसुहरं दृढगर्भ । श्रावयेदपि च मंत्रपदानि ॥ ५६ ॥ भावार्थ:----माताके प्राण को घात करनेवाले मूढगर्भको निकालनेके लिये जिस समय वह अंदर हाथ डाले उस समय बच्चे को जैसा रहे वैसा ही खींचना, उसको बदलकर खींचना; सरकाकर खींचना व एकदम खींचना आदि अनेक विधानोंसे अर्थात् प्राण हरभेवाले मृढगर्भकी जैसी स्थिती हो तदनुरूप विधानों (जिससे विना बाधा के शीघ्र निकल आयें ) के द्वारा बाहर निकालना चाहिये ॥ ५६ ॥ . लांगलाख्यवरभेषजकल्क । लेपयेदुदरपादतलान्युन्- । मत्तमूलमथवा खरमंज- । श्चि साधु शिरसि प्रणिधेयम् ॥५७।। भावार्थ:-कलिहारीकी जडके कैल्क बनाकर गर्भिणीके पेट व पादतलमें लेपन करना चाहिये, धतरेकी जड व चिरचिरेकी जड़को मस्तकपर रखना चाहिये ॥५७॥ सुखप्रलवार्थ उपायान्तर ।' तीर्थकृत्पवरनामपदेवा । मंत्रितं तिलजपानमनूनम् ॥ चापपत्रमथ योनिमुखस्थं । कारयेत्सुखतरप्रसवार्थम् ॥५८॥ भावार्थः-- तीर्थकर परमदेवाधिदेव के पवित्र नामोच्चारणसे मंत्रित तेल गर्भि णीको पिलाना चाहिये । तथा योनीके मुखमें चाषफाको रखना चाहिये । उपरोक्तकीयाओंसे सुग्वपूर्वक शीश ही प्रसत्र होता है ।।५८।। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४) कल्याणकारके मृतगर्भाहरणविधान। पूर्वमेव तदनंतरमास- । नागतं ह्यपहरेयुरपत्यं ॥ मुद्रिकानिहितशस्त्रगुखना- । श्वाहरेन्मृतशिशु प्रविदार्य ॥ ५९ ॥ भावार्थ:--पहिलेसे ही अथवा औषधि आदिके प्रयोग के बाद निकट आये हुए बच्चेको हाथसे बाहर निकालना चाहिये ! यदि वह बच्चा मरगया हो तो मुद्रिका शस्त्रसे विदारण करके निकालना चाहिये ।। १९ ॥ स्थूलगर्भाहरणविधान । स्थौल्यदोषपरिलग्नमपीह ! प्राहरेत्प्रवलपिच्छिलतैला- ॥ लिप्तहस्तशिशुयोनिमुखान्त- । मार्गगर्भमतियत्नपरस्सन् ॥ ६० ॥ भावार्थ:- यदि वह बच्चा कुछ मोटा हो अत एव योनिके अंतर्मार्गमें रुका हुआ हो तो उस समय लिबलिबे औषधियों को अपने हाथ, बच्चा व योनिमें लगाकर बच्चे को बहुत सावधान होकर बाहर निकालना चाहिये । ६० ॥ गर्भको छेदनकर निकालना।। येन येन सकलावयवेन । सज्यते मृदुशरीरमपत्यम् ॥ तं. करण परिमृज्य विधिज्ञः । छेदनैरपहरेदतियत्नात् ॥ ६१ ॥ --.. भावार्थ:-मुंदुशरीरके धारक बच्चा जिस अवयवसे अटक जाता हो उन अंगों को हाथसे मलकर एवं छेदकर बहुत यानके साथ बच्चे को बाहर निकालना चाहिये ।।६१ सर्वमूढगर्भापहरण विधान | मूढगर्भगतिरत्र विचित्रा । तत्वविद्विविधमार्गीवकल्पः ॥ निर्हरेत्तदनुरूपविशेषै- । गर्भिणीमुपचरेदपि पश्चात् ॥ ६२ ॥ भावार्थ:-मूढगर्भकी गति अत्यंत विचित्रा हुआ करती है । इसलिये उनके सब प्रकार के भेदों को जानने वाला बुशल वैद्य अनेक प्रकारकी. उचित्त रीतियों से उसे बाहर निकालें । तदनंतर गर्भिणीका उपचार करें ॥ १२ ॥ प्रसूता का उपचार । योनितर्पणशरीरपरिषे- । कावगाहनविलेपननस्ये-- ॥ - • पूक्ततैलमनिलध्नमशेषं । योजयेदपि बलाविहितं च ॥.६३ ॥ १ यदि गर्भ जीवित होतो कभी छेदन नहीं करना चाहिये। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः भावार्थ:-प्रसृत स्त्री के योनितर्पण । योनिमें तेलसे भिजा हुआ कपडा रखना आदि ) शरीरसेक, शरीर पर तेल छिडकना वा धारा देना आदि अवगाहना, लेपन और नस्य क्रिया में पूर्वोक्त सम्पूर्ण यातह तैलोंको अथा बलातल । आगे कहेंगे । को उपयोग में लाना चाहिये । मागंश यह कि वानानादाक लेलोंके द्वारा प्रसूता स्त्रीको योनितर्पण आदि बिकि मा करनी चाहिये ।। ६३ ॥ वलातेल। क्याथ एव च बलांधिविपक्व- । पड्गुणस्सदृशदुग्धविमिश्रः ॥ कोलविल्यबृहतीदयटुंटू- । कानिमययवहस्तकुलुत्थैः ।। ६४ ॥ विश्रुतेः कृतकपाविभागः । तेलभागसहितास्तु समस्ताः ॥ तचतुर्दशमहाढक भाग । पाचयेदधिकभेषजकल्कैः ।। ६५ ॥ अष्टवर्ममधुरौषधयुक्तः । क्षीरिका मधुकचंदनमंजि-- ॥ ष्ठाश्वगंधसुरदारुशताव-- । निकुष्ठसरलस्तगरेला ॥ ६६ ॥ सारिवासुरससर्जरसाग्व्यं । पत्रशैलजजटागुरुगंधी-- ॥ ग्राख्यसैंधवयुतैः परिपष्टैः । कल्किनैस्समशृतैस्सहपकम् ॥६७।। साघुसिद्धमवताय सुतैलं । राजते कनकमृण्मयकुंभे ॥ सनिधाय विदधीत सदेदं । राजगजसदृशां महतां च ।। ६८ ॥ पाननस्यपरिपेकविशेषा- । लेपबस्तिषु विधानविधिज्ञैः ॥ योजितं पवनपित्तकमाथा- । न्नाशयेदखिलरोगसमूहान् ॥ ६९॥ भावार्थ:---- तेलसे षड्गुण बलामूलका काय व दूध एवं तेलका समभाग बेर, बेल, दोनों कटेली, टुंटक, अगेथु, जौ, गुलथी इनके कषाय यः चतुर्दश आढक प्रमाण तिलका तेल लेकर पकाना चाहिये । उसमें अष्टवर्ग ( काकोली, क्षीर काकोली, मेदा, महामेद, ऋद्धि, वृद्धि, जीवक, ऋषभक ) मधुरौषधि, अकौवा, मुलैठी, चंदन, मंजीठ असगंध, देवदारु, शतावरीमूल, कूट, धूपसरल, तगर, इलायची, सारिवा, तुलसी, राल, दालचीनीका पत्र, शैलज नामक सुगंवद्रव्य [ भूरिछरील ] जटामांसी, अगरु, वचा, सैंधानमक इनको पसिकर तैल से चतुर्थांश भाग कल्क उस तेल में डालकर पकाना चाहिये । जब वह तेल अच्छीतरह सिद्ध हो जाय तो उसे उतारे । फिर उसे चांदी सोने अथवा मट्टीके घडेमें रखें । वह राजाधिराजों व तत्सदृश महान पुरुषों को उपयोग करने योग्य है । इस तैलको पान, नस्य, सेक, आलेपन, बस्ति आदि विधांनो १ अवगाहन आदिका स्वरूप पहिले लिख चुके हैं। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके में प्रयोग किया जाय तो वात, पित्त, कफ आदि दोषोंसे उत्पन्न अनेक रोगोंको दूर करता है ।। ६४ ।। ६५ ।। ६६ ॥ ६७ ॥ ६८ ।। ६९ ॥ शतपाकवला तल तत्कषायबहुभावितशुष्क ! कृष्णसात्तलनिपडितलम् ॥ . तलाकथिलतोयशतांशः । पकापेल इसकुच्छतपाकम् ॥ ७ ॥ तद्रसायनविधानविशे- । स्सेव्यमान शतपाकर लाख्यम् । दीर्घपायुरनवद्यशरीरं । द्रोणमेव कुरतेऽत्रा नराणाम् ।। ७२ ।। भावार्थ:-पलामूल के कषाय से अनेकवार भावित काले तिल से तेल निकाल कर उस से, सौगुना वामूल के कगार डालकर बार २ पकौवे । इसका नाम शतपाक बलातेल है । इस तेल को रसायन सेवन विधान से, एक द्रोण [ १२॥ पौने तेरह सेर ] प्रमाण सेवन किया जाय तो दर्चािय एवं शारीर निदोष होता है ||७०/७१॥ नागवलादि तैल। तदत्तमगजातिबलाको- । रंटमलशनमलगुच्या -- ॥ दित्यपर्णितुरगार्कविशारी- । ण्यादितैलपखिलं पंचायम् ॥ ७२ ॥ • भावार्थ:--इस तेल की विविसे उत्तम नागवला, अतिबला, पियावासा इन के म्ल शतावरी गुडूची (गुर्च) सूत्रपर्णी, अश्वगंध, अकौवा, माषपणी (वनमूग ) इत्यादि वातघ्न औषधियोंसे तैल सिद्ध करना चाहिये ।। ७२ ॥ प्रसूता स्त्री के लिये सेव्य औषध ! मार्कवेष्वपि पिवेद्यवस- ! क्षारमाज्यसहितोष्णजलेर्वा ॥ पिप्पलीत्रिकटुकद्वययुक्तं । सैंधवं तिलजमिश्रितमेव ॥७३ ।। सत्रिजातककटुत्रयमिश्र । मिश्रशोधनपुराणगुडं वा ॥ भक्षयेन्मरिचमागधिकाकु- । स्तुवरकथितसोष्णजलं वा ।। ७४ ॥ ...: मावार्थः ----प्रसूता स्त्री को मुंगराज रस में यवक्षार डालकर अथवा घी, उष्णजल यवक्षार मिलाकर अथवा सोंट मिरच पीपल, मेंधानमक इनको तिलके तैलमें मिलाकर पिलाना चाहिये व पुराने गुडके साथ त्रिकटु व त्रिजातक मिलाकर भक्षण करना चाहिये । अथवा मिरच, पीपल व धनियासे कथित उष्णजलको पिलाना चाहिये ॥७३ ॥ ७४ ।। १ तैल को सिद्ध करने की परिपाटी यह है कि तैल के बरावर कषाय डालकर प्रत्येक दिन पकाया जाता है । इस प्रकार सौ दिन पकाने पर तैल सिद्ध होता है । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः । गर्भिणी आदिके सुखकारक उपाय | गर्भिणी प्रसवनी तदपत्यं । प्रोक्तवातहर भेषजमार्गः || संविनय सुखितामतियत्ना- । द्वालपोषणमपि प्रविदध्यात् ॥ ७५ ॥ भावार्थ:- इस प्रकार उपर्युक्त प्रकार वातहर औषधियोंके प्रयोगों द्वारा बहुत प्रयत्न से गर्भिणी, प्रसूता व बच्चेको सुखावस्था में पहुंचाना चाहिये । तदनंतर उस बालकका पोषण भी करना चाहिये || ७५ ॥ ( २४७ ) बालरक्षणाधिकारः । बालकं बहुविधीषधरक्षा रक्षितं कृतसुमंगलकार्यम् ॥ यंत्रतंत्र मंत्रविधान। मैत्रितं परिचरेदपचारैः ॥ ७६ ॥ भावार्थ:-उस बालकको जातकर्म आदि मंगल कार्य करते हुए अनेक प्रका रकी औषधि व यंत्र, तंत्र, मंत्र आदि विधानों के द्वारा रक्षा करनी चाहिये ॥ ७६ ॥ शिशुसेव्यघृत | गव्यमेव नवनतिघृतं वा । हेमचूर्णसहितं वचयात्र || पाययेच्छ्रिशुमिहाग्निबलेना । त्यल्पमल्पमधिकं च यथावत् ॥ ७७ ॥ भावार्थ:- गायका मख्खन व घी में सुवर्णभस्म व वच का चूर्ण मिलाकर बालके अमिलके अनुसार अल्पमात्रा आरम्भ कर थोडा २ बढाते हुए पिलाना चाहिये । जिससे आयुष्य, शरीर, कांति आदि वृद्धि होते हैं ॥ ७७ ॥ धात्री लक्षण | दुग्धवत्कुशतर स्तनयुक्तां । शोधितामविहितामिह धात्री || गोत्रा कुशलिनीमपि कुर्या । दायुरर्धमतिबुद्धिकराये ॥ ७८ ॥ भावार्थ:- बालककी आयु व बुद्धिके लिए दूधवाले और कृश ( पतला ) स्तनोंसे संयुक्त परीक्षित ( दुष्टस्वभाव आदिसे रहित ) बालकके हितको चाहने वाली स्वगोत्रोत्पन्न कुशल ऐसी घाईको दूध पिलाना आदि बालकके उपचार के लिए रखनी चाहिये ।। ७८ ।। बालग्रहपरीक्षा | बालकाकृतिशरीरसुचेां । संविलोक्य परिपृच्छ्यच धात्रीम् ॥ भूतवैकृतविशेषविकारा-: । नाकलय्य सकलं विदधीत ॥ ७९ ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) भावार्थ:--- बालक के आकार और शरीरचष्टाको देखकर एवं उसके विषय मे बाईसे पूछकर भूत विकार अर्थात् बालग्रह रोगकी परीक्षा करें। यदि बालग्रह मौजूद हो तो उसकी सम्पूर्ण चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ७९ ॥ बालग्रहचिकित्सा । कल्याणकार होमधूमवलिमण्डलयंत्रान् । भूततंत्र विहितौषधमागत् ॥ संविधाय शमयेच्छमनीयम् । बालकग्रहगृहीतमपत्यम् ॥ ८० ॥ भावार्थ:- बालग्रहसे पीडित बालकको होम, धूंबां, वली, मण्डल, यंत्र, एवं भूत तंत्रोक्त भूतोंको दूरकरने वाली औषधियोंसे उपशम करना चाहिये ॥ ८० ॥ बालरोग चिकित्सा. आमयानपि समस्त शिशूनां । दोषभेदकथितौषधयोगः ॥ साधयेदधिक साधनवेदी । मात्रयात्र महतामिव सर्वान् ॥ ८१ ॥ भावार्थ:- प्रकुपित दोषोंके अनुसार अर्थात् तत्तद्दोषनाशक औषधियों के योगों द्वारा वय, बल, दोषादिके अनुकूल मात्रा आदिको कल्पना करते हुए जिस प्रकार बडों ( युवादि अवस्थावालों) की चिकित्साकी जाती है उसी विधिके अनुसार उन्ही औषधियोंसे सम्पूर्ण रोगोंकी चिकित्सा कार्यमें अत्यंत निपुण वैद्य बालकों की चिकित्सा करें ॥ ८१ ॥ बालकको अभिकर्म आदिका निषेध. अग्निकर्मसविरेकविशेष- । क्षारकर्मभिरशेषीशशूनाम् ॥ आमयान्न तु चिकित्सयितव्या । स्तत्र तत्तदुचितेषु मृदुस्यात् ॥८२॥ भावार्थ - बालकों के रोगोंकी चिकित्सा अग्निकर्म, विरेक, क्षारकर्म शस्त्रकर्म, वमन आदि अग्निकर्म आदिसे नहीं करना चाहिये । साध्य रोगों में तदनुरूप मृदु क्रियाबोसे करनी चाहिये ॥ २॥ अथारीरोगाधिकारः । अर्शकथन प्रतिज्ञा । " मूढगर्भमखिलं प्रतिपाद्य | मोघदुतमहामय संव-- ॥ Paraft निदान चिकित्सां । स्थानरिष्टसहितां कथयामि ॥८३॥ प्रकार मूढगर्भ विप्रतिपादन कर महारोगसंबंधी अर्थ भावार्थ::---इस रोग [ बबासीर ] के निदान चिकित्सा, उसके स्थान वरिष्टका ( मरणचिन्ह ) कथन करेंगे इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ ८३ ॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२४९) अशं निदान । वेगधारणचिरासनविष्ट-। भाभिघातविषमाद्यशनाद्यैः । अर्शसां प्रभवकारणमुक्तं । वातपित्तकफरक्तसमस्तैः ॥ ८४ ।। भावार्थः --मलमूत्र के वेगको रोकना, बहुत देर तक बैठे रहना, मलावरोध, चोट लगना, विषम भोजन आदि कारणोंसे दूषित व इनके एक साथ कुपित होनेसे, पृथक: २ वात, पित्त, कफ व रक्तोंसे अर्श रोगकी उत्पत्ति होती है ।। ८४ ॥ अर्शभेद व वातार्श लक्षण | पविधा गुदगदांकुरजातिः । प्रोक्तमार्गसहजक्रमभेदात् ।। वातजानि परुषाणि सशूला- । मानवातमलरोधकराणि ॥ ८५ ॥ . भावार्थ:-वातज, पित्तज, कफज, रक्तज, सन्निपातज एवं सहन इस प्रकार अर्श [ बवाशीर ] के छह भेद हैं। इनमें वातज अर्श कठिण होते हैं एवं शूल ७.मान ( अफराना ) वात व मलरोध आदि लक्षण उस में उत्पन्न होते हैं ॥ ८५ ॥ पित्तरक्त कफार्शलक्षण । पित्तरक्तजनितानि मृदून्य- । त्युष्णमस्रमसद्विसृजति ॥ . . .. श्लेष्मजान्यपि महाकठिनान्य-- । त्युग्रकण्डुरतराणि बृहन्ति ॥ ८६ ॥ । भावार्थ:-पित्त व रक्तज अर्श मृदु होते हैं । अत्युष्ण रक्त जिनमें बार २ ... पडता है । श्लेष्मज अति कठिण होते हैं । देखनेमें अन्य अर्शी की अपेक्षा बडे होते हैं । एवं उसमें बहुत अधिक खुजली चलती है ॥ ८६ ॥ सन्निपातसहजार्शलक्षण । सर्वजान्यखिललक्षणलक्ष्या- । णीक्षितानि सहजान्यतिसूक्ष्मा- ॥ ण्युक्तदोषसहितान्यतिकृच्छ्रा- । ण्यर्शसां समुदितानि कुलानि ।। ८७ ॥ भावार्थ:--सन्निपातज बबासीर में, वातादि पृथक् २ दोषोत्पन्न, अर्शो में पाये जाने वाले, पृथक् २ लक्षण एक साथ पाये जाते हैं। अर्थात् तीनों दोषों के लक्षण मिलते हैं । सहज ( जन्मगत ) अर्श अत्यंत सूक्ष्म होते हैं, एवं इसमें सन्निपातार्शमें प्रकट होनेवाले सर्व लक्षण मिलते हैं। । क्यों कि यह भी सन्निपातन है ] । उपरोक्त सर्व प्रकार के अर्शके, समूह कष्ट साध्य होते हैं ॥ ८७ ।। ३२ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) कल्याणकारके अर्शके स्थान । तित्र एव वलयास्तु गुदोष्टा- दंगुलांतरनिवेशितसंस्थाः ॥ तत्र दोषविहितात्मकता दु- नामकान्यनुदिनं प्रभवति ॥ ८८॥ भावार्थ:--गुदास्थान में तीन वलय [ वलियां ] होते हैं और वे गुदा के मुख से लेकर तीनों एक २ अंगुल के अंतर में हैं । ( तात्पर्य यह कि एक २ वलय एकै २ अंगुलप्रमाण है । इस प्रकार तीनों वलय गुदा के मुख से लेकर तो। अंगुल प्रमाण हैं) इन वलयोंमें, वातादि दोषोत्पन्न पूर्वोक्त सभी अर्श उत्पन्न होते हैं । ॥ ८८ ॥ . अर्शका पूर्वरूप। अम्लिकारुचिविदाहमहोद- राविपाककृशतोदरकंपाः ॥ संभवंति गुदांकुरपूर्वो- त्पनरूपकृतिभूरिविकाराः ॥ ८९॥ भावार्थः-खट्टी ढकार आना और मुख खट्टा २ होजाना, अचि होना, दाह, उदर रोग होना, अपचन, कृशता व उदरकंप आदि बहुतसे लक्षण अर्शरोग होनेके पहिले होते हैं । अर्थात् बवाशरिके ये पूर्वरूप हैं ॥ ८९ ॥ मूलरोगसंज्ञा । ग्रंथिगुल्मयकृदद्भुतवृध्य-। टीलकोदरवलक्षयशूलाः ॥ तनिमित्तजनिता यत एते । मूलरोग इति तं प्रवदंति ॥ ९० ॥ भावार्थ:-अर्श रोगसे ग्रंथि, गुल्म, यकृत्वृद्धि, अष्टील, उदर, बलक्षय व शूल आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। अर्थात् अनेक रोगों की उत्पत्ति में यह मूलकारण है इसलिये इसे मूलरोग ! मूलव्याधि ] कहते हैं । ९० ॥ __ अर्शके असाध्य लक्षण । दोषभेदकृतलक्षणरूपो- । पद्रवादिसहितैर्गुदीलैः। .. .पीडिताः प्रतिदिनं मनुजास्ते । मृत्युवक्त्रमचिरादुपयांति ॥ ९१ ॥ भावार्थ:- जिसमें भिन्न २ दोषोंके लक्षण प्रगट हों अर्थात् तीनों दोषों के संपूर्ण लक्षण एक साथ प्रकट हों, उपद्रवोंसे संयुक्त हो ऐसे अर्श रोगसे पीडित मनुष्य शीघ्र ही यमके मुख में जाते हैं ॥ ९१ ॥ १ प्रवाहणी, विसर्जनी, संवरणी, ये अंदर से लेकर बाहर तक रहने वाली वलियों के क्रमश नाम हैं । २ अन्य ग्रंथों में, प्रथम वली १ अंगुल प्रमाण, बाकी की दो वलियां १॥ डेढ २ अंगुलप्रमाण हैं ऐसा पाया जाता है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः (२५१) मेदादि स्थानों में अर्शरोगकी उत्पत्ति । पेढ्योनिनयनश्रवणास्य- । घ्राणजेष्वपि तदाश्रयरोगाः ॥ संभवत्यतितरां त्वचि जाता- । श्चमकीलनिजनामयुतास्ते ॥१२॥ भावार्थ:-ढ़ ( शिश्नेन्द्रिय ) योने, आंख, कान, मुंह और नाक में भी अर्श रोग की उत्पत्ति होती है । उस के होने पर, मेढ़ आदिस्थानों में उत्पन्न होने वाले अन्यरोगों की उत्पत्ति भी होती है । यह अर्श यदि त्वचा में हो तो उसे चमकीला कहते हैं ॥ ९२ ॥ . अर्शका असाध्य लक्षण । प्रस्तातिरुधिरातिसार- । श्वासशूलपरिशोषतृषार्तम् ॥ वर्जयेद्गुदगदांकुरवर्गो- । पीडितं पुरुषमाशु यशोऽर्थी ॥९३ ॥ भावार्थ:-जिससे अधिक रक्त पडता हो, और जो अतिसार, श्वास, शूल, परिशोष और अत्यंत प्यास आदि अनेक उपद्रवोंसे युक्त हो ऐसे अर्श रोगी को यश को चाहनेवाला वैद्य अवश्य छोडें ॥ ९३ ॥ __ अन्य असाध्य लक्षण । अंतरंगवलिजैगुदकीलै- । स्सर्वजैरपि निपीडितगात्राः ॥ पिच्छिलास्रकफमिश्रमलं येऽ- । जस्त्रमाशु विसति सतीदम् ॥ ९४ ॥ भावार्थ:- अंदर की (तीसरी) वलिमें उत्पन्न अर्श एवं सन्निपातज अर्शसे पीडित तथा जो सदा पिच्छिल रक्त व कफ मिश्रितमलको विसर्जन करते रहते हैं जिसे उस समय अत्यंत वेदना होती है ऐसे अर्श रोगीको असाध्य समझकर छोडें ॥ ९४ ॥ अन्य असाध्य लक्षण । वल्य एव बहुलाविलदुर्ना- । मांकुरैरुषहता गुदसंस्थाः ॥ तानरानखिलरोगसमूहैः- । कालयान्परिहरेदिह येषां ॥ ९५ ॥ भावार्थ:-- अर्शरोग से पीडित, गुदास्थानगत, वलिया, अत्यंत गंदली या सडगयी हों, एवं अनेक रोगोंके समूह से पीडित हों ऐसे अर्शरोगी को असाध्य समझकर छोडना चाहिये ॥ ९५ ॥ अर्शरोग की चिकित्सा । तच्चिकित्सितमतः परभुद्य- । त्पाटयंत्रवरभेषजशस्त्रैः ॥ उच्यतेऽधिकमहागुणयुक्तः । क्षारपाकविधिरप्यतियत्नात् ॥९६ ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (२५२) कल्याणकारके भावार्थ:---उस अर्श रोगकी चिकित्सा यंत्र, पट्टीबंधन, उत्तम औषधि व शस्त्रकर्मके बलसे एवं महान् गुणसे युक्त क्षारकर्म विधिसे किस प्रकार करनी चाहिये यह विषय बहुत प्रयत्नसे यहांसे आगे कहा जायगा अर्थात् अर्श रोगकी चिकित्सा यहांसे आगे कहेंगे ॥ ९६ ॥ मुष्ककादिक्षार। कृष्णमुष्ककतरु परिगृह्यो-- । त्पाटय शुष्कमवदह्य सुभस्म ॥ द्रोणमिश्रितजलाढकषद्कं । काथयन्महति निर्मलपात्रे ॥९७ ॥ यावदच्छमतिरक्तसुतीक्ष्णं । तावदुत्कथितमाशुविगाल्यो- ॥ द्धट्टयन परिपचेदथ दव्यों । यद्यथा द्रवधनं न भवेत्तत् ॥ ९८॥ शंखनाभिमवदा सुतीक्ष्णं । शर्करामपि निषिच्य यथावत ॥ . क्षारतोयपरिपेषितपूति--- । काग्निकं प्रतिनिवापितमेतत ॥९९ ॥ साधुपात्रनिहितं परिगृह्या-। भ्यंतरांकुरमहोदरकीले ॥ ' ग्रंथिगुल्मयकृति प्रपिवेत्त । द्वाह्यजं प्रति विलेपनमिष्ठम् ॥१०॥ भावार्थ:-काला मोखा वृक्षको फाडकर सुखावें, फिर उसे जलाकर भस्म करें । इसका एक द्रोण [ १२॥ पौने तेरह सेर ] भस्मको, एक बडा निर्मल पात्र में डालकर, उसमें छह आढक (१९ सर १० तोला ) जल मिला। पश्चात् इसे तबतक पकावें जबतक वह स्वच्छ, लाल व तीक्ष्ण न हों । फिर इमे छानकर इस पानीको कर छलीसे चलाते हुए पुनः पकाना चाहिये जबतक वह द्रव गाढा न हों । इस [क्षारजल ] में तक्षिण शंखनाभि, और चूनाको जलाकर योग्य प्रमाण में मिलावें तथा पूतिकरंज व भिलावे को क्षार जलमें पीस कर डालें । इस प्रकार सिद्ध किये हुए क्षारको एक अच्छे पात्रमें सुरक्षित रूपसे रखें । इस को अंदर के भाग में होनेवाले अर्श, महोदर, ग्रंथि, गुल्म, यकृत्वृद्धि इत्यादि रोगों में योग्य मात्रा में पीना चाहिये तथा बाहर होनेवाले अर्श, चर्मकाल आदि में लेपन करें। तात्पर्य यह है उस को पीने व लगानेसे, उपरोक्त रोग नष्ट होते हैं ॥९७ ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ १०॥ अर्श यंत्र विधान। गोस्तनप्रतिमयंत्रमिहद्वि-। च्छिद्रमंगुलिचतुष्कसमानम् ।। अंगुलीप्रवरपंचकवृत्तम् । कारयेद्रजतकांचनताप्रैः ॥ १०१ ॥ यंत्रवक्त्रमवलोकनिमित्तं । स्यादिहांगुलिपितोन्नमिताष्ठं ॥ . . व्यंगुलायतमिहांगुलिंदशं । पार्वतो विवरमंकुरकार्ये ॥ १०२ ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। ( २५३) भावार्थ:-अर्श को शस्त्र, क्षार आदि कर्म करनेके लिये, गायके स्तनोंके सदृश आकारवाला, चार अंगुल लम्बा, पांच अंल गोल, दो छिद्रोंसे युक्त ऐसा एक यंत्र चांदी, सोना या ताम्र से बनवाना चाहिये । ऊपर जो दो छिद्र बतलाये हैं उन में से, एक यंत्रके मुख में होना चाहिये (अर्थात् यह यंत्र का मुखस्वरूप रहे) जो अर्श को देखने के लिये है । इस का ओष्ठ अर्थात् बाहर का भाग थोडा उठा हुआ होना चाहिये । दूसरा छिद्र यंत्रके बगलमें होना चाहिये, यह क्षारादि कर्म करनेके लिये है । ये दोनों, तोन अंगुल लम्बा, एक अंगुल मोटा होना चाहिये ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ अशपातन विधि । स्नेहनायुपकृतं गुदकीलेः । पीडितं वालिनमन्यतरस्या- ॥ संगसंनिहितपूर्वशरीरं । भक्तवतमिह संवृतदेशे ॥ १०३ ॥ व्यभ्रसौम्यसमये समकायो- | त्थानशायितगुदप्रतिमूर्यम् ॥ शाटकेन गुदसंधिनिबद्धम् । संगृहीतमपि कृत्य मुहद्भिः ।। १०४ ॥ तस्य पायुनि यथा सुखमाज्या-। लिप्यंत्रमुपधाय घृताक्ते ॥ यंत्र पार्श्वविवरागतमर्श- । पातकेन पिचुनाथ विमृज्य ॥ १०५॥ संविलोक्य बलितेन गृहीत्वा । कर्तरीनिहितशस्त्रमुखेन ॥ छर्दयेदपि दहेदचिरातः । शोणितं स्थितिविधाननिमित्तम् ॥१०६॥ कूर्चकेन परिगृह्य विपक-। क्षारमेव परिलिप्य यथार्शः ॥ पातयेन्निहितयंत्रमुख त- । वाकृतं करतलेन पिधाय ।। १०७ ॥ पकजांबवसमप्रतिभासं ! मानमीषदवसन्नमदार्शः ॥ प्रेक्ष्य दुग्धजलमस्तुसधान्या- म्लस्सुधौतमसद्धिमशीतैः ॥ १०८॥ सर्पिषा मधुकचंदनकल्का- । लेपनैः प्रशमयेदतितोत्रम् ॥ क्षारदाहमपनीय च यंत्रम् । स्नापयेत्तमपि शीतलतोयैः ।। १०९ ॥ तन्निवातसुखशीतलगेहे । सन्निवेश्य घृतदुग्धविमिश्रम् ॥ शालिषाष्ठिकयवाधुचितानं । भोजयेत्तदनुरूपकशाकैः ॥ ११ ॥ सप्त सप्त दिवसात्तत्तएकै- । कांकुरक्षतमिहाचरणीयम् ॥ सावशेषमपि तत्पुनरेवं । संदहत्कथितमार्गविधानात् ।। १११ ॥ भावार्थः --अर्शरोगसे पीडित बलवान मनुष्यको स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन आदि, से संस्कृत कर के, लघु, चिकना, उष्ण, अल्प अन्न को खिलाकर, मेघ ( वादल ) से रहित सौम्य समय में किसी एकांत या गुप्त प्रदेश में, किसी मनुष्य की गोद में Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५४ ) कल्याणकारके , [ रोगी को ] इस प्रकार चित सुलायें कि गुदा सूर्य के अभिमुख हो, कमर से ऊपर के शरीरभाग ( पूर्वोक्त मनुष्य के ) गोद में हो, कटिप्रदेश जहां ऊंचा हो । पश्चात् गुदे संधि को कपड़े की पट्टसि बांधकर उसे परिचारक मित्र, अच्छति से पकड़ रख्खे ( जिस से वह हिले नहीं ) तदनंतर गुदप्रदेश को घी लेपन कर, घृत से लिप्त अयंत्र को गुदा में प्रवेश करावें । जब मस्से यंत्र के पास्थित, छिद्र ( सूराक ) से अंदर आजायें तो उनको कपडा व फायासे साफ कर के और अच्छी तरह से देखकर, बलित [ शस्त्रविशेष ] से पकड कर कर्तरी शस्त्रसे काटकर अर्श की स्थिति के लिये कारणभूत दूषित रक्त को बाहर निकालना चाहिये अथवा जला देना चाहिये अथवा कूर्चक से पकड कर, पकाकर सिद्ध किये हुए क्षार को लेप करके, अर्श यंत्र के मुंह को, हथैली से ढके ( और सौतक गिनने के समयतक रहने दें ) जब मर से पका हुआ जामून सदृश नीले थोडा ऊंधा हो जाये तो, पश्चात् ठंण्डे एवं दूध, जल, दही का तोड, कांजी इनसे बार' २ धोकर, एवं मुलैठी, चंदन इन के कल्कको घी के साथ लेपन कर, क्षार का जलन को शमन करना चाहिये । इस के बाद अर्श यंत्र को निकालकर ठंडे पानी से स्नान करावे और हवा रहित मकान में बैठाले । पश्चात् साठी चाल, जौ आदि के योग्य अन्नको घी, दूध मिलाकर योग्य शाकोंके साथ खिलाना चाहिये । सात २ दिनमें एक अंकुरको गिराना चाहिये । इस प्रकार गिराते हुए यदि कुछ भाग शेष रहजाय तो फिर पूत्रोक्त क्रमसे जलाना चाहिये ॥ १०३ ॥ १०४ ॥ १०५ ॥ १०६ ॥ १०७ ॥ १०८ ।। १०९ ।। ११० ।। १११ ॥ इस में अर्श का शस्त्र, क्षार, अग्निकर्म, बतलाये हैं | आगे अनेक अर्शनाशक योग भी बतलायेंगे । लेकिन प्रश्न यह उठता है कि इन को किन २ हालतो में प्रयोग करना चाहिये ? इस का खुलासा इस प्रकार है । जिसको उत्पन्न होकर थोडे दिन होगये हों, अल्प दोष, उपद्रवोंसे संयुक्त हो, तथा जो अभ्यंतर भाग में होने से बाहर बवासीर को औषध खिलाकर ठीक करना चाहिये । अर्थात् वे होसकते हैं । जिस के मस्से, कोमल, फैले हुए, मोटे और उभरे हुए हों तो उसको क्षार लगाकर जीतमा चाहिये । जो मस्से, खरदरे, स्थिर, ऊंचे व कडे हों उनको अग्निकर्म से ठीक करना चाहिये । जिनकी जड पतली हो, जो ऊंचे व लटकते हो, क्लेदयुक्त हो, उन को शस्त्रसे काट कर अच्छा करना चाहिये । १ दोनों पैर और गले को परस्पर बांधना चाहिये | ऐसा अन्य ग्रंथों में लिखा है । अल्प लक्षण, अल्प नहीं दीखता हो ऐसे औषध सेवनसे अच्छे Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२५५) भिन्न २ अर्शीकी भिन्न २ चिकित्सा। तत्र वातकफजान्गुदकीलान् । साधयेदधिकतीव्रतराग्नि-॥ क्षारपातविधिना तत उद्यत्- । क्षारतो रुधिरपित्तकृतानि ॥११२ ॥ स्थूलमूलकठिनातिमहान्तं । छेदनाग्निविधिना गुदकीलम् । . कोमलांकुरचयं प्रतिलेपै- । र्योजयेद्वलवतां बहुयोगैः ।। ११३ ॥ भावार्थ:-बात व कफसे उत्पन्न अर्शको क्षार कर्म व अग्नि कर्मसे, रक्त व पित्तोत्पन्न अर्शको क्षारकर्मसे एवं मूलमें स्थूल, कठिन व बडे अर्शको छेदन व अग्निकर्म से साधन करना चाहिए । जिसका अंकुर कोमल है रोगी भी बलवान है उसको अनेक प्रकारके लेपों अनेक प्रकारके औषधि योगों द्वारा उपशम करना चाहिए ॥११२।११३॥ अर्शन लेप । अर्कदुग्धहीरतालहरिद्रा- | चूर्णमिश्रितविलेपनमिष्टम् ॥ वज्रवृक्षपयसाग्निकगुजा- । सैंधवोज्वलनिशान्वितमन्यत् ॥ ११४ ॥ भावार्थ:-~आकके दूवमें हरताल हलदीके चूर्णको मिलाकर लेपन करें अथवा थोहरके दूध में चित्रक, धुंधची, सैंघानमक व हलदीके चूर्ण मिलाकर लेपन करें तो अर्श रोग उपशमनको प्राप्त होता है ॥ ११४ ॥ पिप्पलीलवणचित्रकगुंजा- कुष्टमर्कपयसा परिपिष्टम् । कुष्ठचित्रकसुधारुचकं गो- मूत्रपिष्ठमपरं गुदजानाम् ॥११५॥ भावार्थः-पीपल, सैंधानमक, चित्रक व घुबीको कूटकर अकौवेके दूधके साथ पीसें । उसे लेपन करें अथवा कूट, चित्राक, थोहर व काले नमकको कूटकर गोमूत्रके साथ पीसा हुआ लेपन भी उपयोगी है ॥ ११५ ॥ अश्वमारकविडंगसुदन्ती- चित्रमूलहरितालसुधार्फ ।। क्षीरसैंधवीवपक्कमथार्श- स्लैलमेव शमयदिहलेषात् ।। ११६ ॥ भावार्थ:-करनेर, वायविडंग, जमालगोटेकी जड, चित्रक, हरताल, थोहरका दूध अकौका दूध व सैंधानमकसे पका हुआ तेल अर्शपर लेपनके लिये उपयोगी है॥११६|| अार्श नाशक चूर्ण । यान्यदृश्यतररूपकदुनी- मानि तेषु विदधीत विधिज्ञः ॥ प्रातराग्निकहरीतकचूर्ण । भक्षणं पलशतं गुडयुक्तम् ॥ ११७॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) कल्याणकारके भावार्थ:- - जो अर्श अदृश्यरूप से हो अर्थात् अंदर हो तो कुशल वैद्यको उचित है कि वह रोगीको प्रतिदिन प्रातःकाल भिलावा व हरडके चूर्ण को गुडके साथ मिलाकर खानेको देवें । इस प्रकार सौ पल चूर्ण उप्टे खिलाना चाहिये ॥११७॥ अर्शनयोगद्वय | प्रातरेवमभयाग्निकचूर्ण - संघवेन सह कांजिकया गो- ! मूत्रसिद्धमसकृत्प्रपिवेद्वा । तत्र साधितरसं खरभूषात् ॥ ११८ ॥ भावार्थ:- प्रातः काल में हरड, चीताकी जड, सेंधानमक इनके चूर्ण को गोमूत्रले भावना देकर कांजी के साथ बार २ पीना चाहिये । अथवा गोमूत्र से सिद्ध किये गये, खरबूजेके कषाय को पीना चाहिये ॥ ११८ ॥ चित्रकादि चूर्ण | चित्रावित रवीजैः । क्षुण्णसत्तिलगुडं सततं तत् ॥ भक्षयन् जयति सर्वजदुनी - । मान्युपद्रवयुतान्यपि मर्त्यः ॥ ११९॥ भावार्थ:--- चित्रक की जड व भिलावेके बीजके साथ तिल व गुडको कूटकर जो रोज भक्षण करता है वह सन्निपातज व उपद्रवसहित अर्शको भी जीत लेता है अर्थात् वे उपशम होते हैं ॥ ११९ ॥ अनाशकतक | श्लक्ष्णपिष्टवर चित्रक लिप्ता - । भ्यन्तराभिनवनिर्मलकुंभे || न्यस्ततत्रमुपयुज्य समस्ता- । न्यर्शसां शमयतीह कुलानि ॥ १२० ॥ भावार्थ:- चित्रकको बारीक पीसकर एक निर्मल घडा लेकर उसके अंदर उसे लेपन करें । ऐसे घडेमें रखे हुए छाछ को प्रतिनित्य सेवन करें तो अर्शरोग उपशमन होता है ॥ १२० ॥ सूरण मोदक | सत्मान्मरिचनागरविख्या- । ताग्निकप्रकटसूरणकन्दान ॥ उत्तरोत्तर कृतद्विगुणांशान् । मर्दितान् समगुडेन विचूर्णान् ॥ १२१ ॥ मोदकान्विदितानष्परिहारान् । भक्षयन्नधिकमृष्टसुगंधान् ॥ दुर्जयानपि जयत्यतिगर्भा - । दर्शसां सकलरोगसमूहान् ॥ १२२ ॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२५७) .. भावार्थ:-मिरच, सोंठ, भिलावा व सूरणकंद इनको क्रमसे द्विगुणांश लेकर सबको एक साथ पीसे । उसके बाद इनके बराबर गुड लेवें । इन दोनोंको मिलाकर बनाया हुआ रुचिकर व सुगंध मिठाईको ( लाडू ) जो रोज खाते हैं उनके कठिनसे कठिन अर्श भी दूर होते हैं । इसके सेवन करते समय किसी प्रकारकी परहेज करनेकी जरूरत नहीं है ॥ १२१ ॥ १२२ ॥ तऋकल्प भ तक्रमेव सततं प्रपिवेद- । त्यम्लमन्नरहितं गुदजघ्नम् ॥ श्रृंगवेरकुटजाग्निपुन - । सिद्धतोयपरिपक्कपयो वा ।। १२३ ॥ भावार्थ:--अर्श रोगीको अन्न खानेको नहीं देकर अर्थात् अन्नको छुडाकर केवल आम्ल छाछ पीनेको देना चाहिये अथवा अदरख, कूट, चित्रक, पुनर्नवा इनसे सिद्ध जल व इन औषधियोंसे पकाये हुए दूध पीनेको देना चाहिये ॥ १२३ ॥ . अर्शनाशक पाणितक । तत्कषायमिह पाणितकं कृ- । त्वाग्निकत्रिकटुजीरकदीप्य-- ॥ ग्रंथिचव्यविहितप्रतिवाप्यं । भक्षयेद्गुदगदांकुररोगी ॥ १२४ ॥ भावार्थ:- उपर्युक्त कषायको पाणितक बनाकर उसमें चित्रक, त्रिकटु ( सोंठ, मिरच, पीपल ) जीरक, अजवाईन, पीपलामूल, चाव इनका करुक डालकर अर्श रोगी प्रतिनित्य भक्षण करें ॥ १२४ ॥ पाटलादियोग। पाटलीकबृहतीद्वयपूति- । कापमार्गकुटजानिपलाश-॥ क्षारमेव सततं प्रपिबेहु- । मिरोगशमनं श्रुतमच्छम् ॥ १२५ ॥ भावार्थ:----पाढ, दोनों कटेली, पूतीकरंज, लटजीरा, कुडाकी छाल, चित्रक व पलाश इनके क्षार अथवा स्वच्छ कषायको सतत पीनेसे अर्शरोग उपशम होता है ॥ १२५ ॥ अर्शन्न कल्क। कल्कमेव नियतं प्रपिवेत्ते-। पां कृतं दधिरसाम्लकतकैः ॥ क्षारवारिसहितं च तथाढ- । नामनामसहितामयतप्तः ॥ १२६ ।। १-१ तोला काली मिरच, २ तोला सोंठ ४ तोला भिलावा ८ तोला सूरणकंद (जमीकंद इनको बारीक चूर्ण करें और १५ तोला गुडकी चासनी बनाकर ऊपरके चूर्ण को मिलावे लाडू या वर्षी तैयार करें । ३३ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८) कल्याणकारके भावार्थ:-एवं अर्श रोगीको उपर्युक्त औषधियोंके कल्क बनाकर दहीके तोड आम्ल तक्रके साथ पीने को देना चाहिये । अथवा क्षार जलके साथ पानेको देना चाहिये ॥ १२६ ॥ भल्लातक कल्प। साधुवेश्मनि विशुद्धतर्नु भ- । ल्लातकः कथितचारुकपायम् ॥ आज्यलिप्तवदनोष्ठगलं तम् । पाय येत्प्रतिदिनं क्रमवदी ॥ १२७ ॥ भावार्थ:--उस अर्श रोगीके शरीरको वमन, विरेचन आदि से शुद्ध करके एवं उसे प्रशस्त घरमें रखकर भिलावेके कपायको प्रतिदिन पिलाना चाहिये। कषाय पिलानेके पहिले मुख, ओष्ठ, कंठ आदि स्थानों में घीका लेपन वुशल वैद्य करावें ॥ १२७ ॥ प्रातरौषधमिदं परिपीतं । जीर्णतामुपगतं सुविचार्य ॥ सर्पिषोदनमतः पयसा सं- । भोजयेदलवणाम्लकमध्यम् ॥ १२८ ॥ भावार्थः--उपर्युक्त औषधिको प्रात:काल के समय पिलाकर जब वह जीर्ण होजाय तब उसे नमक व ग्वटाई से रहित एवं दूध नासे युक्त भातका भोजन कराना चाहिये ॥ १२८ ॥ भल्लातकास्थिरसायन. पक्कशुष्कपरिशुद्धबृहद्भ- । लातकाननुविदार्य चतुर्य-॥ कैकमंशमभिवयं यथास्थ्य- । कैकमेव परिवर्धयितव्यम् ।। १२९ ॥ अस्थिपंचकगणः प्रतिपूर्ण । पंचपंचभिरतः परिवृद्धिम् ॥ यावदस्थिशतमत्रसुपूर्ण । हासयेदपि च पंच च पंच ॥ १३० ॥ यावदेकमवशिष्टमतः पू- । वक्तिमार्गपीरवृथ्यवतौरः ।। सवितैर्दशसहस्रबीजे- । निर्जरो भवति निर्गतरांगः ॥ १३१ भावार्थ:--अग्छ!तरह पके हुए बटे २ भिलावों को शुद्ध कर के सुखाना चाहिये । फिर उन को फोडकर ( उनके ) वीज निकाल लयं । पहिले दिन इस बाँज ( गुठली ) को चौथाई, दूसरे दिन आधा, व तीसरे दिन पौन हिस्सा भक्षण करें । चौथे दिन एक बीज, पांचवें दिन २ बीन, छट दिन ३ बीज, मातवें दिन ४ १ भिलावेकी शुद्धि-८ मिलाव। एक बारीक अंदर रखकर, साधारण कुचलना चाहिये । पश्चात् उसको निकालकर, उसपर इंटका पूर्ण डालें और एक दिन तक रख । दूसरे दिन पानीसे धोकर टुकडा करके चौगुने पानी ( बर्तन के मुंहको न ढकते हुए ) पकावें । फिर बराबर दूध में पकावें । बादमें पोकर सुखा लेवें । इभ विधीसे भिलावे की अच्छीतरह से शुद्धि होती है ।। .. • Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। ( २५९) बीज, आठवें रोज ५ बीज खावें । इस प्रकार पांच बीज खाचुकने के बाद, प्रतिदिन पांच २ बीज को बढ़ाते हुए तबतक सेवन करें जबतक सौ बीज न होजाय । सौ बीज खाने के बाद फिर रोज पांच २ घटाते हुए, जबतक एक बीज बचें तब तक खावें । इस प्रकार बढाते घटाते हुए, उपरोक्त क्रमसे जो मनुष्य दस हजार भिलाये के बीजों को खाता है, उसका सम्पूर्ण रोग नष्ट होकर यह निर्जर होता है अर्थात् यह वृद्ध नहीं होता है ।। १२२ ॥ १३० ॥ १३१ ॥ भल्लातक तैल रसायन । स्नेहमेव सततं प्रपिवेदा- । रुष्करीयमखिलाक्तविधानम् ॥ मासमात्रमुपयुज्य शतायु- । सि मासत इतः परिवृद्धिः ॥ १३२ ॥ भावार्थ:-भिलावेके तेलको निकालकर पूर्वोक्त प्रकार वृद्धिहानिक्रमसे एक मास सेवन करें तो सौ वर्षका आयुष्य बढ़ जाता है । इसी प्रकार एक २ मास अधिक सेवन "करने से सौ २ वर्षकी आयु बढती जाती है ।। १३२ ।। अर्शहर उत्कारिका। अम्लिकाघृतपयः परिपक्वो- । कारिका प्रतिदिनं परिभक्ष्य ।। माप्नुयादतिसुखं गुदकीलो- । त्पन्नदुःखशमनं प्रविधाय ॥ १३३ ॥ गावार्थः-खट्टी चीज, घी व दूधसे पकायी हुई लप्सी उस रोगों को खिलानी चाहिये जिससे समस्त अर्श दूर होकर रोगीको अत्यंत सुख प्राप्त होता है ॥ १३३ ॥ वृद्धदारुकादि चूर्ण । वृद्धदारुकमहौषधभल्ला- । ताग्निचूर्णमसकृद्गुडमिश्रम् ॥ मक्षयेद्गुदगदांकुररोगी। सर्वरोगशमनं सुखहेतुम् ।। १३४ ॥ भावार्थः --- अर्श रोगीको उचित है कि वह विधारा, सोंठ, भिलावा व चित्रक इनके चूर्णको गुड मिलाकर प्रतिनित्य खायें जिससे सर्वरोग शमन होकर सुख की प्राप्ति होती है ॥१३४ ॥ __अर्श में तिलप्रयोग। नित्यं खादेत्सत्तिलान् कृष्णवर्णान् । प्रातः प्रातः कौडुबार्धप्रमाणम् ॥ शीतं तोयं संप्रपायत्तु जीर्णे । भुंजीतानं दुष्टदुर्नामरोगी ॥ १३५ ॥ भावार्थ:-नित्य ही प्रातःकाल अच्छे काले तिल अर्ध कुडुब [ ८ तोले ] प्रमाण खावें । उसके ऊपर ठण्डा जल पावे। जब वह पच जाय उस अवस्थामें उसे उचित Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६०) कल्याणकारक भोजन करावें, इस प्रकार के प्रयोगोंसे अर्शरोग दूर हो जाता है । एवं ऐसे दुर्नामरोगीको सुख प्राप्त होता है ।। १३५।। अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ॥ १३६ ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक हे ] ॥ १३६ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे महाव्याधिचिकित्सितं नामादितो द्वादशः परिच्छेदः । इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में महारोगाधिकार नामक बारहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भहीमयाधिकारः (२६१) अथ त्रयोदशपरिच्छेदः Pos अध शर्कराधिकारः संगलाचरण व प्रतिज्ञा। समस्तसंपत्सहिताच्युतश्रियं ! प्रणम्य वीरं कथयामि सक्रियाम् ॥ - सशर्करामद्भुतवेदनाश्मरी-- ! भगन्दरं च प्रतिसर्वयत्नतः॥ १॥ .. .. भावार्थः---अंतरंग व बहिरंग समस्त संपत्तियोंसे युक्त अक्षयलक्ष्मीको प्राप्त श्रीवीरजिनेश्वरको प्रमाग कर, शर्करा, अत्यंत वेदना को उत्पन्न करनेवाली असाही और भगंदर इन रोगोंके स्वरूप व चिकित्माको यत्नपूर्वक कहूंगा, इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥१॥ बस्तिस्वरूप। कटित्रिकालबननाभिवंक्षण-। प्रदेशमध्यस्थितबास्तसंज्ञितम् ॥ अलाबुसंस्थानमधोमुखाकृतिम् । कफःसमूत्रानुगतो विशत्यतः ॥ २ ॥ भावार्थ:-कटि, त्रिकास्थि, नाभि, राङ इन अवयवोंके बीचमें तूंबकि आकारमें, जिसका मुख नीचेकी ओर है ऐसा बस्ति ( मूत्राशय ) नामक अवयय है। उसमें जब मूत्रके साथ कफ जाये उस समय ॥२॥ शर्करा संप्राप्ति । नवे घटे स्वच्छ जलप्रपूरिते । यथात्र पंकः स्वयमेव जायते ॥ कफस्तथा पस्तिगतोष्मशोषितो । मरुद्विर्णिः सिकतां समावहेत् ॥३॥ भावार्थ:--जिस प्रकार नये घडेमें नीचे कीचड अपने आप जम जाता है उसी प्रकार बस्तिमें गया हुआ कफ जमकर उष्णतासे सूखकर कडा हो जाता है वह वातके द्वारा टुकडा होकर रेती जैसा बनजाता है तभी शर्करा रोगकी उत्पत्ति हो जाती है अर्थात् इसीको शर्करा रोग कहते हैं ॥ ३ ॥ शर्करालक्षण । स एव तीवानिलघातजझरा । द्विधा त्रिधा वा बहुधा विभेदतः। . कफः कविंक्षणबस्तिशेफसां । स्वमूत्रसंगाद्वहुवेदनावहः ॥ ४ ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२) कल्याणकारके . भावार्थ:---- वही शुष्क प.फ तीन वातके आघातसे दो, तीन अथवा अधिक टुकडा हो जाता है । जब वह मूत्र मार्ग में आकर अटक जाता है तब कटी, जांधोंका जोड, बरत व लिंग आदि स्थानमें अयंत वेदना उत्पन्न करता ॥ ४ ॥ शराशूल । सशर्कराशूलमितीह शर्करा । करोति साक्षात्कटिशर्करोषणा ।। पति तास्तीवतरा मुदुम हुः । स्वभेदिसापजसंप्रयोगतः ॥ ५ ॥ भावार्थ:--.---साक्षात् रेती के समान रहने वाला, वह शर्करा, इस (पूर्वोक्त ) प्रकार शर्कराशूल को उत्पन्न करता है । शर्करा को भेदन करने वाली श्रेष्ठ औषधियों के प्रयोग करने से वह तीव्र शर्करा बार २ गिर जाते हैं अर्थात् मूत्र के साथ बाहर जाते हैं ॥ ५॥ अथाश्मर्याधिकारः । अश्मरीभेद। कफ:प्रधानाः सकलाश्परागणाः । चतुः प्रकाराः गुणमुख्यभेदतः । कफादिपित्तानिलशुक्रसंभवाः । क्रमेण तासामत उच्यते विधिः ॥ ६ ॥ भावार्थ:----सर्व प्रकार के अश्मरी (पथरी) रोगों में कफ की प्रधानता रहती है । अर्थात् सर्व अश्मरी रोग कफ से उत्पन्न होते हैं। फिर भी गौणमुख्य विवक्षासे कफज, पित्तज, वातज व वीर्यज इस प्रकार चार प्रकारसे होते हैं अर्थात् अश्मरी के भेद चार हैं । अब उनका लक्षण व चिकित्साका वर्णन किया जाता है ॥ ६ ॥ ककार रीलक्षण । अथाश्मरीमात्मसमुद्भवां कफः । करोति गुी महती प्रपाण्डुराम् ॥ तया च मूत्रागममागरोधतो । गुरुर्भवेद्रास्तरिवेह भियंत ॥७॥ १ बस्तिमें, मूत्र के साथ कफ जाकर पूर्वोक्त प्रकार से पत्थर जैसा जम जाता है । अर्थात् धन पिण्ड को उत्पन्न करता है । इसे पथरी वा अश्मरी कहते हैं। यही पथरी वायु के द्वारा टुकडा हो जाता है तब उसे शर्करा कहते हैं। २ जब कफ अधिक पित्तयुक्त होता है इस से उत्पन्न पथरी में पैत्तिकलिंग प्रकट होते हैं इसलिये पित्ताश्मरी कहलाता है । इस पित्ताश्मरी में भी मूल कारण कफ ही है । क्यों कि कफ को छोड कर पत्थर जैसा घन पिण्ड अन्य दोषों से हो नहीं सकता । फिर भी यहां अधिक पित्तसे युक्त हो । से पिन की मुख्य विवशा है कफ की गौग । इसी प्रकार जब भी जाना चाहिये । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामयाधिकारः। (२६३) भावार्थ:-केवल कफ से उत्पन्न अश्मरी [ पथरी ] भारी व सफेद होती है। जब इससे मूत्रद्वार रुक जाता है तो बस्ति भारी हो जाती है और वह बस्ति को फोडने जैसी पीडा को उत्पन्न करती है ॥ ७ ॥ पत्तिकाश्मरीलक्षण । कफस्सपित्ताधिकतामुपागतः । करोति रक्तासितपीतसप्रभाम् । अरुष्करास्थीप्रतिमामिहाश्मरी । मणध्यसो स्रोतसि मूत्रमास्थिता ॥८॥ स्वम् यातादिहबस्तिरूप्मणां । विदह्यते पच्यत एव संततम् । सदाहदेही मनुजस्तृषाहतः । सदोष्मवातैरपि तप्यते मुहुः ।। ९ ॥ भावार्थः----अधिक पित्तयुक्त कफ से उत्पन्न होनेवाली अश्मरी का वर्ण लाल, काला ब पीटा होता है। भिलावे की गुठली जैसी उसकी आकृति होती है । यह मूत्र मार्ग में स्थित होकर मूत्र को रोकती है । मूत्रके रुक जानेसे, उष्णता के द्वारा बस्ति में अयंत जलन होती है और उसको अधिक पास लगती है । वह बार २ उष्णवात से भी पीडित होता है ॥ ८ ॥२॥ वातिकाश्मरीलक्षण । बलास एवाधिकवातसंयुतो । यथोक्तमार्गादभिवृद्धिमागतः ॥ करोति रूक्षासितकण्डकाचितां । काबपुष्पप्रतिमामथाश्मरीम् ॥ १० ॥ तया च वस्त्याननरोधतो नरो । निरुद्धमत्रो बहुवेदनाकुलः ॥ असह्य दुःखश्शयनासनादिषु । प्रतिक्रियाभावतया स धावति ॥११॥. स नाभिमेद्रं परिमर्दयन्मुहुः । गुर्देऽगलि निक्षिपति प्रपीडया ॥ स्वदंतयत्रं प्रविधाय निश्चलं । पतत्यसो भुग्नतनुर्धरातले ॥ १२ ॥ भावार्थ:-- अधिक वायुसे युक्त काफम उत्पन्न व वृद्धि को प्राप्त अश्मरी रूक्ष, कालेवर्णसे युक्त कंडरों में व्याम एवं कदंब पुष्पको सगान रहता है इस से जब बस्तिका मुख रुकामाता है, तो मत्रा भी रुक जाता है। जिससे । उसको बहुत वेदना होती है। सोनेमें बैठने आदिम उम रोग को असह्य दुःख होता है। एवंच उसके उपशम केलिगे कोई उपाय न रहनेसे वह विह्वल होकर इधर उधर दौडता है । उस पीडाले पीडित होकर बह रोगी अपने नामि व लिंगको वार २ गर्दन करता है एवं गमें अंगुलि डालता है । एवं अधिक वेदना होनेसे अपने दांतोंको चावकर निश्चलतासे मूच्छितसा होकर जमीनमें पड़ा रहता है ॥१० ॥११ ।। १२ ।। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके बालाश्मरी। दिवातिनिद्रालुतया प्रणालिका-। सुसूक्ष्मतः स्निग्धमनोज्ञभोजनात् ॥. कफोल्वणाषिकृताश्मरीगणा । भवंति बालेषु यथोक्तवेदनाः ॥ १३ ॥ भावार्थ:-दिनमें अधिक सोनेसे, मूत्रमार्ग अत्यंत सूक्ष्म होनेसे, अधिक स्निग्ध मधुर ऐसे मनोज्ञ अर्थात् मिष्टान खानेसे, (स्वभाव से ही) अधिक कफ की वृद्धि होने से तीनों दोषोंसे उत्पन्न होनेवाले अश्मरीरोगसमूह ( अर्थात तीनों प्रकारकी अश्मरी) वाककों में विशेषतया होते हैं । उनके लक्षण आदि पूर्वोक्त प्रकार हैं ॥ १३ ॥ पालकोरपन्नाश्मरीका सुखसाध्यत्व। अथाल्पसत्वादतियंत्रयोग्यत- । स्तथाल्पबस्तेरपि चाल्पमासंतः॥ सदैव वालेषु यदश्मरीसुखा- । गृहीतुमाहतुमतीव शक्यते ॥ १४ ॥ भावार्थ:-बालकोंके शरीर व बस्ति का प्रमाण छोटा होनेसे, शरीर में मांस भा अल्प रहनेसे, यंत्रप्रयोग में भी सुलभता होनेसे बालकों में उत्पन्न अश्मरी को अत्यंत सुलभतासे निकालसकते हैं ॥ १४ ॥ शुक्राश्मरी संप्राप्ति । महत्सु शुक्राश्मरिको भवेत्स्वयं । विनष्टमार्गी विहतो निगेधतः । प्रविश्य मुस्कांतरमाशु शोफत् । स्वमेव शुक्रो निरुणद्धि सर्वदा ॥१५॥ भावार्थ:-शुक्र के उपस्थित वेग को धारण करने से वह स्वस्थान से व्युत होकर बाहर निकलने के लिये मार्ग न होने से उन्मार्गगामी होता है । फिर वह वायुके बल से अण्डकोश और शिश्न के बीच में अर्थात् बस्ति के मुख में प्रवेश करके, वहीं रुककर शुष्क होनेसे. पथरी बन जाता है इसीको शुक्राश्मरी कहते हैं। यह अण्डकोश में सूजन उत्पन्न करती है। यह शुक्राश्मरी जवान मनुष्यों को ही होती है । बालकों को नहीं ॥१५॥ . शुक्राइमरी लक्षण । विलीयते तत्र विमर्दितः पुनः । विवर्धत तत्क्षणमात्रसीयतम् ॥ ... कुमार्गगो नारकवन्महातनुं । स एव शुक्रः कुरुतेऽश्मरी नृणाम् ।। १६ ॥ भावार्थ:--अण्डकोश शिश्नेद्रिय के बीच में मसलने से एक दफे तो अश्मरीका विलय होता है । लेकिन थोडे ही समय के बाद मचित होकर पूर्ववत् बढ़ जाता है । १ शुक्रके वेग को धारण करने के कारण से बाहर निकलनेका मार्ग संकुचित होता है। इसलिये चहू बाहर नहीं निकल पाता है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ररोगाधिकारः। (२६५) इस प्रकार कुमार्गगामी अर्थात् स्वमार्ग को छोड़कर जानेवाला वह शुक्र, अश्मरीरोग को उत्पन्न करता है । जिस प्रकार महान् शरीर धारण करनेवालों को भी नारकी कष्ट पहुं. चाते हैं वैसे ही शक्तिमान शरीरवाले मनुष्योंको भी यह कष्ट पहुंचाता है ।। १६ ॥ अश्मरी का कटिनसाध्य लक्षण । अथाश्मरीष्वद्भुतवेदनास्वमृ-- । ग्विमिश्रमूत्र बहुकृच्छ्रसंगतम् ॥ व्रणश्च जातासु तथा विधानवि- । द्विचार्य तासां समुपाचरेक्रियाम् ॥१७॥ भावार्थ:--अश्मरीरोग से पीडित व्यक्ति भयंकर वेदना ( दर्द ) से युक्त हो, रक्त से मिश्रित मूत्र अत्यंत कठिनता से बाहर निकलता हो, मूत्रप्रणाली आदि स्थानों में व्रण भी उत्पन्न होगया हो, ऐसे अइमारी रोग असाध्य या कष्टसाध्य होता है । इसलिये चिकित्साके कार्य में निपुण वैद्य को चाहिये कि उपरोक्त लक्षणयुक्त रोगीयों की अत्यंत विचार पूर्वक चिकित्सा करें ।। १७॥ अश्मरी का असाध्य लक्षण । स्वनाभिमुष्कध्वजशोफपीडितं । निरुद्धमूत्रातिरुजातमातुरम् ॥ विवर्जयेत्तत्सिकतां सशर्करा- । महाश्मरीभिः प्रविघट्टितं नरम् ॥ १८ ॥ भावार्थ:- जिसका नाभि व अण्डकोश सूज गया है, मूत्र रुकगया है और अत्यंत वेदना से व्याकुलित है ऐसे शर्करा व अश्मरी रोग से पीडित व्यक्ति को असाध्य समझकर छोड देना चाहिये ।। १८ ॥ सदाश्मरी वनविषाग्निसर्पवत् । स्वमृत्युरूपो विषमो महामयः ॥ सदौषधैः कोमल एव साध्यते । प्रवृद्धरूपोऽत्र विभिद्य यत्नतः ॥ १९ ॥ भग्वार्थ:--अश्मरीरोग सदा वज्र, विष, अग्नि व सर्पक समान शीघ्र मृत्युकारक है। यह रोग अत्यंत विषम महारोगोंकी गणनामें है । वह ( पथरी ) कोमल हो ( सक्त नहीं ) तो औषधिप्रयोगसे टीक होती है । यदि सख्त होगयी हो और बढगयी तो यमपूर्वक फोड कर निकालनेसे टीक होता है अर्थात यह शस्त्रसाध्य है ॥ १९ ॥ वाताश्मरी नाशकघृत ।। इहाश्मरी संभवकाल एव ते । यथाक्तसंशोधन शाधितं नरं ॥ प्रपाययेद महांतकार भि- । इशतावरी गोक्षुरपाटली?मेः ॥ २० ॥ त्रिकंटकोशीरपलाशशाकः । सवृक्षचस्सबलामहाबलेः ।। कपोतवंकैबृहतीद्वयान्वितैः । यवैः कुलत्थैः कतकोद्भवः फलैः ॥ २१ ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) कल्याणकारके सकोलविल्वैवरणाग्निमंथकैः । सुवर्चिकासंधवहिंगुचित्रकैः ॥ कषायकल्कैःपरिपाचितं घृतं । भिन्नत्ति तद्वातकृतां महाश्मरीम् ॥२२॥" भावार्थ:--अश्मरी रोगको उत्पत्ति होते ही उस मनुष्यको वमन विरेचन आदिसे शोधन करना चाहिये । फिर उसे पाषाण भेदी शिलाजित शतावरी गोखरू पाढल, गोखरू, खस, पलाश, शगुन, कूडाकी छाल, तगर, विरेटो, सहदेई, ब्राह्मी, छोटीकटेली, बडीकटे ली, जौ, कुलथी, निर्मली वोज, बदरफिल [ बेर ] बेल, वरना, अगेथु, यवक्षार, सेंवालोण, हींग, चीता की जड इनके कषाय व कल्क से सिद्ध किये हुए घृत को पिलावें । वह बातज महा अश्मरी [ पथरी ] संगको दूर करता है ॥२०॥२१॥२२॥ वाताश्मरीके लिये अन्नपान । यथोक्तसद्भेषजसाधितोदकः । कृता यवागूः सविलेप्य सत्खला- ॥ पयांसि संभक्षणभाज्यपानका- । नपि प्रदद्यादानलाश्मरीष्वलम् ।।२३॥ भावार्थः ---वाताइमरी से पांडित व्यक्तिको उपरोक्त [वाताइमरी नाशक ] श्रेष्ठ औषधियों द्वारा साधित जल से किया हुआ युवागू , विलेपी खलंयूष एवं ( उन्हीं औषवियों से सिद्ध ) दूध, भक्ष्य, भोज्य और पानक को भक्षण भोजनादिके लिये प्रदान करना चाहिये ॥ १३ ॥ पित्ताश्मरी नाशक योग । सकाशदभात्कटयोरटाइममि- । त्रिकप्टकैस्सारिवया सचंदनः ॥ शिरीषधत्तरकुरण्टकाशमी- । वराहपाठाकदलीविदारकैः ॥ २४ ॥ सपुष्पकूष्माण्डकपक्षकात्पल- । प्रतीतकोवारुकतुं विविधिका-॥ विपकसत्रायुषबीजसंयुतैः । त्रिजातकश्शातलमृष्टभेषजः ॥ २५ ॥ कृतैः कषायैस्सघृतस्सश करैः । पयोगणैर्भक्षणपानभोजनैः ॥ प्रयोजितैः पित्तकृताश्मरी सदा । विनश्यति श्रीरिव दुष्टमंत्रिभिः ॥२६॥ भावार्थ:----का :, दर्भ, रामसर [ भद्रमुज ] ईश्वका जड, पासणभेदी, गोखरु; सारि वा ( अनंतमूल ) चंदन, सिरस, चतूरा, पीली कटसरैया, छौंकरा, नागरमोथ', पाठा, केलेका जड, विदारक ( जलके मध्यस्थ वृक्षावशेष ) नागकेशर, कूष्माण्ड ( सफेद कद्दू ) कमल, नलिकमल, काडी का बीज, तुम्बी [ लोकि] कुंदुरु, पके हुए खीरे का बीज, १ कैथ इमली, मिरच, चित्रक, बेलगिरी और जीरा इनको डालकर सिद्ध किये हुए यूष को लखयूष कहते हैं। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (२६७) दालचीनी, तेजपात, इलायची, एवं ऐसे ही शीतगुण व मधुर रसयुक्त अन्य औषधि इनके कषाय को घी शक्कर मिलाकर पीनेस, तथा इहीं औषधियों से साधित दूध, भक्ष्य पानक व भोज्य पदार्थीको पाने आदि कार्यों में प्रयोग करनेसे, पित्त से उत्पन्न अश्मरी (पथरी ) सदा नाश होती है। जैसे कि दुनियोले राजाकी राज्य संपत्ति नष्ट होत है ॥ २४ ॥ २५ ॥ २६ ॥ कफारमरीनाशकयोग । फलत्रिकत्र्यूषणशिचित्रकै- । विडंगकुष्ठवरणैस्तुटित्रयैः (?) ॥ बिडोत्थसौवर्चलसैन्धवान्वितैः । कपायकल्कीकृतचारुभषनैः ॥२७॥ विपकतेलाज्यपयोन्नभक्षणः । कषायसक्षारयुतैस्सपानकैः ।। सुपिष्टकल्कैः कफजाश्मरी सदा । तपोगुणस्संहतिवद्विनश्यति ॥ २८ ॥ भावार्थ:-त्रिफला [ हरड बहेडा आंवला ] त्रिकटु [ सोंठ मिरच पीपल ] सैजिन, चीताकी जड, वायविडंग, कूट, वरना, बड़ी इलायची, छोटी इलायची, बिड नमक, काला नोन, सेंधालोण इन औषधियोंके कल्क व कषायसे पकाये हुए तेल, घी, दूध, व अन्नके भक्षण से, क्षारयुक्त कपायको पीनेसे एवं अच्छीतरह पिसे हुए कल्कके सेवनसे कफज अश्मरी रोग नष्ट होता है जिस प्रकार कि तपोगुणसे संसार का नाश होता है |॥ २७ ॥ २८ ॥ पाटलीकादिवाथ. संपाटलीकैः कपिचूतकांत्रिभिः । कृतः कपायोश्मजतुपवापितः ॥ सशर्करः शर्करया सहाश्मरीं । भिन्नत्ति साक्षात्सहसा निषेवितः ॥२९॥ भावार्थ:पाडल, अम्बाडा, ( अथवा अश्वत्थभेद ) इन वृक्षोंके जडके कषाय में शिलाजीत और शक्कर मिलाकर पीने से शर्करा तथा अश्मरी रोग दूर होता . . . - कपोतकादि क्वाथ । कपोतक्कैः सहशाकजैः फलैः । सविष्णुकांतः कदलांबुजायैः ॥ श्रुतं पयष्टंकणचूर्णमिश्रितं । सशर्करेंटुं प्रपिवेत्सशर्करी ॥ ३० ॥ भावार्थ:--बाही, विष्णुकांत, शेगुन वृक्षका फल, सेमर, हिज्जल वृक्ष [ समुद्र ।। फलं ] इनके कपाय में सुहागेके चूर्ण शक्कर और कपूर मिलाकर शर्करा रोगवाला पीवे तो रोग शांत होता है ॥ ३० ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६८) कल्याणकारके अजदुग्धपान । मुभृष्टसदृकणचूर्णामिश्रितं । पिबेदनाहारपरो नरस्सुखम् ॥ अजापयस्सोष्णतरं सशर्करं । भिन्नत्ति तच्छर्करया सहाश्मरीम् ॥३१॥ भावार्थ:--संपूर्ण आहारको त्यागकर बकरीके गरम दूधमें शक्कर और सुहागेके चूर्णको मिलाकर अनेक दिन पी तो शर्करा और अश्मरी रोग दूर होते हैं ॥३१॥ नृत्यकाण्डादि कल्क ! सनृत्यकाण्डोद्भवबीजपाटली । त्रिकष्टकानामपि कल्कमळितम् ॥ पिवेदधिक्षीरयुतं सशकरं । सशर्कराइमर्यतिभेदकृद्भवेत् ॥ ३२ ॥ भावार्थ:-नृत्य काण्डका बीज ( ? ) गोखरू, पाटल इनका कल्क बना कर उस में दूध, दही व शक्कर अछीतरह मिलाकर पीवें तो शर्करा और अश्मरी को शीघ्र भेदन करता है ॥ ३२ ॥ तिलादिक्षार। तिलापमार्गेझुरतालमुकक । क्षितीश्वराख्यांघ्रिपकिंशुकोद्भवम् ॥ मुभस्मानश्राव्य पिबेत्तदश्मरी | शिलाजतुद्राविलमिश्रित जयेत् ॥ ३३ ॥ भावार्थ:-तिल, चिरचिरा, गोखरू, ताल, मोखा, अमलतास, किंशुक इन वृक्षोंको अच्छीतरह भस्मकर उसको पानी में घोलकर छानलेवें। उस क्षार जल में शिलाजीत, और विडनमक मिलाकर पीये तो यह अश्मरी रोग को जीत लेता है ॥ ३३ ॥ यथोक्तसद्भेषजसाधितःघृतैः । कषायसक्षारपयोऽवलेहनैः ।। सदा जयेदश्मतराइमरी भिषग् । विशेषतो बस्तिभिरप्यथोत्तरैः ॥३४॥ भावार्थ:---इस प्रकार ऊपरके कथनके अनुसार अनेक अश्मरी नाशक औषधियोंसे सिद्ध घृत, कषाय, क्षार, दूध व अवलेहों के द्वारा विशेष कर उत्तरबैस्ति के प्रयोग से वैद्य पत्थरसे भी अधिक कठिन अश्मरी रोग को जीते ॥ ३४ ॥ उत्तरबस्ति विधान। अतः परं चोत्तरवीस्तरुच्यते । निरस्तबस्त्यामयवृंदबंधुरा ॥ प्रतीतनेत्रामलबस्तिलक्षण- । द्रवप्रमाणैरपि तत्क्रियाक्रमैः ॥ ३५ ॥ भावार्थ--उत्तर वस्ति बस्ति ( मूत्राशय) गत सम्पूर्ण रोगोंको जीतने वाली है। १ जो लिंग व योनि में अस्ति [ पिचकारी ] लगायी जाती हैं उरे उत्तरबस्ति, कहते हैं। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुइरोगाधिकारः। (२६९) इसलिये यहां से आगे, नेत्र ( पिचकारी ) व बस्ति का लक्षण, प्रयोग करने योग्य द्रवप्रमाण, और प्रयोग करने की विधि आदि उत्तरबस्ति संम्बधि विषय का वर्णन करेंगे ॥ ३५॥ पुरुषयोग्यनेत्रलक्षण । प्रमाणतोऽष्टांगुल नेत्रमायतं । सुवृत्तसुस्निग्धसुरूपसंयुतम् ॥ सुतारनिर्मापितमुलकार्णकं । सुमालतीवृन्तसमं तु सर्वथा ।। ३६ ।। भावार्थः ---बह बस्ति, आठ अंगुल लम्बी, गोल, कोमल व सुंदर चांदी आदि धातुओं द्वारा निर्मपित, मूल में कर्णिका से संयुक्त एवं चमेलीपुष्प के डंठल के समान होनी चाहिये। यह नेत्रनमाण व लक्षण पुरुषोंको प्रयुक्त करने योग्य नेत्रका है ॥ ३६॥ कन्या व स्त्रीयोन्य नेत्र लक्षण । तदर्धभागं सबृहत्सुकणिकं । सबस्तियुक्तं प्रमादाहितं सदा ॥ तथांगुलीयुग्मनिविष्टकणिक । तदेव कन्याजननेत्रमुच्यते ॥ ३७ ॥ भावार्थ:-स्त्रियों के लिये नेत्री, चार अंगुल लम्बा व बडी कर्णिका से संयुक्त होना चाहिये । कन्याओं के लिये प्रयोग करने योग्य नेत्र दो अंगुल लम्बा एवं कर्णिकायुक्त होना चाहिये । उपरोक्त तीनों प्रकार के नेत्र बस्ति से संयुक्त होना चाहिये ॥ ३७ ॥ द्रवत्रमाण। द्रवप्रमाणं प्रसृतं विधाय तत् । कषायतैलाज्यगुणेषु कस्यचित् ।। प्रयोज्यतां बस्तिम/दुलिप्तया । शलाकया मेद मुखं विशोध्य तम् ॥३८॥ भावार्थ:----बस्ति में, कपाय, तेल, बी इत्यादिमें से किसी भी चीज (द्रव) को प्रयोग करना हो, उस की अधिक से अधिक मात्रा एक प्रसृत (साट तोला) प्रमाण है। बस्ति प्रयोग करनेके पहिले कपूर से लेपन किये गये, पतले शला का [ सलाई ] को, अंदर डालकर, शिश्नेंद्रिय के मुख को साफ कर लेनी चाहिये ।। ३८ ॥ उत्तरबस्तिसे पूर्वपञ्चाद्विधेयविधि । प्रपीडयत्त प्रथमं विधानवित् । नियोजयेदुत्तरवस्तिमूजिताम् ॥ ततोऽपराण्हे पयसा च भोजयेत् । अतो विधास्ये वरवस्तिसक्रियाम् ॥३९॥ १ यह रोगी के हाथ का अंगुल है। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७०) कल्याणकारके Ter भावार्थ::- उत्तर बस्ति देनेके पहिले उन अवयवोंको मल लेना चाहिए । तदनंतर "बस्तिका प्रयोग करना चाहिए। उस दिन सायंकाल दूधके साथ भोजन कराना चाहिए । अब बस्ति देनेके क्रमको कहेंगे || ३९ ॥ उत्तरवत्यर्थ उपवेशनविधि | स्वानुदघ्नोन्नत सुस्थिरासने । व्यवस्थितस्यादृतकुक्कुटासने || नरस्य योज्यं वनिताजनस्य च । तथैवमुत्तानगताध्वपादितः ॥ ४० ॥ भावार्थ- पुरुषको उत्तरवस्ति प्रयोग करना हो तो उसको घुटनेके बराबर ऊंचे व स्थिर आसन ( बेंच कुर्सी आदि ) पर कुक्कुटासन में व्यवस्थित रूपसे बिठाल कर प्रयोग करें । स्त्रीको हो तो उपरोक्त आसनपर, चित सुलावें और दोनों पैर ऊंचा करके अर्थात् संकुचित करके प्रयोग करें ॥ ४० ॥ नभोगतेऽप्युत्तरवस्तिगद्रवे । सतैलनिर्गुण्डिर सेंदुलिप्सया || शलाकया मेद्रमुखं विघट्ट्य- । नपश्च नाभः प्रतिपीडयेदृढम् ॥ ४१ ॥ भावार्थ:-- पिचकारीका द्रवद्रव्य पूर्ण होनेपर तेल, निर्गुण्डिका रस और कपूर लिप्त शलाका से शिनके मुखको अच्छीतरह शोधन करना चाहिए एवं नाभिके नीचे अच्छीतरह हाथ से मलना चाहिए ॥ ४१ ॥ अगारधूमादिवर्ति । अगारधूमोत्पलकुष्ठपिप्पली । सुधर्वैः सहतीफल द्रवैः ॥ विलिप्तवर्ति प्रविवेशयेद्बुधः । सुखेन सद्यो द्रवनिर्गमो भवेत् ॥ ४२ ॥ ॥ भावार्थ:--- गृहधूम, नील कमल, कूठ, पीपल, सेंवालोण व कटेहली फल इन के द्रव [ काथ आदि ] को बत्तीके ऊपर लेपन कर अंदर प्रवेश कराने से उसी समय द्रव्य सुगमता से आता है ॥ ४२ ॥ उत्तरवस्तिका उपसंहार । समूत्ररोगानतिमुत्रकृच्छतां । सशर्करानुग्ररुजाइमरीगणान् ॥ समस्तवस्त्याश्रयरोगसंचयान् । विनाशययेदुत्तरवस्तिरुत्तमः ॥ ४२ ॥ भावार्थः – मूत्ररोग, मूत्रकृच्छ, शर्कराश्मरी आदि संपूर्ण बस्त्याश्रित रोग इस उत्तर बस्तिसे नाश होते हैं । अर्थात् मूत्रसंबंधी रोगोंके दिये, उमसे उम्र अश्मी रोग के लिये व सर्व प्रकार के वस्तिगत रोगोंकेलिये यह उत्तरवस्ति उत्तम साधन है ||४३|| १ घर में धूवें के कारण, जो काला जम जाता है उसे गृहधूम, [घर का धूवा] कहते हैं | Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAMANA. क्षुद्ररोगाधिकारः। (२७१) अथ भगंदररोगाधिकारः । भगंदरवर्णनप्रतिज्ञा । निगद्य संक्षेपत एवमश्मरी । भगंदरस्य प्रतिपाद्यते क्रिया। स्वलक्षणैः साध्यविचारणायुतैः । सरिष्टवगैरपि तच्चिकित्सितैः ॥४४॥ भावार्थ:-----इस प्रकार संक्षेपसे अश्मरी रोगको प्रतिपादनकर अब भगंदर रोगका वर्णन उसकी चिकित्सा, लक्षण साध्यासाध्य विचार, मृत्युचिन्ह आदि के साथ २ करेंगे इस प्रकार आचार्यश्री प्रतिज्ञा करते हैं ॥ ४४ ॥ भगंदर का भेद । क्रमान्मरुत्पित्तकफैरुदीरितैः । समस्तदोषैरपि शल्यघाततः ॥ भवंति पंचैव भगंदेराणि त- । द्विषाग्निमृत्युप्रतिपानि तान्यलं ॥ ४५ ॥ भावार्थ:--भगंदर रोग क्रमसे वातज, पित्तज, कफज, वातपित्तकफज ( सन्निपातज ) शल्यघातज ( कांटे के आधातसे उत्पन्न ) इस प्रकारसे पांच प्रकारका होता है । यह रोग विष, अग्नि, मृत्युके समान भयंकर है ॥ ४५ ॥ शतयोनक व उष्ट्रगललक्षण | सतोदभेदप्रचुरातिवेदनं । मरुत्प्रकोपाच्छतयोनकं भवेत् ।। सतीवदाहज्वरमुग्रंपत्तिकं । भगंदरं चोष्ट्रगलोषमांकुरम् ।। ४६ ॥ भावार्थ:---बातोद्रेक से उत्पन्न भगंदर, तोद, भेद, आदि अत्यंत वेदना से युक्त होता है । इसका नाम शतयोनक है । पित्तमकोपसे उत्पन्न भगंदर में तीन दाह [ जलन ] व ज्वर होता है। यह ऊंट के गले के समान होता है । इसलिये इसे उष्ट्रगल कहते हैं ॥ १६ ॥ परिस्रावि व कंबुकावर्तलक्षण । कफात्परित्रावि भगंदरं महत् । सकण्डुरं सुस्थिरमल्पदुर्घटम् ॥ उदीरितानेकविशेषवेदनम् । मुकंदुकावर्तमशेषदोषजम् ॥ ४७॥ anuamn.samnnx १ गुदा के बाहर और पास में अर्थात् गुदा से दो अंगुल के फासले में, अत्यंत वेदना उत्पन्न करनेवाली पिडका [ फोडा ] उत्पन्न होकर, वही फूट जाता है, इसे भगंदर रोग कहते है । २ शतयोनक का अर्थ चालनी है । इस भगंदर में चालनी के समान अनेक छिद्र होते हैं। इसलिये शतयोनक नाम सार्थक है। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७२) कल्याणकारके भावार्थ:---कफप्रकोप से उत्पन्न भगंदर, बडा व स्थिर होता है इस में खुजली होती है वेदना ( पीडा ) मंद ( कम ) होती है एवं पूयस्राव होता रहता है। इसलिये इसे परिस्रावि भगंदर कहते हैं। सन्निपात भगंदर में, पूर्वोक्त तीनों दोषों से उत्पन्न भगंदरों के पृथक २ लक्षण एक साथ पाये जाते हैं। इसकी शंख के आवर्त [ घुमाई ] के समान आकृति होने से इसे कंबुकावर्त कहते हैं ॥ ४७ ।। उन्मार्गि भगंदर लक्षण । सशल्यमज्ञानतयानमाहृतम् । क्षिणोति तीक्ष्णं गुदमन्यथोगदं ॥ विमार्गमुन्मार्गविशेषसंचितं । भगंदरं तत्कुरुते भयंकरम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ:-विना देखें भालें, अन्यथा चित्त से भोजन करते समय आहार के साथ कांटा जावें तो, वह गुद में चुभकर भगंदर को पैदा करता है । इस में अनेक प्रकार के मार्ग ( छिद्र ) होते हैं । यह उन्मार्गगाभी होता है । इसलिये उसे उन्मार्गी भगंदर कहते हैं । यह अत्यंत भयंकर होता है ॥ ४८ ।। भगंदर की व्युत्पत्ति व साध्यासाध्य विचार । भगान्विते वस्ति गुदे विदारणात् । भगंदराणीति वदति तद्विदः । स्वभावतः कृच्छतराणि तेषुत- । द्विवर्जयेत्सर्वजशल्यसंभवम् ॥४९॥ भावार्थ:-भग, अस्ति और गुद स्थानमें विदारण होनेसे इसे भगंदर ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं । सर्व प्रकारके भगदंर, अत्यंत कष्ट साध्य हैं । इनमें से, सनिपातज ब शल्यज तो असाध्य हैं । इसलिए इन दोनों को छोड देवें ॥ ४९ ॥ __ भगंदर चिकित्सा। भगंदरोद्यपिटिकाप्रपीडितं । महोपवासः वमनविरेचनैः ।। उपाचरेदाशुविशेषशोणित- । प्रमोक्षसंस्वेदनलपवनः !॥५०॥ भावार्थ:---भगंदर पिडका [ फुनसी ] से पीडित अर्थात भगंदर रोगसे युक्त मनुष्यको उपवास, वमन, विरेचन, रक्तमोक्षण, संवेदन, लेपन, आदि विधियोंसे शीघ्र चिकित्सा करें |॥ ५० ॥ चिकित्सा उपेक्षाले हानि । उपेक्षितान्युत्तरकालमुद्धते-- | स्समस्तदोषः परिपाकमंत्यतः ।। सृजति रेतोमलमूत्रमारुत- । क्रिमीनपि स्वत्रणवक्त्रतस्सदा ।। ५१ ॥ १ भगं दारयतीति भगंदरः Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (२७३) भावार्थ:-यदि इस भगंदर रोगीकी उपेक्षा करें तो वह तीनों दोषों से संयुक्त हो कर, उस का परिपाक होता है। भगंदर के मार्ग [ मुख ] से शुक्र, मट, मूत्र, और वायु बाहर आने लगते हैं । एवं उस में नाना प्रकार के मुख से संयुक्त वणोंकी उत्पत्ति होकर, उन व्रणों के मुख से क्रिमी पडने लगते हैं । अर्थात् क्रिमि भी पेदा होते हैं ॥ ५१ ॥ भगंदर का असाध्य लक्षण । पुरीषमत्राक्रिमिवातरेतसां । प्रवृत्तिमालोक्य भगंदरवणे ।। चिकित्सकस्तं मनुजं विवर्जये- । दुपद्रवैरप्युपपन्नमुद्धतैः ॥ ५२ ॥ भावार्थ:-भगंदर के मुखसे मल, मूग, वात, वीर्य, किमि आदिकी प्रवृत्तिको देखकर एवं भयंकर उपद्रवोंके उद्रेक को देखकर चिकिसकको उचित है कि वह भगंदर रोगीको असाध्य समझकर छोडें ॥ ५२ ॥ भगंदर की अंतर्मुखवहिर्मुखपरीक्षा । तथा विपक्षेषु भगंदरेष्वतः । प्रतीतयत्नाद्गुदनांकुरेष्विव । . प्रवेश्य यंत्रम् प्रविधाय चैषणीं । बहिर्मुखांतर्मुखतो विचारयेत् ॥ ५३ ॥ भावार्थः--उपरोक्त भगंदरोंसे विपरीत अर्थात् असाध्यलक्षणोंसे रहित भगंदर रोग को, अर्शके समान ही अत्यंत यत्नके साथ यंत्रको अंदर प्रवेशकर ऐषणी ( लोह की शलाका ) को अंदर डालकर भगंदरका मुख अंतर्गत है या बहिर्गत है इसको अच्छीतरह विचार करना चाहिये ॥ ५३ ॥ भगंदर यंत्र । यथार्शसां यंत्रमुदाहृतं पुरा । भगंदराणां च तथाविधं भवेत् ॥ अयं विशेषोऽर्धशशांकसन्निभं । स्वर्णिकायां प्रतिपाद्यते बुधैः ॥५४॥ भावार्थ:----जिस प्रकार पहिले अर्शगेगोलिय यंत्र बतलाये गये हैं वैसे ही यंत्र भगंदरकेलिये भी होते हैं । परंतु इतना विशेप विद्वानों द्वारा कहा जाता है कि इसमें कार्णका अर्थचंता कृति की होनी चाहिये ॥ ५४ ।। भगंदरमें शत्राग्निक्षारमयोग । अथैपीमार्गत एव साशयं । विदार्य शस्त्रेण दहेत्तथाग्निना ॥ निपातयेत्क्षा रमपि वणक्रियां । प्रयोजयेच्छोधनरोपणौषधैः ॥ ५५ ॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७४) कल्याणकारके भावार्थ:--भगंदर व्रण में लोहशलाका डालकर, भगंदर और उसके आधार को शस्त्र से विदारण करके अग्नि से जलावें । अथवा क्षारपातन करें। इस प्रकार, शस्त्र प्रयोग आदि करने के बाद, उस व्रण ( घाव ) को, व्रणोपचार पद्धति से शोधन ( शुद्ध करनेवाली ) रोपण ( भरनेवाली) औषधियों द्वारा चिकित्सा करें। अर्थात् रोपण करें ॥ ५५ ॥ भगंदर छेदन क्रम। यदैवमन्योन्यगतागतिर्भवेत् । तदैकदा छेदनमिष्टमन्यथा ।। क्रमक्रमेणैव पृथक्पृथग्गतिं । विदारयेद्यन्न बृहदणं भवेत् ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-जब भगंदरोंकी गति परस्पर मिली हुई रहें तब उनको एक बार ही छेदन करना चाहिये । जिनकी गति पृथक् २ है परम्पर मिली नहीं है उनको क्रम २ से विदारण करें अर्थात् एक भरने के बाद दूसरे को । दूसरा भरने के बाद तीसरे को दारण करें । ऐसा करने से व्रण बड़ा नहीं हो पाता है ॥ ५६ ॥ बृहत्वणका दोष व उसका निषेध । बृहद्रणं यच्च भवेद्भगंदरम् । तदैव तस्मिन्मलमूत्ररेतसाम् ।। प्रवृत्तिरुक्ता महती गतिस्ततो । भिषग्विमुख्यैरपि शस्त्रकर्मवित् ॥५५॥ ततो न कुर्याद्विवृतं व्रणान्वितं । भगंदरं तत्कुरुते गुदक्षतिम् ॥ स शूलमाध्मानमथान्यभावतां । करोति वातःक्षतवक्त्रनिर्गतः ॥५८॥ भावार्थः-जिस भगंदर में ( शस्त्र कर्मके कारण ) व्रण ( घाव ) बहुत बडा होजाता है उस व्रण मार्ग से मल, मूत्र, शुक्र वाहर निकल ने लगते हैं। जिस से भगंदर की गति और भी महान होजाती है ऐसा भिषश्वरोंने कहा है । इसलिये शस्त्रकर्म को जानने वाले वैद्य को चाहिये कि वह शस्त्र कर्म करते समय भगंदर के व्रण (घाव ) को कभी भी बडा न बनावें । यदि बंढ जावें तो वह गुदाको (विदारण) कर देता है । उस क्षतगुदाके मुख से निकला हुआ बात शूल, आध्मान ( अफरा ) को करता है ५७ ॥ ५८ ॥ अतः प्रयत्नादतिशोफभेदतां । विचार्य सम्यग्विदधीत भेषजम् ॥ विधीयते छेदनमर्धलांगल- । प्रतीतगोतार्थसमाननायकम् ।।५९।। १ यहां शस्त्र, आमे व क्षार कर्म बतलाया है । इन सब को एक ही अवस्था प्रयोग करना चाहिये । अवस्थांतर को देखकर प्रयोग करें। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः। (२७५) भावार्य:-इसलिये भगंदर की सूजन के भेदों को देख कर उस पर अच्छीतरह से विचारकर उस के अनुकूल प्रयत्नपूर्वक शस्त्रकर्म आदि करें । भगंदर के छेदन ( की आकृति ) या तो अर्धलांगलके सदृश अथवा गोतीर्थ के समान करें ॥ ५९॥ सुखोष्णतेलन निषेचनं हितं । गुदे यदि स्यात्क्षतवदना नृणां ॥ तथानिलघ्नौषधपकभाजने ! सबाषिकेप्यासनमिष्टमादरात् ॥६०॥ भावार्थ:---यदि गुदक्षत होकर उस में वेदना हुई हो तो मंदोष्ण तेलका सिं. चन करना हितकर है। एवं वातहर औषधियों से पका हुआ बाफ सहित पानीमें बैठना भी उपयुक्त है ॥ २६० ॥ स्वेदन। सवक्रनाडीगतबाष्पतापनं । हितं शयानस्य गुदे नियोजयेत् ।। तथैवमभ्यक्तशरीरमातुरं । सुखोदकेष्वप्यगाहयद्भिषक् ॥ ६१ ॥ भावार्थः-भंगदर से पीडित रोगी की चिकित्साकेलिये यह भी उपाय है कि एक घडे में वातघ्न औषधि यों से सिद्ध कषाय को भरकर उसके मुहं बंद करें। और उस घडे में एक टेढी नली लगावें । उस नली द्वारा आई हुई बाफ से गुदा को स्वेदन करें । अथवा वातघ्नतैल से शरीर को मालिश करके कदुष्ण [ थोडा गरम ] जल को एक बडे बर्तन में डालकर उस में रोगीको बैठालें ॥ ६१ ।। __भगदरम्न उपनाह। मुतैलदुग्धाज्यविपकपायसं । ससैंधवं वातहरौषधान्वितम् ॥ सपत्रवस्त्रनिहितं यथासुखं । भगंदरस्याहुरिहोपनाहनम् ॥ ६२ ॥ १ लांगल हल को कहते हैं जो आधा हल के समान हो उसे अर्धलांगल कहते हैं | २ इस के विषय में अनेक मत है । कोई तो चलती हुई गाय मूतनेपर जो टेढी २ लकीर होती है उसे गोतीर्थ कहते हैं। कोई तो गायकी योनि को गोतीर्थ कहते हैं। ग्रंथांतर में ऐसा भी लिखा है---- द्वाभ्यां समाभ्यां पायाभ्या छेदे लांगलको मतः । इस्वमेकतरं यच्च सोऽधलांगलकस्स्मृतः ॥१॥ अर्थः-जो दोनों पार्थो में समान छेद किया जावे उसे " लांगलक" कहते हैं | जो एक तरफ छोटा हो वह " अर्धलांगल" कहलाता है। पार्श्वगतेन छिद्रण छेदो गोतीर्थको भवेत् ॥ जो फंसवाडी के तरफ झुककर छेद किया जावें उसे "गोतीर्थ" कहते हैं । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७६) कल्याणकारके भावार्थ:- तेल, दूध, घी, सेंधानमक और वातहर औषधि इनको एकत्र डालकर तब तक पकायें, जतक खीर के समान गाढा नहीं होवें । इस पुलटिश को, इस भगंदर व्रण पर पत्ते और वस्त्र के साथ जैसा सुख होवें वैसा बांबे ॥ ६२ ॥ शल्यज भगंदर चिकित्सा । यदेतदतर्गतशल्यनामकं । भगंदरं तच्च विदार्य यत्नतः ॥ व्यपोत्ह्य शल्यं प्रतिपाद्य कृच्छ्रतां । नृपाय पूर्व विदधीत तत्क्रियाम् ॥ ६३ ॥ भावार्थ:-- जो राज्य ( कांटा ) भक्षणसे उत्पन्न भगंदर है ( वह असाध्य होने से ) उसकी कठिनताको पहिले राजाको सूचित करें । फिर उसका बहुत प्रयत्न के साथ विदारण करें एवं कांटेको निकाले ६३॥ शोधनरोपण | व्रणक्रियां प्राग्विहितां प्रयोजयेत् । प्रमेह तीव्रव्रणशोधनं भिषक् ॥ भगंदरेष्यत्र विधिर्विधयिते । विशेषतश्शोधनरोपणादिकं ॥ ६४ ॥ भावार्थ:-- पहिले प्रमेहत्रण के प्रकरण में जो व्रण क्रिया बताई गई है उसी विधीसे भगंदरणका भी शोधन करें । विशेषतः भगंदरव्रणको शोधन रोपण आि औषधियों का प्रयोग करें ॥ ६४ ॥ भदन तेल व घृत | तिलैस्सदंतीत्रिवृदिंद्रवारुणी - । शताव्हकुष्ठैः करवीरलांगलः ॥ निशार्क कांजीरकरंजचित्रकैः - 1 सहिंगुदी (2) सैंधवचित्रबीजकैः ॥६५॥ सनिवजातीकटुरोहिणीवचा । कटुत्रिकांकोलगिरीद्रकर्णिकैः ॥ सहाश्वमारैः करकर्णिकायुतैः । महातरुक्षीरक रूटिकान्वितैः ॥ ६६ ॥ कषायकल्कीकृतचारुभेषजैः । विपकतैलं घृतमेव वा द्वयम् ॥ प्रयोगयेत्तच्च भगंदरन्त्रणे । रुजाहरं शोधनमाशु रोपणं ॥ ६७ ॥ भावार्थ:- तिल, दंती जड ( जमाल गोटेका पेड ) निसोथ, इंद्रायन, शतावरी कूट, कनेर, हल्दी, कांजीर, कंगा, कलिहारिकी जड़, आक, सेंवालवण, चीताकी जड, गोदीवृक्ष, अथवा बडी कटेली, एरण्ड बीज, निंत्र, जायफल, कुटकी, वचा, त्रिकटु (सोठ मिरच पीपल) अंकोल, [ढेरा वृक्ष ] सफेद किणिही वृक्ष और कर्णिका से युक्त कनेर, थूहर का दूध, लाउ एरण्ड वृक्ष, पीली कटसरैया इन औषधियों के कल्कसे कपाय तैयार कर उसमें Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । (२७७) पकाये हुए तेल या घी अथवा दोनों को भगंदरत्रण में उपयोग करना चाहिये । उसले का शोधन और रोपण हो जायगा । एवं रोग भी दूर होगा ।। ६५ ।। ६६ ।। ६७ ।। उपरोक्त तैल घृतका विशेष गुण । तदेव दुष्टार्बुदनाडिकांकुर । स्तनक्षतेष्वद्भुतपूतिकर्णयोः ॥ प्रमेहकुष्ठणकच्छ्रददुषु । क्रिमिष्वपीष्टं प्रथितापचीष्वलम् || ६८ ॥ भावार्थ:- उपरोक्त तेल व तृत, दुष्टअर्बुदरोग, नाडीव्रण, अर्श, स्तनक्षति, विडिका, पूर्ति, कर्णरोग, प्रमेह, कुष्ट, कच्छु, दहु, अपचि, और क्रिमिरोगोंके लिये हितकर है ॥ ६८ ॥ हरीतक्यादि चूर्ण | हरीतकी रोहिणि सैंधवं वचा । कटुत्रिकं श्लक्ष्णतरं विचूर्णितं ॥ पिबेत्कुलत्थोद्भवतक्रांजिकां । द्रवेण केनापि युतं भगंदरी ॥ ६९ ॥ भावार्थ:-- हरड, कुटकी, सैंधालोण, बचा, त्रिकटु, इन औषधियोंको महीन चूर्णकर उसे कुलथी व छाछकी कांजी में मिलाकर किसी द्रवके साथ भगंदरी पीवें जिस से वह सुखी होता है ॥ ६९ ॥ भगंदर में अपथ्य | व्यवायदूराध्वगमातिवाहन- । प्रयाणयुद्धाद्यभिघातहेतुकम् || त्यजेद्विरूढोपि भगंदरवणी । मासद्वयं बद्धपुरीषभोजनम् ॥ ७० ॥ भावार्थ:- - भगंदर व्रण अच्छा हो जाने पर भी ( भर जानेपर भी ) दो महीने तक भगंदरी मैथुनसेवन, दूरमार्ग गमन, घोडे आदि सवारीपर बैठकर अधिक प्रयाण, युद्ध [ कुस्ती आदि ] आदि आघात ( चोट लगने ) के लिये कारणभूत क्रियाओंको न करें । एवं गाढामल होने योग्य भोजन भी नहीं करना चाहिए, दो महिनेतक आहार नीहारकी योग्य व्यवस्था रखें ॥ ७० ॥ अश्मरी आदिके उपसंहार । इति क्रमादुद्धतरोगवल्लभा । नसाध्यसाध्यप्रविचारणान्वितान् ॥ निगद्य तलक्षणतच्चिकित्सितान् । ब्रवीम्यतः क्षुद्ररुजागणानपि ॥ ७१ ॥ भावार्थ:- :- इस प्रकार क्रमसे बडे २ रोग उनका लक्षण, साध्यासाध्यीवचार उनकी चिकित्सा आदि बातोंको कहकर अब क्षुद्ररोगों के विषयमें कहेंगे ॥ ७१ ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) कल्याणकारके वृद्धि उपदंश आदिके वर्णन की प्रतिज्ञा । अतः परं वृध्युपदंशश्लीपद । प्रतीतवल्मीकपदापचीगल - ॥ प्रलंबगण्डार्बुदलक्षणैस्सह । प्रवक्ष्यते ग्रंथिचिकित्सितं क्रमात् ॥ ७२ ॥ भावार्थ:- - अत्र अण्डवृष्यादिक रोग, उपदंश, श्लीपद, अपच, गलगण्ड, अर्बुद, ग्रंथि आदि रोगों का लक्षण व चिकित्सा के साथ वर्णन किया जाता है ॥ ७२ ॥ सप्त प्रकारकी वृषणवृद्धि । क्रमाच्च दोषै रुधिरेण मेदसा । प्रभूतम्त्रांत्रनिमित्ततोऽपि वा ॥ सनामधेया वृषणाभिद्धयो । भवंति पुंसामिह सप्तसंख्यया ।। ७३ ।। भावार्थ:- क्रमसे वात, पित्त, कफ, रक्त व मेदके विकारसे एवं मूत्र और आंत्र के विकारसे, दोषोंके अनुसार नामको धारण करनेवाली (जैसे वातज वृद्धि, पित्तज वृद्धि आदि ) वृष वृद्धि सातण प्रकारकी होती हैं ॥७३॥ वृद्धि संप्राप्ति । अथ प्रवृत्तोन्यतमोऽनिलादिषु । प्रदुष्टदोषः फलकोशवाहिनी || समाश्रितोऽसौ पवनः समंततः । करोति शोफं फलकोशयोरिव ॥ ७४ ॥ भावार्थ::- वात आदि दोषोंमें कोई भी एक दोष स्वकारण से प्रकुपित होकर अण्डकोश में वहनेवाली धमनी को प्राप्तकर वायु की सहायता से अण्डकोश में फलकोशके समान सूजन को उत्पन्न करता है । इसे अण्डवृद्धि कहते हैं ||७४ || 1 वात, पित्त, रक्तज वृद्धि लक्षण । मरुत्मपूर्णः परुषो महान्परः । सकण्टकः कृष्णतरोऽतिवेदनः ॥ स एव शोफोनिवृद्धिरुच्यते । ज्वरातिदाहैः सह पित्तरक्तजा || ७५ || भावार्थ:- जो परिपूर्ण हो, कठिन बायुसे हो, कण्टक ( कांटे जैसे ) से युक्त हो, कालांतर में जिस में अत्यंत वेदना होती हो, उस सूजनको वातोत्पन्न अण्डवृद्धि, अर्थात् वातजवृद्धि कहते हैं । वही अण्डवृद्धि, यदि उवर और अत्यंत दाहसे युक्त हो तो उसे पित्तज व रक्तज समझना चाहिए ॥ ७५ ॥ कफ, मेदजवृद्धि लक्षण | गुरुस्थ मंदरुजtग्रण्डुरो । बृहत्करो यः कफवृद्धिरुच्यते ॥ महान् मृदुस्तालफलोपमाकृतिः । सतीत्रकण्डूरिह मेदसा भवेत् ॥ ७६ ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (२७९) भावार्थ:-~~~-जो भारी और स्थिर [ घटने बढने वाली न हो ] हो जिसमें पीडा थोडी होती हो, अत्यधिक खुजली चलता हो व कठिन हो इन लक्षणोंसे संयुक्त अण्डवृद्धि कफज कहलाती है । जो महान भृदु ताडके काल के समान जिसकी आकृति हो, अत्यंत खुजली चलती हो उसे मेदज अण्डवृद्धि कहते हैं ॥ ७६ ॥ मूत्रजवृद्धिलक्षण। स गच्छतः क्षभ्यति वारिपूरिता-। दृतियथा मूत्रनिरोधतस्तथा ॥ महातिकृच्छाधिकवेदनायुतो । मृदुनृणां मूत्रविवृद्विरुच्यते ॥ ७७ ॥ भावार्थ:--जो सूजन चलते समय पानीस भरी हुई दृति (मशक) जिस प्रकार क्षोभको [चं चल] प्राप्त होती है, उसी प्रकार क्षोभायमान होती है । मूत्रकृच्छ व अधिक पीडासे युक्त है, व मृदू है वह मूत्र जवृद्धि कहलती है। यह मूत्राके रोकनेसे उत्पन्न होती है ॥ ७७ ॥ अंत्रज वृद्धिलक्षण। यदांत्रमंतर्गतवायुपीडितं । त्वचं समुन्नम्य विध्य वंक्षणम् ॥ प्रविश्य कोशं कुरुतेऽतिवेदनाम् । तदात्रवृद्धि प्रतिपादयेद्भिषक् ॥ ७८ ॥ भावार्थ:---जिससमय अंदर रहनेवाला वात अत्रको पीडित करता है. ( संकुचित करता है ) तब वह त्वचाको नमाकर बंक्षण संधि ( राङ) को कम्पित करते हुए ( उसी वक्षण संधि द्वारा) अण्डमें प्रवेश करता है। तभी अंडकी वृद्धि होती है इसे वैद्य अत्रज वृद्धि कहें ॥ ७८ ॥ सर्व वृद्धि में वर्जनीय कार्य । तथोक्तवृद्धिष्वखिलासु बुद्धिमान् । विवर्जयेद्वेगनिरोधवाहनम् ।। व्यवाययुद्धायभिघातहेतुकं । ततश्च तासां विदधीत तत्क्रियाम् ।। ७९ ।। भावार्थ:--उपर्युक्त सर्व प्रकार के वृद्धिरागोंमें बुद्धिमान रोगीको उचित है कि वह शरीरको आघात पहुंचाने वाली मैशुनसेवन, वेगनिरोध ( मल मूत्रादिक निरोध ) वाहन में बैठना, युद्ध करना आदि क्रियावों को छोडनी चाहिये । फिर उसकी चिकित्सा कराना चाहिये ॥ ७९ ॥ वातवृद्रि चिकित्सा। अथानिलोत्याधिकवृद्धिमातुरं । विरेचयेस्निग्धतमं प्रपाययेत् ।। सदुग्धमेरण्डजतलमेव वा । निरूहयद्वाप्यनुवासयभृशम् ॥ ८० ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८०) कल्याणकारके भावार्थ:--वातात्पन्न अण्डवृद्धिसे पीडित रोगी को कोई स्निग्ध विरेचन ( विरेचक घृत आदि ) औषध पिलाकर विरेचन कराना चाहिये । इस के लिये, दूध में एरण्ड तैल मिलाकर पिलाना अत्यंत हितकर है । अथवा निरूह व अनुवासन बस्ति का प्रयोग करना चाहिये || ८० ॥ स्वेदन, लेपन, बंधन व दहन । संदव संस्वदविधायनौषध- । प्रलेपबंधैरपि वृद्धिभुद्धताम् ॥ उपाचरेदाशु विशेषतो दृढं । शलाकया वाप्यधरोत्तरं दहेत् ।। ८१ ।। भावार्थ:--अधिक बढी हुई वृद्धा को हमेशा स्वेदन औषधियोंद्वारा पेदन, लेपन औषधियोंसे लेपन, बंधन औषधियोंस बंधन आदि क्रियाओंसे उपचार कराना चाहिये । जो वृद्धि विशेष दृढ [मजबूत है उसे अग्नि से तपापी गयी शठा कासे नीचे के व उत्तर भाग को जला देवें ॥ ८१ ।। पित्तरक्तजवृद्धि चिकित्सा । स पित्तरक्तोद्भववृद्धिबाधितं । विरेचनैः पित्त हरेविंशोधयेत् । जलायुकाभिवृषणस्थशोणितं । प्रमोक्षयेच्छीततरविलेपयेत् ॥८२ ॥ भावार्थ:-पित्तरक्तके विकारसे उत्पन्न वृद्धिमें पित्तहार औषधियोंसे विरेचन कराना चाहिये । एवं जलौंक लगवाकर अण्डके दुष्ट रक्तका मोक्षण ( निकालना ) कराना चाहिये और उसपर शीत औषधियोंका लेपा करना चाहिये ॥ ८२ ॥ कफजवृद्धि चिकित्सा | कफप्रवृद्धिस्त्रिफलाकटुत्रिकै- । र्गवां जलैः क्षारयुतैस्सुपेषितैः ।। प्रलेपयेत्तच्च पिवेदथातुरः । सुखोष्णारुपनाहयेत्सदा ।। ८३ ॥ भावार्थः --कफवृद्धि में त्रिफला ( हरड, बहेडा, आंवला ) व विकलु [सोट, मिरच पीपल] को क्षारयुक्त गोमूत्र के साथ अच्छीतरह पीसकर लेपन करना चाहिये । और उसी औषधिको रोगी को पिलाना चाहिये । एवं च उष्ण वर्गो अर्थात् उप्णगुण युक्त औपवियोंका पुलिया यांवना चाहिये ॥ ८३ ॥ में वृधिचिकिता। विदार्य मेदःप्रभवातिवृद्धिका । विवर्य यत्नादिह सीवनी भिषक् ।। व्यपोध मेदः सहसाविशोधन-1 रुपाचरत्सक्रमसोष्णबंधनैः ॥ ८४ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (२८१) भावार्थ:-मेदोत्पन्न वृद्धि में सीवनी ( लिंगके नीचे से गुदा तक गई हुई रेखा ) को छोडकर अण्डकोश को अतियत्न के साथ विदारण (फोडे ) करें। पक्षात् मेद को शीघ्र ही निकाल कर, क्रमसे शोधन ( शुद्धि ) करें। तथा उष्ण औष. थियों द्वारा बांध देवें ॥८४ ॥ मूत्रजवृद्धिचिकित्सा । समूत्रवृद्धिं दृढबंधबंधितां । विभिद्य सुव्रीहिमुखेन यत्नतः ॥ विगालयेत्सनलिकामुखेन त- । ज्जलोदरमोक्तविधानमार्गतः ।। ८५ ॥ भावार्थ:-मूत्राज अण्डवृद्धिमें, जलोदर में पानी निकालने की जो विधि बतलायी है उसी विधिके अनुसार अण्ड को अच्छी तरह से वेध कर, अति प्रयत्नके साथ ब्रीहिमुख नामके शस्त्रसे भेदन करके,नली लगाकर अण्डसे पानीको बाहर निकालेंग॥८॥ अंत्रवृध्दिचिकित्सा। अथात्रवृद्धौ तदसाध्यतां सदा । निवेद्य यत्नादनिलघ्नमाचरेत् ॥ बलाभिधानं तिल प्रपाययेत् । ससैंधवैरण्ड जतैलमेव वा ॥ ८६ ॥ भावार्थ:-अंत्रावृद्धिके होने पर उसे पहिलेसे असाध्य कहना चाहिये । फिर पातहर औषधियोंका प्रयोग कर बहुत यत्नके साथ चिकित्सा करनी चाहिये । बलातैल अथवा संघालोण मिलाकर एरण्डका तैल उसे पिलाना चाहिये ॥ ८६ ॥ अण्डवृध्दिनलेप। मुखाहकांजीरकरंजलांगली-। खरापमार्गाघ्रिभिरेव कल्कितैः ॥ , प्रदिह्य पत्रैःसह बंधमाचरेत् । प्रवृद्धवृद्धिप्रशमार्थमाचरेत् ॥ ८७॥ . भावार्थ:--सुग्वाह्वा, ( वृद्विनाशक औषधि ) की जड, कंटकयुक्त वृक्ष विशेष, कांजीर, करंज, कलिहारी, चिरचिरा इनके जडका कल्क बनाकर उसे पत्तेपर लेप करके उसको बदिपर बांधना चाहिये । जिससे वह वृद्धि उपशम को प्राप्त होती है ॥ ८७ ॥ ___ अण्डवृदिन्नकल्क। पिवेत्कबेराक्षिफलांघ्रिभिः कृतं । सुकल्कपत्यम्लकतक्रकांजिकैः ॥ मुशिामल त्रिकटुं ससैंधवं । सहाजमोदैः सह चित्रकेण वा ।। ८८ ॥ भावार्थ:--पाडरवृक्ष, मदनवृक्ष [ मनफलका पेड ] इनके जइसे बनाया हुआ कल्क, अम्लक, छाछ वा कांजीके साथ तथा सैंजनका जड, त्रिकटु, सैंधालोण इनके कल्कको अनमोद या चित्रकके बाथ के साथ पीयें ।। ८८ ॥ १ प्रसूति अधिकारोक्त । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२) कल्याणकारके सुवर्चिकादिचूर्ण। सुवर्धिकासैंधवहिंगुनीरकैः । करंजयुग्मः श्रवणाहपः ॥ . .. कटुशिकैश्वर्णकृतैः पयः पिवेत् । करोति मुष्कं करिमुष्कसभिभम् ॥८९॥ भावार्थ:-सर्जाखार, . सेंधालोण, हींग, जीरा, छोटी बडी करंजा, श्रवणी, त्रिकटु इन सब औषधियोंको चूर्णकर दूध के साथ पाये तो अण्डकोश हाथीके अण्डकोश के समान सुदृढ बनता है ।। ८९ ॥ उपदंशशूकरोग वर्णनप्रतिक्षा। वृषणवृद्धिगणाखिललक्षणं । प्रतिविधानविधि प्रविधायच ॥ तद्ध्वजगतानुदशविशेषितान् । निशितशूकविकारकृतान ब्रुवे ॥ १० ॥ भावार्थ:-- इस प्रकार वृषण वृीका संपूर्ण लक्षण, चिकित्सा आदियो कहकर अब पुरुषलिंग के ऊपर होनेवाले उपदंश और शूक रोगका वर्णन अब आगेक प्रकरणमें करेंगे ।। ९० ॥ __अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधैः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो। निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ।। ९१ ।। भावार्थ:--जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ११ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे क्षुद्ररोगचिकित्सितं नामादितो त्रयोदशः परिच्छेदः । इत्युमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ · के चिकित्साधिकार में वियावाचस्पतीत्युपाविविभूषित वर्षमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में क्षुद्ररोगाधिकार नामक तेरहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। . . Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (२८३) अथ चतुर्दशपरिच्छेदः। अथ उपदंशाधिकारः। मंगलाचरण व प्रतिज्ञा। जिनमनघमनंतज्ञाननेत्राभिरामं । त्रिभुवनमुखसंपन्मूर्तिमत्यादरेण ॥ प्रतिदिनमतिभक्त्याऽनम्य वक्षाभ्युदारं । ध्वजगतमुपदशख्यातशूकाभिधानम् ॥१॥ भावार्थ:-सर्व पाप कर्मों से रहित, अनंतज्ञानरूपी नेत्रसे शोभायमान, तीन लोक .के संपत्ति के मूर्ति स्वरूप श्री जिनेंद्र भगवान्को अत्यंत आदर के साथ अति भक्ति से नमस्कार कर मेढ़ पर होनेवाले उपदंश व शूक रोगोंको प्रतिपादन करेंगे ॥१॥ उपदंश चिकित्सा। वृषणविविधवृद्धिमोक्तदोषक्रमेण ॥ प्रकटतरचिकित्सां मेहनोत्पन्नशोफे ॥ वितरतु विधियुक्तां चोपदंशाभिधाने । निखिलविषमशोफेष्वेष एव प्रयोगः ॥ २॥ भावार्थः ---अण्डवृद्धि के प्रकरण में भिन्न २ दोषोत्पन्न वृद्वियों कि जिस प्रकार ... भिन्न .२ प्रकार का चिकित्साक्रम बतलाया था, उन सब को लिंग में उत्पन्न उपदंश . . नामक शोथ ( सूजन ) में भी दोषभेदों के अनुकूल उपयोग करें। एवं अन्य सर्व प्रकार के भयंकर शोथो में भी इसी चिकित्सा का उपयोग करें ॥२॥ . .... दो प्रकारका शोथ। स भवति खलु शोफो द्विमकारो नराणा- । पवयीनयतोऽन्यः सर्वदेहोद्भवश्च ॥ लिंग को हाथ के आघात से, नाखून व दांत के लगनेसे, अच्छीतरह साफ न करनेसे, अत्यंत विषयोपभोग से, एवं विकृत योनिवाली स्त्री के संसर्ग [ मैथुन] से, शिभेद्रिय [लिंग] में शोध ( कुलथी धान्य के आकार वाले फफोले उत्पन्न होते है उसे उपदेश अर्थात् गर्मीरोग कहते है। बातज, पित्तज, रसज, काज, सन्निपानज इस प्रकार उसके पांच भेद आयुर्वेद में वर्णित हैं। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) कल्याणकार सकलतनुगतो वा मध्यदेहेऽर्धदे । श्वयथुरतिसुकष्टः क्लिशुष्केतरांगः ॥ ३ ॥ भावार्थ: : वह सूजन दो प्रकारकी होती है। एक नियत अवयव में होनेवाली और दूसरी सर्वांगीण । सर्व अंगमें फैली हुई तथा शरीरके मध्यभाग अथवा अर्ध शरीर में सूजन होकर अन्य अवयव सूख गये हों ऐसे शोथ रोग कठिन साध्य होते हैं ॥ ३ ॥ विधि ग्रंथिपटकालक्षण व चिकित्सा | श्वयथुरितिविशालो विद्रधिः कुंभरूपो | मुखरहिततया ते ग्रंथयः संप्रदिष्टाः || मुखयुतपिटकाख्याः शोफकालेऽनुरूपे - । रुपनहनविशेषैः साधनैः साधयेत्तान् ॥ ४ ॥ भावार्थ:- जो शोध विशाल हैं और कुम्भके समान है वह विद्रधि कहलाता पिटक कहलाते हैं । इन आदि बांधकर एवं और है । जिनको मुख नहीं होता वे ग्रंथियां हैं और मुखसहित 'सब शोफभेदोंकी यथ काल तदनुकूल औषषियों द्वारा पुल्टिश भी उपायोंसे चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ४ ॥ उपदेशका असाध्य लक्षण । ज्वरयुतपरिदाहश्वास तृष्णातिसार - । प्रकटबलविहीना रोचकोद्गारयुक्तः ॥ यमसदनमवाप्नोत्याशु शून्यांगयष्टिः । यममसकुदनूनं द्रष्टुकामो मनुष्यः ॥ अत्यंत क्षीण होगया हो अरोचकता व उद्वार से भावार्थ:-- उपदेशका उदेक तीव्र होकर जो रोगी फिर वह ज्वर, दाह, श्वास, तृषा, अतिसार, अशक्तपना, पीडित हो और जिनका शरीर बिलकुल शून्य होगया हो तो समझना चाहिये कि वह यमको बहुत उत्सुकताके साथ देखना चाहता है । इसलिये जल्दी से जल्दी वह यमके घर पहुंच जायगा ॥ ५ ॥ ५ ॥ दंतोद्भव उपदंश चिकित्सा | निशितविषमदन्तोद्वहनात् मेद्जात- । क्षतयुतमुपदेशात्यंतशोकं यथावत् ॥ शिशिरघृत पयोभिः साधयेदाशु धीमान् । अतिहिमबहुभैषज्यैरवहि मलिपेत् ॥ ६ ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः (२८५) भावार्थ:-तीदण व विषम दांतोंके रगडसे उत्पन्न उपदंशक्षत ( जखम) और अत्यंत सूजनसे युक्त हो तो उसका यथायोग्य टण्डा घृत, दूध आदि के प्रयोगसे बुद्धिमान वैद्य उपशमन करें एवं अत्यंत शीत औषधियोंको लेपन करें ॥ ६ ॥ यदुचितमाभिघाते जातशोफे विधानं । तदपि च कुरुते यत्नेन वंशाख्यशोफे ॥ व्रणविहित समस्तश्शोधनै रोपणैर-। प्युपनहनविशेषेस्साधयेत्तत्कृतं च ॥ ७॥ भावार्थ:--वंश नामक शोथमें अभिवातसे उत्पन्न सूजनमें जो चिकित्सा कब बसलाया है उनको तथा व्रण प्रकरणमें कहे गये शोधन, रोपण, उपनाह (पुल्टिश) इत्यादिका प्रयोग करें ॥ ७ ॥ अथ शूकदोषाधिकारः । शूकरोग निदान व चिकित्सा. परुषविषमपत्रोट्टनं मेवृष्यः । करमथनविशेषादल्पयोनिप्रसंगात् ॥ अधिकृतबहुशूकाख्यामयाः स्युस्ततस्तान् । घृतबहुपरिषेकैः स्वेदनः स्वेदयेच्च ॥ ८ ॥ भावार्थः-मेद (लिंग) के बढने के लिये अनेक तरहके रूक्ष पत्तोंके घर्षणसे, हस्त मैथुनसे एवं अल्पयोनिमें मैथुनसेवन करनेसे उस शिश्नपर अनेक तरहकी फुनसियां पैदा होती हैं । उसे शूर्करोग कहते हैं। उसपर घृतका सिंचन करना चाहिये और स्खेदन औषधियोंसे वे न कराना चाहिये ॥ ८ ॥ ... तिलमधुकादि कल्क। तिलमधुककलायाश्वत्थमुद्ः सुपिष्टैः। घृतगुडपयसाव्याभिश्रितैः शीतवगैः ।। कुपितरुधिरशांत्य संपपिष्य प्रयत्नात् । विदितसकलदोषप्रक्रमेणारभेत ॥ ९ ॥ भावार्थ:-तिल, ज्येष्ठमधुः [मुलैठी] मटर, अश्वत्थ, मूंग इनको अच्छीतरह पीस .कर घी, दूध व गुडके साथ मिलाये फिर शीतवर्ग औषधियों के साथ दूषित रक्तके शांतिके १ यह अठारह प्रकारका होता है। For Private & Personal use only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .:(२८६) ... कल्याणकारके लिये पिलावे । फिर सर्व दोषोंको विचार कर उसके उपशमन के लिये तदनुकूल योग्य चिकित्सा करें ॥ ९ ॥.. . व्रणविधिमपि कुर्यान्भेदनातव्रणेषु । प्रकुपितरुधिरस्रावं जलौकाप्रपातैः । निखिलमभिहितं यदोषभैषज्यभेदात् । उचितमिह विदित्वा तत्प्रयोज्यं भिषाग्भिः ॥ १० ॥ भावार्थ:--मेढ़पर उत्पन्न प्रण ( शूक रोग ) में चिकित्साके विधानका भी उपयोग करें। एवं जलौंक लगाकर विकृतरक्तको निकालें । वात पित्सादिक विकारोके उपशमनके लिये जो औषधि बतलाई गई हैं उनको यहां भी दोषों के बलाबलको जानकर कुशल वैद्य प्रयोग करें ॥ १० ॥ अथ श्लीपदाधिकारः । श्लीपद रोग. कुपितसकलदोषयेनकेनापि वा त । द्गुणगणराचितोयं वंक्षणो दर्षिशोफः ॥ प्रभवति स तु मूलाहरमाश्रित्य पश्चात् । अवतरति यथावजानुजंघाघ्रिदेशे ॥ ११ ॥ स भवति दृढरोगः श्लीपदाख्यो नगणा- । मनुदिनमतिसम्यक्संचितांघ्रिप्रदेशे । तमपि निखिलदोषाशेषभैषज्यवंध- ।। मचुररुधिरमोक्षायैस्सदापाचरेच्च ॥ १२ ॥ भावार्थ:--सर्व दोषोंका एक साथ उद्रेक वातपित्तकफों के एक साथ प्रकोप होनेसे, अथवा, एक २ दोषके प्रको से, अपने २ ( दोपोंके ) लक्षणोंसे सयुक्त, जांवोंकी संधि शोफ होता है । फिर वह शिश्नमूलसे जानु, जंघा व पादतक उतरजाता है। इसे श्लीपद रोग कहते हैं। यह रोग कठिन होता है । वह रोगीके पाद देशमें अच्छीतरह संचित होकर प्रतिदिन उसे पीडा देता है। समस्त दोषोंके पेशामक औषधियोंसे एवं बंधन, रक्तमोक्षण आदि विधियों के द्वारा उसकी चिकित्सा करें ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (२८७) त्रिकुटुकादि उपनाह। त्रिकटुलशुनहिंगगुदीलांगलीकैः । प्रतिदिनमनुलिप्तं चोष्णपत्रोपनाहः ।। उपशमनमवाप्नोत्युद्धतं श्लीपदाख्यं । वहलपरिबृहत्तत्प्रस्तुनं वर्जनीयम् ॥ १३ ॥ भावार्थ:--त्रिकटु, लहसन, हींग, बच, हिंगोट, कलिहारी इन औषधियोंका प्रतिदिन लेपनकर उष्ण गुणयुक्त पत्ते को उस के ऊपर बांधनेपर वह उद्रिक्त श्लीपद रोग, उमशमनको प्राप्त होता है । यदि अत्यधिक बढ़ गया हो तो उसे असाध्य समझना चाहिये ॥ १३ ॥ वल्मीकपादन तैलधृत। तिल जलवणमिरेभिरेवापधस्तैः ।। प्रशमनमिह संप्राप्नोति वल्मीकपादः ॥ स्नुहि पयसि विपकं तैलमेवं घृतं वा। शमयति लवणान्यं पत्रबंधन सार्धम् ॥ १५ ॥ भावार्थ:---उपर्युक्त औषधियोंको तिलका तेल, सेंधालोण के साथ मिलाकर ( अथवा औषधियों के कल्क काथ से तैल सिद्ध करके ) लेपन करके ऊपर संपत्ता बांधे तो कमीकपाद उपशमन को प्राप्त होता है । अथवा थूहरके दूधमें पकाये हुए तेल या घी में सेंधालोण मिलाकर लेपन करें और पत्तेको बांधे तो भी हितकर होगा ॥ १४ ॥ वल्मीकपाद चिकित्सा। अथ च कथितवल्मीकारख्यपादं त्रिदोष-। ऋमगतविधिनोपक्रम्य तस्य व्रणेषु ।। प्रकटतरमहासंशोधनद्रव्यासिद्धा- । ... न्यसकृदीभीहतान्यप्यत्र तैलानि दद्यात् ॥ १५॥ । भावार्थ:--उद्विक्त दोषों के अनुसार विधिपूर्वक चिकित्सा करके उसके व्रणोंको प्रसिद्ध संशोधन औषधियोंसे सिद्ध, पूर्व में अनेकवार कथित, तैलका प्रयोग करना । * चाहिये ॥ १५ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) कल्याणकारके अपचीलक्षण। हनुगलनयनाशषास्थिंसधि प्रदशे-। वधिकमुपचितं यन्मदे एवाल्पशोफम् ॥ कठिनमिह विधत्त वृत्तमत्यायतं वा- । प्युपचयनविशेषात्माहुरत्रापची ताम् ॥ १६ ॥ भावार्थ:-हनु (टोडी ) गला, आंग्व, इनके व सर्व हड्डियों की संधि [जोड] में अधिक मेद [चौथा धातु] एकत्रित होकर एक अल्प शोथ को उत्पन्न करता है । जो कि कठिन, गोल अथवा लम्बा होता है । इस को अपची कहते हैं । इसमें मेद का उपचय होता है । इसलिये इस को अपची नामसे कहते हैं ॥ १६॥ अपचीका विशेष लक्षण। कतिचिदिह विभिन्नस्रावमेवं सवन्ती । प्रशमनमिह साक्षात् केचिदेवाप्नुवंति ॥ सततमभिनवास्ते ग्रंथयोऽन्ये भवति । विविधविषमरूपास्तेषु तैलं यथोक्तं ॥ १७ ॥ भावार्थ:---इस अपची की कितनी ही गांठें, अपने आप फूट जाती है। और उस में पूय आदि स्राव होने लगते हैं। पूर्वोत्पन्न कितने ही ( अपने आपही) उपशमन होते हैं। फिर हमेशा नये २ उत्पन्न होते रहते हैं जो नानाप्रकार के विषमरूप लक्षण] से युक्त होते हैं । इसपर पूर्वोक्त तैल का ही उपयोग करें ॥ १७॥ अपची चिकिया। चमनमपिच तीक्ष्णं नस्यमत्रापानां। विधिवदिह विधेयं सद्विरेकश्च पश्चात् ॥ विविधविषमनाडीषूक्तमन्यच्च तच्च । प्रतिदिनमिह योज्यं श्लेष्मभरमशात्यै ॥ १८ ॥ मावार्थ:-~-इस अपची रोग में कैफ और मेद की शांतिके लिये निधिके अनुसार घमन और तीक्ष्ण नस्य देना चाहिये । उसके पश्चात् विरेचन भी देना चाहिये । एवं अनेक विषम नाडीरोगों [ नासूर के लिये जो चिकित्सा कही गई हैं उन सब का भी प्रयोग करना चाहिये ॥ १८ ॥ क्यों कि इस रोग में वफ मेद की ही अधिक वृद्धि रहता Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः। (२८९) नाडीव्रण अपची नाशक. योग। दिनकरतरुमूलैः पकसत्पायसो वा । प्रतिदिनमशनं स्यात्सर्वनाडीत्रणेषु ॥ बदरखदिरशाष्टांघ्रिभिर्वापि सिद्धं । शमयति तिलनाढ्यं साधुनिष्पाववर्गः ॥ १९ ॥ भावार्थ:-सर्व प्रकारके नाडी गोमें अकौवेके जडके साथ पकाया हुआ पायस ( खीर ) ही प्रतिनित्य भोजन में देना चाहिये । अथवा बदर, (बेर) खदिर, (खैर) बड़ी करंज, इनके जडसे सिद्ध पायस देना चाहिये । अथवा निप्पाव ( भटवासु) वर्ग के ( रक्तनिष्पाव, सफेद निष्पाव आदि ) धान्यों को तिलके तैलसे मिलाकर भोजन में देनेसे सर्व नाडीव्रण ( नासूर ) व अपची नष्ट होते हैं ॥ १९ ॥ अपि च सरसनीलीमूलेमकं सुपिष्टं । दिनकरशशिसंयोगादिकाल स्वरात्रौ ।। असितपशुपयोव्यामिश्रितं पीतमेतत् । प्रशमनमपचीनामावहत्यंधकारे ॥ २० ॥ भावार्थ:--रसयुक्त एक ही नील के जडको अच्छी तरह पसिकर, काली गायक दूध में मिलाकर जिस दिन सूर्य और चंद्रमा का संयोग होता हो, उसी दिन रातको अंधेरे में पायें तो अपची रोग शांत होता है ॥ २०॥ गलगण्डलक्षण व चिकित्सा । गलगतकफमेदोजातगण्डामयाना। मधिकवमननस्यस्वेदतीव्रोपनाहान् ॥ सततमिह विधाय प्रोक्तपाकान्दिार्य । प्रतिदिनमथ सम्यग्योजयेच्छोधनानि ।। २१ ॥ भावार्थ:-कफ और मेद दूषित होकर, गले में रहनेवाली मन्था नाडी को. प्राप्त करके उसमें शोथको उत्पन्न करते हैं जो कि अण्डकोश के समान गले में बंधा हुआ जैसा दीखता है इसे गलगण्ड कहते हैं । इस को वमन, नस्य, स्वेदन, तीन उपनाह आदि का प्रयोग करें । जब वह पकजावे तो विदारण करके शोधन, रोपणविधानका प्रयोग करना चाहिये ॥ २१ ॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९०) कल्याणकारके -AA. ..RAAMAN अर्बुद लक्षण। पवनरूधिरपित्तश्लेष्ममेदप्रकोपा- । द्भवति पिशितपेशीजालरोगार्बुदाख्यम् ॥ • अतिकफबहुमेदोव्यापृतात्मस्वभावा- ।। न भवति परिपाकस्तस्य तत्कृच्छसाध्यः ॥ २२ ॥ भावार्थ:-वात, रक्त, पित्त, कफ व मेदके प्रकोपसे मांस पेशियोमें मांसपिण्डके समान शरीरके किसी भी प्रदेशमें उत्पन्न ग्रांथ या शोथको अर्बुद रोग कहते हैं। वह अत्यधिक कफ व मेदो विकारसे युक्त होने के कारण पक अवस्थाको नहीं पहुंचता है, इसलिये उसे कष्टसाध्य समझना चाहिये ॥ २२ ॥ अर्बुद चिकित्सा. तमिह तदनुरूपप्रोक्तभैषज्यवर्गः । परुषतरसुपत्रोदनासक्तमोक्षैः ॥ अनुदिनमनुलपस्नहपत्रोपनाहै-॥ रुपशमनविधानः शोधनैः शोधयत्तः ॥ २३ ॥ भावार्थः -पहिले कहे गये उसके अनुकूल औषधिग्रयोग, कटिन पत्रोंसे घर्षण ( रगडना) रक्तमोक्षण (फरत खोलना ) प्रतिदिन औषधि लेपन, स्नेहन ( सिद्ध वृत तैल लगाना ) पत्तियोंका पुल्टिश एवं अन्य उपशमन विधियों द्वारा उस अर्बुद रोगकी चिकित्सा करनी चाहिये तथा शोधन करनेवाली औषधियोंसे ( जब आवश्यकता हो) शुद्धि भी करें ॥ २३ ॥ ग्रंथिलक्षण व चिकित्सा। रुधिरसहितदोषैः मांसमदस्सिराभि- । स्तदनविहितलिंगा ग्रंथयोऽगे भवति ॥ असकृदभिहितैस्तै दोपभैषज्यभेद-। प्रकटनरविशेषः साधयेत्तद्यथोक्तः ॥ २४॥ १ रक्त इत्यादिके विकारसे उत्पन्न ग्रंथियां सात प्रकारकी है ऐसा ऊपरके कथनसे ज्ञात होता है। लेकिन तंत्रांतरोमें वातज, पित्तज, कफज, मेदज, सिराज, इसप्रकार ग्रंथियोंके भेद पांच बतलाये हैं। हमारी समंजसे ) ऊपरका कथन साधारण है । इसलिये, मांस रक्तसे ग्रंथि उत्पन्न नहीं होती है केवल वे दूषित मात्र होते हैं । ऐसा जानना चाहिये ॥ अथवा उमादित्याचार्य प्रथिके सात ही भेद मानते होंगे । ऐसा भी हो सकता है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (२९१) भावार्थ:-दूषित रक्त, वात, पित्त, कफ, एवं मांस मेद, सिराओसे तत्तष व धातुओंके अनुकूल प्रकट होनेवाले लक्षणोंसे सुंयुक्त, शरीरमें ग्रंथियां ( गांठे ) होजाती हैं । इन सर्व प्रकारकी ग्रंथियोंको दोष दूष्यादि भेदके अनुसार बार २ कहे गये औषधियोंके प्रयोगसे तथा लेपन, उपनाह आदि विधियोंसे चिकित्सा करें ॥ २४॥ . सिराजग्रंथि के असाध्य कृच्छ्रसाध्य लक्षण । परिहरति शिराजग्रंथिरोगानचाल्यान् । प्रचलतरविशेषाः वेदनाव्यास्तु कृच्छाः ॥ द्विविधविद्वधि भवति बहिरिहांतर्विद्रधिश्चापि तद्वत् । विषमतरविकारो विद्रधिश्चांतरंगः ॥ २५ ॥ भावार्थ:-सिरासे उत्पन्न अर्थात् सिराजग्रंथि, ( सिराज ग्रंथि के चल, अचल इस प्रकार दो . भेद हैं) यदि अचल ( चलनशील न हो) होवें एवं वेदनासे रहित होवें तो वह असाध्य होता है । इसलिये वह छोडने योग्य है (अचिकित्स्य है।) यदि चल एवं वेदना से युक्त होवें तो वह कष्टसाध्य होता है। विधि रोग दो प्रकार का है। एक बाह्यविद्रधि दूसरा अंतर्विद्रधि । पहला तो शरीरके बाहर के प्रदेशोंमे होता है, इसलिये बाह्य कहलाता है। दूसरा तो शरीर के अंदर के भाग में होनेसे अंतर्विद्रधि कहलाता है । इन में अंतविद्रवि अत्यंत विषम होता है अर्थात् कठिन साध्य होता है ॥ २५ ॥ विशेषः--अस्थि में आश्रित कुपित वातादि दोष, त्वचा, रक्त मांस, मेदोंको दूषित कर, एक बहुत बडा गोल व लम्बा सूजन को उत्पन्न करते हैं। जिस का मूल (जड) भारी व बडा होता है । वह अतीव पीडासे युक्त एवं भीषण होता है । इसे विद्रधि कहते हैं। . . अंतर्विदधि शरीर के अंदर, के बाजूमें गुदा बस्ति, ( मूत्राशय ) नाभि, कुक्षि राड प्लिहा (तिल्ली) यकृत् इत्यादि स्थानो में होता है । विद्रधिका असाध्य दुःसाध्य लक्षण. गुदहृदययनाभिप्लिहाबस्तिजातः । समुपजनितपाको विद्रधि व साध्यः । विषमतरविपको यश्च भिन्नोऽन्यदेशे ॥ तमपि च परिहृत्य ब्रूहि दुःसाध्यतां च ॥ २६ ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९२) कल्याणकारक भावार्थ:-गुद, हृदय, यकृत् , नाभि, प्लीहा, बस्ति इन स्थानों में होकर जो विद्रधि पक गया हो वह असाध्य है। दूसरे अवयवमें होकर भी विषम रूपसे जो पैक गया हो व फूट गया हो वह भी असाध्य होता है । इसलिये उसे पहिले असाध्य कहकर फिर चिकित्सा करनी चाहिये ॥ २६ ॥ विद्रधिका असाध्य साध्य लक्षण। श्वसनकसनहिकारोचकाध्मानशूल- । ज्वरयुतपरितापाद्धंधनिष्पंदवातात ॥ उपरिनिसृतपूये विद्रधौ नैव जीवेत् ॥ भवति सुखकरोऽयं चाप्यधःसृष्टपूयः ॥ २७ ॥ भावार्थ:-वात के प्रकोपसे जिस विद्रधिमें श्वास, कास, हिचकी, अरोचकता अफराना, शूल, ज्वर, ताप उद्बधन (बंधाहुआ जैसा ) निश्चलता आदि विकार प्रकट होते हैं और ऊपरकी ओर पूय (पीप ) निकलने लगता है, उसमें रोगी कभी नहीं जी • "सकता है। नीचे की ओर पूय जिसमें निकले वह विद्रधि साध्य है ॥२७॥ विद्रधि चिकित्सा। प्रथममखिलशोफे पूष्णवोपनाहः । प्रवर इति जिनेंद्रेः कर्मविद्भिः प्रणीतः ॥ प्रशमनमधिगच्छत्यामसंज्ञाविधिज्ञ-। स्त्वरिततरविपकं स्याद्विपक्कामभेदम् ॥ २८ ॥ भावार्थ:---सबसे पहिले सर्व प्रकारके शोफो (विद्रधि) में उष्णवोक्त औषधियों का पुल्टिश बांधना उपयोगी है। ऐसा सर्व चिकित्सा कार्य को जाननेवाले श्री जिनेंद्र भगवानने कहा है। उससे आम शोफ [ जो नहीं पका है] जल्दी उपशमन को प्राप्त होता है अर्थात् बैठ जाता है। जो बैठने योग्य नहीं है तो शीघ्र ही पक जाता है । शोफ दो प्रकारका है। एक आमशोफ दूसरा पक्क शोक ॥२८॥ ____ आमविदग्धविपक्क लक्षण. कठिनतरविशेषः स्यादिहामाख्यशोफो । ज्वरबहुपरितापोमाधिकः स्याद्विदग्धः ।। विगतविषमदुःखःस्याद्विवर्णो विपक्व- । स्तमिह निशितशस्त्रच्छेदनैः शोधयत्तम् ॥ २९ ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (२९३). भावार्थ:-विशेष रूपसे जो शोफ कडा रहता है उसे आमशोफ कहते हैं। जो ज्वर, अधिक ताप ( जलन ) उष्णता आदियों से पीडित होता है उसे विदग्ध कहते हैं। ( जिस वक्त वह पक रहा हो, आम व पक्क के बीचमें होनेवाली, यह अवस्था है) जिल में पूर्वोक्त घर, पीडा आदि भयंकर दुःख नाश होगये हों, शोथ भी विवर्ण [ पहले का रंग बदल गया हो ] होगया हो, उसे विपक्क कहते हैं। अर्थात् वह अच्छी तरह पका हुआ समझन! चाहिये । इस पके हुए को तीवण शस्त्र के प्रयोगसे मुद्धि करना ( पूय आदि निकालना ) चाहिये ॥ २९ ॥ अष्टविध शस्त्रकर्म व यंत्रनिर्देश बहुविधमथशल्यं छेदनं भेदनं वा । प्यसकृदिह नियोज्यं लेखनं वेधनं स्यात् ॥ अविदितशरशल्याधेषणं तस्य साक्षात् ।। हरणमिह पुनर्विलावणं सीवनं च ॥ ३० ॥ सकलतनभृतां कर्मेव कर्माष्टभेदं ।। तचितवरशस्त्रैः तद्विधेयं विधिज्ञैः ॥ विदितसकलशल्यान्यैवमुद्धर्तुमत्रा- । प्यविहतमुरुयंत्रं फंकवक्त्रं यथार्थम् ॥ ३१ ॥ भावार्थ:- शरीर में नानाप्रकारके शल्य हो जाते हैं। उन शल्योंको निकालनेके लिये यंत्र, शस्त्र, क्षार, अग्नि आदि के प्रयोग करना पडता है । जिस प्रकार समस्तप्राणियों में आठ प्रकारके कर्म होते हैं उसी प्रकार संख कर्म के छेदन, भेदन, लेखन, वेधन, एषण, हरण, (आहरण ) विस्रायण, सीबन इस प्रकार आठ भेद हैं । विविध प्रकार के जो शस्त्र बतलाये हैं उन में से जिन जिनकी जहां जरूरत हो उनसे, शस्त्रकर्म में निपुण वैद्य छेदन आदि कर्मों को विधिक अनुसार करें । इसी प्रकार विद्रधि रोग के जिन अवस्थाओं में जिन शस्त्रकर्मोकी जरूरत होती हैं उनकोबार २ अवश्य प्रयोग करना चाहिये । शरीरगत सम्पूर्ण शल्यों (बाण अन्य कांटे आदि ) को निकालने केलिये ( सर्व यंत्रों से श्रेष्ठ ) कंकयक्त्र ( जो कंकपक्षी के चोंच के समान हो) इस अन्वर्थ नामके धारक महान् यंत्र होता है उसे भी तस कार्यों में प्रयोग करें ॥३०॥३१॥ विशेष-शरीर में कोई कांटा घुसकर मनुष्य को तकलीफ देता है उसी प्रकार बार बार कष्ट पहुंचाने वाले, शरीर के अंदर गये हुए तृण, काष्ट, पाथर, लोहा, बाण Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९४) कल्याणकारके हड्डी, सींग इत्यादि, तथा नानाप्रकार के दुष्टत्रण, गुल्म, अश्मरारी, मूढगर्भ इत्यादि सत्र शल्य कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि शल्य नाम कांटे का है। जो शल्य के समान दुःख देवें वह सभी शल्य कहलाते हैं ! १ अर्श आदि को जो जडसे छेदा जाता है वह छेदन कहलाता है। २ जो विद्रधि जैसोंको फोडा जाता है वह भेदन कहलाता है । '. ३ जो खुरचा जाता है वह लेखन कहलाता है। ४ जो छोटे मुखवाले शस्रोंसे सिरा आदि वेध दिया जाता है वह वेधन कहलाता है। ५ जो शरीरगत शल्य, किस तरफ है, इत्यादि मालूम न पडनेपर शलाका से डूंढा जाता है वह एषण कहलाता है। . ६ जो शरीरगत शल्य अश्मरी आदिको बाहर निकाला जाता है वह आहरण कहलाता है। ७ जो विद्रधि आदि इणोंसे मवाद आदि बहाया जाता है वह विस्रावण कहलाता है। ८ उदर आदि चीरनेके बाद जो सूईयोंसे सीया जाता है वह सीवन कहलाता है ॥ शस्त्र-छुरी, चक्रतू , कैंची, आदि, जो छेदन आदि कामों में आते हैं । यंत्र शरीर में घुसे हुए, नाना प्रकार के शल्यों को पकड़के बाहर खींचने व देखने के लिये, अर्श, भगंदर आदि रोगोमें शस्त्र, क्षार, अग्नि कर्मों की योजना व शेष अंगोंकी (क्षार आदि के पतनसे ) रक्षा करने के लिये, एवं बस्ति के प्रयोग के लिये, उपाय भूत, जो वस्तु ( लायन फोर्सस, ड्रेसिंगफार्सप्स, ट्युवुलर, स्कूप इस आदि. आजकल प्रचलित ) विशेष है, वह यंत्र कहलाता है । बाह्मविद्रधि चिकित्सा. बहिरुपगतवृद्धौ विद्रधी दोषभेद- । क्रमयुतविधिनात्रामादिषु प्रोक्तमार्गः ॥ रुधिरपरिविमोक्षालेपबंधाद्यशेष-। व्रणविहितविधानः शोधयेद्रोपयेच्च ।। ३२ ॥ भावार्थ:-विद्रधि यदि बाहिर हो तो दोषोंके अनुसार जो शोफके आम, विदग्ध, विपक्क अवस्थाओमें जो चिकित्सा बताई गई है वैसी चिकित्सा करें । रक्तमोक्षण, लेपन, बंधन आदि समस्त व्रण चिकित्सामें कहे गये, विधानोंसे उसका शोधन और रोपण करें ॥ ३२॥ . Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . क्षुद्ररोगाधिकारः। (२९५) अंतर्विद्रधिनाशक योग. वरुणमधुकशिवाख्याततत्कार्यमाघ । प्रशमयति महांतर्विद्रधिं सर्वदेव ।। सकलमलकलंक शोधयेदत्यभीक्ष्णं ॥ शुकमुखसितमल पाययदुष्णतोयः ॥ ३३ ॥ भावार्थ:--वरणा, ज्येष्ठमधु, सेजिन इन औषधियोंके प्रयोगसे अंतर्विद्रधि उपशमनको प्राप्त होता है । शुकमुख ( वृक्षभेदे ) धबवृक्ष इनके जड को गरम पानीमें पीसकर पिलावें तो हमेशा, विद्रधिके इलकलंककी शुद्धि होती है ॥ ३३ ॥ विद्रधि रोगीको पथ्याहार । व्रणगतविधिनाप्याहारमुद्यत्पुराण- । प्रवरविशदशालीनामिहानं सुपक्कं ॥ वितरतु घृतयुक्तं शुष्कशाकोष्णतोयैः । तदुचितमपि पेयं वा विलेप्यं सयूषम् ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-त्रणसे पीडित रोगियों को जो हित आहार बतलाये हैं, उन को इस में [ विद्रधि ] भी देना चाहिये । एवं इस रोगमें पुर'ने धान्योंके अच्छी तरह पक्क हुए अन्नको खिलाना चाहिये । उसके साथ घी और शुष्क शाक एवं पनिके लिये उष्णजल देना चाहिये । इसके अलावा उसको योग्य अहित नहीं करनेवाले पेय विलेपी या यूषको भी देना चाहिये ॥ ३४ ॥ अथ क्षुद्ररोगाधिकारः। क्षुद्ररोगवर्णनप्रतिज्ञा। पुनरपि बहुभेदान् क्षुद्ररोगाभिधानान् । प्रकटयितुमिहेच्छन् प्रारभत प्रयत्नात् ॥ विहितविविधदोपभोक्तसल्लक्षणैस्त-।। द्वितकरवरभैषज्यादिसंक्षेपमार्गः ॥ ३५ ॥ ..; भावार्थः-पहिले क्षुद्र रोगोंका वर्णन किया गया है । फिर भी यहांपर अनेक प्रकार के क्षुद्ररोगोंको कहनेकी इच्छासे प्रयत्न के साथ उक्त अनेक दोषों के लक्षण एवं उन रोगों के लिये हितकर औषिधियों का निरूपण करते हुए संक्षपके साथ उन (क्षुद्र रोगों ) के कथनका प्रारंभ करेंगे॥३५॥ . Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९६) कल्याणकारके भकथित रांगों की परीक्षा। न भवति खलु रोगो दोषजालैर्विना यत् । तदकथितमपि प्राधान्यतस्तद्गुणानाम् ॥ उपशमनविधानस्साधयेत्साध्यमेवं । पुनरपि कथनं स्यात्पिष्टसंपेषणार्थम् ॥ ३६ ॥ भावार्थ:--यह निश्चित है कि वात, पित्त कफके विना रोग उत्पन्न होता नहीं। इसलिये जिन रोगोंका या रोगके भेदोंका कथन नहीं किया है ऐसे रोगोंमें भी वात पित्तादिक विकारोके मुख्य ( अर्थात् यह व्याधि वातज है ? पित्तज है ? या कफज ! इत्यादि बातोंकी तत्तदोषोंके लक्षणोंसे निश्चित कर ) और गौणत्वका विवार कर योग्य औषधियोंके प्रयोगसे उनकी चिकित्सा करनी चाहिए। पुनः उसका कथन करना पिष्टपेषण दोषसे दूषित होता है ॥ ३६ ॥ अजगल्लीलक्षण । परिणतफलरूपा तीक्ष्णपत्रास्य साक्षात् । कफपवनकृतयं तोयपूर्णाल्परक् च ॥ जलमरुदुपयोगाब्दुब्दुदस्येव जन्म । त्वचि भवति शिशूनां नामतस्साजगल्ली ॥ ३७ ॥. - भवार्थ:-जिस प्रकार जल और वातके संयोगसे बुदबुद की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार कफ और वातके विकारसे बालकोंकी त्वचा पानीसे भरे हुए और कुछ वेदना सहित पिटक होते हैं, उन्हें अजगली कहते हैं । उनका आकार पके हुए तुंबुरु, फलके समान होता है ॥ ३७॥ अजगल्ली चिकित्सा. अभिनवजनितां तां ग्राहयेद्वा जलौका-। मुपगतपरिपाकां संविदार्याशु धीमान् ॥ व्रणविहितविधानं योजयेद्योजनीयम् । कफपवननिद्रव्यवर्गप्रयोगः ॥ ३८ ॥ ... भावार्थ:-नवीन उत्पन्न अजगल्ली हो, जो कि पकी नहीं हो, जौंक लगवाकर दुष्ट रक्त मोक्षण करके उपशम करना चाहिए। यदि वह पक गई हो तो उसे बुद्धिमान वैद्यको उचित है कि शीघ्र विदारण करें और कफ व वात हर औषधियोंके प्रयोग के साथ २ व्रण चिकित्सा में कह गये शोधन रोपण आदिको करें ॥ ३८॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (२९७) अलजी, यव, विवृत लक्षण. अतिकठिनतरां मत्वालजी श्लेष्मवातैः । पिशितगतविकारामल्पपूयामवक्त्रां । यवमिति यवरूपं तद्वदंतर्विशालं ॥ विवृतमपि च नाम्ना मण्डलं पित्तजातं ॥ ३९ ॥ भावार्थ:-श्लेष्म वातके प्रकोप से मांस के आश्रित अल्प पू (पीप) सहित, मुखरहित अत्यंत कठिन पिटक होते हैं उन्हे अलजी कहते हैं। यव के आकार में रहनेवाले [ मांसके आश्रित कठिन ] पिटकों को यव ( यवप्रख्य ) कहते हैं । उसी प्रकार पित्तके विकारसे अंदर से विशाल, खुले [ फटा ] मुखबाला जो मंडल (चकता) होता है उसे विवृत कहते हैं ॥ ३९ ॥ कच्छपिका वल्मीक लक्षण. . कफपवनविकारात्पंचषटुंथिरूपे । परिवृतमतिमध्यं कच्छपाख्यं स्वनाम्ना ॥ तलहदयगले संयूर्धजतृप्रदेशे । कफयुतबहुपित्तोभदूतवल्मीकरोगम् ॥ ४० ॥ भावार्थ:--कफ और वात के प्रकोप से पांच अथवा छह ग्रंथि के रूप में जिन का मध्यभाग खुला नहीं है [ कछुवे के पीठके समान ऊंचा उठा हुआ है ] ऐसे, जो पिटक होते हैं उन्हे कच्छपपिटका [ कच्छपिका ] कहते हैं । हस्त व पादतल, हृदय, गला, सर्वसंधि, एवं जत्रुकास्थि [ हंसली की हड्डी ] से ऊपर के प्रदेश में कफयुक्त अधिक पित्त के प्रकोप से सर्पके वामी के समान प्रथि [ गांठ] होती है उसे वल्मीकरोग कहते हैं ॥ ४ ॥ इंद्रविद्धा, गर्दभिका, लक्षण. परिवृतपिटकाभ्यां पद्मसत्कणिकाभ्यां । कुपितपवनविद्धामिंद्रविद्धां विदित्वा ।। पवनरुधिरपित्तात्तद्वदुत्पन्नरूप- । मतिकठिनसरक्तं मंडलं गर्दभाख्यम् ॥ ४१ ॥ भावार्थ:--वातके प्रको से कमलके कर्णिकाके समान, बीचमें एक पिडिका हो उसके चारों तरफ गोल छोटी २ फुसियों हों उसे इंद्रविद्धा कहते हैं। बात पित्त व Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२९८) कल्याणकारके रक्तके प्रकोपसे, इंद्रविद्धाके समान, छोटी २ विडिकाओंसे संयुक्त कठिन ब लाल मण्डल ( चकत्ता ) होता है उसे गर्दभ कहते हैं ॥ ४१ ॥ पाषाणगर्दभ, जालकाली लक्षण... हनुगतवरसंधौ तद्वदेवातिशोफम् । परुषविषमपाषणाधिकं गर्दभाख्यम् ॥ तदुपपगतपाकं जालकालं विसर्प- । प्रतिममधिकपित्तोद्भतदाहज्वराच्यम् ॥ ४२ ॥ भावार्थ:-इसीप्रकार हनुकी संधि [ टोडी ] में [वात कफसे उत्पन्न ] अति कठिन व विषम जो बडा शोथ होता है उसे पाषाणगर्दभ कहते है। पित्तके उद्रेकसे उत्पन्न पाषाणगर्दभ आदिके समान जो नहीं पकती है विसर्पके समान इधर उधर फैलती है एवं दाह [ जलन ] बरसे युक्त होती है, ऐसी सूजनको जालकाली [ जालगर्दभ ] कहते हैं ॥ ४२ ॥ . पनसिका लक्षण. श्रवणपरिसमंतादुन्नतामुग्रशोफां । कफपवननिमित्तां वेदनोद्भुतदुःखां ॥ प्रबलपनसिकाख्यां साधयेदौषधैस्तां । प्रतिपदविहितस्तैः आमपकक्रमेण ॥ ४३ ॥ भावार्थ:--कफवात के विकारसे कानके चारों तरफ अत्यधिक सूजन होत. है और वह वेदनासे युक्त होती है उसे पनासका कहते हैं । उनको उनकी आम पक्क दशावोंको विचार करके तदवस्थायोग्य बार २ कहे हुए औषधियोंके प्रयोगसे उनकी चिकित्सा करनी चाहिये ॥४३॥ इरिवल्लिका लक्षण. . शिरसि समुपजातामुन्नतां वृत्तशोफां । कुपितसकलदोषोभ्दूतलिंगाधिवासाम् ॥ ज्वरयुतपरितापां तां विदित्वेरिवल्ली-। - भुपशमनविशेषैः साधयेद्वालकानाम् ।। ४४ ॥ ... भावार्थ:-बालकोंके मस्तकमे ऊंची २ गोल २ सूजन होती हैं । और वह प्रकु- पित' समस्त [ तीनों ] दोषों के लक्षणों से युक्त होती है अर्थात् त्रिदोषोंसे उत्पन्न हैं और Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । (२९९) जिसमें ज्वर व ताप होता है, उसे इरिवल्ली समझकर उपशामक औषधियों से उसकी चिकित्सा करें ॥४४॥ कक्षालक्षण. करहृदयकटीपासकक्षपदेशे । परिवृतबहुपित्तोभदूतविस्फोटकाः स्युः ॥ ज्वरयुतवरकक्षाख्यां विदित्वेंद्रपुष्पं । मधुकतिलकलायालेपनान्यत्रकुर्यात् ॥ ४५ ॥ भावार्थ:-हाथ, हृदय, कटी, पार्थ, कंधा, कक्षा इन प्रदेशोंमें अत्यधिक पित्तके विकार से होनेवाले विस्फोटक ( फोडा ) होते हैं । उनके साथ ज्वर भी यदि हो तो उसे मना कहते हैं । लवंग, मधुक, तिल व मंजीठका लेपन करना इसमें उपयोगी है ॥४५॥ गंधनामा [ गंधमाला] चिप्पलक्षण. . अभिहितवरकक्ष्याकारविस्फोटमेकं । त्वचिभवमतिपित्तोद्धतगंधाभिधानं ॥ नखपिशितमिहाश्रित्यानिलः पित्तयुक्तो । जनयति नखसंधी क्षिप्रमुष्णातिदुःखम् ।।४६ ॥ भावार्थ:-ऊपर कथित कक्षाके समान त्वचामें जो एक विस्फोट [ फोडा ] होता है उसे गंधनामा [ गंधमाला ] कहते हैं। वायु पित्तसे युक्त होकर नाखूनके मांसको आश्रितकर नाखूनकी संधिमें शीघ्र ही अतीव दुःखको उत्पन्न करनेवाले दाह व पाकको करता है, उसे चिप्प रोग कहते है ॥ ४६ ॥ अनुशयी लक्षण. कफपिशितमिहाश्रित्यांतरंगप्रपूयां । बहिरुपशमितोष्णामल्पसंरंभयुक्ताम् ।। विधिवदनुशयीं तामाशु शस्त्रेण भित्वा । कफशमनविशेषेः शोधयेद्रोपयेच्च ॥ ४७ ।। भावार्थः-प्रकुपित कफ, मांसको आश्चय करके [ विशेषकर पैरों ] एक ऐसी पिडिका व सूजनको उत्पन्न करता है, जिसके अंदर तो मबाद हो, बाहरसे शांत दीखें और जो थोडा दाह पीडा आदिसे युक्त हो, उसे अनुशयी कहते हैं । उसको शीघ्र ही विधिके अनुसार शस्त्रसे भेदन करके, कफ शमनकर औषाधियोंके प्रयोगसे शोधन परोपण करें [ भरें] ॥४७॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदारिका लक्षण. त्रिभिरभिहितदोषैर्वक्षणे कक्षदेशे । स्थितारगुरुशोफास्कदवद्वा विदार्याः । भवति तदभिधानख्यातरोगस्त्रिीलंग- ॥ स्तमपि कथितमार्गः सर्वदोषक्रमेण ॥ ४८ ॥ भावार्थ:--पूर्वकथित तीनों दोषोंके प्रकोपसे राङ व कक्षा प्रदेश [ जोड ] में विदारीकंद के समान, गोल, स्थिर, व बड़े भारी शोथ उत्पन्न होता है। इसमें तानों दोषोंके लक्षण प्रकट होते हैं, इसका नाम विदारिका है । इसको भी पूर्वकथित दोष भेदोंके अनुसार योग्य औषधिक प्रयोगसे उपशमन करें ॥ ४८ ॥ शर्करावुदलक्षण. कफपचनबृहन्मेदांसि मांसं सिरास्तते । त्वचमपि सकलस्नायुप्रतानं प्रदृष्य । कठिनतरमहाग्रंथि प्रकुर्वेति पकं । स्रवति प्रधुवसासर्पिः प्रकाशं स एव ॥ ४९ ॥ तमधिकतरवायुर्विशोष्याशु मांसं । ग्रथितकठिनशुष्कं शर्कराद्यर्बुदं तं ॥ वितरति विषमं दुर्गधमक्लेदिरक्तम् । सततमिह सिराभिः सासवं दुष्टरूपम् ॥ ५० ॥ . भावार्थ:-प्रकुपित कफ व बात, मेद, मांस सिरा, त्वचा एवं संपूर्ण स्नायु समूह को दूषित कर, अत्यंत कठिन ग्रंथि ( गांठ ) को उत्पन्न करते हैं । जब वह पककर फूट जाये तो, उस में से, शहद, चर्बी व घी के समान स्राव होने लगताहै। इससे फिर वात अधिक वृद्धि होकर शीघ्र ही मांस को सुखाता है, और, प्रथित; कडी, व सूखी, वालू के समान बारीक गांठ को पैदा करता है । इससे शिराओं द्वारा, अतिदुर्गध, क्लेदयुक्त स्त हमेशा बहने लगता है तो उसे शर्करायुद कहते हैं । ॥ ४९ ॥ ५० ॥ विचर्चिका, अपादिक, पामा, कच्छु, कदर, दारी, रोग लक्षण. विधिविहितविच भेदरूपान्विपादी । विराचितवरपामालक्षणान्कच्छुरोगान् ॥ बहुविधगुणदोषावृक्षपादद्वयेऽस्मिन् । कदरमिति तले ब्रूयुदरीः तीव्ररूपाः। ५१ ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। भावार्थ:-विचर्चिका, इसी का भेदभूत विपादिका ( वैगादिक ) पामा, कच्छु इन रोगों का वर्णन कुष्ठ प्रकरण में क्रमप्रकार कर चुके हैं । इसलिये यहां भी वैसा ही लक्षण जानना चाहिये । पैरों में कंकर छिदने से, कांटे लगने से, बैर अथवा कील के समान जो गांठ होती है, उसे कदर [ ठेक ] कहते हैं। जो पुरुष अधिक चलता रहता है, उस के पैरों में वायु प्रकुपित होकर उनको रूक्ष करता है और फाड देता है इसे दारी या पाददारी कहते हैं। इस का स्वभाव तीव्र होता है ॥ ५१ ॥ . इंद्रलुप्तलक्षण. पवनसहितपित्तं रोमकूपस्थितं तत् । वितरति सहसा केशच्युलिं श्वेततो च ॥ कफरुधिरनिरुद्धात्मीयमार्गेषु तेषां । न भवति निजजन्मात्तच्च चाचेंद्रलुप्तं ॥ ५२ ॥ भावार्थ:-त्तसे युक्त पित्त जब रोमकूपोमें प्रवेश करता है, तब केशच्युति व केशमें सफेदपन' हो जाता है । पश्चात् कफ और रक्तके द्वारा रोमकूप [ रोमोंके छिद्र ] रोके जाते हैं तो फिर नये रोमोंकी उत्पत्ति नहीं होती है। इसे इंद्रलुप्त [चाई । रोग कहते हैं ॥५२॥ __ जतुमणि लक्षण. सहजमध च लक्षोत्पन्नसन्मण्डलं तत् । कफरुधिरनिमित्तं रक्तमज्ञातदुःखम् ॥ शुभमशुभमितीत्थम् तं विदित्वा यथाव-- । ज्जतुमणिरपनेयं स्थापनीयो भिपग्भिः ॥ ५३ ॥ भावार्थ:-कफ व रक्त के प्रकोपसे, जन्मके साथ ही उत्पन्न मण्डलके समान जो गोल व रक्तवर्ण युक्त चिन्ह होता है जिससे किसी भी प्रकारका दुःख नहीं होता है, उसे जतुमणि कहते हैं । ( इसको देश भाषामें लहसन कहते हैं )। कोई जतुमणि किसी को शुभफलदायक और कोई अशुभदायक होता है । इसलिये इसमें जो शुभ फलदायक है उसको वैसे ही छोडें । [ किसी भी प्रकारकी चिकित्सा न करे ] जो अशुभफलदायक है उसको औषवि आदि प्रयोगसे निकाल देवें ॥ ५३ ॥ व्यंग लक्षणकुपितरुधिरपित्ताद्वातिरोषातिदुःखा-। इहनतपनतापाद्वा सदा क्लेशकोपात् ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) कल्याणकारके पवनकृतविशेषादानने स्वच्छमल्पं । त्वचि भवति सुकृष्णं मंडलं व्यंगसंज्ञम् ॥ ५४ ॥ भावार्थ:- रक्त व पित्तके उद्रेकसे, अतिरोष करनेसे, अत्यंत दुःख करनेसे, अग्नि और धूप से तप जानेसे, सदा मनमें क्लेश होनेसे, वातके प्रकोप से मुखमें जो काला मण्डल (गोल चिन्ह ) उत्पन होता है, उसको व्यंग [ झांई ] कहते हैं ॥ ५४ ॥ ॥ माघतिलभ्यच्छ लक्षण. पवनरुधिरजातं माषवन्माषसंज्ञम् । समतलमतिकृष्णं सत्तिलाभं तिलाख्यं ॥ सितमसितमिहाल्पं वा महत् नीरुजं सं । मुखगतमपरं तद्देहजं न्यच्छमाहुः ॥५५ ॥ " भावाथः -- वातरक्त के विकारसे शरीर में उडदके आकार में होनेवाले मण्डलको मात्र [ मस्सा ] कहते हैं । समतल होकर अत्यंत काले जो तिलके समान होते हैं उन्हे तिल कहते हैं । और काला या सफेद, छोटा या बडा, मुखमें या अन्य अवयवमें, पीडा रहित जो दाग या चकत्ते होते हैं उन्हें न्यच्छ कहते हैं ॥ ५५ ॥ नीलिका लक्षण. तदिह भवति गात्रे वा मुखे नीलिकाख्यं । बृहदुरुतरकृष्णं पित्तरक्तानिलोत्थम् ॥ तदनुविहितरक्तान्मोक्षणालेपनाद्यैः । प्रशमनमिह सम्यग्योजयेदात्मबुध्या ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-- पित्तरक्त व वात विकारसे या मुखने बडे २ कांले जो मण्डल होते हैं उन्हें नीलिका कहते हैं । उसके लिये अनुकूल रक्तमोक्षण लेपन आदि प्रशमन विधियों का प्रयोग करके वैद्य अपनी बुद्धीसे चिकित्सा करें ॥ ५६ ॥ तारुण्यपिडका लक्षण. तरुणपिटकिकास्ताः श्लेष्मजाः यौवनोत्थाः । बहलविरलरूपाः संभवस्याननेऽस्मिन् ॥ मतियुतमुनिभिस्साध्याः कफध्नैः प्रलेपै- । रनवरतमहानस्यप्रयोगरनेकैः ॥ ५७ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः (३०३) भावार्थ:-श्लेष्म विकारसे यौबनके मदसे मुखमें जो पिडका होते हैं, जो कुछ मोटे व विरल [थोडे होते हैं, उन्हें तारुण्यपिडका कहते हैं। उनको योग्य कफहर लेपन, नस्यप्रयोग आदि उपायोंसे जीतना चाहिये, ऐसा बुद्धिमान मुनियोंने कहा है ॥५॥ - वर्तिका लक्षण. डंपितपवन दोषायेनकनाभिघाता-। प्रजननमुखचमोलंबमानः प्रसूनम् ॥ .. जलमिह निरुणद्धि प्रस्त्रवं कृच्छ्रकृच्छात् । प्रसरति बहुदुःखं वर्तिकाख्यं तमाहुः ॥ ५८ ॥ . भावार्थ:--यातदोषके उद्रेक होनेसे या किसीके आघातसे मुखका चर्म लंबा होजाता है उसमें पूय भरकर थोडी बहुत कठिनतासे उसका स्त्राव होता है व अत्यविकवेदना होती है, उसे वर्तिका नाम रोग कहते हैं ॥ ५८ ॥ सन्निरुद्धगुदलक्षण. मलमलमतिवेगाघ्राणशीलमनुष्यैः । प्रतिदिममिह रुद्धं तत्करोत्याशु सूक्ष्मं ॥ गुदमुखमतिवातात्कष्टमेतद्विशिष्टैः । परिहतपरिदुःखं सन्निरुद्धं गुदाख्यम् ॥ ५९ ॥ भावार्थ:--जो मलके वेगको धारण करते रहते हैं, तब अशनवायु प्रकुपित होकर उनके गुदाको रोक कर ( गुदाद्वार के चर्मको संकोचित करके ) गुदा के द्वारको 'छोटा कर देता है । जिससे अत्यंत कष्ट के साथ मलविसर्जन होता है । इसे सन्निरुद्ध गुद कहते हैं । यह अतीव दुःखको देने वाला कठिन रोग है ॥५॥ अग्निरोहिणी लक्षण. त्रिकगलकरपाचोधिप्रदेशेषु जातां । . देवदहनशिखाभामंतकाकारमूर्तिम् ॥ कुपितसकलदोषामग्निरोहिण्यभिख्यां । परिहर पिटकाख्यां पक्षमात्रावसानाम् ॥ ६० ॥ भावार्थ:-त्रिक ( पीठके बांसके नीचे की वह जोड जहां तीन हाड मिले हैं ) 'गला, हाथ, पार्श्व, व पाद इन प्रदेशोमें समस्तदोषोंके कुपित होनेसे उत्पन्न दावानलकी -शिखाके समान दाहसहित, यमके समान रहनेवाले पिडकाको अग्निरोहिणी कहते हैं। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) कल्याणकारके यह अत्यंत भयंकर है । इसे वैद्य छोड देवें अर्थात् इस की चिकित्सा न करें । वह रोगी 1 ज्यादासे ज्यादा १५ दिनतक जीयेगा ॥ ६० ॥ स्तनरोग चिकित्सा. 11 स्तनगतबहुरोगान् दोषभेदादुदीक्ष्य । श्वयथुमपि विचार्यामं विदग्ध विपक्वं ऋमयुतविधिना साध्यं भिषक् साधयेत्तत् । विषमकृतविशेषाशेष भैषज्यमार्गः ॥ ६१ ॥ भावार्थ:-- : -- स्तनगत अनेक रोगोंको दोषोंके भेदके अनुसार देखकर उनकी चिकित्सा करनी चाहिये । यदि शोफ ( स्तन विद्रधि आदि ) भी हो तो उसके भाम विदग्व, त्रिपक्क भेदोंको विचार कर आमादि अवस्थाओं में पूर्वोक्त त्रिलय.. विवरण आदि तत्तद्योग्य चिकित्सा को, अनेक योग्य नानाप्रकारके औषधियों द्वारा करें ॥ ६१ ॥ पाचन, क्षुद्ररोगोंकी चिकित्साका उपसंहार. इति कथित विकल्पान् क्षुद्ररोगानशेषा - । नभिहितवर भैषज्यप्रदेहानुलेपैः ॥ रुधिरपरिविमोक्षैः सोपना हैरनेकै- । स्तदनुविहितदोषप्रक्रमैः साधयेत्तान् ॥ ६२ ॥ भावार्थ:- - इस प्रकार अभीतक वर्णित नानाभेदोंसे विभक्त संपूर्ण क्षुद्र रोगोंको उनके कारण लक्षण आदि जानकर उन दोषोंके अनुसार पूर्वकथित योग्य प्रदेह, लेपन, रक्तमोक्षण, उपनाहन आदि विधियोंसे उनकी चिकित्सा करें ॥६२॥ सर्वरोगचिकित्सा संग्रह | पृथगपृथगपि प्रख्यातदोषैः सरक्तै- । रिबहुविधमार्गाः संभवत्युद्धास्ते ॥ सहजनिजविकारान् मानसान् सोपसर्गान् ॥ अपि तदुचितमागैस्साधयेयुक्तियुक्तैः ॥ ६३ ॥ भावार्थ:- वात, पित्त, कफ, अलग [ एक ] वा दो २ या तीनों एकसाथ मिलकर, अथवा रक्त को साथ लेकर, स्वस्त्र कारणोंसे प्रकुपित हो जाते हैं और वे प्रकुपित दोष शरीर के अनेकविध मार्गीको अर्थात् नाना प्रकार Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३०५) के अंगोपांग आदिको आश्रित कर, शारीरिक, मानसिक, औपसर्गिक, सहज आदि रोगोंको उत्पन्न करते हैं। उनको [ अच्छीतरहसे जानकर ] युक्ति से युक्त, तत्तद्योग्य चिकित्सा द्वारा जीतें ॥ ६३ ॥ नाडीव्रण निदान व चिकित्सा. प्रपूर्णपूयः श्वयथुः समाश्रयो । विदार्य नाडी जनयत्युपेक्षितम् ॥ स्वदोषभेदादवगम्य तामपि । प्रसादयेच्छोधनतैलवर्तिभिः ॥ ६४ ॥ भावार्थ:-मवादसे भरे हुए व्रणका शोधन करनेमें उपेक्षा करें अर्थात् पीडन शोधन आदिके द्वारा मवादको न निकाले तो वह मवाद त्वचा, मांस सिरा, स्नायु, आदिको भेद कर अन्दर अन्दर गहग प्रवेश करने लगता है । इसको नाडीव्रण ( नासूर ) कहते हैं। (इसकी गति नाडी ( नली) के समान, एक मार्गसे होनेके कारण इसे नाडीव्रण कहा गया है । ) इस नाडीवण को भी उसके दोषभेदोंको ( इसके लक्षणोंसे ) जानकर उनके योग्य शोधन तैलसे भिगोयी गई बत्तियों के प्रवेश आदिके द्वारा ठीक करना चाहिये ॥ ६४ ॥ मुखकांतिकारक घृत. काश्मीरचन्दनकुचंदनलोधकुष्ठ-। लाक्षाशिलालरजनीद्वयपद्ममध्य ।। मंजिष्ठिकाकनकगरिकया च साध । काकोलिकाप्रभृति मृष्टगुणं सुपिष्टं ॥६५॥ तस्माच्चतुर्गुणघृतेन सुगंधिनाति-। यत्नाद्धताद्विगुणदुग्धयुतं विषाच्य ॥ व्यालेपयेन्मुखमनेन घृतेन तज्जान् । रोगान्व्यपाह्य कुरुते शशिसन्निभं तम् ॥ ६६ ॥ भावार्थ:----फेसर, वंदन, लालचंदन, लोध, कृश, लाख, मैनसिल, हरताल, हलदी, दारुहलदी, कमलकेसर, मनीट, सोनागेरु, काकोली, क्षीर काकोली, जीवक ऋषभक, मैदा, महामेदा, बुद्धि, ऋद्धि इन औषधियोंको चतुर्गण (चौगुना ) सुगंवि घी, धीसे द्विगुण ( दुगुना ) दूध इनसे प्रयत्न पूर्वक घृत सिद्ध करें। इस धृत (Snow) को मुखपर लेपन करनेसे मुखमें उत्पन्न व्यंग, नीलिका, आदि समस्त रोग नाश होकर मुख चंद्रमाके समान कांतियुक्त होकर सुंदर होजाता है ॥६५॥६६॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६) ! कल्याणकारके मुख कांतिकारक लेप. तालं मनश्शिलंयुतं वटपत्रयुक्त । श्वेताभ्रसूतसहितं पयसा सुपिष्टं ॥ आलिप्यवक्त्रममलं कमलोपमानं । मान्य मनोनयनहर करोति मर्त्यः ॥ ६७ ॥ भावार्थ:-हरताल, मैनसिल, बटपत्रा, सफेद अभ्रक, पारद इनको दूधके साथ अच्छीतरह पीसकर मुखपर लेपन करें तो मुख कमलके समान बन जाता है । और सबका मन व नेत्रको आकर्षित करता है ॥ ६७ ॥ अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरानिभं जगदेकाहितम् ॥ ९१ ॥ भावार्थ:--- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तब व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है। साथ में जगत्का एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] . इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे क्षुद्ररोगचिकित्सितं नामादितश्चतुर्दशः परिच्छेदः । इत्युमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधि विभूषित वर्षमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में क्षुदरोगाधिकार नामक चौदहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। . Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । अथ पंचदश परिच्छेदः । अथ शिरो रोगाधिकारः । मंगलाचरण | श्रियः प्रदाता जगतामधीश्वरः । प्रमाणनिक्षेपनयप्रणायकः । निजोपमानो विदिताष्टकर्मजि- । ज्जयत्यजेयो जिनवल्लभोऽजितः ||१|| (३००) भावार्थ:- अंतरंग बहिरंग संपत्तिको प्रदान करनेवाले, जगत् के स्वामी, प्रमाण निक्षेप व नयको प्रतिपादन करनेवाले, किसीसे जेय नहीं ऐसे श्री अजित जिनेश्वर जयवंत रहें ॥ १ ॥ शिरोरोगकथन प्रतिज्ञा । प्रणम्य तं पापविनाशिनं जिनं । ब्रवीमि रोगानखिलोत्तमांगगान् ॥ पतीत सल्लक्षणसच्चिकित्सितान् । प्रधानतो व्याधिविचारणान्वितान् ॥२॥ भावार्थ: पापको नाश करनेवाले श्री अजितनाथको प्रणाम कर लक्षण, चिकित्सा य व्याधिविचारण पूर्वक शिरोगत रोगोंका कथन करेंगे इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ २ ॥ शिरोरोगोंके भेद | शिरोरुजो वातबलासशोणित- । प्रधानपिचैरखिलैर्ब्रवीम्यहम् || स सूर्यवत्तार्धशिरोवभेदकैः । सशंखकेनापि भवति देहिनाम् ॥ ३ ॥ भावार्थ: मनुष्यों के शिरमें वात, पित्त, कफ, रक्त, सन्निपातसे, वातज, पित्तज, कफज, रक्तज, सन्निपातज शिरोरोग उत्पन्न होते हैं । एवं तत्तद्दोषों के प्रकोप से, सूर्यावर्त, अर्धावभेदक, शंखक नामक शिरोरोगों की उत्पत्ति होती है ॥ ३ ॥ १ इन शिरोरोगों में वातादि दोषों लक्षण प्रकट होते हैं । वातिकलक्षण - जिसका शिर अकस्मात् दुखे, रात्रि मे अत्यधिक दुखे बंधन, सेक आदिसे शांति हो उसको वातज शिरोरोग जानना चाहिये । पित्तज - जिसमें मस्तक अग्निके समान अधिक उष्ण हो, आंख नाक में जलन होती हो एवं शीतल पदार्थ के सेवन से रात्रिमें उपशमन होता हो उसे पित्तोत्पन्न, मस्तकशूल जानना चाहिये । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८ ) कल्याणकार क्रिमिज, क्षयज शिरोरोग. क्रिमिएकारैर्दलतीव तच्छिरो । रुजत्यसङ्कासिकया सृजत्यलं । स्वदोषधातुक्षयतः क्षयोद्भव । स्तयोर्हितं तत्क्रिमिदोपवर्धनम् ॥ ४ ॥ भावार्थ:- :- मस्तक के अंदर नाना प्रकार की क्रिमियों की उत्पत्ति से शिर में दलन होता हो, ऐसी पीडा होती है, नाक से खून पूर्व आदि बहने लगते हैं । इसे कृमिज शिरोरोग जानना चाहिये । मस्तकगत वातपित्तकफ व वसा रक्त आदि धातुओंके क्षयसे क्षयेज शिरोरोग की उत्पत्ति होती है । कृमिज शिरोरोग में कृमिनाशक नस्य आदि देना चाहिये । क्षयज शिरो रोग में दोष व धातुओं को बढानेवाली चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ४ ॥ सूर्यावर्त, अर्धावभेदक लक्षण. क्रमक्रमाद्वद्विमुपैति वेदना | दिनार्धतोऽसौ व्रजतीह सूर्यवत् ॥ शिरोऽर्धमर्धे क्रमतो रुजत्यलं । ससूर्यवत्तोर्धशिरोऽवभेदकः ॥ ५ ॥ भावार्थ:-सूर्य जिस प्रकार बढजाता है उसी प्रकार सुबह से शिरकी दर्द मध्यान्ह समयतक बढती जाती है और सूर्यके उतरते समय वह वेदना भी उतरती जाती है । उसे सूर्यावर्त शिरोरोग कहते हैं । शिरके ठीक अर्धभाग में जो अत्याधिक दर्द होती है उसे अर्धावभेदक कहते हैं ।। ५ ॥ शंखक लक्षण. स्वयं मरुद्वा कफपित्तशोणितैः ः । समन्वितो वा तु शिरोगतोऽधिकः सशीतवाताद्भुतदुर्दिने रुजां । करोति यच्छंखकयोर्विशेषतः ॥ ६ ॥ भावार्थ:- एक ही बात अथवा, कफ, पित्त व रक्त से युक्त होकर, शिरका आश्रय करता है, तो, वह जिस दिन शीत अत्यधिक हो, ठण्डी हवा चल रही हो, कफज - जिसका मस्तक के भीतर का भाग कफ से लिप्स होवें, भारी, बंधासा एवं ठंड होवे, नेत्र के कोये व मुख सूज गये हो तो उसे कफोत्पन्न शिरोरोग जानना चाहिये ॥ सन्निपातज - उपरोक्त तीनो दोषों के लक्षण एक साथ प्रकट हों तो सन्निपातज शिरोरींग जानना चाहिये | रक्तज - रक्तज शिरोरोग में पित्तज शिरोरोग के संपूर्णलक्षण मिलते हैं एवं मस्तक स्पर्शासह हो जाता है । १ इस का लक्षण यह है कि छीक अधिक आती है । शिर ज्यादा गरम होता है। असह्य पीडा होती है ! एवं स्वेदन, वसन, धूम्रपान, नस्य, रक्तमोक्षण, इन से वृद्धि को प्राप्त होता है । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः (३०९) आकाश मेघसे आच्छादित हो उस दिन शिरमें, विशेषकर कनपटी में पीडा को उत्पन्न करता है । इसे शंखक शिरोरोग कहते हैं ॥ ६ ॥ रक्तपित्तज, वातकफज शिरोरोग के विशिष्टलक्षण. दिवातिरुक् शोणितपित्तवेदना । निशासु शांति समुपैति सर्वदा ॥ मरुत्कफो रात्रिकृतालिवेदना- । विह प्रसन्नावहनि स्वभावतः ॥ ७ ॥ भावार्थ:--रक्त पित्तके विकार से होनेवाली शिपीडा दिनमें अत्यधिक होती है और रात्रिमें पीडाशांति होती है । वात और कफ के विकारसे होनेवाली पीडा रात्रिमें तो अधिक होती है और दिनमें वे दोनों रोगी प्रसन्न रहते हैं ॥ ७ ॥ शिरोरोग चिकित्सा. विशेषतो दोषगति विचार्य ता- । नुपाचरेदुग्रशिरोगतामयान् । सिराविमोक्षैः शिरसो विरंचनः । प्रतापबंधैः कवलैः प्रलेपनैः ॥८॥ भावार्थ:-इन भयंकर शिरोरोगोंके दोषोंकी प्रधानता अप्रधानता आदिका विचार करके ( जिस दोपसे शिरोरंग की उत्पत्ति हुई हो उस के अनुकूल ) सिरा मोक्षण, शिरो विरेचन, तापन, बंधन, कवलधारण, लेपन आदि विधियोसे उनकी चिकित्सा करनी चाहिये ।। ८॥ क्रिमिज शिरोरोगन योग. विजालिनीबीजवचाकटात्रिकैः । सशिगुनिवास्थिविडंगसैंधवैः ॥ सकंगुतैलैरिह नस्यकर्मतः । क्रिमीन् शिरोजानपहंति सर्पपैः ॥ .. भावार्थ:-विजालिनी बीज, वचा, सेंजन, सोंठ, मिरच, पीपलका बीज, नीबुको गिरी, वायबिडंग, सेंधाले.ण, सरसों मालकांगन के तेल में मिलाकर अथवा इन औषधियोंसे मालकांगनीके तैल को सिद्ध करके नस्यकर्म करनेसे शिरमें उत्पन्न समस्त क्रिमियों को दूर करता है ॥ ९॥ शिरोरोगका उपसंहार. ___ दशंकारान् शिरसो महामयान् । विधाय साध्यान् विषमोरुशंखकान् ।। अतःपरं कर्णगतानशेषतो । ब्रवीमि संक्षेपविशेषलक्षणः ॥ १०॥ १ और कनपटीमें, तीवदाह व सूजन होती है । जिस प्रकार विषके वेग से गला रुक जाता है उसी तरह इस में भी गला रुक जाता हैं ! यह रोग तीन दिन के अन्दर मनुष्यका प्राणघात Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१०) .. कल्याणकारके ... भावार्थ:-दस प्रकारके, विषम शंखक आदि शिरोरोगों के लक्षण व चिकित्सा को निरूपण करके अब कर्णगतसमस्तरोगाको संक्षेपसे विशेषलक्षणोंके साथ कहेंगे ॥ १० ॥ अथ कर्णरोगाधिकारः। कर्णशूल कर्णनादलक्षण. अथानिलः कर्णगतोऽन्यथा चरन् । करोति कर्णाधिकशलमुख तम् ।। स एव शद्वाभिवहास्सिराश्रितः । प्रणादसंज्ञः कुरुतेऽन्यथा ध्वनिम् ॥११ भावार्थ:-कर्णगत वायु प्रकुपित होकर उल्टा फिरने लगता है तो कानोंमें तीव्र शूल उत्पन्न होता है । इसे कर्णशूल कहते हैं । वहीं कर्णगत वायु प्रकुपित होकर' शब्दवाहिनी सिराओंको प्राप्त करता है तो कानों में नाना तरहके, मृदंग, भेरी, शंख, आदिके शब्द के समान विपरीत शब्द सुनाई पडता है। इसे कर्णप्रणाद या कर्णनाद कहते हैं ॥ ११ ॥ बधिर्यकर्ण व क्षोद लक्षण. ... स एव वातः कफसंयुती नृणां । करोति बाधिर्यमिहातिदुःखदम् ॥ विशेषतः शतपथे व्यवस्थिती । तथा तितत्क्षाद समुद्रघोषणम् ॥ १२ ॥ भावार्थ:-~~-वही प्रकुपित कर्णगत वायु कफके साथ संयुक्त होकर जब शद्ववाहिनी शिराओंभे ठहर जाता है तो कानको बधिर (बहरा) कर देता है । वही वायु अन्य दोषोंसे संयुक्त होकर शद्ध वाहिनी सिरावोमें ठहरता है तो कानमें समुद्र घोष जैसा शब्द सुन पडता है । इसे कर्णक्षोद कहते हैं ॥ १२ ॥ कर्णस्राव लक्षण. जलप्रपाताच्छिरसोभियाततः । प्रपाकतस्तपिटकादिविद्रधेः॥ . अजस्रमात्रावमिहास्रवत्यलं । स कर्णसंस्राव इति स्मृतो बुधैः ॥ १३ ॥ भावार्थ:-जलके पातसे ( गोता मारने ) सिरको चोट आदि लगनेसे; पिटिका विद्रधि आदिके उत्पत्ति होकर पककर फूट जानेसे, सदा कानसे मवाद बहता है, उसे 'कर्णसंस्राव रोग कहते हैं ॥१३॥ . पूतिकर्ण कृमिकर्ण लक्षण. सपूतिपूयः श्रमणात्रवेद्यदा । स पातकों भवतीह देहिनम् ॥ . भवंति यत्र क्रिमयोऽतिदारुणाः । स एव साक्षात्किमिकर्णको भवेत्॥ १४ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । ( ३११ ) भावार्थ:- कानसे जब दुर्गंध मवाद बहने लगता है उसे पूतिकर्ण कहते हैं । जिसमें अत्यंत भयंकर क्रिमियोंकी उत्पत्ति होती है उसे क्रिमिकर्णक रोग कहते हैं ||१४ कर्णकण्डू, कर्णगूथ, कर्णप्रतिनाद के लक्षण. कफेन कण्डूः श्रवणेषु जायते । स एव शुष्को भवतीह गुथकः ॥ स गूथ एव द्रवतां गतः पुनः । पिधाय कर्णे प्रतिनादमावहेत् ||१५|| भावार्थ:- कान में कफ संचित होनेसे खुजली चलने लगती है । इसे कर्णकण्डू कहते हैं । वही कफ जब कान में ( पित्त के उष्ण से ) सूख जाता है, उसे कर्णगू कहते हैं | वह कर्णगूथ जब द्रव होकर कान को ढक देता है तो इसे कर्णप्रतिनाद ( प्रतिनाह ) कहते हैं ॥ १५ ॥ कर्णपाक, विधि, शोथ, अरीका लक्षण. सुपकभिन्नादिकविद्रवेर्वशात् । स कर्णपाकाख्यमहामयो भवेत् ॥ अथापरे चार्बुदशोफविद्रधि । प्रधानदुर्नामगणा भवत्यपि ॥ १६ ॥ भावार्थ:- :- कान में विद्रधि उत्पन्न होकर अच्छी तरह पककर फूटजाता है तो कान गीला व सडजाता है इसे कर्णपाक कहते हैं । इसी प्रकार कान में अर्बुद, शोध विद्रधि, अर्श (बवासीर) समूह उत्पन्न होते हैं । इन को उन्ही नामोंसे पुकारा जाता हैं जैसे कर्णार्बुद, कर्णविद्रधि आदि || १६ || वातज कर्णव्याधिचिकित्सा. अतः परं कर्णगतामयेषु तत् । चिकित्सितं दोषवशाद्विधयते ॥ अथानिलोत्थेष्वनिलघ्नभेषजै - । विपक तैलैरहिमैर्निषेचयेत् ॥१७॥ भावार्थ:-- अत्र कर्णरोगोंकी दोषोंके अनुसार चिकित्सा कही जाती है । यदि बात विकारसे उत्पन्न हो तो वातहर औषधियोंसे पकाये हुए गरम तेलको कानमें छोड देवें ॥ १७ ॥ कर्ण स्वेदन निषिक्तक पुनरुष्णतापनः । प्रतापयेद्धान्यगणेष्टिकादिभिः ॥ प्रणालिaratha वा हितं । सपत्रभाण्डेऽग्नियुते निधापयेत् ॥ १८ ॥ भावार्थ:-- तेल सेचन करने के बाद उष्ण धान्यगण ( धान्यों की पोटली बांधकर उससे ) व ईंट आदियोंसे कानको सेकना चाहिये | अथवा नली स्वेदन भी www.jäinelibrary.org Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२) कल्याणकारके इसके लिये हितकर है । पत्रसहित अग्नि ( गरम ) युक्त बरतन में कानको रखें व स्वेदन करें ॥ १८ ॥ घृतपानआदि. पिबेत्स सर्पिः पयसा समन्वितं । सुखोष्णमस्योपरि कर्णरोगवान् । बलाख्यतैलेन शिरोवितर्पण । सनस्यकर्मात्र निषेचनं हितं ।। १९ ॥ भवार्थ:--अत्यधिक कर्ण रोगवाला कुछ गरम वीके साथ दूध मिलाकर पीवे । बला तैल शिरमें लगावें, अथवा तैल से भिगोये गये पिन्चुको शिरपर रखें तो कर्ण रोग दूर हेता है । इस में नस्यकर्म व कानमें तेल डालना भी हितकर है ॥ १९ ॥ ___कर्णरोगांतक घृत. सपेचुकांकोलफलाकादव- । रहिंस्रया शिगुरसेंद्रदारूभिः । सवेणुलेखर्लशुनैस्सरामटैः । ससैंधवैमत्रगणैः कटुत्रिकैः ॥ २० ॥ पृथक्प्तमस्तैः कथितौषधैर्बुधः । पचेदृतं तैलसमन्वित भिषक् ॥ प्रपूरयेत्कर्णमनेन सोष्मणा- । निहंति तत्कर्णगताखिलामयान् ॥ २१ ।। भावार्थ:--केमुक [पेचुका] अंकोल का फल, अद्रक का रस, जटमासी, सेंजन का रस, देवदारू, बांसका त्वचा, लहसन, हींग,सेंधानमक, सोंठ, मिरच, पीपल इनको अलग अथवा मिले हुए औषधियों के क्वाथ ब कल्क, और आठ प्रकारके मूत्र, इन से घृत व तैल को बरावर लेकर सिद्ध करें । फिर उस तेलको थोडा गरम कर कान में भरें तो, कर्णगत समस्तरोग को नाश करता है ॥ २० ॥ २१ ॥ कफाधिक कर्णरोगचिकित्सा. सशिग्रुमलाईकसद्रसेन वा । ससैंधवेनोष्णतरेण पूरयेत् ॥ अजांबुना वा लशुनार्कसेंधवैः । कफाधिके कर्णगतामये भृशम् ॥ २२ ॥ भावार्थ:--सेंजनके मूल का रस, अद्रकका रस इसमें सेंधालाण मिलकर गरम करें फिर उसे कानमें छोडें । अथ । बकरीके मूत्र में लसून, अकौवारस व . सेंधालोण मिलाकर कुछ गरम कर कान में भरें । इन से कफको विकारसे उद्रिक्त कर्णरोग उपशम हो जायगा ॥ २२ ॥ कृमिकर्ण, कर्णधाकचिकिता. सनिवतलेलबस्सुपरयन् । क्रिमिप्रगाढे क्रिमिनाशनो विधिः ॥ विधीयतां पूरणमेभिरेव वा । मुकर्णपाके क्षतद्विसर्पवत् ॥ २३ ॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । ( ३१३ ) भावार्थ:-- अधिक क्रिमियुक्त कर्णरोग में निंबतैल सेंधालोण से कानको भरना चाहिए | एवं क्रिमिनाशक उपाय भी करना चाहिए । कर्णपाकमें क्षत व विसर्प के समान इन्ही औषधियोंको कानमें भरकर चिकित्सा करनी चाहिए ॥ २३ ॥ क्रिमिनाशक योग. त्रिवृद्धरिद्रानृपवृक्ष क्षकैः । प्रपकतोयैः श्रवणमध । वनम् ॥ प्रदीपिकालमपि प्रयोजितं । किमीन्निहंत्युग्रतरातिवेदनान् ॥ २४ ॥ भावार्थ:- निसोथ, हळदी, अमलतास, कुडाकी छाल, इनके द्वारा पकाये हुए कषाय से कानको धोवे एवं दीपिकांतैलको भी कानमें भरें तो कृमि व भयंकर शूल भी नाश होता है || २४ ॥ कर्णगत आगंतुमल चिकित्सा. बलाधिकं यन्मलजातमंतरे । व्यवस्थितं कर्णगतं तदा हरेत् ॥ अलाबुर्मृगान्यतमेन यत्नतो । वली सदा चूषणकर्मकोविदः ॥ २५ ॥ भावार्थ:- कान के छेद में ( बाहरसे आकर ) खूब मल जम गया हो तो उसे यदि रोगी बलवान हो तो चिकित्सा (चूषणकर्म ) कार्य में निपुण वैद्यको उचित है कि अत्यंत साबधानसे तुंत्री अथवा सींगे लगाकर अथवा शासकासे निकाले ( कानमे कांडा घुस गया तो उसे भी इसी प्रकार निकाले ) ॥ २५ ॥ पूतिकर्ण, कर्णस्राव, कणार्श, विद्रधि, चिकित्सा. 'सतिप्रयास्रवसंयुतं द्रवं । प्रपूरयेत शोधनेतलभीरितं ॥ अथार्शसामप्यथ विद्रधीष्वपि । प्रणीतकर्माण्यसकृत्प्रयोजयेत् ॥ २६ ॥ भावार्थ:- दुर्गंध स्राव बहनेवाले कर्णरोग में औपवियों के दबको भरना, अथवा पूर्वकथित शोधन तेलको भरना हितकर है । एवं अर्श और विद्रधिरोग में जो चिकित्साक्रम "बतलाया है उनका प्रयोग कर्णगत अर्श, विद्रधि में बार २ करना चाहिये ।। २६ ॥ १ बेल, सोनापाटा, पाढल, कुमेर, अरणी इनसे किसी एककी अथवा पांचोंकी अठारह अंगुल लम्बी डाल लेकर उसके तीन भागको अतसी वस्त्र लपेट देवे और उसे तैलमे भिगो देवे पश्चात् इसको वत्तीकी तरह जलाकर ( किन्हीके उपर नीचे की ओर नोक करके रखें, इसके नीचे एक पात्र भी रखें । इस पात्रपर जी तैल टपकता है इसे दीपिका तैल कहते हैं । इसी प्रकार ' देवदारु, कूट, सरल, इनकी लकडीसे ( उपरोक्त विधिसे जलाकर ) तैल निकाल सकते हैं । ४० Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१४) कल्याणकारके कर्णरोगचिकित्सा का उपसंहार. इति प्रयत्नादिह विंशति स्थिताः । तथैवमष्टौ श्रवणामया मया। . प्रकीर्तितास्तेषु विशेषतो भिषक् । स्वयं विदध्याद्विधिमात्मबुद्धितः ॥२७॥ भावार्थः-इस प्रकार मैने अाईस प्रकारके जो कर्णरोग बतलाये हैं उनके दोषादिकोंको विचारकर बुद्धिमान् वैद्य अपनी बुद्धिसे उनकी चिकित्सा प्रयत्न के साथ करें ॥ २७ ॥ अथ नासारोगाधिकारः। नासागतरोगवर्णन प्रतिज्ञा. अथात्र नासागतरोगलक्षणैः । चिकित्सितं साधु निगद्यतेऽधुना । विदार्य तन्नामविशेषभैषज- । प्रयोगसंक्षेपवचेििवचारणैः ॥२८॥ भावार्थ:-अब यहांपर नाक के रोगोंका नाम, उनका लक्षण, योग्य औषधियोंका प्रयोग व चिकित्सा क्रमआदि संक्षेपसे कहा जाता है ॥ २८ ॥ पीनसलक्षण व चिकित्सा. विदाहधमायनशोषणद्रव-नवेत्ति नासागतगंधजातकम् ॥ कफानिलोत्थोत्तमपनिसामयं । विशोधयेद्वातकफघ्नभैषजैः ॥२९॥ भावार्थ:-जिसकी नाकमें दाह, धूवेके समान निकलना, सूखजाना व द्रव निकलना एवं सुगंध दुर्गंध का बोध न होना, कफ व वातके विकारसे उत्पन्न पीनस नामक रोगका लक्षण है उसको वात व कफहर औषधियोंसे शुद्ध करना चाहिये ॥ २९ ॥ पूतिनासा के लक्षण व चिकित्सा. विदग्धदोषैर्गलतालुकाश्रितै- । निरंतरं नासिकवायुरुद्धतः । सपूतिनासां कुरुते तथा गलं । विशोधयेत्तच्छिरसो विरेचनैः ॥ ३०॥ . भावार्थ:--प्रकुपित पित्तादि दोषों से वायु संयुक्त होकर जब गला, व तालुमें आश्रित होता है तो, नाक व गले अर्थात् मुंह से दुगंध वायु निकलने लगता है ____ अट्ठाईस प्रकारके कर्णरोग:-कर्णशूल, कर्णनाद बाधिर्य, श्वेड, कर्णनाव, कर्णकण्ट्र, कर्णगूथ, कृमिकर्ण प्रतिनाह, कर्णपाक, पूर्तिकर्ण, दोषज, क्षतज, इस प्रकार द्विविध विद्रधि, वाताश पित्ताश, क.फार्श, सन्निपार्श, इस प्रकार जुतुर्विध अर्श. बातार्यद, पित्तार्बुद कफार्बुद रक्तार्बुद, मांसार्बुद, मेदोऽर्बुद, शालाक्यतत्रोक्त ( अक्षरोग विज्ञान में कहागया ) सन्निपार्बुद, इस प्रकार सप्तविध अर्बुद, वातज, पित्तज, कफज, सान्निपातज इस प्रकार चतुर्विध शोथ ये अष्ठाईस कर्णरोग हैं। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३१५) इसे पूतिनासा (पूतिनस्य) रोग कहते हैं। इसमें गले को एवं शिरोविरेचन औषधियोंसे शिरको, शुद्धि करना चाहिये ॥ ३० ॥ नासापाक लक्षण व चिकित्सा. ..अरूंषि पित्तं कुपितं स्वनासिका- । गतं करोत्येवमतो हि नासिका ॥ विपाकरोग समुपाचरेद्भिषक् । क्षतद्रवैः पित्तविसर्पभेषजैः ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-प्रकुपित वित्त, नाकमें ( जाकर ) उतरकर फुसीको उत्पन्न करता है (एवं नाकके भीतरका भाग पकजाता है) इसे नासापाक रोग कहते हैं । इसकी, क्षतरोग के लिये उपयुक्त द्रव व पित्तविसर्परोगोक्त औषधियोंसे चिाकमा करनी चाहिये ॥३१॥ पूयरक्त लक्षण व चिकित्सा. - ललाटदेशे क्रिमिभाक्षितक्षतैः । विदग्धदोषरभिघाततापि वा ॥ सपूयरक्तं स्रवतीह नासिका । ततश्च दुष्टवणनाडिकाविधिः ॥ ३२ ॥ भावार्थ:--ललाट स्थानमें कीडोंके खाजानेके घायस प्रकुपित दोषोंके कारणसे अथवा चोट लगनेसे नाकसे पूय ( पीब ) सहित रक्तस्राव होता है इसे, पूयरक्त रोग कहते हैं । इसमें दुष्टत्रण ( दूषित जखम ) व नाडीव्रण में जो चिकित्सा विधि बतलाई है उस ही चिकित्साका प्रयोग करना चाहिये ॥ ३२ ॥ दीप्तनासा लक्षण व चिकित्सा. सरक्तपित्तं विहितक्रमर्जयेत् । प्रदीप्सनासामपि पित्तकोपतः । महोष्णनिश्वासविदाहसंयुता- । मुपाचरेत्पित्तचिकित्सितैर्बुधः ॥ ३३॥ भावार्थ:-पित्तके प्रकोपसे, नाकमें अत्यधिक जलन होती है, और गरम (धूवांके सदृश ) निश्वास निकलता है इसे दीतनासा रोग कहते हैं । इस रोगका रक्तपित्त व पित्तनाशक चिकित्सा क्रमसे उपचार करना चाहिये ॥ ३३ ॥ क्षषथु लक्षण व चिकित्सा. स्वानासिकामर्मगतोऽनिलोभृशं । मुहुर्मुहुश्शद्वमुदीरयत्यतः। स एव साक्षात्क्षवथुः प्रजायते । तमत्र तीक्ष्णैरवपीडनैर्जयेत् ॥ ३४ ॥ . भावार्थ:- नासिका के मर्मस्थानमें गया हुआ वात प्रकुपित होकर बार २ कुछ २ शब्द करते हुए नाकसे बाहर निकल आता है तो वहीं साक्षात् क्षवथु [छींक] बन जाता है। अर्थात् उसे क्षबथु कहते है। उसे अतितीक्ष्ण अवपीडन या नस्य के द्वारा उपशमन करना चाहिये ! ३४ ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • कल्याणकारके आगंतुक्षवथुलक्षण. सुतीक्ष्णचूर्णान्यतिजिघ्रतापि वा । निरीक्षणादुष्णकरस्य मण्डलम् | स्वनासिकांतस्तरुणास्थिघट्टनात् । प्रजायमानः क्षवथुर्विनश्यति ॥ ३५ ॥ ( ३१६ ) भावार्थ:- तीक्ष्ण चूर्णोको बार २ सूंघनेस, सूर्यमंडल को अधिक देखने से, एवं नाककी तरुण हड्डी को चोट लगने से उत्पन्न होनेवाली छींक को, आगंतु वधु कहते हैं । यह अपने आप ही नाश हो जाता है ॥ ३५ ॥ महाभ्रंशन लक्षण व चिकित्सा. ततो महाभ्रंशननामरोगतः । कफीतिसांद्रो लवणः समूर्धतः ॥ निरीक्ष्य तत्संशिरसोवपीडनै । विंशोधनैरक्रममर्मसंचितम् || ३६ || भावार्थ: - मस्तक के मर्मस्थान में पहिले संचित, [ सूर्य किरणों से पित्त के तेजसे तप्त होकर ] गांढा व खारा कफ, मस्तक से निकलता है इसे महाभ्रशन (श, प्रशशु ) रोग कहते हैं । इस को अवपीडन व विरेचन नस्य के प्रयोग से जीतना चाहिये || ३६॥ नासाप्रतिनाह लक्षण व चिकित्सा. उदानवातोतिकफप्रकोपत- । स्सदैव नासाविवरं वृणोति यत् ॥ तमाशुनासाप्रतिनाहसंयुतैः । सुधूमनस्योत्तरवस्तिभिर्जयेत् ॥ ३७ ॥ भावार्थ::- उदानवात कफके अत्यंत प्रकोपसे नासारंध्र में आकर भरा रहता है । अर्थात् नासा रंध्रको रोक देता । इसे नासा प्रतिनाह कहते हैं । इसको शीघ्र धूम, नस्य व उत्तरबस्ति किंवा उत्तमांगबस्तियों के प्रयोगसे जीतना चाहिये ॥ ३७ ॥ नासापरिस्राव लक्षण व चिकित्सा. अहर्निशं यत्कफदोषकोपतः । स्त्रवत्यजस्रं सलिलं स्वनासिकाम् || ततः परित्राविविकारिमूर्जितां । जयेत्कफघ्नौषधचूर्णपीडनैः ॥ ३८ ॥ भावार्थ:- रात दिन कफदोषके प्रकोप से नाकसे पानी निकलता रहता है उसे नासा परिस्राविरोग कहते हैं । उसे कफहर औषधि व अवपीडन, नस्य आदिसे जीतना चाहिये || ३८ ॥ नासापरिशेोष लक्षण व चिकित्सा. कफोतिशुष्कोधिकपित्तमारुतैः । विशेोषयत्यात्मनिवासनासिकां ॥ ततोत्र नासापरिशेोषसंज्ञितं । जयेत्सदा क्षीरसमुत्थसर्पिषा ।। ३९॥ . Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३१७) भावार्थ:--अधिक पित्त व वातके कारणसे कफ एकदम सूखकर अपने निवास स्थान नासिकाको भी एकदम सुखा देता है । उसे नासा परिशोष रोग कहते हैं। उसे दूधसे निकाले हुए घृतसे चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ३९ ॥ नासागत रोग में पथ्य. हितं सनस्यं घृतदुग्धपायसं । यदेतदुक्लैदकरं च भोजनम् ॥ समस्तनासागतरोगविभ्रमान् । जयेद्यथोक्ताधिकदोपभैषजैः ॥४०॥ ... भावार्थ:-नासारोगोमें नस्य प्रयोग व भोजनमें घृत, दूध, पायस ( खीर) व उत्क्लेद कारक पदार्थोंका उपयोग करना हितकर है । और जिन दोषोंका अधिक बल हो उनको देखकर वैसे ही औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये । इससे नासागत समस्त रोग दूर होजायेंगे ॥ ४० ॥ ___ सर्वनासारोग चिकित्सा. शिरोविरेकैः शिरसश्च तर्पणैः । सधूमगंडूषविशेषलहनैः । कटूष्णसक्षारविपक्क सत्खलै-- । रुपाचरेत् घ्राणमहामयादितम् ।। ४१ ॥ भावार्थ:-शिरोधिरेचन, शिरोतर्पण, धूम, गण्डूष (कुल्ला ) लेहन, इनसे व कटु, उष्ण, क्षार द्रव्योंसे पकाया हुआ खल, इनसे नासारोगसे पीडित रोगीकी चिकित्सा करें ॥ ४१ ॥ नासार्श आदिकोंकी चिकित्सा. अथार्बुदार्शोधिकशोफनामका- 1 विनाशयेत्तानपि चोदितौषधैः ॥ यदेतदन्यच्च विकारजातकं । विचार्य साध्यादि भिषाग्विशेषवित् ॥४२॥ भावार्थः ---इसी प्रकार नासागत अर्बुद, अर्श, शोफ आदि रोगोंकी भी पूर्व कथित औषधियोंसे चिकित्सा करें । इनके अतिरिक्त नाकमें अन्य कोई भी रोग उत्पन्न हो उनकी दोषबल आदिकोंको देखकर कुशल वैद्य साध्यासाध्यादि विचार कर चिकित्सा करें ॥ ४२ ॥ नासारोगका उपसंहार व मुखरोग वर्णन प्रतिज्ञा. इति क्रमात्त्रिंशदिहकसंख्यया । प्रकीर्तिता घ्राणगता महामयाः॥ 2. अतो मुखोत्थाखिलरोगसंचयान् । ब्राम्यशेषाकृतिनामलक्षणः ॥ ४३॥ भावार्थ:-- इस प्रकारसे ३१ प्रकारसे नासागत महारोग कहे गये है। उनका निरूपण कर अब मुखगत समस्त रोगोंको, लक्षण व नामनिर्देशके साथ कहेंगे ॥ ४३॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( -३१८ ) कल्याणकारके अथ मुखरोगाधिकारः मुखरोगों के स्थान. मुखे विकारायतनानि सप्त तत् । यथा तथोष्ठौ दशना सजिह्वया || स्वदंतमूलानि गलः सतालुकः । प्रणीतसर्वाणि च तेषु दोषजाः ॥ ४४ ॥ भावार्थ:- मुखमें व्याधियोंके आधारभूत स्थान सात बतलाये गये हैं । जैसे कि दो ओठ, दांत, जिह्वा, दं. मूल, गला, ताल, इस प्रकार सात हैं । उन सबमें दोषज विकार उत्पन्न होते हैं ॥ ४४ ॥ अष्टविध ओष्ठ रोग. पृथक् समस्तैरिह दोषसंचित- । रसृग्विमिश्रैरभिघाततोपि वा ॥ समांसमेदोभिरिहाष्टभेदतः । सदोषकोपात्प्रभवति देहिनां ॥ ४५ ॥ भावार्थ:-- बात, पित्त, कफ, सन्निपात, रक्त, अभिघात, मांस व मेदा इनके विकार से प्राणियों के ओठमें आठ प्रकारके रोगोंकी उत्पत्ति होती है ॥ ४५ ॥ वातपित्त, कफज, ओष्ठ रोगों के लक्षण. सवेदनौ रूक्षतरातिनिष्ठुरौ । यदैवमोष्ठौ भवतस्तु वातजौ || सदाहपाकौ स्फुटितौ च पित्तज गुरू महांतौ कफतोतिपिच्छिलो ॥४६॥ भावार्थ:- दोनों ओंठ वेदनासहित अत्यंत रूक्ष व कठिन होते हैं उन्हे वातज विकारसे दूषित समझें । जब उनमें दाह होता हो और पक गये हो एवं फूट गये हों उस समय पित्तज विकारसे दूषित समझें । बडे व भारी एवं चिकने जिस समय हों उस समय कंफज विकारसे दूषित समझें ॥ ४६ ॥ सन्निपात रक्तमांस मेदोत्पन्न ओष्टरोगोंके लक्षण. समस्तलिंगाविह सन्निपातजा - । वसृक्प्रभूतौ स्रवतोऽतिशोणितौ ॥ स्थिरावतिस्थूलतरौ च मांसजौ । वसाघृतक्षौद्रनिभौ च मेदसा ॥ ४७ ॥ भावार्थ:- उपर्युक्त समस्त ( तीन दोषोंके ) चिन्ह जिसमें पाये जाय उसे सन्निपातज ( ओष्ठ रोग ) समझें । रक्त विकारसे उत्पन्न ओष्ठ रोग में ओठोंसे रक्तस्राव होता है | जब स्थिर व अत्यंत स्थूल ओंठ हो तो मांसज समझे । चरत्री, घी, व मधुके समान जब ओंठ हो जाते हैं उसे मेदोविकार से उत्पन्न समझें ॥ ४७ ॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः (३१९) सर्वओष्ठरोग चिकित्सा. दलत्स्वरूपावतिशोफसंयुता- 1 विहाभिघातप्रभवामरौ गतौ ॥ यथाक्रमाद्दोषचिकित्सितं कुरु । प्रलेपसंस्वेदनरक्तमोक्षणैः ॥ ४८ ॥ भावार्थ:-आठों में चोट लगनेसे चिरजाये एवं अधिक सूजनसे संयुक्त हो तो उसे अभिवातज ओष्ठरोग समझें । इस प्रकार क्रम से जो ओष्ठरोगोंका वर्णन किया है उनको तत्तदोषोपशामक औषधियोंके प्रयोगसे, लेपन, स्वेदन व रक्तमोक्षण आदि विवियोंसे ( जहां जिसकी जरूरत पडे ) चिकित्सा करें ॥ १८ ॥ इहोष्ठकोपान्वृषवृद्धिमार्गतः । प्रसादयेद्ग्रंथिचिकित्सितेन वा ॥ निशातशस्त्रौषधदाहकर्मणा । विशेषतः क्षारनिपातनेन वा॥४९॥ भावार्थ:---उपर्युक्त ओष्ठविकारों की वृषण वृद्धिकी चिकित्सा क्रमसे अथवा प्रधिरोगकी चिकित्सा क्रमसे या शस्त्रकर्म औषधप्रयोग व दाह क्रियासे या विशेषतः क्षार प्रयोगसे चिकित्सा करके ठीक करना चाहिये ॥ ४९ ॥ दंतरोगाधिकारः । अष्टविध दंतरोग वर्णन प्रतिक्षा व दालनलक्षण. अथाष्टसंख्यान् दशनाश्रितामयान् । सलक्षणस्साधुचिकित्सितैब्रुवे ॥ विदारयंतीव च दंतवेदना । स दालनो नामगदोऽनिलोत्थितः ॥ ५० ॥ भावार्थ:--अब आठ भेदसे युक्त दंतरोगका लक्षण व चिकित्सा को कहेंगे। दंतका विदारण होता हो जैसी वेदना जिसमें होती हो वह वात विकारजन्य दालन नामक दंत रोग है ॥ ५० ॥ कृमिदतलक्षण. यदा सितच्छिद्रयुतोतिचंचलः । परिस्रवान्नित्यरुजोऽनिमित्ततः ॥ स कीटदन्तो मुनिभिः प्रकीर्तित- । स्तमुद्धरेदाशु विशेषबुद्धिमान् ॥५१॥ भावार्थ:--जिस समय दांतोमें काली छिद्र सूराक हो जाय दांत अत्यधिक चंचल हो, उन में से पूय आदिकासाव होता हो विना विशेष कारण के ही, हमेशा पीडा होती हो, इसे मुनीश्वरीने वृमिदंत कहा है । इस कृमिदंत को बुद्धिमान वैद्य शीन ही उखाड देवें । क्यों । औषधियोसे यह ठीक नहीं हो पाता ।। ५१ ॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२०) कल्याणकारके दंतहर्षलक्षण. यदा च दंता न सहति संततं । विचवितुं सर्वमिहोष्णशीतजं ॥ स दंतहर्षा भवतीह नामतः । सवातजः स्पर्शविहीनदोषजः ॥ ५२ ॥ भावार्थ:-जब दातोंसे उष्ण, शीत गुणयुक्त किसी भी चीजको चावने को नहीं बनता है उसे दंतहर्ष रोग कहते हैं । यह प्रकुपित वात, पित्त से उत्पन्न होता है ॥ ५२ ॥ - भंजनक लक्षण. मुखं सबकं भवतीह देहिनां । सदंतभंगश्च महातिनिष्ठुरः ॥ त्रिदोषजो भंजनको महागदः । स साधनीयस्त्रिविधौषधक्रमः ॥ ५३ ॥ भावार्थ:- जिस में मनुष्यों के मुख वक्र होता हो, और दांत भी टूटने लगते हैं उसे दंतभजनक रोग कहते हैं । यह त्रिदोषज, एवं भयंकर महारोग हैं। उसको त्रिदोषनाशक औषधिप्रयोग से साधना चाहिये ॥ ५३ ॥ दंतशर्करा, कापालिका लक्षण. घनं मलं दंतघुणावहं भृशं । सदैव दंताश्रितशर्करा मता । कपालवा स्फुटितं स्वयं मलं । कपालिकाख्यं दशनक्षयावहम् ॥ ५४ ॥ भावार्थ:-दंतगत मल ( उनको साफ न करनेसे ) सूखकर गाढा हो जाता है, रेत के समान खरदरास्पर्श मालूम होने लगता है और वहीं दांतके घुनने को कारण होजाता है। इसे दंतशत रोग कहते है । दांत का मल ( उपरोक्त शर्करा) अपने आप ही, टीकरी के समान फूटने लगता है इसे कापालिका रोग कहते हैं। इससे दांत का नाश होजाता है ॥ ५४॥ श्यामदंतक हनुमोक्ष लक्षण. सरक्तपित्तेन विदग्धदंतको । भवेत्सदा श्यामविशेषसंज्ञितः ॥.. । तथैव केनापि विसंगते इनौ । हनुप्रमोक्षोऽर्दितलक्षणो गदः ॥५५॥ भावार्थ:-- रक्त पित्तके प्रकोप से दांत विदग्य होजाते हैं । उसे श्यामक रोग कहते हैं । इससे दांत काले व नीले हो जाते हैं। इसे श्यामदंतक रोग कहते हैं । वातीद्रेकसे चोट आदि लाने से हनुसंधि (टोढी) छूट जाती है चलायमान होती है। इस हनुमोक्ष व्याधि कहते हैं । इस में अर्दितरोगके लक्षण मिलतें हैं ॥ ५५॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। AAAAN क्रियामिमां दंतगलामयेष्विह । प्रयोजयेद्दोषविशेषभेषजैः। चलंतमुद्यच्छुषिराख्यदंतकं । समुद्धरेन्मूलमिहाग्निना दहेत् ॥५६॥ भावार्थ-दंत व गल रोगोमें उनके दोषोंको विचारकर योग्य औषधियों का प्रयोग करना चाहिये। जिसमें शुपिरदन्तक नामक रोग होकर दांत हिलता हो उसमें दांत को उखाडकर दंतमूल को अग्निसे जलादेवें ॥ ५६ ॥ देतहर्ष चिकित्सा. स्वदंतहर्षेपि विधिविधीयते । महानिलघ्नाधिकभेषजान्वितः ॥ हितं च मुस्निग्धसुखोष्णभोजनं । घृतस्य भुक्तोपरि पानमिष्यते ।।५७॥ भावार्थ:-दंतहर्ष रोगमें विशेषतया वातनाशक औषधियोंके प्रयोगसे चिकित्सा की जाती है । उसके लिए स्निग्ध (घृत, तैल, दूध आदि ) व सुखोष्ण भोजन करना हितकर है व भोजनानंतर घृतपान करना चाहिये ॥ ५७ ॥ दंतशर्करा कापालिका चिकित्सा. स दंतमूलक्षतमावहन् भृशं । समुद्धरेदंतगतां च शर्कराम् ॥ . कपालिकां कृच्छूतरां तथा हरेत् । सुखोणतैलैः कवलग्रहैस्तयोः ॥५८॥ ' भावार्थ:-दांतोंके मूलमें जखम न हो इस प्रकार दांतोंमें लगी हुई शर्करा को निकाल देवे। कष्टसे साध्य होनेवाली कापालिका को भी निकाले । एवं इन दोनोंमे अल्प गरम तैलसे, कवल धारण करावें ॥ ५८ ।। हनुमोक्ष-चिकित्सा. ततो निशायुक्तकटुत्रिकान्वितैः । ससिंधुतैलैः प्रतिसारयेद्भिषक् ॥ । हनुप्रमोक्षार्दितवाद्विधीयता- । मितोऽत्र जिहामयपंचके तथा ॥ ६९ ॥ भावार्थ:-इस के बाद, हलदी, सोंठ, मिरच, पीपल, सेंधानमक तैल इन को दांतोपर प्रतिसारणा करें[बुरखें ] । हनुमोक्ष दंतरोग की अदितवात के अनुसार चिकित्सा करें । अब यहां से आगे पांच प्रकार के जिह्वा रोगोंका वर्णन करेंगे ॥ ६९ ॥ जिव्हागत पंचविधरोग. त्रिभिस्तु दोषरिह कंटकाः स्मृताः । स्ववेदनाविष्कृतरूपलक्षणाः ।। ततो हरिद्रालवणैः कटुत्रिकै- । विघर्षयेत्तैलयुतमरुत्कृतान् ॥ ६० ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२२) कल्याणकारक भावार्थ:-प्रकुपित वात, पित्त व कफसे जिव्हाके ऊपर कांटे के समान अंकुर उत्पन्न होते हैं । दोषों के अनुसार प्रकट होनेवाली वेदना व लक्षण से युक्त होते हैं। हलदी, सेंधालोण, त्रिकटु व तेल मिलाकर उसे घर्षण करना चाहिये । ६० ॥ वातपित्तकफजजिह्वारोग लक्षण व चिकित्सा. विघृष्य पौरपहत्य शोणितं । सशीतलैरुष्णगणैर्घतप्लुतैः ॥ मसारोपित्तकृतोरुकंटकान् । कटुत्रिकैमूत्रगणैः कफोत्थितान् ॥६१॥ भावार्थ:-पित्तज विकारसे उत्पन्न कंटकों में पहिले खरदरे पत्रोंसे जिव्हाको घिसकर रक्त निकालना चाहिये । तदनंतर शीतल व उष्णगणोक्त औषधियों को घी में भिगोकर उसपर लगाना चाहिये । कफके विकारसे उत्पन्न कंटकोंमें त्रिकटु को मूत्र वर्गसे मिलाकर लेपन करना चाहिये ॥ ६१ ॥ जिव्हालसकलक्षण. रसेंद्रियस्याधरशोफमुन्नतं । बलासपित्तोत्थितमल्पवेदनम् । वदंति जिहालसकाख्यमामयं । विपकदोषं रसनाचलत्वकृत् ॥६२॥ भावार्थ:---कफ व पित्तके विकारसे रसना इंद्रिय (जीभ) के नीचे का भाग अधिक सूज जाता है। किंतु वेदना अल्प रहती है । उसे जिह्वालसक रोग कहते हैं। इसमें दोषोंका विपाक होनेपर ( रोग बढजाने पर ) जीभ हिलाने में नहीं आती ॥६२॥ जिह्वालसक चिकित्सा. विलिख्य जिहालसकं विशोध्य तत् । प्रवृत्तरक्तं प्रतिसारयेत्पुनः । ससर्षपैस्सैंधवपिप्पलीवचा-पटोलनिबैततैलमिश्रितैः ।। ६३ ॥ भावार्थ:-जिह्वलसक को लेखन (खुरच ) कर जब उस से रक्त की प्रवृत्ति होवें तब अच्छी तरह से शुद्ध करना चाहिये । विलेखन कर उस से निकले हुए अर्थात रक्तका शोधन करना चाहिये तदनंतर सरसों, सेंधालोण, पीपल, वचा, परबलके पत्ते, नीम इनको घी तेल में मिलाकर उस में लगाना चाहिये ॥ ६३ ॥ उपजिव्हालक्षण. अधस्समुन्नभ्य रसेंद्रियं भृशं । तदग्ररूपं कफरक्तशोफकम् । अजस्र लालाकरकण्डुरान्वितं ब्रुवांत साक्षाादुपनितिकामयम् ॥ ६४ ॥ भावार्थः---जीभ को नीचे नमाकर, जिव्हाके अप्रभाग के समान ( जीभ के आगे का हिस्सा जैसे देखने में आवे ) कफ व रक्त के प्रकोप से, सूजन उत्पन्न होती Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३२३) हैं । हमेशा उस से लार निकलने लगती है और खुजली युक्त होता है । इसे उपजिव्हा रोग कहते हैं ॥ ६४॥ उपजिव्हा चिकित्सा. तमत्र निहालसवत्प्रसारये- । च्छिरोविरेकैः कवलग्रहस्सदा ॥ तथान पंचादशदंतमूलजान् । सलक्षणान् साधुचिकित्सितान्ब्रुवे ॥६५॥ 'भावार्थः- उस उपजिविकाको जिह्वालसक रोगके समान ही औषधियोंसे बुरखना चाहिये एवं सदा शिरोविरोचन व कवल धारण द्वारा उपचार करना चाहिये । अब दंतमूलमें उत्पन्न होनेवाले पदंह प्रकारके रोगोंके लक्षण व चिकित्साके साथ वर्णन करेंगे ॥६५॥ सीतोद लक्षण व चिकित्सा. स्रवेदकस्मादिह दंतवेष्टतः । कफास्त्रदोषक्षुभितातिशोणितम् ॥ गदोत्र शीताद इति प्रकीर्तित- । स्तमसमीक्षैः कवलैरुपाचरेत् ॥६६॥ भावार्थ:-अकस्मात् कफ रक्तके प्रकोपसे मसूडोंसे खून निकलने लगता है उसे सीतोद रोग कहते हैं । उसे रक्तमोक्षण व कवलधारणसे उपचार करना चाहिये ॥६६॥ दंतपुप्पट लक्षण व चिकित्सा यदा तु वृत्तः श्वयथुः प्रजायते । सदंतमूलेषु स दंतपुप्पंटम् । कफासगुत्थं तमुपाचरेभिषक् । सदामपकक्रमतो विचक्षणः ॥६७।। भावार्थ:-कफ व रक्त के उद्रेक से जब दंतमूलमें गोलाकार रूपमें सूजन होती है उसे दंतपुप्पट रोग कहते हैं । कुशल वैद्य को उचित है कि वह उसको आम पक्कादिक दशाको विचारकर चिकित्सा करें अर्थात् आमको विलयन, विदग्धको पाचन, व पक को शोधन रोपणसे चिकित्सा करें ।। ६७ ।। दंतवेष्टलक्षण व चिकित्सा. सपूतिरक्तं स्रवतीह वेष्टतो । भवंति देताश्च चलास्समंसतः ॥ सदंतवेष्टो भवतीह नामतः । स्वदुष्टरक्तस्रवणैः प्रसाध्यते ॥ ६८॥ १ सीतोद इति पाठांतरं ॥ २ दंतपुष्पकमिति पाठांतरम् ।। ३ याह सूजन दो अथवा तीनों ही दांतों के मूल में होती है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२४) कल्याणकारक .....भावार्थ:-मसूडों से दुगंध रक्त बहता है और दांत सब के सब हिलने लगते है उसे दंतवेष्ट नामक रोग कहते हैं । उसे दुष्ट रक्त के मोक्षणस जीतना चाहिये ॥६८ . सुषिरलक्षण व चिकित्सा. रुजाकरश्शोफयुतस्सवेष्टजो । बलासरक्तमभवः कफावहः ॥ .. भवेत्स्वनाम्ना मुषिरं तमामयं । रुजांजनैलॊध्रधनैः प्रसारयेत् ॥ ६९ ॥ भावार्थ:----कफ रक्त के प्रकोपसे मसूडो में पीडाकारक सूजन उत्पन्न होती है जिस से कफ का स्राव होता है । इसे सुषिर रोग कहते हैं । इस को, कूट, सुरमा लोध, नागरमोथा इन से बुरखना चाहिये ॥ ६९ ॥ महासुषिरलक्षण व चिकित्सा. पत्तति देताः परितः स्ववेष्टतः । विशयिते तालु च तीव्र वेदना ॥ भवेन्महाख्यस्सुपिरोरुसर्वजः । स साध्यते सर्वजितौषधक्रमैः ॥ ७० ॥ . भावार्थ:---दंतवेष्टनसे दंत गिरजाते हैं और तालु चिर जाता है। एवं अत्यंत वेदना होती है उसे महासुषिर नामक रोग कहते हैं । वह सन्निपातज है । उसके लिये तीनों दोषोंको जीतनेवाले औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये ॥ ७० ॥ परित्रदरलक्षण. विशीर्य मांसानि पतंति दंततो । बलासपित्तक्षतजोद्भवो गदः । असक्स निष्टीवति दुष्टचेष्टकः । परिस्रयुक्तो देर इत्युदीरितः ॥ ७१ ॥ भावार्थ:--जिस में दांतों के मांस ( मसूडे ) चिरकर गिरते हैं, दंतवेष्ट उनसे दूषित हो जाता है, दंतवेष्टों [मसूडों] से खून निकलता है वह कफपित्त व रक्त के प्रकोप से उत्पन्न है । इस रोगको परिस्र से युक्त दर अर्थात् परिस्रदर कहते हैं ॥११॥ उपकुशलक्षण. सदाहवेष्टः परिपकमेत्यसौ । प्रचालयत्युद्गतदंतसंततिम् । भवेत्स दोषो कुशनामको गदः । सपित्तरक्तप्रभवोतिदुःखदः ॥ ७२ ॥ भावार्थ:-पित्त रक्त के प्रकोप से, मसूडोंमें दाह व पाक होता है । फिर यही सब दांतोंको हिलाता है। उस में अत्यधिक दुःख होता है। उसे कुशनामक रोग कहते हैं ॥ ७२ ॥ १रद इति पाठांतर। www.jainelibran Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (३२५) चैदर्भ, खल वर्धन [ खल्ली वर्धन ] लक्षण. विघृष्यमाणेऽखिलदंतवेष्टके । महातिसंरंभकरोऽभिघातजः ॥ भवेत्स वैदर्भगदोधिदंतको । मरुत्कृतः स्यात्खलेवर्द्धनोऽतिरुक् ।। ७३ ।। भावार्थ:-सभी मसूडोंको रगडनेसे, उन में गहान् सूजन होती है [दांत भी हिलने लगते हैं ] इसे वैदर्भ रोग कहते हैं। यह अभिघात [चोट लगने से उत्पन्न होता है। वायु के कोप से, दांत के ऊपर दूसरा दांत ऊगता है और उस समय अत्यंत वेदना होती है। ( जब दांत ऊग आये तब पीडा अपने आप ही होती है ) इसे खलवर्धन [ खल्लीवर्धन ] रोग कहते हैं ॥ ७३ ॥ __अधिमांस लक्षण व चिकित्सा. .. हनौ भवत्पश्चिमदंतमूलज- । स्सदैव लालाजननोऽतिवेदनः ॥ .... महाधिमांसवयथुः कफोल्बण- स्तमाशु मांसक्षरणैः क्षयं नयेत् ॥७॥ भावार्थ:-हनु अस्थिके अंदर के बाजूमेंसे पीछे (अंतिम)के दांतके व मूल (मुसूडे) में कफके प्रकोपसे, लारका स्राव, अत्यंत वेदनायुक्त जो महान् शोथ उत्पन्न होता है उसे अधिमांस कहते हैं । इसको शीघ्रही मांसक्षरणके द्वारा नाश करना चाहिये ॥ ७४ ॥ दंतनाडी लक्षण व चिकित्सा. तथैव नाड्योऽपि च दंतम्रलजाः। प्रकीर्तिताः पंचविकल्पसंख्यया ॥ यथाक्रमादोषविशेषतो भिषक् । विदार्य संशोधनरोपणैर्जयेत् ॥ ७५ ॥ भावार्थ:--पाहेले नाडीव्रणके प्रकरणमें धात, पित्त, कफ, सन्निपात और आगंतुक ऐसे पांच प्रकारके नाडीवण बतलाये हैं । वे पांचों ही दंतमूर में होते हैं। इसे दंत नाडी कहते हैं । इनको दोषभेद के 3 नुसार विदारण, शोधन, रोपण आदि विधियों द्वारा चिकित्सा करके जीतना चाहिये ॥ ७५ ॥ दंतमूलगत रोग चिकित्सा. दृढातिशोफान्वितमूलमुष्मणा । प्रतशमाश्वस्रविमोक्षणैः सदा ॥ .. कषायतलाज्यकृतैः सुभेषजैः । स्मुखोष्णगण्डूषविशेषणैर्जयेत् ॥ ७६ ॥ भावार्थ:-कठिन सूजनसे युक्त उष्णसे प्रतप्त ( तपा हुया) दंतमलको, शीघ्र ही रक्तमोक्षण द्वारा उपचार करें । एवं कषाय, तैल, घृत इनसे सिद्ध श्रेष्ठ औषधियोंके गण्डूष धारण आदि विशेष क्रियाओंसे जीतना चाहिये ॥ ७६ ॥ . १ पलवर्द्धन इति पाठांतरं । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) कल्याणकारके उपकुश में गण्डूष व नस्य. सपिप्पलीसैंधव नागरान्वितैः । ससर्षपैस्सोष्णजलप्रमेलितैः ॥ सदैव गण्डूषविधिर्विधीयतां । धृतं स नस्येन फलेन (१) पूजितम् ॥७७॥ भावार्थ:- पीपल, सेंवालोण, सोंठ, सरसों इन को गरम जल में मिलाकर सदा गण्डूप धारण करना चाहिये एवं नव व काल धारण में [ मधुरोपत्र काकोल्यांदि गणसिद्ध] धृत का उपयोग करना चाहिये ॥ ७७ ॥ वैदर्भचिकित्सा. निशातशस्त्रेण विदर्भसज्ञितं । विशोधयेत्तदशन रुष्टकम् ॥ निपातयेत्सारमनंतरं ततः । क्रियास्शीताः सकलाः प्रयोजयेत् ॥७८॥ भावार्थ:-वैदर्भनामक रोग में दंतवेष्टगत शोध को, तीक्ष्ण शस्त्र से [ विदारण करके ] शुद्धि कर, क्षारपातन [ क्षार डालना ] करें । पश्चात् संपूर्ण शांतचिकित्सा . का उपयोग करना चाहिये ॥ ७८ ॥ aaर्धन चिकित्सा. अधाधिक दंतमिहोद्धरेत्तता । दहेच्च मूलं क्रिमिदंतवत्क्रियाम् ॥ विधाय सम्यग्विदधीत भेषजं । गलामयानां दश सप्तसंख्यया ॥ ७९ ॥ भावार्थ:- खलवर्धन में जो अधिक दांत आता है उसको निकाल डालना चाहिए दंतमूलको जलाना चाहिए । इस में किमिदंतक रोगके लिए जो क्रिया बताई गई है उन सत्रको करके योग्य औषधिद्वारा चिकित्सा करनी चाहिए । अब सत्रह प्रकार से गलरोगों का निरूपण करेंगे ॥ ७९ ॥ रोहिणी लक्षण. गलातिसंशोधनतत्परांकुरे । स्सदोपलिगैरुपलक्षिताः पृथक् ॥ पृथक्समस्तैरनिलादिभिस्तत- । स्तथासृजः स्यादिह रोहिणी नृणाम् ८० भावार्थ: वात, पित्त, कफ, रक्त के प्रकोप, एवं सन्निपात से, गलेको एकदम रोकनेवाले ( कांटे जैसे ) अंकुर ( गलेमें ) उत्पन्ने होते हैं, जो कि तत्तदोषोंके लक्षणोंसे संयुक्त हैं इसे रोहिणी रोग कहते हैं ॥ ८० ॥ १ उपरोक्त प्रकार पांच प्रकारले रोहिणी रोग होते हैं । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः। ( ३२५) रोहिणीके साध्यासाध्य विचार. स्वभावतः कृच्छ्रतरातिरोहिणी । स्वसन्निपातप्रभवा कफात्मिका ।। विवर्जयेद्या भिषजासृगुत्थिता । सुखेन साध्यात्र विधिविधीयते ॥८१॥ भावार्थ:--सर्व प्रकार के रोहिणी रोग स्वभावसे ही अत्यंत कष्टसाध्य होते हैं । उस में भी सन्निपातज, कफ व रक्तविकारसे उत्पन्न रोहिणीको वैद्य असाध्य समझकर कोडें । सुखसाध्य रोहिणी का चिकित्साक्रम आगे कहा जाता है ॥ ८१ ॥ . साध्यरोहिणीको चिकित्सा. सरक्तमोक्षः कवलग्रहः शुभैः । सधूमपानवमनाविलेहन : ॥ . शिरोविरेकैः प्रतिसारणादिभि । जयेत्स्वदोपक्रमतो हि रोहिणीम् ॥८२॥ भावार्थ:--दोषोंके बलाबलको विचार कर उनके अनुसार [ जहां जिसकी जरूरत हो ] रक्त मोक्षण, कबलग्रहण, धूमपान, वमन, लेहन, शिरोविरेचन, प्रति सारण [ बुरखना ] विधियोंसे रोहिणीकी चिकित्सा करें। ८२ ॥ कण्ठशालूक लक्षण व चिकित्सा. खरः स्थिरः कंटकसंचितः कफात् । गले भवः कोलफलास्थिसनिमः॥ सकंठशालंक इति प्रकीर्तितः । तमाशु शस्त्रेण विदार्य शोधयेत् ॥ ८३ ॥ भावार्थ:-कफके विकारसे कठोर, स्थिर, ब कंटकसे युक्त बेरके बीजके समान कंठमें एक ग्रंथि ( गांठ ) होती है उसे कंठशालूक रोग कहते हैं । उसे शीघ्र शस्त्रसे विदारण कर शोधन करना चाहिये ।। ८३ ॥ विजिव्हिका [ अधिजिव्हिका ] लक्षण. रसंद्रियस्योपरि मलसंभवां। गले मबद्ध रसनोपमांकरी॥ बलासरक्तमभवां विजिदिकां । विवर्जयेत्तां परिपाकमागतां ।। ८४ ॥ भावार्थ:--- कफ व रक्तके प्रकोपसे, जिव्हा ( जीभके ) के ऊपर व उसीके मूलमें गलेसे बंधा हुआ, और जीभके समान, जो ग्रंथि उत्पन्न होती है, इसे. विजिव्हिका (अधिजिव्हिका ) रोग कहते हैं । यदि यह ( विजिव्हिका ) पकजाय तो असाध्य होती है उसको छोडना चाहिये ।। ८४ ॥ .................................. १ तालूक इति पाठांतर Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) कल्याणकारके वलयलक्षण. कफः करोत्युच्छ्रितशोफमायतं । जलाग्नरोधादधिकं भयंकरम् || विवर्जयेत्तं वलयं गलामयं । विषामिशस्त्राशनिमृत्यु कल्पितम् ॥ ८५ ॥ भावार्थ:- कफ के प्रकोप से, गले में, ऊंचा और लम्बा शोथ [ ग्रंथि ] उत्पन्न होता है । जिससे जल अन्न आदि आहार द्रव्य गले से नीचे उतरते नहीं, इसी लिये यह अत्याधिक भयंकर है । इस का नाम वलय है । यह विष, अग्नि, शस्त्र, बिजली व मृत्यु के समान है। इसे असाध्य समझकर छोड़ना चाहिये ॥ ८५ ॥ मद्दालसलक्षण. कफानिलाभ्यां श्वयथुं गलोत्थितं । महालसाख्यं बहुवेदनाकुलम् || सुदुस्तरश्वासयुतं त्यजेद्र्बुधः । स्वममविच्छेदनमुग्रविग्रहम् ॥ ८६ ॥ भावार्थ:1:- कफवात के प्रकोप से गले में एक ऐसा शोध उत्पन्न होता है जो अत्यधिक वेदना व भयंकर श्वास से युक्त होता हैं । मर्मच्छेदन करनेवाली इस दुस्तर व्याधिको महारस (बलाश ) कहते हैं ॥ ८६ ॥ एकवृंद लक्षण. बलासरक्तप्रभवं सकंडुरं । स्वमन्युदेशे श्वयथुं विदाहिनं ॥ सुदुं गुरुं वृत्तमिहाल्पवेदनम् । तमेकवृंदं प्रविदार्य साधयेत् ॥ ८७ ॥ - भावार्थ:- :--कफरक्त के विकार से खुजली व दाह सहित कंठप्रदेशमें होनेवाला शोफ जो मृदु, गुरु, गोल व अल्प वेदनासहित है उसे एकवृंद कहते हैं । उसको विदारण कर चिकित्सा करनी चाहिए ॥ ८७ ॥ वृन्दलक्षण. गले समुत्थं श्वयथुं विदाहिनं । स्ववृत्तमत्युत्कटापित्तरक्तजम् ॥ समुन्नतं वृन्दमतिज्वरान्वितम् । भयंकरं प्राणहरं विवर्जयेत् ॥ ८८ ॥ भावार्थ:- गले में, गोल ऊंचा शोध उत्पन्न होता हैं जो कि दाह, तीव्र ज्वर से संयुक्त है, इस प्राणघातक, भयंकर व्याधिको वृन्द कहते हैं । यह असाध्य होता है, इसलिये इसे छोड देवें, चिकित्सा न करें ॥ ८८ ॥ शतनी लक्षण. सतोदभेदप्रचरांचितांकुरां । घनोन्नतां वर्तिनिभां निरोधिनीम् । त्रिदापेलिंगां गलजां विवर्जयेत् । सदा शतघ्नीमिह सार्थनामिकाम् ॥ ८९ ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३२९) भावार्थ:-तोदन भेदनादिसे युक्त, कठिन, उन्नत, तीनों दोषों के लक्षणों से संयुक्त ( त्रिदोषज ) गले को रोकनेवाला, बीके सदृश जो अकुंर उत्पन्न होता है इसे शतघ्नी कहते हैं । इसकी शतघ्नी ( कांटे से युक्त शस्त्रविशेष) के समान आकृति होनेसे इसका शतघ्नी नाम सार्थक है ॥ ८९ ॥ शिलातु (गिलायु ) लक्षण. · गलोद्भवं ग्रंथिमिहाल्पवेदनं । बलासरक्तात्मकमूष्मसंयुतम् ॥ विलग्नसिक्थोपममाशु साधय-। द्विदार्य शस्त्रेण शिलातुसज्ञिकम् ॥१०॥ भावार्थ:-कफरक्तके विकारसे उष्णतासे युक्त, अल्पवेदनासहित शिलातु नामक गलग्रंथि होती है । जिसके होनेसे, (भोजन करते समय) गलेमें अन्नका ग्रास अटकतासा मालुम पडता है । इसको शीघ्र विदारण करके चिकित्सा करनी चाहिये ।। ९० ॥ गलविद्रधि व ग़लौघलक्षण. स विद्रधिर्विद्रधिरेव सर्वजो । गले नृणां प्राणहरस्तथापरम् ॥ फफास्त्रगुत्थं श्वय) निरोधतो । गले गलौघं ज्वरदाहसंयुतम् ॥ ९१ ॥ भावार्थ:-मनुष्योंके कंठमें पूर्वोक्त विद्रधि के समान लक्षणोंसे युक्त सन्निपातज विधि होता है । वह मनुष्योंका प्राण अपहरण करनेवाला है। और दूसरा कफ रक्तसे उत्पन्न घर व दाहसे युक्त गल में महान शोथ उत्पन्न होता है। यह गलावरोध ( अन्नपानादिक व वायुसंचार को रोकता है) करता है इसलिये यह गलौघ काहलाता स्वरस्नलक्षण. बलाससंरुद्धाशिरामु मारुत-। प्रवृत्यभावाच्छसितश्रमान्वितं ॥ हतस्वरः शुष्कगलो विलग्नव- । द्भवेत्स्वरघ्नामयपीडितो नरः ॥१२॥ भावार्थ:-वायुका मार्ग कफस लिप्त होने से, वायुकी प्रवृत्ति नहीं होती है । इसलिये श्वास व परिश्रमसे युक्त होकर रोगीका स्वर बैठ जाता है, गला सूख जाता है, गलेमें आहार अटकतासा मालूम होता है । इस बातजन्य रोगको स्वरघ्न कहते हैं ॥९२॥ मांस रोग [ मांसतान लक्षण गले तनोति श्वयधु क्रमात् क्रमात् । त्रिदोषलिंगोच्छ्यवेदनाकुलम् ॥ समांसरोगाख्यगलामयं नृणां । विनाशकृत्तीनविषारगोपमम् ॥ ९३ ।। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) कल्याणकारके भावार्थ:-तीनों दोषोंके लक्षणोंको प्रकट करते हुए क्रम क्रमसे गले में शोफ बढता जाता है उसे मांसरोग कहते हैं। वह तीव्र विषैला सर्पके समान विनाश करनेवाला है ॥ ९३ ॥ गलामय चिकित्सा व तालुरोगवर्णनप्रतिज्ञा.. गलामयं छईननस्यलेपन- । प्रलेपगण्डूषविशेषरूपणैः।। जयेदतस्तालुगतामयांतरं । ब्रवीमि तल्लक्षणतश्चिकित्सितैः ॥ ९४ ।। ३, भावार्थ:-इस प्रकार गलगत रोगोंकी वमन, नस्य, लेपन, मलेपन, गण्डूष, श्रादि विशिष्ट प्रकार से चिकित्सा करनी चाहिए । अब तालुगत रोगोंका निरूपण लक्षण घ चिकित्सा के साथ करेंगे ॥ ९४ ॥ नव प्रकारके तालुरोग। गलशुंडिका [ गलशुंडी ] लक्षण. असूक्कफाभ्यामिह तालुमूलज । प्रवृद्धदीर्घायतशोफमुन्नतम् ॥ सकासतृष्णाश्वसनैः समन्वितम् । वदंति संतो गलशुडिकामयम् ॥१५॥ भावार्थ:--रक्तकफके विकारसे तालुके मूल में वृद्धिको प्राप्त, लम्बा, बडा व उन्नत शोफ होता है जो कि खसी, तृषा व श्वास से युक्त रहता है उसे गलशुद्धिका रोग कहते हैं ॥ ९५ ॥ जलशुडिका चिकित्सा व तुण्डिकेरीलक्षण व चिकित्सा. विभिद्य शस्त्रेण तमाशु साधयेत् । कदात्रिकैः कुष्ठकुटनटान्वितैः ॥ स दाहवृत्तोन्नतशाफलक्षणं । स तुण्डिकरीमपि खण्डयेब्दुधः ॥ ९६॥ भावार्थ:-गलशुडिको शीघ्र शस्त्रसे विदारण करके त्रिकटु, कूठ, शोनाफ इन औषधियोंसे (इनका लेप, गण्डूष आदि द्वारा) चिकित्सा करनी चाहिये । तालू में, दाह सहित गोल, उन्नत शोथ ( क.फ रक्त के प्रकोपसे ) उत्पन्न होता है । इस डिवेरी 'रोग कहते हैं । इसे जो भी विद्वान वैद्य भंदन आदिद्वारा चिकित्सा करें ॥ ९६ ॥ अध्रुष लक्षण व चिकित्सा. ज्वरातिदाहमचुरोऽति रक्तज- । स्सरक्तवर्णः श्वयधुर्मुदुस्तथा ॥ तं तालुदेशोद्भवमध्रुषं जयेत् । स शस्त्रकर्मप्रतिसारणादिभिः ॥ ९७ ॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३३१) andran " भायार्थ:--रक्तके तीन प्रकोप, ज्वर व अतिदाहसे युक्त लाल व मृदु शोथ, तालू में उत्पन्न होता है । इसे अध्रुष रोग कहते हैं। शस्त्रकर्म व प्रतिसारण आदि उपायोंसे उसकी चिकित्सा करें ॥९७ ॥ कच्छपलक्षण व चिकित्सा. स कच्छपः कच्छपवत्कफाद्भवेत् । सतालुशोफो विगतातिवेदनः॥ तमाशु विश्रम्य विशोधयेत्सदा । फलत्रिकट्यूषणतलेंसधैवः ।। ९८ ।। भावार्थ:-कफके विकारसे तालुपर कछवेके समान (आकारवाला ) शोथकी उत्पत्ति होती है। जिसमें अत्यधिक वेदना नहीं होती है ( अल्प वेदना होती है । इसे कच्छप रोग कहते हैं। उसे शीघ्र विश्रांति देकर हरड, बहेडा, आंवला, सोंठ, मिरच, पीपल, तैल व सेंधालवणके द्वारा शोधन करना चाहिये ॥९८!! रक्तावद लक्षण व मांससंघात लक्षण. स्वतालुमध्ये रुधिराव॒दं भवेत् । प्रतीत रक्तांबुजसप्रभं महत् ॥ तथैव दुष्टं पिशितं चयं गतं । स मांससंघातगलो विवेदनः ॥ ९९ ॥ भावार्थ:-रक्तके प्रकोपसे तालके मध्यभाग में प्रसिद्ध लाल कमल के कार्णकाके समान जो महान शोथ होता है इसे रक्तार्बुद रोग कहते हैं । ( जिसका लक्षण पूर्वोक्त रक्तार्बुदके समान होता है ) उसी प्रकार तालुके मध्य भागमें ( कफसे ) मांस दूषित होकर इक्कठा होता है व वेदनारहित है, इसे मांससंघात कहते हैं ।। ९९ ॥ तालुपुष्ण(प्प)ट लक्षण. अरुक् स्थिरः कोलफलोपमाकृति- । लासमेदः प्रभवोऽल्पवेदनः ॥ सतालुजः पुष्पटकस्तमामयं । विदार्य योगैः प्रतिसारयेत् भृशम् ॥१०॥ भावार्थ:-कफ व भेदके विकारसे तापें पीडारहित अथवा अल्पवेदना युक्त स्थिर, बेरके समान जो शोथ उत्पन्न होता है इसे तालुपुष्पक ( तालुपुष्पुट ) रोग कहते हैं। इसे विदारण कर, प्रतिसारणा करें ।। १०० ॥ तालु शोष लक्षण. विदार्यते तालु विशुष्यति स्फुटं । भवेन्महाश्वासगुतोऽतिरूक्षजः ॥ सतालुशोषो घृततैलमिश्रितैः । क्रियाः प्रकुर्यादिह वातपित्तयोः ॥१०१॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. कल्याणकारके भावार्थ:-अत्यधिक रूक्षसे, तालु फाटजाता है सूख जाता एवं महान् श्वास युक्त होता है। इसे तालुशोष रोग कहते हैं। इसमें बातपित्तनाशक घी व तैलसे. मिले हुए औषधियों द्वारा चिकित्सा करना चाहिये ॥ १०१ ॥ तालुपाक लक्षण. महोष्मणा कोपितपित्तमुत्कटं । करोति तालन्यातपाकमद्भुतम् ।। स तालुपाकः पठितो जिनोत्तमैः। तमाशु पित्तक्रिययैव साधयेत् ॥१०२॥ भावार्थः -अत्यधिक उष्ण पदार्थके उपयोगसे पित्त प्रकुपित होकर तालूमें भयंकर पाक उत्पन्न करता है । उसे जिनेंद्र भगवंत तालुपाक रोग कहते हैं। उसे पित्तहर औषधियोंके प्रयोगसे साधन करना चाहिये ॥ १०२॥ सर्घमुखगतरोगवर्णनप्रतिज्ञा. निगद्य तालुप्रभवं नवामयं । मुखेऽखिले तं चतुरं ब्रवीम्यहम् ॥ पृथग्विचारीति विशेषनामकं त्रिदोषनं सर्वसरं तथापरम् ॥ १०३ ॥ भावार्थ:-तालुमें उत्पन्न नष प्रकारके रोगोंका प्रतिपादन कर सम्पूर्ण मुखगत चार प्रकारके रोगोंका अब निरूपण करेंगे। उसमें एक विचारी नामक पृथक् रोग है। दूसरा सर्वसर नामक रोग है जो वात, पित्त व कफसे उत्पन्न होता है ॥ १०३॥ विचारी लक्षण। विदाहपूत्याननपाकसंयुतः । प्रतीनवानकटापत्तकोपजः॥ भवेद्विचारी प्रतिपादितो जिन- । महाज्वरस्सर्वगतो भयंकरः॥१०४ ॥ भावार्थ:--अत्यधिक पित्तके प्रकोप से संपूर्ण मुख में दाह, दुर्गंध, पाक, स्नायुप्रतान व महान ज्वर से संयुक्त जो शोथ उत्पन्न होता है। इसे श्रीजिनेंद्र भगवानने विचारी ( विदारी ) रोग कहा है । यह भयंकर होता है ॥ १०४ ॥ बातज सर्वलर [ मुखपाक ] लक्षण । सतोदभेदप्रचुरातिवेदनैः । सरूक्षविस्फोटगणैर्मुखामयैः ।। समन्वितस्सर्वसरस्सवातज- । स्तमामयं वातहरौषधैर्जयेत् ॥१०५ ।। भावार्थः-मुखमें तोदन, भेदन आदि से संयुक्त अनेक तरह की अत्यधिक fi.........mathi १ स्नायुप्रतानप्रमवः इति ग्रंथांतरे । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (३३३) पीडा से युक्त रूक्ष विस्फोट ( फफोले ) हों, इसे वातजन्य सर्वसैर ( मुखरोग ) कहते हैं इसको वातनाशक औषधियोंसे जीतना चाहिए ।। १०५ ॥ पित्तज सर्वसर लक्षण । स दाहपाकज्वरसंयुतैर्मुखं । सरक्तविस्फोटगणेचितं यदा ॥ स पित्तजः सर्वसरोऽत्र वक्त्रज- स्तमाशु पित्तघ्नवरौषधैर्जयेत् ॥१०६।। भावार्थ:-पित्तके प्रकोपसे दाह, पाकाज्यरसे संयुक्त, लाल चिरफोट [ फफोले ] मुखमें व्याप्त होते हैं इसे पित्तज सर्वसर [ मुखपाक ] कहा है । इसे शीघ्र ही पित्तनाशक श्रेष्ठ औषधियोंके प्रयोग से जीतना चाहिए ॥ १०६ ॥ कफज सर्वसर लक्षण | खरैस्सुशीतैरीतकण्डरैघनै-। रवेदनैः स्फोटगणैः सुपिच्छिलैः ।। .. चितं मुखं सर्वसरो बलासजः । फफापहस्तं समुपाचरेद्भिपक ॥ १०७ ॥ भावार्थ--परुष, शील, खुजलीयुक्त, कठिन, दर्दरहित, पिच्छिल (लिवलिवाहर) आदि जब मुखमें होते हैं उसे कफ विकारसे उत्पन्न सर्वसररोग समझें । उसकी कमहर औषधियों से चिकित्सा करें ॥ १०७ ॥ . सर्व सर्वसररोग चिकित्सा। सपित्तरक्तानखिलान्मुखामयान् । जयेद्विरकै रुधिरप्रमोक्षणैः ।। मरुत्कफोत्थान्वमनैः सुधूमकै-श्शिरोविरेकैः कवलः प्रसारणैः ॥ १०८॥ . भावार्थ:--पित्तरबल के विकारसे उत्पन्न, समस्त मुखरांगों को विरेचन व रक्तमोक्षण से चिकित्सा करनी चाहिये । वातकफ के विकारसे उत्पन्न मुख गंगोंको वमन, धूमपान, शिरोविरेनन, कवलग्रहण व प्रतिसारण से जीतना चाहिये ।। १०८ ।। मधूकादि धूपन वर्ति । - मधुकराजादननिबसेंगुदी । पलाशसैरण्डकमज्जमिश्रितैः ॥ '. सकुष्ठमांसीसुरदारुगुग्गुल । प्रतीतसर्जाकसारिवादिभिः ॥ १०९ ॥ सुपिष्टकल्कैः प्रविलिप्तपट्टकं । विवेष्ट्य वति वरवृत्तगर्भिणीम् ॥ विशोषितां प्रज्वलिताअधूमिकां विधाय वक्त्रं सततं मधूपयेत् ॥ ११० ॥ १ यह रोग, मुख, जिव्हा, गला, ओंट, मसूडे, दांत व तालु इन सात स्थानोंमें भी ब्यास होनेसे, इसको सर्वसर रोग कहा है । . .२ सदैव, शुभ इति पाठांतरं । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • (३३४) कल्याणकास्के भावार्थः-महुआ, खिरनी, नीम, हिंगोट, पलाश, एरण्ड इनकी मज्जा [गिरी] कूट, जटामांसी, देवदारु, गुग्गुल, राल, अद्रक, सारिवा इत्यादि को [घी के साथ ] अच्छीतरह पीसकर कल्क बनावें । फिर उस कल्कको कपडे में लेपन कर उसे गोल वेष्टन करें । उस बत्तीको सुखावें । सुखाने के बाद उसे जलावें । जलाकर ठीक धुंचे के ऊपर मुख रखकर धूप देना चाहिये ॥ १०९ ॥ ११० ॥ मुखरोग नाशक धूप. तथैव दंती किणिही सहिंगुदी । सुरेंद्रकाप्टैः सरलैश्च धृपयेत् ॥ सगुग्गुलुध्यामकमांसिकागुरु- । प्रणीतसूक्ष्मामरिचैस्तथापरैः ॥ १११॥ भावार्थ:-उसी प्रकार दंती, चिरचिरा, हिंगोट, देवदारु, धूप सरल इनसे बनाई हुई बत्तिसे भी धूपन-प्रयोग करना चाहिये, इसी प्रकार गुग्गुल सुगंधि तृण (रोहिस सोधिया) जटामासी, सूक्ष्मजटामांसी, अगुरु, मिर्च इन औषधियोंसे एवं इसी प्रकारके अन्य औषधियोंसे भी धूपन विधि करनी चाहिये ॥ १११ ॥ मुखरोगनाशक योगांतर अयं हि धूपः कफवातरोगनुत् । घृतेन युक्तः सकलान् जयत्यपि ॥ सदैव जातीकुसुमांकुरान्वितः । कषायगोमूत्रगणो मुखामयान् ॥ ११२ ॥ भावार्थ:-यह धूप कफवातके विकारसे उत्पन्न मुखरोगों का नाश करता है। यदि घृतंसे युक्त करें तो सर्व मुग्वरोगीको भी जीतता है । सदा जाईका फल व अंकुर से युक्त कषाय रस व गोमूत्रा, मुखगत समस्त रोगोंको दूर करता है ॥११२॥ श्रृंगराजादि तैल. मुझंगराराजामलकाख्यया रसं । पृथक् पृथक् प्रस्थमिदं संतैलकम् । पयश्चतुःप्रस्थपलं च यष्टिकं । पचेदिदं नस्यमनेकरोगजित् ॥ ११३ ॥ भावार्थ:-भंगराज ( भांगरा ) का रस एक प्रस्थ (६४ तोला ) आंबले का रस एक प्रस्थ, तिलका तैल एक प्रस्थ, गायका दूध चार प्रस्थ, मुलैठी (कल्कार्थ) १६ तोला, इन सबको मिलाकर तैल सिद्ध करें। इस तैल के नस्य देनेसे मुखसम्बंधी अनेक रोग नष्ट होते हैं ॥ ११३ ॥ ___ सहादितल. सहारिमंदामलकामयासनैः । कषायककै रजनीकटुत्रिकैः। विपकतैलं पयसा जयत्यलं । स नस्यगण्डूषविधानतो गदान् ॥११४॥ ... जनाकडात्रकैः Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३३५) भावार्थ:-रास्ना, अरिमेद ( दुर्गंध युक्त खर ) आमलक, हरड, विजयसार हलदी, त्रिकटु इनका कषाय व कल्क, दूध, इनके साथ पकाये हुए तैलको नस्य व गण्डूष विधानमें उपयोग करें तो वह अनेक मुखरोगोंको जीतता है ॥११४॥ सुरेंद्रकाष्टादि योग. सुरेंद्रकाष्ठं कुटजं सपाठां । सरोहिणीं चातिविषां सदंतिकां । पिबन समूत्रं धरणांशसीमतं । पृथक् पृथक्च्छे ष्पमुखामयान् जयत्।।११५ भावार्थ:-देवदारु, कूडाकी छाल, पाठा, कुटकी, अतिविपा, दंति ( जमालगोटे की जड ) इन औषवियोंको पृथक् पृथक २४ रत्ति प्रमाण गोमूत्रमें मिलाकर पीवे तो कफविकारस उत्पन्न मुखरोगोंका नाश होता है ॥ ११५ ॥ सर्व मुखरोग चिकिरसा संग्रह। किमुच्यते वक्त्रगतामयौषधं । कफानिलघ्नं सततं प्रयोजयेत् ॥ स नस्य गण्डूषविलेपसारण- । प्रधृपनोद्यत्कबलानि शास्त्रवित् ॥११६॥ भावार्थ:-मुखरोगके लिए औषधिको कहने की क्या जरूरत है । क्योंकि मुख में विशेषतया वात व कफसे रोग हुआ करते हैं । उनको वात व कफहर औषधि प्रयोगोंसे सदा चिकित्सा करें। शास्त्रज्ञ वैद्य नस्य, गण्डूष, विलेपन, सारण, धूपन, व कवलग्रहण इस उपायोंको भी काममें लेवें ॥ ११६ ॥ मुखरोगीको पथ्यभोजन | समुद्गयुषैः सघृतैस्सलावणैः खलैस्सयुषः कटुकौषधान्वितैः ॥ कषायतिक्ताधिकशाकसंयुतै- । रिहैकवारं लघु भोजनं भवेत् ॥११७ भावार्थ:-सुखरोगसे पीडित रोगीको, मुद्गयूष, घृत, लवण, खल, यूष, एवं कटुक औषधि इन से युक्त तथा कषाय व कडुआ शाकोंसे युक्त लघु भोजन दिनमें एक बार दना चाहेए ॥ ११७ ।। मुखगत असाव्यरोग। ति प्रयत्नाकथिता मुखाययाः । पडुत्तराः पष्ठिरिहात्मसंख्यया ॥ तस्तु तेष्वोष्ठगता विवास्त्रिदोषमांसक्षतजोद्भवास्त्रयः ॥ ११८ ॥ १ ग्रंथांतरमें कुटजफल । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके भावार्थ:-इस प्रकार छासठ ६६ प्रकार के मुखरोगों का वर्णन प्रयत्नपूर्वक किया गया है । उन पूर्वोक्त ओष्ठरोगों में त्रिदोष ( सन्निपात ) मांस, रक्त इनसे उत्पन्न ३ तीन ओष्ठ रोग छोडने योग्य हैं अर्थात् अचिकित्स्य है ।। ११८ ॥ दतगत असाध्यरोग। स्वदंतमूलेष्वपि वर्जनीयौ । त्रिदोषालिंगौ गतिशौपिरौ परौ ॥ तथैव दंतप्रभवास्ततोऽपरे । सदालनश्यामलभंजनैर्द्विजाः ॥ ११९ ॥ भावार्थः--दंतमुलज रोगोंमें तीनों दोषोंके लक्षणोंसे संयुक्त, अर्थात् तीनों दोषों से उत्पन्न नाडी व महाशोषिर ये दोनो रोग वर्जनीय है । एवं दंतोत्पन्न रोगों में दालन, श्यावदंत, भंजन ये तीन रोग असाध्य हैं ॥ ११९ ॥ रसनद्रिय, व तालुगत असाध्यरोग । कंठगत व सर्वगत असाध्य रोग रसेंद्रिये चाप्यलसं महागदं । विवर्जयेत्तालगतं तथार्बुद ॥ गले स्वरघ्नं वलयं संबृदम् । महालसं मांसचयं च रोहिणीम् ॥ १२० ॥ गलौघमप्युग्रतरं शतान्त्रिकं । भयप्रदं सर्वगतं विचारिणम् ॥ नवोत्तरान्वक्त्रगतामयान्दश । प्रयत्नतस्तान् प्रविचार्य वर्जयेत् ॥१२१॥ भावार्थ:-रसनेंद्रियज अलस नामक महारोग असाध्य है। तालुगत अर्बुद नामक रोग वर्जनीय है. कंठगत स्वरध्न, वलय, वृन्द. महालस, मांसचय मांसंतान रोहिणी, उग्रतर शतघ्नी, एवं सर्वमुख, गत, विचारी रोग को भी भयंकर असाध्य समझना चाहिये । इस प्रकार मुख में होनेवाले उन्नीस रोगों को वैद्य प्रयत्नपूर्वक अच्छी तरहसे विचार करके अर्थात् रोगका निर्णय करके, छोड देवें ॥ १२०||१२१ ॥ ___ अथ नेत्ररोगाधिकार. अतः परं नेत्रगतामयान्ब्रवी- । म्यशेषतः संभवकारणाश्रितान् ॥ विशेषतल्लक्षणतश्चिकित्सितानसाध्यसाध्यानाखिलक्रमान्वितान् ।।१२२।। भावार्थ:--- जब नेत्रगत समस्त रोगोंको उनके उत्पत्तिकारण, लक्षण चिकित्सा, साध्या साध्य विचार आदि बातों के साथ प्रतिपादन करेंगे ।। १२२ ॥ नेत्रका प्रधानत्व. मुख्यं शरीरार्द्धमथाखिलं मुखं । सुखेऽपि नेत्राधिकतां वदति तत् ॥ त्तथैव नेत्रद्वयहीन मानुष- । स्वरूपमानस्तमसावगुंठितः ॥ १२३ ॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । ( ३३७) भावार्थ:- मनुष्य के शरीर में मुख सारे शरीरका अर्धभाग समझना चाहिये क्योंकि मुख न हो तो उस शरीर की कोई कीमत नहीं है । अतएव [ अन्य अंगोंकी अपेक्षा ] मुख्य है । मुखमें भी अन्य इंद्रियों की अपेक्षा नेत्रका मूल्य अधिक है । क्यों कि यदि नेत्र न हो तो वह मनुष्य अंधकारसे घिरा हुआ एक वृक्षके समान है ॥ १२३ ॥ नेत्ररोग की संख्या, ततस्तु तद्रक्षणमेव शोभनं । यथार्थनेनेंद्रियबाधका शुभाः ॥ षडुत्तराः सप्ततिरेव संख्यया । दुरामयास्तान् समुपाचरेद्भिषक् ॥ १२४॥ भावार्थ:- इसलिये उस नेनेंद्रिय की रक्षा करनेमें ही शोभा हे अर्थात् हर तरहसे उस की रक्षा करनी चाहिये । यथार्थ में नेत्रेदियको बाधा देनेवाले, अशुभ, व दुष्ट छहत्तर रोग होते हैं । उनकी वैद्य बहुत विचारपूर्वक चिकित्सा करें ॥ १२४ ॥ नेत्ररोगके कारण. ૪૨ जलप्रवेशादतितप्तदेहिनः । स्थिरासनात् संक्रमणाच्च घमतः ॥ व्यवायनिद्राक्षतिसूक्ष्मदर्शना । जो विधूमश्रमवाप्पेनिग्रहात् ॥ १२५॥ शिरोतिरूक्षादतिरुक्षभोजनात् । पुरीषमूत्रानिलवेगधारणात् ॥ पलांडराजीलशुनाईभक्षणा- । द्भवंति नेत्रे विविधाः स्वदोषजाः ॥ १२६॥ भावार्थ:-- गरमी से अत्यंत तप्त होकर एकदम ( ठण्डा ) जलमें प्रवेश ( स्नान, पानी में डूबना आदि ) करने से, स्थिर आसन में रहने से, ऋतुओंके संक्रमण अर्थात् ऋतुविपर्यय होनेसे ( आंख में ) पसीना आने से, अथवा अत्यधिक चलनेसे, अति मैथुन से, निद्राका नाश होनेसे, सूक्ष्मपदार्थों को देखने से, धूली का प्रवेश व धूमका लगने से, अधिक श्रमसे, आसूंके रोकने से शिर अत्यंत रूक्ष होनेसे, अधिक रूक्षभोजनसे, मल, मूत्र, वायु इनके वेगोंको धारण करने से, प्याज, राई, लहसन, अदरख, इनके अधिक भक्षण से, नेत्राश्रित दोषों से उत्पन्न नानाप्रकार के रोग नेत्र में होते हैं ॥ १२५।१२६ ॥ नेत्र रोगोंके आश्रय । अतस्तु तेषां त्रिविधास्तथाश्रयाः । समण्डलान्यत्र च संघयोऽपरे ॥ भवंति नेत्र पटलानि तान्यलं । पृथक् पृथक पंच षडेव षट्पुनः ॥१२७॥ भावार्थ:-- उन नेत्र रोगों के नेत्रों में मण्डल, संधि, पटल ये तीन प्रकार के आश्रय हैं । और क्रमश: इन की संख्या [ पृथक् ] पांच छह और छह होता हैं । अर्थात् पांच मण्डल, छह संधि और छह पटल होते हैं ॥ १२७ ॥ " चंक्रमणाच्च' इति परे । २ विन्दुनात् इति पाठांतरं । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३८) । कल्याणकारके पंचमंडल षट संधि. स्वपक्षमवर्तीद्वय शुक्लकृष्णस- । द्विशेषष्ट्याश्रयमण्डलानि तत् ॥ द्वयोश्च संधावपि संधयस्ततः । कानिकापांगगता तथापरौ ॥ १२८ ॥ भावार्थ:-त्रों में पक्ष्म, वर्म, शुक्ल, कृष्ण, दृष्टि इस प्रकार ये पांच मंडल हैं। इनमें दो २ मंडलों के बीच में एक २ संधि है । इस प्रकार पांच मंडलोंके बीच में ४ संधियां हुई। पांचवी संधि, कनीन ( नाक के सांप ) में, छठी अपांग [ कनपटी के तरफ नेन की कोर ] में है ॥ १२८॥ . ... षट् पटल। . . . . इमे च साक्षात्पटले रववर्त्मनि । तथैव चत्वार्यपि चक्षुषः पुटम् ॥ भवेच्च घोरं तिमिरं च येषु तत् । विशेषतस्सर्वगतामयान्ब्रुवे ॥१२९॥ भावार्थ:--दो पटल ( परदे ) तो वर्ममें होते हैं । इसी प्रकार चार पटल नेत्र गोलक ( अक्षि ) में होत हैं । इही नेत्र गोलकके चार पटलोमें तिमिर नामक घोर व्याधि होती है । आगे सम्पूर्ण नेत्रगत रागोंके वर्णन विशेष रीतीसे करेंगे । १२९ ॥: अभिष्यंदवर्णनप्रतिज्ञा समस्तनेशामयकारणाश्रयान् । ब्रवीम्यभिष्यंदविशेषनामकान् ॥ विचार्य तत्पूर्णमुपक्रमं च त-- । द्विशेषदोषप्रभावाखिलामयान् ॥१३०॥ भावार्थ:-समस्त नेत्र रोगोंके कारण व आश्रयभूत तत्तद्विशेष दोषासे उत्पन्न, अभिष्मंद इस विशेष नामधारक, सम्पूर्ण रोगोंको कहते हुए, उनकी सम्पू:। चिकित्साको भी कहेंगे ।। १३० ॥ वाताभिष्यंद लक्षण. सतादभेदप्रचुरातिवेदना । विशेषपारुप्यसरोमहर्षणम् ॥ हिमाशुपातोऽशिशिराभिनंदनं । भवत्यभिष्यंद तदेव मारुतम् ॥ १३१ ॥ भावार्थ:-- जिस अक्षिरोग में, आंखोंमें तोदन भेदन आदि नाना प्रकारको अत्यंत वेदना, कडापन व रोमांच होता हो, टण्डी आसू ( जल ) गिरती हो ओर गरम उपचार अच्छा मालूम होता हो, इसे वाताभिष्यंद अर्थात बातोद्रेकसे उत्पन्न अभिप्यंद जानना चाहिये ॥ १३१ ॥ १ जैसे १ पक्ष्म और वर्ल्स के बीच में. २ वर्म और शुक्ल भाग ( सफद पुतली) के बीच में । ३ सफेद और काली पुतली के बीच में | ४ कालो पुतली और दृष्टि(तिल) के बीच में। २ व्यपोय इति पाटांतरं ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररीगाधिकारः (३३९) वाताभिष्यंद चिकित्सा. पुराणसर्पिः प्रविलिप्तमक्षित- । द्विशेषवातघ्नगणः श्रुतांबुना : सुखोष्णसंस्वेदनमाशु कारयेत् । प्रलेपयेत्तैरहिमैस्स सैंधवैः ॥ १३२ ॥ भावार्थ:--उस ( वाताभिप्यंद से पीडित आंख ) पर पुराने घीका लेपन करके वातनाशक गणोक्त औषधियोंसे पक अन्य उष्ण जलसे उसको अच्छी तरहसे स्वदन कराना चाहिये । उन्ही वातनाशक औषधियों में सेंधा नमक मिलाकर कुछ गरम करके उसपर लेपन करना चाहिये ॥ १३२ ॥ वाताभिप्यद में विरेचन आदि प्रयोग. । ततश्च सुस्निग्धतनुं विरेचयत् । सिराविमोक्षरपि बस्तिकर्मणा ।। जयेत्सनस्यैः पुटपाकतर्पणः । सुधूमनिस्वेदनपत्रबंधनैः ॥ १३३ ॥ भावार्थ:-इसके बाद रोगीको स्नेहन करके विरेचन कराना चाहिये । सिरा विमोक्ष व बस्तिकर्म भी करना चाहिये । एवं नस्यप्रयोग, पाक तैल तर्पण, धूमन, स्वेदन व पत्रबंधन आदि विधि करनी चाहिये ॥ १३३ ॥ विशेषः-तर्पण-जो नेत्रोंकी तृप्ति करता है उसे तर्पण कहते हैं। अर्थात् आंखोंके हितकारी औषधियोंके रस, घी आदिको ( रोगीको चित सुलाकर-) आंखों में डालकर कुछ देर तक धारण किया जाता है इसे तर्पण कहा है। पुटपाक-नेत्र रोगोंको हितकारी औषधियोंको पीसकर गोला बनावे । पश्चात् आम इत्यादि पत्तियोंको उस पर लपेट कर उसपर मिट्टीका लेप करे। इसके बाद कण्डोंकी अग्निसे उस गोले को ( पुट पाक की विधि के अनुसार ) जलावें । फिर उसकी मिट्टी व पत्तोंको दूर करके उस गोले को निचोडके रस निकाल ले और उसको सर्पण की विधि के अनुसार नेत्रोंमे डालें । इसे पुटपाक कहते हैं। पथ्य भोजनपान.. .. फलाम्लसंभारसुसंस्कृतैः खलैः । धृतैःश्रुतक्षारयुक्तैश्च भाजयेत् ॥ पिबेत्स भुक्तोपरि सौरभं घृतं । मुखोष्णमल्प तृषिती जलांजलिम् १३४ भावार्थ:---फल, आम्लसे युक्त, खट्टा फल, धनिया जीरा इत्यादिसे अच्छी तरह संस्कृत खल, तथा घीसे पका हुआ व दूधसे युक्त भोजन कराना चाहिये । भोजन करमेके ऊपर सुगंध घी [सौरभधृत], पिलाना चाहिये। यदि प्यास लगे तो थोडासा गरम जल पिलाना चाहिये ॥ १३४ ॥ १ सुरभिगायके दूधसे उत्पन्न घृत. Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४.) कल्याणकारके वाताभिष्यंदनाशक अंजन. समातुलुंगाम्लकसैंधवं घृतं । सतैलमेतद्वनितापयो युतम् ॥ २३ सनीलिक धृष्टमिदं सदंजनं । कटुत्रिकै पितमंजयेत्सदा ॥ १३५ ॥ भावार्थः- विजोरा निंबूका रस, सैंधालाण, तिल का तेल, स्त्री का दूध, नौली, इन को एकत्रा कर के ( ताम्रपान या पत्थर के पात्रा में ) अच्छी तरह पीसें और इस श्रेष्ठ अंजन को सेठ, मिरच, पीपल से धूप देकर हमेशा अजन करना चाहिये ॥ १३५॥ वाताभिष्यंदाचीकल्सोपसंहार. बिलोचनो दूतममत्कृतामयान् । प्रसाधयेत्प्रोक्तविधानताऽखिलान् । यथोक्तवातामयसच्चिकित्सित-। प्रणीतमार्गादथवापि यत्नतः॥१३६ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार वात से उत्पन्न संपूर्ण नेत्र रोगोंको पूर्वोक्त कथन के अनुसार चिकित्सा करके, ठीक करना चाहिये । अथवा वात रोगोंके लिये जो चिकित्सा पहिले बताई गई है उस क्रम से यत्नपूर्वक चिकित्सा करे ॥ १३६ ॥ पैत्तिकाभिष्यंद लक्षण. विदाहपाकमवलोमताधिक-। प्रबाष्पधमायनसोष्णवारिता ॥ तृषा घुभुक्षाननपीतभावता । भवत्याभिष्यंदगणे तु पैत्तिके ॥ १३७ ॥ भावार्थ:---आखोंमे दाह व अधिक उप्णता, पानी गिरना, धूवांसा उठना, अश्रुजल उष्ण रहना, अधिक भोजन की इच्छा होना, मुख पीला पडजाना आदि लक्षण पित्तकृत अभिष्यंद रोगमें पाये जाते हैं ॥ १३७ ॥ पैत्तिकाभिध्यचिकित्सा. घृतं प्रपाय प्रथम मृत्कृतं । विशाधयेत्तत्र शिरां विमोक्षयेत् ॥ । व्यहारच दुग्धोद्भव सर्पिषा शिरो-विरेचयेत्तर्पणमाशु योजयेत् ॥१३८॥ भावार्थ:--पित्ताभिष्यंदसे पीडित रोगीको प्रथम घृत पिलाकर (धृतसे स्नेहन कर ) शरीरको मृदु करके विरेचन देना चाहिये और सिरामोक्षण ( फस्त खोलना ) भी करना चाहिये । इसके तीन दिनके बाद दूधसे उत्पन्न ( दहीसे उत्पन्न नहीं ) घीसे शिरोविरेचन और तर्पणको शीघ्र प्रयोग करना चाहिये ॥ १३८ ॥ १ सयपृष्टमिष्टतः इति पाठांतर । २ किसीका ऐसा मत है कि रोगकी उत्पसिसे सीन दिनके बाद शिरोविरेचन आदि करना चाहिये । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । पित्ताभिष्यंदमें लेप व रसक्रिया. मृणालकल्हारकपद्मकोत्पल - । प्रधान दुग्यांघ्रिपश्रृंगिचंदनैः ॥ पयोनुपिष्टैः घृतशर्करायुतैः । प्रलेपयेत्तैर्वितरेद्रसक्रियाम् ।। १३९ ।। (३४१) भावार्थ:- कमलनाल, श्वेतकमल (कुमुदिनी ) पद्मकाष्ठ व नीलकमल, प्रवान पंच क्षीरीवृक्ष ( वड, मूलर, पीपल, पारिसपीपल, पावर ) शक्कर काकडासिंगी मिलाकर उसमें प्रलेपन करना एवं उन्हीं औषधियोंकी रकियाका प्रयोग करना हितकर है || अंजन. सुचूर्णितं शंखमिह स्तनांबुना । विवयेदायसभाजनद्वये || मुहुर्मुहुशर्करा सुषितं । सदजयेत्पित्तकृतामयाक्षिणि ॥ १४० ॥ भावार्थ:- शंखको अच्छी तरह चूर्णकर फिर उसे स्तन दूध के साथ लोहके दो बरतन में डालकर खूब रगडना चाहिये ( अर्थात् लोह के बरतन में डालकर लोहे की मूसलीसे रगडे ) उसे बार २ शक्करसे धूप देकर पित्तजन्य अभिष्यंद रोग से पीडित आंखो में हमेशा अंजन करें ॥ १४० ॥ अक्षदाह चिकित्सा, सयष्टिककं पय एव माहिपं । विगलितं शीतल मिंदुसंयुतम् ॥ निषेवयेदक्षिविदाहवाधिते । घृतेन पौंड्रेक्षुरसेन वा पुनः ॥ १४१ ॥ भावार्थ:- -आंखें दाहसे पीडित होजाय तो मुलेठी के कल्क में भैंसका दूब मिलाकर गालन करें । तदनंतर उसमें कपूर मिलाकर सेवन करें अथवा इसी कल्क को घी, या गन्ने के रसके साथ सेवन करें ॥ १४१ ॥ पित्ताभिष्य में पथ्यभोजन. पिवेद्यवागूं पयसा मुसाधितां । घृतप्लुतां शर्करया समन्वितां ।। समुद्रयूषं घृतमिश्रपायसं । समुद्रयूषोदनमेव वाशनम् ॥१४२॥ भावार्थ:-- पित्ताभिष्यंद से पीडित रोगीको दूधसे पकाया हुआ, घीसे तर, शक्कर से युक्त यवागूको पिलाना चाहिये । एवं मुद्गयूष या घृतमिश्रित पायस ( खीर ) अथवा मुद्द्रयूप के साथ अन्नका भोजन कराना चाहिये ॥ १४२ ॥ १ क्वाथ इत्यादियों को फिर पकाकर, गाढा ( घन ) किया जाता है इसे रसक्रिया कहते हैं ग्रंथांतर में कहा भी है | काथादीनां पुनः पाकात् घनभावे रसक्रिया | Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४२) कल्याणकारके पित्ताभिष्यंद में पथ्यशाक व जल. कपायतितै मधुरैस्सुशीतलैः । विपक शाकैरिह भोजयेन्नरम् ॥ पियेज्जलं चंदनगंधबंधुरं । हितं मितं पुष्पधनाधिवासितम् ॥१४३।। . भावार्थः -कपाय, कडुआ, मधुररस व शीतल वीर्ययुक्त पकाया हुआ शाक उस रोगीको खिलाये । यदि उसे प्यास लगे तो चंदन के गंध से मनोहर व सुगंध पुष्प, कपूर से सुवासिक हितकर जलको मितसे पिलाना चाहिये ॥ १४३ ॥ पिरजसवाक्षिरोग चिकित्सा. कियंत एवाक्षिगतामया नृणां । प्रतीतपित्तप्रभवा विदाहिनः॥ ततस्तु तान्शीतलसर्वकर्मणा । प्रसाधयेत्पित्तचिकित्सितेन वा ॥ १४४॥ ... भावार्थः- मनुष्यों की आंखमें पित्त से उत्पन्न अतएव अत्यंत दाहसे युक्त "कितने ही नेत्ररोग उत्पन्न होते हैं। इसलिये इन सब को, शीतल चिकित्साद्वारा अथवा १ पैत्तिक रोगोक्त चिकित्साक्रम द्वारा जीतना चाहिये ।। १४४ ॥ ___ रक्तजाभियद लक्षण. सलोहित वक्त्रमथाक्षिलोहितं । प्रतानराजीपरिवेष्टितं यथा ॥ संपित्तलिंगान्यपि यत्र लोहित । भवेदभिष्यद इति प्रकीर्तितः ॥१४५|| भावार्य:-जिस नेत्ररोग में मुख लाल हो जाता है, आंखें भी लाल हो जाती है, एवं लाल रेखाओं के समूह से युक्त होती हैं, जिसमें पित्तामिष्यद के लक्षण भी "प्रकट हो जाते हैं, उसे रक्तजन्य अभिष्द रोग जानना चाहिये ॥ १४५॥ रक्तजाभिष्यंद चिकित्सा। तमाशु पित्तक्रियया प्रसाधये । दमृग्विमोक्षरपि शोधनादिभिः॥ सदैव पित्तास्रसमुद्भवान्गदा- । नशेषशीतक्रियया समाचरेत् ॥१४६।। भावार्थ:---उसे शीघ्र पित्तहर औषधियोंसे चिकित्सा करनी चाहिये । एवं रक्त . मोक्षपा, शोधनादि ( वमन विरेचन आदि ) विधि भी करनी चाहिये । सदा पित्त व ( रक्त विकारसे उत्पन्न रोगोंको समस्त शीतक्रियावोंते उपचार करना चाहिये ॥१४६॥ ... फजाभिष्यंद लक्षण. 1:- प्रदेहशीतातिगुरुत्वशोफता । सुतीवकण्डूराहिमाभिकांक्षणम् ॥ सपिच्छिलास्रावसमुद्भवः कफा-द्भवन्त्यभिष्यंदविकारनामनि ॥१४॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। भावार्थ:--आंखोंमें कुछ लिप्तसा मालूम होना और अति शैत्य, भारीपना व शोफ होना, तीन खुजली चलना, गरम पदार्थो में अधिक लालसा होना, एवं आंखो से चिकना स्राव होना ये लक्षण कफज अभियंद रोग में पाये जाते हैं ॥ १४७ ॥ ___ कफजाभिष्यद की चिकित्सा. तमप्यभीक्ष्णं शिरसो विरंचनैः । सिराविमोक्षरतिरूक्षतापनः ॥ फलत्रिकत्र्यूषणसादकद्रयैः । प्रलेपयत्सोष्णगवांरपेषितैः ॥ १४८ ॥ भावार्थः-उस कफज अभिष्पंदको भी शिरोविरेचन, सिरा मोक्षण व अतिरूक्ष पदार्थोसे तापनके द्वारा उपचार करना चाहिये । एवं त्रिफला [ सोंठ मिरच पीपल ] इनको अद्रकके रस व उष्ण गोमूत्र के साथ अच्छी तरह पीसकर आंखोंमे लेपन करना चाहिये ॥ १४८ ॥ कफभिष्यंदमें आश्चोतन व सेक. ससैंधवैस्सा णतरैर्मुहुर्मुहु-। भवेत्सदाश्चोतनमेव शोभनम् ॥ पुनर्नवांघ्रिप्रभवैः ससैंधवै । रसैनिषिचेत्कफरुद्ध लोचनम् ।। १४९ ।। भावार्थ:-बार २ उपतर सेंधा लोणसे उसपर सेक देना चाहिये एवं सोंटके रसको सेंधा लोणके साथ मिलाकर उसको उस कफगतं आंख में संचन करना चाहिये ।। १४९॥ . . कफाभिष्यंदमें गण्ड्रप व कवल धारण.. सुपिष्टसत्सर्पोष्णवारिभिः । सदैव गण्डूषविधिविधीयताम् । सशिगुमूलाईककुष्टसैंधवैः । प्रयोजयेत्सत्कबलान्यनंतरम् ॥ १५० । भावार्थ:--सरसोंको अन्छीतरह पीसकर गरम पानीसे मिलाकर उससे गण्डष प्रयोग करें । एवं तदनंतर सेजनका जड, अद्रक, सेंधानमक इन औषधियोंसे कत्रल ग्रहण करावे ॥ १५ ॥ कफाभिष्यंद में पुटपाक. पुटप्रपाकैराततक्षिणरूक्षः । कपाथसक्षारगणेगवांबभिः॥ निशाद्वयत्र्यूषणकुष्टसर्पप । प्रपिष्टककैललितैः सुगालितः ॥ १५.१ ॥ भावार्थ:--अतितीक्ष्ण व रूक्ष औषधियोंको कपाय व क्षार द्रव्यों के साथ मिलाकर गोमूत्र के साथ पांसें, एवं दोनों हलदी, त्र्यूषण, कूट, सरसों इनका कल्क बनाकर उ में मिला फिर गालनकर पुटपाक सिद्ध होनेपर कमाभियंदमें प्रयोग करें १५१॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके मातुलुंगाद्यजन. समातुलगाम्लकसैंधवान्वितं । निशाभयानागरपिप्पलीत्रयम् ।। विघट्टयेदुज्ज्वलताम्रभाजने । हरीतकीतलसुधूपितं मुहुः ।।१५२॥ भावार्थ:--विजोरी निंबू, बडहल, सेंधानमक, हलदी हरड, सोंठ, पीपल, वन पीपल गजपीपल, इन को साफ, ताम्र के बर्तन में डालकर खूब रंगडना चाहिये । और उसे, हरड व तिलके तेल से पार २ धूप देना चाहिय । यह अंजन श्लेष्माभिष्यंद रोग को हितकारी है ॥ १५२ ॥ मुरुंग्यांजन. तथा मुहंगी सुरसादकद्रव- । मणिच्छिला मागधिका महौषधम् ।। विमर्दयेत्तद्वदिहप्रधूपितं । सदांजनं श्लेष्मकृताक्षिरोगिणां ॥ १५३ ॥ भावार्थ:-काला सेंजन, तुलसी. व आद्रक के रस से मैनशिल, पीपल, सोंठ, इन को ताम्रके बर्तन में, खूब मर्दन करें। और हरट, और तेल से धूप देवें । इस अंजन को, कफोत्पन्न नेत्ररोगियों को प्रयुक्त करना चाहिये ॥ १५३ ।। कफज सर्वनेत्ररोगोंके चिकित्सा संग्रह. कफोद्भवानक्षिगताखिलामया- । नपाचरेदक्तसमस्तभपजैः । विशेषतः कोमलशिग्रुपल्लव- । प्रधानजातीपुटपाकसदसैः ॥१५४॥ भावार्थ:--उक्त प्रकार के समस्त औषधियोंसे कफ विकारसे उत्पन्न नेत्र रोगोंकी चिकित्सा करनी चाहिये । विशेषतया सेजनका कोमल पत्ते जाई (चमेली) के पत्ते को पुटपाक करके भी इसमें उपचार करना चाहिये ॥ १५४ ॥ कफाभियद में पथ्थ भोजन. कफातियुक्तंतिकटुप्रयोग- । विशुष्कशाकैरहिमबिलक्षितैः ॥ त्र्यहारव्यहार प्रातरुपोषितं नरं । घृतान्नमल्यं लभुभोजयेत्सकृत् ॥१५५ भावार्थ:-कफ अत्याधिक युक्त नेत्र रोगी मनुष्य को अति कटु औषधियोंके प्रयोगके साथ २ तीन २ दिनतक उपवास कराकर, सूखे व राक्ष गरम शाकों के साथ घोसे युक्त लघु व अल्प अन्न को प्रातःकाल एक बार भोजन करावें ॥ १५५ ॥ कफामिष्यद में पेय. पिवेदसौ कुष्टहरीतकीधनः । शृतोरणमल्पं जलमक्षिशेगवान् । कणसनपजसिद्धमेव का । हित मनोहारिणमाहकारसम् ॥ १५६ ॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः ( ३४५ ) - भावार्थ:- - यह नेत्र रोगवाला कूठ, हरड, नागरमोथा, इनसे पकाये हुए थोडा गरम, पानीको पीवें अथवा कटु, उष्ण औषधियोंसे सिद्ध अडहर के रस ( जल ) को पीवें, वह हितकर है ॥ १५६ ॥ अभिष्यंदकी उपेक्षा से अधिमथकी उत्पत्ति. उपेक्षणादक्षिगतामया इमे । प्रतीतसत्स्यंदविशेषनामकाः । स्वदोषभेदैर्जनयति दुर्जयान् । परानधोमन्धनसंभिधानकान् ॥ १५७ ॥ भावार्थ:- यदि इन अभिष्यंद नामक प्रसिद्ध नेत्ररोगोंकी उपेक्षा की जाय, अर्थात् सकालमें योग्य चिकित्सा न करे तो वे अपने २ दोषभेदों के अनुसार दुर्जय ऐसे अधिमंथ नामक दूसरे रोगोंको पैदा करते हैं । जैसे कि कफाभिष्यंद हो तो कफाधिमंथको, पित्ताभिष्यंद पित्ताधिथको उत्पन्न करता है इत्यादि जानना चाहिये ॥ १५७ ॥ अधिमथका सामान्य लक्षण. भृशं समुत्पाट्य त एव लोचनं । मुहु मुहुर्मध्यत एव सांप्रतम् ॥ शिरोऽर्धमप्युगतरातिवेदनम् । भवेदधीमन्थविशेषलक्षणम् ॥ १५८ ॥ -- भावार्थ:- - जिसमें एकदम आंख उखंडती जैसी मालुम होती हो और उनको कोई मथन करते हो इस प्रकारकी वेदना जिसमें होती हो एवं अर्धमस्तक अत्यधिक रूपसे दुखता हो उसे अधिमन्थ रोग समझें अर्थात् यह अधिमंथ रोगका लक्षण है ॥ १५८॥ अधिमंथो में दृष्टिनाश की अवधि. ४४ कफात्मको वातिकरक्तजौ क्रमात् । ससप्तषट्पंचभिरेव वा त्रिभिः || क्रियाविहीनाः क्षपयंति ते दृशं । प्रतापवान् पैत्तिक एव तत्क्षणात् १५९ S भावार्थ:- -कफज, वातज व रक्तज अधीमन्थ की यदि चिकित्सा न करें तो क्रमसे सात छह व पांच दिनके अंदर आखोंकों नष्ट करता है । अर्थात् कफज अधिमंथ सात दिन में, वातिक अधिमंथ छह दिन में, रक्तज अधिमंथ पांच या तीन दिन में दृष्टिको नष्ट करता है । पैत्तिक अधिनं तो उसी समय आंखोंको नष्ट करता है ॥ १५९ ॥ अधिमथचिकित्सा. अतस्तु दृष्टिक्षयकारणामयान् । सतो द्यधमन्थगुणान्विचार्य तान् ॥ चिकित्सितैशीघ्रमिह प्रसाधये । द्भयंकरान् स्यंदविशेष भेषजैः ॥ १६०॥ १ इस अधिमंथ के अभिष्यंद के समान वातज, पित्तज कफज, रतन, इस प्रकार चार भेद हैं। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके भावार्थ:-इसलिये आंखोंके नाश के लिए कारणीभूत इन भयंकर अधिमथ गंगों गुणों को अच्छीतरह विचार कर उनके योग्य औषधियोंसे एवं अभिष्यंद रोगोक्त औषधियोंसे बहुत विचार पूर्वक चिकित्सा करें ॥ १६० ॥ । हताधिमंथ लक्षण. भवेदधीमन्थ उपेक्षितोऽनिल-। प्रभूतरोगोऽक्षिनिपातयत्यलं ॥ असाध्य एषोऽधिक वेदनाकुलो। हताधिमन्थो भुवि विश्रुतो गदः॥१६॥ भावार्थ:-बातज अधिमन्थ की उपेक्षा करनेपर एक रोगकी उत्पत्ति होती है, जो आंखों को गिराता है एवं जिसमें अन्यंत वेदना होती है उसे हताधिमथ रोग कहते हैं । वह असाध्य होता है ॥ १६१ ॥ शोफयुक्त, शोफरहित नेत्रपाक लक्षण. प्रदेहकण्डामवदाहसंयुतः । प्रपक्वापिंधीफलसन्निभो महान् ॥ सशोफकः स्यादखिलाक्षिपाकइ-! त्यथापरः शोफविहीनलक्षणः॥१६२॥ • भावार्थ:-मलसे लिप्तसा होना, खाज, स्त्राव व दाहसे युक्त होकर बिंबीफलके समान जो लाल सूज गया हो उसे शोफसहित अक्षिपाक कहते हैं । इसके अलावा शोफरहित अक्षिपाक भी रोग होता है ॥ १६२ ॥ वातपर्यय लक्षण. यदानिलः पक्ष्मयुगे भ्रमत्यलं । ध्रुवं सनेत्रं त्वधिक श्रितस्तदा । करोति पर्यायत एव वेदनां । स पर्ययस्स्यादिह वातकोपतः ॥ १६३ ॥ भावार्थ:-जब वायु भृकुटी व नेत्र को विशेषतया प्राप्त कर दोनों पलको में घूमता है अर्थात् ( भृकुटी, नेत्रकी अपेक्षा ) कुछ कम अंशमें परको में आश्रित होता ह तब ( कभी नेत्र, कभी दोनों पलके, कभी भृकुटो प्रदेशमें घूमता है तो)पर्याय रूप से अर्थात् कभी नेत्र में कभी भकुटी में कभी पलकोम वेदना उत्पन्न करता है। यह उद्रिक्त वातने उत्पन्न होता है। इसे वातपर्यय रोग कहते हैं ॥ १६३ ॥ शुष्काक्षिपाक लक्षण. यदाक्षि संकुंचितवमदारुणं । निरीक्षितु रूक्षतरापिलात्मकं । न चैव शक्नोत्पनिलप्रकोपलो । विशुष्कपाप.प्र.हतं तदादिशेत् ॥ १६४ ॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। भावार्थः-वातके प्रकोप से आखें संकुचित होजाय अर्थात् खुले नहीं और रूक्ष हो जिसकी वर्म, ( वाफणी ) कठिन हो, देखने में मैला दीरखें ( साफ न दाखें, आखोंसे देख नहीं सकें ( उघाडनेमें अत्यंत कष्टं होता हो) उसे शुष्काक्षिपाक कहना चाहिये ॥ १६४ ॥ अन्यतो वात लक्षण. विलोचनस्थो भ्रवि संचितोऽनिलः । शिरोवहां की नमदिनीं । करोति मन्यास्वपि तीनवेदनां । तमन्यतो वातगुशन्ति संततम् ।। १६५ ।। भावार्थ:- आंख में रहनेवाला, भ्रमें संचित बात शिर में बहनेवाली नाडी, कान, हनु ( टोडी) और मन्यानाडी में ऐसी तीव्र पीडा उत्पन्न करता है जो भिदती मालूम होता है । इसे अन्यतो वातरोग कहते हैं ॥१६५॥ ___ आम्लाध्युषित लक्षण. विदाहिनाम्लेन निषेवितेन त-। द्विपच्यते लोचनमेव सर्वतः ॥ सलोहितं शोफयुतं विदाहव- । द्भवेत्तदाम्लाध्युषितस्तु रक्ततः ॥१६६॥ भावार्थ:--विदाही आम्ल पदार्थके सेन करनेसे संपूर्ण आंख पक जाती है। और लाल, शोफयुक्त व दाहयुक्त होती है। यह रोग रक्तके प्रकोप से उत्पन्न होता है । उसे अम्लाध्युषित रोग कहते हैं ॥ १६६ ॥ शिरोल्पात लक्षण. यदक्षिराज्यो हि भवंति लोहिताः । संवेदना वाप्यथवा विवेदनाः॥ मुहुर्विमृज्यन्त्यमृजः प्रकोपती । भवेच्छिरोत्पात इतीरितो गदः॥१६७॥ भावार्थ:-जिसमें आंखोंकी नसें पीडायुक्त अथवा पीडारहित होती हुई, लाल हो जाती हैं और बार २ ललाईको छोड देती हैं अथवा विशेष लाल हो जाती हैं इस व्याधिको शिरोत्पाद कहते हैं । यह रक्त प्रकोप से उत्पन्न होता है ॥१६७॥ शिरामहर्ष लक्षण. यदा शिरोत्पात उपेक्षितो नृणां । शिरामहर्षी भवतीह नामतः ॥ ततः स्रवत्यच्छमजस्रमास्त्रको । नरो न शक्नात्यभिलक्षितुं क्षणम् ॥१६८ १ अन्यग्रन्थकारोंका तो ऐसा मत है कि मन्या, हनु, कर्ण आदि स्थानों में रहनेवाला वात '' आंख व भृकुटीमें पीडा उत्पन्न करता है उसे अन्यतो वात कहते हैं । यह वात अन्य स्थानों में रहकर अन्यस्थानमें पीडा उत्पन्न करता है । इसलिये इसका नाम सार्थक है। | Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४८) कल्याणकारके भावार्थ:-यदि शिरोत्पात रोगकी उपेक्षा करे तो शिराप्रहर्ष नामक रोग होता है । जिसमें सदा आखोंसे स्वच्छ स्त्राव होता ही रहता है । वह मनुष्य एक क्षण भी देखने के लिये समर्थ नहीं होता है ॥ १६८ ॥ नेत्ररोगोंका उपसंहार. इति प्रयत्नादशसशसंख्यया । प्रतीतरोगान्नयनाखिलाश्रयान् ॥ विचार्य तत्साधनसाध्यभेदवि- । द्विशेषतस्स्यदचिकित्सितैर्जयेत् ।।१६९॥ - भावार्थ:---इस प्रकार संपूर्ण नेत्र में होनेवाले सत्रह प्रकार के नेत्र रोगोंको, साव्यसाधन भेद को जानने वाला मतिमान् वैद्य, विशेष रीतिसे . विचार करके, उन को अभिष्यंदोक्त चिकित्सा पद्धति से जीतें ॥ १६९ ॥ , सध्यादिगत नेत्ररोग वर्णन प्रतिज्ञा. अतोत्र नेत्रामयमाश्रितामया- । नसाध्यसाध्यक्रमतश्चिकित्सितैः ॥ ब्रवीमि तल्लक्षणतः पृथक् पृथक् । विचार्य संध्यादिगतास्वसंख्येया १७० भावार्थ:--यहां से आगे, नेत्ररोगोंके आश्रित रहनेवाले, संधि आदि स्थानों में होनेवाले, संधिगत, वर्मगत आदि रोगों के साध्यासाध्य विचार, उन की चिकित्सा, अलग २ लक्षण और संख्या के साथ २ वर्णन करेंगे ॥ १७० ॥ संधिगतनवविध रोग व पर्वणी लक्षण । नवेव नेचाखिलसंधिजामया । यथाक्रमात्तान् सचिकित्सितान ब्रवे ।। चलातिमृद्वी निरुजातिलोहिता । मताचा संधौ पिटका तु पर्वणी ॥१७१॥ भावार्थ:-नेत्र की सर्व संधियो में, होनेवाले रोग नौ प्रकारके ही होते हैं। उन को उन के चिकित्साक्रम के साथ २ क्रम से वर्णन करेंगे । कृष्ण व शुक्ल की संधि में चल, अत्यंत मृदु, पीडासे रहित, अत्यधिकलाल, ऐसी जो पिडिका हे।ती है उसे आचाघोने पर्वणी नामसे कहा है ॥ १७१ ॥ अलजी लक्षण, कफादतिस्रावयुतोऽतिवेदनः । सकृष्णवर्णः कठिनश्च संधिजः ॥ भवेदतिग्रंथिरिहालजी गदः । स एव शोफः परिपाकमागतः ॥१७२॥ १ पूयालस, कफोपनाह, चार प्रकार के स्लाव ( कफजलाव, पित्तजनाव, रक्तजस्राव, पूय। स्ना अर्थात् सन्निपातजस्राव,) पर्वणी, अलजी और कृभिग्रंथि इस प्रकार संधिगत रोगों के भेद नौ हैं Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। ( ३४९) प्रयालस, कफोपनाह लक्षण. सतोदभेदो बहुपूयसंस्रवी । भवेत्स पूयालस इत्यथापरः ॥ स्वदृष्टिसंधौ न विपकवान् महा- । नुदीरितो ग्रंथिरिहाल्पवेदनः ॥१७३ - कफजस्राव लक्षण. कफोपनाहो भवतीह संज्ञया । स एव पक्को बहुपूयसंस्त्रवात् ।। सयसंखावविशेषनामकः । सितं विशुष्कं बहुलातिपिच्छिलम् ॥१७४॥ पित्तजस्त्राव व रक्तजनावलक्षण. स्रवत्सदा स्रावमतो वलासजो । निशाद्रवाभं स्रवतीह पित्तजः । .. सशोणितः शोणितसंभवो यतश्चतुर्विधाः सावगदा उदीरिताः ॥ १७५॥ कृमिग्रंथि लक्षण. स्ववर्मजाताः क्रिमयोऽथ शुक्लजाः । प्रकुर्वते ग्रंथिमतीव कण्डुरम् ॥ स्वसंधिदेशे निजनामलक्षणैः । समस्तसंधिप्रभवाः प्रकीर्तिताः॥१७६॥ भावार्थ:-कफके विकारसे अत्यधिक स्रावसे युक्त, अत्यंत वेदना सहित, कृष्णवर्णवाला कठिन सरिज ग्रंथिशोफ अलजी के नामसे कहाजाता है। वहीं ( अलजी) शोफ जब पकजाता हैं तोदन, भेदन पीडासे संयुक्त होता है तो उसमेंसे अधिक पूयका स्त्राव होने लगता है इसे पूयालस कहते हैं । दृष्टिकी संधिमें पाकसे रहित अल्प वेदना युक्त, जो महान् ग्रंथि [गांठ] उत्पन्न होता है उसे कफोपनाह कहते हैं. वही ( कझोपनाह ) पककर, उससे जब बहुत प्रकारके पूय निकलने लगते हैं तो उसे पूयसंस्राव [ पूयस्राव व सन्निपातजस्राव ] कहते हैं । यदि उससे, सफेद शुष्क, गाढा व चिकना पूय, सदा स्त्राव हो तो उसे कफजस्राव समझना चाहिये। यदि हलदीके पानीके सदृश, पीला स्राव हो तो उसे पित्तजस्राव, रक्तवर्णका स्राव होवें तो रक्तजनाव सपझें । इस प्रकार चतुर्विध सावरोग आगममें कहा है। वर्मभाग शुक्ल भाग में उत्पन्न कृमियां, वर्त्म और शुक्ल की संधि में अत्यधिक खुजली से युक्त ग्रंथि (गांठ) को उत्पन्न करते हैं इस को कृमिग्रंथि कहते हैं । इस प्रकार अपने २ नाम लक्षणों के साथ, संपूर्ण संधि में उत्पन्न होनेवाले संधिगत रोगोंका वर्णन हो चुका है ॥१७२।। १७३॥१७४॥ १७५ ॥ १७६ ॥ वर्मगतरोगवर्णनप्रतिक्षा. अतःपरं वर्त्मगतामयान्ब्रुवे । स्वदोषभेदाकृतिनामसंख्यया । विशेषतस्तैः सह साध्यसाधन- । प्रधानसिद्धांतसमुद्धतौषधैः ।। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५०) कल्याणकारके भावार्थ:--यहां से आगे वर्भगत ( आखों के ) रोगोंको उन का दोष भेद, लक्षण, नाम, संख्या, साध्य को साधन करनेका प्रधान सिद्धांत ( चिकित्साक्रम ) और श्रेष्ट औषधियोंके साथ २ विशेषरीति से वर्णन करेंगे ॥ १७७॥ उत्संगिनी लक्षण. त्रिदोषजयं पिटकांतरानना । बहिर्गतका वरसंश्रिता घना ॥ स्ववत्मजोरसंगिनिकात्मनामतो । भवेद्विकारो वहुवेदनाकुलः ॥१७८॥ भावार्थ:---नीचे के कोय में बाहर उभरी हुई, घन, अत्यंत वेदना से आकुलित, त्रिदोषोत्पन्न पिटिका होती है जिस का मुख भीतर को ( आंख की तरफ ) हो इस वर्म में उत्पन्न विकार का नाम उत्संगिनी है ॥ १७८ ॥ - कुंभीकलक्षण. स्ववर्त्मजा स्यापिटका विवेदना । स्वयं च कुंभीकफलास्थिसन्निभा ॥ मुहुस्सदाध्माति पुनश्च भिद्यते । कफात्स कुंभीक इतीरतो गदः॥१७९॥ भावार्थः----अपन वर्म ( कोये, पलकोंके बीच ) में वेदनारहित कुंभीक बाजके भाकारवाला पिटका [ पुन्सी ] उत्पन्न होता है । जो एक दफे सूजता है, दूसरी दफे फूटकर उससे पूर्व निकलता है, पुनः सूजता है । वह कफ विकारसे उत्पन्न कुंभीक नामक रोग है ॥ १७९ ॥ . पोथकी लक्षण. सकण्डुरस्वावगुरुत्ववेदना भवंति बहव्यः पिटकाः स्ववमजाः ॥ सुरक्तवर्णास्समसर्षपोपमा-- | स्सदैव पोधक्य इति प्रकीर्तिताः ॥१८०॥ भावार्थ:-आंखों के वर्म [ कोये ] में खाज सहित, सात्र, वेदना व गुरुत्वसे युक्त बहुतसी पिडिकायें उत्पन्न होती हैं व लालवर्णसे युम्त सरसोंके समान रहती हैं उन्हे सदैव पोथकी पिटका कहते हैं ॥ १८० ॥ __ धर्मशर्करा लक्षण. खरा महास्थलतरा प्रदूषणा । स्ववर्मकेरे पिटकावृतापरैः ॥ सवक्ष्मकण्ड्रोपटकागणभंवत् । कफानिलाभ्यामिह वमशर्करा ॥१८१॥ १ अनार के आकारवाला फल विशेष! कोई कुम्हेर कहते हैं। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anima.. Annary क्षुद्ररोगाधिकारः । ( ३५१) भावार्थ:-कठिन, यो, कोयेको दूषण करनेवाले खुजलीयुक्त अन्य छोटी २ फुन्सीयोंके समूहसे व्याप्त, जो पिडका ( फुन्सी ) कोये में होता है उसे वर्म शर्करा कहते हैं । यह कफवातके प्रकोपसे उत्पान होता है ॥ १८१ ॥ अविर्मका लक्षण, तथा च उरिकबीजसीन्नभाः । खरांकुराः श्लक्ष्णतराः विवेदनाः ॥ भवंति वमन्यवलोकनक्षयाः। सदा तदाऽधिकवत्मदेहिनाम् ॥ १८२॥ भावार्थ:--मनुष्यके कोयमें ककडीके बीजके समान आकारवाली कठिन चिकनी, वेदनारहित और आंखको नाश करनेवाली जो फुसियां होती है, उसे, अर्शवम कहते हैं ॥ १८२ ॥ शुष्का व अंजननामिकालक्षण, खरांकुरो दीर्घतरोऽतिदारुणा । विशुष्कदुर्नामगदः स्ववमनि ॥ सदाहताम्रा पिटकातिकोमला । विवेदना सांजननामिका भवेत् ॥१८३॥ भावार्थ:--कोयेमें खरदरा, दीर्घ लम्बा अति भयंकर अकुंर उत्पन्न होता है उसे शुष्कार्श रोग कहते हैं । कोयेमे दाह युक्त, ताम्रवर्णवाली अत्यंत कोमल, वंदना रहित जो फुन्सी होती है उसे अंजनामिका कहते हैं ॥ १८३ ।। बहलवम लक्षण. कफोल्वणाभिः पिटकाभिरंचितं । संवर्णयुक्ताभि समाभि संततः ॥ समंततः स्यात् बहलाख्यवमता । स्वयं गुरुत्वान्न ददाति वाक्षितुम् ।। भावार्थ:--कोया, चारों तरफसे कफोद्रेकसे उत्पन्न, समान व सवर्ण फुन्सी योसे युक्त होता है तो इसे, बहलवर्म रोग कहते हैं । यह स्वयं गुरु रहनेसे आंखोंको देखने न दता ॥ १८४ ॥ वर्मबंध लक्षण. सशोफकण्डूयुततुरध्वंदना । समेतवाक्षिनिरीक्षणावहात् ।। युतस्तदा वर्त्मगतावबन्धको । नरो न सम्यक्सकलानिरीक्षते ॥ १८५ ॥ भावार्थ:- कोया, खुजली व अल्पवेदनाबाली सूजन से युक्त होने के कारण आंखें देखने में असमर्थ होती हैं । इस रोगसे पीडित मनुष्य सम्पूर्ण रूपोंको अच्छी तरहसे नहीं देख पाता है । इसे वार्मावबंध अथवा वर्मबंध कहते हैं । १८५ ॥ १ समाभिरत्यंतसवर्णसंचयात् इति पादांतरं, Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारक vinvasnALAAAAAAAAnd rammarna क्लिष्टवर्म लक्षण. समं सवर्ण मृदुवेदनान्वितं । सताम्रवर्णाधिकमेव वा सदा ॥ स्त्रवेदकस्माद्रुधिरं स्ववर्त्मतो । भवेदिदं क्लिष्टविशिष्टवर्त्मकम् ॥ १८६॥ भावार्थ:-कोया, समान हो अर्थात् शोथ रहित हो, स्वाभाविक वर्णसे युक्त हो अथवा हमेशा ताम्रवर्ण [ कुछ लाल ] ही अधिकता से हो और अकस्मात् कोयेसे रक्तका स्राव हो तो, इसे क्लिप्टवर्म रोग कहते हैं ॥ १८६ ॥ कृष्णकर्दम लक्षण. उपेक्षणाक्लिष्टमिहात्मशोणितं । दहेत्ततः क्लेदमथापि कृष्णताम् ॥ व्रजेत्ततः प्राहुरिहाक्षिभिन्नकाः । स्ववेदकाः कृष्णयुतं च कर्दमम् ॥१८७ भावार्थ:-उपर्युक्त क्लिष्टवर्म रोगकी उपेक्षा करनेसे, वह वर्मगत रक्त को जलावें, तो उस में क्लेद [ कीचडसा ] उत्पन्न होता है, और वह काला हो जाता है। इसलिये अक्षिरोगों को जाननेवाले आत्मज्ञानी ऋषिगण, इसे कृष्णकर्दम रोग कहते हैं ॥ १८७ ॥ श्यामलवर्म लक्षण. सबाह्यमंतश्च यदाशु वर्त्मनः । प्रमूनक श्यामलवर्णकान्वितम् ॥ । वदंति तच्छ्यामलवमनामकम् । विशेषतः शोणितपित्तसंभवम् ॥१८८॥ भावार्थ:-जिसमें कोयेके बाहर व अंदरके भाग शीघ्र ही सूजता है और काला षड़जाता है तो, उसे श्यामलवर्म रोग कहते हैं । यह विशेष कर रक्तपित्त के प्रकोप से उत्पन्न होता है ॥ १८८ ॥ क्लिन्नवर्म लक्षण. यदा रुजं शूनमिहाक्षिवाद्यतः । सदैवमंतः परिपिच्छिलद्रवम् ॥ स्रवेदिह क्लिन्नविशिष्टवर्मकम् । कफास्रगुत्थं प्रवदति तद्विदः ॥ १८९ भावार्थ:-जब आंख [ कोये ] के बाहर पीडा रहित सूजन हो और हमेशा 'अन्दर से पिच्छिल [ चिकना] पानी का स्राव हो, तब उसे अक्षिरोग को जाननेवाले, क्लिन्नवम रोग कहते हैं। यह कफ, रक्त से उत्पन्न होता है ॥ १८९॥ १ इस को अन्य ग्रंथमें वर्त्मकर्दम नामसे कहते हैं। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः अपरिक्लिन्नवर्मलक्षण. ..... मुहुर्मुहुधौतमाह वर्त्म यत् । प्रदिह्यते तत्सहसव सांप्रतम् ॥ अपाकवत्स्यादपरिप्रयोजितं । कफोद्भव क्लिन्नकवर्मनामकम् ॥१९॥ भावार्थ:---कोये को बार २. धोनेपर भी शीध्र ही चिपक जावें और पके नहीं इसे अपरिक्लिन्न वर्म ( अक्लिन्नवम ) कहते हैं । यह कफ से उत्पन्न होता है ॥१९० __ वातहतवर्म लक्षण .विमुक्तसंधिप्रविनष्टचेष्टितं । निमील्यते यस्य च वर्त्म निर्भरम् ॥ । भवेदिद वातहताख्यवर्त्मकं । वदंति संतः सुविचार्य वातजम् ॥ १९१ ।। भावार्थ:-जिस में कोथे की संधि खुलजावें ( पृथक् हो जायें ) पलक चेष्टा रहित हो, अर्थात् खुलने मिचने वाली क्रिया न हो, पलक एकदम बंद रहे, तो इसे सत्पुरुष अच्छीतरह... विचार - करके - वातहतवर्म कहते हैं। यह वातसे उत्पन्न होता है ॥ १९१ ॥ अर्बुद लक्षण. सुरक्तकल्प विष विलंबितं । सवमतोऽतस्थमवेदनं धनम् ॥ भवेदिदं ग्रंथिनिभं तदर्बुदं । व्रति दोषागमवेदिनो बुधाः ॥ १९२ ॥ भावार्थः-कोये के भीतर, लाल, विषम ( कष्टकारी) अवलम्बित, वेदना रहित, कडा, ग्रंथि ( गांठ ) के सदृश जो शोथ होता है, उसे दोषशास्त्र को जानने वाले विद्वान्, अर्बुद ( वर्मार्बुदु ) कहते हैं ॥ १९२ ॥ निमेषलक्षण सिरां स्वसंधिप्रभवां समाश्रितः । स चालयत्याश्वनिलश्च वर्त्मनि ॥ निमेषनामामयमामनंति तं । प्रभंजनोत्थं स्फुरसन्मुहुर्मुहुः ॥ १९३ ॥ भावार्थ:-कोये की संधि में रहने वाली निमेषिणी ( पलकों को उघाड ने मूंदने वाली ) सिरा, नस में आश्रित वायु, शीघ्र है। कोयों को चलायमान करता है, इस से वह वार २ स्फुरण होता है । इसलिये इस बातजरोग को निमेष कहते रक्ताहीक्षण स्ववर्त्य संश्रित्य विवर्धते मृदु- । स्सलोहिली दीपतरांकुरोऽतिरक् ॥ स लोहितार्शी भवतीह नामतः । प्ररोहति छिन्नमपीह तत्पुनः ॥१९४॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५४ ) कल्या गकारक भावार्थ:-- आंख के कोये को आश्रित कर जो मुदु, लाल, अत्यंत पीडा कर ने वाला, लम्बा अंकुर ( उत्पन्न होकर ) बढ़ता है । जिसको छेदन करने पर भी फिर उगता रहता है, इसे रक्तार्श कहते हैं ॥ १९४ ॥ लगणलक्षण अवेदनो ग्रंथिरपाकवान्पुनः । स वर्त्मनि स्थूलतरः कफात्मकः ॥ स्वलिंगभेदो लगणोऽथ नामतः । प्रकीर्तितो दोषविशेषवेदिभिः ॥ १९५॥ भावार्थ:- कोये में वेदना व पाक से रहित स्थूल, कफ से उत्पन्न, कफज लक्षणों से संयुक्त जो ग्रंथि (गांठ) उत्पन्न होता है उसे वातादि दोषों को विशेष रीति से जानने वाले लगण रोग कहते हैं ॥ १२५ ॥ बिसवलक्षण सुसूक्ष्मगंभीरगतांकुरो जले । यथा दिसं तद्वदिहापि वर्त्मनि ॥ स्रवत्यज बिसवज्जलं मुहुः । स नामतस्तद्विसवर्त्म निर्दिशेत् ॥ १९६ ॥ भावार्थ:-- :- कमळ नाली जो जलमें नीचे तक गहरी चली जाती है और सदा जलमें रहने से उस से जलस्राव होता रहता है, उसी प्रकार कोये में, अतिसूक्ष्म व गहरा गया हुआ अंकुर हो, जिसमे हमेशा पानी बहता रहता हो, इसे बिसवर्त्मरोग कहना चाहिये || १९६ ॥ पक्ष्मकोपलक्षण यदैव पक्ष्माण्यतिवात कोपतः । प्रचालितान्यक्षि विशंति संततम् ॥ ततस्तु संरंभविकारसंभवः । स पक्ष्मकोपो भवतीह दारुणः ॥ १९७ ॥ भावार्थ:- : बात के प्रकोप से, जब कोये के बाल चलायमान होते है और आंख के अन्दर प्रवेश करते हैं (वे नेत्रों को रगड़ते हैं ) तब इस से आंख के शुक कृष्ण भाग में शोध उत्पन्न होता है । इसे पक्ष्मकोप कहते हैं । यह एक भयंकर व्याधि है ॥ १९७ ॥ वर्मरोगों के उपसंहार इतीह वर्माश्रयरोगसंकथा | स्वदोषभेदाकृतिनामलक्षणैः ॥ अथैकविंशत्युदितात्मसंख्यया । प्रकीर्तिताः शृलगतामयान्वे ॥ १९८ ॥ १ यह रक्त के प्रकोप से उत्पन्न होता है इसलिये रक्तारी कहा है ॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। ( ३५५ ) भावार्थ:: - इस इसप्रकार आंखों के कांचो में रहने वाले इक्कीस प्रकार के रोगों को उनके दोषभेद, आकृति, नाम व लक्षण संख्या के साथ वर्णन कर चुके हैं। अब शुक्लमण्डलगत रोगों को कहेंगे ॥ १९८ ॥ विस्तार्य व शुक्ला के लक्षण अथार्म विस्तारि सनीललोहितं । स्वशुक्लभांग तनुविस्तृतं भवेत् ॥ तथैव शुक्ला चिराच्च वर्धते । सितं मृदु श्वेतगतं तथापरं ॥ १९९ ॥ भावार्थ:- आंख के शुक्ल [ सफेद ] भाग में थोडा नील वा रक्तवर्णयुक्त पतला और विस्तृत : फैला हुआ ] ऐसा जो मांसका चय [ इकठ्ठा ] होयें इसे बिस्तारि अर्भ रोग कहते हैं । इसी प्रकार शुक्ल भाग में जो मृदु, सफेद, और धीरे २ बढने वाला जो मांसचय होता है इसे शुक्लार्म कहते हैं ॥ १९९ ॥ लोहिता व अधिमासार्मलक्षण यदा तु मां प्रचयं प्रयात्यलं । स्वलोहितावुजपत्रसन्निभम् ॥ यकृत्सकाशं बहलातिविस्तृतं । सिताश्रयोऽसावधिमसिनामकम् ॥ २००॥ भावार्थ:- :- जब ( शुक्ल भाग में ) रक्त कमल दलके समान, लाल, मांस संचित होता है इसे लोहितार्म कहते हैं । जो जिगर के सदृशवर्णयुक्त, मोटा, अधिक 1 फैला हुआ, मांस संचित होता है इसे अधिमासार्म कहते हैं ॥ २०० ॥ स्नायुअर्स व कृश शक्तिके लक्षण. स्थिरं बहुस्नायुकृतार्म विस्तृतं । सिरावृतं स्यापिशितं सिताश्रयं ॥ सलोहिता श्लक्ष्णतराश्च बिंदवो । भवंति शुक्ले कुशशुक्तिनामकम् || २०१ ।। भावार्थ: - शुक्ल भाग में मजबूत फैला हुआ शिराओं से व्याप्त जो मांस की वृद्धि होती है इसे स्नायुअर्भ कहते हैं । लाल व चिकने बहुत से बिंदु शुक्लभाग में होते हैं, इसे कृशशुक्ति [ शुक्ति ] नामक रोग कहते हैं ॥ २०१ ॥ -- अर्जुन व पिकलक्षण. एकः शर्शस्य क्षतजोपमाकृति- । र्व्यवस्थितो बिंदुरिहार्जुनामयः ॥ सितोन्नतः पिष्टनिभः सिताश्रयः । सुपिष्टकाख्यो विदितो विवेदनः ॥ २०२॥ भावार्थ:- शुक्ल में खरगोश के रक्त के समान लाल, जो एक बिंदु [ बूंद ] १ यथार्थ एव इति पाठांतरं । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारक होता है इसे अर्जुन रोग कहते हैं । और उसी में सफेद उठा हुआ वेदना रहित पिठी के समान, बिंदु होता है उसे पिष्टक रोग कहा है ॥२०२ ॥ शिराजाल व शिराजपिडिका लक्षण. महत्सरक्तं कठिनं सिराततं । शिरादिजालं भवतीह शुक्लजम् ॥ शिरावृता या पिटका शिराश्रिता । सिता सिरोक्तान् सनरान् सिरोद्भवान् २०३ भावार्थ:---शुक्ल मण्डल में महान अत्यंत लाल, कटिन जालसा फैला हुआ शिरासमूह जो होते हैं उसे शिराजाल रोग कहते हैं। उस शुक्लमण्डल में कृष्ण मण्डलके समीप रहने वाली शिराओंसे आच्छादित जो सफेद पुन्सी होती है उस को शिसजपिटका कहते हैं ॥ २०३ ॥ मृदुस्वकोशप्रतिमोरुविविका- फलीपमो वा निजशुक्लभागजः ॥ भवेदलासग्रथितो दशैकजः । अतः परं कृष्णगतामयान् ब्रुवे ॥२०४॥ भावार्थ:---शुक्ल मण्डल में मृदु फूल की कली के समान अथवा बिंबीफल [कुंदरू ] के समान, ऊंची गांठसा हो उसे बलासप्रथित कहते हैं । इस प्रकार ग्यारह प्रकार के शुक्लगत रोगों के वर्णन कर चुके हैं। अब आगे . कृष्णमण्डलगत रोगों के वर्णन करेंगे । २०४ ॥ अथ कृष्णमण्डलगतरोगाधिकारः । अत्रण, व सव्रणशुक्ललक्षण. अपत्रणं यच्च सितं समं तनु । मुसाध्यशुक्लं नयनस्य कृष्णजम् । तदेव मग्नं परितस्ववद्वं । न साध्यमेतद्विदितं तु सत्रणम् ॥ २०५॥ भावार्थ:-- आँख के कृष्णमण्डल में जो सफेद बराबर (नीचा व ऊंचे से रहित ) पतला शुक्ल फूल होता है, उसे अपत्रण शुक्ल अथवा अव्रण शुक्ल कहते हैं । यह साध्य होता है । वही [ अत्रणशुक्ल ] यदि नीच को गडा हुआ हो चारों तरफ से द्रवस्राव होता हो इसे सत्रण शुक्ल कहते हैं । यह असाध्य होता है ॥ २०५॥ अक्षिपाकात्यय लक्षण. यदत्र दोषेण सितेन सर्वतो- । सितं तु संछाद्यत एव मण्डलम् ।। तमक्षिपाकात्ययमक्षयामयं । त्रिदोषजं दोपविशेषवित्यजेत् ॥ २०६॥ भावार्थ:---जो काली पुतली दोषोंसे उत्पन्न, सफेदी से सभी तरफसे आच्छा. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। दित हो, यह अक्षिपाकात्यय नामक अक्षय ( नाशरहित ) व त्रिंदोषोत्पन्न रोग है। इस को दोषोंके विशेष को जानने वाला वैध छोड देवें अर्थात् यह रोग सन्निपातज होनेसे असाध्य होता है ॥ २०६१ अजक लक्षण. वराटपृष्ठप्रतिमोऽतितोदनः । सरक्तवर्णो रुधिरोपमद्रवः ॥ . स कृष्णदेशं प्रविदार्य वर्द्धते । स चीजकारख्योऽक्षिभयंकरो गदः ॥२०७॥ भावार्थ:-कमल बीजके पीठ के समान आकारवाला, अत्यंत . तोदन (सुई चुभे ने जैसी पीडा ) युक्त लाल, ऐसा जो फूल कृष्णमण्डल की दारण कर के उत्पन्न होकर वृद्धिंगत होता है, जिससे रक्त के समान लाल पाता गिरता है, यह अजक या भाजक [ अजकजात ] नानक भयंकर नेत्र रोग जानना चाहिये ॥२०७॥ कृष्णगतरोगोंके उपसंहार. इमे च चत्वार उदीरिता गदाः । स्वदोषलक्षा निजकृष्ममण्डलें। अतःपरं दृष्टिगतामयान् ब्रुवे-। विशेषनामाकृतिलक्षणेक्षितान् ॥२०८॥ भावार्थ:-इस काली पुतली में होनेवाले, चार प्रकार के रोग जो कि दोषभेदानुसार उत्पन्न लक्षण से संयुक्त है उन को वर्णन कर चुके हैं। इसके बाद दृष्टि गत रोगों को उन के नाम आकृति लक्षण आदि सम्पूर्ण विषयोंके साथ वर्णन करेंगे ॥२०८॥ हष्टि लक्षण. स्वकर्मणामोपशमप्रदेशजां । मसूरमात्रामतिशीतसाधनी ॥ प्रयत्नरक्ष्यामतिशीघनाशिनीम् । वदंति दृष्टिं विदिताखिलांगदाः॥२०९।। भावार्थ:-नेत्रेद्रियावरण कर्मके क्षयोपशम जिस प्रदेशमें होता है, उस प्रदेशमें उत्पन्न, मसूर के दालके समान जिसका आकार गोल है और शीतलताप्रिय वा अनुकूल होता है, जिससे रूपको देख सकते हैं ऐसे अवयव विशेष की सम्पूर्ण नेत्र रोगों को जानने वाले दृष्टि कहते हैं । यह दृष्टि शीघ्र नाशस्त्रभावी है । अत एष अति प्रयत्न से रक्षण करने योग्य है ।। २०९॥ रष्टिगतरोगवर्णनप्रतिज्ञा. गाश्रयान् दोपकृतामयान् ब्रो। द्विषट्प्रकारान् पटलमभेदनान् ।। यथाक्रमानामविशेषलक्षण-। प्रधानसाध्यादिविचारसक्रियाम् ॥२१०॥ १ सभाजकाख्यो इति पाठांतरं । २ लक्षण । .. . . Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५८) कल्याणकारके भावार्थ:---उस दृष्टि के आश्रयभूत अर्थात् दृष्टि में होनेवाले बातादि दोषोंसे उत्पन्नः पटला को भेदन करने वाले १२ प्रकारके रोगों को नाम, लक्षण, साध्यासाध्य विचार व चिकित्साके कथनके साथ २ निरूपण करेंगे ।। २१० ॥ प्रथमपटलगतदोषलक्षण । यदा तु दोषाः प्रथमे व्यवस्थिताः । भवति दृष्टया पटले तदा नरः॥ न पश्यतीहाखिलवस्तु विर तृतं । विशिष्ट मरपाटतर स्वकष्टतः ॥२११॥ भावार्थ:- जब आखोंके प्रथम पटल में दांपाका प्रभाव होता है अर्थात् स्थित होते हैं तब मनुप्प सर्व पदार्थों को स्पष्टतया देखता नहीं है । बहुत कष्टसे अस्पष्टरूपसे वह भी बडे पदार्थो को देख सकता है ॥२११॥ ___द्वितीयपटलगतदोपलक्षण. नरस्य दृष्टिः परिविव्हला भवेत् । सदैव बूचीसुधिर न पश्यति ॥ १. प्रयत्नतो वाप्यथ दोषसंचये । द्वितीयमेवं पटलं गते सति ।। २१२ ॥ .... भावार्थ:-दोषों के समूह, जव ( आंखके ) दूसरे पटल ( परदे ) को प्राप्त होते हैं तो मनुष्यकी दृष्टि विहल होती है और वह प्रयत्न करनेपर भी [ निगाह करके देखने पर भी ] हमेशा सुई के छिद्र को नहीं देखसकता है अर्थात् उसे दीखता नहीं. है ॥ २१२ ॥ तृतीयपटलगतदोवलक्षण. अधो न पश्यत्यथ चोर्धमीक्षते । तृतीयपेयं पटलं गतेऽखिलान् ।। स के शपाशान्यशकान्समाक्षिकान् । सजालकान् पश्यति दोषसंचये ॥२१३ भावार्थ:---आखके तृतीय पटल को, दोष समूह प्राप्त होने पर, उस मनुष्यको नीचके वरत नहीं दिखाई देते हैं। और ऊपर की वस्तु ते दिखाई देते हैं । वह सम्पूर्ण वस्तुवों को केशपाश, मशक (मच्छर) मख्खी एवं इसी प्रकारके अन्य जीवोंके रूपमें देखता वक्तांध्य लक्षण. त्रिषु स्थितोऽल्पः पटलेषु दोषो । नरस्य नकाध्यसिंहावहत्यलम् ॥ दिवाकरेणानुगृहीतलोचनो । दिवा स. पश्येत् क फतुच्छभावतः॥२१४॥ भावार्थः --तानों पठलो में अपप्रमाणमें स्थित दोष [ का ] मनुष्य को Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । ( ३५९ ) नक्स [रातको अा] कर देता है, जिससे उसे रातको नहीं दीखता है । उसकी आँखें सूर्य से अनुगृहीत होने से व कफ की अल्पता होनेसे उसे दिन में दीखता है ॥२१४ ॥ चतुर्थपटलगतदोषलक्षण, यदा चतुर्थं पटलं गतस्सदा । रुणद्धि दृष्टिं तिमिराख्यदोषतः ॥ स सर्वतः स्वादिह लिंगनाश इ- । त्यथापरः षड्धिलक्षणान्वितः २१५ भावार्थ:- जब तिमिर नामक दोष [ रोग] चतुर्थ पटल में प्राप्त होता हो तो वह दृष्टिको सर्वतोभावसे रोकता है इसे लिंगनोश [ दृष्टि का नाश ] कहते हैं । इसलिये यह [ लिंगनाश ] अन्य छह प्रकार के रक्षणीस संयुक्त होता है । अत एव इसका छह भेद है ।। २१५ ॥ I लिंगनाश का नामांतर व वातजलिंगनाशलक्षण. स लिंगनाशो भवतीह नीलिका | विशेषकाचाख्य इति प्रकीर्तितः ॥ समस्तरूपाण्यरुणानि वातजा - द्भवंति रूक्षाण्यनिशं स पश्यति ॥ २१६ ॥ भावार्थ::- वह लिंगनाश रोग, निलिकाकाच भी कहलाता है । अर्थात् नालिकाकाच यह लिंगनाश का पर्याय है । वातज लिंगनाश में समस्त पदार्थ सदा लाल व रूक्ष दिखते हैं ॥ २१६ ॥ पित्तकफरक्तज लिंगनाश लक्षण. शतन्दद्रायुधवन्हिभास्कर - | प्रकाशखद्यतगणान्स पित्तजात् ॥ सितानि रूपाणि कफाच्च शोणिता- दतीव रक्तानि तमांसि पश्यति २१७ भावार्थ:- पित्तज लिंग नाश रोग में रोगीको सर्व पदार्थ बिजली इंद्रायुध अग्नि, सूर्य, व खद्योत के समान दिखते हैं । कफ विकारसे सफेद ही दिखते हैं । रक्त विकारसे अत्यंत दाल व काले दिखने लगते हैं ॥ २१७ ॥ सन्निपातिकलिंगनाशलक्षण व वातज वर्ण. विचित्ररूपाण्यति विष्णुतान्यलं । प्रपश्यतीत्थं निजसन्निपातनात् । स एव कावः पवनात्मकरुणा । भवेत् स्थिरो दृष्टिगतारुणप्रभः ॥२१८॥ भावार्थ: सन्निपातन लिंगनाशमें वह रोगी अनेक प्रकारके विचित्र नानावर्णके] रूपों को देखने लगता है । उसको सर्व पदार्थ विपरीत दीखते हैं । १ इसे तिमिर भी कहते हैं । व्यवहार में मोतिया बिंदु कहते हैं । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके बही, काच, [लिंगनाश ] यदि वातिक हो : तो उससे, दृष्टिमण्डल लाल व स्थिर होता है ॥२.१८॥ . . . . . पित्त कफज वर्ण. तथैव पित्तादतिनीलनामकं । भवेत् परिम्लायि च पिंगलात्मकं ॥ १. कफात्सितं स्यात् इह दृष्टिमण्डलं । विमृद्यमाने विलयं प्रयात्यलं ।। २१९ ... . .भावार्थ:-पित्तसे दृष्टि मण्डल नील, परिगलयी [म्लानतायुक्त अर्थात् पीला व नील मिला हुआ वर्ण ] अथवा पिंगले हो जाता है। कंफसे सफेद होता है और दृष्टि मण्डलको मलने पर वर्ण विलय नाश] होता है ॥२१॥ रक्तज सन्निपातजवर्ण. प्रवालसंकाशमयापि वासितं । भवेञ्च रक्तादिह दृष्टिमण्डलं । विचित्रवर्ण परितस्त्रिदोषजं । प्रकीर्तिताः षड्विधलिंगनाशकाः ॥ २२० । अर्थ-रक्त विकारसे दृष्टि मंडल प्रवाल के समान लाल या काला होजाता है। एवं सन्निपातसे विचित्र [नानावर्ण] वर्ण युक्त होता है । इस प्रकार छह प्रकारके लिंगनाशक रोग कहे गये हैं ॥२२०॥ विदग्धष्टिनामक षविध रोग व पित्तविदग्ध लक्षण. स्वदृष्टिरोगानथ पब्रवीम्यहं । प्रदुष्टपित्तेन कलंकितान्स्वयं । सुपीतलं पित्तविदग्धदृष्टिरप्यतीव पीतानखिलान्मपश्यति ॥२२१॥ १ नोट:-इस सानिपातिक लिंगनाश लक्षण कथनके बाद परिम्लायि नामक "वित्तजन्य रोग का लक्षण ग्रंथांतर में पाया जाता है । जो इसमें नहीं है। लेकिन इसका होना अत्यंत जरूरी है। अन्यथा - षड्संख्या की पूर्ति नहीं होती। इस के लक्षण को आचार्य ने अवश्य ही लिखा है । लेकिन प्रतिलिपिकारोंके दुर्लक्ष्य से यह छूट गया है। क्यों कि स्वयं आचार्य ॥ षड़िवध लिंगनाशकाः " " परिप्लायि च." ऐसा स्पष्ट लिखते हैं । इसका लक्षण हम लिख देते हैं । .....परिभलावी लक्षण:---रक्त के तेजसे मूठित पित्तसे परिम्लायी रोग उत्पन्न होता है। इस से रोगीको सत्र दिशायें पीली दिखती हैं और सर्वत्र उदय को प्राप्त सूर्यके समान दिखता है । तथा वृक्ष ऐसे दिखने लगते हैं कि खद्योत ( ज्योतिरिंगण) व किसी प्रकाश विशेषसे आच्छादित हों। इसे परिम्लायी रोग कहते हैं। २ पीतनीलो वर्णः। ३ दीपाशेखातुल्यवर्ण | दीपके शिखाके सदृश वर्ग। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः (३६१ ) भावार्थ:- अब दृष्टिगत छह रोगोंको कहेंगे, दूषित पित्तसे वह दृष्टि कलंकित होकर एकदम पीली होती है । और वह रोगी सर्व पदार्थों को पीले ही रंग में देखता है इसे पित्तविग्दृष्टि रोग कहते हैं ।। २२१ ॥ विदग्धदृष्टि लक्षण, तथैव स श्लेष्मविदग्धदृष्टिर- । प्यतीव शुक्लान्स्वयमग्रतः स्थितान् ॥ शशांक खस्पीटकामलद्युतीन् । प्रपश्यति स्थावर जंगमान् भृशं ||२२२॥ भावार्थ:- श्लेष्म विकारसे पीडित नेत्ररोगी अग्रभागमें स्थित सर्व स्थावर जंगम पदार्थों को चंद्रमा, शंख स्फटिक के समान सफेद रूपसे देखता है अर्थात् उसे सफेद ही दीखते हैं । इसे कफविग्दृष्टि कहते हैं ॥ २२२ ॥ धूमदर्शी लक्षण. शिरोऽभितोष्मश्रमशोकवेदना । प्रपीडिता दृष्टिरिहा खिलान् भुवि । rusयतीह प्रबलातिधूमवान् । स धूपदर्शति वदति तं बुधाः ॥२२३॥ भावार्थ:- शिर में उष्णताका प्रवेश अत्यधिक श्रम, शोक व सिरदर्द इनसे पीडित दृष्टि लोकके समस्त पदार्थो को धुंदला देखती है । इसे धूमदर्शी ऐसा विद्वानोनें कहां है ।। २२३ ॥ हस्वजाति लक्षण. भवेद्यदास्वता विजातिको । गढ़ों नृणां दृष्टिगतः सतेन ते ॥ भृशं प्रपश्यंति पुरो व्यवस्थितान् । तदोन्नतान्ह्रस्व निभान्सदोषतः ॥२२४॥ भावार्थ::- जब आंखो में ह्रस्वजातिक नामक रोग होता है तब वह रोगी सामने २ बडे २ पदार्थों को भी छोटे के समान देखता है अर्थात् उसे बडे पदार्थ छोटे दीखते हैं ।। २२४ ॥ ' नकुलांध्य लक्षण. यदा भुवि द्योतितदृष्टिरुज्वला | नरस्य रात्रौ नकुलस्य दृष्टिवत् । दिवा विचित्राणि स पश्यति ध्रुवं । भवेद्विकारो नकुलांध्यनामकम् || २२५ अर्थ — जब आंखें रात्रिमें नौलेके आंख के समान प्रकाशवान् व उज्वल होती हैं। अर्थात् चमकती हैं जिन से दिनमें विचित्र रूप देखने में आता हो, उसे नकुलांध्यरोग कहते हैं ॥२२५॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके गम्भीरष्टिलक्षण. प्रविष्टदृष्टिः पवनगपीडिता । रुजाभिभूतातिविकुंभिताकृतिः । भवेच्च गंभीरविशेषसंज्ञया । समन्विता दुष्टविशिष्टदृष्टिका ॥ २२६ ॥ ( ३६२ ) भावार्थ -वातसे पीडित आंख, अन्दर घुसी हुई अधिक पीडायुक्त, कुंभके सदृश आकृतिवाली मालूम होती हो ऐसे दूषित विशिष्टदृष्टिको गम्भीरदृष्टि के नामसे कहते हैं ।। २२६ ॥ निमित्तजलक्षण तथैव वाह्याराविहामयौ । निमित्ततोऽन्यो ह्यनिमित्ततश्च यः । निमित्ततस्तत्र महाभिघातजो | भवेदभिष्यंदविकल्पलक्षणः ॥ २२७॥ भावार्थ - आगंतुक लिंगनाश दो प्रकारका है एक निमित्तजन्य, दूसरा अनिमित्त जन्य । इनमें महान् अभिघात [ विषवृक्ष के फलसे स्पर्शित पवनके मस्तक में स्पर्श होना, चोट लगना इत्यादि ] से उत्पन्न सन्निपातिक अभिष्यंदके लक्षणसे संयुक्त लिंगनाश निमित्तजन्य कहलाता है ॥२२७॥ अनिमित्तजन्यलक्षण. दिवाकरैद्रोरगदीप्तवन्मणि- । प्रभासमीक्षाहतनष्टदृष्टिजः । व्यपेतदोषः प्रकृतिस्त्ररूपवान् । विकार एषोऽप्यनिमित्तलक्षणः ॥२२८॥ भावार्थ- सूर्य, इंद्र, नागजाति के देव व विशेष प्रकाशयुक्त हीरा आदि रत्नों को टकटकी लगाकर देखनेसे आंखकी शक्ति ( दर्शनशक्ति ) नष्ट होकर जो लिंगनाश उत्पन्न होता है वह दोषोंसे संयुक्त नहीं होता है, और अपनी प्राकृतिक स्वरूप में ही रहता है इसे अनिमित्तजन्य लिंगनाश कहते हैं ।। २२८॥ नेत्ररोगों का उपसंहार. इत्येवं नयनगतास्समस्तरोगाः । प्रत्येकं प्रकटितलक्षणेक्षितास्ते ॥ संक्षेपादिह निखिलक्रियाविशेषै- । restore विधिनात्र साधयेत्तान् ।। २२९ ।। भावार्थ:- इस प्रकार नेत्रगत समस्त रोगों को उन प्रत्येकों के लक्षण नाम आदि के साथ संक्षेपसे प्रकट कर चुके हैं । उनको उनको सम्पूर्ण क्रिया (चिकित्साक्रम ) विशेष औषधियों से, विधिपूर्वक कुशल चैव साधे अर्थात् चिकित्सा करें ॥ १२९ ॥ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। छहत्तर नेत्ररोगों की गणना, वाताधैर्दशदश संभवंति रोगा-। स्तत्रापि त्रय अधिकाः कफेन जाताः ॥ रक्तादायथ दशषटसर्वजास्ते ।। विशंत्या पुनरिह पंच वाद्यजी द्वौ ॥ २३० ॥ भावार्थ:-वात आदि प्रत्येक दोष से दस २ नेत्र रोग उत्पन्न होते हैं। इन में भी कफ से तीन अधिक होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि वातसे दस, पित्तसे दस, कफसे तेरह रोग उत्पन्न होते हैं। रक्त से सोलह, सन्निपात से पच्चीस और आगंतुकसे दो रोग उत्पन्न होते हैं ॥ २३० ॥ वातजअसाध्य रोग. रोगास्ते षडधिकसप्ततिश्च सर्वे । तत्रादो हतसहिताधिमंथरागाः ॥ गंभीरा दृनिमिपाहतं च वर्मा साध्याः स्युः पवनकृताश्चतुर्विकल्पाः ॥ २३१ ॥ भावार्थ:-उपरोक्त प्रकार वे सब अक्षिरोग मिलकर छहतर प्रकार से होते हैं । इन में वातसे उत्पन्न हताधिमंथ, गभीर दीष्ट, निमिष, वातहत वर्म, ये चार प्रकार के रोग असाध्य होते हैं ॥ २३१ वातज याप्य, साध्य रोग. काचाख्योऽरुण इति मारुतात्स याप्यः । शुष्काक्षिप्रपचनवातर्पययोऽसी ॥ स्यंदश्चाप्यभिहिताधिमंथरोगः । साध्याः स्युः पवनकृतान्यतोतिवातः ॥ २३२ ॥ भावार्थ:-वात से उत्पन्न, काचनामक जिसका अपर नाम अरुण रोग है वह याप्य है । एवं शुष्काक्षिपाक, वातपर्यय, वाताभियंद, बाताधिमंथ और अन्यतोवात ये पांच साध्य हैं ।। २३२ ।। पित्तज, असाध्य, याप्यरोग. हस्वादिः पुनरपि जातिकोऽथवारि-। ... साववेत्यभिहितपित्तजावसाध्यौ ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके काचाख्योप्यधिकृतनालिसज्ञिको । यो मलायी परिसहितश्च यापनीयः ॥२३३॥ भावार्थ:---पित्त से उत्पन्न हस्वजाति [ जात्य ] और जलस्राव, ये दो रोग असाध्य होते हैं । नीलिकाकाच, परिम्लायी ये दो रोग याप्य होते हैं ॥ २३३ ॥ पितजसाध्य रोग. स्यंदाख्योऽप्याभिहितस्तदाधिमंथः । शुक्त्यम्लाध्युषितविदग्धदृष्टिनाम्ना ।। धूमादिप्रकटितदर्शिना च सार्धे । साध्यास्ते षडपि च पिजा विकाराः ॥२३४॥ भावार्थ-पैत्तिकाभिष्यंद, पैतिकाधिमं, शुक्ति, अम्ला युषित, धूमदर्शी, पित्तविदग्धदृष्टि ये छह पैतिक रोग साध्य होते हैं ॥२३४॥ कफज असाध्य, साध्यरोग स्रावोऽयं कफजनितो ह्यसाध्यरूपो । याप्यः स्यात्कफकृत एव काचसंज्ञः ।। स्वंदस्तद्विहितनिजाधिमंथः। श्लेष्मादिग्रथितविदग्धदृष्टिनामा ॥ २३५ ॥ पोथक्या लगणयुताः क्रिमिप्रधाना । थि: स्यात् परियुताप्रवर्त्मपिष्टः॥ शुक्लार्मप्रवलकोपनाहयुक्ताः। श्लेष्मोत्था दश च तथैक एव साध्यः ॥२३६।। भावार्थ--कफजसाच असाध्य होता है । कफसे उत्पन्न काच रोग याप्य है । कफाभिष्यंद, कफजाधिमथ, बलासप्रथित, श्लेष्मविदग्वदृष्टि, पोथकी लगण, क्रिमिग्रंथि, परिक्लिन्नवर्म, पिष्टक, शक्काम, कफोपनाह, ये ग्यारह कफात्पन्न रोग साध्य होते हैं ।। २३५.२३६ ॥ रक्तज असाध्य, याव्य, साध्य रोगलक्षण, रक्ताशी व्रणयुतशुरुमारितोऽ। सृक्नावोऽजकजातमसाध्यरूपरोगाः ॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। याप्यस्स्यासनरपि तज्ज एव काचः। स्यंदाख्योप्यधियुतमन्यनामरोगः ॥ २३७॥ क्लिष्टोऽयं निगदितवमै लोहितार्म ।। प्रख्यातं क्षतवियुतशुक्लमर्जुनाख्यं । पर्वण्यंजन कृतनामिका शिराणां ॥ जाल यत्पुनरपि हर्षकोत्पाती ॥ २३८ ॥ साध्यास्ते रुधिरकृतामयादशान्येऽ। प्येकच प्रकटितलक्षणाः प्रताः ।। भावार्थ:--रक्तसे उत्पन्न रोगों में, अक्षिगत रखतार्श, सम्रणशुक्ल, रक्तस्राव अजकजात ये चार रोग असाध्य होते हैं । रक्तज काच यह एक याप्य है । रक्ताभिष्यंद, रक्तजाधिमंथ, क्लिष्टवर्म, लोहिताम, अत्रणशुक्ल [शुक्र] अर्जुन, पर्वणी, अंजननामिका, शिरा जाल, शिराहर्ष, शिरोत्पात, ये [ रक्त से उत्पन्न ] ग्यारह नेत्र रोग साध्य होते हैं जिन के लक्षण पहिले प्रतिपादन कर चुके हैं ।। २३७-२३८ ॥ सन्निपातज असाध्य व याप्य रोग. आंध्यं यत्रकुलगतं च सर्वजेषु.। स्रावोऽपि प्रकटितपूयसंप्रयुक्तः ॥ २३९ ॥ पाकोऽयं नयनगतोऽलजी स्वनाम्ना॥ चत्वारः परिगदिताश्च वर्जनीयाः । काचश्च प्रकटितपक्ष्मजस्तु कोपो । वर्तीस्था द्वितयमपीह यापनीयम् ।। २४० ॥ भावार्थः ---त्रिदोपज रोगों में नकुलाध्य, पूयस्राव, नेत्रपाक, अलजि ये चार प्रकार के रोग असाध्य हैं। एवं पक्षमकोप, काच नामक पक्ष्मज रोग एवं वर्मस्थ दोनों प्रकारके रोग भी याप्य होते हैं ॥ २३९ ॥ २४ ॥ सन्निपातज साध्यरोग. वावप्रथलबिबंधकच, वर्मा। प्रक्किन्नं यदपि च (१) पिल्लिकाक्षि साक्षात् ।। या प्रोक्ता निजपिडिका सिरासु जाता ।। स्नायवर्माप्यधियुतमांसकार्य सम्यक् ॥२४१॥ १ कृष्ण इति पाठांतरं । . . Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((३६६) कल्याणकारके प्रस्तादिप्रथितमथार्म पाकयुग्मः । श्यावाख्यं बहलसुकर्दमार्शसाम् ॥ यद्वामन्यद्विससहितं च शर्कराख्यं । शुक्लार्बुदमलस स्वपूयपूर्वः ॥२४२॥ उत्संगिन्यथ पिटका व कुंभपूर्वा । साध्यास्तेषु विदितसर्वदोषजेषु ॥ बाह्यौ यौ प्रकटनिमित्तजानिमित्तजौ । साध्यौ वा भवत्यसाध्यलक्षणम् वा ।। २४३ ॥ भावार्थ:-- सान्निपातिक नेत्र रोगों में वत्मीयबंध, अक्लिन्नवर्त्म, शिराजपिडिका, नार्म, आधिमांसा, प्रस्तार्यर्म, सशोथ अक्षिपाक, अशोथ अक्षिपाक, श्यःक्वर्त्म, नहलधर्म, कर्दमवर्त्म, अशोवर्त्म, बिसवर्त्म, शर्करावर्त्म, शुक्रार्श, अर्बुद, प्यालस, उत्संगिनी और कुम्भिका, इतने [१९] रोग साध्य होते हैं । निमित्तजन्य व अनिमित्तजन्य ये आगंतुक रोग, कभी तो साध्य होते हैं और कभी असाध्य होते हैं ॥२४१--२४३॥ नेत्ररोगोंका उपसंहार. षट्सप्ततिः सकलनेत्रगदान्विकारान् । ज्ञात्वात्र साध्यमथ याप्यमसाध्यमित्थं ॥ छेद्यादिभिः प्रबलभेषजसंविधानैः । संयोजयेदुपशमक्रियया च सम्यक् ॥ २४४ ॥ भावार्थ:- उपर्युक्त प्रकार से छाहत्तर प्रकार के नेत्र विकारोंके साध्य, असाध्य वयाप्य स्वभावको अच्छीतरह जानकर छेदनादिक क्रियावोसे व प्रबल औषधियोंके प्रयोगसे, उपशमन क्रिया से उनकी अच्छीतरह चिकित्सा करें ॥ २४४ ॥ चिकित्सा विभाग. छेद्या भवति दश चैक इहाक्षिरोगा । nurse पंचनव चान्यगदास्तु लेख्याः || व्यास्तथैव दशपंच च शस्त्रवय || स्ते द्वादश प्रकटिताः खलु सप्त याप्याः ॥ २४५ ॥ पंचदशैव भिषजा परिवर्जनीयाः । बाह्रौ कदाचिदिह याप्यतराव साध्यां ॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। ......... भावार्थ:-नेत्र रोगोंमें ग्यारह रोग छेद्य (छेदन कर्म करने योग्य ) पांच रोग, भेद्य [ भेदन योग्य ] नौ रोग लेखन करने [ खुरचने ] योग्य, एवं पंद्रह रोग, व्यध्य [ वेधन करने योग्य ] होते हैं । बारह तो शस्त्र क्रियाके योग्य नहीं हैं अर्थात् औषधि से साधने योग्य हैं । सात रोग तो ( स्नेहन आदि क्रियाओंसे ) याप्य होते हैं। पंद्रह रोग तो छोडने योग्य हैं, चिकित्सा करने योग्य नहीं है । आगंतुक दो रोग कदा. चित् याप्य कदाचित् असाध्य होते हैं !! २४५॥ छद्य रोगोंके नाम. अर्याणि पंच पिटका च सिरासमुत्था । जालं शिराजमपि चार्बुदमन्यदर्शः ॥ २४६ ॥ शुष्क स्ववर्त्म निजपर्वणिकामयेन । छेद्या भवंति भिषना कथिता विकाराः। भावार्थ:-पांच प्रकार के अर्म, शिराजपिडिका, शिराजाल, अर्बुद, शुष्काश, अर्शोवर्म, पर्वणी, ये ग्यारह रोग, वैद्यद्वारा छेदने योग्य होते हैं अर्थात छेदन करने से इनमें आराम होता है ॥ २४६॥ भेध रोगोंके नाम. ग्रंथिःक्रिमिप्रभव एक कफोपनाहः । स्यादंजनाक्षिलगणो बिसवम॑ भेद्याः ॥ २४७॥ भावार्थ:---कृमिग्रंथि, कपनाह, अंजननामिका, लगण, बिसवम, ये पांच रोग भेदन करने योग्य होते हैं ।। २४७॥ लेख्य रोगोंके नाम. क्लिष्टाबबंधवहलाधिककर्दमानि । श्यावादिवर्ती सहशर्करया च कुंभी-॥ न्युत्संगिनी कथितपाथकिका विकारा। लेख्या भवंति कथिता मुनिभिः पुराणैः ॥ २४८ ॥ भावार्थ:---क्लिष्टयम, बद्रवर्म ( वावबंध , वइलवम, कर्दमयम, (वर्मकर्दम) श्याववर्म, शर्करावर्म, कुंभिका, उत्संगिनी, पोथकी, ये सेग लेखन क्रिया करने योग्य हैं अर्थात् लेखनक्रियासे साध्य होते हैं ऐसा प्राचीन महर्षियोंने प्रतिपादन किया Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८) कल्याणकारक srer रोगोंक नाम. वा शिरानिगदितावथपाकसंज्ञा - । वप्यन्यतश्च पवनोऽलस एव पूयः । वातादिपर्यय समंधविशेषिताभि- । यंदाच साधुभिरिहाधिकृतास्तु वेध्याः ॥ २४९ ॥ भावार्थ:- शिरोत्यात, शिराहर्ष, सशोथ नेत्रपाक, अशोथ नेत्रपाक, अन्यतोयात प्याउस, वातपर्येय, चार प्रकारका अधिमंथ, चार प्रकारका अभिष्यंद, ये ९५ रोग वेवन करने साध्य होते हैं ऐसा महर्षियोंने कहा है ॥ २४९ ॥ शस्त्र कर्मस वर्जित नेत्ररोगोंके नाम. पिष्टार्जुनेयमपि धूमनिदर्शिशुक्ति- । मक्किन्नवर्तकफपित्तविदग्धदृष्टि || शुष्काक्षिपाकमपि शुक्लमथामलकादि । प्रक्लिन्नवर्त्मक फसग्रथितं च रोगः ।। २५० ॥ तान् शस्त्रपात पहत्य विशेपितैश्व । सपिजरुपचरेद्विधिना विधिज्ञः ॥ आगंतुजावथ चयाविह दृष्टिरोगौ । तावप्यशस्त्रविधिना समुपक्रमेत ।। २५९ ॥ भावार्थ:- पिष्टक, अर्जुन, धूमदर्शी, अक्लिन्नवर्त्म, कफविदग्धदृष्टि, पित्त, विदग्धदृष्टि, शुष्काक्षि, पाक, शुक्र, अम्लाध्युषित, क्लिन्नवर्त्म, बलासग्रथित इन १२ रोगों में शस्त्रकर्मका प्रयोग न करके योग्य औषधियोंके विधिपूर्वक प्रयोगसे ही कुशल वैध चिकित्सा करें । आगंतुक दो रोगों को भी शस्त्र प्रयोग न कर औषधियोंसे ही शमन करना चाहिए ।। २५०-५१ ॥ थाप्य रोगोंके नाम व असाध्य नेत्ररोगोंक नाम. काचाः षष्यधिक पक्ष्मगतप्रकोपाः । याध्या भवस्यभिहिताः पुनरप्यसाध्याः ॥ तान्वर्जयेदनिल शोणितसन्निपातात् । प्रत्येक शोपि चतुरचतुरश्च जातान् ।। २५२ ॥ मत्थमेकमपि पित्तकृतौ तथा द्वौ । द्वावेव वाह्यजनिती च विववर्जयेतान् ॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३६९) भावार्थ:-छह प्रकार के काच रोग ( जिसके होते हुए भी, मनुष्यको थोडा बहुत दीखता हो ) और एक पक्ष्मकोप इस प्रकार सात रोग याप्य होते हैं । वात उत्पन्न चार [ हतादिमंथ, निमेष, गम्भीरिका और वातहतवर्म ] रोग, रक्त से उत्पन्न चार [क्तस्राव, अजकजात, शोणितार्श, सत्रणशुक्र ] रोग, सन्निपातज चार (पूयस्राव, नकुलाध्य, अक्षिपाकात्यय, अलजी) रोग, कफसे उत्पन्न कफस्राव नामक एक रोग,पित्तज हस्वजात्य,जलस्राव ये दो रोग इस प्रकार कुल १५ रोग असाध्य होते हैं, इसलिए कुशल वैद्य उन को छोड देवें । इसी प्रकार आगंतुक दो रोग भी कदाचित् असाध्य होते है। उस अवस्थामें इन को भी छोडें ॥ २५२ ॥ अभिन्ननवाभिघातचिकित्सा. नेत्राभिघातजमभिन्नमिहावलंब मानं निवेश्य घृतलिप्तमतः प्रबंधैः ॥२५३॥ भावार्थ-- नेत्रका अभिघात होकर उत्पन्न नेत्ररोगमें यदि नेत्र स्वस्थानसे भिन्न नहीं हुआ हो और उसीमें अवलंबित हो तो घृतलेपन कर पट्टी बांधकर उपचार करना चाहिये ।। २५३ ॥ भिन्ननेनाभिघातचिकित्सा. मिनं व्यपोह्य नयन प्रविलंबमानं । पागुक्तसबणविधानत एव साध्यम् ॥ संस्वेदनप्रबललेपनधूमनस्य संतपणैरभिहतोऽप्युपशांतिमेति ॥२५४॥ भावार्थ-यदि भिन्न होकर उसमें लगा हुआ हो तो उसको अलग कर पूर्वोक्त बणविधान से उसे साध्य करना चाहिये । साथमें स्वेदन, लेपन, धूमपान, नस्य व संतर्पण आदिके प्रयोगस भी उपरोक्त रोग उपशांतिको प्राप्त होता है ॥२५४॥ वातजरोगचिकित्साधिकारः। वातादिदोपजनेत्ररोगोंकी चिकित्सावर्णनप्रतिक्षा. मारुतपर्यय, व अन्यतोवातचिकित्सा वातादिदोषजनितानखिलाक्षिरोगाम् । संक्षेपतः शमयितुं सुविधि विधारणे ॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७०) कल्याणकारके तत्रादितोऽनिलविपर्ययमन्यतश्च । वांतं स वातविधिना समुपक्रमेत ॥ २५५ ॥ ____ भावार्थः--वातादिक दोषोंसे उत्पन्न समस्त नेत्ररोगोंको शमन करनेके लिये योग्य औषधि विधि संक्षेपसे कहेंगे । पहिले, मारुतपर्यय, अन्यतोवात, इन दोनों रोगोंका वात्तज नेत्ररोगों वातभिष्यंद आदि । में कहे गये चिकित्साविधिसे उपचार करें ॥ २५५ ॥ शुष्काक्षिपाकमें अंजनतर्पण. स्तन्योदकेन घृततैलयुतेन शुंठी-। चूर्ण सपूरकरसेन ससैंधवेन ॥ पृष्टं तदंजनमतिप्रवरं विशुष्के । पाके हितं नयनतर्पणमाज्यतैलैः ॥ २५६ ॥ ... भावार्थ:-स्तनदूध, घृत व तेल सेंधानमक, बिजौरा निंबूके रसमें सोंठके चूर्णको अच्छीतरह पीसकर अंजन तैयार करें। वह अंजन शुष्काक्षिपाकरोगके लिये अत्यंत हितकर है। एवं घृत, तैलसे नेत्र को तर्पण करना भी इस रोग में हितकर होता है ॥ २५६॥ शुष्काक्षिपाक में सेक. सिंधूत्थचूर्णसहितेन हितं कदुष्ण-। तैलेन कोष्णपयसा परिपेचनं च ॥ वातोद्धतानखिलनेत्रगतान्विकारान् । यत्नादनेन विधिना समुपक्रमेत ॥ २५७ ॥ भावार्थ:-शुष्काक्षिपाक रोगमें सेंधानमक को अल्प उष्ण तेलमें मिलाकर सेचन करना एवं थोडा गरम दूधसे सेचन करना हितकर है । इस प्रकारके उपायोंसे समस्त वातविकारसे उत्पन्न नेत्ररोगोंको बहुत प्रयत्नके साथ चिकित्सा करें ॥२५॥ पित्तजनेत्ररोगचिकित्साधिकारः। सर्वपित्तजनेत्ररोगचिकित्सा. पित्तोत्थितानखिलशीतलसंविधानः । सर्वापयानुपचरेदुपचारवेदी ॥ .. १भिन्नं इति पाठांतरं Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। ( ३७१) निर्यासमेव नरकिंशुकधुक्षजातं । क्षीरेण पिष्टमिह शर्करया विमिश्रम् ॥२५८॥ अम्लाध्युषित चिकित्सा. आश्च्योतनं निखिलपित्तकृताक्षिरोगा- । म्लाबाधिकाध्युषितमप्युपहंति सद्यः ॥ तोयं तथा त्रिफलया श्रृतमाज्यमिश्रं । पेयं भवेद्धतमलं न तु शुक्तिकायां ॥२५९॥ भावार्थ:-पित्तविकारसे उत्पन्न समस्त रोगोंको शीतल विधानोंके द्वारा नेत्ररोगकी चिकित्साको जाननेवाला वैद्य उपचार करें। ढाक की गोंदको दूधके साथ पीसकर शक्कर मिलाकर आश्च्योतन (आंखोमें डालनेकी विधि) करें । समस्त पित्तकृत नेत्रारोगोंको व अम्लाध्युषित आदि रोगोंको शीघ्र वह दूर करता है। इसी प्रकार त्रिफलाके काढेमें घी मिलाकर पीवें तो अम्लाध्युषित रोग को दूर करता है। यह योग शुक्तिरोगमें हितकारी नहीं है ॥ २५८-५९ ॥ शुक्तिरोग में अंजन. शीतांजनान्यपि च शुक्तिनिवारणार्थ । मुक्ताफलस्फटिकविद्रुमशंखशुक्ति-- ॥ सत्कांचनं रजतचंदनशकराढ्यं । संयोजयदिदमजापयसा सुपिष्टम् ॥ २६० ॥ भावार्थ:- आक्षिगत शुक्तिविकारको दूर करने के लिए शीतगुणयुक्त अंजनों के प्रयोग करना चाहिए । एवं मोती, स्पटिकमणि, शंख, सीप, सुवर्ण, चांदी, चंदन, व शर्करा इनको बकरीके दूधमें अच्छीतरह पीसकर अंजन बनाकर आंखोंमें प्रयोग करें ॥ २६० ॥ कफजनेत्ररोगचिकित्साधिकारः । धूमदर्शी व सर्व श्लेष्मजनेत्ररोगोंकी चिकितला. गव्यं धृतं सततमेव पिवेच्च नस्य । तेनैव साधु विदधीत स धूमदर्शी ॥ श्लेष्मामयानपि च रूक्षकटुप्रयोगः । शीघ्रं जयेदधिकतीक्ष्णशिरोविरकः ।। २६१ ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७२) कल्याणकारके भावार्थ---धूमदर्शी रोगके लिए सदा गायका घृत पिलाना व उसीसे मस्य प्रयोग करना हितकर है। कफविकारसे उत्पन्न नेत्ररोगोंको भी रूक्ष व कटु औषधियोंके प्रयोग से एवं तीक्ष्ण शिरोविरेचन से शीन उपशम करना चाहिए ॥ २६१ ॥ बलासप्रथितमें क्षारांजन. धान्यांच्छलाकियवकृष्णतिलान्विशोष्य । छागेन साधुपयसा बहुशो विभाव्य ॥ क्षारप्रणीतविधिना परिदह्य पक्वं । नाइयां स्थितं पृथुकफग्रथिनेऽजनं स्यात् ।। २६२ ॥ भावार्थ---शलाकसे युक्त यब, कृष्णतिल, इन धान्योंको अच्छी तरह सुखाकर फिर बकरीके दूधके साथ वार २ भावना देखें । बादमें क्षार बनाने की विधि के अनुसार उनको जलाकर उस भस्म को पानी से छाने और पकावें । इस क्षारको सलाई से बलासप्रथित रोगयुक्त आंख में अंजन करें ॥ २६२ ॥ पिष्टकमें अंजन. सपिप्पलीमरिचनागरशिवीज-। माम्लेन लुंगजनितेन सुपिष्टमिष्टं ॥ तत्पिष्टकं प्रतिनिहंत्यचिरादशेषान् । श्लेष्मामयानपि बहून् सततांजनेन ॥ २६३ ॥ भावार्थ-पीपल, मिरच, सोंठ, सेंजनका बीज इनको खट्टे माहुलंगके रसके साथ अच्छीतरह पीसकर अंजन बनावें । इस अंजनको अक्षिगत पिष्टक रोगोंमें सतत आंजने से उन रोगोंको दर करने के अलावा वह अनेक श्लेष्मरोगोंका भी शीघ्र नाश करता है ॥ २६३ ॥ परिक्लिन्नवर्ममें अंजन. कासीससिंधुलवणं जलधीप्रसूति । तालं फलाम्लपरिपिष्टमनेन मिश्रम् ॥ कांस्यं सुचूर्णमवदह्य पुटेन जाती। क्षारेण कल्कितमिदं विनिहंति पिल्लं ॥ २६४ ।। भावार्थ:-कसीस, सेंधानमक समुद्रफेन हरताल इनको खट्टे फलोंके रसके साथ अच्छीतरह पीसें । उस में कांसेका भस्म जो पुटपाक व क्षारपाकसे तैयार किया हुआ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (३७३) हो, उसमें जाती क्षारको मिलाकर अंजन बनावें । वह परिक्लिन्नवर्मको नाश करनके लिए हितकर है ॥ २६४ ॥ कण्डूनाशकअंजन. नादेयशुक्लमरिचानि मनःशिलानि । जातीप्रवालकुसुमानि फलाम्लपिष्टा-॥ न्याशोष्य धर्तिमसकृन्नयनांजनेन । कंडू निहंति कफजानखिलान्विकारान् ॥ २६५ ॥ . भावार्थ:--- सेंधानमक, सफेद मिरच [ छिलका निकाला हुआ काली मिर्च ] मैनाल, चमेलीका कोपल और फूल, इन को अम्लफलों के रसमें पार कर बत्ती बनाकर उसको सुखावें । इससे, बार २ अंजन करनेसे आंखों की खुजली और अफसे उत्पन्न अन्य समस्त विकारोंका नाश होता है ॥ २५५ ॥ रक्तजनेत्ररोगचिकित्साधिकारः। सर्वनेत्ररोगचिकित्सा. रक्तोत्थितानखिलनेत्रगतान्विकारान् । यंदाधिमंथबहुरक्तशिराममूतान् ।। सर्पिःप्रलेपनमृदून्सहसा शिराणां । मोक्षजयेदपि च देहशिरोविरेकैः ॥ २६६ ॥ भावार्थ-रक्तके विकारसे उत्पन्न नेत्रगत समस्त रोगोंको एवं रक्ताभियंद, रक्तजाधिमंथ, शिराहर्ष, शिरोत्पात इन रोगोंको भी घृतके लेपनसे मृदु बनाकर शिरामोक्षण घ विरेचन और शिरोविरेचन से जीतना चाहिये ॥ २६६ ॥ पीडायुक्तरक्तजनेत्ररोगचिकित्सा. आश्च्योतनांजनसनस्यपुटप्रपाक-1 धृमाक्षितर्पणविलेपनतत्मदेहान् ॥ मुस्निग्धशीतलगणैः मुगुडैनियुक्तं । सोष्णैर्जयेयदि च तीव्ररुजासुतीत्रान् ॥ २१७॥ भावार्थ:--रक्तज तीव्र नेत्ररोग यदि तीन पीड़ा से युक्त हो तो स्निग्ध शीतल Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७४) कल्याणकारके उष्ण औषधिसमूह व गुड इनके द्वारा, आश्च्योतन, अंजन, नस्य, पुटपाक, धूमपान, तर्पण, लेप और प्रदेह को नियोजन करें तो उपशम होता है ॥ २६७ ॥ शिरोत्पातशिरोहर्षकी चिकित्सा. सर्पिः पिबेदिह सिराप्रभवे जलूका-। स्संपातयन्नयनयोस्सहसा समंतात् ।। आज्यं गुडांजनमपि प्रथिती शिराजी। रोगौ जयेदुदितदुग्धयुता सिता वा ॥ २६८ ॥ - भावार्थ:-शिरा समुत्पन्न नेत्ररोग [ शिरोत्पात शिराहर्ष ] में घृतका पीना हितकर है । एवं आंखोंके चारों तरफ शीघ्र ही जलौंक लगवाकर रक्तमोक्षण करना, घृत व गुड के अंजन व दूध में मिल हुए शक्कर के उपयोगसे शिरोल्पात, शिराहर्ष ये दोनों रोग दूर होते हैं ॥ २६८ ॥ अर्जुन व अव्रणशुक्ल की चिकित्सा. शंखो घुतेन सहितोप्यथवा समुद्र-। फेनो जयत्यखिलमर्जुनमूजितोऽयम् । तत्फाणितप्रतिनिघृष्टमिहापि हेम-- । माक्षीकमर्जुनमपत्रणमक्षिपुष्पम् ।। २६९ ॥ भावार्थ:-तके साथ शंख भस्म या समुद्रफेनको मिलाकर अंजन करें तो अर्जुन रोग को जीतता है । सुवर्ण माक्षिक को फाणित [ एब ] के साथ घिस कर, अंजन करनेसे अर्जुन अवग शुक्त ठीक होते हैं ।। २६९ ॥ लेख्यांजन. सैमहोपरसरत्नसमस्तलोह- । चूर्णरशेषलवणैलशुनैः करंजैः ।। एलाकटुत्रिकफलायतोयपिष्टै- । लेख्यांजनं नयनरोगविलेखनं स्यात् ।।२७०॥ भावार्थ:---.सम्पूर्ण महारस, उपरस, सम्पूर्ण रत्नोपरत्न, एवं सर्वधातु, उपधातु ओंके चूर्ण [ भस्म ] सम्पूर्ण ननक, लहसन, करंज कंजा ] इनको इलायची सोंठ मिच, पीपल, हरड बहेडा, आंबला इनके कपाय से पीसकर अजन तयार करें । ( इसका नाम लेख्यांजन है । यह नेत्र रोगीको लेखन [ खुरच ] कर निकालता है ॥ २७० ।। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । नेत्रपraचिकित्सा. पार्क सशोफमपरं च शिरोविमोक्षः । संशोधनैरपि जयेदिदमंजन स्यात् ॥ महाजन. सर्पिस्ससैंधवफलाम्लयुते सुताम्र- । पात्रे विघृष्टमुषितं दशरात्रमत्र ॥ २७९ ॥ जातिमतीतकुसुमानि विडंगसारे शुंठी संधयुता सहपिप्पलीका || तैलेन मर्दितमिदं महदंजनाख्यं । नेत्रप्रपाकमसकुच्छमयत्यशेषम् ॥ २७२ ॥ ---- और दस दिन उसी में भावार्थ:- - शोफसहित आक्षिपाक व निःशोथ आक्षिपाक रोग को शिरामोक्षण व संशोधन से जीते। उस के लिए नीचे लिखे अंजन भी हितकर है । वृत, सेंधालोण अम्लफल के रस इन को ताम्बे के बर्तन में डालकर रगडें । पडे रहने दें । फिर उसमें जाईका फूल, वायविडंग का सार शुंठी, सेंधालोण, पीपल मिलाकर तेलसे मर्दन करें तो वह उत्तम अजन बनता है । इस अंजन का नाम महांजन है । इसे नेत्रपा रोग में शीघ्र शमन करता है ।। २७१ ।। २७२ ॥ (३७५) पूयालसप्रक्लिन्नवर्त्मचिकित्सा पूयालले रुधिरमोक्षणमाशु कुर्यात् । पत्रोपनाहमपि चार्द्रकसद्रसेन ॥ कासीस सैंधवकृतांजन कैर्जयेत्तान् । मक्लिन्नवर्त्म सहिताखिलनेत्ररोगान् ॥ २७३ ॥ भावार्थ:- यास रोगमें शीघ्र रक्तमोक्षण करना चाहिये और पत्तियोंसे उपना [ पुल्टिश ] भी करना उचित है । परिक्लिनवत्र्मादि समस्त नेत्र रोगोंको अद्रक के रस, कसीस व धालोणसे तैयार किये हुए अंजनसे उपशम करना चाहिये ॥ २७३ ॥ अथ शस्त्रप्रयोगाधिकारः । नेत्ररोगों में शस्त्र प्रयोग. शस्त्र प्रसाध्य बहुनेत्रगतामयान- । प्युष्णवशकलेन घृतप्रलिप्तान् ॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७६) कल्याणकार संवेदिताग्निशितशस्त्रमुखेन यत्नात् । तान्साधयेदभिहिताखिलतप्तयोगैः ॥ २७४ ॥ 16 भावार्थ ---- बहुत से नेत्र रोग शस्त्रक्रिया से साध्य होनेवाले हैं । उनको आंख में घृत लेपन करके उष्ण जल व वस्त्रके टुकडे द्वारा स्वेदन करें । फिर प्रयत्नपूर्वक तीक्ष्ण . शस्त्रप्रयोग से पूर्वोक्त विधि प्रकार साधन करें ॥ २७४ ॥ लेखन आदिशस्त्रकर्म. निर्भज्य वर्त्म पिचुना परिमृज्य यत्नात् । लेख्यान्विलिख्य लवणैः प्रतिसारयेत्तत् ॥ भेद्यान्विभिद्य बलिशैः परिसंगृहीतान् । छेद्यागमनुसंश्रितसर्वभावान् ॥ २७५ ॥ छिद्यात्सिराच परिवेध्य यथानुरूपं । वेध्यान् जयेद्विदितवेदविदां वरिष्ठः ॥ पश्चादपि प्रकटदोषविशेषयुक्त्या सद्भेषजैरुपचरेदखिलांजनाद्यैः ॥ २७६ ॥ भावार्थ:-- आंख के पलकोंको अच्छीतरह खोलकर पिंचु [ पोया ] से पहिले उसे साफकर देवें । तदनंतर लेख्य रोगोंको लेखनकर लवणसे प्रतिसारण करना चाहिए । aise शस्त्रसे पकडकर भेव रोगोंको भेदन करना चाहिये व छेद्य रोगोंको व अपांग में आश्रित सर्व विकारोंको छेदन करना चाहिये । वेध्य रोगोंको यथायोग्य शिरावेध [ फस्त खोल ] करके आयुर्वेद जाननेवालों में वरिष्ठ वैद्य जीतें । उपरोक्त प्रकार छेदन आदि करनेके बाद भी दोषानुरूप औषधि व अंजन इत्यादिके प्रयोग से युक्तिपूर्वक उपचार करें ।। २७५-२७६ ॥ पक्ष्मको पचिकित्सा. पक्ष्मप्रकोपमपि साधु निपीड्यना- । रुद्रधयेत् ग्रथितचारुललाटपट्टे || पक्ष्माभिवृद्धिमवलोक्य सुखाय धीमान् । आमोचयेदखिलनाल कृतप्रबंधान् ॥ २७७ ॥ भावार्थ -- पक्ष्मप्रकोपमें भी उसको अच्छी तरहसे दबाकर नालियोंसे प्रथित ललाटपट्टू (माई) को बांधना चाहिये | जब पक्ष्मवृद्धि होती हुई दिखे तो रोगीको कष्ट न हो इस इच्छासे उस बंधनको खोलना चाहिये ॥ २७७ ॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३७७) पक्षप्रकोप में लेखन आदिकर्म. संलिख्य तापहरणं दहनेन दग्ध्वा । . चोत्पाट्य वा प्रशमयेदिह पक्ष्मकोपम् ॥ दृष्टिप्रसादजनकैरपि दृष्टिरोगान् । साध्यान्विचार्य सततं समुपक्रयेत ॥ २७८ ॥ भावार्थ:-उपरोक्तविधि से यदि पक्षमकोप शांत न हो तो उसको लेखनकर्भ [ खुरच ] कर वा अग्निसे जलाकर [ अग्निकर्म कर ] अथवा उत्पाटन कर उपशम करना चाहिये जिससे पश्मकोप से उत्पन्न संताप दूर होता हैं । एवं साध्यदृष्टिरोगों को अर्थात् पक्ष्मकोपको नेत्राप्रसाद करनेवाले औषधियों से, हमेशा विचारपूर्वक चिकित्सा करें ॥ २७८॥ कफजालंग नाशमै शस्त्रकर्म. तल्लिंगनाशमपि तीनकफप्रजातं । ज्ञात्वा विमृद्य विलयं सहसा व्रजेत्तम् ।। स्वां नासिकामभिनिरीक्षत एव पुंसः । शुक्लपदेशसुषिरं सुविचार्य यत्नात् ॥ २७९ ॥ छिद्रे स्वदैवकृतलक्षणलक्षितेऽस्मिन् । विध्येत् क्रमक्रमत एव शनैश्शनैश्च ॥ सुश्लक्ष्णताम्रयवक्रशलाकया ती-। वोत्सिंहनादमनुधुक्कफमुल्लिखेत्तम् ॥ २८० ॥ दृष्टे पुरःस्थितसमस्तपदार्थजाते। तामाहरेत्क्रमत एव भिषक शलाकां ॥ उत्तानतश्शयनमस्य हितं सदैव । नस्यं कफघ्नकटुरूक्षवरौषधैश्च ॥ २८१ ॥ भावार्थ:-लिंगनाश रोग [ तिमिर ] को मर्दन करनेपर यदि वह शीघ्र ही विलय हो तो, उसे तीन कफसे उत्पन्न लिंगनाश समझकर उस रोगीको, अपने नाक की तरफ देखने को कहें । जब पैसे ही देखते रहें तो, उसका आंखके शक्लप्रदेश और छिद्र को प्रयत्न पूर्वक विचार करके, उस दैवकृत छिद्र में, अत्यंत चिकनी, ताम्र से बनायी हुई, यववक्त्रनामक शलाका से, क्रमशः धीरे २ वेधन करें। और छींक कराकर कपरका निकालें। आंग्बके सामने समान पदार्थ स्थित होने पर अर्थात Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके दीखने लगजाने पर, वैद्यको उस प्रवेश करायी गयी सलाई को, क्रमशः निकालना चाहिये । पश्चात् चित सुलाये हुए उस रोगीको कटुरूक्षगुणयुक्त, कफन श्रेष्ठ औषधियोंसे सदैव नस्य देना हितकर है ॥ २७९ ॥ २८० ॥ २८१ ॥ छामांबुना कतकनक्तफलद्वयं , वा। पिष्ट तदिष्टमिह दृष्टिकरांजनं स्यात् ॥ रक्ताख्यचदनमपि क्रमतो निघृष्टं । सौवीरवारिघृततैलफलाम्लतः ॥ २८२ ॥ भावार्थ:---बकरेके मूत्रके साथ कतक फल, करज फल, इस को पीसकर अंजन तयार करें । यह अजन आंख को बनाने वाला है । कांजी, पानी, वृत, तेल अम्लफलोंके रस व तक के साथ रक्त चंदनको धीरे धीरे विसकर अंजन करें तो आंखका अत्यंत हित होता है ॥ २८२ ॥ शलाका निर्माण. सत्तारताम्रगजहेमवराः शलाकाः । श्लक्ष्णा रसेद्रबहुवारकृतमलेपाः ॥ सौवीरभावनीवशुद्धतरातिशीताः । संघट्टनाद्विमलदृष्टिकरा नराणां ॥ २८३ ।। भावार्थः-दृष्टि में रगडने व अंजन लगाने के लिये, चांदी, ताम्बा, सांसा, व सोने की चिकनी शलाका बनानी चाहिये । उस पर पारा बहुबार [ लिसोडा ] का लेपन करके गरम करें और उसे, कांजी में बुझाये । इस प्रकार विशुद्ध ब शीत उस शलाका को मनुष्यों की आंख पर रगडने से आंखें निर्मल हो जाती हैं ॥ २८३ ॥ मा , लिंगनाशमें त्रिफला चूर्ण. चूर्ण यत्रिफलाकृतं तिलजसंमिश्रं च वातोद्भवे । श्लेष्मोत्थे तिमिरे घृतेन सहितं पित्तात्मके रक्तजे ॥ खण्डेनातिसितेन पिण्डितमिदं संभक्षितं पण्डितै-। दृष्टिं तुष्टिमतीव पुष्टिमधिकं वैशिष्टयमप्यावहेत् ॥ २८४ ॥ भावार्थ:-बातिक लिंगनाशमें, त्रिफलाके चूर्णको तिलके तैल के साथ, कफज लिंगनाशमैं धी के साथ, पित्त व रक्तज लिंगनाशमें सफेद खांड के साथ मिलाकर. सेवन करने से नेत्रमें प्रसाद, पुष्टि व वैशिष्टय उत्पन्न होता है ॥ २८४ ।।... ... . Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AALA क्षुद्ररोगाधिकारः (३७९) पकैश्चामलकीफलैरपि शतावर्याश्च मूलैश्शुभैः । सम्यक्पायसमेव गव्यघृतसंयुक्तं सदा सेवितं ॥ साक्षी पक्षिपतेरिवाक्षियुगले दृष्टिं करोत्यायताम् । वृष्यायुष्ककरं फलत्रयरसः शीतांबुपानोत्तमम् ॥ २८५ ॥ भावार्थ:--पके हुए आंवलेका फल, व शतावरीके जडसे अच्छा खीर बनाकर, उसमें गांयका घी मिलाकर सदा सेवन करें तो दोनों आंखें गरुडपक्षी के आंख के समान तीव्र होती हैं। त्रिफले का रस व ठण्डा पानी पीना वृष्य व आयुवेद्रिकारक हैं एवं दृष्टि को विशाल बनाता है ॥२८५il मौाद्यंजन. मौवित्रीकुमारीस्वरस-परिगतं सत्पुराणेष्टकानां । पिष्टं संघृष्टमिष्टं मलिनतरबृहत्कांस्यपात्रद्वयेऽस्मिन् । तैलाज्याभ्यां प्रयुक्तं पुनरपि बहुदीपांजनेनातिमिश्रं ॥ विश्वाभिष्यंदकोपान् शमयति सहसा नेजान् सर्वरोगान् ॥२८६॥ भावार्थ:--मेढासिंगी, हाडजोड, कुमारी इन के स्वरस से भावित पुराना 'इष्टक [ एरण्डवृक्ष अथवा ईंट ) की पिठीको मलिन कांसे के दो वर्तन में डालकर खूब -घिसे और उस में तैल, घी, दीपांजन ( काजल ) मिलादेवें । इस अंजनको आंजनेसे वह सम्पूर्ण अभिष्यंदरोग एवं अन्य नेत्रज सर्व रोगों को शीघ्र ही शमन करता है ।। २८६ ।। - हिमशीतलांजन. कपूरचंदनलतालवलीलवंग-। ककोलजातिफलकुंकुमयष्टिचूर्णैः ॥ वर्तीकृतैः सुरभिगव्यघृतप्रदीप्तं । शीतांजनं नयनयोहिमांतलाख्यम् ॥२८७ भावार्थ:----कपूर, चंदन, लता-कस्तूरी, हरपाररेवडी, लवंग, कंकोल, जायफल, केसर व मुलहटी इनका चूर्णकर फिर बत्ती बनाना चाहिये। उस बत्तीको सुगंधित गायके . घीसे जलाकर अंजन तैयार करें। यह हिमर्शातल नामक अंजन नेत्रोंके लिये हितकर है और शीतगुणयुक्त है ॥ २८७ ।। सौवर्णादिगुटिका. सौवर्ण ताम्रचूर्ण रजतसमधृतं मौक्तिकं विद्रुमं वा । १ आंवला और शतावरी को महीन चूण बनाकर दूध व शक्कर के साथ पकावें । अथवा आंवला और शतावरीके रस को दूध शकर के साथ पकाना चाहिये । यही पायस है। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८०) . कल्याणकारके धाच्याझ्याख्याभयानामुदधिकफनिशाशंखतुत्थामृतानाम् ॥ यष्टयाहापिप्पलीनागरवरमरिचानां विचणे समांशं । यष्टिकाथेम पिष्टं शमयति गुलिका नेत्ररोगानशेषान् ।। २८८ ॥ भावार्थ:- सुवर्णभस्म, ताम्रभस्म व " रजतभस्मको समांश लेकर अथवा मोतीभस्म व प्रवालभस्म को समभाग लेकर उसमें आंवला, बहेडा, हरड, समुद्रफेन [ समुद्र झाक ] हलदी, शंख, तूतिया, गिलोय, मुलैठी, पीपल, सोंठ, कालीमिरच इनके समांश चूर्गको. मिलावे। फिर मुलहटीके काथसे अच्छीतरह पीसकर गोली बमा। वह गोली (नेत्र में घिसकर लगानेसे ) समस्त नेत्ररोगोंको नाश करती हैं ॥ २८६ ॥ तुस्थाद्यंजन. तुत्थं चंदनरक्तचंदनयुतं काश्मीरकालागुरु-1... प्रोद्यत्मततमालचंद्रभुजगास्सर्वे समं संमिताः ॥ नीलाख्यांजनमत्र तद्विगुणितं चूर्णीकृतं कालिका-। . न्यस्तं नागशलाकयांजितमिदं सौभाग्यदृष्टिमदम् ॥ २८९ ॥ भावार्थ:-सूतिया, चंदन, रक्तचंदन, केशर, कालागरु, पारा, तमालपत्र, कपूर, शीसा इनको समान अशमें लेकर उसमें नीलांजनको द्विगुणरूपसे मिलावें । उन ‘सबको चूर्ण कर काजल तैयार करें। उसे करण्ड य शीशी में रखें और शीसेकी शलाकासे ( आंखमें ).लगावें तो नेत्र सौभाग्य से युक्त होता है ॥२८९॥ प्रसिद्ध योग. पादाभ्यंगः पादपूज्यार्चिताय । नस्य शीतं चांजनं सिद्धसेनैः ।। अक्षणामध्नस्तपणं श्रीजटाख्य । विख्याता ये दृष्टिसंहारकाले ॥२९॥ भावार्थः --~-दृष्टिनाशस बचने के लिये श्री पूज्यपाद स्वामी के. पादाभ्यंग द्वारा पूजित अर्थात् कथित, सिद्धसेन स्वामी द्वारा प्रतिपादित शीतनस्य व शीतांजन और जयचार्य द्वारा , कथित अक्षितर्पण, शिरोतर्पण, ये प्रयोग संसारमें प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं ।। २९० ॥ सूक्ष्माक्षराभीक्ष्णनिरीक्षणीध- । दीपप्रभादर्शनतो निवृत्तिः ॥ शश्वद्विनश्यत्प्रवरात्मदृष्ट- 1 दृष्टातिरक्षेति समंतभद्रैः ।। २९१ ॥ भावार्थ:--सूक्ष्म अक्षर, और · उज्वल दीपक आदिकी प्रभा को हमेशा देखनसे निवृत्त होना. यही सदा. विनाश स्वभाव को धारण करनेवाली, श्रेष्ट अपनी दृष्टि Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३.८१) ... .. . . .. . . . . की रक्षा है अर्थात् आंखों के रक्षण के लिए सूक्ष्म अक्षरोंका बांचना, तीन प्रकाशकी तरफ अधिक देखते रहना हितकर नहीं है, ऐसा समंतभद्राचार्यने कहा है ॥२९१ ॥ अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहाबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो। निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ।। २९२ ॥ भावार्थ:- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उट रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है। साथमें जगत्का एक मान्न हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ २९२ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे 'क्षुद्ररोगचिकित्सितं नामादितः पंचदशः परिच्छेदः । इत्युमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में क्षुद्ररोगाधिकार नामक ... पंद्रहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके अथ षोडशः परिच्छेदः मंगलाचरण. सुंदरांगमभिवंद्य जिनेंद्र । वंद्यमिंद्रमहितं प्रणिपत्यः ॥ . पंधुरानननिबंधनरोगान् । सन्दधाम्यखिललक्षणयुक्तान् ॥ १॥ भावार्थ:--परमौदारिक 'दिव्य ‘देहको धारण करनेवाले, इंद्रसे पूजित श्रीजिनकी वंदना कर ऐसे अनेक रोगोंको जिनके लिए मुख कारणीभूत है उसके सम्पूर्ण "लक्षण व कारण के साथ वर्णन करेंगे ॥ १ ॥ प्रतिक्षा. श्वासकासविरसातिपिपासा । छर्घरोचकखरस्वरभेदो-॥ दातिवर्तनिजनिष्टुरहिका- 1 पीनसायतिविरूपविकारान् ॥२॥ भावार्थ:-श्वास, कास, विरस, छर्दि अरोचकता, कर्कश स्वरभेद उदावर्त, कठोर हिक्का पीनस विरूप आदि रोगोंका वर्णन करेंगे ॥ २ ॥ लक्षितानखिललक्षणभेदैः । साधयेत्तदनुरूपविधानः। साध्ययाप्यपरिवर्जयितव्यान् । योजयेदधिकृतक्रमवेदी ॥ ३ ॥ भावार्थ:-अपने २ विविध प्रकार के लक्षणोंसे संयुक्त उपरोक्त रोगोंको उनके अनुकूल चिकित्सा क्रमको जाननेवाला वैद्य साध्य करें । लेकिन साध्य रोगोंको ही साध्य करें । याप्य को यापन करें । वर्जनीय को तो छोड देवें ॥३॥ अथ श्वासाधिकारः। श्वासलक्षण. श्वास इत्यभिहितो विपरीतः । प्राणवायुरुपरि प्रतिपन्नः ॥ होमणा सह निपीड्यंतरं तं । श्वास इत्यपि स पंचविधोऽयम् ॥४॥ भावार्थ:--प्राणवायु की गति विपरीत होकर जब वह केवल अथवा कफ के 'साय पीडन करती हुई ऊपर जाता है. इसे श्वास कहते हैं । यह श्वास पांचे प्रकार का " होता है ॥ ४॥ १ महाश्वास, ऊर्षश्वास, दिलश्वास, तमकदनास, सुश्वास, Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। क्षुद्रतमकलक्षण. क्षुद्रको भवति कर्मणि जातः । तभिवृत्तिरपि तस्य निवृत्ती ॥ योषवान् स कफकाससमेतो । दुर्बलस्य तमकोऽन्नविरोधी ॥ ५ ॥ भावार्थ:---कुछ परिश्रम करने पर जो श्वास उत्पन्न होता है विश्रांति लेने पर अपने आप ही शांत होता है उसे क्षुद्श्वास कहते हैं । जो दुर्बल मनुष्य को शद्वयुक्त कफ व खांसी के साथ श्वास चलता है, और जो अन्न के खानेसे बढ़ता है, उसे तमक- . धाम. कहते हैं ॥५॥ छिन्न व महाश्वास लक्षण. छिन्न इत्युदरपूरणयुक्तः । सोष्णबस्तिरखिलांगरुगुनः॥ स्तब्धदृष्टिरिह शुष्कगलोऽति- । ध्वानशूलसहितस्तु महान् स्यात् ॥ ६ ॥ भावार्थ:-जिस श्वास में पेट फूलता हो, बस्ति ( मूत्राशय) में दाह होता हो, सम्पूर्ण अंगों में उप्र पीडा होती हो (जो ठहर ठहरकर होता हो) उसे छिन्न श्वास कहते हैं | जिस की मौजूदगी में दृष्टि स्तब्ध होती हो, गला सूख जाता हो, अत्यंत शब्द होता हो, शूल से संयुक्त हो ऐसे श्वास को महाश्वास कहते हैं ॥६॥ .. . . ऊर्ध्व श्वासलक्षण. मर्मपीडितसमुद्भवदुःखो । बाढमुच्छसिति नष्टनिनादः॥ अर्ध्वदृष्टिरत एव महोर्ध्व- । श्वास इत्यभिहितो जिननायः ॥ ७ ॥ भावार्यः-- जिस में अत्यधिक उर्ध्व श्वास चढता हो, साथ में मर्मभेदी दुःख होता हो, आवाजका नाश होगया हो, आंखे ऊपर चढ गई हो तो ऐसे महान् श्वासको जिनभगवानने ऊर्चश्वास कहा है ॥ ७॥ साध्यासाध्य विद्यारs . क्षुद्रकस्तमक एव च साध्यो । दुर्वलस्य तमकोऽप्यतिकृच्छ । वर्जिता मुनिगगैरवशिष्टाः । श्वासिनामुपरि धारुचिकित्सा ॥ ८॥ भावार्थ:-क्षुद्रक और तमकश्यास साध्य हैं । अत्यधिक दुर्बल मनुष्य हो तो तमक श्वास भी अत्यंत कठिनसाथ्य है । बाकीके श्वासोंको मुनिगण त्यागने पोग्य कहते हैं । यहां से आगे मास रोगियोंकी श्रेष्टचिकित्सा का वर्णन करेंगे ॥८॥ . श्वासांचीकत्सा. छर्दनं प्रतिविधाय पुरस्तात् । स्नेहबस्तिविगतां च विशुद्धिम् ॥ योजयेवलवतापवलानाम् । वासिनामुपशमौषधयोगान् ॥ २॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके भावार्थ:-बलवान् श्वास रोगीको पहिले वमन कराकर स्नेहबस्ति आदि अन्य शुद्धियोंकी योजना करनी चाहिए। निर्बल रोगी हो तो उपशम औषत्रियोंले ही चिकित्सा करनी चाहिए ॥ ९ ॥ पिप्पल्यादि घृत व भाङ्यांवि चूर्णः पिप्पलीलवणवर्गविपकं । सपिरेव शमयत्यतिजीर्ण ॥ .. श्रृंगवेरलवणान्वितभार्डी-चूर्णमयमलतैलविमिश्रम् ॥ १० ॥ भावार्थ:--पीपल व लवण वर्गसे सिद्ध किया हुआ घी अत्यंत पुराने श्वास को शमन करता है। सोंठ लवण से युक्त भारंगी' चूर्ण को निर्मल तेलमें मिलाकर उपयोग करें तो भी श्वासके लिए हितकर है ॥ १० ॥ . भृगराज तैल व त्रिफला योग. भृगराजरसविंशतिभागैः। पकतलमथवा प्रतिवापम् ॥ . श्वासकासमुपहंत्यतिशीघ्रं । त्रैफलाजलमिवाज्यसमेतम् ॥ ११ ॥ भावार्थ:-जिस प्रकार हरडं, बहेडा, आंवले के कषाय में घी मिलाकर सेवन करने से श्वास रोग शीघ्र नाश होता है, उसी प्रकार एक भाग तिल के तैलमें वीस भाग भांगरे का रस और हरड़ का कल्क डाल फर सिद्ध कर के सेवन करें तो, श्वास और कास को शीघ्र ही नाश करता है ॥ ११॥ ... .... स्वगादि चूर्णत्वकटुत्रिकफलत्रयभार्डी- । नृत्यकाण्डकफलानि विचूर्ण्य ॥ शर्कराज्यसहितान्यवीला । श्वासमाशु जयतीद्धमपि प्राक् ॥ १२ ॥ भावार्थ:-दालचिनी, सोंठ, मिरच, पीपल, हरड, बहेडा, आंवला व भारंगी नृत्यकांडक (१) का फल इनको अच्छीतरह चूर्ण कर; शक्कर और.घी सहित चाहें तो बहुत दिनके पहिले खुच बढ़ा हुआ भी स्वासरोग शीघ्र दूर होता है ॥ १२ ॥ तलपोतक योग... पिपलीलवणतैलघृताक्तं । मूलमेव तलपाटकमातम् ॥ .. उत्तरीकृतमिदं क्षपयेत्तम् । श्वासमाश्वसुहरं क्षणमात्रात् ॥ १३ ॥ भावार्थ:--पीपल, लवण, तेल व घृत से युक्त तलपाटकके (1) मूल को सेवन करें तो प्राणहर श्वासको भी क्षण भर में दूर करता है ॥ १३ ॥ १ पुस्तके पाटोऽयं नोपलभ्यते । .................................... ........ marathimanus..... Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (३८५) अथ कासाधिकारः। ... कास लक्षण. पाणमारुत उदानसमेतो ! भिन्नकांस्य रवसंनिभघोषः ।। दुष्टतामुपगतः कुरुतेऽतः । कासरोगमपि पंचविकल्पम् ॥ १४ ॥ भावार्थ:-- दूषित प्राणवायु उदानवायु से मिलकर जब मुख्से बाहर आता है तो फूटे हुए कांसके वर्तनके समान शब्द होता है । इसे कास [ खांसी ] कहते हैं । यह भी पांच प्रकार का होता है ॥ १४ ॥ कासका भेद व लक्षण. पजक्षतहतक्षयकासा- | स्तेषु दोषजनिता निजलक्षाः ।। सि प्रतिहतेऽध्ययनाथैः । सांद्ररक्तसहितः क्षतकासः ॥ १५ ॥ भावार्थ:-वातज, पित्तज, कफज, क्षतज व धातुक्षयज इस प्रकार कास पांच प्रकार का है । दोषजकास तत्तदोषोंके लक्षणोंसे संयुक्त होते हैं। अध्ययनादिक श्रमसे हृदयमें क्षत ( जखम ) होनेपर जो कास उत्पन्न होता है जिसके साथ में गाढा मात्र (खून ) आता है उसे क्षतज कास कहते हैं ॥ १५ ॥ दुर्बलो रुधिरछायमजस्त्रं । ष्टीवति प्रबलकासविशिष्टः। । सर्वदोषजनितः क्षयकासो । दुश्चिकित्स्य इति तं प्रवदंति ॥ १६ ॥ भावार्थ:-धातुक्षय होने के कारण से मनुष्य दुर्बल हो गया हो, अत एव प्रबल खांसी से युक्त हुआ हो, रक्तके सदृश लाल थूक को थूकता हो, उसे क्षयज कास समझना चाहिए । यह कास त्रिदोषजन्य है और दुश्चिकित्स्य होता है ॥१६॥ वातजकासचिकित्सा. . वातजं प्रशमयत्यतिकासं । छर्दनं घृतविरेचनमाशु ॥ स्नेहबस्तिरपि साधुविपकं ! षट्पलं प्रथितसर्पिरुदारम् ।।१७॥ भावार्थ:- तिवृद्ध बातज कासमें वमन, घृतसे विरेचन व ग्नेह बस्तिके प्रयोग करें तो वातज कास शीघ्र ही उपशम होता है । एवं अच्छी तरह सिद्ध किये हुए षट्पल नामक प्रसिद्ध धृत के सेवन से भी वातज खाती उपशमको प्राप्त होती है ।।१७।। सैंधवं त्रिकटुहिंगविडंग- । इचूर्णित ततिलाइवमिथः । स्नेहधूममपहत्यनिलोत्थम् । कासमपयसेव शिलालम् ॥१८|| Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८६) कल्याणकारके भावार्थ:-सेंधालोण, त्रिकटु, हिंगु, वायविडंग इनको चूर्ण कर उसमें घृत व तिलका तेल मिलावे । इस से धूमपान करें । इस स्नैहिक धूमपान से वातज कास शीघ्र दूर होता है, जिस प्रकार कि अकौवे का दूध मनशिला, हरतालको नाश करता है ॥१८॥ वातजकासमें योगांतर. कोष्णगव्यघृतमेव पिबेद्वा । तैलमेव लवणोषणमिश्रम् ॥ ऊषणत्रयकृताम्लयवागू । क्षीरिकामपि पयोऽनिलकासी ॥१९॥ भावार्थ:--यातज कास से पीडित मनुष्य सेंधानमक व मिरच के चर्ण से मिश्रित कुछ गरम घी अथवा तैल पीवें एवं पीपल गजपीपल वनपीपल इनको डालकर की गई खट्टी यवागू , दूध आदि से बना हुआ खीर अथवा दूध ही पीना चाहिए ॥१९॥ वातजकासन योगांतर. व्याघ्रिकास्वरससिद्धकृतं वा । कासमर्दवृषभुंगरसर्वा ॥ पक्कतैलमनिलोद्भवकासं । नाशयत्यभयया लवणं वा ॥ २० ॥ भावार्थ:-कटेहरीके रस से सिद्ध घृत को पीने से अथवा कसोंदी, अडूसा व भृगराजके पक्व तैल को अथवा हरड को नमक के साथ सेवन करनेसे वात से उत्पन्न खांसी नष्ट होती है ॥२०॥ । पैत्तिककास चिकित्सा. पुण्डरीककुमुदोत्पलयष्टी- । सारिवाकथिततोयविपकम् ॥ सर्पिरेव सितया शमयेतं । पित्तकासमसकृत्परिलीढम् ॥ २१॥ भावार्थ:-कमल, श्वेतकमल, नीलकमल, मुलेठी सारिवा उनके काढे से सिद्ध किये हुए वृतको, शक्कर के साथ वार २ चाटे तो पित्तज कास शमन होता है ।। २१॥ पैत्तिककासन योग. पिप्पलीघृतगुडान्यपि पीत्वा । माहिषेण पयसा सहितानि ।। पिष्टयष्टिमधुरेक्षुरसैर्वा । पित्तकासमपहंत्यतिशीघ्रं ॥ २२ ॥ भावार्थः-पीपल, धी व गुड इनको भैंस के दूधके साथ पीने से, अथवा मुलैंठी को ईख के रस में पीसकर सेवन करने से, पित्तज कास शीघ्र नाश होता १ मष्टमधुरेक्षु इति पाठांतरं ।। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (३८७) कफजकास चिकित्सा. श्लेष्मकासमभयाघनशुण्ठी- चूर्णमाशु विनिहंति गुडेन ॥ छर्दनं तनुशिरोऽतिविरेकाः । तीक्ष्णधूमकबलाः कटुलेहाः ॥ २३ ॥ भावार्थ:-खस, मोथा, शुण्ठी, इनके चूर्णको गुडके साथ खायें तो श्लेष्मज कास दूर होता है । एवं वमन, विरेचन, शिरोविरेचन, तीक्ष्ण धूमपान व कवल धारण कराना एवं कटुलेहोंका चटाना भी कफज कास में हितकर है ॥२३॥ क्षतज, क्षयजकासचिकित्सा. यःक्षतक्षयकृतश्च भवेत्तं । कासमामलकगोक्षुरख—- ॥ रप्रियालमधुकोत्पलमाडौँ- । पिप्पलीकृतसमांशविचूर्णम् ॥२४॥ शर्कराघृतसमेतमिदं मं- । वक्षमात्रमवभक्ष्य समक्षम् ॥ क्षीरभुक् क्षपयतीह समस्तं । दीक्षितो जिनमते दुरितं वा ॥२५॥ भावार्थ:-आमला, गोखरू, खजूर, चिरौंजी मुलैठी, नीलकमल, भारंगी, पिप्पली इनको समान अंशमें लेकर चूर्ण बनावें। इससे, एक तोला चूर्ण को घी व शक्कर मिलाकर शीघ्र भक्षण करें और दूधके साथ भोजन करते रहें तो यह समस्त क्षत व क्षयसे उत्पन्न कासको नाश करता है, जैसा कि जनमतमें दीक्षित व्यक्ति कर्मीको नाश करता है ॥ २४॥२५ ॥ सक्तुपयोग. शालिमाषयरषष्टिकगोधू- । मप्रभृष्टवरपिष्टसमेतम् ॥ माहिषं पय इहाज्यगुडाभ्याम् । पाययत् क्षयकृतक्षयकासे ॥ २६ ॥ भावार्थ:-चावल, उडद, जौ, साठीधान्य, गेंहू इनको अच्छीतरह भूनकर पीसे, इस में घी गुड मिलाकर भैसके दूध के साथ पिलानेसे क्षयज कास नाश होता है ॥ २६॥ अथ विरसरोगाधिकारः। विरसनिदान व चिकित्सा. दोषभेदविरसं च मुखं प्र-। क्षालयेत्तदनुरूपकषायैः ।। दंतकाष्टकबलग्रहगण्डू- । पौषधैरपि शिरोऽतिविरेकैः ॥२७॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८८ ) कल्याणकारके भावार्थ:-( दोष भेदानुसार ) वात आदि दोषों से, मुख का रस विपरीत (जायका खराब ) हो जाता है, इसे विरस कहते हैं। इस रोग में तत्तदोषनाशक व मुख के रससे विपरीतरससे युक्त औषधि से सिद्ध कषायों से मुखको धोना चाहिये । एवं अनुकूल दंतुन से दंतधावन योग्यऔषविसे कवलधारण, गण्डूष व शिरोविरेचन कराना हितकर होता है ॥२७॥ अथ तृष्णारोगाधिकारः। तृष्णानिदान. दोषदूषितयकृतिलहया सं- । पीडितस्य गलतालुविशोषात् ॥ जायते बलवती हृदि तृष्णा । सा च कास इव पंचविकल्पा ॥ २८ ॥ भावार्थ:-जिसका यकृत् व प्लीहा ( जिगर-तिल्ली ) दोषोंसे दूषित होता जाता है, ऐसे पुरुष का गल व तालु प्रदेश सूख जानेसे हृदय में बलवती तृष्णा (प्यास) उत्पन्न होती है । इसका नामक तृष्णा रोग है । खांसी के समान इसका भी भेद पांच हैं ॥२८॥ दोषजतृष्णा लक्षण. सर्वदोषनिजलक्षणवेदी। वेदनाभिरुपलक्षितरूपाम् ।। साधयेदिह तृषामभिवृद्धां । त्रिप्रकारबहुभेषजपानः ॥ २९ ॥ भावार्थ:----सर्वदोषोंके लक्षण को जानने वाला वैद्य नाना प्रकार की वेदना. ओंसे, जिसका लक्षण प्रकटित हैं ऐसी =ढी हुई, तृष्णारोग को तीन प्रकारकी औष-- धियों के पान से साधन करना चाहिए । सारांश यह है कि वातादि दोषजन्य तृष्णा को तत्तदोषोंके लक्षण से [ यह वातज है पित्तज है आदि जानकर, उन तीन दोर्षों को नाश करनेवाली तीन प्रकार की औषधियों से चिकित्सा करनी चाहिए ॥ २९॥ क्षतजक्षयजतृष्णा लक्षण. या क्षतात् क्षतजसंक्षयता वा । वेदनाभिरथवापि तृषा स्यात् ॥... पंचमी हृदि रसक्षयजाता-। नैव शाम्यति दिवा च निशायाम् ॥३०॥ भावार्थ:-शस्त्र आदि से शरीर जखम होने पर अधिक रक्तस्रावसे अथवा अत्यधिक पीडा के कारण से तष्णा उत्पन्न होती है । इसे क्षतज तृष्णा कहते हैं । रक्त १ जसे कि कफोद्रेक से मुख नमकीन, पित्तोद्रेक से खट्टा कडुआ, वातोद्रेक से कषैला होता है। २ वातज, पित्तज, कफज, क्षतज, अयज, इस प्रकार तृष्णाका पांच भेद हैं । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। के क्षय होने से हृदय में जो तृष्णा उत्पन्न होती है जो [पानी पीते २ पेट भर जानेपर भी ] रात्रि व दिन कभी बिलकुल शांत नहीं होता है उसे क्षयज तृष्णा कहते हैं ॥३०॥ तृष्णाचिकित्सा. तृष्णकापि न विमुंचति कायं । वारिणोदरपुट परिपूर्णे ॥ छर्दयेद्धिमजलेन विधिज्ञः । पिप्पलीमधुककल्कयुतेन ॥ ३१॥ भावार्थ:--यदि पेटको पानीसे भर देनेपर भी प्यास बुजती नहीं, ऐसी अबस्थामें कुशल वैद्यको उचित है कि वह पीपल व ज्येष्टमध के कल्कसे युक्त ठण्डे पानीसे छर्दन (वमन) करावे ॥ ३१ ॥ ...... .. . तृष्णानिवारणार्थ उपायांतर.. ... लेपयेदपि तथाम्लफलैर्वा । तसलाहसिकतादिविशुद्धम् ॥ . पाययन्मधुरशीतलवगैः । पकतोयमथवातिसुगंधम् ॥ ३२ ॥ . भावार्थ:-- तृष्णा को रोकने के लिये, खट्टे फलों को पीसकर जिव्हापर लेप करना चाहिये । तथा लोह, बालू, चांदी, सोना आदि को तपाकर बुझाया हुआ, वा मधुरवर्ग, शीतलवक्ति औषधियों से सिद्ध, अथवा सुगंध औषधियों से मिश्रित या सिद्ध पानी को उसे पिलाना चाहिय ॥ ३२ ॥ वातादिजतृष्णाचिकित्सा. वातिकीमहिमवारिभिरुध- । त्पत्तिकीमपि च शीतलतोयैः ।। श्लैष्मिकी कटुकतितकीय- । मियनिह जयेदुस्तृष्णाम् ॥३३॥ भावार्थ:-वातज तृष्णा में गरमपानांसे, पित्तज में टण्डे पानी से, कफज में कटु, तिक्तकषायरस युक्त औषधियों से वमन कराता हुआ भयंकर तृष्णाको जीतनी चाहिए ॥ ३३ ॥ आमजसृष्णाचिकित्सा. दोषभेदपिहितामवितृष्णां । साधयेदखिलपित्तचिकित्सा-॥ मार्गतो न हि भवंति यतस्ताः । पित्तदोषरहितास्तत एव ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-दोषज तृष्णा में जिसकी गणना की गई है ऐसी आम से उत्पन्न १ रोचयेदिति पाठांतरं ॥ १ जो स्त्रीय हुए अनके अर्णि से उत्पन्न होती है, जिस में हृदयशूल, लार-गिरना, ग्लानि आदि तीनों दोषों के लक्षण पाये जाते हैं उस आमज तृष्णा कहते हैं । इस तृष्णाको दोषज तृष्णा में अंतर्भाव किया है। इसलिए पंच संख्याकी हानि नहीं होती है। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९० ) कल्याणकारके तृष्णा को पैत्तिक तृष्णा में कही गई सम्पूर्ण चिकित्साक्रमके अनुसार साधन करें । क्यों कि पित्तदोष को छोडकर तृष्णा उत्पन्न हो ही नहीं सकती है ॥ ३४॥ तृष्णानाशकपान, त्वक्कषायमथ शर्करया तं । क्षीरवृक्षकृतजातिरसं वा । सद्रसं बृहदुदुवरजातम् । पाययेदिह तृषापरितप्तम् ||३५|| भावार्थ:-- दालचीनी के कृपाय में शक्कर मिलाकर, क्षीरवृक्ष या जाई के रस अथवा बडे उदुंबर के रस को तृपासे परिपीडित रोगीको पिलाना चाहिए ॥ ३५॥ उत्पलादि कपाय. उत्पलांबुज कशमकश्रृंगा - । टांघ्रिभिः कथितगलिततोयम् ॥ चंदनबुधनवालक मिश्रं । स्थापयन्निशि नभस्थलदेशे ॥ ३६ ॥ गंधतोयमतिशीतलमेव । द्राक्षया सह सितासहितं तत् ॥ पाययेदधिकदाहतृषार्ते | मर्त्यमाशु सुखिनं विदधाति ॥ ३७ ॥ भावार्थ:--- नीलकमल, कमल, कसेरु, सिंघाडे, इनके जडसे सिद्ध किये हुए काथ (कोढा ) में चंदन, खस, कपूर, नेत्रवालाको मिलाकर रात्री में चांदनी में रखें। इस सुगंधित च शतिलजलको द्राक्षा व शक्कर के साथ अत्यधिक दाह व तृषा सहित रोगीको पिलायें । यह उसे सुखी बनायगा ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ सारिबादि क्वाथ. शारिवाकुशकशेरुक काशी। शीरवारिदमधूक सपिष्टैः ॥ पक्कतोयमतिशीतसिताढ्यम् । पीतमेतदपहंत्यतितृष्णाम् ॥ ३८ ॥ भावार्थ :-- सारिवा, कुश, कसेरु, कासतृण, रूस, नागरमोथा, महुआ इनको पीसकर काढा करें। जब वह ठण्डा होवें तब उसमें शक्कर मिलाकर पीये तो यह भयंकर तृष्णाको दूर करता है ॥ ३८ ॥ अथ छर्दिरोगाधिकारः । छर्दि ( मन ) निदान व चिकित्सा. छर्दिमप्यनिलपित्तकफोत्थं साधयेदधिकृतौषधभेदैः ॥ सर्वदोषजनितामपि सर्वे- । भेषजैभिषगशेषविधिज्ञः ॥ ३९ ॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। ( ३९१) भावार्थः-दोषोंके कुपित होने व अन्य कारणविशेषोंसे खाया हुआ जो कुछ भी पदार्थ मुखमार्गसे बाहर निकल आता है इसे छर्दि, वमन व उलटी कहते हैं । वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, आगंतुज, इस प्रकार छर्दिका भेद पांच है। इन वात आदिसे उत्पन्न छर्दि रोगोमें तत्तदोषांके लक्षण पाये जाते हैं। सन्निपातजमें तीनों दोषोंके लक्षण प्रकट होते हैं । जो मल, रक्त मांस आदि भाभास पदार्थोंको देखने आदिसे, गर्भोत्पत्तिके कारणसे, अजीर्ण व असात्म्य अन्नोंके सेवनसे और क्रिमिरोगसे जो छदि विकार (वमन) होता है, इसे आगंतुज छर्दि कहते है । उपरोक्त वातादिदोषजनित छर्दियोंको तत्तदोषनाशक औषधियों के प्रयोगसे साध्य करना चाहिये । तीनों दोषोंसे उत्पन्न ( सान्निपातन ) छर्दिको तीनों दोषोंको नाश करनेवाली औषधियोंसे सम्पूर्ण चिकित्साविधिको जाननेवाला वैद्य, साधन ( ठीक ) करें ॥ ३९ ॥ आगतुंजीचिकित्सा. दोहदोत्कटमलक्रिमिभभि- । भत्साद्यपथ्यतरभोजनजाताम् ॥ छर्दिमुद्धतनिनाखिलदोष । प्रक्रमैरुपचरेदुपगम्य ॥ ४० ।। भावार्थ:-गर्भिणी स्त्रियों की, मलकी उत्कटता, क्रिमिरोग भीभत्सपदार्थों को देखना, अपथ्य भोजन आदि से उत्पन्न आगंतुज छर्दि में, जिन २ दोषों के उद्रेक हो उन को जानकर तत्तद्दोषनाशक चिकित्सा विधि से, उपचार करें ॥ ४० ॥ छर्दिका असाध्यलक्षण. सास्रपूयकफमिश्रितरूपो- । पद्रवाधिकनिरंतरसक्ताम् ।। वर्जयेदिह भिषग्विदितार्थः । छर्दिमर्दिततनं बहुमूर्छा ॥ ४१ ॥ भावार्थ:-छर्दिसे पीडित रोगी, रक्त, प्य व कफसे मिश्रित वमन करता हो, अत्यधिक उपद्रवों से हमेशा युक्त रहता हो, वार २ मूर्छित होता हो तो ऐसे रोगी को अभिज्ञ वैद्य, असाध्य समझकर छोड देवें ॥ ४१ ॥ छर्दिमें ऊर्ध्वाधःशोधन. छर्दिषु प्रबलदोषयुतासु । छर्दनं हितमधःपरिशुद्धिम् ॥ प्रोक्तदोषविहितोषधयुक्तम् । योजयेज्जिनमतक्रमवेदी ॥ ४२ ॥ भावार्थ:-यदि छर्दि अत्यंत प्रबल दोषोंसे युक्त हो तो उस में पूर्वोक्त, तत्तदोषनाशक औषधियों से, वमन व विरेचन जिनमतके आयुर्वेदशास्त्र की चिकित्साक्रम को जाननेवाला वैद्य करावें ॥ ४२ ॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके छर्दिरोगीको पथ्यभोजन व वातजछर्दिचिकित्सा. शुष्कसात्म्यलघुभोजनमिष्टम् । साम्लसैंधवयुता च यवागूः ॥ क्षीरतोयमहिमं परिपीतं । छर्दिमाशु शमयत्यनिलोत्थम् ।। ४३ ।। भावार्थ:--इस में सूखा, शरीरको अनुकूल व लघु भोजन करना हितकर है । आम्ल सहित संधा लोण से युक्त यवागू तथा गरम दूध में पानी मिलाकर पीवे तो छर्दि रोग शीघ्र दूर होता है । ४३ ॥ वातजछर्दिमें सिद्धदुग्धपान. बिल्वमंथबृहतीद्वयटटू- । कांघ्रिपक्क जलसाधितदुग्धम् ॥ पाययेदहिममाज्यसमेतम् । छर्दिषु प्रबलवातयुतासु ॥४४॥ भावार्थ:--पेल, अगेथु, छोटी बडी कटेहली, टेटू इन के जड से पकाये हुए पानीसे सिद्ध गरम दूध में घी मिलाकर पिलावे तो वातकृत प्रबल छदिरोग दूर होत. पित्तजर्दिचिकित्सा. आज्यमिश्रममलामलकानां : कामिक्षुरसदुग्धसमेतम् ॥ पाययेदधिकशीतलवगैः । छर्दिषु प्रबलपित्तयुतासु ॥ ४५ ॥ भावार्थः-घृतसे मिश्रित निर्मल आमलेके क्वाथ में ईखका रस व दूधको एवं शीतल वर्गौषधियोंको मिलाकर पिलाने से पित्तकृत प्रबल छर्दिरोग दूर होता है ॥४५॥ काजछर्दिचिकित्सा. पाठया सह नृपांघ्रिपमुस्ता । निंबसिद्धमीहमं कटुकाव्यम् ॥ पाययेत्सलिलमत्र बलास- ! छर्दिमेतदपहंत्यचिरेण ॥४६ ॥ भावार्थः-पाठा, आरबध ( अमलतासका गूदा ) मोथा व निंबसे सिद्ध पानी म सोठ मिरच, पीपल आदि बटुऔषधि मिलावर दिलाने से .प.वृत छर्दिरोग शीघ्र दूर होता है ॥ ४६ ॥ सन्निपातजींदाचीकरला. सर्वदोष ननितामपि साक्षा- । च्छर्दिमप्रतिहतामृतवल्ली ।। काथमेव शमयच्च सितान्यं । पाययेन्नरमरं परमार्थम् ।। ४७ ॥ 'भावार्थ:--- सन्निपातज छर्दिश में काले आदि से नष्ट नहीं हुआ है ऐसे गिलोय के क्वाथ शक्कर मिलाकर पिलाने से अन्दम ही उपशम होता है ॥ ४७ ॥.. Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (३९३) RANAALAN वमन में सक्तुप्रयोग. शर्कराबहुलनागलवंगै- । स्संस्कृतं मगधजान्वितलाजा ॥ तर्पणं सततमेव यथाव- । गक्षयेत्तपि हितं वमनेषु ॥४८॥ भावार्थ:--शक्कर, बडी इलायची, नागने शर, लवंग इन से संस्कृत व पीपल के चूर्ण से युक्त, लाजा के ( खील ) पण को, घमन में तृष्णा से पीडित रोगियों को पखला तो अत्यंत हितकर होता है । ४८ ॥ कोलमज्जसहितामलकाना- । मस्थिचूर्णमथवा सितमिश्रम् ॥ . भक्षयेत्सकलगंधासताभिः । नस्यमप्यतिहितं दमनेषु ।। ४९ ॥ . भावार्थ:- देर की गिरी, और आंबले की गुठली की गिरी, इन के चूर्ण में शक्कर मिलाकर खिलाना, अथवा सम्पूर्ण सुगंध औषधि और शक्कर से नस्य देना वमन रोग में अत्यंत हितकर है ॥ ४९ ॥ ___ छार्द में पथ्यभोजन । । भक्ष्यभाज्यबहुपानकलेहान् । स्वादुंगधपरिपाकविचित्रान् ॥ - योजयेदिह भिषग्वमनाते- । प्वातुरेषु विधिवविधियुक्तान् ॥५०il ........ भावार्थ:-वमन से पीडित गोगयों के लिये कुशल वैद्य स्वादिष्ट, सुगंध व अच्छीतरह से किये गये योग्य भक्ष्य, भोजनद्रव्य, पानक व लेहों की विधिपूर्वक योजना करें॥५०॥ अथारोचकरोगाधिकारः। अरोचक निदान । दोषवंगबहुशोकनिमित्ता- । भोजनंवरुचिरप्रतिरूपा । प्राणिनामनलवैगुणतः स्यात् । जायंत स्वगुणलक्षणलक्ष्या ।। ५१॥ . भावार्थ:---यातापित्तादि दोषों के प्रकुपित होने से, शोक भय, क्रोध इत्यादि कारण से वे जठराग्नि के वैगुण्य से, प्राणियों को भोजन में अप्रतिम अरुचि उत्पन्न होती है जो कि, अपने २ गुणों के अनुसार तत्तलक्षणों से लक्षित देखे जाते हैं । १ खीलके चूर्ण ( सत्तु ) व अन्य किसीके सत्तु ऑको प.लरस, पानी, दृध आदि द्रव पदार्थ में ..भिगो दिया जाता है उस तर्पण कहते हैं । यहां तो खील के चूर्ण को पानी में भिगो कर और उक्त शकर आदि को डालकर. खावे । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके अर्थात् दोषादि के अनुसार उत्पन्न अन्यान्य लक्षणों से संयुक्त होती है इसे अरोचक रोग कहते हैं ॥ ५१ ॥ अरोचक चिकित्सा. अरोचक चिकित्सा. देशकालकुलजातिविशेषान् । सात्म्य भोजनरसानधिगम्या- ।। रोचकेषु विदधीत विचित्रा- । नन्नपानबहुलक्षणलेहान् ॥ ५२ ।। भावार्थ:- अरुचिरोग से पीडित रोगीयों को उनके, देश, काल, कुल, व जाति के विशेष से, उन के अनुकूल, भोजन रस आदिकों को जानकर, अर्थात किस देश कुल व जाति में उत्पन्नवाले को कोनसा भोजन व रस, सात्म्य व रुचिकारक होगा? इत्यादि जानकर उनको नानाप्रकार के विचित्र रुचिकारक से युक्त, अन्न, पान, वलेह आदि को भक्षणार्थ देवें जिस से अरुचि मिट जाय ॥ ५२ ॥ वमन आदि प्रयोग. छर्दनैरपि विरेकनिरूहै- । रग्निदीपनकरौषधयोगैः ।। नस्यतीक्ष्णकबलग्रहगण्डू- । पररांचकिनमाशु नियुज्यात् ॥ ५३॥ भावार्थ:-- उस अगेचकी रोगीको मन विरेचन, और निरूह बस्ति का प्रयोग करना चाहिये । एवं अग्निदीपन करनेवाले औषधियों के प्रयोग, नस्य, कवलग्रहण, गण्डूष आदिका भी प्रयोग शीघ्र करना चाहिये ॥ ५३॥ मातुलुगरल प्रयोग. यावशूक मणिमन्थजपथ्या- । त्र्यूषणामलकचूर्णविमिश्रम् ॥ मातुलुंगरसमत्र पिबेत्तै-- । दंतकाष्टमरुचिष्वपि दद्यात् ॥ ५४ ॥ भावार्थ:-अरुचिरोग से पीडित रोगी को यवक्षार, सेंधानमक, हरड, सोंट पीपल, आंवला, इन के चूर्ण को बिजौरे निंबू के रस में डाल कर पिलाना चाहिये । एवं इन ही चीजों से दांत साफ कराना चाहिये ॥ ५४ ॥ मुख प्रक्षालादि. मूत्रवर्गरजनीत्रिफलाम्ल-- । क्षारतिक्तकटुकोणकगायः । क्षालयेन्मुखमरोचकिन नै- । दैत काष्ट साहितैरवलेहैः ॥ ५५ ॥ १ इस का वातज, पित्तज कफज सन्निपातज आगंतुज (शोक क्रोध लोभ भय आदिसे उत्पन्न) प्रकार पांच भेद होता है। कार श्लोकस्थ, शोक शव को उपलक्षण जानाना चाहिये। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। भावार्थ:-मूत्रवर्ग व हलदी हरड़ बहेडा आंवला, खट्टी, क्षार, कडुआ, कटुक उष्ण व कषैली औषधियोंके कषाय से अरोचक रोगीके मुख को प्रक्षालन [कुल्ला) कराना चाहिये । एवं खट्टा कटु आदि रस युक्त दांतूनों से दांतून कराना व योग्य अवलेहोंको भी चटाना हितकर है ॥ ५५ ॥ पथ्य भोजन. आम्लतिक्तकटुसौरभशाकै- | सृष्टरूक्षलघुभोजनमिष्टम् । संततं स्वमनसोप्यनुकूलं । विदरोचकनिपीडितनृणाम् ॥ ५६ ॥ .. भावार्थ:-जो अरोचक रोग से पीडित हैं उन रोगियों को सदा खट्टा, कडुवा कटुक ( चरपरा ) मनोहर शाक भाजियोंसे युक्त स्वादिष्ट रूक्ष व लघु भोजन कराना हितकर होता है। एवं यह भी ध्यान में रहे कि वह भोजन उस रोगीके मनके अनुकूल हो ।। ५६ ॥ अथ स्वरभदरोगाधिकारः। __ स्वरभदनिदान व भेद. स्वाध्यायशोकविषकंठविघातनोच्च- । भाषायनेकविधकारणतः स्वरोप- ॥ घातो भविष्यति नृणामखिलैश्च दोष-- । मैदोविकाररुधिरादपि षडविधस्सः ॥ ५७ ।। भावार्थ:-जोरसे स्वाध्याय [ पढना ] करना, अतिशोक, विषभक्षण, गले में लकडी आदि से चोट लगना, जोर से बोलना, भाषण देना आदि अनेक कारणों से मनुष्यों को स्वर का घात [ नाश ] होता है [ गला बैठ जाता है । जिसे, स्वरभेद रोग कहते हैं । यह प्रकुपित वात, पित्त, कफ, त्रिदोष, मेद, व रक्त से उत्पन्न होता है। इसलिये उस का भेद छह है ॥५७॥ वातात्तिकफज स्वर भेदलक्षण. वाताहतस्वरनिपिडितमानुषस्य । भिन्नोरुगर्दभखरस्वरतातिपित्तान् ॥ संतापितास्यगलशोषविदाहतृष्णा । कंठावरोधिकफयुक्फतः स्वरः स्यात् ।। ५८ ॥ भावार्थ:-वातिक स्वर भेदसे पीडित मनुष्य का स्वर निकटते समय टूटासा माल्म होता है गधे के सदृश कर्कश होता है। पित्तज रोग से पीड़ित को बोलते समय Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारक मला सूखता है । गले में जलन होती है और अधिक प्यास लगता है । कफज स्वरभेद में, गला कफ से रुक जाता है, स्वर भी कफ से युक्त होकर निकलता है || ५८ ॥ त्रिदोषज, रक्तज स्वरभेद लक्षण. मोक्ताखिलप्रकटदोपकृतत्रिदोप- । लिंगस्वरी भवति वर्जयितव्य एषः ॥ . कृष्णाननोष्णसहितो रुधिरात्मक: स्या- । - तं चाप्यसाध्यसृपयस्वरभेदमाहुः ।। ५९ ॥ भावार्थ:- उपर्युक्त प्रकार के सर्व लक्षण एक साथ प्रकट होजाय तो उसे त्रिदोषज स्वरभेद समझना चाहिए। यह असाध्य होता है । रक्त के प्रकोप से उत्पन्न स्वरभेदमें मुख काला हो जाता है और अधिक गर्मी के साथ स्वर निकलता है । इसे भी ऋषिगण असाध्य कहते हैं ॥५९।। मेदजस्वरभदलक्षण! मेदोभिभूतगलतालुयुतो मनुष्यः । कृच्छाच्छनवदति गद्गदगाढवाक्यं ॥ अव्यक्तवणमतएव यथा प्रयत्ना-। न्मेदःक्षयाद्भवति सुस्वरता नरस्य ॥ ६० ॥ . भावार्थ:--जब मेद दूषित होकर, गल व तालु प्रदेश में प्राप्त होता है तो मेदज स्वरभेद उत्पन्न होता है । इससे युक्त मनुष्य, बहुत कष्टसे धीरे २ गद्गद कंटसे कठिन वचन को बोलता है । वर्ण का भी स्पष्ट उच्चारण नहीं कर सकता है । इसलिये प्रयत्नसे मेदोविकारको दूर करना चाहिये । इससे उसे सुस्वर आता है ॥ ६०॥ स्वरभेदचिकित्सा. सर्वान्स्वरातुरनरानभिवाक्ष्य साक्षात् । स्नेहादिभिः समुचितौषधयोग्ययोगः ।। दोपक्रमादुपचरेदथ वात्र कास-। श्वासप्रशांतिकरभेषजमुख्यगैः ॥ ६१॥ - भावार्थः- सर्वप्रकार के स्वरोपघात से पीडित रोगियों को अच्छी तरह परीक्षा कर स्नेहनादि विधिके द्वारा एवं उस के योग्य औषधियोंके प्रयोगसे अथग वासकासके उपशामक औषधियों से दोषों के क्रमसे चिकित्सा करनी चाहिये ।।१२।। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। वातपित्तकफज स्वरभेदचिकित्सा. भुक्तापार प्रतिदिनं धृतपानमिष्टं । वाताहतस्वरावकारनरेषु पिसे । क्षीर पिवेदश्रुतगुडपवलं बलासे । क्षारोदकं शिकत्रिफलादिमिश्रम् ॥ ६२ !! भावार्थ:---बातज स्वरभेदसे पीडित मनुष्यों को भोजनानंतर प्रतिदिन थाँका बाल इस होता है अर्थात वृतपान करना चाहिये। पित्तज स्वशेषघातमें घी व गुडसे मिला हुआ दूध पीना चाहिये । कफसे उत्पन्न रोग में क्षारजलमें त्रिकटु व त्रिफला भिश्रितकर पीना चाहिये ।। ६२ ॥ नस्य गण्डप आदि के प्रयोग. भृगामलामलकसद्रससाधितं य- । तैलं स्वनस्यविधिना स्वरभंदवेदी । गण्डपयूषकबलग्रहधूमपान- । संयोजयेत्तदनुरूपगणेस्स्वरातम् ॥ ६३ ॥ भावार्थ:--स्वरभेदरोग के स्वरूप को जाननेवाला वैद्य स्वरभेद से पीडित रोगीको भांगरा थ आंवले के रस से साधित तैलसे विवि के अनुसार नस्य देखें । एवं तदनुकूल योग्य औषधिसमूह से, गण्डूष (कुल्ला कराना ) यूषप्रयोग, कवल धारण, धूमपान कराना चाहिये ॥ ६३॥ यष्टीकपायपरिमिश्रितदुग्धसिद्ध । महाप्रभूतघृतपायसमव भुक्त्वा ॥ - सप्ताहमाशुवकिन्नरसुस्वरोयं । साक्षाद्भवेत्स्वरविकारमपोहा धीमान् ॥ ६४ ॥ भावार्थ:---मुझेटी के कपाय से मिश्रित दृधसे सिद्ध मूंगके पायस ( खीर ) में घी मिलाकर सात दिन खा तो संपूर्ण प्रकार के स्वर विकार दूर होकर उसका स्वर अंदर किन्नर के समान होजाता है ॥ ६४ ॥ मेदज सन्निपातज व रक्ताव भेद चिकित्सा ...पदोविकारतदुरूस्वर भेदभत्र । . विज्ञान जयेकफविधि पित्रिवहिधाप ।। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (142) कल्याणकार दोषत्रयाव जनितं परिहृत्य तस्याऽ । साध्यत्वमप्यतुविचार्य भिषग्यते ॥ ६५ ॥ भावार्थ:- मेदो विकार से उत्पन्न स्वरभेद में कफज स्वरभेद की जो चिकित्सा कही है, वही चिकित्सा करें । त्रिदोषज व रक्तज भेद को तो असाध्य कह. कर, उस असाध्यता के विषय में अच्छीतरह विचार कर चिकित्सा के करने में प्रयत्न करें ।। ६५ ।। स्वरभेदनाशक योग. भंगाख्यपवतासित सत्तिलान्वा । संभक्षयन्मरिचसच्चणकमगुंफम् || क्षीरं पिवेत्तदनुगव्यं घृतप्रगाढं । सोष्णं सशर्करमिह स्वरभेदवेदी ।। ६६ ॥ भावार्थ:-स्वरभेद से संयुक्त रोगी, भांगरे के पत्ते के साथ, अथवा मिरच के साथ चने की डाली को खाकर ऊपर से गय मिला हुआ गरम दूध पीये ॥ ६६ ॥ उदावर्त रोगाधिकारः अत्रोदावर्तमप्यातुरं ज्ञा- 1 त्वा यत्नात् कारणलक्षणश्च । सभ्देषज्यैस्साधयेत्साधु धीमान् ! तस्योपेक्षा क्षिप्रमेव क्षिणोति ॥ ६७ ॥ . भावार्थ:- उदावर्त रोग को, उसके कारण व लक्षणों से परीक्षा कर अच्छी औषधियों के प्रयोग से उस की चिकित्सा बुद्धिमान् वैद्य करें । यदि उपेक्षा की जाय तो वह शीघ्र ही प्राणवात करता है | ॥ ६७॥ काले तिलों को घृत व शक्कर से उदावर्त संप्राप्ति. वातादीनां वेगसंधारणाद्यः । सर्पेद्राशन्यग्निशस्त्रोपमानः ॥ क्रुद्धोऽपान प्यूर्ध्वमुत्पयतीत्री | दानव्याप्तः स्यादुदावर्तरोगः ॥ ६८ ॥ भावार्थ::-जब यह मनुष्य वातादिकोंके वेग को रोकता है उस से कुपित अपानवायु ऊपर जाकर उदानवायु में व्याप्त होता है लब Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। उदावर्त नामक रोग उत्पन्न होता है । यह सर्प, बिजली, अग्नि व शस्त्रके समान भयंकर होता है ।। ६८ ॥ ___ अपानवातरोधज उदावर्त. । तस्माद्वेगो नैव संधारणीयो । दीर्घायुष्य वांछतस्तत्तथैव ।। शूलाध्मानश्वासहद्रोगहिक्का । रूद्धोऽपानस्तत्क्षणादेव कुर्यात् ।। ६९ ॥ भावार्थ:-इसलिये जो लोग दीर्घायुष्य चाहते हैं वे कभी वेग संधारण नहीं करें अर्थात् उपस्थित वेगोंको नहीं रोके । अपानवायु के राधसे उसी समय शूल, आध्मान, श्वास हृदयरोग, हिचकी, आदि विकार होते हैं । ६९ ।। मूत्रावरोधज उदावत. मार्गात् भ्रष्टोऽपानवायुः पुरीषं । गाई रुध्वा वक्त्रतो निक्षिपेद्वा ।। . मूत्रे रुद्वे मूत्रमल्प मजेद्वा- । मातो बस्तिस्तत्र शूला भवंति ॥ ७० ॥ भावार्थ:-एवं वह अपानवायु स्वमार्ग से भ्रष्ट होकर मलको एकदम गाढा कर रोक देता है और मुखसे बाहर फेंकता है । मूत्र का रोध होने पर मूत्रा बहुत पोडा २ निकलता है। साथ ही बस्ति में आध्मान (फूल जाना) व शूल होता है ॥७०॥ मलावरोधज उदावर्त. शूलाटोपः श्वासवर्णो विबंधो । हिक्का वक्त्राद्वा पुरीषप्रवृत्तिः ॥ अज्ञानाद्रुद्ध पुरीष नराणम् । जायेदुयत्कर्तिकावान तीत्रा ।। ७१॥ . भावार्थ:- अज्ञान से मल शूल के वेग को रोक देने से शूल आदोप ( गुडगुडाहट ) श्वास, मल का विबंध, हिचकी, मुग्न से मल की प्रवृत्ति एवं कतरने जैसी तीन पीडा होती है ॥ ७१ ॥ शुक्रावरोधज उदावर्त. मूत्रापानद्वारमुप्कातिशोफः । कृच्छाच्छुक्रव्याप्तमूत्रप्रवृत्तिः । शुक्राश्मयस्संभवंत्यत्र कृच्छान्टुक्रस्यैवात्रापि वेगे निरुद्धे ।। ७२ ॥ भावार्थ:-वीर्य के वेग को निरोन करने पर मूत्रद्वार, अपानद्वार ( गुदा ) व अण्ड में शोफ होता है । और कठिनता से वीर्य से युक्त माकी प्रवृत्ति होती है। .' इस से भयंकर शुक्राइमरी गेंग भी होता है ॥ ७२ ॥ त रोग कहते है | १ जिस में वात मलमूत्र आदिकोंके भ्रमण होता है उसे उर्व वातविण्मूत्रादीनां आवर्ती भ्रमणं यस्मिन् स उदावतः । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके ... वमनावरोधज अवरोधज उदावर्त. . छा वेगे सन्निरुध्दे तु कुष्ठं । येरेवान्नं दोपजालदिग्धम् . शोकानंदाद्यश्रुपाते निरुद्ध । मूर्धाक्षणावीत्रामयारसंभवति ॥ ७३ ॥ भावार्थ:----बमनको रोकने पर जिन दोपोंसे वह रुद्ध अन्न दूषित होजाता है. उन्ही दोषों के आधिक्य से कुष्ट उत्पन्न होता है । शोक व आनंद से उत्पन्न आंसुवोंके सेकनेसे शिर ब नेत्र संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं ॥७३॥ क्षुतनिरोधज उदावर्तः नासा वकवाक्ष्युत्तमांगोद्भवास्ते । रोगास्स्युर्वंग निरुद्ध क्षुतस्य ॥ सप्तोदावर्तेषु तेषु क्रिया विद्वानन्याधेः सञ्चिकित्सा प्रकुर्यात् ॥ ७४ ॥ भावार्थ:-छींक का निरोध करने पर नाक, मुख, नेत्र व मस्तक संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सात प्रकार के उदावर्त रोगों में बातच्याधिकी चिकित्साका प्रयोगा कुशल बेंच करें ।। ७४ ॥ शुक्रोदावर्त व अन्योदावर्त की चिकित्सा. शुक्रौदावर्तिमत्यंतरूपा । मर्त्य स्पर्शेर्हर्षयेत् कामिनी प्राक् ॥ सर्वोदावर्तेषु यद्यच्च योग्यं । तत्तत्कुर्यात्तत्र तत्रौषधिज्ञः ॥ ७५ ॥ भावार्थ:---- शुक्रोदावर्त रोगसे पीडित मनुष्य को अधिकारूपवती स्त्री, अपने सुख स्पर्श आदिसे संतोषित करें । इसी प्रकार सर्व प्रकार के उदावर्त रोगोंमें भी कुशल वैध र्जित को जो अनुकूल हो वैसी क्रिया करें ।। ७५ ॥ अथ हिकारोगाधिकारः । हिक्कानिदान. यदा तु पवनो मुहुर्महरुपैति वक्त्रं भृशं । ल्पिहांत्रयकृदाननान्यधिकवेगतः पीडयन ।। हिनस्ति यतएव गावोषमहिनम्तमः प्राणिनां । वदनि जिनवल्लभा विषम र पदि कामयं ।। ७६॥ भावार्थ--जब प्रकुपित वायु विहा (लिली (नांगली) यकृत (जिगर) इन को अत्यधिक वेग से पीडित करता हुआ और हिग हिम सब करता हुआ, ऊपर १ विरुद्ध इाते पाठांतरं ! बिदग्धं दूपितं ] Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (४०१) ( उदर से मुखकी तरफ) बार २ आता है इसे हिक्का (हिचकी) रोग कहते हैं। यह रोग प्राणियों के दिव्य प्राणको नाश करता है। इसलिये इसका नाम हिक्का है ऐसा जिनेंद्र देवने कहा है ॥ ७६ ॥ हिक्काके पांच भेद. कफेन सहितोतिकोपवशतो महाप्राणइ - । त्युदीरितमरुत्करीत्याखिलपंचहिकामयं ॥ अथान्नजनितां तथात्र यमिको पुनः क्षुद्रिकां। महाप्रलयनामिकामधिकभूरिगंभीरिकां ।। ७७ ॥ अर्थ-कफसे युक्त प्राण नामक महा-वायु कुपित होकर पांच प्रकार के हिका रोगको उत्पन्न करता है । उनका नाम क्रमसे अन्नजा, यमिका, क्षुद्रिका, महाप्रल या व गंभीरिका है ॥ ७७ ॥ अन्नजयमिका हिकालक्षण. सुतीवकटुभोजनैर्मरुदधः स्वयं पातितः। तदोर्ध्वमत उत्पतन् हृदयपार्श्वपीडावहः ॥ करोत्यधिकृतान्नज विदितनामहिक्कां पुन- । श्चिरेण यमिकां च वेगयुगलैः शिरः कंपयन् ॥ ७८ ॥ . भावार्थ:-तीक्ष्ण व कटुपदार्थों के अत्यधिक भोजनमे नीचे दबा हुवा वात एकदम ऊपर आकर हृदय व फसली में पीडा उत्पन्न करते हुए जो हिकाको उत्पन्न करता है उसे अन्न जा हिक्का कहते हैं, और जो कंठ व सिरको कंपाते हुए ठहर ठहरकर एक २ दफे दो दो हिचकियोंको उत्पन्न करता है उसे यमिका हिक्का कहते शुद्रिकाहिका लक्षण. चिरेण बहु कालतो विदितमंदवेगैः ऋम-- ।। क्रमेण परिवर्द्धने प्रकटमत्रमूलादतः ॥ नृणामनुगतात्मनामसहितात्र हिक्का स्वयं । भवेदियमिह प्रतीतनिजलक्षणः क्षुद्रिका ॥ ७९ ॥ भावार्थ:----जो बहुत देरसे, मंश्योग के साथ क्रमाग से, जत्रुकास्थि ( हसली असून हिनतीति हिका। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (802) कल्याणकारके हड्डी) के मूलसे, अर्थात् कंठ और हृदय की संधिसे आता है और जिस का नाम भी सार्थक है ऐसे स्वलक्षण से लक्षित उसे क्षुद्रिका हिक्का कहते हैं ॥ ७९ ॥ महाप्रलय व गंभीरका हिक्कालक्षण. स्ववेगपरिपीडितात्मबहु मर्मनिर्मूलिका | महासहितनामिका भवति देहसंचालिनी ॥ स्वनाभिमभिभूय हिकायांत या च हिक्का नरा- 1 नुपद्रवति च प्रणादयुतघोरगंभीरिका ॥ ८० ॥ भावार्थ:-- जो ममस्थानों को अपने वेग के द्वारा अत्यंत पीडित करते हुए और समस्त शरीरको कम्पाते हुए हमेशा आता है उसे महाहिक्का कहते हैं । और ज नाभिस्थानको दबाकर उत्पन्न होता है व शरीर में अनेक ज्वरादि उपद्रवोंको उत्पन्न करता है एवं गम्भीर शब्द से युक्त होकर आता है उसे गंभीरका हिक्का हते हैं ॥ ८० ॥ 큰 हिक्काके असाध्य लक्षण. दीर्घीकरोति तनुमूर्ध्वगतां च दृष्टिं । हिका नरः क्षत्रधुना परिपीडितांग: timiseriesपरः परिभग्नपार्श्वयत्यातुरश्च भिषजा परिवर्जनीयः ॥ ८१ ॥ भावार्थ:- जो हिक्का रोगी के शरीरको लंबा बनाता है अर्थात् तनाव उत्पन्न करता है, जिसमें रोगी अत्यंत क्षण है, दृष्टिको ऊपर करता है, और छींक से युक्त है, अरोचकतासे सहित है एवं जिसका पार्श्व ( पसली टूटासा मालुम होता है ऐसे रोगी को वैद्य असाध्य समझकर छोडें ॥ ८१ ॥ हिका चिचित्सा. हिकोहारस्थापनार्थ च वेगा प्राणायामै स्वर्जन स्ताडनैव । म | नोदुं धीमान् योजयेद्योजनीयैः ॥ शीघ्रं त्रासयेद्वा जलाः ॥ ८२ ॥ भावार्थ:- हिक्का के उदार को बैठालने एवं वेगों को रोकने के लिये, अर्थात् उस के प्रकोप को रोकने के लिये कुशल वैद्य योग्य योजनावों को करें । इसके लिये प्राणायाम कराना, तर्जन [ डराना ] ताडन करना और जल आदि से कष्ट देना हितकर है || ८२ ॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। हिक्कानाशक योग. शर्करामधुकमागधिकानां । चूर्णमेव शमयत्यतिहिक्कां ॥ हैमगैरिकमथाज्यसमेतं । लेहयेन्मणिशिलामथवापि ॥ ८३ ॥ भावार्थ:-शक्कर, मुलेठी, पीपल, इनके चूर्ण के भक्षणसे अत्यंत वेगसहित हिक्का भी उपशम होता है । एवं सोना व मेरू को घी में मिलाकर चाटना चाहिये अथवा मनःशिलाको बी में मिश्रकर चाटना चाहिये ।। ८३ ।। हिक्कानाश योगन्द्रय. सैंधवाध्यमाहमाम्लरसं वा । सोप्णदुग्धमथवा घृतनिश्रम् ॥ क्षारचूर्णपरिकर्णिमनल्पम् । प्रातरेव स पिवेदिह हिक्की ।। ८४ ॥ भावार्थ-हिक्का गंगवालों को, प्रातःकाल खट्टे बिजोरे लिंबु आदि के खट्टे रस में सेंधालोग मिलाकर कुछ गरम करके पिलावें । अथवा गरमदृव मे घी व क्षारों के चूर्ण डालकर पिलायें तो शीघ्र ही हिक्का नाश होता है ॥ ८४ ॥ हिक्कान अन्यान्य योग. अंजनामलककोलसलाना- । तर्पण वृतगुडप्लुतमिष्टं ॥ हिकिनां कटुकरोहिणिको वा । पाटलीकुसुमतत्फलकल्कः ॥ ८५ ॥ भावार्थ:-सुरमा, आंवला, बेर, खील इन को घी व गुडमें भिगोकर हिक्कियों को खिलाना चाहिए। कटुक रोहिणी का प्रयोग भी उनके लिए उपयोगी है। एवं पाढल का पुष्प व फल का कलक बनाकर प्रयोग करना भी हितकारक है ॥ ८५ ॥ अधिकऊर्ध्वयातयुक्त हिक्काचिकित्सा. ऊर्धवातबहुलास्वथ हिक्का- । स्वादिशदधिकवस्तिविधानम् ॥ सैंधवाम्लसहितं च विरेकम् । योजयेदहिमभोजनवर्गम् ॥ ८६ ॥ - भावार्थ:- अत्यधिक ऊबात से युक्त हिका में विशेषतया बस्तिविधानक, प्रयोग करना चाहिये। सेंधालोण व आम्झ से युक्त विरेचनकी भी योजना करें तथा उष्णभोजनवर्ग का भी प्रयोग करें ॥ ८६ ॥ अथ प्रतिश्यायरोगाधिकारः। प्रतिश्यायदान. हिकास्सम्यग्विधिवदभिधाय प्रतिश्यायवर्गान् । वक्ष्ये साक्षाद्विहितसकलैः लक्षणेभैपजाद्यैः ॥ | Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके मूनि व्याप्ताः पवनकफपित्तासृजस्ते पृथग्या । क्रुद्वा कुयुर्निजगुणयुतान् तान् प्रतिश्यायरोगान् ॥ ८७ ॥ भावार्थ:- अभीतक हिका रोगके लक्षण, चिकित्सा आदि को विधिपूर्वक कहकर, अब प्रतिश्याय ( जुखाम ) रोग के समूह को उन के समस्त लक्षण व योग्य औषधियों के साथ वर्णन करेंगे। मस्तक में व्याप्त वात, कफ, पित्त व रक्त व्यस्त या समस्त जिस समय कुपित होजाते हैं वह अपने गुण से युक्त प्रतिश्याय नामक रोगोंको उत्पन्न करते हैं ॥ ८७ ॥ प्रतिश्याय का पूर्वरूप. म्यादत्यंत शवथुरखिलांगप्रमर्दो गुरुत्वं । मूर्ध्निस्तम्भः सततमनिमित्तैस्तथा रोमहर्षः ॥ तृष्णाद्यास्ते कतिपयमहोपद्रवारसंभवति । प्राग्रूपाणि प्रभवति सतीह प्रतिश्यायरोगे ।। ८८॥ भावार्थ:- प्रति.श्य य रोग उत्पन्न होने की सम्भावना हो तो, [ रोग होने के पहिले २ ] छींक आती है, संपूर्ण अंग टूटते हैं, शिर में भारीपना रहता है, अंग जकड जाते हैं, बिना विशेष कारण के ही हमेशा रोमांच होता रहता है, एवं प्यास आदि अनेक महान् उपद्रव होते हैं । ये सब प्रतिश्याय के पूर्वरूप हैं ।। ८८ ॥ __ वातज प्रतिश्यायके लक्षण. नासास्वच्छसुतिपिहितविरूपातिन व कण्ठे ॥ शोषस्तालन्यधरपुटयोश्शंखयोशातितोदः । निद्राभंगः क्षवथुरतिकष्टस्वरातिप्रभेदी ॥ वातोभते निजगुणगणः स्यात्प्रतिश्यायरोगे ।। ८९ ॥ भामार्थः-नाक से स्वच्छ [ पतली ] स्त्राव होना, नाक आन्छदित, विरूप व बंदसा होना, गला, तालू व ओठ सूख जाना, कनपटियोमें सुई चुभने जैसी तीन पीडा होना, निद्रानाश, अधिक छींक आना, गला बैठ जाना एवं अन्य बातोद्रेक के लक्षण पाया जाना, ये घातज प्रतिश्याय के लक्षण हैं ।। ८९ ।। पित्तज प्रतिश्याय के लक्षण पीतस्सोष्णस्त्रवति सहसा स्रावदुष्टोत्तमांगाद् । घ्राणाद्धमज्वलनसदृशो याति निवासवर्गः ॥ FaceurmararentraliaRentarmunitaMIRLIAMELATESARIYOTISH ARIArammmm mmuni smamremRADIANPrasaramL09ace १ उपरोक प्रकार वातज, पित्तज, कफज, निपातज, रजाज इस प्रकार जुखाम का पांच भेद हैं। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (४०५) तृष्णादाहप्रकटगुणयुक् सत्पतिश्यायमेनम् । पित्तोदूतं विदितनिचिन्हैवदेद्वेदवेदी ॥ ९० ॥ भावार्थ:- जिसमें मस्तकसे पीत व उष्ण दुष्टस्राव एकदम बहता हो, नाक से धुंआ व अग्नि के समान गरम निवास निकलता हो एवं तृप्णा, दाह व अन्य पित्त के लक्षण प्रकट होते हों, उसे शास्त्रज्ञ वैद्य पित्त के विकार से उत्पन्न प्रतिश्याय रोग कहें अर्थात् ये पित्तज प्रतिश्याय के लक्षण है ॥ १० ॥ कफजप्रतिश्याय के लक्षण. उन्टनाक्षो गुरुतरंशिरः कंठताखाष्टशीर्ष- । कंड्रायः शिशिरबहलश्वेतसंसारयुक्तः ॥ उष्णप्रार्थी घनतरकफोर्बुधनिश्वासमार्गों। श्लेष्मोत्थेऽस्मिन् भवति मनुजोऽयं प्रतिश्यायरोगे ॥९.१५ भावार्थ:-जिसमें इस मनुष्य की आंख के ऊपर सूजन हो जाती है, शिर भारी होजाता है, कंठ, तालु, ओंठ व शिरमें खुजली चलती है, नाकसे ठण्डा गाढा व सफेद स्राव बहता है, उष्ण पदार्थों की इच्छा करता है। निश्वासमार्गमें अति घन गाढा] कफ जम जाने के कारण, वह वंद रहता है, उसे कफ विकारसे उत्पन्न प्रतिश्याय रोग समझना चाहिये ॥ ९१ ॥ रक्तज प्रतिश्याय लक्षण. रक्तस्रावो भवति सततघ्राणलस्ताम्रचक्षु- । वक्षोधातः प्रतिदिनमतः पीडितस्स्यान्मनुष्यः ॥ सर्व गंध स्वयर्यापह महापूतिनिश्वासयुक्तो ॥ नैवं वेत्ति प्रबलरुधिरोत्थभतिश्यायरोगी ॥ ९२ ॥ भावार्थ:-रक्त विकार से उत्पन्न प्रतिश्यायरोग में नाक से सदा रक्तस्राव होता है। आंखे लाल हो जाती हैं । प्रतिदिन वह उर:क्षतके लक्षणोंसे युक्त होता है। स्वयं दुर्गध निश्वास से युक्त रहनेसे और समस्त गंध को वह समझता ही नहीं ।। ९२॥ ___सन्निपातज प्रतिश्याय लक्षण. भूयो भूयस्स्वयमुपशमं यात्यकस्माच शीघ्रं । भूत्वा भूत्वा पुनरपि मुहुर्यः प्रतिश्यायनामा ॥ पक्वो वा स्यादथ च सहसापक्व एवात्र साक्षात् ।। सोयं रोगो भवति विषमस्सर्वजस्सर्वलिंगः ॥ ९३ ॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०६) कल्याणकारक भावार्थ:-जो प्रतिश्याय बार २ होकर अकस्मात् शीघ्र पक कर अथवा विना पक्व के ही उपशम होता है, फिर बार २ होकर मिटता है एवं जिसमें सर्वदोषोंके चिन्ह प्रकट हो जाते हैं, इसे सन्निपातज प्रतिश्याय कहते हैं ।। ९३ ॥ दुष्टप्रतिश्यायलक्षण. शीघ्र शुष्यत्यथ पुनरिह क्लेियते चापि नासा । स्रोतो रोधादतिबहुकफो नाते तत्क्षणेन ॥ वैकल्यं स्यात् जति सहसा प्रतिनिश्वासयोगा- । द्धं सर्व स्वयमिह नवेत्त्येव दुष्ठाख्यरोगी ॥ १४ ॥ भावार्थ-जिस में नासारंध्र शीघ्र सूख जाता है पुनः गीला हो जाता है वृद्ध कफ स्रोतोंको रोक देता है, अतएव नाक रुक जाता है और कभी सहसा खुल जाता है । निश्वास दुर्गध होने के कारण उसे किसी प्रकार का गंध का ज्ञान नहीं होता है। इसे दुष्प्रतिश्याय रोग कहते हैं ॥ ९४ ॥ प्रतिश्यायकी उपेक्षा का दोष. सर्वे चैते प्रकटितगुणा ये प्रतिश्यायरोगा । अर्दोषप्रमथनगुणोपेक्षिताः सर्वदैव ॥ साक्षात्कालांतरमुपगता दृष्टतामेति कृच्छाः । प्रत्याख्येया क्षयविषमरोगावहा वा भवंति ॥ ९५ ॥ भावार्थ:-ये उपर्युक्त सर्व प्रकार के जिन के लक्षण आदि कह चुके हैं ऐसे प्रतिश्याय रोगों के अज्ञानसे दोष दूर नहीं किया जायगा अर्थात् सकाल में चिकित्सा न कर के उपेक्षा की जायगी तो कालांतरमें जाकर वे बहुत दृषित होकर कष्टसाध्य, वा प्रत्याख्येय [ छोडने योग्य ] हो जाते हैं अथवा क्षय आदि विषम रोगों को उत्पन्न करते हैं ॥ ९५ ॥ प्रतिश्यायचिकित्सा. दोषापेक्षाविहितसकलेभपेजस्संभयुक्तो।। सर्पिःपानाच्छमयति नवोत्थं प्रतिश्यायरोग । स्वेदाभ्यंगत्रिकटुबहुगण्डूषणैः शोधनायेंः । पकं कालाधनतरकर्फ स्रावयेन्नस्यवगैः । ९६ ॥ १ पैद्य इति पाडात Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (४०७). भावार्थ:- दोषों की अपेक्षा से लिये गये ( जिन की जहां जरूरत हो) सम्पूर्ण औषधियों से संयुक्त अथवा सिद्ध घृत के पीने से नवीन प्रतिश्याय रोग [ अपक्क ] शमन होता है, एवं इसपर [पाकार्थ ] स्वेद, अभ्यंग [ मालिश ] सोंठ, मिरच, पीपल आदि से गण्डूष, वमन अदि शुद्धिविधान का प्रयोग करना चाहिये । कालांतर में जो पक्क होगया है जिसका कफ गाढा होगया है उसे. नस्यप्रयोग करके बहाना चाहिये ।।९६॥ वात, पित्त, कफ, व रक्तज प्रतिश्यायचिकित्सा. वाते पंचप्रकटलवणैर्युक्तसर्पिः प्रशस्तं । पित्ते तिक्तामलकमधुरैः पक्कतमेतच्च रक्ते। श्लेष्मण्युष्णैरतिकटुकतिक्तातिरूक्षैः कषायैः ॥ पेयं विद्वद्विहितविधिना तत्प्रतिश्यायशांत्यै ।। ९७ ॥ भावार्थ:-यदि वह प्रतिश्याय बातज हो तो घृतमें पंचलवण मिलाकर पीना अच्छा है । पित्तज व रक्तज हो तो कडुआ आम्ल व मधुर रसयुक्त औषधियों से पकाया हुआ घृत पीना हितकर है । कफन प्रतिक्ष्याय में उष्ण अतिकटक तिक्त, रूक्ष और कषैली औषधियों में सिद्ध घृतको विधिपूर्वक पिलाये तो प्रतिश्याय की शांति होती है । प्रतिश्यायपाचनके प्रयोग. पाकं साक्षाव्रजति सहसा सोष्णशुंठीजलेन । क्षीरेणापि प्रवरमधुशिग्रुप्रयुक्ताद्रकेण ॥ तीक्ष्णभक्तः कटुकलकलायाढकीमुद्गरैः । कौलत्यामलमरिचसहितैस्तत्पतिश्यायरोगः ।। २८ ।। भावार्थः ---शुण्ठी से पकाये हुए गरम जलको पिलानेसे, लाल सेंजन व आद्रक से सिद्ध दूब के पीने से, तीक्ष्णभक्त राई, कल (बेर ) मटर, अरहर व मूंग इनसे सिद्ध यूष { दाल ] से और मिरच के चूर्ण से सहित कुलथी की कांजी के सेवन से प्रतिश्याय रोग शीघ्र ही पक जाता है ||२८|| ___ मन्निपातज व दुष्ट प्रतिश्यायचिकित्सा. सोष्णक्षारैः कटुगणविपकतैः वावपीडै- । स्तोणेनस्यैरहिमपरिषेकावगाहावलहैः ।। गण्डूपैर्वा कवलबहुधूमप्रयोगानुलेपैः । सद्यः शाम्यत्यखिलकृतदुष्टप्रतिश्यायरोगः ॥१९॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) कल्याणकारके भावार्थ:-सर्वदोषों से दृषित दुष्ट प्रतिश्यायरोग उष्ण, क्षार, कटु औषधि वर्ग से पकाया हुआ घृत, अवपीडन, नस्य व अन्य तक्षिण नस्य, उष्णतेक, उष्णकषाय जलादिक में अवगाहन, अवलेह, गण्डप, कवलग्रहण, बहुधूम प्रयोग व लेप से शीघ्र उपशम होता है ॥ २९ ॥ प्रतिश्याय का उपसंहार. इति प्रतिश्यायमहाविकारान् । विचार्य दोषक्रमभेदभिन्नान् ॥ प्रसाधयेत्तत्मतिकारमार्ग रशेषभैषज्यविशेषवेदी ॥ १०० ॥ भावार्थ:--३स प्रकार उपर्युक्त प्रकार से भिन्न २ दोषोंसे उत्पन्न प्रतिश्याय महारोगों को अच्छी तरह जानकर संपूर्ण औषधियों को जानेनेवाला वैद्य उन दोषोके नाश करने वाले प्रयोगों के द्वारा चिकित्सा करें ॥१०० ॥ अंतिम कथन। इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो। - निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ॥ १०१॥ भावार्थ:-- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्य व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिए प्रयोजनभूत सावनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है। साथमें जगत्का एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ १०१ ॥ इत्यग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे क्षुद्ररोगचिकित्सितं नामादितः षोडशः परिच्छेदः ।. इत्युमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक अंध के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाविधिभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में क्षुद्ररोगाधिकार नामक सोलहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (४०९) . अर्थ सप्तदशः परिच्छेदः। सवन . मंगलाचरण व प्रतिज्ञा. जिनपतिं प्रणिपत्य जगत्रय-। प्रभुगणार्चितपादसरोरुहम् ॥ हृदयकोष्ठसमस्तशरीरजा- । मयचिकित्सितपत्र निरूप्यते ॥१॥ अर्थ:- जिन के चरणकमल को तीन लोकके इंद्र आकर पूजते हैं ऐसे श्री जिननाय को नमस्कार कर हृदय, कोष्ठ व समस्त शरीर में उत्पन्न होनेवाले रोग व उनकी चिकित्सा अब कही जाती है ॥ १॥ सर्वरोगों की त्रिदोषों से उत्पत्ति. निखिलदोषकृतामयलक्षण- । प्रतिविधानविशेषविचारणं ॥ क्रमयुतागमतत्वविदां पुनः । पुनरिह प्रसभं किमु वर्ण्यते ॥२॥ अर्थः--सर्व प्रकार के रोग वात पित्त कफ के विकार से हुआ करते हैं, कुशल वैद्य उन दोषों के क्रमको जानकर उनकी चिकित्सा करें। दोषों के सूक्ष्मतत्व को जानने वाले विद्वान् वैद्यों को इन बातों को बार २ कहने की जरूरत नहीं है ॥२॥ त्रिदोषोत्पन्न पृथक् २ विकार. प्रवरवातकृतातिरुजा भवे- । दतिविदाहतषाद्यपि पित्तजम् । उरुघनस्थिरकण्डुरता कफो- । द्भवगुणा इति तान् सततं वदेत् ॥३॥ भावार्यः----वातविकार से शरीर में अत्यधिक पीडा होती है । पित्तविकार से दाह तृषा आदि होती है । कफके विकारमे स्थूल, घन, स्थिर व खुजली होती है। ऐसा हमेशा जानना चाहिए ॥ ३ ॥ . रोगपरीक्षाका सूत्र. अकथिता अपि दोषविशेषजा । न हि भवंति विना निजकारणैः । अखिलरोगगणानवबुध्य तान् । प्रतिविधाय भिषक् समुपाचरेत् ।। ४ ॥ भावार्थ:-दोषावशेषों [ वात पित्त, कफों ] के बिना रोगों की उत्पत्ति होती ही नहीं, इसलिये उन दोष रोगों के नाम, लक्षण, आदि विस्तार के साथ, वर्णन नहीं करने पर भी समस्त रोगों को, दोषों के लक्षणों से ( वातज है या पित्तज ? इत्यादि ) निश्चय कर उनके योग्य, चिकित्सा भिषक् करें ॥ ४ ॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१०) कल्याणकारके अथ हृद्रोगाधिकारः । वातज हृद्रोग चिकित्सा. पवनदोषकृताधिकवेदना- । हृदयरोगनिपीडितमातुरम् ।। मगधजान्वितसर्षपमिश्रितै- । रहिमवारिभिरेव च वामयेत् ॥ ५ ॥ भावार्थ:--वातके विकार से जब हृदय में अत्यधिक वेदना होती है उस रोगी को अर्थात् वातज हृद्रोग से पीडित रोगी को पीपल सरसों से मिला हुआ गरम पानी पिलाकर वमन कराना चाहिये ॥ ५ ॥ वातज हृद्रोगनाशक योग. लवणवर्गयवोद्भवमिश्रितं । घृतमतः प्रपिबंददयामयी ॥ त्रिकटुहिंग्वजमोदकसैंधवा- । नपि फलाम्लगणैः पयासाथवा ॥ ६ ॥ अर्थ-वातज हृदयरोगीको लवणवर्ग व यवक्षार से मिला हुआ घृत पिलावें । एवं त्रिकटु, हींग, अजवाईन व सेंधालोण इनको खट्टे फलसमूहके रसके साथ अथवा दूध के साथ पिलाना चाहिये ॥६॥ पित्तज हृद्रोगचिकित्सा. अधिकपित्तकृते हृदयामये । घृतगुडाप्लुतदुग्धयुतौषधैः ।। वमनमत्र हितं सविरेचनम् । कथितपित्तचिकित्सितमेव वा॥७॥ अर्थ-यदि पित्त के विशेष उद्रके से हृदय रोग होजाय तो उस में [ पित्तज हृदय रोगमें ] घृत, गुड व दूध से युक्त [ पित्तनाशक ] औषधियोंसे वमन कराना ठीक है एवं विरेचन भी कराना चाहिए । साथ ही पूर्वकथित पित्तहर चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ७॥ कफज हृदोगचिकित्सा. कफकृतोग्रमहाहृदयामये । त्रिकटुकोष्णजलैरिह वामयेत् । अपि फलाम्लयुता त्रिवृता भृशं । लवणनागर कैस्स विरेचयेत् ॥ ८ ॥ अर्थ---कफविकारसे उत्पन्न हृदयगत महारोग में [कफज हृद्रोग में ] त्रिकटु से युक्त उष्णजलसे वमन कराना चाहिये । एवं निशोथ, खट्टा फल, सेंधालोण व शुंठीसे विरेचन कराना चाहिए ॥८॥ हृद्रोग में वस्तिप्रयोग. तदनुरूपविशेषगुणौषधै- । रखिलबस्तिविधानमपीष्यते ॥ हृदयरोगगणपशमाय तत् । क्रिमिकृतस्य विधिश्च विधीयते ॥९॥ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। भावार्थ:--हृद्रोग के उपशमन करने के लिये तत्तद्दोषोंके उपशमने योग्य औषधियों से बस्ति का भी प्रयोग करना चाहिये । यहां से आगे कृमि रोगके निदान व चिकित्सा का वर्णन करेंगे ॥९॥ अथ क्रिमिरोगाधिकारः । . . कृमिरोग लक्षण. शिरसि चापि रुजो हृदये भृशं । वमथुसक्षवथुज्वरसंभवैः ॥ क्रिमिकृताश्च मुहुर्मुहुरामयाः। प्रतिदिनं प्रभवंति तदुद्गमे ॥१०॥ भावार्थ:-शरीर में कृमिरोगों की उत्पत्ति होनेपर शिर व हृदय में अत्यंत पीडा, वमन, छींक व ज्वर उत्पन्न होता है । एवं वार २ कृमियों से उत्पन्न अन्य अतिसार भ्रम, हृद्रोग आदि रोग भी प्रतिदिन उत्पन्न होते हैं ॥१०॥ कफपुरीषरक्तज कृमियां. असितरक्तसिताः किमयस्सदा । कफपुरीषकृता बहुधा नृणां ।। नखशिरोंगरुहक्षतदंतम- । क्षकगणाः रुधिरप्रभवाः स्मृताः ॥११॥ भावार्थ:-मनुष्यों के कफ व मल में काला, लाल, सफेद वर्ण की नाना प्रकार की क्रिमियां होती हैं । एवं नाखून, शिरका बाल, रोम, क्षत (जखम) व दंत को भक्षण करने वाली कृमियां रक्त में होती हैं ॥ ११ ॥ कृमिरोग चिकित्सा. क्रिमिगणप्रशमाय चिकीर्षणा । विविधभेषजचालचिकित्सितं ॥ सुरसयुग्मवरार्जफणिज्जक । स्वरससिद्धघृतं प्रतिपाययेत् ॥ १२ ॥ भावार्थ:-क्रिमियोंके उद्रेकको शमन करने के लिए कुशल वैद्य योग्य विविध औषधियों के प्रयोग से चिकित्सा करें । तथा काली तुलसी, पलाश, छोटी पत्ती की तुलसी, इन के रस से सिद्ध घृत का पिलाना हितकर है ॥ १२ ॥ कृमिरोग शमनार्थ शुद्धिविधान.. कटुकतिक्तकषायगणोष- । रुभयतश्च विशुद्धिमशंत्यलम् ।। लवणतीक्ष्णतरैश्च निरूहणं । क्रिमिकुलपशमार्थमुदाहृतम् ॥ १३ ॥ भावार्थः--कटक, तिक्त व कषायवर्ग की औषधियोंसे वमन विरेचन कराना क्रिमिरोगके लिए हितकर है। सेंधानमक व तीक्ष्ण औषधियों से निरूहण बस्तिका प्रयोग करना भी क्रिमिसमूह के शमन के लिए हितकर है ॥ १३ ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१२) कल्याणकारके कृमिघ्न स्वरस. अपि शिरीषरसं किणिहीरसं । प्रवरकेंचुककिंशुकसदसम् ॥ तिलजमिश्रितमेव पिवेन्नरः । प्रिमिकुलानि विनाशयितुं ध्रुवं ॥ १४ ॥ . भावार्थ:-सिरस, चिरचिरा, केमुक, पलाश, इनके रस को तिलके तेलमें मिलाकर पीनेसे क्रिमियोंका समूह अवश्य ही नष्ट होता है ॥ १४ ॥ विडंग चूर्ण. कृतविडंगविचूर्णमनेकशः । पुनरिहायशकुद्रसभावितम् ॥ तिलजशकरया च विमिश्रितं । क्रिमिकुलप्रलयावहकारणम् ॥ १५ ॥ भावार्थ- वायविडंगके चूर्ण को अच्छी तरह कईबार घोडे की लीद के रस से भावना देकर फिर तिलका तेल व शक्कर के साथ मिलाकर उपयोग करने पर क्रिमिकुल अवश्य ही नष्ट होता है ॥ १५ ॥ मूषिककर्णादियोग. अपि च मूषिककर्णरसेन वा । प्रवररालिविडंगविचूर्णितम् । परिविलोड्य घृतेन विपाचितं । भवति तरिक्रमिनाशनभक्षणम् ॥१६॥ भावार्थ--रालि [१] वायुविडंग के चूर्ण को मूसाकानी के रस में घोलें । फिर उसे घृतके साथ पकाकर खानेपर क्रिमिनाश होता है ॥ १६ ॥ कृमिनाशक तैल. वितुषसारविडंगकषायभाविततिलोद्भवमेव विरेचनी- ॥ . षधगणैः परिपकमिदं पिबन् । क्रिमिकुलक्षयमाशु करोत्यमौ ॥ १७ ॥ भावार्थ-तुषरहित वायुविडंग के कषाय से भावित तिल से निकार हुए तैल को विरेचनौषधिगणोंके द्वारा पकाकर पीनेसे सर्व क्रिमिरोग शीघ्र ही दूर होते ___सुरसादि योग. सुरसबंधुरकंदलकंदकैः । परिविपकसुतक्रममिलकाम् ।। अशिशिरां सघृता त्रिदिनं पिबे- । दुदरसर्पविनाशनकारिकाम् ॥ १८ ॥ भावार्थ:---तुलसी, वायविडंग, सफेदखर कंदक ( बन सूरण ) इन से पकायी हुई छाछ से मिश्रित गरम कांजी में घी मिलाकर तीन दिन पीने से उदर में रहने वाली संपूर्ण कृमि नष्ट हो जाती हैं ॥ १८ ॥ . Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। कृमिघ्न योग. अपुषष्टमिहाष्टदिनांतरम् । दधिरसेन पिवेस्क्रिमिनाशनम् ॥ . अथ कुलत्थरसं सतिलोद्भवं । त्रिकटुहिंगुरिटंगविमिश्रितम् ॥ १९ ॥ भावार्थ:-दही के तोड के साथ इंद्रायण के कल्क को मिलाकर आठ दिन में एक दफे पीना चाहिये । उससे क्रिमिनाश हो जायगा । तथा कुलथीके रस या तिल के तेल में त्रिकटु, हिंग, वायविडंग को मिलाकर लेना भी हितकर है ॥ १९ ॥ पिप्पलीमूल कल्क. सुरसजातिरसेन च पशितं । प्रवरपिप्पलिमूलमजांबुना ॥ प्रतिदिनं प्रापिबेत्परिसर्पवान् । कटुकतिक्तगणैरशनं हितम् ॥ २० ॥ भावार्थः-कृमिरोग से पीडित रोगीको तुलसी व जाई के रस के साथ पिसा हुआ पीपली मूल को, बकरे के मूत्र के साथ प्रतिदिन पिलाना और कटुतिक्तगणोक्त द्रव्यों से भोजन देना अत्यंत हितकर होता है ।। २० ॥ __ रक्तज कृमिरोग चिकित्सा. कफपुरीषकृतानखिलान् जये- । बहुविधैः प्रकटीकृतभेषजैः ।। रुधिरसंजनितान्क्रिमिसंचयान् । कथितष्ठचिकित्सितमार्गतः ॥२१॥ भावार्थ:-कफज और मलज क्रिमियोंको पूर्वोक्त अनेक औषधियों के प्रयोगसे जीतना चाहिये । रक्तमें उत्पन्न क्रिमिसमूहोंको कुष्ठरोगकी चिकित्साके अनुसार जीतना चाहिये ॥ २१ ॥ कामरोग में अपथ्य. दधिगुडेक्षरसाम्रफलान्यलं । पिातिदग्धगणान्मधरानरसान् । सकलशाकयुताशनपानकान् । परिहरेत्क्रिमिाभिः परिपीडितः ॥२२॥ भावार्थ:-क्रिमिरोगसे पीडित मनुष्य दही, गुड, ईखका रस, आम इत्यादि प.ल, सर्व प्रकार के दूध, मांस व मधुररस, सर्व प्रकार के शाक से युक्त भोजन पानको वर्जन करें ॥ २२ ॥ अथ अजीर्णरोगाधिकारः । आम. विदग्ध, विष्टब्धाजीर्ण लक्षण. पुनरजीर्णविकल्पमपीष्यते । मधुरमन्नमिहाममथाम्लताम् ॥ उपगतं तु विदग्धमतीव रुग् । मलनिरोधनमन्यदुदीरितम् ॥२३॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१४ ) भावार्थ:- अब यहां से आगे अजीर्ण रोग का लक्षण, भेद आदि के साथ वर्णन करेंगे । जो खाया हुआ आहार जीर्ण न हो [ पचे नहीं ] इसे अजीर्ण रोग कहते हैं । इस का आमोजीर्ण, विदग्धाजीर्ण, विष्टब्धाजीर्ण इस प्रकार तीन भेद हैं । खाया हुआ अन्न कच्चा और मधुर रहें, मीठा डकार आदि आवे इसे आमाजीर्ण कहते हैं । जब भक्षित आहार थोडा पच कर खट्टा हो जावें उसे विदग्धाजीर्ण कहते हैं । जिस से पेट में अत्यंत पीडा होती हो, और पेट फूल जायें और मल भी रुक गया हो उसे विष्टब्धाजीर्ण कहते हैं ॥ २३ ॥ कल्याणकारक अजीर्ण से अलसक विलम्बिका विशुचिका की उत्पत्ति. अलसकं च विलंविकया सह । प्रवरतीव्ररुजा तु विषूचिका ॥ भवति गौरिव योऽत्ति निरंतरं । बहुतरान्नमजर्णिमतोऽस्य तत् ॥ २४ ॥ भावार्थ:- जो मनुष्य नानाप्रकार अन्नोंको गायके समान हमेशा खाता रहता है उसे अजीर्ण होकर भयंकर अलसक, विलम्बिका और अत्यंत तीव्र पीडा करनेवाली विसूचिका रोग उत्पन्न होता है || २४ ॥ अलसक लक्षण. उदरपूरणतातिनिरुत्सहो । वमथुतृमरुदुद्भूमकूजनम् ॥ मलनिरोधन तीव्ररुजारुचि - | स्त्वलसकस्य विशेषितलक्षणम् ॥ २५ ॥ भावार्थ:- जिसमें पेट बिलकुल भरा हुआ मालुम हो रहा हो, अत्यंत निरुसाह मालुम हो रहा हो, वमन होता हो, नीचे की तरफ से बात रुक् कर ऊपर कंठ आदि स्थानोंमें फिरता हो, मलमूत्र रुक जाता हो, तीव्र पीडा होती हो, और अरुचि हो उसे अलसक रोग जानना चाहिए । अर्थात् यह अलसक रोग का लक्षण है ||२५|| विलम्बिका लक्षण. कफमरुत्मबलातिनिरोधतो । ह्युपगतं च निरुद्धमिहाशनं ॥ इह भवेदतिगाढविलंबिका | मनुजजन्मविनाशनकारिका || २६|| भावार्थ - कफ व वातके अत्यंत निरोधसे खाया हुआ आहार न नीचे जाता है न ऊपर (न विरेचन होता है न तो वमन हो ) ही जाता है अर्थात् एकदम रुक जाता है उसे विलंबिका रोग कहते हैं । यह अत्यंत भयंकर है । वह मनुष्यजन्मको नाश करनेवाला है - ॥ २६ ॥ .१ भमाजीर्ण कक्क से, विदग्धाजीर्ण पित्त से और विष्टब्धाजीर्ण वात से उत्पन्न होता है || Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। विषूचिका लक्षण. वमथुतृड्भ्रमशूलविवेष्टनैः । परिविमूर्छनतातिसारकैः। चलनज़ंभणदाहविवर्णकैहृदयवेदनया तु विचिका ॥ २७ ॥ भावार्थ-जिसमें वमन, तृषा, भ्रन, शूल, उद्वेष्ट [ गीले कपडे से ढका हुआ जैसा अनुभव ] मूछी, अतिसार, कम्प, जंभाई, दाह, विवर्ण, हृदयपीडा आदि विकार प्रकट होते हैं उसे विघूचिका ( हैजा ) रोग कहते हैं ॥ २७ ॥ __ अजीर्ण चिकित्सा. वमनतापनवर्तियुताग्निदीपनकरौषधपानविधानतः ॥ प्रशमयेद्गतमन्नमजीर्णतामनशनाहिमवायुपयोगतः ॥ २८ ॥ भावार्थ:-बमन, स्वेदन, वर्तिप्रयोग [औषध निर्मित बत्तीको गुदामें रखना] अग्निदीपन करनेवाली औषधियोंका सेवन, पान, लंघन (उपवास) और गरम पानी पीना, आदि क्रियाविशेषोंसे अजीर्ण रोगको उपशमन करना चाहिए ॥ २८ ॥ ___ अजीर्ण में लंघन. अनशनं त्विह कार्यमजीर्णजि- । तुषित एव पिबेदहिमोदकम् ॥ अशनभेषजदोषगणान्स्वयं । न सहते जठराग्निरभावतः ॥ २९ ॥ भावार्थः- अजीर्ण को जीतने के लिये लंघन अवश्यमेव करें अर्थात् अजीर्ण के लिये लंघन अत्यंत श्रेष्ठ है। प्यास लगने पर ही गरम पानी पीयें । क्यों कि अजीर्ण रोगी की जठराग्नि अतिक्षीण होने से वह भोजन, औषध और दोषों को पचाने में समर्थ नहीं होती है। ।। २९ ।। ___अजीर्ण नाशक योग. सततमेव पिबेल्लवणोदकं । गुडयुतानपि सर्षपकानपि ॥ त्रिकटुसैंधवहिंगुविचूर्णमि- । श्रितफलाम्लमिहोष्णमजीर्णवान् ॥३०॥ भावार्थ:-अनार्ण रोगी सदा सेधानमक को गरमपानी में डाल कर पीवें । तथा सरसों और इन दोनों को गुड मिलाकर खावें । अथवा त्रिकटु सेंधालोण हींग इन के चूर्ण को खट्टे फलों के गरम रस में मिलाकर पीना चाहिये ॥ ३० ॥ . ___ अजीर्णहृद्रोगाय. मगधजामहिमांबुयुतां पृथक् । प्रवरनागरकल्कमथाभयालवणचूर्णमिति त्रितयं पिबे- । दुदरवन्हिविवर्द्धन कारणम् ॥ ३१ ॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारकै भावार्थ:--पीपल के चर्ण को जठराग्नि के बढाने के लिये गरम पानी में मिलाकर अथवा शुंठीके कल्कको गरम पानी में मिलाकर या हरड और लवण इनके चूर्ण को गरम पानी में मिलाकर पीना चाहिये ॥ ३१ ॥ . कुलत्थ काथ. कथितमुष्ककभस्मविगालितो । दकविपककुलस्थरसं सदा ॥ लवणितं त्रिकटूत्कटमातुरः सततमग्निकर प्रपिवेन्नरः ॥ ३२ ॥ भावार्थ:-मोरवाके भस्म से काथ कर उस काथ को छानें फिर उस के द्वारा उस पकाये हुए कुलथी के रस में उवण व त्रिकटु मिलाकर सदा अजीर्ण से पीडित पीयें तो अग्निदीपन होता है ॥ ३२॥ विशूचिका चिकित्सा. मधुकचंदनवालजलांबुदांबुरुहनिबदलांघ्रिसुतण्डुला- । म्बुभिरशेषमिदं मृदितं पिबेत् प्रशमयंस्तृषयातिविचिकाम् ॥ ३३ ॥ भावार्थ:--मुलैठी, चंदन, खस, नेत्रबाला नागरमोथा, कमल, नीमके पत्ती व उसके जड को चावल के धोबन में मर्दनकर पिलावे तो यह विचिका रोग को तृषासे प्रशमन करता है ॥ ३३ ॥ त्रिकटुकाद्यजन. त्रिकटुकत्रिफलारजनीद्वयोत्पलकरंजसुबीजगणं शुभम् ॥ फलरसेन विशोष्यकृताननं प्रशमयत्यधिकोग्रविचिकाम् ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-त्रिकटु, त्रिफला, हलदी, नीलकमल, करंज के बीज, इन को खट्टे फलोंके रसके साथ बारीक पीसकर सुखावें, इस प्रकार तैयार किये गये अंजन को आंजनेसे उग्र विचिका भी दूर होती है ॥ ३४ ॥ अलसकोऽप्यतिकृछू इतीरितः । परिहरेदविलीबविलंबिका ॥ अपि विषाचकया परिपीडिता- । निह जयेदतिसारचिकित्सितैः ॥३५॥ भावार्थ:--अलसक रोग अत्यंत कष्ट साध्य है । विलम्बिका को भी शीघ्र छोड देना चाहिये । विशूचिकास पीडित रोगीको अतिसारोक्त चिकित्सा के प्रयोग से ठोक करना चाहिये ॥ ३९॥.. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । विशुचिका में दहन व अन्य चिकित्सा. दहनमंत्र हितं निजपाणिषु । प्रबलदातयुतातिविषूचिका - । प्रशमनाय महोष्णगुणैौषधानहिमतोययुतान्परिपानतः ॥ ३६ ॥ भावार्थ:- प्रबल वातके वेगसे युक्त विकारसे उत्पन्न विषूचिका रोग को शमन करने के लिये, पाणि स्थान में जलाना चाहिये । एवं महान् उष्ण औषधियों को उष्णजल में मिलाकर पिलाना भी हितकर है ॥ ३६ ॥ अजीर्ण का असाध्य लक्ष्ण. रसनदंतनखाधर कृष्णता । वमनताक्षिनिजस्वरसंक्षयः । स्मृतिविनाशनता शिथिलांगता । मरणकारणमेतदजीर्णिनाम् || ३७ ॥ भावार्थ:- अजीर्ण रोग में जीभ, दांत नख, ओंठ का काला पड जाना, वमन विशेष होना, आंखे अंदर घुस जाना, स्वरनाश होना, स्मृतिक्षय होना व अंगशिथिल होना, यह सब मरण के कारण समझना चाहिये अर्थात् ये लक्षण प्रगट होयें तो रोगी शीघ्र मरता है ॥ ३७ ॥ मूत्र व योनिरोग वर्णन प्रतिज्ञा.. अथ च मूत्रविकारकृतामयानधिक योनिगतान्निजलक्षणान् । प्रवरनामयुताखिलभेषजैः । प्रकथयामि कथां विततक्रमैः ॥ ३८ ॥ ( ४१७ ) भावार्थ:-- यहां से आगे मूत्रविकार से उत्पन्न रोग और योनि रोगों को, उन के लक्षण, उत्कृष्ट नामको धारण करनेवाले श्रेष्ठ सम्पूर्ण औषधियोंके साथ २ क्रम से वर्णन करेंगे इस प्रकार आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ३८ ॥ मुत्रघातादिकारः । वातकुण्डलिका लक्षण. स्वजल वेगविघातविदूषितविरविरूक्षवशादपि वस्तिज - । श्चरति मूत्रयुतो मरुदुत्कटः बलवेदनया सह सर्वदा ॥ ३९ ॥ सृजति मूत्रमसौ सरुजं चिरान्नरवरोल्पमतोल्पमतिव्यथः । पवनकुण्डलिकाख्यमहामयो भवति घोरतरोऽनिलकोपतः ॥ ४० ॥ भावार्थ:--मूत्र के वेग को धारण करने व रूक्ष पदार्थों के सेवन करने से, वस्तिगत प्रबल वात प्रकुपित होकर, मूत्र के साथ मिलकर बस्ति में पीडा करते हुए, १ मूत्रावरोध. Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१८ ) कल्याणकारके गोलाकार के रूप में फिरता है तो रोगी मनुष्य, अत्यंत व्यथित हो कर, पीडा के साथ बहुत देर से थोडे २ मूत्र को विसर्जन करता है । इसे वातकुंडलिका रोग कहते हैं । यह भयंकर रोग वातोद्रेक से उत्पन्न होता है ॥ ३९ ॥ ४० ॥ मूत्राष्ठीलिका लक्षण. कुपितवातविघातविशोषितः पृथुरिहोपलवद्यनतां गतः । भवति मूत्रकृताश्ममहामयो । मलजलानिलरोधकृदुद्धतः ॥ ४१ ॥ भावार्थ:-- वातके कुपित होनेसे वह मूत्र जब सूख जाता है वह बढ़कर पत्थर के समान घट्ट हो जाता है, जो कि मल मूत्र व वातको रोकता है । वह मूत्रसंबंधी अश्म रोग कहलाता है । इसे मूत्राष्ठीलिका के नाम से भी कहते हैं । यह मूत्र व वात विकारसे उत्पन्न होता है व अत्यंत भयंकर है ॥ ४१ ॥ वातबस्ति लक्षण. जलगतैरिह वेगविघाततः प्रतिवृशीत्यथ बस्तिमुखं मत् । प्रचुरमूत्रविसंगतयातिरुक्पवनबस्तिरिति प्रतिपाद्यते ॥ ४२ ॥ भावार्थ:: -- मूत्र के वेगको रोकने से बत्तिगत वायु प्रकुपित होकर बत्ति मुखको एकदम रोक देता है । इससे मूत्र रुक जाता है । बस्ति व कुक्षि में पीडा होती है, उसे वातरित रोग कहते हैं ॥ ४२ ॥ मूत्रातीत लक्षण. अवधृतं स्वजलं मनुजो यदा । गमयितुं यदि वांछति चेत्पुनः । व्रजति नैव तदाल्पतरं च वा । तदिह मूत्रमतीतमुदाहृतम् ॥ ४३ ॥ " भावार्थः -- जो मनुष्य, मूत्र के बैग को रोक कर फिर उसे त्यागना चाहता है तो वह मूत्र उतरता ही नहीं, अथवा प्रवाहण करने पर पीडा के साथ थोडा २ उतरें इसे मूत्रातीत रोग कहते हैं ॥ ४३ ॥ मूत्रजठर लक्षण. उदकवेगविद्यातत एव तत् । प्रकुरुते मरुदुत्परिवर्तते । उदरपूरणमुद्धतवेदनं । प्रकटसूत्रकृतं जठरं सदा ॥ ४४ ॥ भावार्थ:- उस मूत्रके वेग को रोकनसे, कुपित [ अपान ] बात जब ऊर्ध्वं गामी होकर पेट में भर जाता है अर्थात् पेटको फुलाता है [ नाभीसे नीचे अफरा ] और उस समय पेढ में अत्यंत वेदना को उत्पन्न करता है । उसे मूत्रजठर रोग कहा है ॥४४॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (४१९) मुत्रोसंग लक्षण. अपि मनोहरमेहनमध्यमे । प्रवरबस्तिमुखेति विषज्यते । सृजत एव बलात्पतिबाधतः । सरुज मूत्रमतोप्यपसंगरुक् ॥ ४५ ॥ भावार्थ:--मनोहर शिश्नेद्रिय के मध्यभाग वा बस्ति [ मूत्राशय] के मुख में, प्रवृत्त हुआ मूत्र रुक जाता है, बलात्कार से त्यागने की कोशिश करने पर, प्रतिबंधक कारण मौजूद होनेसे, पीडा के साथ धीरे २ थोडा २ निकलता है। कभी रक्त भी साथ आता है, इसे मूत्रोंत्सग रोग कहते हैं ॥ ४५ ॥ मूत्रक्षयलक्षण. द्रवविहीनविरूक्षशरीरिणः । प्रकटबस्तिगतानिलपित्तको । क्षपयतोऽस्य जलं बलतः स्वयं । भवति मूत्रगतक्षयनामकः ॥ ४६॥ भावार्थ:---जिन के शरीर में द्रवभाग अत्यंत कम होकर रूक्षांश अधिक होगया हो उन की बस्ति में पित्त व वात प्रविष्ट होकर मूत्र को जबर्दस्ती नाश करते हैं। वह मूत्रक्षयनामक रोग है ॥ ४६॥ मूत्राश्मरी लक्षण. अनिलपित्तवशादतिशोषितं । कठिनवृत्तमिहांबुनिवासितम् । मुखगतं निरुणद्धि जलं शिलोपममतोऽस्य च नाम तदेव वा ॥ १७॥ भावार्थ:-वात व पित्त के प्रकोप से, मूत्र सूखकर कठिन व गोल, अश्मरी के समान ग्रंथि बास्त के मुख में उत्पन्न होता है जिस से मूत्र रुक जाता है । यह अश्मरी तुल्य होने से, इस का नाम भी मूत्राश्मरी है ॥ ४७ ॥ मूत्रशुक्र लक्षण. अभिमुखस्थितमूत्रनिपीडितः । प्रकुरुतेऽज्ञतयाधिकमैथुनम् । अपि पुरः पुरतस्सह रेतसा वहति मूत्रमिदं च तदाख्यया ॥ ४८ ॥ भावार्थ:--जब मूत्र बाहर आनेके लिये उपस्थित हो और उसी समय कोई अज्ञानसे मैथुन सेवन कर लेवें तो मूत्रा विसर्जन के पहिले [ अथवा पश्चात् ] वीर्यपात [ जो भरम मिला हुआ जल के समान ] होता है इसे मूत्रशुक्ररोग कहते हैं ॥ ४८ ॥ .१ इसे ग्रंथांतरो में मूत्रग्रंथि कहते हैं । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२०) कल्याणकारके annnnnnnnnvarwwwwwwnam उष्णवात लक्षण. श्रमयुतोष्णनिरूक्षनिषेवया । कुपितपित्तयुतो मरुदुद्धतः। प्रजननाननबीस्तगुदं दहन् । गमयतीह जलं मुहुरुष्णवत् ॥ ४९ ॥ भावार्थ:--आधिक परिश्रम करने से, उप्ण व अत्यंत रूक्ष पदार्थों के सेवन से प्रकुपित पित्त [ बस्ति को प्राप्त कर ] बात से संयुक्त हो जाता है तो लिंग के अग्रभाग, बस्ति, गुदा, इन स्थानो में जलन उत्पन्न करता हुआ गरम [ पीला लाल व रक्त सहित ] मूत्र बार २ निकलता है । इसे उष्णवात रोग कहते हैं ॥ ४९ ॥ पित्तज मूत्रोपसाद लक्षण. विविधपीतकरक्तमिहोष्णवदहुलशुष्कमथापि च रोचना- । सदृशम्त्रमिदं बहुपित्ततः स च भवेदुपसादगदो नृणाम् ॥ ५० ॥ भावार्थ:--पित्त के अत्याधिक प्रकोपसे नाना प्रकार के वर्णयक्त व पलिा, लाल गरम पेशाब अधिक आता है। यदि वह सूख जावें तो, गोरोचना के सदृश मालूम होता है । इस रोग को मूत्रोपसाद कहते हैं ॥ ५० ॥ कफज सूत्रोपसाद लक्षण. बहलपिच्छिलशीतलगौरवत् । स्रवति कृच्छ्रत एव जलं चिरात् । कुमुदशंखशशांकसमप्रभं कफकृतस्सभवेदुपसादकृत् ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-कफ के प्रकोप से, जिस में गाढा पिच्छिल (लिवलिवाहट),ठण्डा, सफेद वर्ण से युक्त पेशाब देर से व अत्यंत कष्ट से निकलता है और वह सूख जाने पर उस का वर्ण कमलपुष्प, शंख व चंद्रमा के सदृश हो जाता है, उसे कफज मूत्रोपसाद रोग कहते हैं ॥ ५१ ॥ मूत्ररोग निदानका उपसंहार. इति यथाक्रमतो गुणसंख्याया, निगदिताः सजलोद्भवदुर्गदाः ॥ अथ तदौषधमार्गमतः परं, परहितार्थपरं रचयाम्यहम् ।। ५२ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार मूत्र से उत्पन्न होनेवाले दुष्टरोगों को उन के भेद सहित यथाक्रम से वर्णन किया। अब दूसरों के हितकी दृष्टि से उन के योग्य औषधि व चिकित्साविधि को प्रतिपादन करेंगे ॥ ५२ ॥ ___ अथ मूत्ररोगचिकित्सा. विधिवदत्र विधाय विरेचन, प्रकटितोत्तरवस्तिरपीष्यते । अधिकमैथुनता रुधिरं स्त्रवेत्, यदि ततो विधिमस्य च बृंहणम् ॥५३॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। . (४२१) भावार्थः-उपरोक्त मूत्ररोग में विधि से विरेचन कराना चाहिये तथा पूर्व कथित उत्तरबस्ति का प्रयोग भी हितकर है.। अधिकमैथुन से यदि रुधिरस्राव होता हो तो उसपर बृहणविधि का प्रयोग करना चाहिये ॥ ५३ ॥ . कपिकच्छादि चूर्ण. कपिफलेक्षुरबीजकपिप्पली- । मधुक चूर्णमिहालुलित शनैः ॥ घृतसितैः प्रविलिह्य पिबन्पय- । स्तदनु मूत्रगदानखिलान् जयेत् ॥५४॥ भावार्थ:-तालमखाने का बीज, पीपल, कौच्च के बीज, मुलैठी इनका अच्छीतरह चूर्ण बनावें और उसमें घी व शक्कर मिलाकर चाटे, पीछेसे दूध पी । यह संपूर्ण मूत्र रोगोंको जीत लेता है ॥ ५४ ॥ . मूत्रामयत्न घृत. कपिबलातिबला मधुकेक्षुर । प्रकटगोक्षुरभूरिशतावरी-॥ प्रभुमृणालकशेरुकसोत्पलां- । बुजफलांशुमती सह विनया ॥५५॥ समधृतानि विचूर्ण्य विभावितो- । दकचतुष्कमिदं पयसा चतु- ॥ र्गुणयुतेन तुला गुडसाधितं । घृतवराढकमुत्कटगंधवत् ॥ ५६. ॥ घृतमिदं सततं पिवतां नृणां । अधिकवृष्यबलायुररोगता ॥ भवति गर्भवती वनिता प्रजा । प्रतिदिनं पयसैव सुभोजनं ॥ ५७ ॥ भावार्थ:-कौंच के बीज, खरेंटी, गंगेरेन, मुलैठी, तालमखाना, गोखुर, शतावरी, प्रभु [ ? ] कमलनाल, कसेरु, नीलोपल, कमल, जायफल, शालपर्णी, [सरिबन पृश्नपर्णी [ पिठवन ] इन सब को समभाग लेकर, सूदम चूर्ण कर के इस में चतुर्गुण पानी मिलावें। इस प्रकार तैयार किए हुए यह कल्क, व चतुर्गुण गायके दूध, ५ सेर गुड के साथ चार सेर, ( यहां ६४ तोले का एक सेर जानना ) सुगंध घृत को सिद्ध करें । इस घृत को प्रतिदिन सेवन करने वाले मनुष्य को वृष्य (वीर्य वृद्धि होकर काम शक्ति बढना.) होता है। बल, और आयु वृद्धिगत होते हैं और वह निरोगी होता है। स्त्री गर्भवती होकर पुत्र प्रसूत होजाती है। इस घृत को सेवन करते समय प्रतिदिन केवल दूध के साथ भोजन करना चाहिये [ मिरच, नमक, मसाला, खटाई आदि नहीं खाना चाहिये ] ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ १ यह घृत से चतुर्थाश डाले । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२२) कल्याणकारके KARAN अथ मूत्रकृच्छ्राधिकारः । इति च मूत्रकृतामयलक्षण प्रतिविधानमिह प्रतिपादितम् । अथ तदष्टविधाधिकघातलक्षणचिकित्सितमत्र निरूप्यते ॥ ५८॥ भावार्थ:-इस प्रकार मूत्रसंबंधी [ मूत्राघात ] रोग के लक्षण व चिकित्सा का प्रतिपादन किया है । अब यहां से मूत्र रोगातंर्गत, अन्य आठ प्रकार के मूत्राघात [ मूत्राकृछ् ] रोगों का लक्षण और चिकित्सा का वर्णन करेंगे ॥ ५९॥ आठ प्रकार मूत्रकृछ्र. अनिलपित्तकफैराखलैः पृथक् । तदभिघातवशाच्छकृताथवा । प्रबलशर्करयाप्यधिकाश्मरीगणीनपीडितमूत्रमिहाष्टधा ॥ ५९ ॥ भावार्थ:-वात, पित्त, कफ व सन्निपात से, चोट आदि लगने से, मल के विकार से, शर्करा व अश्मरीसे [ वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, अभिघातज, शकृज, शर्कराज, अश्मरीज ] इस प्रकार अष्टविध, मूत्रकृच्छू रोग उत्पन्न होते हैं ॥ ५९॥ अष्टविध मूत्र कृच्छ्रोंक्के पृथक् लक्षण. तदनु दोषगुणैरिह मेहन । प्रवरशल्यजक पवनामयैः । अधिकशूलयुतोदरपूरणः । मलनिरोधजमश्मरिकोदिता ॥६०॥ कथितशर्करयाप्युदितक्रमात् । हृदयपीडनवेपथुशूलदु-॥ . बलतराग्निनिपातविमोहनैः । सृजति मूत्रमिहाहतमारुतात् ॥६१॥ भावार्थ:--वातादि दोषज मूत्रकृच्छ्र में तत्तदोषों के लक्षण व सन्निपातज में तीनों दोषों के लक्षण प्रकट होते हैं । मूत्रवाहि स्रोतों पर शस्त्रसे घाव हो जाने से, अथवा अन्य किसी से चोट पहुंचने से जो मूत्रकृच्छ्र उत्पन्न होता है उस में वातज १ यहां घात शब्द का अर्थ आचार्यों ने कृच्छ्र [ कष्ट से निकलना ] किया है !}. २ वातज मूत्रकृच्छ्र—जिसमें वंक्षण ( राङ) मूत्राशय, लिंग स्थानों में तीन पीडा होकर वारंवार थोडा २ मूत्र उतरता है उसे वातज मूत्रकृच्छ्र कहते हैं । पैत्तिक मूत्रकृच्छ्र–इस में पीडायुक्त जलन के साथ पीला, लाल मूत्र वारंवार कष्टसे उतरता है। कफन मूत्रकृच्छ्र ---इस में लिंग और मूत्राशय भारी व सूजनयुक्त होते हैं और चिकना मूत्र आता है। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः an-insumvwooo मूत्र कृच्छ्र के सदृश लक्षण पाये जाते हैं । मल के अवरोध से वात कुपित होकर मूत्रकृच्छ्र को उत्पन्न करता है। उस में शूल व आध्मान [अफराना ] होते हैं । अश्मरीज मूत्रकृच्छ्र का लक्षण, अश्मरीरोग के प्रकरण में कह चुके हैं । शर्कराज मूत्रकृच्छु का अश्मरीज के सदृश लक्षण है । लेकिन इतना विशेष है कि अश्मरी [ पित्तसे पचकर] वायुके आघात से जब टुकडा २ रेतीला हो जाता है इसे शर्करा कहते हैं। जब यह मूत्र मार्ग से [ मूत्रके साथ ] बाहर आने लगता है मूत्र अत्यंत कष्ट से उतरता है तो हृदय में पीडा, कम्प [ कांपना ] शूल, अशक्ति, अग्निमांद्य और मूर्छा होती है । ६०।६१ ॥ मूत्रकृच्छचिकित्सा. कथितमाविघातचिकित्सितं । प्रकथयाम्यधिकाखिलभेषजैः । प्रतिदिनं सुविशुद्धतनोः पुनः । कुरुत बस्तिमिहोत्तरसंज्ञितम् ॥ ६२॥ भावार्थ:--उपरोक्त मूत्रकृच्छ रोगकी चिकित्सा का वर्णन, उनके योग्य समस्त औषधियों के साथ २ करेंगे । प्रतिदिन रोगीके शरीर को शोधनकर पुनः उत्तर बस्ति का प्रयोग करना चाहिये ॥ ६२ ॥ मूत्रकृच्छ्रनाशक योग. त्रपुसबीजककल्कमिहाक्षसम्मितमथाम्लसुकांजिकयान्वितं । लवणवर्गपपि प्रपिचेन्नरःसभयमनविघातनिवारणम् ॥ ६३ ॥ भावार्थ:--खीरे के बीज के एक तोले कल्क को श्रेष्ठ खट्टी कांजी के साथ एवं लवण वर्ग को कांजी के साथ पीनेसे, मनुष्य का भयंकर मूत्रकृच्छ भी शांत होता है ॥ ६३ ॥ मधुकादिकल्क. मधुककुंकमकल्कमिहांबुना । गुडयुतेन विलोड्य निशास्थितं । शिशिरमाश पिबन् जयतीद्धमप्यखिलमूत्रविकारमरं नरः ॥ ६४ ॥ भावार्थ:----ज्येप्टमधु व कुंकुम ( केशर ) के कल्क में गुड मिलाकर पानी के साथ बिलोना चाहिये । फिर उसे रात्री में वैसा ही रखें। अच्छीतरह ठण्डा होने के बाद [ प्रातःकाल ] उसे पीनेसे समस्त मूत्रविकार दूर हो जाते हैं ॥ ६४ ॥ . दाडिमदि चूर्ण. सरसदाडिमबीजसुजीरनागरकणं लवणेन सुचूर्णितं ।।.. प्रतिदिनं वरकांजिकया पिबे- । दधिकमूत्रविकाररुजापहम् ॥ ६५ ॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२४) कल्याणकारक भावार्थ---- रसयुक्त दाडिम ( अनार ) का बीज, जीरा, शुंठी, पीपल व लवण इन को अच्छीतरह चूर्ण कर, उसे प्रतिदिन कांजी में मिलाकर पीना चाहिये। वह अधिक मूत्रकृच्छ्र रोग को भी दूर करता है ॥ ६५ ॥ कपोतकादि योग. अपि कपोतकमूलयुतत्रिकंटकसुगृध्रनखांघ्रिगणः श्रितम् ॥ कुडुवयुग्मपयोवुचतर्गुणं प्रतिपिबेत्सपयः परिपेषितम् ॥ ६६ ॥ भावार्थः- कपोतक [ सफेद सुर्मा ] पीपलामूल, गोखरू, कंटकपाली वृक्ष का जड, इन से चतुर्गण पानी डालकर सिद्ध किये हुए दूध को अथवा उपरोक्त औषधियोंको दूधके साथ पीसकर (मूत्रकृच्छ्र रोग को नाश करने के लिए ) पीना चाहिए ॥६६॥ तुरगादिस्वरस. तुरगगदर्भगारेटजं रसं कुडुबमात्र मिह प्रपिबेन्नरः ॥ लवणवर्गयुतां त्रिफलां सदा । हिमजलेन च मुत्रकृतामयम् ।। ६७ ॥ भावार्थ:-अश्वगंध, सफेद कमल, दुर्गव खैर, इनके रस को कुडुब प्रमाण पीना चाहिये । तथा लवणवर्ग व त्रिफला के चूर्ण को ठंडे जलके साथ मिलाकर पीना चाहिये, जिससे मूत्रा रोग दूर होता है ॥ ६७ ॥ मधुकादि योग. अथ पिवेन्मधुकं च तथा निशा- । ममरदारूनिदिग्धिकया सह ॥ त्रुटियनामलकानि जलामयी । पृथगिहाम्लपयोऽक्षतधावनैः ।। ६८ ॥ : भावार्थ-- मुलेठी, हलदी, देवदारु, कटेली, छोटी इलायची, नागरमोथा, आंवला, इन के चूर्ण व कल्क को कांजी, दूध, चावल का धोवन, इन किसी एक के साथ पीना चाहिये ॥ ६८ ॥ स्वरसमामलकोद्भवमेव वा । कुडुवसम्मितमिक्षुरसान्वितम् ॥ त्रुटिशिलाजतुमागाधिकाधिकं गुडजलं प्रपिबेत्स जलामयी ॥ ६९ ॥ भावार्थ-- मूत्रामयसे पीडित रोगी को १६ तोले आंवले का रस, अथवा उसमें ईख का रस मिलाकर पीना चाहिये। एवं छोटी इलायची शिलाजीत पीपल इन को गुडजल के साथ पीना चाहिये ॥ ६९ ॥ सत्रुटिरामठचूर्णयुतं पयो । घृतगुडान्वितमत्र पिनरः ॥ विविधमूत्रविघातकृतामया- । नधिकशुक्रमयानपि नाशयेत् ॥ ७० ॥ रकत इति पाठांतरं। - Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (४२५) भावार्थ--- छोटी इलायची व हींग के चूर्ण में घी गुड मिलाकर, दूध के साथ पीने से नानाप्रकार के मूत्रकृच्छ रोगों को एवं शुक्रगत मूत्ररोगों को भी नाश करता है ॥ ७० ॥ क्षारोदक. यवजपाटलबिल्वनिदिग्धिका । तिलजकिंशुकभद्रकभस्मीन- । मृतजलं सवरांगविलंगमूषकफलैः त्रुटिभिः परिमिश्रितं ॥ ७१ ।। प्रसृतमेतदथार्धयुतं च वा । घृतगुडान्वितमेव पिबेन्नरः । सफलभक्षणभोजनपानकान्य नुदिनं विदधीत तथामुना ।। ७२ ।। भावार्थ:-जौका पचांग, पाढल, बेल, कटली, तिल का पचांग, ढाक, नागर मोथा इन को जलाकर भस्म करें। इसे पानी में घोलकर छान लेवें । इस क्षार जल में दालचीनी, विडंग, तरुमूषिक [ वृक्ष जाति की मूसाकानी ] के फल व छोटी इलायची के चूर्ण को मिलावें। फिर इसे घी गुड के साथ ८ तोला अथवा ४ तोला प्रमाण प्रमेहरोगी पीवें । एवं इसी क्षारसे संपूर्ण भक्ष्य, भोजन पानक आदिकोंको बनाकर प्रतिदिन खाने को देवें ॥७२॥ · त्रुट्यादियोग. विविधमूत्ररुजामखिलाश्मरीमधिकशर्करया सह सर्वदा । शमयतीह निषेवितमंबुतत्त्रुटिशिलाजतुपिप्पलिकागुडैः ॥ ७३ ।। भावार्थ:-छोटी इलायची शिलाजित, पीपल व गुड इनको पानी के साथ सेवन करें तो नाना प्रकार के मूत्ररोग सर्वजाति के अश्मरी एवं शर्करा रोग भी शमन होते हैं ॥ ७३ ॥ अथ योनिरोगधिकारः। __ योनिरोग चिकित्सा. अथ च योनिगतानखिलामयान्निजगुणैरुपलक्षितलक्षणान् । प्रशमयेदिह दोषविशेषतः प्रतिविधाय भिषग्विविधौषधैः ।। ७४ ॥ भावार्थ:-सम्पूर्ण योनिरोग, जो उन के कारण भूत, तत्तद्दोषों के लक्षणों से संयुक्त हैं उन को, उन २ दोषानुसार, नानाप्रकार की औषधियोसे चिकित्सा कर के वैध शमन करें। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२६) केल्याणकारके विशेष-मिथ्या आहार विहार दुष्टार्तव, शुक्रदोष, व दैववशात् योनि रोगकी उत्पत्ति होती है । इस के मुख्यतः वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, इस प्रकार ४ भेद हैं । लेकिन उन के एक २ से पांच २ प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । अर्थात् प्रत्येक के पांच • भेद हैं । इस प्रकार योनिरोग के भेद २० होते हैं । ___ वातज योनिरोग. १ जिस योनिसे झाग [ फेन ] मिला हुआ रज बहुत कष्ट से बहें उसे उदावर्ता योनि कहते हैं। २ जिस योनि का आर्तव नष्ट होगया हो उसे वंध्या कहते हैं। ३ जिसको निरंतर पीडा होती हो उसे, विप्लुता कहते है । ४ मैथुन करने के समय में जिस में अत्यंत पीडा होती हो, उसे विप्लता योनिरोग कहते हैं। ५ जो योनि कठोर व स्तब्ध होकर शूल तोद युक्त होवें उस को वातला कहते हैं। ये पांचों योनिरोग इन में वातोद्रेक के लक्षण पाये जाते हैं, लेकिन वातला में अन्योंकी अपेक्षा अधिक लक्षण मिलते हैं। पित्तजयोनि रोग। १ जिस योनि से दाह के साथ रक्त बहे उसे लोहितक्षया कहते हैं। २ जो योनि रज से संयुक्त शुक्रको वात के साथ, वमन करें ( बहावें ) उसे वामिनी कहते हैं। ३ जो स्वस्थान से भ्रष्ट हो उसे प्रसंसिनी कहते हैं। ४ जिस योनिमें रक्त के कम होनेके कारण, गर्भ ठहर २ कर गिर जाता है उसे पुत्रघ्नी कहते हैं। ५ जो दाह, पाक [ पकना ] से युक्त हो, साथ ज्वर भी हो इसे पित्तला कहते हैं। उपरोक्त पांचों योनिरोग पित्त से उत्पन्न होते हैं अतएव उनमें वित्तोद्रेक के लक्षण पाये जाते हैं । लेकिन पित्तला में पित्तके अत्यधिक लक्षण प्रकट होते हैं। कफज योनिरोग। १ जो योनि, अत्यधिक मैथुन करने पर भी, आनंद को प्राप्त · न हे' उसे . अत्यानंदा कहते हैं। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (१२७) २ जिस में कफ व रक्त के कारण से, कर्णिका [ कमल के बीच में जो कर्णिका होती है वैसे ही मांसकंद ] उत्पन्न हो उसे, कर्णिनी कहते हैं । ३ जो योनि मैथुन के समय में अच्छी तरह मैथुन होनेके पूर्व अर्थात् जरासी मैथुन से ही, पुरुष के पहिले ही द्रवित हो जावें और इसी कारण से बीज को ग्रहण नहीं करें उसे अचरणा कहते हैं। ... .४ जो बहुवार मैथुन करने पर भी, पुरुष के पीछे द्रवीभूत होवें अत एव गर्भधारण न करें उसे अतिचरणा कहते हैं। ५ जो पिच्छिल ( लिबलिवाहट युक्त ) खुजली युक्त व अत्यंत शीत होवें उसे श्लेष्मला योनि कहते हैं । उपरोक्त पांचो रोगों में श्लेप्मोद्रेक के लक्षण पाये जाते हैं । श्लेष्मला में अन्यों की अपेक्षा अधिक लक्षण प्रकट होते हैं । सन्निपातज योनिरोग। १ जो योनि रज से रहित है, मैथुन करने में कर्कश मालूम होती है, (जिस स्त्री के रतन भी बहुत छोटे हो ) उसे पंण्डी कहते हैं। २ बडा लिंगयुक्त पुरुष के साथ मैथुन करने से जो अण्ड के समान बाहर निकल आती है, उसे अण्डली [ अण्डिनी ] योनि कहते हैं। ३ जिस का मुख अत्यधिक विवृत [खुला हुआ ] है और योनि भी बहुत बडी है वह विवृता कहलाती है । ___- - ४ जिसके मुख सूई के नोक के सदृश, छोटी है उसे मूचीवक्त्रा योनि कहते हैं ५ जिस में तीनों दोषोंके लक्षण प्रकट होते हैं उसे, सन्निपातिका कह सकते हैं यद्यपि उपरोक्त पाचों रोगों में भी तीनों दोषोंके लक्षण मिलते है । सान्निपातिकामें उनका बाहुल्य होता है । ७४ ॥ __ सर्वज योनिरोगचिकित्सा. अखिलदोषकृतान्परिहत्य तान् पृथगुदीरितदोषयुतामयान् । उपचरेघृपानविरेचनैर्विधिकृतोत्तरबस्तिभिरप्यलम् ॥ ७५ ॥ भावार्थः -सन्निपातज योनिरोगोंको असाध्य समझकर छोडें और पृथक् २ दोषों से उत्पन्न योनि को घृत पान, विरेचन व बरित आदि प्रयोगसे उपचार करना चाहिये || ७५ ॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.ars... vmvvvvv (४२८) कल्याणकारके वातलायोनिचिकित्सा. परुषकर्कशशूलयुतासु योनिषु विशषितवातहरौषधैः । परिविपकघटोद्भवबाष्पतापनमुशंति वशीकृतमानसाः ॥ ७६ ॥ भावार्थ -जिस योनिरोग में योनि कठिन, कर्कश व शूलयुक्त होती है उसे ( बातला योनिको ) वातहर विशिष्ट औषधियों से सिद्ध काढे को, एक घडे में भरकर उससे उत्पन्न, बाष्प [ बांफ ] से, ( कुंभी स्वेद से ) स्वेदन [ सेकना ] करना चाहिये । ऐसा मन को वशीभूत करनेवाले महापुरुषों (मुनियों ) ने कहा है ॥७६॥ __अन्य वातज योनिरोग चिकित्सा. लवणरर्गयुतमधुरोषधैः घृतपयोदधिभिः परिभावितैः । अनिलयोनिषु पूरणमिष्यते तिलजमिश्रितसत्पिचुनाथवा ॥ ७७ ॥ भावार्थ-वात विकारसे उत्पन्न [अन्य] योनिरोगों में लवणवर्ग और मधुरौषधियों को घृत, दूध व दही की भावना देकर चूर्ण करके योनि में भरना चाहिये अथवा तिल के तेल से भिगोया गया पिचु पोया] को योनि में रखना चाहिए ॥७७|| पित्तज योनिरोग चिकित्सा. तदनुरूपगुणौषधिसाधितैरहिमवारिभिरेव च धावनम् । अधिकदाहयुतास्वपि योनिषु प्रथितीतविधानमिहाचरेत् ।। ७८ ॥ भावार्थ--वातज योनिरोग से पीडित योनि को उस के अनुकूल गुणयुक्त [ वातनाशक ] औषधियोंसे सिद्ध [ पकाया हुआ] गरम पानी से ही धोना चाहिये । अत्यंत दाहयुक्त [ पैत्तिक ] योनिरोगों में शीतक्रिया करनी चाहिये ।। ७८ ।। कफज योनिरोगनाशक प्रयोग. नपतरुत्रिफलाधिकधातकीकुसुमचूर्णवरैरवचूर्ण्य धा-- वनमपीह कषायकषायितैः कुरु कफोत्थितपिच्छिलयोनिषु ॥ ७ ॥ भावार्थ-जी योनि दुगंधयुक्त व पिच्छिल हो, उस पर अमलतास का गूदा त्रिफला, अधिक भाग ( पूर्वोक्त औषधियों की अपेक्षा ) धायके फूल, इन को अच्छीतरह चूर्ण कर के बुरखना चाहिए और [ इन्हीं ].कषैली औषधियों के काढे से धोना भी चाहिए ॥ ७९ ॥ १ घटोत्कट इति पाठांतरं २ परिपाचितैः इति पाठांतरं । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (४२९) कफजयोनिरोग चिकित्सा. प्रचुरकण्डुरयोनिषु तक्षिणभ- । पजगणैस्तीफलसैंधवैः । प्रतिदिनं परिपूरणमिष्टमि- । त्यहिममूत्रगणैरपि धावनम् ।। ८० ॥ भावार्थ-जिस में अत्यधिक खुजली चल रही हो, ऐसे कफज योनिरोगों में तीदण औषधियां तथा कटेहरी के फल, सेंधालोण, इन के चूर्ण को प्रतिदिन भरना चाहिए। तथा गरम किए हुए गोमूत्र, बकरी के मूत्रा आदि. मूत्रावर्ग से धोना भी चाहिये ॥ ८० ॥ कर्णिनी चिकित्सा. प्रबलकर्णवतीष्वीप शोधनैः । कृतसुवर्तिमिहाधिकभषजैः । इह विधाय विशोधनसर्पिषा, प्रशमयेदथवांकुरलेपनैः ।। ८१ ॥ भावार्थ:-- कर्णिनी योनिरोग को शोधकीधीशष्ट औषधियोद्वारा निर्मित . . बत्ती ( योनिपर ) रखना उन्ही औषधियों से सिद्ध घृत, पोया ( पिचु ) धारण कराना व पिलाना चाहिये एवं अर्शनाशक लेपों के लेपन से शमन करना चाहिये ॥ ८१ ॥ प्रसंसनीयोनिरोग चिकित्सा. अपि च योनिमिहात्यवलंबिनी, घृतविलिप्ततनुं प्रविवेशितम् । ... तिलजजीरकया प्रपिधाय तामधिकबंधनमेवसमाहरेत् ।। ८२ ॥ भावार्थ:--नीचेकी ओर अत्यंत लटकती हुई ( प्रस्रंसिनी) योनीको घृत का लेपन कर के फिर तिलके तेल व जीरे से उसे ढककर अर्थात् उनके कल्क को उस पर रख कर, उसे अच्छीतरह बांधना चाहिये ॥ ८२ ॥ योनिरोगचिकित्सा का उपसंहार. इति जयेत्क्रमतो बहुयोनिजामयचयान्पतिदोषकृतौषधैः । निखिलधावनधूपनपूरणैः मृदुविलेपनतर्पणबंधनः ॥८३॥ भावार्थ:-इस प्रकार बहुत से प्रकार के योनिजरोगों को क्रम से तत्तद्दोष नाशक औषधियों से धावन, ( धोना ) धूपन, [ धूप देना ] पूरण, [ भरना ] लेपन तर्पण व बंधन विधि के प्रयोग कर जीतना चाहिये ॥ ८३ ॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) कल्याणकारके अथ गुल्मरोगाधिकारः । गुल्म निदानअथ पृथङ्किखलैः पवनादिभिर्भवति गुल्मरुगग्रतरो नृणाम् । रुधिरजो वनितासु च पंचमो विदितगर्भगताखिल लक्षणः ॥ ८४ ।। भावार्थः-वात, पित, कफ सन्निपात एवं स्त्रियोंके रज के विकार से, पांच प्रकार ( वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक सान्निपातिक, रक्तज ) के भयंकर गुल्मरोग उत्पन्न होते हैं, जिनमें आदि के गुल्म स्त्री-पुरुष दोनों को ही होते हैं । लेकिन् रक्तज गुल्म स्त्रियोंमें होता है पुरुषोंमें नहीं । दोषज गुल्मों में तत्तदोषों के लक्षण पाये जाते हैं । सन्निपातिक में त्रिदोषों के लक्षण प्रकट होते हैं । रक्तजे गुल्म में पैत्तिक लक्षण मिलते हैं । औरोंकी अपेक्षा इसमें इतनी विशेषता होता है कि इसमें गर्भ के सभी लक्षण [ जैसे मुंह से पानी छूटना, मुखमंडल पाला पड जाना, रतन का अग्रभाग काला हो जाना आदि ] प्रकट होते हैं। लेकिन गर्भ में तो, हाथ पैर आदि प्रत्येक अवयव शूलरहित फडकता है । यह पिंडरूप में दर्द के साथ फडकता है । गर्भ और गुल्म में इतना ही अंतर है ॥ ८४ ॥ गुल्म चिकित्सा. अधिकृताखिलदोषनिवारणौ- । षधवरैः सुविरिक्तशरीरिणाम् । अपि निरूहगणैरनुवासनैः प्रशमयेद्बुधिपि च पित्तवत् ॥ ८५ ॥ भावार्थ:--गुल्म रोगमें अपछी तरह विरेचन कराकर बातादिक दोषोके उद्रेकको पहिचानकर उन दोषोंके उपशामक औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये तथा निरूहण बंरित भी देनी चाहिये । रक्तविकारज गुल्म रोगमे पित्तज गुल्म के समान चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ८५ ॥ गुल्म में भोजन भक्षणादि. अखिलभोजनभक्षणपानका- । न्यनिलरोगिषु यानि हितानि च । अधिकगुल्मिषु तापनबंधना- । न्यनुदिनं विदधीत विधानवित् ।। ८६॥ १ गुल्मका सामान्य लक्षण-हृदय व मूत्राशय के बीच के प्रदेश में चंचल (इधर उधर फिरनेवाला) वा निश्चल, कभी २ घटने बढने वाला गोलग्रंथि [ गांठ ] उत्पन्न होता है इसे गुल्म कहते हैं। २ यह रोग पुराना होनेसे सुखसाध्य होता है इस की चिकित्सा दस महीने बीत जाने के बाद करनी चाहिये ।। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । ( ४३१ ) भावार्थः – जो भोजन, भक्षण पानक आदि वातिक रोगियों के लिये हितकर हैं उन सब को गुल्मरोग से पीडित रोगी को भोजनादि कार्यों में देना चाहिये एवं चिकित्सा विधान को जानने वाला वैद्य प्रतिदिन स्वेदन बंधन आदि प्रयोगों को प्रयुक्त करें || ८६ ॥ गुल्मनाशक प्रयोग. अनिलरोगहरैलवणैस्तथादरिषु च प्रतिपादितसर्पिषा । उपचरेदिह गुल्मविकारिणां, मलविलोडनवतिभिरप्यलम् ॥ ८७ ॥ भावार्थ : – गुल्मरोग वातविकारको दूर करने वाले लवणों से एवं उदर रोग में कहे हुए वृतसे चिकित्सा करनी चाहिये । तथा मलको नाश करनेवाली वर्त [ बत्ति ] यों के प्रयोग से भी उपचार करना चाहिये ॥ ८७ ॥ गुल्मन्नयोगांतर. तिलजसर्षपतैलसुभृष्टप-, लवगणान् नृपपूतिकरंजयाः । लवणकांजिकया सह भक्षयेदरगुल्मविलोडनसत्पटून् ॥८८॥ भावार्थ: - आरग्बध व पूतिकरंजे के कोंपल पत्तों को तिलके तेल व सरसों के तेल के साथ भूजकर उसे नमकीन कांजी के साथ खिलाना चाहिये । वह गुल्मरोगको नाश करने के लिये समर्थ हैं ॥ ८८ ॥ -- विशिष्ट प्रयोग मलनिरोधनतः पयसा यवोदनमथाप्यसकृद्बहु भोजयेत् । अतिविपक्व सुमाषचयानुलखलविघृष्ट विशिष्टघृताप्लुतान् ॥ ८९ ॥ भावार्थ:-- यदि इस रोग में मलनिरोध होजाय तो जौका अन्न दूध के साथ बार २ खिलाना चाहिये । अच्छी तरह पके हुए उडद को उलूखल [ ओखनी ] में घर्षण [ रगड ] कर के उत्तम घी में भिगोकर खिलाना चाहिये ॥ ८९ ॥ गुल्म में अपथ्य. बहुविधालुकमूलकमांसवैदल विशुष्कविरूक्षणशाकमी- । जनगणान् मधुराणि फलान्यलं परिहरेदिह गुल्मविकारवान् ॥ ९० ॥ भावार्थ:-- गुल्मरोग से पीडित मनुष्य बहुत प्रकार के रतालु, पिंडालु आदि आलु, मूली, द्विदल [ मूंग मसूर आदि ] धान्य, सूखा व रूक्ष शाक व इन से संयुक्त भोजन समूहों को एवं मीठे फलों (केला जादि ] को नहीं खावें ॥ ९० ॥ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३२ ) कल्याणकारके अथ पांडुरोगाधिकारः पांडुरोग निदान. अथ च पाण्डुगदांश्चतुरो वै पृथगशेषविशेषितदोषजान् । विदितपाण्डुगुणमविभावितान् अपि विभिन्नगुणान्गुणमुख्यतः ॥ ९१ ॥ भावार्थ:- - अब वात, पित्त, कफ व सन्निपात से उत्पन्न, जिन के होने पर शरीर में पाण्डुता आती है, दोषों के गौण मुख्य भेद से विभिन्न प्रकार के गुणों से युक्त हैं ( अर्थात् सभी प्रकार के पांडुरोगों में पांडुपना यह समानगुण [ लक्षण ] रहता है । लेकिनं वातज आदि मे दोषों के अनुसार भिन्न २ लक्षण भी मिलते हैं ) ऐसे चार प्रकार के पाण्डुरोगों को कहेंगे ।। ९१ ॥ वातज पांडुरोग लक्षण. असितमूत्रसिराननलोचनं । मलनखान्यसितानि च यस्य वै ॥ मरुदुपद्रवपीडितमातुरं । मरुदुदीरितपाण्डुगदं वदेत् ॥ ९२ ॥ भावार्थ:-मूत्र, सिरा, मुख, नेत्र, मल, नख आदि जिसके काले हों, और EE वा अन्य उपद्रवोंसे पीडित हो तो उसे बातविकार से उत्पन्न पाण्डुरोग समझना चाहिये । अर्थात् यह वातिक पांडुरोग का लक्षण हैं ॥ ९२ ॥ पित्तज पांडुरोग लक्षण. निखिलपीतयुतं निजपित्तजं धवलवर्णमपीह कफात्मजम् । सकलवर्णगुणत्रितयोत्थितं प्रतिवदेदथ कामलक्षणम् ॥ ९३ ॥ भावार्थ - उपर्युक्त अवयव जिसमें पीले हों [ पित्त के अन्य उपद्रव भी होते हैं ] उसे पित्तज पांडु समझें । और सफेद वर्ण हो ( कफजन्य अन्य उपद्रवों संयुक्त हो ) तो कफज पांण्डु कहें । और तीनों वर्ण एक साथ रहें तो सन्निपातज समझें । 1 कामला रोग के स्वरूप को कहेंगे ॥ ९३ ॥ अब आगे कामलानिदान. ' प्रशमितज्वरदाहनरोऽचिरादधिकमम्लमपथ्यमिहाचरेत् ॥ . कुपितपित्तमतोस्य च कामला मधिकशोफयुतां कुरुते सितां ॥ ९४ ॥ १ का बिल्यान्यथा इति पाठांतरे । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः (४३३) भावार्थ:-जिसका ज्वर दाह पाण्डु आदि रोग शांत होगये हों, किंतु [ शांत होते ही ] शीघ्र अत्यधिक खटाई और अन्य [ पित्तोद्रेक करने वाले ] अपथ्य पदार्थों को खाता. है व अपथ्याचरण को करता है तो उस का पित्त प्रकुपित होकर, शरीर को एकदम सफेद [ या पीला ] करता है, भयंकर सूजन उत्पन्न करता है, ( तंद्रा निर्बलता आदिकों को पैदा करता है ) जिसे कामला रोग कहते हैं ।। ९४ ॥ पांडुरोग चिकित्सा. अभिहितक्रमपाण्डुगदातुरो । विदितशुद्धतनघतशर्करा- ॥ विललितत्रिफलामथवा निशा- । द्वयमयस्त्रिकटुं सततं लिहेत् ।। ९५ ॥ भावार्थ:--उपर्युक्त प्रकारके पाण्डुरोगोंसे पीडित रोगीको सबसे पहिले बमन विरेचनादिसे शरीर शोधन करना चाहिये। हरड, बहेड, आंवला, सोंठ भिरच पीपल इन के चूर्णको अथवा हलदी दारुहलदी, सोंठ भिरच पीपल इनके चूर्ण को लोहभस्म के साथ घी शक्कर मिलाकर सतत चाटना चाहिये ॥९५|| पाण्डुरोगन्न योग. अपि विडंगयुतत्रिफलांबुदान् । त्रिकटुचित्रकधाव्यजमोदकान् ।। अति विचर्ण्य गुडान् सघृताप्लुतान् । निखिलसारतरूदकसाधितान् ॥१६॥ इति विपकमिदं बहलं लिहन् । जयति पाण्डुगदानथ कामलाम् ॥ अपि च शर्करया त्रिकटुं तथा । गुडयुतं च गवां पय एव वा ॥९७॥ कामलाकी चिकित्सा. यदिह शोफचिकित्सितमीरितं तदपि कामालिनां सततं हितम् । गुडहरीतकमूत्रसुभस्मनिसृतजलं यवशालिगणौदनम् ॥ ९८ ॥ भावार्थ:-वायविडंग, त्रिफला, ( सोंठ मिरच, पीपल ) नागरमोथा, त्रिकटु, चित्रक, आमला, अजवाईन इनको अच्छीतरह चूर्णकर घी व गुड में भिगोयें। फिर इस में शालसारदि गणोक्त वृक्षों के काथ डाल कर तब तक पकायें जब तक वह अवलेह के समान गाढा न हों। यह इस प्रकार सिद्ध औषध सर्व पाण्डुरोगोंको जीतता है । एवं कामला रोगको भी जीतता है तथा शक्कर के साथ त्रिकुटु अथवा गुड के साथ गायका दूध सेवन करना भी हितकर है। शोफ विकार के लिये जो चिकित्सा १ इसका अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है कि त्रिफला के चूर्ण, अथवा हलदी दारुहलदी के चूर्ण अथवा लोहभस्म, अथवा सौंठ भिरच पपिल के चूर्ण को घी शक्कर के साथ चाटना चाहिये। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३४) कल्याणकारके कही गई है उसका उपयोग कामला में करना हितकर है । गुड, हरड गोमूत्रा, लोहभस्म इनको एकत्र डालकर पकावें । यह काढा देना और जौ शालि आदि भोजन के लिये उपयोग करना हितकारी होता है ।। ९६ ॥ ९७ ॥ ९८ ॥ पाण्डुरोग का उपसंहार. एवं विद्वान् कधितगुणवान् अप्य शेषान् विकारान् । ज्ञात्वा दोषप्रशमनपरैरौषधैस्साधयेत्तान् ।। कार्य यस्मान्न भवति विना कारणप्रिकारै-। भूयो भूयः तदनुकथनं पिष्ट संपेषणार्थम् ॥ ९९ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार उपर्युक्त रोगोंके व अन्य सर्वविकारोंके दोषक्रमको विद्वान् वैद्य जानकर उनको उपशमन करनेवाले योग्य औषधियोंसे उनकी चिकित्सा करें। यह निश्चित है कि विना अंतरंग व बहिरंग कारण के कार्य होता ही नहीं। इस लिये बार २ उसका कथन करना वह पिष्टपेषण के लिये होजायगा ॥ ९९ ॥ अथ मूछोन्मादापस्माराधिकारः । मूछन्मिादावपि पुनरपस्माररोगोऽपि दोष-। रंतर्बाह्याखिलकरणसंछादकैर्गौणमुख्यैः ।। उत्पन्नास्ते तदनुगुणरूपौषधैस्तान्विदित्वा । सर्वेष्वेषु प्रवलतरपित्तं सदोपक्रमेत ।। १०० ॥ भावार्थः-मूर्छा [ बेहोश होजाना ] उन्माद (पागल होजाना) व अपरमार (मिर्गी) रोग, बाह्यांभ्यतर कारणोंसे कुपित होकर शरीर को आच्छादित करनेवाले और गौणमुख्य भेदोंसे युक्त वातादि दोषोंसे ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये उपरोक्त रोगो में दोषोंके बलाबल को अच्छी तरह जान कर उन के अनुकूल अर्थात् उनको उपशमन आदि करनेवाले औषधियोंसे चिकित्सा करनी चाहिये । लेकिन उन तीनो में पित्त की प्रबलता रहती है। इसलिये उन में हमेशा [ विशेष कर ] पित्तोपशमन क्रिया करें तो हितकर होता है | १०० ॥ मूर्छानिदान । दोषव्याप्तस्मृतिपथयुतस्याशु मोहस्तमारूपण प्राप्नोत्यनिशमिह भूमौ पतत्येव तस्मात् । मूर्छामाहुः क्षतजषिपद्यैस्सदा पड्डिधास्ताः ॥ पदस्वप्येषं विषगिह महान् पित्तशांति प्रकुर्यात् ॥ १०१ ॥ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदरोगाधिकारः। (१३५) भावार्थ:-संज्ञावाहक नाडियों में जब दोष व्याप्त हो जाते हैं तो आंखों के सामने अंधेरासा मालूम होकर रोगी भूमिपर पडता है । उस समय सर्वइंद्रिय दोषों के प्रबल विकार से आच्छादित रहने से रूपादिक ज्ञान नहीं करते । उसे मूर्छारोग कहते हैं । रक्त विषर्ज व वातज, पित्तज व कफज व मद्यज इस प्रकार यह रोग छह प्रकार का है। इन छहों प्रकारकी मूर्छाओमें पित्तशांतिकी क्रिया को करनी चाहिये । क्यों कि सब में पित्तकी प्रबलता रहती है ॥ १०१ ॥ मूर्छा चिकित्सा. स्नानालंपाशनवसनपानप्रदेहानिलाद्याः । शीतास्सर्वे सततमिह मूर्छासु सर्वासु योज्याः॥ द्राक्षा यष्टीमधुककुसुमक्षीरसर्पिःप्रियालाः । सेक्षुक्षीरं चणकचणकाः शर्कराशालयश्च ॥ १०२ ॥ भावार्थः ---इन सब मूर्छावो में स्नान, लेपन, भोजन, वस्त्र, पान, वायु, आदि में सर्व शीतपदार्थीका उपयोग करना चाहिये [ अर्थात् ठण्डे पानी से स्नान कराना, ठण्डे औषधियों का लेप, ठण्डे पंखे की हवा आदि करना चाहिये । ] मुलैठी, धाय के फूल, द्राक्षा, दूध, घी, चिरोंजी, गन्नेका रस, चना, अतसी [ अलसी ] शक्कर शाली, आदि का खाने में उपयोग करना हितकर है ॥ १०२ ।। उन्मादनिदान. उन्मार्गसंक्षुभितभूरिसमस्तदोषा। उन्मादमाशु जनयंत्याखिलाः पृथक् च ।। शोकेन चान्य इति पंचविधा विकारा । स्ते मानसाः कथितदोषगुणा भवंति ॥ १०३ ॥ भावार्थ:-जिस समय वात पित्त कफ, तीनों एक साथ व अलग २ कुपित होकर अपने २ मार्ग को छोड कर उन्मार्गगामी ( मनोवह धमनियो में व्याप्त ) होते हैं तो उन्माद रोग उत्पन्न होता है अर्थात् वह व्यक्ति पागल हो जाता है। यह दोषों से चार [ वातादिक से तीन सन्निपात से एक ] शोकसे एक इस प्रकार पांच भेद से विभक्त है। ये पांचों प्रकार के उन्माद मानसिक रोग हैं । इन में पूर्वोक्त क्रमसे, दोषों के गुण लक्षण भी होते हैं । १०३ ॥ १ रक्त के गंध को सूंघने से उत्पन्न. २ विषमक्षण से उत्पन्न. ३ मदिरा पीनेसे उतान्न, Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३६ ) कल्याणकारके वातिक उम्मादके लक्षण. नृत्यत्यति मलपति भ्रमतीह गाय-1 त्याक्रोशति स्फुटमटत्यथ कंपमानः ॥ आस्फोटयत्यानेलको पकृतोन्मदात । मर्त्योऽतिमत्त इव विस्तृतचित्तवृत्तिः ॥ १०४ ॥ भावार्थ:-- वातप्रकोप से उत्पन्न उन्मादरोग में मनुष्य विशाल मनोव्यापार वाला होते हुए मदोन्मत्त की तरह कांपते हुए नाचता है, बहुत बडबड करता है । इधर उधर फिरता है । गाता है । किसी को गाली देता है। बाजार में आवारा फिरता है । ताल ठोंकता है ॥ १०४ ॥ पैत्तिकोन्माद का लक्षण. शीतप्रियः शिथिलशतिलगात्रयष्टिः । तीक्ष्णातिरोषणपरोऽग्निशिखातिशंकी || तारास्स पश्यति दिवाप्यतितीव्रदृष्टिः । उन्मादको भवति पित्तवशान्मनुष्यः ॥ १०५ ॥ भावार्थ:-- पित्तप्रकोप से जो मनुष्य उन्मादी हो गया है उसे शीतपदार्थ प्रिय होते हैं । उसका शरीर गरम हो जाता है । वह तीक्ष्ण रहता है । उसे बहुत तीव्र क्रोध आता है । सर्वत्र उसे अग्निशिखा की शंका होती है। उसकी दृष्टि इतनी तीव्र रहती है कि दिन में भी वह तारावोंको देख लेता है ॥ १०५ ॥ 1 लैष्मिकोन्माद. स्थूलोल्परुग् बहुकफाल्पभुगुष्णसेवी । निद्रालुरल्पकथकः सभवेत्स्थिरात्मा ॥ रात्रावतिप्रबलमुग्धमतिर्मनुष्यः । श्लेष्मप्रकोपकृतदुर्मथनो मदार्तः ॥ १०६ ॥ भावार्थ:- कफप्रकोपसे जो मनुष्य उन्मादसे पीडित होता है वह मनुष्य स्थूल, अल्पपीडावाला, बहुकफसे युक्तः अल्पभोजी, उष्णप्रिय, निद्रालु ब बहुत कम बोलनेवाला, चंचलतासे रहित होता है । रात्रि में उसकी बुद्धि में अत्यधिक विभ्रम होता अर्थात् रात्रि में रोग बढ़ जाता है । यह कठिन रोग है ॥ १०६ ॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (४३७) सन्निपातज, शोकज उन्मादलक्षण. स्यात्सन्निपातजनितस्त्रिविधैः त्रिदोष-।। लिंगैः समीक्षितगणो भवतीह कृच्छ्रः ।। अर्थक्षयादधिकबंधुवियोगतो वा।। कामाद्भयादपि तथा मनसो विकारः ॥ १०७ ॥ . भावार्थ:-सन्निपातज उन्मादरोग में तीनों दोषज उन्माद में कहे गये चिन्ह प्रकट होते हैं। यह भी कठिन साध्य होता है । तथा धननाश, निकटबंधुवियोग, काम व , भय आदिसे ( शोक उत्पन्न होकर) भी उन्माद रोग होता है ॥ १०७.॥ उन्मादचिकित्सा. उन्मादबाधिततर्नु पुरुषं सदोषैः । स्निग्धं तथोभयविभागविशुद्धदेहं ।।। तीक्ष्णावपीडनशतैः शिरसो विरेकैः । . धूपैरसपूतिभिरतः समुपक्रमेत ॥ १०८ ॥ भावार्थ:-उन्माद से पीडित मनुष्य को दोषों के अनुसार स्नेहन व स्वेदन करा कर वमन विरेचन से शरीर के ऊपर व नीचे के भागोंको शोधन करना चाहिये । फिर उसे अनेक प्रकार के तांदण अवर्षाडननस्य, शिरोविरेचन, और दुर्गाधयुक्त धून के प्रयोग से चिकित्सा करनी चाहिये ॥ १०८ ॥ नस्य व त्रासन, नस्यानुलेपनमपीह हितं प्रयोज्यं । तैलेन तीक्ष्णतरसर्षपजेन युक्तम् ।। सुत्रासयेद्विविधनागतृणाग्नितोय-1 चोरैर्गजैरपि सुशिक्षितसर्वकार्यैः ॥ १०९ ॥ भावार्थ:-----इस रोगमें हितकर नस्य व लेप को तीक्ष्ण सरसोंके तैल के साथ प्रयोग करना चाहिये। और अनेक प्रकार के निषिसर्प, घास, अग्नि, पानी, चोर, हाथी व अन्य शिक्षाप्रद अनेक कार्यों से उस उन्मादी को भय व त्रास पहुंचाना चाहिये ।। १०९॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके AAAA उन्मादनाशक अन्यविधि. कूपेऽतिपूतिबहुभीमशवाकुलेऽस्मिन् । तं शाययेदतिमहाबहलांधकार ॥ सम्यग्ललाटतटसर्वशिराश्च लिदा । रक्तप्रमोक्षणमपीह भिषग्विदध्यात् ॥ ११० ॥ भावार्थः-अंधेरे कूए में और जहां अत्यंत भयंकर अनेक शव पडे हों और अत्याधक दुर्गंध आरहा हो एवं अंधकार हो वहां उस उन्मादीको सुलाना चाहिये । तथा कुशल वैद्य रोगी के ललाट में रहनेवाले सर्व शिराओं को व्यथन कर के रक्तमोक्षण भी करें ॥ ११० ॥ उन्माद में पथ्य. स्निग्धातिधौतमधुरातिगुरुप्रकार । निद्राकराणि बहुभोजनपानकानि ।। मेधावहान्यतिमदाशमैकहेतून् । संशोधनानि सततं विदधीत दोषान् ॥ १११ ॥ भावार्थ:-उन्मादीकी बुद्धि को ठिकाने में लानेवाले और मदशमन के कारण भूत स्निग्ध, अतिशुद्ध, मधुर, गुरु, निद्राकारक ऐसे बहुत प्रकारके भोजनपानादि द्रव्योंको देवें । एवं हमेशा दोषों के शोधन भी करते रहें ॥१११॥ अपस्मार निदान. भयमिह भवत्यप्सु प्राणैर्यतः पारमुच्यते ! स्मरणमपि तवावश्यं विनश्यति मूच्छेया ।। प्रबलमरुतापस्माराख्यस्त्रिदोषगुणोप्यसा- । यसितहरितश्वेतैर्भूतः क्षणात्पतति क्षितौ ।। ११२ ॥ . भुवि निपतितो दंतान्खादन् वमन् कफमुन्द्धसन् । बलिककरगात्रोदृत्ताक्षः स्वयं बहु कूजति ।। मरणगुणयुक्तापस्मारोऽयमंतकसन्निभ-। स्तत इह नरो मृत्वा मृत्वात्र जीवति कृच्छ्रतः ॥ ११३ ।। ..१ उपरोक्त कार्यों को करने से प्रायः उस का दिल ठिकाने में आजाया करता है। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । ( ४३९ ) भावार्थ:- जिस प्रकार पानी में गिर जाने पर एकदम ऐसा भय उत्पन्न होता है कि अभी प्राण निकल जाता है और मूछके साथ ही साथ स्मरण [ बुद्धि ] शक्ति भी अवश्य नष्ट हो जाती है उसी प्रकार इस रोग में भी प्राणघातकभय एवं मूर्च्छा के साथ स्मरणशक्ति का भी नाश होता है । इसलिये इसे अपस्मार रोग कहते हैं । यद्यपि यह तीनों दोषों से उत्पन्न होता है फिर भी प्रत्येक में वायुका प्राबल्य रहता है । वांत, पित्त, कफज अपस्मारों में यथाक्रम से [ बैग के आरम्भ में ] वह रोगी काला; हरा ( अथवा बीला) व सफेदवर्ण के प्राणि व रूपविशेषों को देख कर भूमि पर गिर जाता है । जमीन पर गिरा हुआ वह मनुष्य दांतोको खाते मन करते हुए, ऊर्ध्वश्वास व ऊदृष्टि होकर बहुत जोरसे चिल्लाता है । यह अपस्मार यम के समान मरण के गुणोंसे संयुक्त है अर्थात् मरणपद है । इस से मनुष्य मर मरकर बहुत कष्ट से जीता है अर्थात् यह एक अत्यंत भयंकर रोग है ॥ ११२ ॥ ११३ ॥ क्षणमात्र से ही हुए कफ को अपस्मार की उत्पत्ति में भ्रम. व्रजति सहसा कस्माद्योऽयं स्वयं मुहुरागतः । कथित गुणदोरुभ्ऽतिशीघ्रगतागतैः ॥ त्वरितमिह सोपस्माराख्यः प्रशाम्यति दोषजो । ग्रहकृत इति प्रायः केचित् ब्रुवत्यबुधा जनाः ॥ ११४ ॥ भावार्थ:-- शीघ्र गमन व आगमनशील व पूर्वोक्त गुणोंसे संयुक्त वातादि दोषों से उत्पन्न यह अपस्मार रोग अकस्मात् अपने आप ही आकर, शीघ्र चला जाता है । क्योंकि यह विना कारण के ही शमन हो जाता है इसलिये कुछ मूर्ख मनुष्य इस को ग्रहों के उपद्रवसे उत्पन्न मानते हैं । लेकिन ऐसी बात नहीं है । यह दोषज ही है ॥ ११४ ॥ रोगोंकी विलंबाविलंब उत्पत्ति. कतिचिदिह दोषैरेवाशुद्भवत्यधिकामयाः ! पुनरतिचिरात्कालात्केचित्स्वभावत एव ते । सकलगुणसामया युक्तोऽपि बीजगणो यथा । भवति भुवि प्रत्यात्मानं चिराचिरभेदतः ॥ ११५ ॥ • इसका वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज इस प्रकार चार भेद है । २ अपस्मार का सामान्य लक्षण है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४०) कल्याणकारक भावार्थ:- कई महारोग अपने स्वभाव से ही वातादि दोषोंसे शीघ्र उत्पन्न होते हैं और बहुत से रोग. उन्ही दोषोंसे देरी से उत्पन्न होते हैं। ऐसा होना उनका स्वभाव है। जैसे कि जमीन में बोये गये बीजोंको पानी, योग्यक्षेत्रा आदि सम्पूर्ण गुणयुक्त सामग्रियोंके मिलने पर भी वहुत से तो शीघ्र उगते हैं और बहुत से तो देर में । इसी प्रकार मनुष्य के शरीर में भी रोग चिर व [देर ] अचिर शीघ्र] भेद से उत्पन्न होते हैं ॥ ११५ ॥ बहुविधकृतव्यापारात्मोरुकवशान्महु- । मुंहुरिह महादोषः रोगा भवंत्यचिराचिरात् ।। सति जलनिधावप्युत्तंगास्तंरगणास्स्वयं । पृथक पृथगुत्पद्यते कदाचिदनेकशः ॥ ११६ ।। भावार्थ:--शरीरमें रोगोत्पात्तिके कारण भूत प्रकुपितदोष मौजूद होनेपर भी कोई रोग देर से कोई शीघ्र क्यों उत्पन्न होते हैं । इस के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि पूर्व में किये गये नानाप्रकार के व्यापारों से अर्जित कर्म के वशीभूत होकर महान् दोषों से बहुत से रोग शीघ्र उत्पन्न होते हैं बहुत से देर से । जैसे कि समुद्रमें [तरंग के कारणभूत ] अगाध जलराशि के रहने पर भी कभी २ बडे २ तरंग एक २ कर के [देर २ से ] आते हैं। कभी तो अनेक एक साथ (शीघ्र २) आते हैं ॥ ११६ ॥ अपस्मार चिकित्सा. इह कथितसमस्तोन्मादभैषज्यवर्गः । प्रशमयतु सदापस्माररोग विधिज्ञः ॥ सरसमधुकसारो दृष्टनस्यम्समूत्रैः । प्रशमनविधियुक्तात्यंततीवौषधैश्च ॥ ११७ ॥ भावार्थ:-चिकित्सा में कुशल वैद्य उन्माद रोग में जो औषधिवर्ग बतलाये गये हैं उन से इस अपस्मार रोगकी चिकित्सा कर उपशमन करें। सफेद निशोथ, मुलैठी, वज्रखार इनको गोमूत्र के साथ पीसकर नस्य देवें [ सुंघावें ] एवं अपस्मार रोग को दूर करनेवाले तीव्र औषधियों के विधि प्रकार नस्य आदि में प्रयोग से चिकित्सा करें ॥ ११७॥ नस्यांजन आदि. पुराणघृतमस्य नस्यनयनांजनालेपन-। । विधेयमधिकोन्मदादियमानसव्याधिषु ।। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्ररोगाधिकारः निरंतरमिहातितीव्रकटु भेषजैश्चूर्णितै- । स्सदा क्षवथुमत्र सूत्रविधिना समुत्पादयेत् ॥ ११८ ॥ भावार्थ:-- अपस्माररोग से पीडित मनुष्य को आंख में घी का अंजन और उसीका लेप भी करें ! बढा हुआ उन्माद अपस्मार आदि मानसिकरोगों में हमेशा अत्यंत तीक्ष्ण, कटु ('चरंपरा ) औषधियों के चूर्ण से, शास्त्रोक्तविधि अनुसार छींक पैदा करना चाहिये ॥ ११८ ॥ भाडयद्यरिष्ट. भाडकषाययुतमायसचूर्णभाग - । मिक्षोर्विकारकृत सन्मधुरं सुगंधि || कुंभे निधाय निहितं बहुधान्यमध्ये | Sपस्मारमाशु शमयत्यसकृन्निपीतम् ॥ ११९ ॥ ( ४ ४ १ ) भावार्थ:- भारंगी के कषाय में लोहभस्म व गुड मिलाकर एक घडे में भर देवें । फिर उसे धान्यो की राशि में एक महीने तक रख कर निकाल लेवें । उसे कपूर आदि से सुगंधित करें । इस सुगंधित व मीठा भार्यादि अरिष्ट को वार २ पीयें तो अपस्मार रोग शीघ्र ही शमन होता है ॥ ११९ ॥ अंतिम कथन | इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृत तरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरती । निस्सृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ॥ १२० ॥ भावार्थ:-- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इहलोक आर परलोक के लिए प्रयोजनभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुख से उत्पन्न शास्त्रसमुद्र से निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगत्का एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ १२४ ॥ ५६ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४२ ) कल्याणकार इत्युग्रादित्याचार्यविरचित कल्याणकारके चिकित्साधिकार क्षुद्ररोगचिकित्सितं नामादितः सप्तदशः परिच्छेदः । ·0 इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में क्षुद्ररोगाधिकार नामक सत्रहवां परिच्छेद समाप्त हुआ । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T बालग्रहभूत तंत्राधिकारः । अथाष्टदशः परिच्छेदः --630081 मंगलाचरण. मम मनसि जिनेंद्र श्रीपदां भोजयुग्मं । भवतु विभवभव्याशेषमत्तालिदै - ॥ रनुदिनमनुरक्तैस्सेव्यमानं प्रतीत - त्रिभुवन सुखसंपत्प्रातिहेतुर्नराणाम् ॥ १ ॥ भावार्थ:- श्री जिनेंद्र भगवान में आसक्त [ अत्यंत श्रद्धा रखनेवाले ] वैभवयुक्त सम्पूर्ण भव्यरूपी मदोन्मत्त भ्रमरसमूह जिसको प्रतिदिन सेवता है और जो तीनों लोक में स्थित, प्रसिद्ध सम्पूर्ण सुखसंपत्तिके प्राप्ति के कारण है ऐसे श्री जिनेंद्र भगवान के दिव्य चरणकमलयुगल मेरे मन [ हृदय ] में हमेशा विराजता रहें ॥ १ ॥ अथ राजयक्ष्माधिकारः । राजयक्ष्मवर्णनप्रतिज्ञा. अखिलतनुगताशेषामयैकाधिवासं । प्रबलविषमशोषव्याधितत्वं ब्रवीमि || निजगुणरचितस्तदपभेदाभेदैः । प्रथमतरसुरूपैरात्मरूपैस्मुरिष्टैः ॥ २ ॥ ( ४४३ ) - भावार्थः – जो सर्व शररिंगत रोगोंको आश्रय भूत है ( अर्थात् जिसके होनेपर अनेक वास कास आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं ) ऐसे प्रबल विषमशोष [ क्षय ] रोग के स्वरूप को उनके स्वभाव से उत्पन्न उन दोषों के भेदोपभेद, पूर्वरूप, लक्षण व अरिष्टों के साथ २ कथन करेंगे ॥ २ ॥ + गंभीरामलमूलसंघतिलके श्रीकुंदकुंदान्वये । गच्छे श्रीपन सोर्गवल्यनुगते देशीगणे पुस्तके ॥ विख्यातागमचक्षुषोल्ललितकीर्त्याचार्यवर्यस्य ते । कुर्वेहं परिचर्यकं चरणयोस्सिहांसन श्रीजुषो ॥ इति क पुस्तके अधिकः पाठोपलभ्यते । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४४ ) कल्याणकारके शोषराज की सार्थकता. विविधविषमरोगाशेषसामंतबद्धः । प्रकटितनिजरूपी दूतकेतुप्रतानः ॥ दुरधिगमविकारों दुर्निवार्योऽतिवीर्यो । जगदभिभवतीदं शोषराजो जिगीषुः ॥ ३ ॥ भावार्थ:- जो नाना प्रकार के विषम रोगसमूहरूपी सामंत राजाओं से युक्त है, प्रकट किये गये अपने लक्षणरूपी स्वरूप ( पराक्रम ) से अन्यरोग लक्षणरूपी राजाओंके ध्वजा को जिसने नष्ट कर दिया है, [ शरीरराज्य में अपना प्रभुत्व जमा लिया है ] जिस के वीर्य ( शक्ति व पराक्रम ) के सामने चिकित्सा रूपी शत्रुराजा का ठहरना अत्यंत दुष्कर है, ऐसा दुरधिगम [ जानने के लिये कठिन ] शोषराज सब को जीतने की इच्छा से जगत् को परास्त करता है ॥ ३ ॥ क्षयके नामांतरोकी सार्थकता. क्षयकरणविशेषात्संक्षयस्स्याद्रसादे - । रनुदिनपतितापशोषणादेष शोषः ॥ नृपतिजनविनाशाद्राजयक्ष्मेति साक्षा- । दधिगतबहुनामा शोषभूपो विभाति ॥ ४ ॥ कारण से " क्षय, भावार्थ:-- रस रक्त आदि धातुओंको क्षय करने के उन्हीं धातुओंको, अपने संताप [ ज्वर ] के द्वारा प्रतिदिन शोषण [ सुखाना ] करते रहनेसे " शोष, " राजी महाराजाओं को भी नाश कर देने के कारण "राजयक्ष्मा " [ राजरोग ] इत्यादि अनेक सार्थक नामों को धारण करते हुए यह क्षयराज संसार में शोभायमान होता है । अर्थात्, क्षय, शोष, राजयक्ष्मा इत्यादि तपेदिक रोग के अनेक सार्थक नाम हैं !! ४ ॥ शोषरोगकी भेदाभेदविवक्षा. अधिकतरविशेषाद्द्वौणमुख्यप्रभेदात् । पृथगथ कथितोऽसौ शोषरोगः स्वदोषैः ॥ सकलगुणनिधानादेकरूपक्रियाया - । स्स भवति सविशेषस्संनिपातात्मकोऽयम् ॥ ५॥ १ राजा जैसा समर्थ पुरुष भी इस रोग से पीडित हो जावें तो रोगमुक्त नहीं होते हैं । 33 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रह भूततंत्राधिकारः। (१४५) भावार्थ:-इस रोग में दोषों का उद्रेक अल्पप्रमाण व अधिकप्रमाण में होने के कारण से गौण व मुख्य का व्यवहार होता है। इस गौणमुख्य अपेक्षाभेद के कारण यह शोषरोग पृथक् २ दोषज [ वातज, पित्तज कफज ] भी कहा गया है। लेकिन सभी दोषोंके लक्षण एक साथ पाया जाता है और इस की चिकित्साक्रम में भी कोई भेद नहीं है ( एक ही प्रकार का चिकित्साक्रम है ) इसलिये यह राजयक्ष्मा सन्निपातात्मक होता है ॥ ५ ॥ राजयक्ष्माकारण. मलजलगतिरोधान्मैथुनाद्वा विघाता-1 दशनविरसभावाच्लेष्मरोधात्सिरासु ॥ कुपितसकलदोषैर्याप्तदेहस्य जंतो- । र्भवति विषमशोषव्याधिरेषोऽतिकष्टः ॥ ६॥ भावार्थ:-मलमूत्र के रोकनेसे, अतिमैथुन करनेसे, कोई घात [ चोट आदि लगना ] होनेसे, मधुरादि पौष्टिकरसरहित भोजन करते करनेसे, रसवाहिनी सिरावो में श्लेष्मका अवरोध होनेसे, प्राणियोंके शरीर में सर्व दोषोंका उद्रेक होनेपर यह विषम ( भयंकर ) शोषरोग उत्पन्न हो जाता है। यह अत्यंत कठिन रोग है ॥ ६॥ पूर्वरूप अस्तित्व. अनल इव सधूमो लिंगलिंगीप्रभेदात् । कथितबहुविकाराः पूर्वरूपैरुपेताः ॥ हुतभुगिह स पश्चाध्यक्तसल्लक्षणात्मा। निजगुणगणयुक्ता व्याधयोप्यत्र तद्वत् ॥ ७ ॥ भावार्थ-- प्रत्येक पदार्थीको जाननेके लिये लिंगलिंगी भेदको जानना आवश्यक है। जिस प्रकार धूम लिंग है। अग्नि लिंगी है। धूमको देखकर अग्निके अस्तित्व का ज्ञान होता है । इसी प्रकार उन शोष आदि अनेक रोगोंके लिये भी लिंगरूप अनेक पूर्वरूप विकार होते हैं। तदनंतर जिस प्रकार अग्नि अपने लक्षणके साथ व्यक्त होता है । उसी प्रकार व्याधियां भी पश्चात् अपने लक्षणोंके साथ २ व्यक्त होजाते हैं ॥ ७॥ क्षयका पूर्वरूप. बहुबहलकफातिश्वासविश्वांगसादः । वमनगलविशोषात्यग्निमांद्योन्मदाश्च । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४६ ) कल्याणकारके धवलनयनता निद्राति तत्पीनसत्वं । भवति हि खलु शोषे पूर्वरूपाणि तानि ॥ ८ ॥ भावार्थ - गाढ़ा कफ बहुत गिरना, श्वास होना, सर्वांग शिथिलता होजाना, चमन होना, गला सूखना, अग्निमांद्य होना, मद आना, आंखे सफेद हो जाना, अधिक नींद आना, पीनस होना थे राजयक्ष्माका पूर्वरूप हैं अर्थात् जिनको राजयक्ष्मा होनेवाला होता है उनको रोग होनेके पहिले २ उपर्युक्त लक्षण प्रकट होते हैं ॥ ८ ॥ शुकशिखिशकुनैस्तै कौशिकैः काकागृनैः । कपिगणकृकलासैनीयते स्वप्नकाले || खरपरुषविशुष्कां वा नदीं यः प्रपश्येत् । दवदहनविपन्नान् रूक्षवृक्षान् सघुमान् ॥ ९ ॥ भावार्थ:- जिस को राजयक्ष्मा होनोवाला होता है उसे स्वप्न में, तोते, मयूर [ मोर ] शकुन [ पक्षिविशेष ] नकुल, कौवा, गीध बंदर, गिरगट ये उस को ( पीठपर बिठालकर ) ले जाते हुए अर्थात् उन के पीठ पर अपन सवारी करते हुए दीखाता है । खरदरा कठिन (पत्थर आदि से युक्त) जलरहित नदी और दावाग्निसे जलते हुए धूम से व्याप्त रूक्षवृक्ष भी दीखते हैं । उपरोक्त स्वप्नों को देखना यह भी राज यक्ष्मा का पूर्वरूप हैं ॥ ९ ॥ वात आदिके भेदसे राजयक्ष्माका लक्षण. पवनकृतविकारान्नष्टभिन्नस्वरोन्त- । र्गतनिजकृशपार्श्वो वंससंकोचनं च । ज्वरयुतपरिदाहासृग्विकारोऽतिसाराः । क्षयगतनिजरूपाण्यत्र पित्तोद्भवानि ॥ १० ॥ अरुचिरपि च कासं कंठजातं क्षतं तत् । कफकृत बहुरूपाण्युत्तमांगे गुरुत्वम् ॥ इतिदशभिरथैकेनाधिकैर्वा क्षयार्त । परिहरतु यशोऽर्थी पंचपतिः स्वरूपैः ॥ ११ ॥ भावार्थ:-- राजयक्ष्मारोग में बात के उद्रेक से १. स्वर नष्ट या भिन्न हो जाता २. दोनों कुश प्रार्श्व ( फंसली ) अन्दर चले जाते हैं, ३. अंस ( कंधा ) का संकोच Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूत तंत्राधिकारः । ( ४४७ ) I [सिकुडन] होता है । पित्त के प्रकोप से ४. ज्वर, ५. दाह, ६. खून का आना और ७ अतिसार [ दस्त का लगना ] होता है । कफ के प्रकोप से ८. अरुचि ९. का १० गले में जखम और ११. शिर में भारीपना होता है । इन उपरोक्त ग्यारह लक्षसे अथवा किसी पांच या छह लक्षणों से पीडित क्षयरोगी को यश को चाहने वाला er छोड देवें अर्थात् ऐसा होने पर रोग असाध्य हो जाता है ॥ १० ॥ ११ ॥ राजयक्ष्मा असाध्यलक्षण. बहुतरमशनं यः क्षीयमाणोऽतिर्भुक्ते । चरणजठरगुह्योद्भूतशोफोऽतिसारी । यमरवरनारी कौतुकासक्तचित्तो । व्रजति स निरपेक्षः क्षिप्रमेव क्षयार्तः ॥ १२ ॥ भावार्थं जो रोगी अत्यंत क्षीण होते जानेपर भी बहुतसा भोजन करता है ( अथवा बहुत ज्यादा खानेपर भी, क्षीण ही होता जाता है) और पाद, जठर (पेट) व गुप्तेद्रियमें शोफ जिसे हुआ है, अतिसारते पीडित हैं, समझना चाहिये वह यमके द्वारा अपहरण की हुई सुंदर स्त्रियोंमे आसक्त चित्तवाला और इस लोकसे निरपेक्ष होकर वहां जल्दी पहुंच जाता हैं ॥ १२ ॥ राजयक्ष्माकी चिकित्सा. अभिहित सविशेषैर्बृहणद्रव्यसिद्धै- । रसमुदितघृतवगैः स्निग्धदेहं क्षयति । मृदुतरगुणयुक्तैः छर्दनैः सद्विरेकै- । रपि मृदुशिरसस्संशोधनैश्शोधयेत्तम् ॥ १३ ॥ भावार्थ- पूर्व में कथित बृंहण (बलदायक ) द्रव्योंसे सिद्ध घृतसे क्षयरोगीके शरीर को स्निग्ध करना चाहिये । पश्चात् मृदुगुणयुक्त औषधियोंसे मृदुछर्दन, रोगका शिर भारी हो तो मृदुशिरोविरेचन करना चाहिये व मृदुविरेचन भी करना चाहिये ॥ १३ ॥ राजयक्ष्मीको भोजन मधुरगुणविशेषाशेषशालीन्यवान्वा । बहुविधकृत भक्षालक्ष्यगोधूमसिद्धान् । घृतगुडबहुदुग्वै भोजयेन्मुद्रयूपैः । फलगणयुतमृरिष्टश कैस्सुपुष्टः ॥ १४ ॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) कल्याणकारके - भावार्थः-मधुर गुणयुक्त सर्वप्रकार के चावल, जौ, एवं मधुर गेहुं आदि धान्य व ऐसे अन्य पदाथों से बने हुए अनेक प्रकार के भक्ष्य, घी, गुड, दूध, मूंगकी दाल शक्तिकारक फलगण, इष्ट व पुष्टिकारक शाकोंके साथ २ क्षय रोगी को भोजन कराना चाहिये ॥१४॥ क्षय नाशकयोग. विकटुकघनचव्यसद्विडंगपचूर्ण । घृतगुडलुीलंत वा प्रातरुत्थाय लीद्वा ॥ अथ घृतगुडयुक्तद्राक्षया पिप्पलीनां । सततमदुपयोशन् सक्षयस्य क्षयः स्यात् ॥ १५ ॥ भावार्थ:--त्रिकटु, मोथा, चाव, वायविडंग इन के चूर्णको घी व गुड में अच्छीतरह मिलाकर प्रातःकाल उठकर चाटें अथवा द्राक्षा व पीपल को घी व गुड के साथ मिलाकर बाद में दूध पीयें तो उससे क्षयरोग का क्षय होता है ॥ १५ ॥ तिलादि योग. तिलपललसमांशं माषचूर्ण तयोस्त-। सहशतुरगगंधाधुलिमाज्येन पीत्वा ॥ गुडयुतपयसा सद्बाजिगंधासुकल्कैः । प्रतिदिनमनुलिप्तः स्थूलतामेति मर्त्यः ॥ १६ ॥ भावार्थ:-तिल का चूर्ण, उडद के चूर्ण उन दोनों को बराबर लेवें । इन. दोनों चों के बराबर असगंध के चर्ण मिलाकर घी और गुडमिश्रित दूध के साथ पीना चाहिये । एवं असगंध के कल्क को प्रतिदिन शरीर में लेपन करना चाहिये । उससे क्षयरोगपीडित मनुष्य स्थूल हो जाता है ॥ १६॥ क्षयनाशक योगांतर वृषकुसुमसमूलैः पकसर्पिः पिवेद्वा । यवतिलगुडमाषैः शालिपिष्टैरपूपान् ॥ दहनतुरगगंधामापवजीलतागो- । क्षुरयुतशतमूलैर्भक्षयेत्पकमक्षान् ॥ १७ ॥ १ जैसे तिलचूर्ण १ ० तोला, उडदका चूर्ण १० तोला, असगंधका चूर्ण, २० तोला. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूतंत्राधिकारः (४४९) भावार्थ:-अडूसा के फूल व जड से पकाये हुए घत को क्षयरोगी पावें । इसे ' वृषधृत ' या ' वासात ' कहते हैं। तथा जौ, तिल, गुड, उडद, शाली इन के आटे का बनया हुआ पुआ भी खावें । एवं भिलावा, अश्वगंध, माष, गोखुर, सेहुण्ड शतावर इन से पक्व भक्ष्यों को भी खावें ॥ १७ ॥ क्षयनाशक घृत. शकृत इह रसैर्वाजाश्वगोदकाना-। ममृतखदिरमूर्वी तेज़िनीक्याथभागैः ।। घतयुतपयसा भागैर्नवैतान्सरास्ना-। त्रिकुटुकमधुकैस्तैस्सार्धपकं लिहेद्वा ॥ १८ ॥ भावार्थ:--बकरी, घोडा, गाय इनका मलरस एक २ भाग, गिलोय, खेर की छाल, मूर्वा,चव्य इन पृथक् २ औषधियों का कषाय एक २ भाग, एक भाग दूध, एक भाग घी, इन नौ भाग द्रव्यों को एकत्रा डालकर पकायें। इस में रास्ना, सोंठ, मिरच, पीपल, मुलैठी इनके कल्क भी डालें। विधिप्रकार सिद्ध किये हुए इस घृतको चाटें तो राजयक्ष्मा रोग शांत होता है ॥ १८ ॥ क्षयरोगांतक घृत. खदिरकुटजपाठापाटलीबिल्वभल्ला- । सकनृपबृहतीसरण्डकारंजयुग्मैः ।। यवबदरकुलत्थोग्राग्निमंदाग्निकःस्वैः ।। क्वथितजलविभागैः षडिरेको घृतस्य ॥ १९ ॥ स्नुहिपयसि हरीतक्यासुराकै सचव्यैः । प्रशमयति विपक्वं शोषरोगं घृतं तत् ॥ जठरमखिलमेहान्वातरोगानशेषा-1 नतिबहुविषमोग्रोपद्रवग्रंथिंबंधान् ।। २० ॥ भावार्थः-खैरकी छाल, कूडाकी छाल, पाठा, पाढल, बेल, भिलावा, अमलतास, बडी कटेली, एरण्ड, करंज, पूतिकरंज, जौ, बेर, कुलथी, बच, चित्रक, इनका मंदाग्नि से पकाया हुआ काढा छह भाग, एक भाग घी और थोहरका दूध, हरड सामुदनमक [ अथवा देवदारु ] चाव, इन के कल्क से सिद्ध किया गया घृत, राजायक्ष्मा उदर, सर्व प्रकार के प्रमेह, सर्वविध वातरोग और अतिउपद्रव युक्त विषमग्रंथि रोग को भी दूर करता है ॥ २० ॥ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५० ) कल्याणकारके महाक्षयरोगांतक. त्रिकटुक त्रुटि निंबारग्वधग्रंथिभल्ला- । तकदहनसुराष्ट्रोदूतपथ्याजमोद - ॥ रसनखदिरधात्रीशालगायत्रिकाख्यैः क्वथितजलविभागैः पक्वमाज्यांच्चतुर्भिः ॥ २१ ॥ । अथ कथितघृते त्रिंशत्सितायाः पलानि । प्रकटगुणतुगाक्षीर्याश्च पद्मस्थमाज्यं ॥ विषतरुविडंग क्वाथ सप्रस्थयुग्मं । खजमथितमशेषं तं तु दत्वोक्तकुंभे ॥ २२ ॥ भुवि बहुतरधान्ये चानुविन्यस्तमेत- । गतवति सति मासार्धे तदुद्धृत्य यत्नात् ॥ प्रतिदिनमिह लीडा नित्यमेकैकमंशं ॥ पलमितमनुपानं क्षरिमस्य प्रकुर्यात् ॥ २३ ॥ घृतमिदमतिमेध्यं वृष्यमायुष्यहतुः । प्रशमयति च यक्ष्माणं तथा पाण्डुरोगान् || भवति न परिहारोस्त्येतदेवोपयुज्य । प्रतिदिनमथ मर्त्यः तीर्थकृद्वा वयस्थः ॥ २४ ॥ भावार्थः—सोंठ, मिरच, पीपल, छोटी इलायची, नींब, अमलतास, नागरमोथा, भिलावा, चित्रक, फिटकरी, हरउ, अजवायन, विजयसार, खैर, आंवला, शाल, [सालवृक्ष ] विखदिर [ दुर्गंध खैर ] इन के विधि प्रकार बने हुए चार भाग काढे को एक भाग घी में डाल कर [ विधि प्रकार ] पकायें । इस प्रकार सिद्ध एक प्रस्थ ( ६४ तोले ) घृत में तीस पल [ १२० तोले ] मिश्री, छह पल [ २४ तोले ] वंशलोचन, और दो प्रस्थ [ १२८ तोले ] वायविडंग के काढा मिलावें और अच्छी तरह मथनी से मथें । पश्चात् इस को पहिले कहे डाल कर, मुंह बंद कर के धान्य की राशि के बीच में रखें । के बाद उसे वहां से यत्नपूर्वक निकाल कर इसे प्रतिदिन एक २ पलप्रमाण ( ४ तोले ) चाट कर ऊपर से गाय का दूध पीना चाहिये । यह घृत अत्यंत मेध्य [ बुद्धि को बढानेवाला ] वृष्य, आयु को बढानेवाला (रसायन) है । राजयक्ष्मा व पांडुरोग को शमन हुए, मिड्डी के घडे में पंद्रह दिन बीत जाने के १ चार प्रस्थ, २ एक प्रस्थ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूततंत्राधिकारः। (४५१) करता है। इस को यदि मनुष्य प्रतिदिन सेवन करें तो, देवाधिदेव तीर्थंकर भगवान् के समान [ हमेशा ] वय [ जवानपने ] को धारण करता है, अर्थात् जब तक वह जीता है तब तक जवानों के सदृश शक्तिशाली होकर जीता है। इस के सेवन करने के समय किसी प्रकार भी परहेज करने की जरूरत नहीं हैं ॥ २१-२२-२३-२४ ॥ भल्लातकादिघृत. घृतगुडसमभागैस्तुल्यमारुष्करीयं । मृदुपचनविपकं स्नेहमाशूपयुज्य ॥ वलिपलितविहीनो यक्ष्मराजं विजित्यो र्जितसुखसीहतस्स्याद्रोणमात्रं मनुष्यः ॥२५॥ भावार्थ:-समान भाग घी व गुड के साथ भिलावे के तैल को मंदाग्नि द्वारा अच्छी तरह पका कर, एक द्रोणप्रमाण [६४ तोले का १६ सेर ] सेवन करें तो राजयक्ष्मा रोग दूर हो जाता है और वह मनुष्य वलि व पलित [बाल सफेद हो जाना ] से रहित हो कर उत्कृष्ट सुखी होता है ॥ २५ ॥ शबरादिघृत. शबरतुरगंगंधा वज्रवल्ली विदारीक्षुरकपिफलकूष्माण्डैर्विपक्वाज्यतैलं । अनदिनमनुलिप्यात्मांगसंपर्दनायैः। क्षयगदमपनीय स्थूलकायो नरः स्यात् ।। २६ ॥ भावार्थ:-सफेद लोध, असगंध, अस्थिसंहारी [ हाड संकरी ] विदारीकंद, गोखुर, कौंच के बीज, जायफल, कूप्मांड [ सफेद कद्दू ] इन से पकाये हुए घी तैल को प्रतिदिन लगाकर मालिश वगैरह करें तो क्षयरोग दूर हो कर मनुष्य का शरीर पुष्ट बन जाता है ॥२६॥ क्षयरोगनाशक दधि. अथ श्रृतपयसीक्षोः सद्विकारानुमिश्रे । मुविमलतरवर्षावंघिचूर्णप्रयुक्ते ॥ समरिचवरहिंगुस्तीकतकान्वितेऽन्ये- । शुरिह सुरभिदध्ना तेन भुंजीत शोपी ॥ २७ ॥ भावार्थ:-पकाये हुए दूध में शकर, पुनर्नवाके जड़ के चूर्ण, काली मिरच, हींग Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५२) कल्याणकारके और थोडा छाछ मिलाकर रखें। दूसरे दिन इस को सुगंध दही के साथ मिलाकर क्षय रोगी भोजन करें ॥२७॥ क्षयरोगीको अन्नपान. तदति लघुविपाकी द्रव्यमनिप्रदं य-। द्रुचिकरमतिवृष्यं पुष्टिकृन्मृष्टमेतत् ॥ सततमिह नियोज्गं शोषिणामनपानं । बहुविधरसभेदैरिष्टशाकविशिष्टैः ॥ २८ ॥ भावार्थ:-जल्दी पकनेवाले, अग्नि को दीप्त करनेवाले, रुचिकारक, अत्यंत वृष्य, पुष्टिकारक, शक्तिवर्द्धक ऐसे द्रव्यों से तैयार किये हुए अन्नपानोंको, नानाप्रकार के रस व प्रिय अच्छे शाकों के साथ राजयक्ष्मा से पीडित मनुष्य को देना चाहिये ॥२८॥ __ अथ ममूरिकारोगाधिकारः। _मसूरिका निदान. अथ ग्रहक्षोभवशाद्विषांघ्रिप-प्रभूतपुष्पोत्कटगंधवासनात् । विषप्रयोगाद्विषमाशनाशना-दृतुमकोपादतिधर्मकर्मणः ॥ २९॥ प्रसिद्धमंत्राहुतिहोमतो वधान्महोपसर्गान्मुनिवृंदरोषतः। भवंति रक्तासितपीतपाण्डुरा बहुप्रकाराकृतयो मसूरिकाः ॥ ३०॥ भावार्थ:-कोई क्रूरग्रहों के कोप से, विषवृक्षों के विषैले फूलों के सूंघने से, विषप्रयोग से, विषम भोजन करने से, ऋतु कोप से (ऋतुओंके स्वभाव बदलजाना) धार्मिक कार्यों को उल्लंघन करने से, हिंसामय यज्ञ करने से, हिंसा करने से, मुनि आदि सत्पुरुषों को महान् उपसर्ग करने से, मुनियों के रोष से शरीर में बहुत प्रकार के आकारवाले मसूर के समान लाल, काले, सफेद व पीले दाने शरीर में निकलते हैं, उसे मसरिका रोग (देवि, माता चेचक ) कहते हैं ॥ २९ ॥ ३० ॥ मसूरिकाकी आकृति. स्वदोषभेदासिकता ससपा मसूरसंस्थानयुता ममूरिकाः। समस्तधान्याखिलवैदलोपमाः सकालपीताः फलसभिभास्तथा ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-वे मसारिकायें अपने २ दापोंके भेदसे बालू [ रेत ] सरसों, मसर के १ धर्म इति पाठांतरं. २ काले पीले फल के समान, Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूततंत्राधिकारः। (४५३) आकार में [दाल] होती हैं तथा सर्वधान्य व समस्त द्विदल के आकार में होकर फलके समान योग्य काल में पीले वर्णको धारण करती हैं ॥ ३१ ॥ विस्फोट लक्षण. विशेषविस्फोटगणास्तथापरे भवंति नानाद्रमसत्फलोपमाः। भयंकराः प्रणाभृतां स्वकर्मतो बहिर्मुखांतर्मुखभेदभेदिकाः॥ ३२ ॥ भावार्थ:-प्राणियोंके पूर्वोपार्जित कर्म के कारण से, मसूरिका रोग में फफोले भी होते हैं, जो अनेक वृक्षोंके फलके आकार में रहते हैं। वे भयंकर होते हैं । उन में बहिर्मुख स्फोटक [इसकी मुंह बाहर की ओर होती है व अंतर्मुख स्फोटक शिरीर के अंदर की ओर मुखवाली] इस प्रकार दो भेद है ॥ ३२ ॥ अरुषिका. सितातिरक्तारुणकृष्णमण्डलान्यणून्यरूप्यत्र विभांत्यनंतरम् । निमग्नमध्यान्यसिताननानि तान्यसाध्यरूपाणि विवर्जयद्भिषक् ॥३३॥ भावार्थ:-सफेद, अत्यधिकलाल, अरुण [साधारण लाल] व काले वर्ण के चकत्तों से संयुक्त, छोटी पिटकायें पश्चात् दिग्वने लगती हैं। यदि पिटकाओंके मध्यभाग में गहराई हो और उनका मुख काला हो तो उन्हे असाध्य समझना चाहये । इसलिये ऐसे पिटकाओंको वैद्य छोड देवें ॥ ३३ ॥ ___ मसूरिकाके पूर्वरूप. ममूरिकासंभवपूर्वलक्षणान्यतिज्वरारोचकरोमहर्षता । विदाहतृष्णातिशिरांगहृदुजः ससंधिविश्लेषणगाढनिद्रता ॥ ३४॥ प्रलापमूभ्रिमवक्त्रशोषणं स्वचित्तसम्मोहनशूलज़म्भणम् । सशोफकण्डूगुरुगात्रता भृशं विषातुरस्येव भवंति संततम् ॥ ३५ ॥ भावार्थ:-अत्यधिक चर, अरोचकता, रोमांच, अत्यंतदाह, तृषा, शिरशूल, अंगशूल व हृदयपीडा, संधियोंका टूटना, गाढ निद्रा, बडबडाना, मूर्छा, भ्रम, मुग्वका सूखना, चित्तविभ्रम, शूल, जंभाई, सूजन, खुजली, शरीर भारी हो जाना, और विष के विकार से पीडित जैसे होजाना यह सब मसूरिकासंग के पूर्वरूप हैं। अर्थात् मसूरिका रोग होने के पहिले ये लक्षण प्रकट होते हैं ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके मसूरिका असाध्यलक्षण. यदा तु शूलातिविमोहशोणितमवृत्तिदाहादिक शोफविभ्रमैः । अतिमलापातितृपतिमूच्छितैः समन्वितान्याशु विनाशयत्यमून् ॥ ३६ ॥ भावार्थ:- जब मसूरिका रोग में अत्यधिक शूल, बेहोशी, मुख नाक आदि से रक्तस्राव, दाह, सूजन और भ्रम, प्रलाप ( बडबडाना ) तृषा, गाढमूर्च्छा आदि उपद्रव प्रकट हों तो समझना चाहिये कि वह प्राण को जल्दी हर ले जाता है ॥ ३६ ॥ जिव्हादि स्थानों में मसूरिका की उत्पत्ति. ( ४५४ ) ततः स्वजिह्वाश्रवणाक्षिनासिकाभ्रुवौष्ठकंठांघिकरेषु मूर्धनि । समस्त देहेऽपि गदा भवति ताः प्रकीर्णरूपाः बहुलाः मसूरिकाः ॥ ३७ ॥ भावार्थ :- मसूरिका का अधिक विकोप होनेपर वह फैलकर जीभ, कान, नाक, आंख, भ्रू, ओंठ, कंठ, पाद, हाथ, शिर इस प्रकार समस्त देह में फैल जाते हैं ||३७|| मसूरिकामें पित्तकी प्रबलता और वातिक लक्षण. भवेयुरेताः प्रबळातिपित्ततस्तथान्यदोषोल्वणलक्षणेक्षिताः । कपोतवर्णा विषमास्स वेदना मरुत्कृताः कृष्णमुखा मसूरिकाः || ३८ || भावार्थ::- यह मूसूरिका रोग मुख्यतः पित्तके प्राबल्य से उत्पन्न होता है । फिर भी इस में प्रकुपित अन्य दोषों ( बात कफों ) के संसर्ग होने से उन के लक्षण भी पाये जाते हैं [ अतएव वातज मसूरिका आदि कहलाते हैं ] जिनका वर्ण कबूतर के समान रहता है और मुखकाला रहता है, और जो विषम आकार ( छोटे बडे गोल चपटा आदि ) पीडा से युक्त होते हैं उन्हे वातविकार से उत्पन्न ( वातज मसूरिका ) समझना चाहिये ॥ ३८ ॥ पित्तजमसूरिका लक्षण. सपीतरक्तासितवर्णनिर्णया ज्वरातितृष्णापरितापतापिताः । मृशीघ्रपाकावहुपित्तसंभवा भवंति मृयो बहुला मसूरिकाः ।। ३९ ।। भावार्थ:- जो मसूरिका पीले लाल या काले वर्णकी होती हैं, अत्यंत ज्वर, तृष्णा व दाहसे युक्त हैं, एवं जल्दी पक जाती हैं और मृदु होती हैं उनको पित्तज मसूरिका समझें || ३९ ॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालंग्रह भूततत्राधिकारः। (४५५) कफजरक्तजसन्निपातजमसूरिकालक्षण. कफायनस्थूलतरातिशीतलाश्चिरमपाकाः शिशिरज्वन्विताः । प्रवालरक्ता बहुरक्तसंभवाः समस्तदोषैरखिलोग्रवेदनाः ॥ ४० ॥ भावार्थ:-कफविकार से होनेवाली मसूरिका घट्ट ( कडा), स्थूल, अतिशीतल , शीतपूर्वक ज्वर से युक्त व देरसे पकनेवाली होती है। रक्तविकार से उत्पन्न मसूरिका मूंगे के वर्ण के समान लाल होती है । सन्निपातज हो तो उस में तीनों दोपोंसे उत्पन्न उग्र लक्षण एक साथ पाये जाते हैं ॥ ४० ॥ मसरिका के असाध्य लक्षण शराववानिम्नमुखाः सकर्णिका विदग्धवन्मण्डलमण्डिताश्च याः। घनातिरक्तासितवक्त्रविस्तृताः ज्वरातिसारोद्गतशूलसंकलाः॥४१॥ विदाहकंपातिरुजातिसारकात्यरोचकाध्मानतृषातिहिकया। भवंत्यसाध्याः कथितैरुपद्रवरुपद्रुताःश्वाससकासनिष्ठुरैः॥ ४२ ॥ भावार्थ:--जो मसूरिका सरावके समान नीचे की ओर मुखबाली है, (किनारे तो ऊंचे बीच में गहरा) कर्णिका सहित है, जलजानेसे उत्पन्न चकत्तों के सदृश चकत्तोसे युक्त है, घट्ट (कडा) है, अत्यंत लाल व काली है, विस्तृत मुखवाली है, वर अतिसार, शूल जिस में होते है, एवं दाह, कंप, अतिपीडा, अतिसार, अति अरोचकता, अफराना, अतितृषा, हिचकी, और प्रबलश्वास, कास आदि कथित उपद्रवों से संयुक्त होती है उस मसूरिका को असाध्य समझें ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ मसूरिका चिकित्सा. विचार्य पूर्वोद्गतलक्षणेष्वलं विलंघनानंतरमेव वाममेत् । सनिंबयष्ठीमधुकाम्बुभिर्वरं त्रिवृत्ताद्यसितया विरेचयेत् ॥ ४३ ॥ भावार्थ:-मसूरिका के पूर्वरूप के प्रकट होने पर रोगी को अच्छी तरह लंघन कराकर नींब व ज्येष्ठमधु के कपाय से वमन कराना चाहिये। एवं निशोत व शक्कर से विरेचन भी कराना चाहिये ॥ ४३ ॥ पथ्यभोजन, समुद्यूरैरपि षष्ठिकोदनं सतिक्तशाकैर्मधुरैश्च भोजयेत् । मुशीतलद्रव्यविपक्वशीतला पिवेद्यवागूमथवा घृतप्लुताम् ॥ ४४ ।। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५६) कल्याणकारके भावार्थ:-- उस रोगीको मीठे शाक व अन्य मीठे पदार्थ और मुद्गयूष [ मूंग की दाल ] के साथ साठी चावल के भात को खिलाना चाहिये अथवा शीतल द्रव्योंसे पकाई हुई घृत से युक्त शीतल यवागू खिलानी चाहिये || ४४ ।। तृष्णाचिकित्सा व शयनविधान. मुशीतलं वा श्रुतशीतलं जलं पिबेत्तृषार्तो मनुजस्तदुद्गमे । तथीदकोद्यत्कदलीदलाश्रित शयीत नित्यं शयने मसरिकी ।। २५ ॥ भावार्थ:-मसूरिका रोगसे पीडित रोगी को प्यास लगे तो वह बिलकुल ठंडे या पकाकर ठंड किये हुए जल को पावें । एवं मसूरिका निकलने पर पानी से भिगोये गये केलों के पत्ते जिसपर बिछाये हों ऐसे शयन [ बिछौना ] में वह हमेशा सोवें ॥ ४५ ॥ दाहनाशकोपचार. तदुद्भवोन्दूतविदाहतापित शिराश्च व्यध्वा रुधिरं प्रमाक्षयेत् । प्रलेपयेदुत्पलपअकेसरैः सचंदनैनिवपयोंघ्रिपांकुरैः ।। ४६ ॥ भावार्थ:-मसरिका होने के कारण से उत्पन्न भयंकर दाह से यदि शरीर तप्तायमान हो रहा है तो शिरामोक्षण कर रक्त निकालना चाहिये और नीलकमल, कमल, नागकेसर व चन्दन से, अथवा नींब, क्षीरीवृक्षों के कोंपल से लेप करना चाहिये ॥ ४६॥ शर्करादि लेप. सशर्कराकिशुकशाल्मालद्रुमप्रवालमूलैः पयसानुपेषितः । प्रलेपयेष्मनिवारणाय तद्रुजाप्रशांत्यै मधुरैस्तथापरैः ॥ ४७ ॥ भावार्थ-इसी प्रकार ढाक सेमल इन वृक्षों के कोंपल व जडको दूध में पसिकर उस में शक्कर मिलाकर, गर्मी व पीडाके शमन करने के लिये लेप करें। इसी प्रकार अत्यंत मधुर औषधियों को भी लेप करना चाहिये ॥ ७ ॥ - शैवलादि लेप व मसूरिकाचिकित्सा. सशैवलोशारकशेरुकाशसत्कुशांघिभिस्सेक्षुरसैश्च लेपयेत् । ममूरिकास्तैर्विषनाश्व या यथाविषघ्नभैषज्यगर्विशेषकृत् ॥ ४८ ॥ १ विद्वान् इति पाठांतर Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूतंत्राधिकारः (४५७) भावार्थ:-शिवार, खस, कसेरु, कास, दर्भा इनके जडको ईखके रस के साथ पीस कर लगावें। और यदि विषज मसूरिका हो तो विषहर औषधियोंका लेपन करना चाहिये ॥ ४८ ॥ मसूरिका नाशक क्वाथ. सनिंबसारामृतचंदनांबुदैविपकतोयं प्रपिवेत्सशर्करम् । ममूरिकी द्राक्षहरीतकामृतापटोलपाठाकटुरोहिणीघनैः ।। ४९॥ अरुष्करांम्रांबुसधान्यरोहिणी घनैः श्रुतं शीतकषायमेव वा । पिवेत्सदा स्फोटममूरिकापहं सशर्करं सेक्षुरस विशेषवित् ॥ १० ॥ भावार्थ:-नीबकी गरी, गिलोय, लाल चंदन, नागरमोथा इन से पकाये हुए काढे में शक्कर मिलाकर मसूरिका से पीडित व्यक्ति पीयें। एवं द्राक्षा, हरड, गिलोय, पटोलपत्र, पाठा, कुटकी, नागरमोथा इनके क्वाथ अथवा भिलावा, आम, खश, धनिया, कुटकी, नागरमोथा इन के काथ वा शीत कषाय को पीवें । ईख के रस में शक्कर मिलाकर पीनेसे स्फोटयुक्त मसूरिका रोग दूर हो जाता है ॥ ४९ ॥ ५० ॥ .. पठ्यमान मसूरिकामें लेप. विपच्यमानामु ममूरिकासु ताः प्रलेपयेद्वातकफोत्थिता भिषक् । समस्तगंधौषधसाधितन सत्तिलोद्भवेनाज्यगणैस्तथापरः ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-वात व कफ के विकारसे उत्पन्न जो मसूरिका है यदि वह पक रही हो तो सर्थ गंधौषधों से सिद्ध तिलका तैल लेपन करना चाहिये यदि पित्तज मसूरिका पक रही हो तो, सर्वगंधौषधसे सिद्ध घृतवर्ग का लेपन करना चाहिये ॥ ५१ ॥ पच्यमान व पक्कमसूरिकामें लेप. विपाककाले लघु चाम्लभोजनं नियुज्य सम्यक्परिपाकमागतां । विभिध तीक्ष्णैरिह कंटकैश्शुभैः सुचक्रतैलेन निषेचयद्भिषक् ।। ५२ ॥ भावार्थ:-मसूरिका के पकनेके समय में रोगी को हलका व खट्टा भोजन कराना चाहिये । जब वह पक जाय उस के बाद तीक्ष्ण व योग्य कांटे से उसे फोडकर उस पर चकतैल (चक्की से निकाला हुआ) नया (ताजे) डालना चाहिये ॥ ५२ ॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५८) कल्याणकारके : वणावस्थापन्न मसूरिका चिकित्सा. विपाकपाकवणपीडितास्वपि प्रसाश्येत्ताः क्षतवद्विसर्पवत् । अजस्रमास्रावयुताः प्रपीडयेन्मुहुर्मुहुर्माषयवपलेपनैः ॥ ५३ ॥ भावार्थः-मसूरिका पक जाने पर यदि व्रण हो. जावें तो क्षत ( जखम ) व विसर्प रोग की चिकित्सा करें। यदि वह सदा स्रावसहित हो तो बार.२.. उडद. जौ का लेपन से पीडन करना चाहिये ।। ५३ ।। शोषणक्रिया व क्रिमिजन्यमसूरिकाचिकित्सा. मुभस्मचूर्णेन विगालितेन वा विकीर्य सम्यक्परिशोषयेद्बुधः। कदाचिदुद्यत्क्रिमिभक्षिताश्च ताः क्रिमिघ्नभैषज्यगणैरुपाचरेत् ॥ ५४ ॥ भावार्थ:--अच्छे भस्म को पुनः अच्छी तरह ( छलनी आदिसे ) छानकर उसे उन मसूरिकावोंपर डालें जिससे वह स्राव सूख जायगा। यदि कदाचित् उन मसूरिका व्रणो में क्रिमि उत्पन्न हो जाय तो क्रिमिनाशक औषधियों से उपचार करना चाहिये ॥५४॥ . वीजन व धूप... अशोकनिंबाम्रकदंबपल्लवैः समंततस्संततमेव धीजयेत् । सुधूपयेद्वा गुडसर्जसदसैः सगुग्गुलुध्यात्मककुष्ठचंदनैः ॥ ५५ ॥ भावार्थ-मसूरिका से पीडित रोगीको अशोक, नीम, कदम, इन वृक्षोंके पत्तोंसे सदा पंखा करना चाहिये । एवं गुड, राल, गुग्गुल कत्तृण नामक गंधद्रव्य (रोहिस सोधिया ) चंदन इन से धूप करना चाहिये ॥ ५५ ॥ . . दुर्गंधितपिच्छिल मसूरिकोपचार. स पूतिगंधानपि पिच्छिलव्रणान् वनस्पतिक्वाथमुखोष्णकांजिका जलैरभिक्षाल्य तिलैस्सुपेशितै बृहत्तदृष्मणशमाय शास्त्रवित् ॥ ५६ ।। भावार्थः -- मसूरिकाजन्य व्रण दुर्गधयुक्त व पिच्छिल [ पिलपिली लिवलिवाहट ] हो तो उसे नींब क्षीरीवृक्ष, आदि वनस्पतियोंके क्वाथ व साधारण गरम कांजीसे धोकर ती. उष्णता के शमनार्थ, तिल को अच्छी तरह पीस कर, वैद्य उस पर लगावें ॥६६॥ मसूरिको को. भोजन. .मसरमुद्रप्रवराढकीगणेघृतान्वितैर्युषखलैः फलाम्लकैः। स एकवारं लघुभोजनक्रमक्रमेण संभोजनमेव भोजयेत् ।। ५७ । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलपहभूततंत्राधिकारः। (४५९) ... भावार्थ:-मसूर, मूंग, अरहर आदि धान्यों से बने हुए घृतमिश्रित यूषखल, खट्टे फल इनसे उस रोगी को दिन में एक बार लघुभोजन कराना चाहिये। फिर उस के बाद कम क्रम से उसकी वृद्धि करते हुए अंत में सभी भोजन खिलावें ॥ ५७ ॥ व्रणक्रियां साधु नियुज्य साधयेदुपद्रवानप्यनुरूपसाधनैः। घृतानुलिप्तं शयने च शाययेत् सुचर्मपद्मोत्पलपत्रसंवृते ॥ ५८ ॥ भावार्थ:-मसूरिका रोग में, व्रणोक्त चिकित्सा को अच्छी तरह प्रयोग कर उसे साधना चाहिये । उस के साथ जो उपद्रव्य प्रकट हों तो उन को भी उन के योग्य चिकित्सा से शमन करना चाहिये । उसे, घृत लेपन कर, चर्म, कमल, नीलकमल के पत्तें जिस पर विछाया हो ऐसे शयन [ बिछौना ] पर सुलाना चाहिये ।। ५८ ॥ ___ संधिशोथ चिकित्सा. ससंधिशोफास्वपि शोफवद्विधि विधाय पत्रोधमनैश्च बंधयेत् । विपकमप्याशु विदार्य साधयेद्योक्तनाडीव्रणवद्विचक्षणः ॥ ५९॥ भावार्थ:-संधियोमें यदि शोफ हो जाय तो शोफ [ सूजन ] की चिकित्साके प्रकरण में जो विधि बताई गई है उसी प्रकार की चिकित्सा इस में करनी चाहिये । और धमन ( नरसल ) वृक्षके पत्तों से बांधना चाहिये । अथवा नाडोंसे बांधना चाहिये । यदि वह पकजाय तो बुद्धिमान् वैद्य को उचित है कि वह शीघ्र पूर्वोक्त नाडीव्रणकी चिकित्सा के समान उसको विदारण (चीर ) कर शोधन रोपण दि चिकित्सा करें ॥ ५९ ॥ - सवर्णकरणोपाय. व्रणेषु रूढेषु सवर्णकारणहरिद्रया गरिकयाथ लोहित-- द्रुमैलताभिश्च सुशीतसौरभैस्सदा विलिम्पेत् सघृतैस्सशर्करैः ॥ ६० ॥ भावार्थ:-व्रण भरजाने पर ( त्वचाको ) सर्वर्ण करने के लिये तो उसमें हलदी अथवा गेरू अथवा शीत सुगंधि चंदन वा मंजीठ इन द्रव्योंको अच्छी तरह घिसकर घी व शक्कर मिलाकर उस में सदा लेपन करना चाहिये ।। ६० ॥ ... कपित्थशाल्यक्षतबालकांबुभिः कलायकालेयकमल्लिकादलैः । पयोनिघृष्टस्तिलचंदनैरपि प्रलेपयेदव्यधुतानुमिश्रितैः ॥ ६१ ॥ १ द्रव्य, उसका प्रमाण व बार २ अन्य जगहके त्वचाके सदृश वर्ण करना । अथवा व्रण होने के पूर्व उस त्वचाका जो वर्ण था उस को वैसे के वैसे उत्पन्न करना । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६०) कल्याणकारके भावार्थ:-कैथ, शाली धान, चावल, खश, नेत्रावाला, इन को वा मटर, कालेयक, ( पोला वर्ण का सुगंधकाष्ट जिस को पीला चंदन भी कहते हैं ). चमेली के पत्ते इन को वा तिल, कालाचंदन इनको, दूध के साथ पीसकर व ..गव्यघृत मिलाकर लेप कर तो त्वचा सवर्ण बन जाता है ॥ ६१ ॥ उपसर्गज मसूरिका चिकित्सा. महोपसर्गप्रभवाखिलामयानिवारयन्मंत्रमुतंत्रमंत्रावित् । प्रधानरूपाक्षतपुष्पचंदनैस्समर्चयेज्जनपदाम्बुजद्वयम् ॥ ६२ ॥ भावार्थ:--महान् उपसर्ग से उत्पन्न मसूरिका आदि समस्त रोगों को योग्य मंत्रा, यंत्रा व तंत्रके प्रयोगसे निवारण करना चाहिये । एवं श्रेष्ठ अक्षत पुष्प चंदनादिक अष्टव्योंसे बहुत भक्ति के साथ श्री जिनेंद्रभगवंतके चरणकमल की महापूजा करनी चाहिये ॥ ६२॥ मसूरिका आदि रोगोंका संक्रमण. सशोफकुष्ठज्वरलोचनामयास्तथोपसर्गप्रभवा ममूरिका । तदंगसंस्पशनिवासभोजनानरान्नरं क्षिप्रमिह व्रजति ते ॥ ६ ॥ भावार्थ:-शोफ, ( सूजन ) कोढ, ज्वर, नेत्ररोग व उपसर्ग से उत्पन्न मसूरिका रोग से पीडित रोगीके स्पर्श करनेसे, उसके पास में रहनेसे एवं उसो छुया हुआ भोजन करनेसे, ये रोग शीघ्र एक दूसरे को बदल जाते हैं || ६३ ॥ . उपसर्गज मसूरिका में मंत्रप्रयोग. ततः सुमंत्रक्षररक्षितस्स्वयं चिकित्सको मारिगणान्निवारयेत् । गुरूनमस्कृत्य जिनेश्वरादिकान् प्रसाधयेन्मंत्रितमंत्रसाधनैः ॥ ६४ ॥ भावार्थ:-इसलिये इन संक्रामक महारोगोंको जीतनके पहिले वैद्यको उचित है कि वह पहिले शक्तिशाली बीजाक्षरों के द्वारा अपनी रक्षा करलेवें। बाद में जिनेंद्र भगवंत व सद्गुरुवों को नमस्कार कर मंत्रप्रयोगरूपी साधन द्वारा इस रोग को जीतें ॥ ६४ ॥ भूततंत्रविषतंत्रमंत्रविद्योजयेत् तदनुरूपभेषजैः । भूतपीडितनरान्विषातुरान् वेषलक्षणविशेषतो भिषक् ॥. ६५ ॥ . . Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूततंत्राधिकारः । (४६२) भावार्थ:-भूतों के पीडन [व्यंतर जाति के देव ] व विषप्रयोग जन्य मसूरिका रोग को उन के आवेश व लक्षणों से पहिचान कर, भूतविद्या मंत्राविद्या व विषतंत्र को जाननेवाला वैद्य, उनके अनुकूल औषधि व मंत्रों से उन्हे जीतना चाहिये ॥ ६५॥ भूतादि देवतायें मनुष्योंको कष्ट देने का कारण. व्यंतरा भुवि वसंति संततं पीडयंत्यपि नरान्समायया! पूर्वजन्मकृतशत्रुरोषतः क्रीडनार्थमथवा जिघांसया ॥ ६६ ॥ भावार्थ:-भूत पिशाचादिक व्यंतरगण इस मध्यलोक में यत्र तत्रा वास करते हैं । वे सदा पूर्वजन्मकी शत्रुतासे, विनोद के लिये अथवा मारने की इच्छा से पीडा देते रहते हैं ॥ ६६ ॥ ग्रहबाधायोग्य मनुष्य. यत्र पंचविधसद्गुरून्सदा नार्चयंति कुसुमाक्षतादिभिः । पापिनः परधनांगनानुगा भुंजतेन्नमतिविन्न पूजयन् ।। ६७ ।। . पात्रदानवलिभैक्षवर्जिता भिन्नशून्यगृहवासिनस्तु ये । मांसभक्षमधुमद्यपायिनः तान्विशंति कुपिता महाग्रहाः ॥ ६८ ।। भावार्थ:-जो प्रतिनित्य, पुष्प अक्षत आदि अष्टद्रव्यों से पंचपरम गुरुओं (पंचपरमेष्ठी ) की पूजा नहीं करते हैं, हिंसा आदि पाप कार्यों को करते हैं, परधन व परस्त्रियों में प्रेम रखते हैं, अत्यंत विद्वान होने पर भी देवपूजा न कर के ही भोजन करते हैं, खराब शून्य गृह में वास करते हैं, मैद्य, मांस, मधु खाते हैं, पीते हैं, ऐसे मनुष्यों को, कुपित महा गृह ( देवता ) प्रवेश करते हैं अर्थात् कष्ट पहुंचाते हैं ।। ६७ ॥६८॥ बालग्रह के कारण, बालकानिह बहुप्रकारतस्तजितानपि च ताडितान्मुहः । त्रासितानशुचिशून्यगेहसंवर्धितानभिभवति ते ग्रहाः ॥ ६९ ॥ . १ जल, चंदन, अक्षत [चावल] पुष्प नैवेद्य, दीप, धूप, फल, ये देवपूजाप्रधान आठ द्रव्य २ अरहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, ये पांच जगत् के परमदेव व गुरु हैं। ३ मद्य, मांस, मधु इन का त्याग, जैनों के मूलगुणमें समावेश होता है । इन चीजों को जो स्माग नहीं करता है, वह वास्तव में जैन कहलाने योग्य नहीं हैं। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३२) कल्याणकारके . ... भावार्थ:-जो लोग बालकों को अनेक प्रकार से [ देखो भूत आगया ! चुप रह इत्यादि रीति से ] डराते हैं और वार २ मारते हैं व कष्ट देते हैं एवं उन बालकों को गंदा व सूने घरमें पालन पोषण करते हैं, ऐसे बालकों को वे ग्रह कष्ट पहुंचाते है ।। ६९ ।। शौचहीनचरितानमंगलान्मातृदोषपरिभूतपुत्रकान् ।. आश्रितानधिककिनारादिभिस्तान्ब्रवीमि निजलक्षणाकृतीन् ॥ ७० ॥ भावार्थ:-जिनका आचरण शुद्ध नहीं है, जो अमंगल है, मंगल द्रव्यके धारण .आदि से रहित हैं,] माता के दोषसे दूषित है, ऐसे मनुष्य किनर आदि क्रूरप्रहों से पीडित होते हैं। अब उन के लक्षण व आकृति का वर्णन करेंगे ॥ ७० ॥ किन्नरग्रहनहीतलक्षण. स्तब्धष्टिरसृजः सुगंधिको वक्रवक्त्रचलितकपक्ष्मणः । स्तन्यरुट्सलिलचक्षुरल्पतो यः शिशुः कठिनमुष्टिवर्चसः ।। ७१ ।। भावार्थ:-किंनर गृह से पीडित बालक की आंखें स्तब्ध होती हैं । शरीर रक्त के सदृश गंधवाला हो जाता है । मुंह टेढा होता है । एक पलक फडकता है, स्तन पीनेसे द्वेष करता है। आंखोंसे थोडा २ पानी निकलता है, मुट्ठी खूब कडा बांध लेता है मन भी कडा होता है। तात्पर्य यह कि उपरोक्त लक्षण जिस बालक में पाये जाय तो समझना चाहिये कि यह किंनरग्रहग्रहीत है ॥ ७१ ॥ किन्नरग्रहन चिकित्सा. सग्रहो बहुविधैः कुमारवत्तं कुमारचरितैरुपाचरेत् । किन्नरादितशिशुं विशारदो रक्तमाल्यचरुकैरुपाचरेत् ।। ७२ ॥ भावार्थ:-बालग्रह से पीडित बालक की बालग्रहनाशक, अभ्यंग, स्नान, धूप आदि नाना प्रकार के उपायों से, चिकित्सा करनी चाहिये । खास , कर किनर प्रहमहीत बालक को, लाल फूलमाला, लाल नैवेद्य समर्पण आदि से उपचार करना चाहिये ॥७२॥ . . . किन्नग्रहन अभ्यंगस्नान. वातरोगशमनौषधैरसुगंधैस्सुसिद्धतिलजर्जलैस्तथा-। भ्यंगपावनमिह प्रशस्यते किन्नरग्रहग्रहीत पुत्रके ॥ ७३ ॥ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूततत्राधिकारः। ५. भावार्थ:--उस किन्नर ग्रह से पीडित बालक को वातशामक व सुगंधित औषधियों से सिद्ध तिलका तैल, मालिश व इन हो औषधियोंसे साधित जल से स्नान कराना चाहिये ॥ ७३ ॥. किन्नरग्रहन्न धूप. ‘सर्षपैरखिलरोमसपनिमाकहिंगुवचया तथैव का-! कादनीघृतगुडैश्च धूपयेत्स्नापयनिारी दिवा च चत्वरे ।। ७४ ।। भावार्थ:----उपरोक्त ग्रहबाधित बच्चे को सरसों, सर्व प्रकार ( गाय, बकरा, मनुष्य आदि के ) के बाल, सांपकी कांचली, हींग, बच काकादनी, इन में घी गुर्ड मिलाकर ( आग में डालकर ) इस का धूप देवें एवं रात और दिन में, चौराह में [ उपरोक्त जलसे ] स्नान कराना चाहिये ।। ७४ ।। किन्नरगृहप्न बलि व होम. शालिषष्टिकयवैः पुरं समाकारयेन्मधुरकुष्ठगोघृतेः । होमयेन्निरवशेषतीर्थकृत नामभिःप्रणमनैश्च पंचभिः ॥ ७५ ॥ भावार्थ:-साठी धान, जो इस से पिंड बनाकर बलि देना चाहिये । एवं शांलि. धान्य कूठ गाय का घी, इन से तीर्थंकरों के सम्पूर्ण [१००८] नाम व पंचपरमेष्ठियों के नाम के उच्चारण के साथ २ होम करना चाहिये । जिनसे किन्नरग्रह शांत हो जाते हैं || ७५ ॥ किन्नरगृहन्न माल्यधारण. भूधरश्रवणसोमवल्लिका बिल्वचंदनयुतेंव्वाल्लिका। शिरमूलसहितां गवादनी धारयेद्ग्रथितमालिकां शिशुं ॥ ७६ ॥ भावार्थः-भूधर, गोरखमुण्डा, गिलोय, बेल के कांटे, चंदन, इंद्रलता, सेजनका जड, गवादनी [ इंदायणका जड ] इन से बनी हुई मालाको किन्नरग्रह से पीडित बालक को पहना देना चाहिये ॥ ७६ ।। किंपुरुषग्रहगृहीतलक्षण. । वेदनाभिरिहमूर्छितश्शिशुः चेतयत्यपि मुहुः करांधिभिः। नृत्यतीव विसृजत्यलं मलं मूत्रमप्यतिविनम्य ज़ुभयन् ॥ ७७ ॥ बिल्वकंटका इति ग्रन्थांतरे. ...२ गन्स्योडकः गंडा इति लोके Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६४ ) फेनमुद्रमति भीषणोद्यपस्मारकिं पुरषनामको ग्रहः । तं शिरीषसुरसैस्स बिल्वकैः स्नापयेदिह विपक्कवारिभिः ॥ ७८ ॥ भावार्थ:- नानाप्रकारको वेदनाओ से बालक बेहोश हो जाता है, कभी होश में भी आता है, हाथ पैरों को इस प्रकार हिलाता है जिससे वह नाचता हो जैसा मालूम होता है । नमते व जंभाई लेते हुए अधिक मल मूत्रको त्याग करता है, फेन ( झाग ) को वमन करता है तो समझना चाहिये कि वह भयंकर किंपुरुपापस्मार नामक ग्रह से पीडित है । इसे शिरीष, तुलसी वे इन से पकाये हुए जल से स्नान कराना चाहिये || ७७ ॥ ७८ ॥ कल्याणकारके किपुरुषत्न तैल व वृत सर्वगंधपरिपक्कतैलमभ्यंजने हितमिति प्रयुज्यते । क्षीरवृक्षमधुरैश्च साधितं पाययेद्धृतमिदं पयसा युतम् ॥ ७९ ॥ भावार्थ:-- इस में सम्पूर्ण गंधद्रव्यों से सिद्ध तेल का मालिश करना एवं क्षीरीवृक्ष, (गुलर आदि दूधवाले वृक्ष) व मधुर औषधियों से साधित घृत को दूध मिला कर पिलाना भी हितकारी है । किंपुरुषग्रहन धूप. 1 गोवृषस्य मनुजस्य लोमकेशैर्नखैः करिपतेर्धृतप्लतैः । गुधकौशिक पुरीषमिश्रितैर्धृपयदपि शिशुं ग्रहादितम् ॥ ८० ॥ भावार्थ:- किंपुरुष ग्रह से पीडित बालक को, गाय, बेल मनुष्य इन के रोम, केश वनख, हाथी के दांत, गृध्रपक्षी व उल्लू के मल, इन सब को एकत्र मिलाकर और घी में भिगोकर धूप देना चाहिये ॥ ८० ॥ स्नान, वाले, धारण. स्नापयेदथ चतुष्पथे शिशुं दापयेदिह टांपिं बलि । मर्कटीमपि कुक्कुटीमनं तां च विलतया स धारयेत् ॥ ८१ ॥ भावार्थ:-उपरोक्त ग्रह से पीडित बालक को चौराहे पर स्नान कराना चाहिये । एवं वटवृक्ष के समीप बलि चढाना चाहिये । कौंच कुक्कुटी ( सेमल ) अनंत [ उत्पल सारिवा ] कंदूरी [ इन के जड ] को हाथ वा गले में पहनावें ॥ ८१ ॥ १ अन्ये तु कुक्कुटशरीरवत् कुसल चित्रावली स्पारिक रचित कुटांकं । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूततंत्राधिकारः। (४६५) गरुडग्रहगृहीत लक्षण. पशिगंधसहितो बहुव्रणः स्फोटनिष्ठुरविपाकदाहवान् । सस्तगात्रशिशुरेष सर्वतः संविभेति गरुडग्रहार्तितः ॥ ८२ ॥ भावार्थ:-गरुडग्रहसे पीडित बालक के शरीर में बहुत से व्रण होते हैं और भयंकर पाक व दाह सहित फफोले होते हैं । वह पक्षिकी बास से सयुक्त होता है । और सर्व प्रकार से भयभीत रहता है ॥ ८२ ॥ गरुडग्रहन्न, स्नान, तैल, लेप. आम्रनिंबक दलोकपित्थजंबूद्रुमकथितशीतवारिभिः । स्नापयेदथ च तद्विपकतैलप्रलेपनमपि प्रशस्यते ।। ८३ ॥ भावार्थ:-अनेक औषधियों से सिद्ध तेल को लेपन कराकर आम, नीम, केला, कैथ, जंबू इन वृक्षों के द्वारा पकाये हुए पानीको ठण्डा करके उस गरुडग्रहसे पीडित बच्चे को स्नान कराना चाहिये, एवं उपरोक्त आम्रादिकों से सावित तैल का मालिश व उन्हीं का लेप करना भी हितकर है ॥ ८३ ॥ गरुडग्रहन धृतधूपनादि. यद्वणेषु कथितं चिकित्सितं यद्धृतं पुरुषनामकग्रहे । यच्च रक्षणसुधूपनादिकं तद्धितं शकुनिपीडिते शिशौ ।। ८४ ॥ भावार्थ:-इस गरुडग्रहके उपसर्ग से होनेवाले व्रणो में भी पूर्व कथित व्रण चिकित्साका प्रयोग करना चाहिये । एवं किंपुरुष ग्रहपीडाके विकार में कहा हुआ घृत, मंत्र, रक्षण, धूपन आदि भी इसमें हित है ॥ ८४ ॥ गंधर्व ( रेवती ) ग्रहगृहीत लक्षण | पाण्डुरोगमतिलोहिताननं पीतमूधमलमुत्कटज्वरम् । श्यामदेहमथवान्यरोगिणं घ्राणकर्णमसकृत्प्रमाथिनम् ॥ ८५ ॥ भावार्थ:- गंधर्व जाति के भ्रकुटि, रेवती नामक ग्रहसे पीडित बालक का शरीर पाण्डुर (सेफेदी लिये पीला ) अथवा श्याम वर्णयुक्त होता है । उसकी आंखें १ तद्भिषक्च इति पाठांतरं । २ खस, मुलैटी, नेत्रवाला, सारिवा, कमल, ले.ध, जियंगु, मंजीठ, गेरु इनका लेप करना भी हितकर है। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६६) . कल्याणकारक अन्यत लाल होती हैं। मूत्र व मल एकदम पीला हो जाता है, तीव्र ज्वर आता है, अथवा कोई अन्य रोग होता है। वह बालक नाक व कान को बार २ विशेषतया रगडता है। ८५॥ रेवतीग्रहन्न स्नान, अभ्यंग, घृत. तं शिशुं भृकुटिरेवतीसुगंधर्ववंशविषमग्रहार्तितं । सारिबाख्यसहिताश्वगंधश्रृंगीपुनर्नवसमूलसाधितैः ॥ ८६ ॥ मंत्रपूतसलिलैनिषेचयेत्कुष्ट सर्जरससिद्धतलम- । भ्यंजयेदखिलसारसद्रुमैः पकसपिरिति पाययेच्छिशुम् ॥ ८७ ॥ भावार्थ:-ऐसे विषम ग्रह से पीडित बालक को सारिवा [अनंतमूल ] अश्वगंध मेढासिंगी, पुनर्नवा इन के जड से सिद्ध व मंत्र से मंत्रित जल से स्नान कराना चाहिये। एवं कूठ व राल से सिद्ध तेल को लगाना चाहिये। सर्व प्रकार के सारस वृक्षों के साथ पकाये हुए घृतको उस बालक को पिलाना चाहिये ।। ८६ ॥ ८७ ॥ रेवतीनहन्नधूप. धृपयेदपि च संध्ययोस्सदा गृध्रकौशिकपुरीष सद्धृतैः । धारयेद्वरणनिंबजां त्वचा रेवतीग्रहनिवारणी शिशुम् ।। ८८ ॥ भावार्थ:-रेवती ग्रहसे दूषित बालकको दोनों संध्या समय में गृध्र (गीध ) व उलूक ( उल्लू ) के भल को घृत के साथ मिलाकर धूनी देना चाहिये । एवं उस बालक को वरना वृक्ष व नीमकी छाल को पहनाना चाहिये ।। ८८ ॥ __ पूतना [भूत ] ग्रहगृहीत लक्षण. विडिभिन्नमसकृद्विसर्जरन् छर्दयन् हपितलोमकस्तृषा-- । लुर्भवत्यधिककाकगंधवान् पूतनाग्रहगृहीतपुत्राकः ।। ८९ ॥ भावार्थ:-जो बालक बार २ 'फाटे मल विसर्जन कर रहा है, वमन कर रहा है, जिसे रोमांच हो रहा है. तृपा लग रही है एवं जिसका शरीर कौवे के समान बासवाला हो जाता है उसे पूतना [भूतजाति के ग्रहसे पीडित समझना चाहिये ॥८९॥ पूतनाग्रहन स्नान. स्वस्थ एव दिवसे स्वापित्यसो नैव रात्रिषु तमिद्धभूतजित्-- पारिभद्रवरणार्कनीलिकास्फोतपक्वसलिलैनिषेचयेत् ।। ९० ॥ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूततंत्राधिकारः। (४६७) भागर्थः-पूतनागृहीत बालक का शरीर स्वस्थ होते हुए भी, दिन और रात में वह सुखपूर्वक नहीं सोता है ( उसे नींद नहीं आती है ) उसे भूत को जीतने वाले नीम, वरना, अकौवा, नील आस्फोता, [ सारिवा ] इन औषधियोंसे पकाये हुए पानीसे सेचन करना चाहिये ॥ ९० ॥ पूतनाग्रहन तैल व धूप. -कुष्ठसर्जरसतालकोग्रगंधादिपक्वतिलज विलेपयेत् । अष्टमृष्टगणयष्टिकातुगासिद्धसर्पिरपि पाययेच्छिशुम् ॥ ९१ ।। भावार्थ:-- कूठ, राल, हरताल, वचा [ दूव गिलोय ] आदि औषधियोंसे पक्क तिलके तेलको इसमें लेपन करना चाहिये । एवं च अप्टमधुरौषध [काकोल्यादि] मुलहटी व वंशलोचन से सिद्ध घृतको उस बालक को पिलावें ॥ ९१ ॥ पूतनाग्रहन्न बलि स्नान. . स्नापयेदपि शिशु सदैव सोच्छिष्टभोजन जलैविधानवित् । शून्यवेश्मनि रहस्यनावृत नित्कुरूटनिकटे ( ? ) भिषग्वरः ॥ ९२ ॥ भावार्थ:-बालग्रह के उपचार को जानने वाला वैद्यवर पूतनाविष्ट बालक को शून्य मकान अथवा किसी एकांत स्थान व खुले शून्य बगीचे के समीप में जूठे भोजन के जल से सदैव स्नान कराना चाहिये ॥ ९२ ॥ पूतनाग्रहन्न धूप. चंदनागुरुतमालपत्रतालीसकुष्ठखदिरैघृतान्वितैः । केशरोमनखमानुपास्थिभिः धूपयेदपि शिशुं द्विसंध्ययोः ॥ ९३ ॥ भावार्थ:-चंदन, अगुरु, तम्बाखू, तालीसपत्र, कूठ, खदिर प्राणियों के केश, रोम, नख व मनुष्योंकी हड्डी इन को चूर्ण कर फिर इस में घी मिलाकर दोनों संध्याकालों में धूनी देना चाहिये ॥ ९३ ॥ पूतनान धारण व बलि. चित्रबीजसितसर्षपेंगुदी धारयेदपि च काकवल्लिकां । स्थापयेवलिमिहोत्कुरूटमध्ये सदा वृ.शरमर्चितं शिशोः ॥ ९४ ॥ १ अपरे गिरिकीमाहुः Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके भावार्थ:--पूतना पीडित बालक को लाल एरण्ड, सफेद सरसों, हिंगोट स्वर्णबल्ली इन को धारण कराना चाहिये । एवं शून्यग्रह के बीच में सदैव खिचड़ी से बलि प्रदान करना चाहिये ॥ ९४ ॥ अनुपूतना [ यक्ष ] ग्रहगृहीत लक्षण. देष्टि यस्तनमतिज्वरातिसारातिकासवमनप्रतीतहिकाभिरर्तितशिशुर्वसाम्लगंधोत्कटो विगतवर्ण च स्वरः ॥ ९५ ॥ अनुपूतनाउन स्नान. तं विचार्य कथितानुपूतनानामयक्षविषमग्रहार्दितम् । तिक्तवृक्षदलपक्कवारिभिः स्नापयेदधिकमंत्रमंत्रितैः ॥ ९६ ॥ भावार्थ:-जो बालक माता के स्तनके दूध को पीता नहीं, अत्यंत ज्वर, अतिसार, खांसी, वमन और हिक्का से पीडित हो जिस का शरीर वसा या खट्टे गंध से युक्त हो और शरीरका वर्ण बदल गया हो एवं स्वर भी बैठ गया हो तो उसे यक्ष जाति के पूतना ग्रहसे पीडित समझना चाहिये । उसे कडुए वृक्षों के पत्तों से पकाये हुए पानी को मंत्रसे मंत्रित कर उससे स्नान कराना चाहिये ॥ ९५ ॥ ९६ ॥ अनुपूतनाउन तैल व पृत. . कुष्ठसरसतालका पारसौवीरसिद्धतिलनं प्रलेपयेत् । पिप्पलीद्विकविशिष्टमृष्टनगर्विपक्षघृतमेव पायर्यत् ॥ ९७ ।। भावार्थ:-कूठ, राल, हरताल, मैनसिल, कांजी इन से सिद्ध तिलके तेलका उस बालक के शरीर में मालिश करना चाहिये । एवं पीपल, पीपलामूल और मधुरवर्ग [ काकोल्यादिगण ] के औषधियों से पकाये हुए घृत को पिलाना चाहिये ॥ ९७ ॥ अनुतनाम्न धूप व धारण.. केशकुक्कुटपुरीषचर्मसर्पत्वची घृतयुनाः सुधूपयेत् । धारयदपि सकुक्कुटीमनंतां च विघलतया शिशुं सदा ॥ ९८ ॥ भावार्थः --मुर्गे का रोम, मल व चर्म एवं सर्पका चर्म [ कांचली] के साथ घी मिलाकर धूपन प्रयोग करना चाहिये । एवं कुक्कुटी सारिख कन्दूरी इन को धारण कराना चाहिये ।।८।। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूतंत्राधिकारः बलिदान . पूर्तभक्ष्यबहुभोजनादिकान् सन्निवेद्य सततं सुपूजयेत् । स्नापयेदपि शिशुं गृहांतरे वर्णकैर्विरचितोज्वले पुरे ॥ ९९ ॥ ( ४६९ ) भावार्थ:- अनेक प्रकार के भक्ष्य भोजन आदि बनाकर, उन से ग्रहकी पूजा करनी चाहिजे । तथा सामने अनेक प्रकार के चित्र विचित्रित कर उस बालक को मकान के बीच में स्नान कराना चाहिये ॥ ९९ ॥ शीत पूतनाग्रहगृहीत लक्षण. शीतपिततनुर्दिवानिशं रोदिति स्वपिति चातिकुंचितः । सांत्रकूजमतिसार्य विरुगन्धिः शिशुर्भवतिशीतकार्दितः ॥ १०० ॥ भावार्थ:-- :--ठण्ड के द्वारा जिस बालक का शरीर कंपाय मान होता है, रात-दिन रोता रहता है एवं अत्यंत संकुचित होकर सोता है, आंतडी में गुडगुडाहट श होता है, दस्त लगता है, शरीर कच्चे किसी दुर्गंध से युक्त होता है तो समझना चाहिये कि वह शीतपूतना ग्रहसे पीडित है ॥ १०० ॥ शीतपूतनाप्न स्नान व तैल. तं कपि राम्रविल्व भल्लातकैः क्वथितवारिभिस्सदा । मूत्रवर्गसुरदारुसर्व गंधेर्विपक्वतिलजं प्रलेपयेत् ॥ १०१ ॥ भावार्थ:- :- उस बालक को कैथ, तुलसी, आम, बेल, भिलावा इन से पकाये हुए पानी से स्नान कराना चाहिये । मूत्रवर्ग [ गाय आदि के आठ प्रकार के मूत्र ] देवदारु, व सर्व सुगंधित औषधियोंसे सिद्ध तिल के तेल से लेपन करना चाहिये ॥ १०१ ॥ शीतपूतमान घृत. रोहिणीखदिर सर्जनिंबभूर्जार्जुनांघ्रिप्रविपक्ववारिभिः । माहिषेण पयसा विपक्क सर्पिः शिशुं प्रतिदिनं प्रपाययेत् ॥ १०२ ॥ भावार्थ:- कायफल, खेर का वृक्ष, रालवृक्ष, नीम, भोजपत्र, अर्जुन [ कुहा ] वृक्ष इन के छाल का कषाय, भैंस का दूध, इन से सिद्ध घृत को शीत पूतना से पीडित बालक को प्रतिदिन पिलाना चाहिये ॥ १०२ ॥ शीत पूतनान धूप व धारण. निवपत्र फणिचर्मसर्जनिर्यासभल्लशशविट्सवाजिगं - 1 स्मृत्य शिशुमत्र चिंचगुंजासकाकलतया स धारयेत् ॥ १०३ ॥ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) कल्याणकारके भावार्थ:-नीम का पत्ता, सांप की कांचली, राल, उल्लू व खरगोश के वीट अजगंधा, [ अजवायन ] इन औषधियों से धूप देना चाहिये । बिंबलता, धुंघची, काकादनी [ काकतिंदुकी ] इनको धारण कराना चाहिये ॥ १०३ ॥ शीतपूतनाप्न बलि स्नानका स्थान. मुद्गयूषयुतभोजनादिकैः अर्चयेदपि शिशु जलाश्रये । स्नापयेदधिकमंत्रमंत्रितै मंत्रविद्विधिविपक्ववारिभिः॥ १०४ ॥ भावार्थ:-मुद्गयूष ( मूंग की दाल ) से युक्त भोजन भक्ष्य आदि से जलाशय के [ तालाव नदी आदि ] समीप, शीतपूतना का अर्चन करना चाहिये । एवं जलाशय के समीप ही उस बालक को मंत्रों से मंत्रित, विधि प्रकार [ पूर्वोक्त औषधियों से ] पकाये गये जल से मंत्रज्ञ वैद्य रनान करावे ॥ १०४ ॥ पिशाचग्रहगृहीत लक्षण. शोषवत्सुरुचिराननः शिशुः क्षीयतेऽतिबहुभुक्सिराततः । कोमलांघ्रितलपाणिपल्लवो मूत्रगंध्यपि पिशाचपीडितः ॥ १०५ ॥ भावार्थ:-जो बालक सूखता हो, जिसका मुख सुंदर दिखता हो, रोज क्षीण होता जाता हो, अधिक भोजन [ या रतन पान ] करता हो, पेट नसों से व्याप्त हो [ नसें पेट पर अच्छीतरह से चमकते हो ] पादतल व हाथ कोमल हो, शरीर में गोमूत्र का गंध आता हो तो समझना चाहिये वह पिशाच ग्रह से पीडित है ॥ १०५॥ पिशाचग्रहघ्न स्नानौषधि व तेल. तं कुबेरनयनार्कवंशगंधर्वहस्तनृपबिल्ववारिभिः । सनिषिच्य पवनघ्नभेषजैः पक्वतैलमनुलेपच्छिशम् ।। १०६ ॥ भावार्थ:- उसे कुबेराक्षि ( पाटल ] अकौवा, वंशलोचन, अमलतास, बेल, इनके द्वारा पकाये हुए पानी से अच्छीतरह स्नान कराकर वातहर औषधियों के द्वारा पकाये हुए तेलको उस पिशाच पीडित बालक के शरीर पर लगाना चाहिये ॥ १०६ ॥ पिशाच ग्रहत्न धूप व घृत. अष्टमृष्टगणयष्टिकातुगाक्षीरदुग्धपरिपक्वसद्धृतम् । पाययदपि वचस्सकुष्टस ः शिशुं सततमेव धूपयेत् ॥ १०७ ।। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूततत्राधिकारः। (४७१ ) भावार्थ:--अष्ट मधुरौषधि वर्ग [ काकोल्यदि ] मुलैठी बंशलोचन व दूधसे पकाये हुए अन्छे घृत को उस बालक को पिलायें । एवं वच, कूठ, राल, इन से उस बालक को सतत धूपन प्रयोग करना चाहिये ।। १०७ ॥ पिशाचग्रहत्न धारण बलि व स्नानस्थान. चापगृध्रसमयूरपक्षसर्पत्वचाविरचिताश्च धारयेत् ।। वर्णपरकबलं च गोष्ठमध्ये शिशो स्नपनमत्र दापयेत् ॥ १८ ॥ भावार्थ:- नीलकंठ (पक्षिविशेष) गृध्र, मयूर इन का पंखा, सांपकी कांचली, इन से बनी हुई माला व पोटली को पहनावें । वर्णपूर युक्त अन्न को अर्पण [बली ] करें एवं उस बालक को गोठे में स्नान करावें ॥ १०८ ॥ राक्षसगृहीत लक्षण. फैनमुद्वमति ज़ुभते च सोद्वेगमूर्ध्वमवलोकते रुदन् । मांसगंध्यपि महाज्वरोऽतिरुद्राक्षसग्रहगृहीत पुत्रकः ॥ १०९ ॥ भावार्थ:-राक्षस ग्रह से पीडित बालक फेन का बमन करता है, उसे जंभाई आती है, उद्वेग के साथ रोते हुए ऊपर देखता है । एवं उस के शरीर से मांसका गंध आता है। महायर से वह पीडित रहता है एवं अति पीडा से युक्त होता है ॥१०९ ॥ राक्षस ग्रहानस्नान, तैल, घृत. नक्तमालबृहतीद्वयाग्निमन्थास्युरेव परिषेचनाय धा-। न्याम्लमप्यहिममंबुदोगगंधापियंगसरलैः शताहकैः ॥ ११० ॥ कांजिकाम्लदधितक्रमिश्रितैः पक्वतैलमनुलेपनं शिशोः । वातरोगहरभेषजैस्सुमृष्टैश्च दुग्धसहितः घृतं पर्चत् ॥ १११ ॥ भावार्थः-करंज, दोनों कटेहरी, अगेथु, इन से पकाये हुए जल से उस राक्षस ग्रह पीडित बालक को स्नान कराना चाहिये । एवं गरमकांजी को भी रनान कार्य के उपयोग में ला सकते हैं । नागरमोथा, वच, प्रियंगु, सरलकाष्ट, शतावरी इनके काथ व कल्क, कांजी, दही व छाछ इन से साधित तैल को मालिश करना चाहिये । एवं वातरोग नाशक औषधि व मधुरौषधि के क्वाथ कल्क व दूध से साधित घृत उसे पिलाना चाहिये ॥ ११० ॥ १११ ॥ राक्षसग्रहन धारण व वलिदान. धारयेदपि शिशुं हरीतकीगौरसर्षपवचा जटान्विता। माल्य भक्ष्यतिलतण्डुलैश्श भैरर्चयेदिह शिशुं वनस्पतौ ।। ११२ ॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७२) कल्याणकारके भावार्थ:-राक्षसग्रहपीडित बालक को हरड, सफेद सरसों, वच, जटामांसी इनकी पोटली आदि बनाकर पहनाना चाहिये । एवं पुप्पमाला, नाना प्रकार के भक्ष्य, तिल व चावल से ग्रहाविष्ट शिशु का पूजन वृक्ष के नीचे करना चाहिये ॥ ११२ ॥ राक्षसग्रहगृहीत का स्नानस्थान व मंत्र आदि. स्नापयेदरपीडितं शिशुं क्षीरवृक्षनिकटे विचक्षणः ।। जैनशासनविशेषदेवतारक्षणैरपि च रक्षयेत्सदा ॥ ११३ ॥ भावार्थ:-उस राक्षसग्रहपीडित बालक को बुद्धिमान् वैद्य दूधिया (वड पीपल आदि ) वृक्ष के पास में ले जा कर स्नान करावें । एवं जैनशासन देवता सम्बन्धी मंत्र व यंत्र के द्वारा भी उस बालक की रक्षा करनी चाहिये ।। ११३ ।। देवताओं द्वारा बालकों की रक्षा. व्यंतराश्च भवनाधिवासिनोऽष्टप्रकारविभवोपलक्षिताः। पांति बालमशुभग्रहार्दितं स्पष्टमृष्टबालितुष्टचेतसः ॥ ११४ ॥ भावार्थ:-अष्ट प्रक.र के विभवोंसे युक्त भवनवासी व्यतरादिक सम्यग्दृष्टि देव यदि उन को अनेक प्रकार से मनोहर गंध पुप्प नैवेद्य आदि से आदर करें तो उस से . प्रसन्न होकर अशुभग्रह से पीडित बालक की रक्षा करते हैं ॥ ११४ ।। इति बालग्रहनिदान चिकित्सा. अथ ग्रहरोगाधिकारः। ग्रहोपसर्गादि नाशक अमोघ उपाय. यत्र पंचपरमेष्ठिमंत्रसन्मंत्रितात्मकवचान्नरोत्तमान् । पीडयंति न च तान् ग्रहोपसर्गामयाग्निविषशस्त्रसंभ्रमाः ॥ ११५ ॥ भावार्थ:-जिन्होने सदा पंचपरमेष्ठियों का नामस्मरण से अपनी आत्मा को पवित्र बनालिया हैं, उनको ग्रहपीडा सम्बन्धी रोग, अग्नि विष, शस्त्र आदि से उत्पन्न दुःख नहीं होत हैं ॥ ११५॥ मनुष्यों के साथ देवताओं के निवास. मानुषैस्सह वसंति संततं व्यंतरोरगगणा विकुर्वणैः। ते भवंति निजलक्षणेक्षिता अष्टभेददशभेदभेदिताः ॥ ११६ ॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३) कल्याणकारकै भावार्थ:-आठ प्रकार के व्यंतर, दस प्रकार के भवनवासी देव, अपने वकियक शक्तिसे मनुष्यों के साथ हमेशा निवास करते हैं जो अपने २ खास लक्षणों से देखे जाते हैं ।। ११६ ॥ ग्रहपीडाके योग्य मनुष्य. तत्प्रयुक्तपरिवारकिंनरा मानुषानभिविशंति मायया । भित्रशून्यगृहवासिनोऽशुचीनक्षतान् क्षययुतानधर्मिणः ॥११७॥ भावार्थ:-उन देवताओं परिवार रूपमें रहनेवाले किनर अपने स्वामी से प्रेरित होकर एकांत में, सूने घरमें रहनेवाले, अपवित्रा, धर्मद्रोही, व धर्माचरण रहित मनुष्योंको मायाचारसे पीडा देते हैं ॥ ११७ ॥ देवताविष्टमनुष्य की चेष्टा. स्वामिशीलचरितानुकारिणः किन्नराश्च बहवस्स्वचेष्टितै-। राश्रयंति मनुजानतो नरास्तत्स्वरूपकृतवेषभूषणाः ॥ ११८ ॥ भावार्थ:-अपने स्वामी के स्वभाव व आचरण को अनुसरण करने वाले स्वामी की आज्ञा पालन के लिये बहुत से किनर अपनी २ चेष्टाओं के साथ मनुष्यों के पीछे लग जाते हैं जिससे मनुष्य भी उन्हीं के समान वेष ध भूषा से युक्त होते हैं ॥ ११८ ॥ देवपीडित का लक्षण. पण्डितोऽति गुरुदेवभक्तिमान् गंधपुष्पनिरतस्सुपुष्टिमान् । भास्वरानिमिषलोचनो नरो न स्वपित्यपि च देवपीडितः ॥ ११९ ॥ भावार्थ:-देवद्वारा पीडित मनुष्य का आचरण बुद्धिमानों के समान मालुम होता है। और वह देव गुरुओमें विशेष भक्तिको प्रकट करता है। सदा गंधपुप्पको धारण किया हुआ रहता है । उसका शरीर पुष्ट रहता है, उसकी आंखें तेज व खुली हुई रहती हैं। और वह सोता भी नहीं है ॥ ११९ ॥ असुरपीडित का लक्षण. निंदतीह गुरुदेवताःस्वयं वक्रदृष्टिरभयोऽभिमानवान् । स्वेदनातिपरुषो न तृप्तिमानीगेष पुरुषोऽसुरार्दितः ॥ १२० ॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूततंत्राधिकारः। (४७४) भावार्थ:-असुर के द्वारा पीडित मनुष्य देव गुरुवोंकी निंदा करता है, उसकी दृष्टि वक्र रहती है, वह किसी से भय नहीं खाता और अभिमानी होता है । उस के शरीर से पसीना बहता रहता है एवं कठोर रहता है, उसे कितना भी खावे तो तृप्ति नहीं होती ॥१२०॥ गंधर्वपीडित का लक्षण. क्रीडतीह वनराजिस्म्यहोचशैलपुलिनेषु हृष्टवान् । गंधपुष्पपरिमालिकाश्च गंधर्वजुष्टपुरुषोभिऽवांछति ॥ १२१ ।। भावार्थ:-गंधर्व से पीडित मनुष्य जंगल, सुंदर महल, ऊंचे पहाड व नदीके किनारे आदि प्रदेश में बहुत हर्ष के साथ खेलता रहता है। एवं सदा गंध, पुष्पमाला आदिको चाहता रहता है ॥ १२१ ॥ यक्षपीडित का लक्षण. ताम्रवक्त्रतनुपादलोचनो याति शीघ्रमतिधीरसत्ववान । प्रार्थितः स वरदो महाद्युतिर्यक्षपीडितनरस्सदा भवेत् ॥ १२२ ॥ भावार्थ:-यक्ष से पीडित मनुष्य का मुख, शरीर, पाद, आखें लाल रहती हैं, वह शीघ्रगामी व अत्यंत धीर व शक्तिशाली ( अथवा बुद्धिमान् ) रहता है। प्रार्थना करनेपर वह वर देता है । और उस का शरीर महाकांतियुक्त रहता है ॥ १२२ ॥ भूतपितृपीडितका लक्षण. तर्पयत्यपि पितृन्निवापदानादिभिर्जलमपि प्रदास्यति । पायसेक्षुगुडमांसलोलुपो दुष्टभूतपितृपीडितो नरः ॥ १२३ ॥ भावार्थ:-दुष्ट भूतापित से पीडितमनुष्य पितरों के उद्देश्य से निवाप [ तर्पण ] दान आदि से उन का तर्पण करता है और जलका तर्पण भी देता है। एवं वह खीर ईख, गुड व मांस को खाने में लोलुपी रहता है ॥ १२३ ॥ राक्षस पीडित का लक्षण. मांसमद्यरुधिरपियोऽतिशरोऽतिनिष्ठुरतरः स्वलज्जया । वर्जितोऽतिबलवानिशाचरः शोफरुग्भवति राक्षसो नरः ॥१२४॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७५) कल्याणकारके भावार्थ:-राक्षस से पीडित मनुष्य को मांस, मद्य व रक्त अत्यंतप्रिय होते हैं। वह अत्यंत शूर, क्रूर, लज्जारहित, बलशाली एवं रात्रि में गमन व रने वाला होता है। उस के शरीर में सूजन व पीडा रहती है ॥ १२४ ॥ पिशाचपीडित का लक्षण. धूसरोऽतिपरुषः खरस्वरः शौचहीनचरितः प्रलापवान् ॥ भिन्नशून्यगृहवासलोलुपः स्यात्पिशाचपरिवारितो नरः ॥ १२५॥ भावार्थ:-पिशाच ग्रह से पीडित मनुष्य का शरीर धूसर (धुंदला) व अति कठिन होता है, स्वर गर्दभसदृश कर्कश होता है। एवं च उसका आचरण मलिन रहता है। सदा बडबड करता रहता है । एकांत व सूने घर में रहनेकी अधिक इच्छा करता नागग्रहपीडित का लक्षण. सर्पवत्सरति यो महीतले सूकमोष्ठमपि लेहि जिह्वया ।. . कुप्यतीह परिपीडितः पयःपायसेप्सुरुरगग्रहाकुलः ॥ १२६.॥... भावार्थ:-जो उरग ग्रहसे पीडित है वह सर्प के समान भूतलमें सरकता है। और मुख के दोनों ओरके कोनों को एवं ओष्ठ को जीभसे चाटता है । कोई उसे कुछ कष्ट देखें तो उनपर खूब क्रोधित होता है। दूध व खीर को खानेकी उसे बडी इच्छा रहती है ॥ १२६ ॥ ग्रहों के संचार व उपद्रव देने का काल. देवास्ते पौर्णमास्यामसुरपरिचरास्संध्ययोस्संचरंति । पायोऽष्टम्यां विशेषादभिहितगुणगंधर्वभृत्यानुभृत्याः ॥ यक्षा मंक्षु क्षिपंति प्रतिपाद पितृभूतानि कृष्णाख्यपक्षे । रात्रौ रक्षांसि साक्षाद्भयकृतिदिनभूस्ते पिशाचा विशंति ॥१२७॥ पंचम्यामुरगाश्चरंति नितरां तानुक्तसल्लक्षणे- । ख़त्वा सत्यदयादमादिकगुणः सर्वज्ञभक्तस्स्वयम् ॥ साध्यान्साधयतु स्वमंत्रबलवद्भपज्ययोगभिषक् । क्रूराः कष्टतरा ग्रहा निगदिताः कृच्छ्रास्तु बालग्रहाः ॥ १२८ ॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूततंत्राधिकारः। (४७६) भावार्थ:-देवगण प्रायः पौर्णमासी के रोज, असुर व उन के परिवार दोनों संध्या के समय में, गंधर्व व उन के परिवार अष्टमी के दिन, यक्षगण प्रतिपदा के रोज पितृभूत कृष्णपक्ष में, राक्षस रात्री में पिशाच भी रात्रि में एवं नागग्रह पंचमी के रोज भ्रमण करते हैं एवं मनुष्योंको कष्ट देते हैं। इन ग्रहों को पूर्वोक्त प्रकार के सर्व लक्षणों से अच्छीतरह जान कर सत्य, दया, दमादिगुणोंसे युक्त, सर्वज्ञ व उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म में अत्यधिक श्रद्धालु वैद्य, उनमें से साध्य ग्रहोंको उनके योग्य मंत्र या प्रभावशाली औषध आदिसे दूर करें, ये ग्रह अत्यंत क्रूर एवं कष्ट से जाते जाते हैं इसी प्रकार बालग्रह भी कष्ट साध्य कहा गया है ॥ १२७॥ १२८ ॥ शरीर में ग्रहोंके प्रभुत्व. ग्रहामयात्यद्भुतदिव्यरूपा नानाविशेषाकृतिवेषभूताः। मनुष्यदेहाभिविशंत्यचिंत्याः कोपात्स्वशक्त्याप्यधिकुर्वते ते ॥ १२९ ॥ भावार्थः-ग्रहामय को उत्पन्न करने वाले ग्रह, आश्चर्यकारक दिव्यरूप को धारण करनेवाले अनेक प्रकार की विशिष्ट आकृति व वेष से संयुक्त एवं अचिंत्य होते हैं । अत एव ग्रहोत्पन्न रोग भी इसी प्रकार के होते हैं। वे.क्रोध से मानव शरीर में प्रविष्ट होते हैं और 'आत्मशक्तिके बल से शरीर में अपना अधिकार जमा लेते है ॥ १२९ ॥ ___ ग्रहामय चिकित्सा. तान्साधयेदुग्रतपोविशेषैर्ध्यानैस्समंत्रौषधसिद्धयांगैः । तेषामसंख्यातमहाग्रहाणां शात्यर्थमित्थं कथयति संतः ॥ १३० ॥ भावार्थ:- उन महाग्रहोंकी पीडा को उग्रतप, ध्यान, मंत्र, औषध या सिद योग के द्वारा जीतनी चाहिये । असंख्यात प्रकार के महाग्रहों के उपद्रवों की शांति के लिये इसी प्रकारके उपायों को काम में लेना चाहिये ऐसा सज्जन पुरुष कहते हैं ॥१३०॥ प्रहामय में मंत्रबलिदानादि. यमनियमदमोद्यत्सत्यशौचाधिवासो । भिषगधिकसुमंत्रैमत्रितात्मा स्वमंत्रीः ॥ अपि बहुविधभूषाशेषरत्नानुलेप- । सृगमलबलिधूपैः साधयेत्तान् ग्रहाख्यान् ॥ १३१ ।। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७) कल्याणकारके भावार्थ:- अनेक प्रकार के यमव्रत, नियमव्रत, सत्य, शौच आदि गुणोंसे युक्त वैद्य स्वयं अनेक मंत्रोंसे मंत्रित होकर, उन ग्रहाके योग्य मंत्रोंसे एवं अनेक प्रकार के आभूषण, रत्न, अनुलेपन, पुष्पमाला, पवित्रा नैवेद्य धूप आदिसे उन ग्रहोंको जीतें ॥१३१॥ ग्रहामयन्न घृततैल. लशुनतगरहिंगूयाजलोर्मीसगोलोप्यमृतकटुकतुंबीविनिवेंद्रपुष्पी । त्रिकटुकपटुयुक्ताशेषगंधैलकाक्षी [?] । सितगिरिवरकर्णीभूतकेश्यर्कमलैः ॥ १३२ ॥ तालीतमालदलसालपलाशपारी । भद्रेदीमधुकसारकरंजयुग्मैः ।। गंधाश्मतालकशिलासितसर्षपाथै । व्यायर्कसिंहवृकशल्यबिडालविभिः ।। १३३ ॥ पश्वश्वसोष्ट्रखरकुक्कुररोमचर्म-। दंयाविषाणशकृतां समभागयुक्तः ॥ अष्टप्रकारवरमूत्रसुपिष्टकल्कैः काथैर्विपकघृततैलमिह प्रयोज्यम् ॥ १३४ ॥ भावार्थ:-लहसन, तगर, हींग, वच, समुद्रफेन, सफेद दूव [ श्वेतदूर्वा ] गिलोय कडवी तुंबी ( कडवी लौकी) बिंबफल, नीम, कलिहारी, सोंठ, मिरच, पीपल, सेंधानमक, समस्त गंधद्रव्य, इलायची,श्वेतकिणिही वृक्ष, भूत केशतृण, अकौवा के जड, तालीस पा लमालपत्रा,साल,पलाश,धूपसरल, इंगुली, मुलैठी,छोटी करंज, बडी करंज, गंधक, हरताल, मैनशिल, सफेद सरसों, कटेली, अकौवा, लाल सैंजन [रक्तशीग्रु] राल, मैनफल वृक्ष, बिल्ली का मल, गाय, घोडा, ऊंठ, गधा, कुत्ता इनके रोम, चर्म,दांत, सींग व मल इन सब को समभाग लेकर आठ प्रकार के (गाय बकरा भेड भैंस घोडा गधा ऊंट हाथी इनके) मूत्र में अच्छी तरह पीसकर कल्क तैयार करे और उपरोक्त औषधियों के क्वाथ भी बनालेवें । इन कल्कक्काथ से सिद्ध घृत तैल को इस गृहामथ में पान अभ्यंजन नस्यादि कार्यों में उपयोग करना चाहिये ॥ १३२ ॥ १३३ ॥ १३४ ॥ १ वृष इति पाठांतर. २ गोऽजाविमहिषाश्वानां खरोष्ट्रकरिणां तथा । मूत्राष्टकमिति ख्यातं सर्वशास्त्रेषु संमतम् ॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्रहभूततंत्राधिकारः। (१७८) AnnanAmAhmannaamnnAnamnnn. ग्रहामयन्न घृत, स्नान धूप, लेप. अभ्यंजनस्यनयनांजनपानकेषु । सर्पिः पुराणमपि तत्पारिपकमाहुः ।। स्नानं च तत्कथितभेषजसिद्धतोयैः । धूपं विलेपनमथ कृतचूर्णकल्कैः ॥ १३५ ॥ भावार्थ:-इस ग्रहामय में उन्ही औषधियोंसे पक्क पुराने घृत को अभ्यंग ( मालिश ) नस्य, नेत्रांजन, पानक आदि में उपयोग करना हितकर है । एवं उन ही औषधियोंसे सिद्ध पानसे रोगीको स्नान करावें । उन्हीं औषधियों के चूर्णसे धूपन . प्रयोग करना हितकर है ॥ १३५॥ उपसंहार इति कथितविशेषाशेषसद्भेषजैस्तत् । सदृशविरसबीभत्सातिदुर्गधजातैः ॥ विरचितबहुयोगैः धूपनस्यांजनाथै-। भिषगखिलविकारान्मानसानाशु जेयात् ॥१३६॥ भावार्थ:-समस्त प्रकार के मानसिक ( ग्रहगृहात ) विकारोंको आयुर्वेद शास्त्र में कुशल वैद्य उपर्युक्त प्रकार के विशिष्ट समस्त औषधियों के प्रयोग एवं तत्सदृश गुण रखनेवाले रसरीहत, देखनेमें घृणा उत्पन्न करनेवाले, अत्यंत दुर्गंधयुक्त औषधियों से तैयार किये हुए धूप, नस्य व अंजनादि अनेक प्रकार के योगों के प्रयोग से चिकित्सा कर जीतें ॥ १३६ ॥ अंत मंगल. इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः। सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो। निस्तमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ १३७ ॥ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७९) कल्याणकारक भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिये इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ १३७ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यविरचित कल्याणकारके चिकित्साधिकारे क्षुद्ररोगचिकित्सिते बालग्रहभूततंत्राधिकारेऽ प्यष्टादशः परिच्छदः । इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में क्षुद्ररोगाधिकार में बालग्रहभूततंत्रप्रकरण नामक अठारहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। -- - - - Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (१८०) अथ एकोनविंशः परिच्छेदः अथ विषरोगाधिकारः। मंगलाचरण व प्रतिज्ञा. त्रिभुवन सद्गुरुं गुरुगुणोन्नतचारुमुनि- । त्रिदशनरोरगार्चितपदांबुरुहं वरदं ।। शशिधवलं जिनेशमभिवंद्य विषापहरं । विषमविषाधिकारविषयककथा क्रियते ॥ १ ॥ भावार्थ:--तीन लोकके हितैषी गुरु, उत्तमोत्तम गुणोसे युक्त मुनिगण, देव, मनुष्य, धरणेद्र आदिसे पूजित चरण कमल जिनका, जो भव्योंकी इच्छा को पूर्ति करनेवाले हैं, चंद्रके समान उज्वल हैं, और विषयविषको अपहरण करनेवाले हैं ऐसे श्री जिनेंद्र भगवंत को नमरकार कर अब भयंकर विषसंबंधी प्रकरण का निरूपण किया जाता है ॥१॥ राजा के रक्षणार्थ वैद्य. नृपतिरशेषमंत्राविषतंत्राविदं भिषजं । कुलजमलोलुपं कुशलमुत्तमधर्मधनं ॥ चतुरुपधा विशुद्धमधिकं धनबंधुयुतं । विधिवदमुं विधाय परिक्षितुमात्मतनुम् ॥ २ ॥ भावार्थ:-जो राजा अपनी रक्षा करते हुए सुखसे जीना चाहता है यह अपने पास अपने शरीर के रक्षण करने के लिये समस्त मंत्रा व विषतंत्राको जाननेवाले, कुलीन, निर्लोभी, समरत कार्य में कुशल उत्तम धर्मरूपी धनसे संयुक्त,हरतरहसे उत्तम व्रत नियमादिकसे शुद्ध, अधिक धन व बंधुवोंसे युक्त वैद्य को योग्य रीतिसे रखें ॥ २ ॥ १ राजा के द्वारा पराजित शत्रुगग, आने कुकृत्योंसे राजाद्वारा दंडित व अपमानित मनुष्य किसीपर किसी कारण विशेष से राजा रुष्ट हो जावे वे, अथवा ईद्वेषादिसे युक्त. राजा के कुटुम्वी वर्ग, ऐसे ही अनेक प्रकार के मनुष्य अवसर पाकर राजाको विषप्रयोग से मार डालते हैं। कभी दुष्ट स्त्रियां अपने सौभाग्य की इच्छा से अर्थात् वशीकरण करने के लिये नानाप्रकार के विषयुक्त दुर्योगों को प्रयुक्त करती हैं। इन विषबाधाओं से बचने के लिये विषतंत्रप्रवीणवैद्य को राजा को अपने पास रखना पडता है। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८१) , कल्याणकारके वैद्यको पास रखनेका फल. स च कुरुते स्वराज्यमाधकं सुखभाक्सुचिरं । सकलमहामहीवलयशत्रुनृपप्रलयः ।। स्वपरसमस्तचक्ररिपुचक्रिकया जनितं । विविधविषोपसर्गमपहृत्य महात्मतया ॥ ३ ॥ भावार्थ:-वह समस्त भूमण्डलके राजावों के लिये प्रलय के रूप में रहनेवाला राजा अपने शत्रुमण्डल के द्वारा प्रयुक्त समस्त विषोपसर्ग को परास्त कर अपने प्रभाव से चिरकाल तक अपने राज्य को सुखमय बना देता है ॥ ३ ॥ __राजा के प्रति वैद्यका कर्तव्य. भिषगपि बुद्धिमान् विशदतद्विषलक्षणवित् । सुकृतमहानसादिषु परीक्षितसर्वजनः । सनतमिहाप्रमादचरितः स्वयमन्यमनो-- ॥ वचनकृतेंगितैः समभिवीक्ष्य चरेदचिरात् ॥ ४ ॥ भावार्थ:-विषप्रयोक्ता के लक्षण व विषलक्षण को विशद रूपसे जाननेवाले बुद्धिमान वैद्य को भी उचित है कि वह अच्छे दिग्देश आदि में शिल्प शास्त्रानुसार निर्मित, सर्वोपकरण सम्पन्न रसोई घर आदि में रसोईया व अन्य परिचारकजनोंको अच्छीतरह परीक्षा कर के रखें। स्वयं हमेशा प्रमादरहित होकर, विषप्रयोग करने वाले मनुष्य का मन, कार्योकी चेष्टा व आकृति आदिकों से उस को पहिचानें और प्रयुक्त विष का शीघ्र ही प्रतीकार कर के राजा की रक्षा करें ॥ ४ ॥ . विषप्रयोक्ताकी परीक्षा. . हसति स जल्पति क्षितिमिहालिखति प्रचुरं । विगतमनाच्छिनत्ति तृणकाष्टमकारणतः ॥ भयचकितो विलोकयति पृष्टमिहात्मगतं । न लपति चीत्तरं विरसवर्णविहीनमुखम् ॥ ५॥ इति विपरीतचेष्टितगणैरपरैश्च भिष--। ग्विषदमपोह्य सान्नमखिलं विषजुष्टमपि ।। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (४८२) जिनमुखनिर्गतागमविचारपराभिहितै- । रवितथलक्षणैः समवबुध्य यतेत चिरम् ॥ ६ ॥ भावार्यः-विषप्रयोग करनेवाला मनुष्य हसता है, बडबड करता है, जमीन को व्यर्थ ही खुरचता है, अव्यवस्थितचित्त होकर कारण के विना ही तृण काष्ठ आदिको तोडता रहता है । भयभीत होकर अपने पछि देखता है, कोई प्रश्न न करे तो भी उत्तर देता है । उसका मुख विरस व वर्णहीन हो जाता है, इन विपरीत व इसी प्रकार के अन्य विपरीतचेप्टासमूहों से विषप्रयोक्ता को पहिचानना चाहिये ( अर्थात् उपरोक्त लक्षण विषप्रयोग करनेवालों में पाये जाते हैं ) इसी प्रकार विषयुक्त अन्न ( भात ) आदि सभी पदार्थों को जिनेंद्र भगवान के मुखसे उत्पन्न हेत्वादि से अक्ति परमागममें कहे गये अव्यभिचारी लक्षणों से [ यह पदार्थ विषयुक्त है ऐसा ] जानकर उस के प्रतीकार आदि में परिश्रम पूर्वक कार्य करें ॥५॥६॥ .. प्रतिज्ञा. उपगतसद्विषेषु कथयामि यथाक्रमती । विविधविशेषभोजनगणेष्वपरेषु भृतं ।। विषकृतलक्षणानि तदनंतरमौषधम-1 प्यखिलविषप्रभेदविषवेगविधिं च ततः ॥ ७ ॥ भावार्थ:-आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं कि यहां से आगे क्रमशः नाना प्रकार के विशिष्ट भोजनद्रव्य व इतर आसन, वस्त्र पुष्पमाला आदि में विषप्रयोग करने पर उन द्रव्यों में जो विषजन्य लक्षण प्रकट होते हैं उन को, तत्पश्चात् उस के प्रतीकारार्थ औषेध, तदनंतर सम्पूर्ण विषोंके भेद, इस के भी बाद विषजन्य वेगों के स्वरूप को प्रतिपादन करेंगे ॥ ७ ॥ विषयुक्तभोजनकी परीक्षा.. बलिकृतभोजनेन सह मक्षिकसंहतिभि-। मेरणमिह प्रयांति बहुवायसपद्धतयः ।। हुतभुजि तभदृशं नटनटायति दत्तमरं ॥ शिखिगलनीलवर्णमतिदुस्सहधूमयुतं ॥ ८ ॥ १ दांतोन, स्नानजल, उवटन, काथ, छिडकने के वस्तु, चंदन, कस्तुरी आदि लेपन द्रव्य, शय्या, कवच, आभूषण, खडाऊ, आसन, घोडे व हाथी के पीठ, नस्य, धूवा (सिगरेट आदि ) व अंजन द्रव्य में विषप्रयोग किया करते हैं । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८३) कल्याणकारके भावार्थ:-भोजन द्रव्य प्रस्तुत होनेपर उस से एक दो प्रास बलि के रूप में बाहर निकाल कर रख देना चाहिये । यदि वह विषसंयुक्त हो तो उस में मक्खियां आकर बैठ जावें, कौवा आदि प्राणि खाजावें तो वे शीघ्र मर जाते हैं । उस अन्न को अग्नि में डालनेपर यदि " नटनट " " चटचट " शब्द करे, उससे मोर के गले के समान नीलवर्ण, व दुःसह [सहने को अशक्य] धुंवां निकलें (धूवा शीघ्र शांत नहीं होकर ज्योति भिन्न भिन्न होवें) तो समझना चाहिये कि वह अन्न विषयुक्त है । क्यों कि ये लक्षण विषयुक्त होने पर ही प्रकट होते हैं ॥ ८ ॥ परोसे हुए अन्न की परीक्षा व हातमुखगत विषयुक्त अन्न का लक्षण. विनिहितभोजनोर्ध्वगतबाष्पयुतालियुगं- । भ्रमति स नासिकाहृदयपीडनमप्यधिकम् ॥ करधृतमन्नमाशु नखशातनदाहकरं। मुखगतमश्मवच्च कुरुते रसनां सरजाम् ॥ ९॥ भावार्थ:-विषयुक्त अन्न को थाली आदि में परोसा जावें उस से उठी हुई भाप यदि लग जायें तो आखों में भ्रांतता होती है । नाक व हृदय में अत्यधिक पीडा होती है । उस अन्न को [ खानेको ] हाथ से उठावें तो फोरन नाखून फटने अथवा गिरने जैसा मालूम होता है और हाथमें जलन पैदा होती है । विषयुक्त अन्न ( प्रमाद आदिसे खाने में आजावें ) मुंह पर पहुंचते ही जीभ पत्थर के समान कठोर व रसज्ञान शून्य हो जाता है। और उस में पीडा होती है॥९॥ आमाशय पक्काशयगत विषयुक्त अन्नका लक्षण. हृदयगतं तु प्रसेकबहुमोहनदाहरुजं । वमनमहातिसारजडताधिकपूरणताम् ॥ उदरगतं करोति विषमिंद्रियसंभ्रमतां । द्रवगतलक्षणानि कथयामि यथागमतः ॥ १० ॥ भावार्थ:-वह विषयुक्त अन्न हृदय [ आमाशय ] में जावें तो अधिक लार टप १ आजकल भी बहुत से भोजनके पहिले एक ग्रास अन्न को अलग रखते हैं। बहुत से जगह जीमने को बैठने के पहिले बहुत से ग्रासोको मैदान व ऊंच स्थानों में रखते हैं। जबतक कौवा आदि नहीं खाघे भोजन नहीं करते हैं । यदि पितरोंके उद्देश से ऐसा करें तो भले ही मिथ्यात्व माने, लेकिन विषपरीक्षाके उद्देश से करें तो वह मिथ्यात्व नहीं है। इसलिये जैन धर्मावलम्बियों को भी यह विधेय विधान है । हेय नहीं । इससे ऐसा सिद्ध होता है। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । ( ४८४ ) कता है । एवं मूर्च्छा, दाह, पीडा, वमन, अतिसार, जडता व आध्मान ( अफराना) आदि विकार उत्पन्न होते हैं । यदि वह अन्न उदर [ पक्काशय ] में चला जावें तो इंदियों में अनेक प्रकार से भ्रम उत्पन्न होते हैं । इंद्रियों में विकृति होती है । वे अपने २ कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। आग क्रमशः द्रवपदार्थो में डाले हुए विष के लक्षणका कथन करेंगे ॥ १० ॥ द्रवपदार्थगत विषलक्षण. विषयुतसद्रवेषु बहुवर्णविचित्रतरं । भवति सुलक्षणं विविधबुदबुदफेनयुतम् ॥ यदपि च मुद्द्रमाषतुवरीगणपक्कर से । सुरुचिररेखया विरचितं बहुनीलिकया ११ ॥ भावार्थ:- द्रवपदर्थो [ दूध पानी आदि ] में विषका संसर्ग हो तो उन में अनेक प्रकार के विचित्र वर्ण प्रकट होते हैं । तथा उस द्रव में बुलबुले व झाग पैदा होते हैं । मूंग, उडद, तुवर आदि धान्यके द्वारा पकाये हुए रस में यदि विष का संसर्ग हो जाय तो उस में बहुतसी नीलवर्णकी रेखायें दिखने लगती हैं ॥ ११ ॥ मद्य तोयदधितक्रदुग्धगतविशिष्ट विषलक्षण. विषमपि मयतोयमुद्गतकालिकया । विलुलितरेखया प्रकुरुते निजलक्षणतां ॥ दधिगतमल्पपीतसहितं प्रभया सितया । सुरुचिरताम्रया पयसि तक्रगतं च तथा ॥ १२ ॥ 1 भावार्थ:- :- मद्य या जल में यदि विषका संसर्ग हुआ तो उसमें काले वर्णकी रखायें दिखने लगती हैं । दहीमें विष रहा तो वह दही सफेद वर्णके साथ जरा पि वर्णसे भी युक्त हो जाती है । दूध और छाछ में यदि विषमिश्रित होवें तो उन में लाल रंग की रेखायें पैदा होती हैं ॥ १२ ॥ द्रवगत, व शाकादिगत विषलक्षण. पुनरपि तवेषु पतितं प्रतिबिंत्रमिह । द्वितयमथान्यदेव विकृतं न च पश्यति वा ॥ अशन विशेषशाक बहुसूपगणोऽत्र विषा । द्विरसविकीर्णपर्युषितवच्च भवेदविरात् ॥ १३ ॥ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८५ ) कल्याणकारके भावार्थ:- विषयुक्त द्रवपदार्थों में पतित प्रतिबिम्ब एक के बजाय दो दीखने लगता है या अन्य विकृतरूप से दिखता है अथवा बिलकुल दीखता ही नहीं । भोजन विशेष [ भात, रोटी आदि ] शाक, दाल वगैरे विषदूषित होनेसे शीघ्र ही विरस फैले हुए अथवा फटे जैसे बासीके समान हो जाते हैं ॥ १३ ॥ दंतकाष्ठ, अवलेख, मुखवास व लेपगतविषलक्षण. विषयुतदंतकाष्ठमविशीर्णविकूचयुतं । भवति ततो मुखश्वयथुरुग्रविपाकरुजः ।। तदिव तदावलेखमुखवासगणेऽपि नृणां । स्फुटितमसूरिकाप्रभृतिरप्यनुलेपनतः ॥ १४ ॥ भावार्थ:- दतोन में विषका संसर्ग हो तो वह फटी छिदी या बिखरी हुईसी व कूचीसे रहित हो जाती है । ऐसे विषयुक्त दतोन से दांतून करनेसे मुंह में सूजन भयं - कर पाक, ( पकना ) व पीडा होती है । विषयुक्त अवलेख [ जीभ आदिको खुरचने की सलाई ] व मुखवास ( मुंह को सुगंधित करने का द्रव्य, सुगंधित दंतमंजन आदि ) के उपयोग से पूर्ववत् मुख में सूजन, पाक व पीडा होती है । विषयुक्त लपेनद्रव्य [ स्नोसेंट, चंदन आदि ] के प्रलेपन से मुख फट जाता है या स्फोट [फफोले ] मसूरिका आदि पिडकायें उत्पन्न होती हैं ॥ १४ ॥ वस्त्रमाल्यादिगतविषलक्षण. बहिरखिलांगयोग्य वरवस्तुषु तद्वदिह । प्रकटकषायतोयवसनादिषु श्रोफरुजः ॥ शिरसि सकेशशात बहुदुःखमिहास्रगति - । विवरमुखेषु संभवति माल्यविषेण नृणाम् ॥ १५ ॥ भावार्थ:- सर्व अंगोपांग के [ श्रृंगार आदि ] काम में आनेवाले, जल, वस्त्र, आदि विषजुष्टं पदार्थों के व्यवहार से सर्वशीर में सूजन व विषयुक्तमाला को शिर में धारण करने से, सिर के बाल गिर जाते हैं, पीडा होती है । रोमछिद्रों में से खून गिरने लगता है ॥ १५ ॥ मुकुटपादुकागत विषलक्षण. मुकुटशिरोब लेखन गणेष्वपि माल्यमिव । प्रविदितलक्षणैः समुपलक्षयितव्यमिह । सुगंध कषाय पीडा होती है । सिर में अत्यंत Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । । (१८६) अवदरणातिशोफबहुपादगुरुत्वरुजा। विषयुतपादुकायपकृताश्च भवेयुः ॥ १६ ॥ भावार्थ:-विषयुक्तमुकुट, शिरोऽवलेखन [ कंघा आदि ] आदि व्यवहार में आनेपर माला के विष के सदृश लक्षण प्रकट होते हैं। विषयुक्त पादुका [ खडाऊ जूता आदि ] के पहरने से पाद फट जाते हैं, सूजन हो जाती है, पाद भारी पीडा से संयुक्त ब स्पर्शज्ञान शून्य हो जाते हैं ॥ १६ ॥ वाहननस्यधूपगतविषलक्षण. गजतुरगोष्ट्रपृष्ठगतदुष्टविषेण तदा-। ननकफसंस्रवश्व निजधातुरिहोरुयुगे (१) ॥ गुदवृषणध्वजेषु पिटकावयथुप्रभवो । विवरमुखेषु नस्यवरधूपविषेऽस्रगतिः ॥ १७ ॥ ... भावार्थ:-हाथी, घोडा व ऊंठ के पीठपर विषप्रयोग करनेसे, उन सवारीयों के मुंह से कफ का स्राव होता है (आंखे लाल होती है) और धातु स्राव होता है । उन पर जो सवारी करते हैं उन के दोनों ऊरू में गुदा अण्डकोष में फुन्सी व सूजन हो जाती हैं। विषयुक्त नस्य व धूम के उपयोग से स्रोतों ( मुख नाक आदि ) से रक्त बहता है और इंद्रिय विकृत होते हैं ॥ १७ ॥ अंजनाभरणगतविषलक्षण. विकृतिरथेंद्रियेषु परितापनमश्रुगति-। विषबहलांजनेन भवति प्रबलाध्यमपि ॥ विषनिहतप्रभाणि न विभांत्यखिलाभरणा-। न्यतिविदहन्त्यरूंष्यपि भवंति तदाश्रयतः ।। १८ ॥ भावार्थ:-विषयुक्त अंजन के उपयोग से आंख में दाह, अश्रुपात, व अंधेपना भी आजाता है । विषसे दूषित आभरण उज्वल रूप से दिखते नहीं ( जैसे पहिले चमकते थे सुंदर दिखते थे वैसे नहीं दिखते ) और वैसे आभरणोंको धारण करनेसे उन अवयवोमें जलन होती है और छोटी २ फुन्सी पैदा होती हैं ॥ १८ ॥ १ इंद्रियोंमें विकृति नस्य व धूमप्रयोग से होती है। क्यों कि अंजन के प्रयोगसे केवल आंखोमें विकार उत्पन्न होता है अन्य इंद्रियों में नहीं । ग्रंथांतर में भी लिखा है। " नस्यधूमगते लिंगमिंद्रियाणां तु वैकृतम् ।” Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८७) कल्याणकारके marwariharanAAAA विषमभिवीक्ष्य तत्क्षणविरागविलोचनता । भवति चकोरनामविहगश्च तथा म्रियते ।। पुनरपि जीवनिजीवक इति क्षितिमल्लिखति । पृषतगणोऽति रौति सहसैव मयूरवरः ॥ १९ ॥ भावार्थ:-विषयुक्त भोजन द्रव्य आदि को देखने से चकोर पक्षी के आंख का रंग बदल जाता है । जीवनजीवक पक्षी मर जाते हैं । पृषत् (सामर) भूमि को खुरचने लगता है । मौर अकस्मात् शब्द करने लगता है ॥ १९ ॥ विषचिकित्सा. इति विषसंप्रयुक्तबहुवस्तुषु तद्विषतां । प्रबलविदाहदरणश्वयथुप्रकरैः॥ विषमवगम्य नस्यनयनांजनपानयुतैः। . विषमुपसंहरेद्वमनमत्र विरेकगणैः ॥ २० ॥ भावार्थः-प्रबल दाह, दरण [ फटजाना ] सूजन आदि उपद्रवों से उपरोक्त अनेक वस्तुवो में विषका संसर्ग था ऐसा जानकर उन पदार्थों के उपयोग से उत्पन विष विकारों को, उन के योग्य मस्य, नेत्रांजन, पानक, लेप आदिकों से एवं वमन व विरेचन से विष को बाहर निकाल कर उपशमन करना चाहिये ॥ २० ॥ क्षितिपतिरात्मदक्षिणकरे परिबंध्य विषं। क्षपयति मूषिकांजरुहामपि चागतं ॥ हृदयमिहाभिरक्षितुमनास्सपिबत्पथमं । घृतगुडमिश्रितातिहिमशिंबरसं सततम् ॥ २१ ॥ १ मृग पक्षियोंसे भी विष की परीक्षा कीजाती है। इसलिये राजावों को ऐसे प्राणियों को रसोई घर के निकट रखना चाहिये । २ मुद्रिकामिति पाठांतरं। इस पाठके अनुसार अनेक औषधियोंसे संस्कृत व विघ्नविनाशक रत्नोपरत्नों से संयुक्त अंगूठी को पहिनना चाहिये । श्लोकमें “परिवंध्य" यह पद होनेसे एवं ग्रंथातरो में भी “ मूषिका का पाठ होने से उसी को रखा गया है ! ३ चांतगतमिति पाठांतरं ।। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरेगाधिकारः। (४८८) भावार्थ:-राजा अपने दाहिने हाथ में मूषिको और अजहाँ नामक औषध विशेष को बांधलेवें तो उस हाथ से अव आदि कोई भी विषयुक्त पदार्थ का स्पर्श करने पर वे निर्विप हो जाते हैं। विषसे हृदय को रक्षण करने की इच्छा रखनेवाला राजा प्रथम घी व गुडसे मिश्रित अत्यंत ठंडा शिम्बी धान्यका रस [यूष हमेशा पीवें ॥२१॥ विषघ्न घृत. समधुकशर्करातिविषसहितेंद्रलता।. त्रिकटुकचूर्णसंस्कृतघृतं प्रविलिह्य पुनः ।। नृपतिरशंकया स गरमप्यभिनीतमरं । सरसरसान्नपानमवगृह्य सुखी भवति ॥ २२ ॥ भावार्थ:--मुलैठी, शक्कर, असीस, इंद्रलता, त्रिकटु इनके कषाय कल्क से संस्कृत घृत को विषपीडितको चटा देवें । उस के बाद अच्छे रससहित अन्नपानके साथ भोजन करावें जिससे विषकी पीडा दूर होती है ॥ २२ ॥ विषभेदलक्षणवर्णन प्रतिज्ञा अथ विषभेदलक्षणचिकित्सितमप्याखिलं । विविधविकल्पजालमुपसंहृतमागमतः ॥ सुविदितवस्तुविस्तरमिहाल्पवचोविभवः । कतिपयसत्पथैर्निगदितं प्रवदामि विदाम् ॥ २३ ॥ भावार्थ:--अब अनेक प्रकार के भेदोंसे युक्त सम्पूर्ण विष के भेद, लक्षण व चिकित्साको आगम से संग्रह करके, जिसका अत्यंत विस्तृत वर्णन होनेपर भी संक्षिप्त रूप से जैसे पूर्वाचार्योनें अनेक शुभ मागोंसे कथन किया है उसी प्रकार हम भी कथन करेंगे ॥ २३ ॥ - १ यह रोमवाली काली चूहेकी भांति होती है । २. इस का कंद सफेद छोटी २ फुन्सी के सदृश उठावसे युक्त होता है। उस को भेद करने पर सुरमा के सदृश काला दिखता है। ग्रंथांतर में कहा है। कदंःश्वतः सपिडको भेदे यांजनसन्निभः । गंधलेपनपानैस्तु विषं जरयते नृणां । दष्टानां विषपीतानां ये चान्ये विषमोहिताः। विषं जरयते तेषां तस्मादजरुहा स्मृता । मूषिका लोमशा कृष्णा भवेत् सापि च तद्गुणा। ... Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८९) कल्याणकारके त्रिविधपदार्थ व पोषकलक्षण. त्रिविधमिहादितं जगति वस्तुसमस्तमिदं । निजगुणयुक्तपोषकविघातक नोभयतः॥ दधिघृतदुग्धतक्रयवशालिमसरगुडा-। द्यखिलमपापहेतुरिति पोषकमात्महितम् ॥ २४ ॥ भावार्थ:-इस लोकमें जितने भी वस्तु हैं वे सब तीन भेदसे विभक्त हैं । एक पोषक गुणसे युक्त, दूसरा विघातक गुणसे युक्त व तीसरा पोषक व विघातक दोनो गुणोंसे रहित । दही, घी, दूध, छाछ, जौ, शालि, मसूर, गुड आदि के सेवन पापके कारण नहीं है और आत्माहत को पोषण करने वाला है । अतएव ऐसे पदार्थ पोषक कहालते हैं ॥ २॥ विघात व अनुभयलक्षण. विषमधुमद्यमांसनिकरायतिपापकरं । भवभवघातको भवति तच्च विघातकरं ॥ तृणबहुवृक्षगुल्मचयवीरुध एव तृणा-। मनुभयकारिणो भुवि भवेयुरभक्षगणाः ॥ २५ ॥ भावार्थ:-विष, मधु, मद्य, मांस आदि पदार्थ मनुष्यको अत्यंत पापार्जन करानेवाले हैं और भवभवको बिगाडनेवाले हैं। इसलिये उनको विघातक कहा है। घास, बहुतसे वृक्ष, गुल्म, वीरुध वगैरह मनुष्योंको न विघातक हैं न पोषक हैं । परंतु मनष्योंके लिये लोकमें ये अभक्ष्य माने गये हैं ॥ २५ ॥ मद्यपान से अनर्थ. नयविनयाद्युपेतचरितोऽपि विनष्टमना । विचरात सर्वमालपति कार्यमकार्यमपि ।। स्वसृदुहितृषु मातृषु च कामवशाद्रमते । शुचिमशुचिं सदा हरति मद्यमदान्मनुजः ॥ २६ ॥ अथ इह मद्यपानमातिपापविकारकरं । परुषतरामयैकनिलयं नरलाघवकृत् ॥ परिहृतमुत्तमैरखिलधर्मधनैः पुरुषै- । रुभयभवार्थघातकमनर्थनिमित्तमिति ।। २७ ॥ ६२ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः। ( ४९०) भावार्थः—मनुष्य नीति, विनय आदि सच्चरित्रोंसे युक्त होते हुए भी मद्य के मद से उसकी मानसिकविचारशक्ति नष्ट होकर वह इधर उधर [पागलों के सदृश फिजूल घूमता है । हेयाय विचाररहित होकर सर्व प्रकार के वचनोंको बोलता है । बडबड करता है । यह कार्य है यह अकार्य है इत्यादि भेदज्ञान उसके हृदयमें न होनेसे अकार्यकार्य को भी कर डालता है । स्वसृ ( मामी ) पुत्री व माता के साथ में भी कामांव होकर भोगता है । पवित्रा और अपवित्र पदार्थीको विवेकशून्य होकर खा लेता है ॥ २६ ॥ अतएव यह मद्यपान अत्यंत पाप व विकारको उत्पन्न करनेवाला है। एवं अनेक भयंकर रोगोंके उत्पन्न होनेके लिये एक मुख्य आधारभूत है । एवं यह मनुष्यको हलका बना देता है। इसलिये उत्तम धर्मात्मा पुरुषोंने उस मद्यपानको दोनों भवके कल्याणकी सामग्रियोंको घातन करनेका निमित्त व अत्यंत अनर्थकारी समझकर उसे छोड दिया है । वह सर्वदा हेय है ॥ २७ ॥ विष का तीन भेद. इति कथितेषु तेषु विषमेषु मयागमतः । पृथगवगृह्य लक्षणगुणैस्सह विधीयते ॥ त्रिविधविकल्पितं वनजजंगमकृत्रिमतः । सफलमिहोपसंहृतवचोभिरशेषहितं ॥ २८ ॥ भावार्थः-इसप्रकार कथन किये हुए विषमविषों का आगम के अनुसार पृथक् पृथक रूप से लक्षण व गुणों के कथनपूर्वक निरूपण किया जायगा। वह विष वनज ( स्थावर ) जंगम व कृत्रिम भेद से तीन प्रकार से विभक्त है। उन सब को बहुत संक्षेत्र के साथ सबके हितकी वांछा से कहेंगे ॥ २८ ॥ दशविवस्थावरविष. . स्थिरविषमत्र तदशविधं भवतीति मतं । सुविमलमूलपल्लवसुपुष्पफलपकरैः ।। त्वगपि च दुग्धनियसनतद्रुमसारवरै-। रधिकसुधातुभिर्वहुविधोक्तमुकंदगणः ॥ २९ ॥ भावार्थ:-बनज ( स्थावर ) विष दसग्रकार के होते हैं । मूलग [ जड ] विष, पत्राविष, पुष्पविष, फलविष, त्वम् [छाल] विष, दुग्धविष, वृक्षनिर्यास (गोंद) विष Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९१ ) कल्याणकारके रससारविष, धातुविष, कंदविष, इस प्रकार यह विष दस प्रकार का है, अर्थात् उपरोक्त मूल आदि [वनस्पति व पार्थिव, ] दश प्रकार के अवयबो में विष रहता है ।। २९ ॥ मूलपत्रफलपुष्पावेषवर्णन. अथ कृतकारकाश्ववरमारकगुंजलता - । प्रभृतिविषं भवेदमलमूलत एव सदा || विषदलिका करंभसहितानि च पत्रविषं । कनकसतुंबिकादिफलपत्रसुपुष्पविषं ॥ ३० ॥ भावार्थः -- कृतक, अरक, अश्वमार [ कमेर ] गुंजा [ घुंघची ] आदि के जड में विष रहता है । अतः इसे मूलविप कहते हैं । विषदलिका ( विषपत्रिका ) करंभ आदि के पत्रों विष रहता है । इसलिये वे पत्रविष कहलाते हैं । कनक ( धत्तूर ) तुम्बिका ( कडची लौकी) आदि के फल, पत्ते व फूल में विष रहता है । इसलिये फलविष आदि कहलाते हैं ॥ ३० ॥ सारनिय सत्यधातुविपवर्णन. विषमिह सारनिर्यसनचर्म च चिल्लेतरोदिनकरतिवस्तुहिगणोऽधिक दुग्धविषं ॥ जलहरितालगंधक शिलाघुरुधातुविषं । पृथगथ वक्ष्यते तदनु कंदविषं विषमम् ॥ ३१ ॥ भावार्थ:- चिल्ल वृक्ष के सारनिर्यास ( गोंद ) व छाल, सार, निर्यास, त्वग्विष कहलाते हैं । अकौवा, लोध, थूहर की सब जाति ये दुग्वविष हैं, अर्थात् इनके दूधमें विष है । जल, हरताल, गंधक, मैनसिल, संखिया आदि ये धातुविष हैं अर्थात् खानसे निकलनेवाले पार्थिव विष हैं । अब उपर्युक्त विषोंसे उत्पन्न पृथक् २ लक्षण कह कर पश्चात् कंदविष का वर्णन करेंगे ॥ ३१ ॥ रहता १ कृतक आदि जिन के दूसरे पर्याय शब्द टीका में न लिख कर वैसे ही उद्धृत किये गये हैं ऐसे विषों के पर्याय आदि किसी कोष में भी नहीं मिलता । यह भी पता नहीं कि यह कहां मिल सकता है । इन्हें व्यवहार में क्या कहते हैं । इसीलिये बडे २ टीकाकारोंने भी यह लिखा है कि परैरापे ज्ञातुमशक्यत्वात् तत्र तानि हिमवत्प्रदेशे किरात मूलादिविषाणां शबरादिभ्यो ज्ञेयानि २ बिल्ल इति पाठांतरं Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (४९२) AamrARANAPA N मूलादिविषजन्य लक्षण. प्रलपनमोहवेष्टनमतीव च मूलविषाच्छ्सनविज़ंभवेष्टनगुणा अपि पत्रविषात् ॥ जठरगुरुत्वमोहवमनानि च पुष्पविषात् । फलविषतोऽरुचिर्वृषणशाफविदाहयुतम् ॥ ३२ ॥ भावार्थ:-- यदि मूलविष खाने में आ जाय तो प्रलाप ( बडबडाना ) मूर्छा, व उद्वेष्टेन हो जाता है। पत्रविषके उपयोगसे श्वास, जम्भाई उद्वेष्टन उत्पन्न होता है। पुष्पविषसे पेटमें भारीपन, मूर्छा, वमन हो जाता है । फलविषसे अरुचि, अंडकोष में सूजन व दाह उत्पन्न होता है ॥ ३२ ॥ स्वक्सारनिर्यसनविषजन्यलक्षण. त्वगमलसारनिर्यसनवविषैश्च तथा । शिरसि रुजाननातिपरुषाध्यकफोल्वणता ।। गुरुरसनातिफेनवमनातिविरेकयुतम् । भवति विशेषलक्षणमिहाखिलदुग्धविषे ॥ ३३ ॥ भावार्थ:-त्वक् ( छाल ) सारनिर्यास [गोंद] विष से शिरोपीडा, मुखकाठिन्य, अंधेपना, कफातिरेक होते हैं । सम्पूर्ण दूधसंबंधी विष से जीभ के भारी होना मुख से अत्यंत फेन का वमन व अत्यंत विरेचन आदि लक्षण प्रकट होते हैं ॥ ३३ ॥ धातुविषजन्य लक्षण. हृदयविदाहमोहमुख शोषणमा भव- । दधिकृतधातुजेषु निखिलेषु विषेषु नृणां ॥ अथ कथितानि तानि विषमाणि विषाणि । पुरुषमकाल एव सहसा क्षपयंति भृशं ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-----धातुज सर्वविष के उपयोग से मनुष्यों में हृदयदाह, मूर्छा, मुखशोषण होता है । इस प्रकार पूर्वकथित समस्त भयंकरविष प्राणियों को उन के आयुष्यकी पूर्ति हुए विना ही अकाल में नाश करते हैं ॥ ३४ ॥ १ गीले कपडे से शरीर को ढकने जैसे विकार मालूम होना ।। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (४९३) त्रयोदशविधकंदजविष व कालकूटलक्षण. कंदजानि विषमाणि विषाणि ज्ञापयामि निजलक्षणभेदैः । कालकूटविषकर्कटकोद्यत् कर्दमाख्यवरसर्षपकेन ॥ ३५ ॥ वत्सनाभनिजमूलकयुक्तं पुण्डरीकसुमहाविषसम्भा। मुस्तया सहितमप्यपरं स्यादन्य हालहलनामविषं च ॥ ३६ ॥ मृत्युरूपनिजलक्षणपालाकाख्यमन्यदपर च तथा वै-। राटकोग्रविषमप्यतिघोरं वीरशासनवशादवगम्य ॥ ३७ ॥ तत्त्रयोदशविधं विषमुक्तलक्षणैस्समधिगम्य चिकित्सेत् ।। स्पर्शहानिरतिवेपथुरुद्यत् कालकूटविषलक्षणमेतत् ॥ ३८ ॥ भावार्थ:-कंदज विष अत्यंत भयंकर होते हैं, अब उन का लक्षण, भेदसहित वर्णन करेंगे । कालकूट, कर्कटक, सर्षपक, कर्दमक, वत्सनाभ, मूलक, पुण्डरीक, महाविष संभाविष [श्रृंगीविष ] मुस्तक, हालाहल, पालक, वैराटक इस प्रकार कंदज विष तेरहप्रकार के होते हैं । यह महावीर भगवान के शासन से जानकर कहा गया है। ये विष अत्यंत उग्र व घोर हैं और मनुष्यों को साक्षात् मृत्यु के समान भयंकर हैं। [ ये विष किसी प्रकार से उपयोग में आजाय तो ] इन विषों के पृथक् २ लक्षणों से विष का निर्णय कर उनकी चिकित्सा करनी चाहिये । कालकूट विष के संयोग से शरीर का स्पर्शज्ञानशक्ति का नाश व अत्यंत कम्प ( काम्पना ) ये लक्षण प्रकट होते हैं । ३५॥ ३६॥ ३७ ॥ ३८ ॥ कर्कटक व कर्दमकविषजन्यलक्षण. उत्पतत्यटति चातिहसत्यन्यानशत्यधिककर्कटकेन । कर्दमन नयनद्वयपीत सातिसारपरितापनमुक्तम् ।। ३९ ।। भावार्थ:-कर्कटक विषसे दूषित मनुष्य उछलता है । इधर उधर फिरता है। अत्यधिक हसता है। कर्दमक विषसे मनुष्यकी दोनों आंखे पीली होजाती है । और अतिसार व दाह होता है ॥ ३९ ॥ सर्षप वत्सनाभ विषजन्य लक्षण. . सर्षपेण बहुवातविकाराध्मानशलपिटकाः प्रभवः स्यात् ॥ पीतनेत्रमलमत्रकरं तद्वत्सनाभमतिनिश्चलकंठम् ॥ ४०॥ १ मर्कटक-इति पाठांतरं Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९४) कल्याणकारके भावार्थ:-सर्षपक विषसे अनेक प्रकारके वातविकार होते हैं। और पेटका अफराना, शूल व पिटक ( फुन्सी) उत्पन्न होते हैं तथा आंख, मल, मूत्रा पीले हो जाते हैं। गर्दनका बिलकुल स्तंभ होता है अर्थात् इधर उधर हिल नहीं सकता है ।।४०॥ मूलकपुंडरीकविषजन्यलक्षण. मूलकेन वमनाधिकहिका गात्रपोक्षविषमेक्षणता स्यात् । रक्तलोचनमहोदरता तत् पुण्डरीकविषमातिविषेण ॥ ४१ ॥ भावार्थ:-----मूलक विषसे अत्यंत वमन, हिचकी, शरीर की शिथिलता व आखों की विषमता होजाती है। पुंडरीक विषसे आंखे लाल होजाती हैं । और उदर फूल [ आध्मान ] जाता है ॥ ४१ ।। महाविषसांभाविषजन्यलक्षण. ग्रंथिजन्महृदयेप्यतिशूलं संभवेदिह महाविषदोषात् । संभयात्र बहुसादनजंघोरूदराद्यधिकशोफविवृद्धिः ॥ ४२ ॥ भावार्थ:-महाविष के दोष से ग्रंथि [गांठ] व हृदय में अत्यंत शूल उत्पन्न होता है। संभा [ श्रृंगी ] नामक विष से शरीर ढीला पड जाता है और जंघा[ जांघ ] उरू, उदर, आदि स्थानो में अत्यधिक शोफ उत्पन्न होता है ॥ ४२ ॥ स्तंभितातिगुरुकंपितगात्रो मुस्तया हततनुर्मनुजस्स्यात् । भ्रामतः श्वसिति मुह्यति ना हालाहलेन विगताखिलचेष्टैः ।। ४३ ॥ भावार्थ:-मुस्तकविषसे मनुष्यका शरीर स्तब्ध, भारी व कंप से युक्त होता है। हालाहल विषसे मनुष्य एकदम भ्रमयुक्त होते हुए व श्वाससे युक्त और मूछित होता है । उसकी सर्व चेष्टायें बंद होजाती हैं ॥ ४२-४३ ॥ पालकवैराटविषजन्यलक्षण. दुर्बलात्मगलरुद्धमरुद्वाक्संगवानिह भवेदिति पालाकेन तद्वदतिदुःखतनुर्वैराटकेन हृतविद्व लदृष्टिः ॥ ४४ ॥ भावार्थ:--पालाक विषके योग से एकदम दुर्बल होजाता है । उस का गला, श्वास, व वचन सब के सब रुक जाते हैं । एवं च चैराटक नामक विष से रोगी के शरीर में अत्यंत पीड़ा होती है । एकदम उसकी दृष्टि विह्वल होजाती है ॥ ४४ ॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (४९५) कंदजविषकी विशेषता प्रोक्तलक्षणविषाण्यतितीवाण्युग्रवीर्यसहितान्यहितानि । घ्नति तानि दशभिस्स्वगुणैर्युक्तानि मर्त्यमचिरादधिकानि ॥ ४५ ॥ भावार्थः-उपर्युक्त प्रकार के लक्षणों से वर्णन किये गये तेरह प्रकार के कंदजविष अत्यंत तीन व तीवीर्ययुक्त होते हैं और मनुप्योंका अत्यंत अहित करते हैं । ये कंदजविष तेरह प्रकारके स्वगुणोंसे संयुक्त होते हैं । अतएव ( अन्य विषोंकी अपेक्षा ) मनुष्योंको शीघ्र मार डालते हैं ॥ ४५ ॥ विषके दशगुण. रूक्षमुष्णमतितीक्ष्णमथाशुव्याप्यपाकिलघु चोपविकर्षि । सूक्ष्ममेव विशदं विषमेतन्मारयदशगुणान्वितमाशु ।। ४६ ॥ भावार्थ:--रूक्ष ( रूखा ) उष्ण [गरम ] तीदण (मिर्च आदि के सदृश ) आशु ( शीघ्र फैलाने वाला ) व्यापक (व्यवायि) (पहले सब शरीरमें व्याप्त होकर पश्चात् पकें ) अपाकि [ जठराग्निसे आहार ६. सदृश पकने में अशक्य ] लघु [हलका ] विकर्षि [ विकाशि ] ( संधिबंधनो को ढीला करने के स्वभाव ) सूक्ष्म [ बारीक से बाकि छिद्रोमें प्रवेश करनेवाला गुण ] विशद [ पिच्छिलता से रहित ] ये विषके दशगुण हैं । इन दश ही गुणोंसे संयुक्त जो भी विष मनुष्य को शीघ्र मार डालते हैं।॥४६॥ दशगुणोंके कार्य. रूक्षतोऽनिलमिहोष्णतया तत् कोपयत्यपि च पित्तमथास्रम् । मूक्ष्मतः सरति सर्वशरीरं तीक्ष्णतोऽवयवमर्मविभेदी ॥ ४७ ॥ भावार्थ:--विषके रूक्षगुण से वातोद्रेक होता है उष्ण गुणसे पित्त व रक्तका उद्रेक होता है । सूक्ष्मगुणयुक्त विष सर्वशरीर में सूक्ष्म से सूक्ष्म अवयवो में जल्दी पसरता है। तीक्ष्णगुण से अवयव व मर्मका भेद होता है ॥ ४५ ॥ व्यापकादखिलदेहमिहाप्नोत्याशु कारकतयाशु निहति । तद्विकार्षिगुणतोऽधिकधातून् क्षोभयन्त्यपि विशेद्विशदत्वात् ॥४८॥ भावार्थ:-व्यापक ( ज्यवायि ) गुण से वह सर्वदेह को शीघ्र व्याप्त होता है। आशु गुण से जल्दी मनुष्य का नाश होता है । विकार्षि ( विकाशि) गुण से सर्व धातु क्षुभित होते हैं और विशद से सर्व धातुवो में वह प्रवेश करता है ॥४८॥ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके लंघनादिह निवर्तयितुं तन्नैव शक्यमतिपाकिगुणत्वात् । क्लेशयत्यपि न शोधितमेतद्विश्वमाशु शमयद्विपमुग्रम् ॥ ४९ ।। भावार्थः-वह विष लघुगुण के कारण उसे शरीर से निकालने के लिये कोई चिकित्सा समर्थ नहीं होता है । अविपाकि गुण से युक्त होने से यदि उसका शोधन शीघ्र न करे तो वह अत्यधिक दुःख उत्पन्न करता है । यह सब तरह के विष अत्यंत भयंकर है । इसलिये इन को योग्य उपायों के द्वारा उपशमन करना चाहिये ॥४९॥ दूषीविषलक्षण. शीर्णजीर्णमनलाशनिपातात्यातपातिहिमवृष्टिविघृष्टम् । तद्विषं तरुणमुग्रविषघ्नैराहतं भवति दूषिविषाख्यम् ॥ ५० ॥ भावार्थ:-शीर्ण व जीर्ण [ अत्यंत पुराना ] होने से, आग से जल जाने से बिजली गिरजाने से, अत्यधिक धूपमें सूख जानेसे, अतिहिम [ बरफ ] व वर्षा पडमे से, व विषनाशक औषधियोके संयोग से जिस विषका गुण नष्टप्राय हो चुका हो अथवा (उपरोक्त कारण से दशगुणों में से कुछ गुण नाश हो चुका हो अथवा दशोगुण रहते हुए भी उनके शक्ति अत्यंत मंद हो गया हो ) जो तरुण [ पारपक्क ] हो उस विष को दूषीविष कहते हैं ॥ ५० ॥ दूषीविषजन्यलक्षण. छर्घरोचकतृषाज्वरदाह,श्वासकासविषमज्वर शोफो-। न्मादपन्यदतिसारमिदं दूषीविषं प्रकुरुते जठरंच ।। ५१ ॥ कार्यमन्यदथशोषमिहान्यद्वद्धिमन्यदधिकोद्धतनिद्राध्मानमन्यदपि तत्कुरुते शुक्लक्षयं बहुविधोग्रविकारान् ॥ ५२ ॥ भावार्थः-दूषीविष के उपयोग होकर जब वह प्रकोपावस्था को प्राप्त होता है तब वमन, अरोचकता, प्यास, ज्वर, दाह, श्वास, कास, विषमज्वर, सूजन, उन्माद ( पागलपना ) अतिसार व उदररोग [ जलोदर आदि ] को उत्पन्न करता है। अर्थात् दूषीविष के प्रकुपित होनेपर ये लक्षण ( उपद्रव ) प्रकट होते हैं। प्रकुपित कोई दूषी १ शरीर में रहा हुआ यह ( कम शक्तिवाला) विष विपरीत देशकाल व अन्नपानोंके संयोग से व दिन में सोना आदि विरुद्ध आचरणों से, प्रथम स्वयं बार २ होकर पश्चात् धातुओं को दूषित करता है ( अपने आप स्वतंत्र पसे धातुओं को दूषण करने की शक्ति इस के अंदर नहीं रहता है) अत इसे "दूषीविष" कहा है । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । ( ४९७ ) विष शरीर को कृश कर देता है, कोई सुखा देता है, कोई अंत्रवृद्धि या अंडवृद्धि आदिको को पैदा कर देता है । कोई तो अधिक निद्रा करता है । कोई पेटको फुला देता हैं, कोई शुक्रधातु का नाश करता है । यह दूषीविष इसी प्रकार के अनेक प्रकार के भयंकर रोगों को उत्पन्न करता है ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ स्थावरविष के सप्तवेग. प्रथमवेग लक्षण - स्थावरोग्रविषवेग इदानीमुच्यते प्रथमवेगविशेषे । स्तब्धकृष्णरसना सभयं मूर्च्छा भवेद्धृदयरुग्भ्रमणं च ॥ भावार्थ::- स्थावर विष के सात वेग होते हैं । अब उन वेगों के वर्णन I करेंगे । विष के प्रथमवेगमें मनुष्य की जीभ स्तब्ध [ जकडजाना ] व काली पड जाती है । भय के साथ मूर्च्छा हो जाती है । हृदय में पीडा व चक्कर आता है ।। ५३ ॥ द्वितीयवेगलक्षण. ५३ ॥ वेपथुर्गलरजातिविदाहस्वेदजु भणतृषोदरशूलाः । द्वितीयविषवेगकृतास्स्युः सांत्रकूजनमपि प्रबलं च ॥ ५४ ॥ भावार्थ:- विष के द्वितीयवेग में शरीर में कंप, गलपीडा, अतिदाह, पसीना, जंभाई, तृषा, उदरशूल आदि विकार उत्पन्न होते हैं एवं अंत में प्रबल शब्द [ गुडगुडाहट) भी होने लगता है ॥ ५४ ॥ तृतीयवेगलक्षण. ६३ आमशूलगलतालुविशोषोच्छन पीततिमिराक्षियुगं च । से तृतीयविषवेगविशेषात् संभवत्यखिलकंदविषेषु ।। ५५ ।। भावार्थ:- समस्त कंदज [ स्थावर ] विषोंके तीसरे वेग में आमाशय में अत्यंत 'शूल होता है [ इस वेग में विष आमाशय में पहुंच जाता है ] गला और तालू सूख जाते हैं । आखें सूज जाती है और पीली या काली हो जाती हैं ॥ 1 ५५ ॥ चतुर्थ वेगलक्षण. सांकूजनमथोदरशूला हिक्कया च शिरसोऽतिगुरुत्वम् । तच्चतुर्थविषवेगविकाराः प्राणिनामतिविषप्रभवास्ते ॥ ५६ ॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) कल्याणकारके saxhamakal भावार्थ:-- उग्र विषोंके भक्षण से जो चौथा वेग उत्पन्न होता है उस में प्राणियों के अंत्रामें गुडगुडाहट शब्द, उदरशूल, हिचकी और शिर अत्यंत भारी हो जाता है ।। ५६ ॥ पंचम व षष्टवेगलक्षण. पर्वभेदकफसंस्रववैवर्ण्य भवेदधिकपचमवेगे । सर्वदोषविषमोप्यातिसारः शूलमोहसहितः खलु षष्टे ॥ ५७ ॥ भावार्थ:-विषके पांचवें वेग में संधियो में भिदने जैसी पीडा होती है, कफ का स्राव [ गिरना ] होता है । शरीर का वर्ण बदल जाता है और सर्व दोषों [ वात पित्त कफों ] का प्रकोप होता है । विष के छटे वेग में बहुत दस्त लगते हैं । शूल होता है व वह मूछित हो जाता है ॥ ५७ ॥ सप्तमवेगलक्षण. स्कंधपृष्टचलनाधिकभंशाश्वासरोध इति सप्तमवेगे। तं निरीक्ष्य विषयेमबिधिज्ञः शीघ्रमेव शमयेद्विषमग्रम् ॥ ५८ ॥ भावार्थः- सातवें वेग में कंधे, पीठ, कमर टूटते हैं और श्वास रुक जाता है। उन सब विषवेगों को जाननेवाला वैद्य, उयरोक्त लक्षणो से विष का निर्णय कर के शीघ्र ही भयंकर विष का शमन करें ॥ ५८ ॥ विपचिकित्सा. प्रथमद्वितीयवेगचिकित्सा. वामयेत्प्रथमवेगविषांत शीततोयपरिषिक्तशरीरम् । पाययेध्दृतयुतागदमेव शोधयेदुभयतो द्वितये च ।। ५९ ॥ भावार्थ:-विषके प्रथमवेग में विषदूषित रोगी को यमन कराकर शरीर पर ठंडा जल छिडकना अथवा ठंडा पानी पिलाना चाहिये । पश्चास् घृत से युक्त अगद । विषनाशक औषधि पिलावें । द्वितीयवेग में वमन कराकर विरेचन कराना चाहिये ।। ५९ ॥ तृतीयच उर्थवेगचिकित्सा. नस्यमं ननमथागदपानं तत्तृतीयावेषवेगविशेपे । सर्वमुक्तमगदं घृतहीनं योजयेत्कथितवेगचतुर्थे ॥ ६० ॥ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (४९९) भावार्थ:-विष के तृतीय वेग में नस्य, अंअन व अगद का पान कराना चाहिये। चतुर्थ विषवेग में समस्त अगद घृतहीन करके प्रयोग करना चाहिये ॥ ६० ॥ पंचमषटवेगचिकित्सा. पंचमे मधुरभेषजनिषान्वितागदमथापि च षष्टे । योजयेत्तदतिसारचिकित्सां नस्यमजनमतिप्रबलं च ॥ ६१ ॥ भावार्थ:--विषके पंचमवेग में मधुर औषधियोंसे बने हुए काथ के साथ अगद प्रयोग करना चाहिये। और छठे विषवेग में अतिसाररोगकी चिकित्सा के सदृश चिकित्सा करें और प्रबल नस्य अंजन आदि का प्रयोग करें ॥ ६१॥ . सप्तमवेगचिकित्सा. तीक्ष्णमंजनमथाप्यवपीडं कारयोच्छिरसि काकपदं वा। सप्तमे विषकृताधिकवेगे निर्विषीकरणमन्यदशेषम् ॥ ६३ ॥ भावार्थ:-विष के सप्तमवेग में तीक्ष्ण अंजन व अवडिननस्य का प्रयोग करना चाहिये । एवं शिर में काकपद ( कौवेके पादके समान शस्त्र से चीरना चाहिये ) का प्रयोग और भी विष दूर करनेवाले समस्त्र प्रयोगों को करना चाहिये ॥ ६२॥ गरहारी घृत. सारिबाग्निककटुत्रिकपाठापाटलीककिणिहीसहरिद्रापीलुकामृतलतासशिरीषैः पाचितं घृतमरं गरहारी ॥ ६३ ॥ भावार्थ:-सारिवा, चित्रक, त्रिकटु, ( सोंठ मिर्च पीपल ) पाठा, पाढल, चिरचिरा, हलदी, पालुवृक्ष, अमृतबेल, शिरीष इनके द्वारा पकाया हुआ घृत समरत प्रकार के विषोंको नाश करता है ।। ६३ ॥ उपविषारीघृत. कुष्ठचंदनहरेणुहरिद्रादेवदारुबृहतीद्वयमंजि-। ष्ठापियंगुसविडंगसुनीलीसारिवातगरपूतिकरंजैः ॥ ६४ ॥ पकसपिरखिलोग्रविषारि तं निपव्य जयतीह विषाणि । पाननस्यनयनांजनलेपान्योजययेघृतवरेण नराणाम् ।। ६५ ॥ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५००) कल्याणकारके भावार्थ:-कूठ, चंदन, रेणुका हलदी, देवदारु, छोटी बडी कटेहरी, मंजीठ, फूलप्रियंगु, वायविडंग, नीलीवृक्ष, सारिवा, तगर, दुर्गंधकरंज, इनसे पका हुआ घृत समस्त उग्र विषोंको नाश करनेके लिये समर्थ है। [ इसलिये इसका नाम उपविषारि रखा है ] इसे सेवन करनेवाला समस्त विषोंको जीतता है । एवं विषपीडित मनुष्योंको इस उत्तम घृत से पान, नस्य, अंजन लेपनादिकी योजना करनी चाहिये ॥ ६४ ॥६५॥ दूधीविषारिअगद. पिप्पलीमधुककुंकुमकुष्ठध्यामकस्तगरलाध्रसमांसी-। चंदनोरुरुचकामृतवल्येलास्सुचूर्ण्य सितगव्यघृताभ्याम् ॥ ६६ ॥ मिश्रितौषधसमूहमिमं संभक्ष्य मंक्षु शमयत्यतिदूषी-। दुर्विषं विषमदाहषातीव्रज्वरप्रभृतिसर्वविकारान् ॥ ६७ ॥ भावार्थ:-पीपल, मुलैठी, कुंकुम [ केशर ] कूठ, ध्यामक [ गंधद्रव्य विशेष ] तगर, लोध, जटामांसी, चंदन, सज्जखिार, गिलोय, छोटी इलायची, इनको अच्छीतरह चूर्णकर शकर व गाय के घृतके साथ मिलावें, उसे यदि खावे तो दूषीविष, विषमदाह, तृषा, तीव्रज्वर आदि समस्त दूषीविषजन्य विकार शांत होते हैं ।। ६६॥ ६७ ॥ इति स्थावरविषवर्णन. अथ जंगमविषवर्णन. जंगमविष के षोडशभेद. जंगमाख्यविषपप्यतिघोरं प्रोच्यते तदनु षोडशभेदम् । दृष्टिनिश्वसिततीक्ष्णसुदंशालालमूत्रमलशुक्रनखानि ॥ ६८ ॥ वातपित्तगुदभागनिजास्थिस्पर्शदंशमुखशूकशवानि । पोडशप्रकटितानि विषाणि प्राणिनाममुहराण्यशुभानि ।। ६९ ॥ भावार्थ:-अब अत्यंत भयंकर जंगम ( प्राणिसम्बधी) विष का वर्णन करेंगे। इस विष के ( प्राणियों के शरीर में ) सोलह अधिष्ठान [ आधारस्थान ] हैं । इसलिये इसका भेद भी सोलह हैं । दृष्टि [ आंख ] निश्वास, डाढ, लाल [ लार ] मूत्र, मल १ सित इति पाठांतरं। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (५०१) maAAAA ( विष्ठा ) शुक्र [ धातु ] नख ( नाखून ) वात, पित्त, गुदाप्रदेश, अस्थि (हड्डी) स्पर्श, मुखसंदंश [ मुख के पकड ] शूक [डंक या कांटे ] शव [ मृत शरीर ] ये स्थावर विष के सोलह अधिष्ठान ( आधार ) हैं । अर्थात् उपरोक्त आधार में विष रहता है, वे विष प्राणियों के प्राणघात करनेवाले हैं, अतएव अशुभ स्वरूप हैं ॥ ६८ ॥ ६९ ॥ दृष्टिनिश्वासदंष्ट्रविष. दृष्टिनिश्वसिततीव्रविषास्त दिव्यरूपभुजगा भुवि जाता।... दंष्ट्रिणोऽश्वखरवानरदुष्टश्वानदाश्व [?] दशनोग्रविषायाः ॥ ७० ॥ भावार्थ:--जो दिव्ये सर्प होते हैं उन के दृष्टि व निश्वास में तीव्रविष रहता है। जो भूमि में उत्पन्न होनेवाले सामान्य सर्प हैं उन के दंष्ट्रा (डाढ) में विष होता है। घोडा, गधा, बंदर, दुष्ट (पागल) कुत्ता, बिल्ली आदि के दांतों में उग्रविष होता है ।।७०॥ दंष्ट्रनख विष. शिंशुमारमकरादिचतुष्पादप्रतीतबहुदेहिगणास्ते। .. . दंतपंक्तिनखतीविषोग्राभेकवर्गगृहकोकिलकाश्च ।। ७१ ॥ .. भावार्थ:--शिंशुमार (प्राणिविशेष ) मगर आदि चार पैरवाले जानवर व कई जाति के मेंडक (विषैली) व छिपकली दांत व नाखूनमें विषसंयुक्त होते हैं ॥ ७१ ॥ मलमूत्रदंष्ट्रशुक्रलालविष.... ये सरीसृपगणागणितास्ते मूत्रविड्दशनतीविषाढ्याः। मूषका बहुविधा विषशुक्रा वृश्चिकाच विषलालमलोग्राः ॥ १२ ॥ भावार्थ:-जो रेंगनेवाले जीव हैं उनके मूत्रा, मल व दांतमें तीव्रविष रहता है । बहुतसे प्रकार के चूहों को शुक्र [ धातु ] में विष रहता है । बिछुवों के लार व मल में विष रहता है ॥ ७२ ॥ स्पर्शमुखसंदंशवातगुदविष. ये विचित्रतनबो बहुपादाः स्पर्शदंशपवनात्मगुदोग्राः । दंशतः कुणभवर्गजलूका मारयति मुखतीव्रविषेण ॥ ७३ ॥ १ थे सर्प देवलोक में होते हैं। ऐसे सर्प केवल अच्छीतरह देखने व श्वास छोड़ने मात्र से विष फैल कर बहुत दूर तक उस का प्रभाव होता है ! Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०२) कल्याणकारके भावार्थ:---जो प्राणी बहुत विचित्रा शरीरवाले हैं जिनको बहुतसे पाद हैं वे स्पर्श मुखसंदंश, वायु व गुदस्थान में विषसहित हैं । कणभ [प्राणिविशेष ] जलौंक के मुखसंदंश में तीवविष रहता है ७३ ॥ ... अस्थिपित्तविष. कंटका बहुविषाहतदुष्टसर्पजाश्च वरकीबहुमत्स्या-। स्थीनि तानि कथितानि विषाण्येषां च पित्तमपि तीवविषं स्यात् ॥ ७४ ॥ भावार्थ:-कंटक [ कांटे ] विष से मरे हुए की हड्डी, दुष्टसर्प, वरकी आदि अनेक प्रकार की मछली, इन की हड्डी में विष होता है। अर्थात् ये अस्थिविष हैं। बरकी आदि मत्स्यों के पित्त भी तीव्र विषसंयुक्त है ॥ ७४ ॥ शूकशवविष. मक्षिकास्समशका भ्रमराद्याः शूकसंनिहिततीव्रविषास्ते । यान्यचित्यबहुकीटशरीराण्येव तानि शवरूपविषाणि ॥ ७५॥ भावार्थ:-मक्खी, मच्छर, भ्रमर आदि शूक [ कडा विषैला बाल ] विषसे युक्त रहते हैं। और भी बहुतसे प्रकार के अचिंत्य सूक्ष्म विषैले कीडे रहते हैं [जो अनेक प्रकार के होते हैं ] उनका मृत शरीर विषमय रहता है । उसे शवविष कहते हैं ॥ ७५ ॥ जंगमविषमें दशगुण. जंगमेष्वपि विषेषु विशेषप्रोक्तलक्षणगुणा दशभेदाः । 'संत्यधोऽखिलशरीरजदोषान् कोपयंत्यधिकसर्वविषाणि ॥ ७६ ॥ भावार्थ:-स्थावर विषोंके सदृश जंगम विषमें भी, वे दस गुण होते हैं। जिन के लक्षण व गुण आदिका [ स्थावर विषप्रकरण में ] वर्णन कर चुके है। इसलिये सर्व जंगमविष शरीरस्थ सर्वदोष व धातुओंको प्रकुपित करता है ॥ ७६ ॥ पांच प्रकार के सर्प तत्र जंगमविषेष्वतितीवा सर्पजातिरिह पंचविधोऽसौ । भोगिमोऽथ बहुमण्डलिनो रानीविराजितशरीरयुताश्च ॥ ७७ ॥ तत्र ये व्यतिकरप्रभवास्ते वैकरंजनिजनामविशेषाः । निर्विषाः शुकशशिप्रतिमामास्तोयतत्समय जाजगराद्याः ।। ७८ ।। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । ( ५०३ ) :-- अनेक प्रकार के मंडल ( लकीर ) रहती हैं भावार्थ: - उन जंगम विषो में सर्पजाति का विष अत्यंत भयंकर होता है । वह सर्प दवकर, मंडली, राजीमंत, वैकरंज, निर्विष, इस प्रकार पांच भेद से विभक्त है । जो फणवाले सर्प हैं उन्हे दवकर कहते हैं । जिस के शरीर पर [ चकत्ते ] होते हैं वे मंडलीसर्प कहलाते हैं । जिनपर रेखायें वेराजीमंत कहलाते हैं । अन्यजाति की सर्पिणी से किसी संयोग से जो उत्पन्न होता है उसे वैकरंज कहते हैं । संयुक्त है पांनी व पानीके समय ( वर्षात् ) में उत्पन्न होते 'शरीर का वर्ण तोते के समान हरा व चंद्रमा के समान सफेद है जाति के सर्प के जो विष राहत व न्यूनविष हैं या रहते हैं, * जिनके ऐसे सर्प व अजगर ( जो अत्यधिक लम्बा चौडा होता है मनुष्य आदिकोंको निगल जाता हैं ) आदि सर्प निर्विष कहलाते हैं ॥ ७७ ॥ ७८ ॥ सर्पविषचिकित्सा. दृष्टिनिश्वसिततीविषाणां तत्प्रसाधनकरौषधवगैः । का कथा विषमतीक्ष्णदंष्ट्राभिर्दशंति मनुजातुरगा ये ॥ ७९ ॥ तेषु दशविषवेगविशेषात्मीयदोष कृतलक्षणलक्ष्यान् । सच्चिकित्सितमिह विधास्ये साध्यसाध्यविधिना प्रतिबद्धम् ॥ ८० ॥ अन्य से - भावार्थ:- दृष्टिविष व निश्वास विश्वाले दिव्यसर्पों के विषशमनकारक औषधियों के सम्बध में क्या चर्चा की जाय ! ( अर्थात् उनके विषशमन करनेवाले कोई औषध नहीं हैं और ऐसे सर्पों के प्रकोप उसी हालत में होती है जब अधर्म की पराकाष्टा अदिस दुनिया में भयंकर आपत्तिका सान्निध्य हो ) जो भौमसर्प अपने विषम व तक्ष्ण डढों से मनुष्यों को काट खाते हैं, उस से उत्पन्न विषवेग का स्वरूप विकृत दोषजन्य लक्षण, "उसके [ विषके ] योग्य चिकित्सा, व साध्यासाध्यविचार, इन सब बातों को आगेवर्णन करेंगे ।। ७९ ।। ८० ।। सर्पदंश के कारण. -पुत्ररक्षणपरा मदमत्ता ग्रासलोभवशतः पदघातात् । स्पर्शतोऽपि भयतोऽपि च सर्पास्ते दर्शति बहुधाधिकरोत् ॥ ८१ ॥ भावार्थ:- वे सर्प अपने पुत्रोंके रक्षण करनेकी इच्छासे, मदोन्मत्त होकर, आहार के लोभ से [ अथवा काटने की इच्छासे ] अधिक धक्का लगने से, स्पर्शसे, क्रोक्से, प्रायः मनुष्यों को काटते ( डसते ) हैं ॥ ८१ ॥ १ भयभीतविसर्पा इति पाठांतरं । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०४) कल्याणकारके । त्रिविधदंश व स्वार्तलक्षण. दंशमत्र फणिनां त्रिविधं स्यात् स्वर्पितं रदितमुद्विहितं च । स्वर्पितं सविषदंतपदैरकद्विकत्रिकचतुभिरिह स्यात् ॥ ८२ ।। तन्निमग्नदशनक्षतयुक्तं शोफवद्विषमतीव्रविषं स्यात् ।। तद्विषं विषहरैरतिशीघ्रं नाशयेदशनकल्पमशेषम् ॥ ८३ ॥ भावार्थ:-- सोका दंश तीन प्रकार का होता है । एक स्वर्पित, दूसरा रचित व तीसरा उद्विहित । सर्प जब अपभे एक, दो, तीन या चार विषैले दांतों को लगाकर काट खाता है उसे स्वर्पित कहते हैं । वह दांतोंकी घाव से युक्त वेदना शोफ के समान ही अत्यंत तंत्र विषयुक्त होती है । उसे विषनाशक क्रियाको जाननेवाले वैद्य शीघ्र दूर करें । दान्तों के बावको भी दूर करें ॥ ८२ ॥ ८३ ॥ ' रचित [ रदित ] लक्षणः लोहितासितसितातिराजीराजितं श्वयथुमञ्च यदन्यत् । बद्भवेद्रचितमल्पविषं ज्ञात्वा नरं विविषमाश्विह कुर्यात् ॥ ८४ ॥ भावार्थ:-जो दंश लाल, काले व सफेद वर्ण युक्त लकीर [ रेखा ] से युक्त हो (जखम न हो) साथ में शोथ ( सूजन ) भी हो उसे राचित ( रदित ) नामक सर्प दंश समझना चाहिये। वह अल्पविष से युक्त होता है। उसे जानकर शीघ्र उस विष को दूर करना चाहिये ॥ ८४ ॥ उद्विहित (निर्षिष ) लक्षण. स्वस्थ एव मनुजोप्यहिदष्टः स्वच्छशोणितयुतक्षतयुक्तः। यत्क्षतं श्वयथुना परिहीनं निर्विषं भवति तद्विहिताख्यम् ॥ ८५ ॥ भावार्थ:-सर्पसे डसा हुआं मनुष्य स्वस्थ ही हो [शरीर वचन आदि में किसी प्रकार की विकृति. न आई हो ] उस का रक्त भी दूषित न हो, कटा हुआ स्थानपर जखम ( दांतों के चिन्ह ) मालूम हो, लेकिन उस जगहमें सूजन न हो ऐसे सर्पदंश [सर्प का काटना ] दांतों के चिन्हों (क्षत )से युक्त होते हुए भी निर्विष होता है। उसे उद्विहित (निर्विष ) कहते हैं ।। ८५ ॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः। (५०५) साँगाभिहतलक्षण. भीरुकस्य मनुजस्य कदाचिज्जायते श्वयथुरप्यहिदेह-। स्पर्शनात्तदभिघातनिमित्तात् क्षोभितानिलकृतो विविषोऽयम् ॥ ८६ ॥ भावार्थ:-जो मनुष्य अत्यंत डरपोक हो उसे कदाचित् सर्प के शरीर के स्पर्शसे [ उसी के घबराहट से ] कुछ चोट भी लग जाय तो इस भय के कारण से [ या उसे यह भ्रम हो जायें कि मुझे सर्प डसा है ] शरीर में वात प्रकुपित होकर सूजन उत्पन्न हो जाती है उसे सपांगाभिहत कहते हैं। यह निविष होता है ॥ ८६ ॥ दीकर सर्पलक्षण. छत्रलांगलशशांकसुचक्रस्वस्तिकांकशधराः फणिनस्ते । यांति शीघ्रमचिरात्कुपिता दर्वीकराः सपवनाः प्रभवंति ॥ ८७ ॥ भावार्थ:-जिन के शिरपर छत्रा, हल, चंद्र, चक्र (पहिये) स्वस्तिक व अंकुश का चिन्ह हो, फण हो, जो शीघ्र चलनेवाले व शीघ्र कुपित होते हों, जिन के शरीर व विष में वात का आधिक्य हो उन्हे दवकिर सर्प कहते हैं ॥ ८७ ॥ मंडलसर्पलक्षण. मण्डलैबहुविधैर्बहुवर्णैश्चित्रिता इव विभांत्यतिदीर्घाः । मंदगामिन इहाग्निविषायाः संभवंति भुवि मण्डलिनस्ते ॥ ८८॥ भावार्थ:-अनेक प्रकार के वर्ण के मंडलों ( चकत्तों ) से जिनका शरीर चित्रित के सदृश मालूम होता हो एवं धीरे २ चलने वाले हों, अत्यंत उष्णविषसे संयुक्त हों, अत्यधिक लम्बे [ व मोठे ] हों ऐसे सर्प जो भूमि में होते हैं उन्हे मंडलीसर्प कहते हैं ॥ ८८ ॥ राजीमंतसपलक्षण. चित्रिता इव सुचित्रविराजीराजिता निजरुचे स्फुरितामा। वारुणाः कफकृता बरराजीमंत इत्यभिहिताः भुवि सर्पाः ।। ८९॥ भावार्थ:-जो चित्रविचित्र (रंगबिरंगे) तिरछी, साधी, रेखावों [ लकीरों ] से चित्रित से प्रतीत होते हों, जिनका शरीर चमकता हो, कोई २ लालवर्णवाले हों जिनके शरीर व विषमें कफकी अधिकता हो उन्हे राजीमंत सर्प कहते हैं ।। ८९ ॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके सर्पजविषोंसे दोषों का प्रकोप. भोगिनः पवनकोपकरास्ते पित्तमुक्तबहुमण्डलिनस्ते । जीवराजितशरीरयुताश्लेष्माणमुग्रमधिकं जनयति ॥ ९० ॥ भावार्थः-दर्वीकर सर्प का विष वात प्रकोपकारक है। मंडली सर्प का विष पित्त को कुपित करनेवाला है तो राजीमंतसर्प का विष कफ को क्षुभित करता है ॥९०॥ . वैकरंज के विष से दोषप्रकोप व दीकर दष्टलक्षण. यद्वयव्यतिकरोद्भवसस्तेि द्विदोषगणकोपकरास्ते । वातकोपजनिताखिलचिन्हास्संभवंति फणिदष्टविषेऽस्मिन् ॥ ९१ ॥ भावार्थ:-दो जाति के सर्प के सम्बंध से उत्पन्न होनेवाले वैकरंजनाम के सर्प का विष दो दोषों का प्रकोप करनेवाला है। दर्वीकर सर्प से डसे हुए मनुष्य के शरीर में बातप्रकोप से होनेवाले सभी लक्षण प्रकट होते हैं ॥ ९१ ॥ मंडलीराजीमंतदष्टलक्षण. पित्तजानि बहुमण्डलिदष्टे लक्षणानि कफजान्यपि राजी-। मद्विषपकाटितानि विदित्वा शोधयेत्तदुचितौषधमंत्रैः ॥ ९२ ॥ भावार्थ:-मंडली सर्प के काटनेपर पित्तप्रकोप से उत्पन्न दाह आदि सभी लक्षण प्रकट होते हैं। राजीमंत सर्प के काटने पर कफप्रकोप के लक्षण प्रकट होते हैं । उपरोक्त लक्षणों से यह जानकर कि इसे कौनसे सर्प ने काट खाया है, उन के उचित औषध व मत्रों से उस विष को दूर करें ॥ ९२ ॥ दकिरविषज सप्तवेग का लक्षण. दर्वीकरोगाविषवेगकृतान्विकारान् वक्ष्यामहे प्रवरलक्षणलक्षितास्तान् । भादौ विष रुधिरमाशु विदृष्य रक्तं कृष्णं करोति पिशितं च तथा द्वितीय ९३ चक्षुर्गुरुत्वमधिकं शिरसो रुजा च तद्वत्तीयविषवेगकृतो विकारः। कोष्ठं प्रपद्य विषमाशु कफप्रसेकं कुर्याच्चतुर्थविषमविशेषितस्तु ॥ ९४ ॥ स्रोतः पिधाय कफ एव च पंचमेऽस्मिन् वेगे करोति कुपितः स्वयम्सग्रहिक्का । : षष्टे विदाहहृदयग्रहमूर्छनानि प्रागैर्विमोक्षयति सप्तमवेगजातः ।। ९५ ॥ भावार्थः -- दर्वीकर सर्प के उग्रविष से जो विकार उत्पन्न होते हैं उन का उन के विशिष्ट लक्षणों के साथ वर्णन करेंगे । दर्वीकर [ फणवाला ] सर्प के काटने पर सब Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । ( ५०७ ) से पहिले विष (प्रभ्रम वेग में ) रक्त को दूषित कर रक्त को काला कर देता है [ जिस से शरीर काला पड जाता है और शरीर में चींटियों के चलने जैसा मालूम होता है ] द्वितीयवेग में विष मांस को दूषित करता है [ जिस से शरीर अत्यधिक काला पड जाता है शरीर पर सूजन गांठें हो जाती हैं ] तीसरे वेग में ( विष मेद को दूषित करता है जिस से ) आंखो में अत्यधिक भारीपना व शिर में दर्द होता है। चौथे वेग में कोष्ठ [ उदर ] को प्राप्त हो कर कफ को गिराता है अर्थात् मुंहसे कफ निकलने लगता ( और संधियों में पीड़ा होती है ) पांचवें वेग में विष के प्रभाव से प्रकुपित कफ स्रोतों को अवरोध कर के भयंकर हिचकी को उत्पन्न करता है । छठे वेग में अत्यंत दाह (जलन) हृदयपीडा होती हैं और वह व्यक्ति मूर्छित हो जाता है। सातवें वेग में विष प्राण का नाश करता है अर्थात् उसे मार डालता है ॥ ९३ ॥ ९४ ॥ ९५ ॥ मंडली सर्पविषजन्य सप्तवेगों के लक्षण. तद्वच्च मण्डविषेऽपि विषप्रदुष्टं रक्तं भवेत्प्रथमवेगत एव पीतम् । मांस सपीतनयनाननपाण्डुरत्वमापादयेत्कटुकवक्त्रमपि द्वितीये ।। ९६ ॥ तृष्णा तृतीयविषवेगकृता चतुर्थे तीव्रज्वरो विदितपंचमतो विदाहः । स्यात्पष्टसप्तमविषाधिक वेगयोरप्युक्तक्रमात्स्मृतिविनाशयुतामुमोक्षः ||९७|| भावार्थ:— मंडली सर्प के उसने पर, उस विष के प्रथमवेग में विष के द्वारा रक्त दूषित होकर पीला पड जाता है । द्वितीयवेग में विष मांस को दूषित करता है जिससे आंख, मुख आदि सर्व शरीर पांडुर वा अत्यधिक काला हो जाता है । मुंह कडवा भी होता है । तृतीयवेग में अधिक प्यास, चतुर्थवेग में तीव्रज्वर व पांचवें वेग में अत्यंत दाह होता है । षष्ट वेग में हृदयपीडा व मूर्च्छा होती है । सप्तमवेग में प्राण का मोक्षण होता है ॥ ९६ ॥ ९७ ॥ राजीमंतसर्पविषजन्य सप्तवेगों का लक्षण. राजीमतामपि विषं प्रथमोरुवंगे । रक्तं प्रदूष्य कुरुतेऽरुणपिच्छिलाभं ॥ मांस द्वितीयविषवंगत एव पाण्डे । लालासृतिं सुबहुलामपि तत्तृतीये ॥ ९८ ॥ मन्यास्थिरत्वशिरसोतिरुजां चतुर्थे । वा संगमाशु कुरुतेऽधिकपंचमेऽस्मिन् ॥ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०८) कल्याणकारके w-mwomeranimisma वेगे विषं गलनिपातमपीह षष्टे । प्राणक्षयं बहुकफादपि सप्तम तत् ॥ ९९ ॥ भावार्थ:-राजीमंत सर्प के काटने पर उत्पन्न विषके प्रथमवेग में रक्त दूषित — होकर वह लाल पिलपिले के समान हो जाता है । द्वितीयवेग में मांसको दूषित करता है और अत्यंत सफेद हो जाता है। तृतीयविषवेग में लार अधिक रूप से बहने लगती है। चतुर्थवेग में मन्यास्तम्भ व शिर में अत्यधिक पीडा होती है। पंचमवेग में वचन बंद [ बोलती बंद ] हो जाता है । छठे वेग में उसका कंठ रुक जाता है। सातवें वेग में अत्यधिक कफ बढनेसे प्राणक्षय हो जाता है ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ दंशमें विष रहनेका काल व सप्तवेगकारण. पंचाशदुत्तरचतुश्शतसंख्ययात्तमात्रास्थित विषमिहोगतयात्मदंशे । धात्वंतरेष्वपि तथैव मरुद्विनीतं वेगांतराणि कुरुते स्वयमेव सप्त ॥१०॥ भावार्थ:--विष अपने दंश [ दंशस्थान-काटा हुआ जगह ] में ( ज्यादा से ज्यादा ) चारसौ पचास ४५० मात्रा कालसक रहता है । शरीरगत रस रक्त आदि धातुओं को भेदन करते हुए, वायुकी सहायतासे जब वह विष एक धातुसे दूसरे धातु तक पहुंचता है तब एक वेग होता है। इसीतरह सात धातुओं में पहुंचने के कारण सात ही वेग होते हैं [ आठ या छह नहीं ] ॥ १०० ॥ शस्त्राशनिप्रतिममात्मगुणोपपन्न । वेगांतरेष्वनुपसंहृतमौषधाथै- ॥ राश्वेव नाशयति विश्वजनं विषं तत । तस्माद्वीम्यगदतंत्रमथात्मशक्त्या ॥ ११ ॥ भावार्थ:---सपो के विष भी शस्त्रा व बिजली के सदृश शीघ्र मारक गुण से संयुक्त है । ऐसे विष को उस के अंगों के मध्य २ में ही यदि औषधि मंत्र आदि से शीघ्र दूर नहीं किया जावें अथवा शरीर से नहीं निकाला जावें तो वह प्राणियों को शीघ्र मार डालता है । इसलिये अपनी शक्ति के अनुसार (इस विष के निवारणार्थ) अगदतंत्रा ( विष नाशक उपाय ) का वर्णन करेंगे ॥ १०१ ॥ १ हाथ को घुटने के ऊपर से एकवार गोल घुमाकर एक चुटकी मारने तक जो समय लगता है उसे एक मात्रा काल कहते हैं । २ जैसे विष जब रस धातुमें पहुंचता है तब प्रथमवेग, रस से रक्त को पहुंचाता है तो दूसरे वेग होता है इत्यादि। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (५०९) सर्पदष्टचिसिरसा. . सर्वैस्सपैरेव दष्टस्य शाखामूर्ध्व बध्या चांगुलीनां चतुष्के । उत्कृत्यामृन्मोक्षयेदंशतोन्यत्रोत्कृत्याग्नौ संदहेच्चूषयेद्वा॥ १०२ ॥ भावार्थ:-सर्व प्रकार के सर्पो में से कोई भी सर्प हाथ या पांव में काटा हो तो उस काटे हुए जगह से चार अंगुल के ऊपर [ कपडा, डोरी, वृक्ष के छाल आदि जो वखत में मिल जाय उन से ] कसकर बांध लेना चाहिये । पश्चात् काटे हुए जगह को किसी शस्त्र से उखेर कर ( मांस को उखाड कर ) रक्त निकालना चाहिये [जिस से वह विष रक्त के साथ निकल जाता है ] । यदि ( हाथ पैर को छोड कर ) किसी स्थान में अन्यत्र काटा हो, जहां बांध नहीं सके वहां उखेर कर अग्निसे जला देवें अथवा मुख में मिट्टी आदि भर कर उस विष को चूस के निकाल देवें ॥ १०२ ॥ सर्पविषमें मंत्रकी प्रधानता. मंत्रैस्सर्व निर्विषं स्याद्विषं तद्यद्वत्तद्वद्भेषज व साध्यम् । शीघ्रं मंत्रैर्जीवरक्षां विधाय प्राज्ञः पश्चाद्योजयेद्भेषजानि ॥१०३ ॥ भावार्थ:-जो विष औषधियों से साध्य नहीं होता है ( नहीं उतरता है ) ऐसे भी सर्व प्रकार के विष मंत्रों से साध्य होते हैं । इसलिये शीघ्र मंत्रों के प्रयोग से पहिले जीवरक्षा कर तदनंतर बुद्धिमान् वैद्य औषधियोजना करें ।। १०३ ॥ विषापकर्षणार्थ रक्तमोक्षण. दंशार्ध्वाधस्समस्ताः शिरास्ता विद्वानस्त्राद्धंधनाद्रक्तमोक्षम् । कुर्यात्सर्वांगाश्रितोग्रे विषेऽस्मिन् तद्वद्धीमान् पंचपंचांगसंस्थाः ॥ १०४॥ भावार्थ:-जहां सर्पने काटा हो उस के नीचे व ऊपर [ आसपास में ] जितने शिरायें हैं उन में किसी एक को अच्छीतरह बांधकर एवं अस्त्रसे छेद कर रक्तमोक्षण करना चाहिये। ( अर्थात् फस्त खोलना चाहिये । ) यदि वह विष सर्वांगमें व्याप्त हो तो पंचांग में रहनेवाली अर्थात् हाथ पैर के अग्रभाग में रहनेवाली या ललाट प्रदेश में रहनेवाली शिराओं में से किसी को व्यध कर रत्तमोक्षण करें ॥ १०४॥ १ इस प्रकार बांधनेसे रक्तवाहिनियां सकुंचित होकर नीचे का रक्त नीचे, ऊपर का ऊपर ही रह जाता है, जिससे विष सर्व शरीर में नहीं फल पाता है, क्यों कि रक्तके द्वारा ही विष फैलता है। २ दो हाथ, दो पैर, एक शिर, इन्हे पंचांग कहते हैं । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१०) कल्याणकारके more रक्तमोक्षण का फल. दुष्ट रक्त निहते तद्विषाख्यं शीघ्र सर्व निर्विषत्वं प्रयाति । पश्चाच्छीताभाभिषिक्तो विषातों दध्याज्यक्षारैः पिवेदोषधानि ॥१०५|| भावार्थ:-दुष्टरक्त को निकालने पर वह सम्पूर्ण विष शीघ्र दूर होजाता है । तदनंतर उस सर्पविषदूषित को ठण्डे पानी से स्नान कराना चाहिये । बाद में दही, घी व दूध के साथ औषधियोंको पिलायें ॥१०५॥ दीकर सपोंके सप्तवेगों में पृथक् २ चिकित्सा. शस्त्रं प्राक् दर्वीकराणां तु वेगे रक्तस्रावस्तद्वितीयेऽगदानाम् । पानं नस्यं तत्तृतीयेऽजनं स्यात् सम्यग्वाम्यस्तच्चतुर्थेऽगदोपि ॥ १०६ ॥ पोक्तं वेगे पंचमे वापि षष्टे शीतैस्तायैर्ध्वस्तगात्रं विषार्तम् । शीतद्रव्यालेपनैः संविलिप्तम् तीक्ष्णैरूज़ शोधयेत्तं च धीमान् ॥ १०७ ॥ वेगेप्यस्मिन्सप्तमे चापि धीमान् तीक्ष्णं नस्यं चांजनं चोपयुज्य । कुयोन्मूनाशुक्षतं काकपादाकारं सांद्रं च तत्र प्रदध्यात् ॥ १०८ ॥ भावार्थ:-दर्वीकर सो के प्रथमवेग में शस्त्रप्रयोग कर रक्त निकालना चाहिये । द्वितीयवेग में अगदपान कराना चाहिये । तृतीय वेग में विषनाश, नस्य व अंजन का प्रयोग करना चाहिये । चतुर्थवेग में अच्छीतरह वमन कराना चाहिये । पूर्व कथित पंचम व षष्ट वेग में शीतल जलसे स्नान [वा धारा छोडनाव शीतल औषधियों का लेप कर के बुद्धिमान् वैद्य तीक्ष्ण ऊर्ध्वशोधन ( वमन ) करावें । सातवें वेग में तीक्ष्ण नस्य व अंजन प्रयोग कर मरतक के मध्यभाग में कौवे के पैर के आकार के शस्त्र से क्षत ( जखम ) कर के मोठे चर्म को उस के ऊपर रख देवें ॥ १०६ ॥ ॥ १०७ ॥ १०८ ॥ ___ मंडली व राजीमंतसों के सप्तवेगोंकी पृथक् र चिकित्सा. प्राग्वेगेऽस्मिन् मण्डलैपण्डितानां अस्त्राण्येव नातिगाढं विदध्यात् । सर्पिमिश्रं पाययित्वागदं तं शीघ्र सम्यग्वामयत्तद्वितीये ॥ १०९ ।। तद्वाम्यस्तत्ततीये तु वेगे शेषेष्वन्यत्पूर्ववत्सर्वमेव । रानीमद्भिर्दष्टवेगेऽपि पूर्व सम्यक्शस्त्रेणातिगाढ़ विदार्य ॥११०॥ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (५११) सांतर्दीपालाबुना तत्र दुष्टं रक्तं संशोध्यं भवेनिर्विषार्थम् । छदि कृत्वा तद्वितीयेऽगदं वा तत्सिद्धं वा पाययेत्सद्यवागूम् ॥ १११ ॥ शेषान् वेगानाशु दकिराणां वेगपूतैरौषधैस्साधयेत्तान् । ऊर्ध्वाधस्संशोधनस्तीवनस्यैः साक्षात्तीक्ष्णैरंजनाचैरशेषैः ॥ ११२ ॥ भावार्थ:---मंडली सर्प के दंश से उत्पन्न विष के प्रथमवेग में अधिक गहरा शस्त्र का प्रयोग न करते हुए साधारणरूप से छेद कर रक्तमोक्षण करना चाहिये । द्वितीयवेग में घृतमिश्रित अगद पिलाकर पश्चात् शीघ्र ही वमन कराना चाहिये। तीसरे वेग में भी उसी प्रकार वमन कराना चाहिये । बाकी के चतुर्थ पंचम षष्ट व सप्तम वेग में दर्वीकर सर्प के वेगों में कथित सर्वचिकित्सा करनी चाहिये। राजीमंत सर्प के विष के प्रथमवेग में शस्त्र द्वारा अधिक गहरा दंश को विदारण (चीर ) कर जिस के अंदर दीपक रखा हो ऐसी तुम्बी से विषदूषित रक्त को निकालना चाहिये जिससे वह निर्विष हो जाय । द्वितीयवेग में वमन कगकर अगदपान करावें अथवा उस अगद से सिद श्रेष्ठ यवागू पिलावें । इस के बाकी के तृतीय आदि वेगों में दर्वीकर सर्पके विष के उन धेगोमें कथित औषध, वमन, विरेचन, तबिनस्य व तीदणअंजनप्रयोग आदि सम्पूर्ण चिकित्साविधि द्वारा चिकित्सा कर इस विष को जीतें ॥ १०९॥ ११०॥ १११॥ ११२ ॥ दिग्धविद्धलक्षण. कृष्णास्राव कृष्णवर्ण क्षतं या दाहीपेतं पूतिमांसं विशीर्ण । जानीयात्तदिग्धविद्धं शराद्यैः करैर्दत्तं यद्विषं सत्रणेस्मिन् (१) ॥११३॥ भावार्थ:--[ शरादिक से वेधन करते ही ] जब घावसे कृष्णरक्त का स्राव होता है, घाव भी कृष्णवर्ण का है, दाहसहित है, दुर्गंध युक्त मांस टुकडे २ होकर गिरते हैं, ऐसे लक्षणोंके पाये जानेपर समझना चाहिये कि यह दिग्धविद्ध [ विषयुक्त शस्त्र से उत्पन्न ] व्रण है ॥ ११३ ॥ विषयुक्तवणलक्षण. कृष्णोपेतं मर्छया चाभिभूतं मर्त्य संतापज्नरोत्पीडितांगम् । तं दृष्ट्वा विद्याद्विषं तत्र दत्तं कृष्णं मांस शीर्यते यद्वणेऽस्मिन् ॥११४॥ भावार्थ:-जो व्रणपीडित मनुष्य काला होगया हो, मूर्छासे संयुक्त हो संताप व ज्वर से पीडित हो, जिस व्रण से काला मांस टुकडा होकर गिरता जाता हो Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — कल्याणकारके तो समझना चाहिये उस व्रण में किसीने विष का प्रयोग किया है । अर्थात् विषयुक्त वण के ये लक्षण हैं ॥ ११४ ॥ विषसंयुक्तबणचिकित्सा. उक्लिन्नं तत्पूतिमांस व्यपोह्य रक्तं संस्राव्यं जलूकाप्रपातैः । शोध्यश्चायं स्याद्विषाव्यत्रणातः शीतकाथैः क्षीरिणां सेचयेत्तम् ॥११५॥ ... शीतद्रव्यैस्सद्विषघ्नसुपिष्टैर्वस्त्रं सांताय दिह्याद्रणं तत् । कुर्यादेवं कंटकोत्तीक्ष्णतो वा पित्तोभते चापि साक्षाद्विषेऽस्मिन् ॥११६।। भावार्थ:-विषयुक्त व्रणके लेदयुक्त [ सडा हुआ ] व दुर्गंधसंयुक्त मांस को अलग कर, उस में जौंक लगाकर दुष्टरक्त को निकालना चाहिये । एवं विषलं व्रणपीडित मनुष्य का शोधन कर के उसे शीतऔषधोंसे सिद्ध वा क्षीरीवृक्षोंसे साधित काढे से सेचन कर ना चाहिये ।। ११५ ॥ विषनाशक शीतद्रव्योंको [उन्ही के कषाय व रस से ] अच्छी तरह पीस कर उस पिठ्ठीको वस्त्रके साथ व्रणपर लेप करना चाहिये अर्थात् लेप लगाकर वस्त्र बांधे अथवा कपडेमें लगाकर उसे बांधे । तीक्ष्ण कंटकसे उत्पन्न व्रण व जिसमें पित्त की प्रबलता हो ऐ। विष में भी उसी प्रकार की [ उपरोक्त ] चिकित्सा करें ॥ ११६ ॥ सर्पविषारिअगद. मांजष्ठामधुकत्रिवृत्सुरनरुद्राक्षाहरिद्राद्वयं । भाव्योषविडंगहिंगुलवणैःसर्व समं चूर्णितम् ॥ आज्येनालुलितं विषाणनिहितं नस्यांजनालेपनै हन्यात्सर्वविषाणि सर्परिपुवत्येषोऽगदःप्रस्तुतः ॥ ११७ ।। भावार्थ:-भजीठ, मुलैठी, निसोत, देवदारु, द्राक्षा, भारंगी, दारुहलदी, त्रिकटु, (सोंठ,मिर्च,पीपल) वायविडंग, हिंगु, सेंधालोण, इन सबको समभागमें लेकर चूर्ण करें । तदनंतर उस चूर्ण को धृत के साथ अच्छी तरह मिलावें, फिर किसी सींग में रखें। इस का उपयोग नस्य, अंजन व लेपन में किया जाय तो सर्व सर्पविषका नाश होता है ॥ ११७ ॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । wanitie सर्वविषारि अगद. पाठाहिंगुफलत्रयं त्रिकटुकं वक्राजमोदाग्निकं । सिंधूत्थं सविडं विडंगसहितं सौवर्चलं चूर्णितम् ॥ सर्व गव्यघृतेन मिश्रितमिदं श्रृंगे निधाय स्थितं । सर्वाण्येव विषाणि नाशयति तत् सर्वात्मना योजितम् ॥ ११८ ॥ भावार्थ:-पाढ, हींग, त्रिफला, त्रिकुटु, पित्त पापडा, अजवाईन, चित्रक, सेंधालोण, विउनमक, बायाविडंग ब कालानोन इन सब को अच्छीतरह चूर्ण कर गाय के घृतके साथ मिलायें एवं सींग में रखें । तदनंतर इसका उपयोग नस्य, अंजन, लेपन आदि सर्व कार्यों में करने से सर्वप्रकार के विष नाश को प्राप्त होते हैं ॥ ११८ ॥ द्वितीय सर्वविषारि अगद. स्थौणेयं सुरदारुचंदनयुगं शिगुद्वयं मुग्गुलं । तालीस सकुटं नरं कुटजमुग्रार्कानिसौवर्चल ॥ कुष्ठं सत्कटुरोहिणीत्रिकटुकं संचूर्ण्य संस्थापितम् । गोश्रृंगे समपंचगव्यसहितं सर्व विषं साधयेत् ॥ ११९॥ भावार्थ:-थुनियार, देवदारु, रक्तचंदन, श्वतेचंदन, लाल सेंजिन, सफेद संजन, दुग्मुल, तालीस पत्र, आलुवृक्ष, कुडा, अजवायन, अकौवा, चित्राक, कालानोन, कुछ,, कुटकी, त्रिकटुक, इन सब को अच्छीतरह चूर्ण कर पंचगव्यके साथ मिलाकर गाय के सौंग में रखें। फिर इसका उपयोग करने पर सर्व प्रकार के विष दूर होते हैं ॥११९ तृतीयसविषारि अगद. तालीसं बहुलं चिडंगसहितं कुष्ठं विडं सैधवं । भाङ्गी हिंगुमृगादनीसकिनिहिं पागं पटोलां वां ॥ पुष्पाण्यर्ककरंजवज्रसुरसा भल्लातकांकोलजा न्याचूाजपयोघृतांबुसहितान्येतद्रं निगहेत् ॥ १२ ॥ भावार्थ:-तालीस पत्र, बडी इलायची, वायाविडंग, कूठ, विडनोन, सेंधालोण, भारंगा, हींग, इंद्रायण, चिरचिरा, पाढ, पटोलपत्र, बचा, अर्कपुष्प, भिलावेका फूल, एवं अंकाप इन सब को अच्छी तरह चूर्ण कर बकरी के दूध, घृत व मूत्र के साथ मिलाकर पूर्वोक्त प्रकार से उपयोग करें तो यह विष को नाश करता है ।। १२० ॥ ६५ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१४ ) कल्याणकारके संजीवन अगद. मंजिष्ठामधुशिशिरजनी लाक्षशिला गुदी | पृथ्वी कांसहरेणुकां समधृतां संचूर्ण्य सम्मिश्रितम् ॥ सर्वत्रगणैस्समस्त लवणैर लोड्य संस्थापितं । श्रृंगे तन्मृतमप्यलं नरवरं संजीवनो जीवयेत् ॥ १२१ ॥ भावार्थ:-- मजीठ, मुलैठी, लाल सेंजिन, सफेद सेंजिन, हल्दी, लाख, मैनसिल हरताल, इंगुल, इलायची, रेणुका इन सब औषधियोंको समभागमें लेकर अच्छी तरह चूर्ण करें । उस चूर्ण में आठ प्रकार के मूत्र व पांच प्रकार के लवण को मिलाकर अच्छी तरह आलोडन [ मिलाना ] कर श्रृंग में रखें। यदि इसका उपयोग करें तो बिलकुल मरणोन्मुखसा हुआ मनुष्य को भी जिलाता है । इसलिये इस का नाम संजविन अगद है ॥ १२१ ॥ did mix श्वेतादि अगद श्वेत बृधरकर्णिकां सकिणिहीं श्लेष्मातकं कट्फलं । व्याघ्रीमेघनिनादिकां बृहतिकामंकोलनीलीमपि ॥ तिक्ताबाबुसचालिनीफलरसेनालोड्य श्रृंगे स्थितं । यस्मिन्वेश्मनि तत्र नैव फणिनः कीटाः कुतो वा ग्रहाः ॥ १२२ ॥ भावार्थ:- अपराजिता, बूवरकर्णिका, चिरचिरा, लिसोडा, कायफल, छोटी कटेहरी, पलाश, बडी कढ़ेहरी, अंकोल, नीलं, इनको चूर्ण कर के कडवी तुम्बी व चालिनी के फल - के रस में अच्छी तरह मिलाकर सींग में रखें । जिस घर में यह औषधि रहे, वहां सर्प कीट आदि विषजंतु कभी प्रवेश नहीं करते हैं । यहां तक कि कोई भी ग्रह भी प्रवेश नहीं कर पाते हैं ॥ १२२ ॥ · मंडलविषनाशक अगद. प्रोक्ता वातकफोत्थिताखिलविषप्रध्वंसिनः सर्वथा । योगाः पित्तसमुद्भत्रेष्वपि विषेष्वत्यंतशीतान्विताः ॥ वक्ष्यतेऽपि सुगंधिकायवफलद्राक्षालवंगत्वचः । श्यामासोमरसादवाकुरवका बिल्वाम्लिका दाडिमाः ॥ १२३ ॥ श्वेताश्मंतकतापत्रमधुकं सत्कुंडलीचंदनं । कुंदेंदीवर सिंधुवारककपित्थंद्रापुष्पयुतां ॥ १क. पुस्तके ष ठोऽयं नोपलभ्यते । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (५१५). सर्वक्षीरघृतप्लुताः समसिताः सर्वात्मना योजिताः । क्षिप्रं ते शमयंति मण्डलविष कर्मेव धर्मा दश ॥ १२४ ॥ भावार्थ:-इस प्रकर वात व कफोद्रेक करनेवाले समस्त विषों को नाश करने में सर्वथा समर्थ अनेक योग कहे गये हैं। अब पित्ताद्रंक करनेवाले विषों के नाशक शीतगुणवीर्ययुक्त औषधियों के योग कहेंगे। सफेद सारिवा, जटामांसी, मुनक्का, लवंग दालचीनी, श्यामलता, [ कालीसर ] सोमलता, शल्लकी (शालईवृक्ष) दवा, लाल कटसरैया बेलफल, तितिडीक, अनार, अपराजिता, लिसोडा, मेथी, मुलैठी, गिलोय, चंदन, कुंदपुष्प, नीलकमल, संभालू, कैथ, कलिहारी, इन सब को चूर्ण कर सर्वप्रकार ( आठ प्रकार) के द्ध व घी में भिगो के रखें । उस में सब औषधियों के बराबर शक्कर मिला कर उपयोग में लावें तो मंडलिसौके विष शीघ्र ही शमन होते हैं जिस प्रकार कि उत्तमक्षमा आदि दशवर्मों के धारण से कर्मों का उपशम होता है ॥ १२३ ॥ १२४ ।। वाद्यादिसे निर्विषीकरण, प्रोक्तैः ख्यातप्रयोगैरसदृशविषवेगप्रणाझैरकायेंरालिप्तान वंशशंखप्रकटपटहभेरीमृदंगान् स्वनादैः ॥ कुर्युस्ते निर्विषत्वं विषयुतमनुजानामृतानाशु दिग्धान् । दृष्टास्यं तारणान्यप्यनुदिन (?) मचिरस्पर्शनात्स्तंभवृक्षाः ॥१२५॥ भावार्थ:-भयंकर से भयंकर विषों को नाश करने में सर्वथा समर्थ, जो ऊपर नौषधों के योग कहे गये हैं, उनको बांसुरी, शंख, पटह, भेरी, मृदंग आदि वाद्य विशेषों पर लेपन कर के उन के शब्द से विषपीडित मनुष्यों के जो कि मृतप्रायः हो चुके हैं, विष को दूर करें अर्थात् निर्विष करें ॥ १२५ ॥ सर्पके काटे विना विषकी अप्रवृति. सर्पाणामंगसंस्थं विषमधिकुरुते शीघ्रमागम्य दंष्ट्राग्रेषु व्याप्तस्थितं स्यात् सुजनमिव सुखस्पर्शतःशुक्रवद्वा ।। १ जब तमाम वायुमंडल विषदूषित हो जाता है इसी कारण से तमाम मनुष्य विषग्रसित होकर अस्यत दुःख से संयुक्त हैं और प्रत्येक मनुष्य के पास जाकर औषध प्रयोग करने के लिये शक्य नहीं है, ऐसी हालत में दिव्य विषनाशक प्रयोगोंको भेरी आदि वागे में लेपकर जोर से बजाना चाहिये । तब उन वाद्यों के शब्द जहां तक सुनाई देता है तहां तक के सर्व विष एकदम दूर हो जाते Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१६ ) कल्याणकारके तेषां दंष्ट्रा यस्ताबडिशवदत्तिवक्रास्ततस्ते भुजंगाः । सुचत्युध्दृत्य ताभ्यो विषमतिविषमं विश्वदोषप्रकोपम् ॥ १२६॥ भावार्थ:- जिस प्रकार प्रियतमा के दर्शन स्पर्शनादिक से अथवा मिन के स्पर्श से सुख मालूम होता हो ऐसे पदार्थों के स्पर्श से, सर्वांग में व्याप्त होकर रहनवाला शुक्र, शुक्रवाहिनी शिराओं को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार सर्प के सर्वांग में संस्थित विष, कोयमान होने के समय शरीर से शीघ्र आकर डाढों के अग्रभाग को प्राप्त हो जाता है । उन सर्पों के डाढ वडिश अर्थात् मछली पकड़ने के कांटे के समान अत्यंत वक्र होते हैं। इसलिये वे सर्प उन डाढोंसे काटकर समस्तदोषप्रकोपक व अत्यंत विषम विषको; उस घाव में छोडते हैं अर्थात् काटे विना सर्प विष नहीं छोडते हैं ॥ १२६ ॥ विवगुण. अत्युष्णं तक्ष्णिमुक्तं विषमतिविषतंत्रप्रवीणैः समस्तं । तस्माच्छीतांबुभिस्तं विषयुतमनुजं सेचयेचद्विदित्वा ॥ कीटानां शीतमेतत्कफवमनकृतं चाग्निसंस्वेदधूपै - 1 रुष्णा लेपोपना हैरधिकविषहरैः साधयेदाशु धीमान् ॥ १२७ ॥ भावार्थ: - विष अत्यंत उष्ण एवं तीक्ष्ण है ऐसा विषतंत्रमें प्रवीण योगिकहा है । इसलिये इन विषों से पीडित मनुष्य को ठण्डे पानीसे स्नान करामा आदि शीतोपचार करना हितकर है। कीटोंका विष शीत रहता है। इसलिये वह कफवृद्धि व वमन करनेवाला है । उस में अग्निस्वेद, धूप, लेप, उपनाह आदि विषहर प्रयोगों से शीघ्र चिकित्सा करनी चाहिये ॥ १२७ ॥ - विषपीतलक्षण. मांसा तालका सृजति मलमिहाध्मानमिष्पीडितांग: । फेन बक्त्रादजस्रं न दहति हृदयं चाग्निरप्यातुरस्य ॥ तं दृष्ट्वा तेन पीतं विषमतिविषमं ज्ञेयमेभिः स्वरूपै - । र्दष्टस्यासाध्यतां तां पृथगथ कथयाम्यर्जिताप्तोपदेशात् ॥ १२८ ॥ भावार्थ:-- जो आध्मान ( पेट का फूलना ) से युक्त होते हुए, कब मांस ब हरताल के सदृश वर्णवाले मल को बार २ विसर्जन करता है, मुंह से हमेशा फेन [झाग] टपकता है, उसके ( मरे हुए रोगी के) हृदय को अग्नि भी ठीक २ जेला नहीं पाता है ' १ क्यों कि अंत समय में विषसर्वाग से आकर हृदय में स्थित हो जाता है । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः। (५१७) amananammanand इन लक्षणों से समझना चाहिये कि उस रोगीने अत्यंत विषम विषको पीया है। अब आप्तोपदेश के अनुसार सर्प के काटे हुए रोगीके पृथक् २ असाध्य लक्षणों को कहेंगे ॥ १२८॥ सर्पदष्टके असाध्यलक्षण. वल्मीकेषूप्रदेवायतनपितृवनक्षीरवृक्षेषु संध्या-। .. काले सच्चत्वरेषु प्रकटकुलिकवेलासु तदारुणोग्र-।। ख्यातेष्वर्वेषु दष्टा श्वयथुरपि सुकृष्णातिरक्तश्च दंशे । दंष्ट्राणां वापदानि स्वसितरुधिरयुक्तानि चत्वारि यस्मिन् ॥१२९॥ क्षुत्तृड्पीडाभिभूताः स्थविरतरनराः क्षीणगावाश्च बालाः । पित्तात्यंतातपानिप्रहततनुयुता येऽत्यजीर्णामयार्ताः ।। येषां नासावसादो मुखमतिकुटिलं संधिभंगाश्च तीव्रो । वाक्संगोऽतिस्थिरत्वं हनुगतमपि तान् वर्जयेत्सर्पदष्टान् ॥ १३० ।। भावार्थ:-बामी, देवस्थान, स्मशान, क्षीरवृक्षों [पीपल वड आदि के नीचे, इन स्थानों में, संध्या के समय में, चौराहे में ( अथवा यज्ञार्थ संस्कृतभूप्रदेश ) कुलिकोदयकाल में, दारुण व खराब ऐसे प्रसिद्ध भरणी, मघा आदि नक्षत्रों के उदय में, जिन्हें सर्प काटा हो जिन के दंश ( कटा हुए जगह ) में काला व अत्यंत लाल सूजन हो, जिनके दंश में कुछ सफेद व रुधिरयुक्त चीर दंष्ट्रपद [ दांत गढे के चिन्ह ] हो, भूख • याल की पीडा से संयुक्त, अधिक वृद्ध, क्षीणशरीवाले व बालक इन को काटा हो, जिनके शरीर में पित्त व उष्णताकी अत्यंत अधिकता हो, जो अजीर्ण रोगसे पीडित हों, जिनके नाक मुडगया हो, मुख टेढा होगया हो, संधिबंधन [हड्डियों के जोड ] एकदम शिथिल होगया हो, रुक रुक कर बोलता हो, जावडा स्थिर होगया हो [हिले नहीं ] ऐसे सर्प से काटे हुए मनुष्यों को असाध्य समझ कर छोड़ देवें ॥१३०॥ सर्पदष्ट के असाध्यलक्षण. राज्यो नैवाहतेषु प्रकटतरलताभिः क्षतेनैव रक्तं । शीतांभोभिर्निषिक्ते न भवति सततं रोमहर्षो नरस्य ॥ वर्तिर्वक्त्रादजस्रं प्रसरति कफजा रक्तमूर्ध्व तथाधः ॥ सुप्तिर्मुक्तं विदार्य प्रविदितविधिना वर्जयेत् सर्पदष्टान् ॥ १३१ ॥ भावार्थ:- लता ( कोडा, वेत आदि ) आदि से मारने पर जिनके शरीर में रेखा ( मार का निशान ) प्रकद न हों और शस्त्र आदि से जखम करने पर उस से Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१८ ) कल्याणकारके रक्त नहीं निकलें, ठंडे पानी ( शरीरपर ) छिडकने पर भी रोमांच [ रोंगटे खडे ] न हो, कफ से उत्पन्न बत्ती मुंह से हमेशा निकलें, ऊपर [ मुंह नाक, कान आदि ] व नीचे ( गुदा शिश्न ) के मार्गसे रक्त निकलता रहे, और निद्रा का नाश हो, ऐसे सर्पदष्ट रोगी को एक दफे विधिप्रकार विदारण करके पश्चात् छोड देवें अर्थात् चिकित्सा न करें ॥ १३१ ॥ अस्मादूर्ध्वं द्विपादमबलतरचतुःपादषट्पादपाद - । व्याकीर्णापादकीटप्रभवबहुविषध्वंसनायौषधानि ॥ दोष त्रैविध्यमार्गप्रविदितविधिनासाध्यसाध्यक्रमेण । प्रव्यक्तं प्रोक्तमेतत्पुरुजिनमतमाश्रित्य वक्ष्यामि साक्षात् ॥ १३२ ॥ भावार्थ:- - अब यहां से आगे द्विपाद, चतुष्पाद, षट्पाद व अनेक पाद [ पैर ] बाले प्राणि व कीटों से उत्पन्न अनेक प्रकार के विषों को नाश करने के लिये तीन दोषों के अनुसार योग्य औषध का प्रतिपादन भगवान् आदिनाथ के मतानुसार आचार्यांने स्पष्टरूप से किया है उसी के अनुसार हम ( उग्रादिचार्य ) भी वर्ण करेंगे ॥ १३२ ॥ --- मर्त्याश्च श्वापदानां दशननख मुखैर्दारिताप्रक्षतेषु । प्रोद्य तृष्णासृगुद्यच्छ्रयथुयुतमहा वेदना व्याकुलेषु || बात श्लेष्मोत्थतीव्रप्रबळ विषयुतेषद्वतोन्माद युक्तान् । मर्त्यानन्यानथान्ये परुषतररुषामानुषांस्ते दर्शति ॥ १३३ ॥ भावार्थ:- जिन मनुष्यों को किसी जंगली क्रूर जानवरने काट खाया या नखप्रहार किया जिस से बडे भारी घाव होगया हो, जिसे तृष्णा का उद्रेक, तीव्र रक्तस्राव, शोफ आदिक महापीडायें होती हो, वात व कफ से उत्पन्न तीव्र विषवेदना हो रही हो ऐसे मनुष्य दूसरे उन्माद से युक्त मनुष्योंको बहुत भयंकर क्रोध के साथ काट स्वाते हैं ॥ १३३ ॥ हिंस्रक प्राणिजन्य विषका असाध्यलक्षण. व्यालैर्दष्टाः कदाचित्तदनुगुणयुताश्चारुचेष्टा यदि स्युः । तावादर्शदीपातपजलगत बिंबान्प्रपश्यंति ये च ॥ शद्धस्पर्शावलोकादधिकतरजलत्रासतो नित्रसंति । प्रस्पष्टादष्टदेहानपि परिहरतां दृष्टरिष्टान्विशिष्टान् ॥ १३४ ॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (५१९) onairmanan भावार्थ:-हिंस्रक प्राणियोंसे काटे हुए मनुष्यों की चेष्टा काटे हुए प्राणि के समान यदि होवें, दर्पण, दीप, धूप व जल में उन्ही का रूप देखें अर्थात् दष्ट प्राणियों के रूप दखिने लग जावें, एवं जलत्रास रोग से पीडित हो तो समझना चाहिये कि उन के ये अरिष्ट लक्षण हैं । इसलिये उन की चिकित्सा न करें । यदि किसी को किसी भी प्राणिने नहीं भी काटा हो, लेकिन जलत्रास से पीडित हो तो भी वह अरिष्ट समझना चाहिये । जल के शब्द स्पर्श दर्शन आदिक से जो डरने लगे उसे जल त्रास रोग जानना चाहिये ।। १३४ ॥ मूषिकाविषलक्षण. शुक्रोग्रा मूषिकाख्या प्रकटबहुविधा यत्र तेषां तु शुक्रां । स्पष्टदेतेनखैवोप्युपहतमनुजानां क्षते दुष्टरक्तम् ।। कुर्यादुत्कर्णिकातिश्वयथुपिटकिकामण्डलग्रंथिमूर्छा। तृष्णा तीव्रज्वरादीन त्रिविधविषमदोषोद्भवान्वेदनाढ्यान् ॥१३५॥ भावार्थ:-मूषिकाशुक्र में उग्र विष रहता है अर्थात् मूषिक शुक्रविषवाले हैं । ऐसे मूषिकों के बहुभेद है । जहां इन के शुक्र गिरे, शुक्रसंयुक्त पदार्थ का स्पर्श होवें, दांत नख के प्रहारसे क्षत होवें तो उस स्थान का रत्त.दूषित होकर उसी स्थान में कर्णिका [ किनारे दार चिन्ह ] भयंकर सूजन, फुन्सी, मंडल [ चकत्ते ] ग्रंथि [ग्रांठ] एवं मूर्छा, अधिक प्यास, तीव्रज्वर आदि तीनों विषमदोषों से उत्पन्न होनेवाली वेदनाओं को उत्पन्न करता है ॥ १३५ ॥ मूषिकविषचिकित्सा. ये दधामूषकाख्यैर्नृपनरुमदनांकोलकोशातकीभिः। सम्यग्वाम्यश विरेच्या अपि बहुनिजदोषकमात्कुष्ठनीली ॥ व्याधीश्वेतापुनर्भूस्त्रिकटुकबृहतीसिंधुवारार्कचूर्ण। पेयं स्यात्तैःशिरीषांबुदरवकिणिही किंशुकक्षारतोयैः ।।१३६ ॥ १ इस से यह नहीं समझना चाहिये कि मूषिकों के शुक्र को छोडकर किसी भी अन्य अवयव में विष नहीं रहता है । क्यों कि आचार्यने स्वयं “ दंतै खै” इन शब्दों से व्यक्त किया है कि नख दंतादिक में भी विष रहता है । तंत्रांतर में भी लिखा है--- शुक्रेणाथ पुरीषेण मूत्रेण च नखैस्तथा। दंष्ट्राभिर्वा मूषिकाणां विषं पंचविधं स्मृतं। इस से यह तात्पर्य निकला कि मूषिकों के शुक्र में,अन्य अवयवों की अपेक्षा विष की प्रधानता है। २कर्णिका-कमलमध्यबीजकोशाकृति । . Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२०) कल्याणकारके भावार्थ:-जिनको मूषिकने काटा है उन को दोषों के उद्रेक को देख कर अमलतास, मैनफल, अंकोल, ६.डवी तोरई, इन औषधियोंसे अच्छीतरह वमन व विरेचन कराना चाहिये । पश्चात् कूठ, नीली, छोटी कटेहरी, सफेद पुनर्ववा, ( सभालू ) त्रिकटुक, बडी कटेली, निर्गुण्डी, अकौवा इन के चूर्ण को शिरीष, मेथा, रव, चिरचिरा, किंशुक ( पलाश ) इन के क्षारजल के साथ मिलाकर पिलाना चाहिये ।। १३६ ॥ मूषिकविषन्नघृत. प्रत्येक प्रस्थभागै दधिघृतपयसां काथभार्गश्चतुर्भिः । पज्रार्कीलर्कगोजीनृपतरुकुटजव्याघ्रिकानक्तमालैः ॥ कल्कैः कापित्थनीलीत्रिकटुकरजनीरोहिणीनां समांशैः। पकं सपिर्विषघ्नं शमयति सहसा मूषकाणां विषं च ॥ १३७॥ भावार्थः- एक प्रस्थ ( ६४ तोले ) दही, एक प्रस्थ दूध, सेहुंड, अकौवा, सफेद आक, गोजिव्हा, अमलतास, कूडा, कटैली, करंज इन औषधियों से सिद्ध काथ चार भाग अर्थात् चार प्रस्थ, कैथ, नील, सोंठ, मिरच, पीपल, हलदी, कुटकी इन समभाग औषधियों से निर्मित कल्क, इन से सब एक प्रस्थ घृत को यथाविधि सिद्ध करें। इस घृत को पीने से शीघ्र ही मूषिकविष [ चूहे के विष ] शमन होता है ॥ १३७ ॥ कीटविषवर्णन. सर्पाणां मूत्ररेतः शवमलरुधिरांडास्रवोत्यंतकीटा-। श्चान्ये संमूर्छिताद्या अनलपवनतोयोद्भवास्ते निधोक्ता ॥ तेषां दोषानुरूपैरुपशमनविधिः पोच्यतेऽसाध्यसाध्य । ... व्याधीन्प्रत्यौषधाचैरखिलविषहरैरद्वितीयैरमोधैः ॥ १३८ ॥ भावार्थ:-सौ के मल मूत्र शव शुक्र व अंड से उत्पन्न होनेवाले, अत्यंत विषैले कीडे संसार में बहुत प्रकारके होते हैं। इस के अतिरिक्त स्थावर विषवृक्ष व तीक्ष्ण वस्त समुदाय में संमूर्छन से उत्पन्न होनेवाले भी अनेक विषैले कीडे होते हैं। ये सभी प्रकार के कीट अग्निज, वायुज, जलज [ पित्त, वायु, कफप्रकृतिवाले ] इस प्रकार तीन भेदों से विभक्त हैं। उन सब के संबंधसे होनेवाले विषविकार की उपशमनविधि को अब दोषों के अनुक्रम से अनेकविषहर अमोघऔषधियों का योग घ साध्यासाध्यविचार पूर्वक कहा जायगा ॥ १३८॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः । (५२१) कीटदष्टलक्षण. लूताशेषोगकीटप्रभृतिभिरिह दष्टप्रदेशषु तेषां । नृणां तन्मदमध्यादिकविषहतरक्तेषु तत्प्रोक्तदोषैः॥ जायंते मण्डलानि श्वयथुपिटकिका ग्रंथयस्तीत्रशोफाः । दद्रुचित्राश्च कण्डूकिटिभकठिनसत्कर्णिकाद्युग्ररोगाः ॥ ? ३९ ॥ • भावार्थः-मकडी आदि सम्पूर्ण विषैले कीडों द्वारा काटे हुए प्रदेशों में, उन बिषों के मंद, मध्यम आदि प्रभाव से रक्त विकृत होने से दोषों का प्रकोप होता है जिससे अमेक प्रकार के मंडल [चकत्ते] शोथयुक्त फुन्सी, ग्रंथि ( गांठ ) तीव्रसूजन. दाद, श्वित्रकुष्ठ, खुजली, किटिभ कुष्ठ, कठिन कर्णिका आदि भयंकर रोग उत्पन्न होते हैं १३९ ।। कीटभक्षणजन्य विषचिकित्सा. अज्ञानात्कीटदेहानशनगुणयुतान् भक्षयित्वा मनुष्याः। नानारोगाननेकप्रकटतरमहोपद्रवानाप्नुवंति ॥ तेषां दृषीविषघ्नैरभिहितवरभैषज्ययोगैः प्रशांति । कुर्यादन्यान्यथार्थ निखिलविषहराण्यौषधानि ब्रवीमि ॥ १४० ॥ भावार्थ:-जो मनुष्य भोजन करते समय अज्ञान से भोजन में मिले हुए कीडे के सारीर को खा जाते हैं, उस से अनेक प्रकार के घोर उपद्रवों से संयुक्त रोग उत्पन्न होते हैं। उसमें दूषीविष नाशार्थ जिन औषधियों का प्रयोग बतलाया है उन से चिकित्सा करनी चाहिये। आगे और भी समस्तविषों को नाश करनेवाले औषधियोग को कहेंगे ॥ १४०॥ क्षारागद. अर्कीकोलाग्निकाश्वांतकघननिचुलपग्रहाश्मंतकानां । श्लेष्मातक्यामलक्यार्जुननृपकटुकीकपित्थस्नुहीनाम् ।। घोंटागोपापमार्गामृतसितबृहत्ती कंटकारी शमीना-। मास्फोतापाटलीसिंधुकतरुचिरिबिल्वारिमेदद्रुमाणाम् ॥ १४१ ॥ गोजीस|रुभूर्जासनतरुतिलकपलक्षसोमांघिकाणां । टुंटूकाशोककाश्मर्यमरतरुशिरीषोग्रशिग्रुद्वयानाम् ॥ उष्णीकारंजकारुष्करवरसरलोद्यत्पलाशद्वयानाम् । नक्ताहानां च भस्माखिलमिह विपचेत् षडणैर्मूत्रभागैः ॥ १४२ ॥ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२२) कल्याणकारके तन्मूत्राशुद्धशुक्लाम्बरपरिगलितं क्षारकल्पेन पक्त्वा । तस्मिन् दद्यादिमानि त्रिकटुकरजनीकुष्ठमंजिष्ठकोग्रा-॥ वेगागारोत्थधूम तगररुचकहिंगूनि संचूर्ण्य वस्त्रैः । श्लक्ष्णं चूर्ण च साक्षानिखिलविषहरं सर्वथैतत्प्रयुक्तम् ॥ १४३ ।। भावार्थ:-आक, अकोल, चित्रक, सफेद कनेर, [ श्वेतकरवीर ] नागरमोथा, हिज्जलवृक्ष, [ समुद्रफल ] प्रग्रह ( किरमाला ) अश्मंतक, लिसोडा, आंवला, अर्जुनवृक्ष, (कुहा ) अमलतास, सोंठ, मिरच, पीपल, कैथ, थूहर, घोडा, [श्रृगालकोलि-एक प्रकार का बेर] बोल, चिरचिरा, गिलोय, चंदन, बडी कटेली, छोटी कटेली, शमीवृक्ष अपराजिता [ कोयल ] पाढल, सम्हालू, करंज, अरिमेद ( दुर्गंधयुक्त खैर ) गोजिव्हा, सर्जवृक्ष, ( रालका वृक्ष ) भोजपत्र वृक्ष, विजयसार, तिलकवृक्ष, [ पुप्पवृक्षविशेष ] अश्वत्थवृक्ष, सोनलता, अंधिकवक्ष, टुंटूक, अशोक, ६.भारी, देवदारु, सिरस, बच, शिग्रु, [ सेजन ] मधुशिग्रु, उणीकरंज, भिलावा, सरलवृक्ष, ( धूपसरल ) दोनों प्रकार के पलाश, [ सफेद लाल ] कलिहारी, इन औषधों के मूल छाल पत्रादिक को जलाकर भरम करें । इस भस्म को छहगुना गोमूत्र में अच्छीतरह मिलाकर साफ सफेद वस्त्रा से छानकर क्षाराविधि के अनुसार पकावें । पकते समय उस में सोंठ, मिरच, पीपल, हलदी, कूट, मंजीठ, बच, वेग, गृहधूम, तगर, कालानमक, हींग इन को वस्त्रागालित चूर्ण व.र के मिलावें । इस प्रकार सिद्ध क्षारागद को नस्य, अंजन, आलेपन आदि कार्यों में प्रयोग करने पर सर्वप्रकार के विषोंको नाश करता है ॥ १४१ ॥ १४२ ॥ १४३ ॥ सर्वविषनाशकअगद. प्रोक्तेऽस्मिन् क्षारसूत्रं लवणकटुकगंधाखिलद्रव्यपुष्पा- 1 ण्याशोष्याचूण्यं दत्वा घृतगुडसहितं स्थापित गोविषाणे ॥ तत्साक्षात्स्थावरं जंगमविषमधिकं कृत्रिमं चापि सर्व । हन्यानस्यांजनालेपनबहुविधपानप्रयोगैः प्रयुक्तम् ॥ १४४ ॥ भावार्थ:--अन्य अनेक प्रकार के क्षार, गोमूत्रा, लवण, त्रिकटु सम्पूर्ण गंध द्रव्य, व सर्व प्रकार के पुष्पों को सुखाकर चूर्ण कर के घी गुड के साथ उपर्युक्त योग में मिलावें । पश्चात् उसे गाय के सींग में रखें । उस औषधि के नस्य अंजन, लेपन व पान आदि अनेक प्रकार से उपयोग करें तो रथावर, जंगम व कृत्रिम समस्त विष दूर होते हैं ॥ १४४ ॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः। (५२३) AAAAAAAAvv annanommammons विषरहितका लक्षण व उपचार. प्रोक्तैस्तीविषापहैरतितरां सद्भेषजैनिर्विषी-। भूतं मर्त्यमवेक्ष्य शांततनुसंतापप्रसन्नेंद्रियम् ॥ कांक्षामप्यशनं प्रतितिमलं सत्स्यायनीली गुरू-। न्यन्मूलैश्च ततोऽयपक्वमखिलं [?] दद्यात्स पेयादिकं ।। १४५ ॥ • भावार्थः--उपर्युक्त तीव्र विषनाशक औषधियों के प्रयोग से जिसका विष उतर गया हो इसी कारण से शरीर का संताप शीत होगया हो, इंद्रिय प्रसन्न हो, भोजन की इच्छा होती हो, मल मूत्रादिक का विसर्जन बराबर होता हो [ ये विषरहित का लक्षण है ] ऐसे मनुष्य को योग्य पेयादिक देवें ॥ १४५ ॥ विष में पथ्यापथ्य आहारविहार. निद्रां चापि दिवाव्यवायमधिकं व्यायाममत्यातपं । क्रोधं तैलकुलुत्थसत्तिलमुरासौवीरतक्राम्लिकम ।। त्यक्त्वा तीविषेषु सर्वमशनं शीतक्रियासंयुतं । योज्यं कीटविषेष्वशेषमहिमं संस्वेदनालेपनम् ॥ १४६ ॥ भावार्थ:-सर्व प्रकार के विष से पीडित मनुष्य को दिन में निद्रा, मैथुन, अधिक व्यायाम, अधिक धूप का सेवन व क्रोध करना भी वर्ण्य है । एवं तेल, कुलथी, तिल, शराब, कांजी, छांछ, आम्लिका आदि [ उष्ण ] पदार्थों को छोडकर तीव्रविष में समस्त शीतक्रियाओं से युक्त भोजन होना चाहिये अर्थात् उसे सभी शीतोपचार करें। परंतु यदि कीट का विष हो तो उस में सर्व उष्ण भोजन व स्वेदन, लेपन आदि करना चाहिये। (क्यों कि कीटविष शीतोपचार से बढ़ता है)॥ १४६ ॥ ___ दुःसाध्य विषचिकित्सा. बहुविधविषकीटाशेषलूतादिवर्ग-। रुपहततनुम]षग्रवेगेषु तेषाम् ।। क्षपयति निशितोद्यच्छत्रपातैर्विदार्य । स्वहिविषमिव साध्यस्स्यान्महामंत्रतंत्रैः ॥ १४७ ।। ___ भावार्थः-अनेक प्रकार के विौले कीडे, मकडी आदि के काटनेपर विष का वेग यदि भयंकर होजाय तो वह मनुष्य को मार देता है। इसलिये उस को (विष Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२४) कल्याणकारके जन्यव्रण को ) शस्त्र से विदारण कर सर्पके विष के समान महामंत्र व तंत्रप्रयोग से साधन करना चाहिये ॥ १४७ ॥ अंतिम कथन. इति जिनवक्त्रनिर्गतमुशास्त्रमहांबुनिधेः। सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभामुरतो । निस्तमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ १४८ ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिये इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ १४८ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यविरचिते कल्याणकारके चिकित्साधिकारे सर्वविषचिकित्सितं नाम एकोनविंशः परिच्छेदः । इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में समस्त विषचिकित्सा नामक उन्नीसवां परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषरोगाधिकारः। (५२५) अथ विंशः परिच्छेदः मंगलाचरण. वीरजिनावसानवृषभादिजिनानभिवंद्य । घोरसंसारमहार्णवोत्तरणकारणधर्मपथोपदेशकान् ॥ सारतरान् समस्तविषमामयकारणलक्षणाश्रयै- । भूरिचिकित्सितानि सहकर्मगणैः कथयाम्यशेषतः ॥ १ ॥ भावार्थ:-घोर संसाररूपी महान् समुद्र को तारने के लिये कारणभूत, धर्म मार्गका उपदेश देनेवाले, श्रेष्ठ व पूज्य वृषभादि महावीर पर्यंत तीर्थंकरों की वंदना कर समस्त विषम रोगों के कारण, लक्षण, अधिष्ठान व [ रोगों को जीतने के लिये ] अनेक प्रकार के सम्पूर्ण चिकित्साविधानों को, उन के सहायभूत छेदन भेदन आदि कर्मो ( क्रिया ) के साथ २ इस प्रकरण में वर्णन करेंगे, ऐसी आचार्य प्रतिज्ञा करते सप्त धातुओंकी उत्पत्ति. आहृतसान्नपानरसतो रुधिरं, रुधिराच मांसम-। स्मादपि मांसतो भवति मेद, इतोऽस्थि ततोऽपि ॥ मज्जातः शुभशुक्रमित्यभिहिता, इह सप्तविधाश्वधातवः । सोष्णसुशीतभूतवशतश्च विशेषितदोषसंभवाः॥ २ ॥ भावार्थः- मनुष्य जो अन्नपानादिक का ग्रहण करता है वह ( पचकर ) रस रूप में परिणत होता है। उस रससे रुविर, रुधिर [ रक्त ] से मांस, मांस से मेद, मेदसे अस्थि, अस्थिं से मज्जा, मज्जा से वीर्य [ शुक्र ] इस प्रकार सप्त धातुवों की उत्पत्ति होती है । और वे सात धातु उष्ण व शीत स्वभाव वाले भूतों की सहायता से विशिष्ट वातादि दोषों से उत्पन्न होने वाले होते हैं। अर्थात् धातुओं की निष्पत्तिमें भूत व दोष भी मुख्य सहायककारण हैं ॥ २ ॥ रोग के कारण लक्षणाधिष्ठान. पाधिकारणान्यनिलपित्तकफासगशेषतोभिघा- । तक्रमतोऽभिघातराहितानि पंच सुलक्षणान्यपि ॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२६) कल्याणकारके त्वच्छिरोअस्थिसंधिधमनीजठरादिकमीनर्मल- । स्नायुयुताष्टभेदनिजवासगणाः कथिता रुजामिह ॥ ३ ॥ भावार्थ:-रोगों के उत्पत्ति के लिये वात, पित्त, कफ, रक्त, सन्निपात [ त्रिदोष] न अभिघात इस तरह छह प्रकार के कारण हैं। अभिघातजन्य रोग को छोड कर बाकी के रोगों के पांच प्रकार के ( बात पित्त कफ रूप सन्निपातजन्य ) लक्षण होते हैं । त्वक् [त्वचा] शिरा अस्थि [हड्डि ] सांध (जोड ) धमनी, जठरादिक ( आमाशय, पकाशय, यकृत्, प्लीहा आदि) मर्म व स्नायु ये आठ प्रकार के रोगोंके अधिष्ठान हैं, ऐसा महर्षिोंने कहा है ॥ ३ ॥ साठप्रकार के उपक्रम व चतुर्विधकर्म. सर्वचिकित्सितान्यपि च षष्टिविकल्पविकस्पिता- । नि क्रमत्रो ब्रवीमि तनुशोषणलेपनतन्निषेचना-॥ भ्यंगशरीरतापननिधनलेखनदारणांग वि- । म्लापननस्यपानकबलग्रहवेधनसीवनान्यपि ॥ ४ ॥ स्नेहनभेदनैषणपदाहरणास्रविमोक्षणांगसं-। पीडनशोणितस्थितकषावसुकल्कघृतादितैलनि- ॥ पिणमंत्रवर्तिवमनातिविरेचनचूर्णसत्रणो । ध्दूपरसक्रियासमवसादनखोद्धतसादनादपि ॥ ५॥ छेदनसोपमाहमिथुनाज्यविषघ्नशिरोविरेचनो- । त्पत्रसुदानदारुणमृदकरणाग्नियुतातिकृष्णक-॥ र्मोत्तरयस्तिविषघ्नसुबूंहगोग्रसक्षारसिन । क्रिमिघ्नकरणान्नयुताधिकरक्षाणान्यपि ॥ ६ ॥ तेषु कपायवर्तिघृततैलसुकल्करसक्रियाविचू- । र्णनान्यपि सप्तथैव बहुशोधनरोपणतश्चतुर्दश- ॥ षष्टिरुपक्रमास्तदिह कर्म चतुर्विधमाग्नशस्त्रस-। क्षारमहौषधैरखिलरोगगणप्रशमाय भाषितं ॥ ७ ॥ भावार्थ:-उन रोगों का समस्त चिकित्साक्रम साठ प्रकार से विभक्त है जिन १ "रोग" यह सामान्य शब्द लिखने पर भी, समझना चाहिये कि ये साठ उपक्रम व्रण रोग को जीतने के लिये हैं। क्यों कि तंत्रांतर में "बणस्य षष्टिरुपक्रमा भवंति"ऐसा उल्लेख किया है। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ winraaruwari new विपसेगाधिकारः। ( ५२७) को अब क्रमशः कहेंगे । १. शोषण ( सुखना ) २. लेपन ( लेप करना ) ३. सेचन ( तरडे देना ) ४. अभ्यंग, [ मलना ] ५. तापन [ तपाना-स्वेद ] ६. बंधन [बांधना] ७. लेखन [ खुरचना ] ८ दारण [ फाडदेना ] ९. विम्लापन [ विलयन करना ] १०. नस्य, ११, पान, १२. कबलग्रहण [ मुख में औषध धारण करना ] १३. व्यधन [वींधना ] १४. सीमन [ मीना ] १५. स्नेहन [ चिकना करना ] १६. भेदन [चिरना] १७. एषण [ढूंढना] १८. आहारण निकालना] १९ रक्तमोक्षण खून निकालना] २०.पीडन.(दबाना सूतना) २१.शोणितास्थापन [खून को रोकना]२२.कषाय [काढा] २३, कल्क [लुगदी २४.घृत२५. तैल, २६.निर्वापण शांति करना] २७. यंत्रा २८. वर्ति, २९, वमन३०. विरेचन, ३१. चूर्णन [अघचूर्णन वुरखना] ३२. धूपन (धूप देना) ३३. रसक्रिया ३४. अवसादन [ नीचे को बिठाना ] ३५. उत्सादन ( ऊपर को उकसाना ) ३६. छेदन [ फोडना ] ३७. उपनाह [ पुलिटिश ] ३८. मिथुन [संधान जोउना ] ३९. घृत. [घी का उपयोग] ४०. शिरोविरेचन, ४१. पत्रादान (पत्ते लगाना, पत्ते बांधना) ४२. दारुण कर्म [ कठोर करना ] ४३. मृदु कर्म [ मृदु करना ] ४४. अग्निकर्म ( दाग देना ) ४५. कृष्णकर्म ( काला करना ) उत्तर बस्ति ४७. विषघ्न ४८. बृंहण कर्म [ मांसादि बढाना ] ४९ क्षारकर्म, ५०. सितकर्म [ सफेद करना ] ५१. कृमिघ्न [ कृमिनाशक-विधान ] ५२. आहार ( आहारनियंत्राण ) ५३. रक्षाविधान, ये त्रेपन उपक्रम हुए । उपरोक्त कषाय, वर्ति, घृत, तैल, कल्क, रसक्रिया अवचून इन सात उपक्रमों के शोधन, रोपण, कार्यद्वय के भेदसे [ प्रत्येक के ] दो भेद होते हैं अर्थात् एक २ उपक्रम दो २ कार्य करते हैं । इसलिये इन सात उपक्रमों के चौदह भेद होचे हैं। ऊपर के ५३ उपक्रमों में कषायादि अंतर्गत होने के कारण अथवा उन के उल्लेख उस में हो जाने के कारण द्विविध [ शोधन रोपण ] १५ अपेक्षाकृत भेद में से एकविध के उपक्रमोंका उल्लेख अपने अप हो जाता है । और अपेक्षाकृत जो सात भेद अवशेष रह जाते हैं उन को ५३ उपक्रमों में मिलाने से ६० उपक्रभ हो जाते हैं । सम्पूर्ण रोगों को प्रशमन करने के लिये अग्निकर्म, शस्त्रकर्म, क्षारकर्म, औषधकर्म, इस प्रकार चतुर्विध कर्म कहा गया है ॥ ४ ॥ ५॥ ६ ॥ ७ ॥ स्नेहनादिकर्मकृतमयॊको पथ्यापथ्य. स्नेहनतापनोक्तवमनातिविरेचनसानुवासना-। स्थापनरक्तमोक्षणशिरःपरिशुद्धिकृतां नृणामयो-॥ ग्वाम्यतिरोष थुनधिरासनचंक्रमणस्थितिप्रया। सोच्चवचःसशोकगुरुभोजनभक्षणवाहनान्यपि ॥ ८ ॥ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२८) कल्याणकारके आलपशीततोयबहुवातनिषेवणतदिवातिनि-। द्राद्यखिलान्यसात्म्यवहुदोषकराण्यपहृत्यमा ॥ समेकं निजदोषसंशमनभेषजसिद्धजलाद्यशेषमा । हारमुदाहराम्यनुपमागमचादितमग्निवृद्धये ॥ ९॥ भावार्थ:-जिस रोगी को स्नेहन, तापन, स्वेदन विरेचन, अनुवासन, आस्थापन, रक्तमाक्षण, शिरोविरेचन का प्रयोग किया है उसे उचित है कि वह अतिरोष [क्रोध ] मैथुन बहुत समय तक बैठा रहना, अधिक चलना फिरना, अधिक समय खडे ही रहना, अत्यंत श्रम करना, उच्च स्वर से बोलना, शोक करना, गुरु भोजन, वाहनारोहण, धूप, ठण्डा पानी व अधिक हवा खाना, दिन में सोना, आदि । ऐसे कार्यों को जो असात्म्य, व अधिक दोषोत्पादक हैं, एक मास तक छोड कर, अपने दोष के उपशमन के योग्य औषधसिद्ध जल अदि समस्त आहार को, अग्निवृद्धयर्थ ग्रहण करना चाहिये जिसे आगम के अनुकूल वर्णन करेंगे ॥ ८ ॥९॥ अग्निवृद्धिकारक उपाय. अष्टमहाक्रियाभिरुदराग्निरिहाल्पतरो भवे- । न्नृणामनलवर्धनकरैरमृतादिभिरावहेन्नरः॥ यत्नपरोऽग्निमणुभिस्तृणकाष्ठचयैःक्रमकमा । दत्र यथा विरूक्षगणैः परिवृद्धितरं करिष्यति ॥ १०॥ भावार्थ:--आठ प्रकार के महाक्रियावों [ स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, अनुवास नबस्ति, आस्थापन बस्ति, रक्तमोक्षण, शिरोविरेचन ] से मनुष्योंकी उदराग्नि मंद हो जाती है । उसे अग्निवृद्धिकारक जलादि के प्रयोगों से वृद्धि करनी चाहिये । जिस प्रकरजरासे अग्गिकण को भी प्रयत्न करनेवाला सूक्ष्म व रूक्ष, घास, काष्ठ, फूंकनी आदि के सहायता से क्रमशः बढा देता है ॥१०॥ अग्निवर्द्धनार्थ जलादि सेवा. उष्णजलं तथैव श्रृतीतलमप्यनुरूपतो।। यवाणू सविलेप्यदूषवरधूप्यखलानकृतान्कृतानपि ।।. स्वल्पघृतं घृताधिकसुभोजनमित्यथाखिलं । नियोजयेत्त्रिद्वियुतकभेदगणनादिवसेष्वनलत्रिकक्रमात् ॥११॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः । कारः। (५२९) भावार्थ:--स्नेहनादि प्रयोग से जिन का अग्निमंद हो गया हो, उन के तीन प्रकार के अग्नि ( मंदतर, मंदतम, मंद ) के अनुसार क्रमशः तीन २ दिन, दो २ दिन एक २ दिन तक गरम जल, गरम कर के ठंडा किया हुआ जल, यवागू, विलेपी, यूप, धूप्य, [2] घी हींग आदि से असंस्कृतखल व संस्कृतखल, अल्पघृतयुक्तभोजन, अधिकवृतयुक्तभाजन को एक के बाद एक इस प्रकार अग्निवृद्धि करने के लिये देते जावें ॥ ११ ॥ भोजन के बारह भेद. शीत व उष्णलक्षण. दाहतपातिसोष्णमदमबहतानतिरक्तपित्तिनः । स्त्रीव्यसनातिमूर्छनपरानपि शीतलभोजनभृशम् ।। पीतघृतान्विरोचिततनूननिलातिवलासरोगिणः । क्लिन्नमलानरानपिकमुष्णतरैः समुपाचरेत्सदा ।। १२ ।। भावार्थ:-जो रोगी दाह, तृषा, गरमी, भद, मद्य, रक्तपित्त, स्त्रीव्यसन ( मैथुन ) व मूर्छा से पीडित हैं, उन्हें शीतल भोजन के द्वारा उपचार करना चाहिये। जिन्होंने धृत [स्नेह ] पीया हो, जिन को विरेचन दिया हो, जो वात व कफ के विकार ...से पीडित हों, एवं जिनका मल लेदयुक्त हो रहा हो, उन को अत्यंत उष्णभोजनों से उपचार करना चाहिये ॥ १२ ॥ स्निग्ध, रूक्ष, भोजन. वातकृतामयानतिविरूक्षतनूनधिकव्यवायिनः । क्लेशपराविशेषबहुभक्षणभोजनपानकादिभिः ॥ स्नेहयुतैः कफःप्रबलतुंदिलमेहिमहातिमेदसो । रूक्षतरैनिरंतरमरं पुरुषानशनैः समाचरेत् ॥ १३ ॥ भावार्थ:---जो बातव्यापिसे ग्रस्त है जिनका शरीर रूक्ष है, जो अधिक मैथुन सेवन करते हैं व अधिक परिश्रम करते हैं उन को अधिक स्नेह ( घी, तेल आदि ) संयुक्त अनेक प्रकार के भक्ष्य भोज्य पानक आदियों से उपचार करना चाहिये । कफाधिक्य से युक्त हो, तुंदिल हो [ पेट बढ़ गया हो, ] विशिष्ट प्रमेही हो, मेदोवृद्धि से युक्त हो, उन्हे रूक्षं व कर्कश [ कठिन ] आहारोंसे उपचार करना चाहिये ॥ १३ ॥ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३०) कल्याणकारके द्रव, शुष्क, एककाल, द्विकाल भोजन. तीव्रतृषातिशोषणषिशुष्कतनूनपि दुर्बलान्द्रवै-1. महिमहोदराक्षिनिजकुक्षिविकारयुतक्षताकुलो- ।। द्गारिनरान्नयेदिह विशुष्कतरेरनलाभिवृद्धय । मंदसमानिकाल्लघुभिरेकवरद्विकभोजनैः क्रमात् ॥ १४ ॥ भावार्थ:-जो रोगी तीव्रतृषा से युक्त हो, जिसका मुख अत्यधिक सूख गया हो, जिसका शरीर शुष्क हो, दुर्बल हो, उन को द्रवपदार्थो से उपचार करना चाहिये । प्रमेही, महोदर, अक्षिरोग, कुक्षिरोग, क्षत व डकार से पीडित रोगी को शुष्क पदार्थोसे उपचार करना चाहिये । मंदाग्नि में अग्निवृद्धि करने के लिये एक दफे लघुभोजन कराना चाहिये । समाग्नि में दो दफे भोजन कराना चाहिये ॥ १४ ॥ औषधरोपिणामशनमोपधसाधितमेव दापये- । दनिविहीनरोगिषु च हीनतरं घड्ऋतप्रचोदितं ॥ दोपशमनार्थ मुक्तमतिपुष्टिकरं बलवृष्यकारणं । __स्वस्थजनोचितं भवति वृत्तिकरं प्रतिपादितं जिनैः ॥ १५ ॥ भावार्थ:-जो औषधद्वेषी है [ औषध खाने में हिचकिचाते हैं ] उन्हे औषधियों से सिद ( या मिश्रित ) भोजन देना चाहिये। जिन की अग्नि एकदम कम हो गयी हो। उन्हे मात्राहीन [ प्रमाण से कम ] भोजन देना चहिये । दोषों के शमन करने के लिये छहों ऋतुओं के योग्य ( जिस ऋतु में जो २ भोजन कहा है ) भोजन देना चाहिये। [ यही दोषशमन भोजन है ] स्वस्थपुरुषों के शरीर के रक्षणार्थ, पुष्टि, बल, वृष्य कारक ( ब समसरसयुक्त ) आहार देना चाहिये ऐसा भगवान् जिनेंद्र देवने कहा भैषजकर्मादिधर्णनप्रतिशा. द्वादशभाजनक्रमविधिर्विहितो दशपंच चैवस-। द्भपजकर्मनिर्मितगुणान्दशभेषजकालसंख्यया ॥ सर्वमिहाज्यतैलपरिपाकविकल्परसत्रिषष्टिभे-। दानपि रिष्टमर्मसहितानुपसंहरणैवाम्यहम् ॥ १६ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार बारह प्रकार के भोजन [ शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, द्रव, शुष्क, एककाल, द्विकाल, औषधयुक्त, मात्राहीन दोषशमन और वृष्यभोजन ] व उसका Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र संग्रहाधिकारः । ( ५३१ ) विधान भी किया गया है । अब पंद्रह प्रकार के औषधकर्म व उन के गुण, दश औषधसम्पूर्ण घृततैलों के पाक का विकल्प ( भेद ) रस के त्रेसठ भेद, अरिष्टलक्षण, मर्मस्थान, इन को संक्षेप से आगे आगमानुसार कहेंगे ॥ १६ ॥ काल, दशऔषधकाल. संशमनाग्निदीपनरसायनबृंहणलेखनोक्तसां - । ग्राहिक वृष्यशोषकरणान्विततद्विलयमधोर्ध्वभा ॥ गोभयभागशुद्धिसविरेक विपाणि विषौषधान्यपि । माहुरशेषभेषजकृताखिलकर्म समस्त वेदिनः ॥ १७ ॥ भावार्थ:-- १ संशमन, २ अग्निदीपन, ३ रसायन, ४ बृंहण, ५ लेखन, ६ संग्रहण, ७ वृष्य, ८ शोषकरण, ९ विलयन, १० अधः शोधव, ११ ऊर्ध्वशोधन, १२ उभयभागशोधन, १३ विरेचन, १४ विष, १५ विषौषध, ये सम्पूर्ण औषधियों के पंद्रह कर्म हैं ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा है ॥ १७ ॥ दशऔषधकाल. निर्भक्त, प्राग्भक्त, ऊर्ध्वभक्त व मध्यभक्तलक्षण. प्रातरिहौषधं बलवतामखिलामयनाशकारणं । प्रागपि भक्ततो भवति शीघ्रविपाककरं सुखावहम् ॥ ऊर्ध्वमथाशनादुपरि रोगगणानपि मध्यगं । स्वमध्यगान्विनाशयति दत्तमिदं भिषजाधिजानता ॥ १८ ॥ भावार्थ: - १ निर्भक्त, २ प्राग्भक्त, ३ ऊर्ध्वभक्त ४ मध्यभक्त, ५ अंतराभक्त, ६ सभक्त, ७ सामुद्र, ८ मुहुर्मुहु, ९ ग्रास, १० ग्रासांतर ये दस औषधकाल [ औषध सेवन का समय ] है । यहां से इसी का वर्णन आचार्य करते हैं । अन्नादिक का बिलकुल सेवन न कर के केवल औषधका ही उपयोग प्रातःकाल, बलवान् मनुष्यों के लिये ही किया जाता है उसे निर्भक्त कहते हैं । इस प्रकार सेवन करने से औषध अत्यंत वीर्यवान् होता है । अतएव सर्वरोगों को नाश करने में समर्थ होता है । जो औषध भोजन के पहिले उपयोग किया जावे उसे प्राग्भक्त कहते हैं । यह काल शीघ्र १ इस प्रकार के औषध सेवन को बलवान् मनुष्य ही सहन कर सकते हैं । बालक, बूढ़े, स्त्री कोमल स्वभाव के मनुष्य ग्लानि को प्राप्त करते हैं । ८८ २ तत्र निर्भक्तं केकलमेवौषधमुपयुज्यते " इति ग्रंथांतरे । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३२) कल्याणकारके हा पचानेवाला व सुखकारक होता है। ऊर्ध्वभक्त उसे कहते हैं जो भोजन के पश्चात् खाया पीया जावे, यह भोजन कर के पीछे खाया पीया हुआ औषध, २.रीर के ऊर्ध्व भाग स्थित सर्वरोगों को दूर करता है । मध्यभक्त उसे कहते हैं जो भोजन के बीच में सेवन किया जावे । यह भोजन के मध्य में दिया हुआ औषध, शरीर के मध्यगत समस्त रोगों को नाश करता है। विज्ञ वैद्य को उचित है उपरोक्त प्रकार व्याधि आदि को विचार करते हुए औषधप्रयोग करें ॥ १८ ॥ अंतरभक्तसभक्तलक्षण. अंतरभक्तमौषधमथानिकरं परिपीयते तथा । मध्यगते दिनस्य नियतोभयकालमुभोजनांतरे ॥ औषधरोषिबालकृशवृद्धजने सहसिद्धमौषधै-। यमिहाशनं तद्वदितं स्वगुणैश्च सभक्तनामकं ॥ १९ ॥ भावार्थ:--अंतरभक्त उसे कहते हैं जो सुबह शाम के नियत भोजन के बीच ऐसे दिन के मध्यसमय में सेवन किया जाता है। यह अंतराभक्त अग्नि को अत्यंत दीपन करनेवाला, [ हृदय मनको शक्ति देनेवाला पथ्य ] होता है । जो औषधों से साधित [ काथ अदि से तैयार किया गया या भोजन के साथ पकाया हुआ ] आहार का उपयोग किया जाता है उसे सभक्त कहते हैं। इसे औषधद्वेषियोंको [ दवा से नफरत करनेवालों को] व बालक, कृश, वृद्ध, स्त्रीजनों को देना चाहिये ॥ १९ ॥ सामुद्गमुहुर्मुहुलक्षण. ऊर्ध्वमधःस्वदोषगणकोपवशादुपयुज्यते स्वसामुद्गविशेषभेषजमिहाशनतः प्रथमावसानयोः॥ श्वासविशेषबहुहिकिषु तीव्रतरप्रतीतसो-। द्गारिषु भेषजान्यसकृदन मुहुर्मुहुरित्युदीरितं ॥ २० ॥ भावार्थ:-जो औषध भोजन के पहले व पछि सेवन किया जावे उसे सामुद्ग कहते हैं । यह ऊपर व नीचे के भाग में प्रकुपित दोषों को शांत करता है। श्वास, तीब्रहिका, [ हिचकी ] तीव्र उद्गार (ढकार ) आदि रोगों में जो औषध [ भोजन कर के या न करके ] बार बार उपयोग किया जाता है उसे मुहर्मुह कहते हैं ॥ २० ॥ १ इसे ग्रंथांतरो में "अधोभक्त" के नामसे कहा है। लेकिन दोनों का अभिपाय एक ही है। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः। (५३३) ग्रासग्रासांतर लक्षण. ग्रासगत विचूर्णमबलाग्निषु दीपनबृंहणादिकं । ग्रासगणांतरेषु वमनौषधधृमगणान् सकासनि-॥ श्वासिषु तत्पशांतिकरभेषजसाधितसिद्धयोगले हानपि योजयदिति दशौषधकालविचारणक्रमात् ॥ २१ ॥ भावार्थ:-ग्रास उसे कहते हैं जो कवल के साथ, मिलाकर उपयोग करें । जिन के अग्नि दुर्बल हो जो क्षीणशुक्र व दुर्बल हो उन्हे दीपन, बृंहण, वाजीकरण औषधिसिद्ध चूर्ण को ग्रास के साथ उपयोग करना चाहिये। ग्रासांतर उसे कहते हैं जो ग्रासों [ कवल ] के बीच ( दोनों ग्रासी के मध्य ) में सेवन किया जावे । ग्रास श्वासपीडितों को, वमनौषध सिद्ध वमनकारक धूम व कालादिकों को शांत करनेवाले औषधियों से अवलेहों को ग्रासांतर में प्रयोग करना चाहिये । इस प्रकार क्रमशः दस' औषध काल का वर्णन हुआ ॥ २१ ॥ स्नेहपाकादिवर्णनप्रतिज्ञा. स्नेहविपाकलक्षणमतः परमूर्जितमुच्यतेऽधुना-। चार्यमतैः प्रमाणमपि कल्ककषायविचूर्णतैलस ॥ पि:प्रकरावलेहनगणेष्वतियोगमयोगसाधुयो- । गानिजलक्षणैरखिलशास्त्रफलं सकलं ब्रवीम्यहं ॥ २२ ॥ भावार्थ:-यहां से आगे स्नेहपाक (तैल पकाने ) का लक्षण, कल्क, कषाय, चूर्ण, तैल, घृत, अवलेह इन के प्रमाण, अतियोग, अयोग व साधुयोग के लक्षण, सम्पूर्ण शास्त्रके फल आदि सभी विषय को पूर्वाचार्यों के मतानुसार इस प्रकरण में वर्णन करेंगे ॥ २२ ॥ क्वाथपाकविधि. द्रव्यगुणाञ्चतुर्गुणजलं परिषिच्य विपक-। मष्टभागमवशिष्टमपरैः श्रुतकीर्तिकुमारनंदिभिः ।। षोडशभागशेषितमनुक्तघृतादिषु वीरसेनमू-। रिप्रमुखैः कपायपरिपाकविधिविहितःपुरातनः ॥ २३ ।। भावार्थः--जहां घृत आदि के पाक में कपाय पाक का विधान नहीं लिखा हो, ऐसे स्थानो में औपध द्रव्य से चतुर्गुण [ चौगुना ] जल डाल कर पकायें। आठवां Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३४) कल्याणकारके भाग शेष रहने पर उतार कर छान लेवे ऐसा श्रुतकीर्ति व कुमारनंदि मुनि कहते हैं । लेकिन् पुरातन वीरसेन आदि मुनिपुंगव द्रव्य से चतुर्गुण जल डालकर, सोलहवां भाग शेष रखना चाहिये ऐसा कहते हैं ॥ २३ ॥ ___ स्नेहपाकविधिः द्रव्याच्चतुर्गुणांभसि विपककषायविशेष-। पादशेषिवतदर्धदुग्धसहिते च तदर्धघृते घृतस्य ॥ पादौषधकल्कयुक्तमखिलं परिपाच्य घृतावशेषितं । तहरपूज्यपादकथितं तिलजादिविपाकलक्षणम् ॥ २४ ॥ ___ भावार्थः-औषधद्रव्य को चतुर्गुण जल में पकावें । उस कषाय को चौथाई हिस्से में ठहरावें, उस से अर्धभाग दूध, अर्धभाग घी (स्नेह ) दूध व घी से [ स्नेह ] चौथाई भाग औषधकल्क । इन सब को एकत्रा पकाकर घृत के अंश अवशेष रहने पर उतारलें । यह पूज्यपाद आचार्य के द्वारा कहा हुआ स्नेहपाक का लक्षण व विधान है ॥ २४ ॥ स्नेहपाकका त्रिविधभेद प्रोक्तघृतादिषु प्रविहिताखिलपाकविधिविशेषिते । । ष्वेषु समस्तमरिमतभंदविकल्पकृतः प्रशस्यते ॥ . . पाकमिह त्रिधा प्रकटयंति मृदुं वरचिक्कणं खरा-। युज्वलचिक्कणं च निजनामगुणैरपि शास्त्रवेदिनः ॥ २५ ॥ भावार्थ:-उपर्युक्त प्रकार घृत आदि के पाक के विषय में जो आचार्यों के परस्पर मतभेद पाया जाता है, वे सर्व प्रकार के विभिन्न मत भी हमें मान्य है। स्नेह पाक तीनप्रकार से विभक्त है । एक मृदुपाक, दूसरा चिक्कणपाक, तीसरा खरचिक्कण पाक, इस प्रकार अपने नाम के अनुसार गुण रखनेवाले तीन पाकों को शास्त्रज्ञोनें कहा है ॥ २५॥ मृदुचिक्कणखरचिक्कणपाकलक्षण. स्नेहवरौषधाधिकविवेकगुणं मृदुपाकमादिशेत् । स्नेहविविक्तकल्कबहुपिच्छिलतो भवतीह चिक्कणं ॥ कल्कमिहांगुलिद्वय विमर्दनतः सहसैव वर्तुली-। भूतमवेक्ष्य तं खरसुचिक्कणमाहुरतोतिदग्धता ॥ २६ ॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः। (५३५) भावार्थः-स्नेह पकाते २ जब तैल व उस में डाला हुआ औषध अलग २ [ तैल अलग, औषध अलग, तैल औषध घुले नहीं ] हो जाये इसे मृदुपाक कहते हैं। जिस कल्क में तैल का अंश बिलकुल न हो, लेकिन वह लिवलिवाहट से युक्त हो, ऐसे पाक को चिक्कण अर्थात् मध्यपाक कहते हैं । जिस कल्क की दोनों अंगुलियों से मर्दन [ मसलने ] करने पर शीघ्र ही गोल वा बत्तीसा बन जावे तो इस पाक को खरचिक्कण पाक कहते हैं, [ दग्ध पाक निर्गुण होता है ] ॥ २६ ॥ स्नेह आदिकों के सेवन का प्रमाण. स्नेहपरिप्रमाणं पोडशिकाकुडुवं द्रवस्य चूर्ण । विडालपादसदृशं वरकल्कमिहाक्षमात्रकं ॥ सेव्यमिदं वयोवलशरीरविकारविशेषतोतिही-। ... नाधिकतां वदंति बहुसंशमनौषधसंग्रहे नृणाम् ॥ २७॥ - भावार्थः-जो रोगशमनार्थ संशमन औषधप्रयोग किया जाता है, उस में स्नेह [ घृततल ] चूर्ण व कल्क के सेवन का प्रमाण एक २ तोला है । द्रव पदार्थ (काथादि ) का प्रमाण एक कुडब ( १६ तोला ) है । लेकिन रोगी के वय, शक्ति, शरीर, विकार रोग] की प्रबलता अप्रबलता, आदि के विशेषता से अर्थात् उस के अनुसार उक्त मात्रा से कमती या बढती भी सेवन करा सकते हैं । ऐसा संशमन औषध संग्रह में मनुष्यों के लिये आचार्यप्रवरोनें कहा है ॥ २७॥ - रसोंके त्रेसठ भेद.. . . .... .. एकवरदिकत्रिकचतुष्कसपंचषट्कभेदभं। गैरखिलै रसास्त्रिकयुताधिकषष्टिविकल्पकाल्पता ॥ तानधिगम्य दोषरसभेदविदुर्जिनपूर्वमध्यप-।। वादपि कर्मनिर्मलगुणो भिषगत्र नियुज्य साधयेत् ॥ २८ ॥ . भावार्थ:- [अब रसों के त्रेसठ भेद कहते हैं ] एक २ रस, दो २ रसों के ? संयोग, तीन २ रसों के संयोग, चार २ रसों के संयोग, पांच २ रसों के संयोग व छहों रसों के संयोग से कुल रसोंके वेसठ भेद होते हैं। दोषभेद रसभेद, पूर्वकर्म .. मध्यकर्म व पश्चात्कर्म को जाननेवाला निर्मलगुणयुक्त वैद्य, रसभेदों को अच्छी तरह जान कर, उन्हें दोषों के अनुसार प्रयोग कर के, रोगों को साधन करें ।। रसभेदों का खुलासा इस प्रकार हैं-एक २ रस की अपेक्षा छह भेद होते..... Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके हैं [ क्यों कि रस छह ही हैं ] जैसे १ मघुर रस (मीठा) २ अम्ल (खट्टा ] रस, ३ लवण [नमकीन ] रस, ४ कटुक चिरपरा] रस, ५ तिक्त (कडवा) रस, ६ कषाय (कषैला)रस. दो २ रसों के संयोग से १५ भेद होते हैं । १ मधुराम्ल, २ मधुरलवण, ३ मधुर तिक्त, ४ मधुरकटुक, ५ मधुरकषाय. इस प्रकार मधुर रस को अन्य रसों में मिलाने से ५ भेद हुए। १ अम्ललवण, २ अम्लकटुक, ३ अम्लतिक्त, ४ अम्लकषाय, इस प्रकार अम्लरस को अन्य रसों के साथ मिलाने से ४ भेद हुए। १ लवणतिक्त, २ लवणकटुक, ३ लवणकषाय. इस तरह लवणरस अन्य रसों के साथ मिलाने से ३ भेद हुए। १ कटुकतिक्त, २ कटुककषाय, इस प्रकार कटुक को तिक्त ते मिलाने से २ भेद हुए। तिक्तकषाय इन दोनों के संयोगसे एक भेद हुआ । इस प्रकार १५ भेद हुए । तीन २ रसों के संयोग से २० भेद होते हैं । वह इस प्रकार है । मधुर के साथ दो २ रसोंके संयोग करने से उत्पन्न दश भेद. १ मधुराम्ललवण, २ मधुराम्लक टक, ३ मधुराम्लातक्त, ४ मधुराग्लकषाय, ५ मधुरलवण कटुक, ६ मधुरलवणतिक्त, ७ मधुरलवणकषाय, ८ मधुरकटुकतिक्त, ९ मधुरकटुककषाय, १० मधुरतिक्त कषाय । अम्लरस के साथ मधुर व्यतिरिक्त अन्य रसों के संसर्ग से जन्य छह भेद । १ अम्ललवण कटुक, २ अम्ललवणतिक्त. ३ अम्ललवण कषाय, ४ अम्लकटुकषाय, ५ अम्लकटुतिक्त, ६ अम्लतिक्तकषाय । लवण रस के साथ संयोगजन्य तीन भेद । १ लवणकटुकतिक्त, २ लवणकटुकपाय, ३ लवणतिक्तकषाय । कटुकरस के साथ संयोगजन्य एक भेद १ कटुतिक्तकषाय । इस प्रकार २० भेद हुए । चार चार रसों के संयोग से १५ भेद होते हैं। इस में मधुर के साथ संयोगजन्य दश भेद अम्लरस के साथ संयोग से उत्पन्न भेद चार, लवण के साथ संसर्गजन्य भेद एक होता है । इस प्रकार पंद्रह हुए । इस का विवण इस प्रकार है ।। १ मधुराम्ललवणकटुक, २ मधुराम्ललवणतिक्त, ३ मधुरामललवणकषाय, ४ मधुरामलकटुककषाय, ५ मधुराम्लकटुकतिक्त, ६ मधुरलवणतिक्तकटुक, ७ मधुराम्लतिक्तकषाय, ८ मधुरलवणकटुककषाय, ९ मधुरकटुतिक्तकषाय, १० मधुरलवण तिक्तकषाय. - १ अम्ललवणकटुतिक्त, २ अम्ललवणकटुकषाय, ३ अम्ललवणतिक्तकपाय, ४ अम्लकटुतिक्तकषाय । १ लवणकटुतिक्तकपाय ॥ पांच रसों के संयोग से ६ भेद होते हैं । वह निम्नलिखितानुसार है । १ मधुरामललवणकतिक्त २ मधुराम्ललवणकटुकषाय ३ मधुराम्ललवणतिक्त कषाय, मधुराम्लकटुतिक्तकषाय, मधुरलवणकटुतिक्तकषाय । Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः। (५३७) इस प्रकार मधुरादि रस के संयोग से ५ भेद हुए। १ अम्ललवणकटुतिक्तकषाय अल्लादिरसों के संयोग से, यह एक भेद हुआ। छहों रसों को एक साथ मिलाने से एक भेद होता है यथा मधुराम्ललवणकटुतिक्त कषाय । इस प्रकार कुल रसों के त्रेसठ भेद का विवरण समझना चाहिये ॥ २८ ॥ . अयोगातियोगसुयोगलक्षण. सर्वमिहाखिलामयविरुद्धमयोगमतिप्रयोगमु-। द्यद्वरभेषजैरतिनियुक्तमशेषविकारविग्रहं ॥ सम्यगितःप्रयोगमुपदिष्टमुपक्रमभेदसाधन-। रायुररं विचार्य बहुरिष्टमणैरवबुध्य साधयेत् ।। २९ ॥ भावार्थ:-जो औषधप्रयोग रोग के लिये हरतरह से विरुद्ध है उसे अयोन कहते हैं । जो रोग के शक्ति की अपेक्षा [ अविरुद्ध होते हुए भी.] अधिकमात्रा से प्रयक्त है उसे अतियोग कहते हैं। जो योग रोग को नाश करने के लिये सर्व प्रकार से अनुकूल है अतएव रोग को पूर्णरूपेण नाश करने में समर्थ है उसे सम्यगयोग याहते हैं । वैद्य को उचित है कि अरिष्ट समूहों से रोगी के आयु को विचार कर, अर्थात् आयुका प्रमाण कितना है, इस बातको जानकर, अनेक भेदसे विभक्त उपक्रम (प्रतीकार) रूपी साधनों से रोग को साधना चाहिये, [ चिकित्सा करनी चाहिये ] ॥ २९ ।। रिटवर्णनप्रतिज्ञा. स्वस्थजनोद्भवान्यधिकृतातुरजीविननाशतरि-। शान्यपि चारुवीरनिनवचोदितलक्षणलक्षितानि तान्यत्र निरूपयाम्यखिलकर्मरिपूनपहंतुमिच्छतां । तत्वविदां नृणाममलमुक्तिवधूनिहिताभिकांक्षिणाम् ॥ ३० ॥ ___ भावार्थः- अब आचार्य कहते हैं कि जो भव्य खत्ववेत्ता संपूर्ण कर्मशत्रुओंको नाश कर मुक्तिलक्ष्मी को वरना चाहते हैं, उन के लिये हम स्वस्थ मनुष्य में भी उत्पन्न रोगी के प्राण को नाश करने के लिये कारणभूत रिष्ट [ मरणचिन्हों ] का निरूपण श्री महावीरभगवंत के बचनानुसार लक्षणसहित करेंगे ॥ ३० ॥ रिष्टसे मरणका निर्णय. मेघसमुन्नतैराधिकवृष्टिरिवेष्टविशिष्टरिष्टस-। , दर्शनतो नृणां मरणमप्यचिराद्भवतीति तान्यशे-॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३८) कल्याणकारके पागमपारगस्वमनसैव विचार्य निश्चितं वदेत । स्वप्नविकारचेष्टितविरुद्धविलक्षणतो विचक्षणः ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-समस्तशास्त्रो में प्रवीण वैद्य जैसे अत्यधिक बादलों के होनेपर वर्मत होना अनिवार्य कह सकते हैं, उसी प्रकार विशिष्ट मरणचिन्होंके प्रकट होने से मरण भी शीघ्र अवश्य होता है, ऐसा अपने मन में निश्चय कर कहें । विकृतस्वप्न, विरुद्धचेष्टा, व विरुद्धलक्षण, इनसे आयु का निर्णय कर सकता है एवं मरण का ज्ञान कर सकता है ॥ ३१ ॥ मरणसूचकस्वप्न. स्वप्नगतोऽतिकंटकतरूनधिरोहति चेद्भयाकुलो । भीमगुहांतरेऽपि गिरिकूटतटात्पतति ह्यधोमुखः ॥ यस्थ शिरोगलोरसि तथोच्छ्रितवेणुगणप्रकार-। तालादिसमुद्भवो भवति तज्जनमारणकारणापहम् ॥ ३२ ।। भावार्थ:-- यदि रोगी स्वप्न में व्याकुल होकर अपने को तीव्रकंटकवृक्ष पर चढते हुए देखता हो, कोई भयंकर गुफा में प्रवेश कर रहा हो, कोई पर्वत वगैरह से नीचे मुखकर गिरता हो एवं यदि रोगी के शिर, गल व हृदय में ऊंचे बांस व उसी प्रकार के ऊंचे ताल [ ताड | आदि वृक्षों की उत्पत्ति मालूम पडती हो तो यह सब उसके मरणचिन्ह हैं ऐसा समझना चाहिये अर्थात् ये लक्षण उस के होनेवाले मरण को बतलाते हैं ॥ ३२ ॥ यानखरोष्ट्रगर्दभवराहमहामहिषोग्ररूपस- । ब्यालमृगान् व्रजेत् समाधिरुह्य दिशं त्वरितं च दक्षिणं ॥ . तैलविलिप्तदेइमसिता वनिता बथवातिरक्तमा- । ल्यांवरधारिणी परिहसन्त्यसकृत्परिनृत्यतीव सन् ॥ ३३ ॥ . प्रेतगणस्सशल्य बहुभस्मधरैरथवात्मभृत्यब- । गैरतिरक्तकृष्णवसनावृतलिंगिभिरंगनाभिर-- ।। त्यंतविरूपिणीभिरवगृह्य नरो यदि नीयतेऽत्र । कार्यासतिलोत्थकल्कखललोहचयानपि यः प्रपश्यति ॥ ३४ ॥ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः । (५३९) ... भावार्थ:-जो स्वप्नमें खच्चर, ऊंट, गधा, सूअर, भैंस व भयंकर व्याघ्र (शेर) आदि कर मृमोंपर चढकर शीघ्र ही दक्षिण दिशा की ओर जाते हुए दृश्य को देख रहा हो, शरीर पर तेल लगाये हुए स्वयंको लालवस्त्र व माला को धारण करनेवाली काली स्त्री बार २ परिहास करती हुई, नाचती हुई बांधकर लेजा रही हो, शल्य ( कांटे) व भस्म को धारण करनेवाले प्रेतसमूह, अथवा अपने नौकर या अत्यंत लाल वा काले कपडे पहने हुए साधु, अत्यंत विकृत रूपवाली स्त्री, यदि रोगी को पकडकर कहीं ले जाते हुए दृश्य को देख रहा हो, जो रूई, तिल के कल्क, खल, लोहसमूहों को स्वप्न में देखता हो तो समझना चाहिये यह सब उस रोगी के मरण के चिन्ह हैं। ऐसे रोगीकी चिकित्सा न करनी चाहिये ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ विशिष्ट रोगों में विशिष्ट स्वप्न व निष्फलस्वप्न. शोणितपित्तपाण्डुकफमारुतरोगिषु रक्तपातपा-। ण्डुप्रकरारुणाभबहुवस्तुनिदर्शनतो मृतिस्तु ते॥ षो क्षयरोगिणामपि च वानरबंद्युतया यथापक-। त्यात्मविचिंतितान्यखिलदर्शनकान्यफलानि वर्जयेत् ॥ ३५॥ भावार्थ:-रक्तपित्तसे पीडित लाल, पांडुरोगा पलिा, कफरोगी सफेद व वातरोग से पीडित लाल वर्ण के बहुत से पदार्थोंको देखें और क्षयरोग से पीडित मनुष्य बंदर को मित्र के सदृश अथवा उस के साथ मित्राता करते हुए देखें तो इन का जरूर मरण होता है । जो स्वप्न रोगी के प्रकृति के अनुकूल हो, अभिन्न स्वभाववाला हो एवं संस्कार गत हो [जो विषय व वस्तु बार बार चितवना किया हुआ हो वही स्वप्न में नजर आंवें] ऐसे स्वप्न फलरहित होते हैं ॥ ३५ ॥ दुष्ट स्वप्नों के फल. स्वस्थजनोऽचिरादधिक रोगचयं समुपैति चातुरो । मृत्युमुखं विशत्यसदृशासुरनिष्ठुररूपदुष्टदु-॥ स्वप्ननिदर्शनादरललामसुखाभ्युदयैकहेतुसु-. । स्वप्नगणान्ब्रवीम्युरुतरामयसंहतिभेदवेदिनम् ।। ३६ ॥ भावार्थ:--पूर्वोक्त प्रकार के असृदृश व राक्षस जैसे भयंकर, दुष्ट स्वप्नों को यदि स्वस्थ मनुष्य देखें तो शीघ्र ही अनेक प्रकार के रोगों से ग्रस्त होता है। रोगी Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४०) कल्याणकारके देखें तो शीघ्र मृत्युमुखपर जाता है । अब विस्तृत रोगसमूहों के भेद को जाननेवालों के लिये अत्युकृष्ट सुख व अभ्युदय के हेतुभूत शुभस्वप्नों को कहेंगे ॥ ३६॥ .... शुभस्वप्न. पंचगुरून्गुरूनरपतीन्वरषोडशजैनसंभव- । स्वप्नगणान्जिनेंद्रभवनानि मनोहरमित्रबांधवान् । नदीसमुद्रजलसंतरणोन्नतशैलवाजिसद्वारणा-। रोहणान्यपि च सौख्यकराण्यधिपश्यतां नृणाम् ।। ३७ ॥ . . . भावार्थ:-जोग रोगी स्वप्न में पंचपरमेष्ठी, अपने गुरु, राजा, जिनेंद्र शासन में बतलाये हुए सोलह स्वप्म, जिनेंद्रमंदिर, सुंदर मित्र बांधव आदि को देखता हो एवं अपनेको नदी समुद्र को पार करते हुए, उन्नत पर्वत, सुंदर घोडा व हाथीपर चलते हुए देखता हो यह सब शुभ चिन्ह हैं । रोगीके लिये सुखकर हैं ॥ ३७॥ अन्य प्रकार के अरिष्टलक्षण. मर्म उपद्रवान्वितमहामयपीडितमुग्रमर्मरो-। . गव्यथितांगयष्टिमथवा तमीतसमस्तवेदनम् ॥ त्यक्तनिजस्वभावमसितद्विजतद्रसनोष्ठनिष्ठुरं । स्तब्धनिमग्नरक्तविषमेक्षणमुद्गतलोचनं त्यजेत् ॥ ३८ ॥ - भावार्थ:-जो मर्म के उपद्रव स्ने संयुक्त महामय पीडित है, भयंकर मर्मरोगसे प'कुलित है, जिस की समस्तवेदनायें अपने आप अकस्मात् चिकित्साके विना शांत होगयी हों, शरीरका वास्तविकस्वभाव एकदम बदल गया हो, दांत काले पडगये हों, जीभ व ओंठ काली व कठिन होगयी हों, आंखें स्तब्ध [ जकडजाना ] निमग्न ( अंदर की ओर घुसजाना ) लाल व विषम होगई हों अथवा आंखे उभरी हुई हो, ऐसे रोगीकी चिकित्सा न कर के छोड देना चाहिये । अर्थात् ये उस रोगी के मरण चिन्ह हैं । इन चिन्हों के प्रकट होनेपर रोगी का मरण अवश्य होता है ॥ ३८॥ पश्यति सर्वमेव विकृताकृतिमार्तविशेषशद्वजाति। विकृति श्रुणोति विकृति परिजिघ्रति गंधमन्यतः ॥ . सर्वरसानपि स्वयमपेतरसो विरसान्ब्रवीति यः। स्पर्शमरं न वेत्ति विलपत्यबलस्तमपि त्यद्भिषक् ।। ३९ ॥ . Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः। (५११) भावार्थः--जो रोगी सर्वरूप को विकृतरूप से देखता है, आर्तनाद जैसे विष्कृत शब्द को सुनसा है, गंध को भी विकृतरूप से सूंघता है, अपनी जिव्हा में रख रहित, विकारस्वाद ( निस्वाद ) अथवा विकृत रसवाली होनेसे सम्पूर्ण रसों को विरस कहता है, स्पर्शको भी नहीं जानता एवं 'लाप करता है, निर्बल है, ऐसे रोगी को वैच असाच समझकर छोड देवें ॥ ३९ ॥ आननसंभृतश्वयथुरंघ्रिगतः पुरुषं-। हंति तदंघ्रिजोप्यनुतदाननगः प्रमदां- ॥ गगुह्यगतस्तयोर्मतिकरोर्धशरीरगतो- । प्यर्धतनोर्विशोषणकरः कुरुते मरणं ॥ ४० ॥ भावार्थ:--पुरुष के मुख में शोथ उत्पन्न होकर क्रमशः पाद में चला जावे तो और स्त्री के प्रथम पाद में उत्पन्न होकर मुख में आजावें तो, मारक होता है । गुह्य भाग में उत्पन्न शोथ, एवं शरीर के अर्धभाग में स्थित होकर अर्धशरीर को सुखानेवाला शोथ स्त्रीपुरुष दोनों को मारक होता है ॥ ४० ॥ यो विपरीतरूपरसगंधविवर्णमुखो। नेत्ररुजां विना सृजति शीतलनेत्रजलम् ॥ दाहनखद्विजाननसमुद्गतपुष्पसुग-। र्भातिसितासितैररुणितैरनिमित्तकृतैः ।। ४१ ॥ भावार्थ:-जो रोगी विपरीत रूप रस गंधादिकों का अनुभव करता हो, जिसका मुख विवर्ण (विपरीत वर्णयुक्त ) होगया हो, जिस के नेत्र से कोई नेत्ररोग के न होनेपर भी शीतल पानी बहरहा हो, जिस के शरीर में अकस्मात् दाह और नाखून, दंत व मुखमण्डल में आक्स्मात् सफेद, काले व लाल पुष्प ( गोलबिंदु ) उत्पन्न होगये हों, तो समझना चाहिये कि उस रोगी का मरण अत्यंत सन्निकट है ॥ ४१ ।। अन्यरिष्ट. यश्च दिवानिशं स्वपिति यश्च न च स्वपिति । स्पृष्टललाटकूटघटितोठूितभूरिशिरः ॥ यश्च मलं बृहत्सृजति भुक्तिविहीनतनु-। . र्यःपलपनात्पतत्यपि सचेतन एव नरः ॥ ४२ ॥ , | Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४२) कल्याणकारक यश्च समस्तलोकमपि धूमहिमांबुवृतं ।। यश्च परावलं लिखति तद्विवराकुलितं ॥ यश्च रजोविकीर्णरवि पश्यति चात्मवपुः । यश्च रुजं न घेत्ति दहनादिकृतां मनुजः ॥४३॥ यश्च न पश्यति प्रविदितपतिबिचमरं । यश्च निषेव्यते कनकमाक्षिकपद्धतिभिः ॥ यश्च दिवाकरं निशिशशिातिवन्यनिकं । यश्च शरीरिणं समुपलक्षयति प्रकटम् ॥ ४ ॥ यस्य ललाटपट्टमुपयंति च यूकगणा । यस्य शिरस्यकारणविकीर्णरजोनिचयः॥ यस्य निमग्नमेव हनुविलंबबृहद्वषणं । यस्य विनष्टहीनविकृतस्वरता च भवेत् ॥ ४५ ॥ यस्य सितं तदप्यसितवच्छुषिरं घनव-। घस्य दिवा निशेव बृहदप्यतिसूक्ष्मतरं ॥ यस्य मृदुस्तथा कठिनवद्धिममप्यहिमं । यस्य समस्तवस्तु विपरीतगुणं तु भवेत् ॥ ४६॥ सान्परिदृत्य दुष्टबहुरिष्टगणान् मनुजान् । साधु विचार्य चेष्टितनिजस्वभावगुणैः ॥ व्याधिविशेषविद्भिषगशेषभिषक्पवरः । साध्यतमामयान्सततमेव स साधयतु ॥ ४७॥ भावार्थ:-जो रोगी दिन रात सोता हो, जो बिलकुल नहीं सोता हो, जिस के ललाट प्रदेश में स्थित शिरायें उठी हुई नजर आती हों, जो भोजन न करने पर भी बहुत मल विसर्जन करता हो, मूर्छित न होने पर भी बडबड करते हुए गिर पडता हो, सम्पूर्ण लोक को, धूवां, ओस, व पानसे व्याप्त देखता हो, महीतल को रेखा व रंध्रों [छिद्र सूराक ] से व्याप्त देखता हो, अपने शरीर पर धूल विखेर लेता हो, (अथवा अपने शरीर को धूलि से व्याप्त देखता हो, ) अग्नि से जलने व शस्त्रादिक से भिद ने छिद ने आदि से उत्पन्न वेदनाओंको बिलकुल नहीं जानता हो, दर्पणादिक में अपने प्रतिबिम्ब को नहीं देखता हो, जिस पर [ स्नान से शरीर साफ होने के पश्चात्. भी] कनकमाक्षिक ( सुनेरी रंगवाली मख्खियां ) समूह आ बैठता हो, रात्रि में सूर्य को, दिन में चंद्र के सदृश कांतियुक्त सूर्य को व न रहते हुए भी अग्नि व वायु को देखता Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः। - arana हो, जो प्रेत राक्षस आदि प्राणियों को अच्छी तरह देखता हो, जिस के ललाट पर यूक [ जू ] समूह आकर बैठ जाता हो, शिर बिना कारण रज से [ धूल आदि ] व्याप्त हो जाता हो, हनु गहरी मालूम पडती हो, नाक अल्प अथवा विकृत होगयी हो, जिसको सफेद वस्तु भी काले दिखते हों, छिद्रसहित भी छिदरहित [ ठोस ] दिखते हों, दिन, रात्रि के समान दिखता हो, बडा भी सूक्ष्मरूप से दिखता हो, मृदु भी कठिन मालुम होता हो, ठण्डा भी गरम मालुम होता हो, अर्थात् जिसे समस्त पदार्थ विपरीत गुण से दिखते हों ऐसे मरणचिन्होंसे युक्त मनुष्योंको उनके स्वभाव, चेष्टा, गुण आदियोंको से अच्छी तरह विचार कर के, उस रोगीको चिकित्सा में प्रवीण कुशल वैध साध्य रोगों को बहुत प्रयत्न के साथ साधन करें अर्थात् चिकित्सा करें॥ ४२ ॥ ४३ ॥ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ रिष्टलक्षणका उपसंहार और मर्मवर्णन प्रतिक्षा. पोक्तानेतानिष्टरिष्टान्मनुष्यान् । त्यक्त्वा धीमान् मर्मसंपीडितांश्च ॥ ज्ञात्वा वैद्यः प्रारभेत्तचिकित्सां । यत्नाद्वक्ष्ये मर्मणां लक्षणानि ॥ ४८ ॥ भावार्थ:-उपर्युक्त प्रकार के मरणचिन्हों से युक्त रोगियोंको एवं मर्म पीडासे व्याप्त रोगयोंको बुद्धिमान् वैद्य छोड़कर बाकीके रोगियोंकी चिकित्सा करें। अब बहुत यत्नके साथ मर्मों का लक्षण कहेंगे ॥ ४८ ॥ शाखागत मर्मवर्णन. क्षिम व तलहृदय मर्म. पादांगुल्यंगुष्ठमध्ये तु मर्म । क्षिप्रं नाम्नाक्षेपकेनात्र मृत्युः ॥ तन्मध्यांबल्यामानुपूर्व्य तलस्य । माहुर्मध्ये दुःखमृत्यु हृदाख्यम् ॥ ४९ ॥ भावार्थ:--पाद की अंगुली व अंगूठे के बीच में “ क्षिप्र” नाम का मर्मस्थान है। वहां भिरने से आक्षेपक वातव्याधि होकर मृत्यु होती है । मध्यमांगुली को लेकर पादतल के बीच में "तलहृदय" नाम का मर्म स्थान है। वहां भिदने से पीडा हॉकर मृत्यु होती है ॥ १९ ॥ . Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४४) !: कल्याणकारके AAAAAA. कूर्चकूर्च शिरगु’फ मर्म.. मध्यात्पादस्योभयत्रीपरिष्टात् । फू! नाम्नात्र क्षते तद्भमः स्यात् ।। गुल्फाधस्ताकूर्चशीर्षोतिदुःख । शोफो गुल्फे स्तब्धमुप्तिस्वरुक्च ॥ ५० ॥ भावार्थः पादतल को मध्य [क्षिप्रमर्म ]. से ऊपर की ओर [ पंजेकी तरफ ] दोनोंतरफ " कूर्च" नाम का मर्म है । वहां जखम होने पर पाद में भ्रमण वा कम्पन होता है। गुल्फ की संधि से नाचे [दोनों बाजू ] " कूर्चशिर" नाम का मम है। वहां विधने से सूजन और पीडा होती है। पाद और जंघा की संधि में " गल्फ " नाम का मर्म है। वहां चोट लगने से, स्तब्धता [ जकड जामा ] सुप्ति (स्पर्श ज्ञान का नाश ) और पीडा होती है ॥ ५० ॥ इंद्रवस्ति जानुमर्म. पाणिप्रत्यर्धस्वगंधार्धभागे । रक्तस्रावादिद्रवस्ती मृतिस्स्यात् ।। जंघो?ः संधौ तु जानुन्यमांधं । ..... खंजत्वं तत्र क्षते वेदना च ॥ ५१ ।। । भावार्थः- एडी को लेकर ( एडी के बराबर ) ऊपर की ओर पिंडली के मध्य भाग में " इंश्वस्ति" नाम का मर्म है। वहां चोट लगने वा बिधनेसे, रक्तस्राव होकर मरण होता है । पिंडली और उस की जोड में “ जानु" [घुटना ] नामका मर्म स्थान है। वहां क्षत होने पर लंगडापन, और पडिा होती है ।। ५१ ॥ आणि व उवामर्मः जानुन्यू व्यंगुलादाणिरुक्च । स्थाब्ध्यं सक्थनः शोफबृद्धिः क्षतेऽस्मिन् ॥ ऊर्वोमध्ये स्यादिहोति मर्म । ..रक्तस्रावात्सक्थिन शोफक्षयश्च ॥ ५२ ॥ . . ... भावार्थ:-जानु के ऊपर (दोनों तरफ) तीन अंगुल में आणि नामकः मर्म है, जिस के क्षत होनेपर पीडा साथल की स्तब्धता व शोफकी वृद्धि होती है। ऊरु [साथली के बीच में ऊर्वी नामक मर्म है । वहां विंधने से रक्त स्राव होने के कारण, साथल Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः । में सूजन होती है ॥ ५२ ॥ " रोहिताक्ष मर्म. ऊोस्तूव वंक्षणस्याप्यधस्तादूरोर्मूले रोहिताक्षेऽपि तद्वत् । पक्षाघातःसक्थिशोफोऽस्रपातो मृत्यु स्यात्माणिनां वेदनाभिः ॥ ५३ ॥ भावार्थ:-उर्वी मर्म के ऊपर वंक्षणसंधि के नीचे उस ( साथल ) के मूल में ""रोहिताक्ष” नाम का मर्म है। वहां क्षत होने पर रक्तस्राव होने से पक्षाघात, (लकुआ) व पैर में सूजन होती है। कभी २ अत्यंत पीडा के साथ प्राणियों का मरण भी होजाता हे ॥ ५३ ॥ विटपमर्म. अण्डस्याधो वंक्षणस्यांतराले शुक्रध्वंसी स्याद्विटीपाख्यमर्म । ५. सक्न कस्मिन् तान्यथैकादशैव सक्थ्यन्यस्मिन् बाहुयुग्मेऽपि तद्वत् ॥५४॥ - भावार्थ:--अण्ड व वंक्षण संधि के बीच में “ विटप” नाम का मर्म है । वहां क्षत होनेपर शुक्रधातु का नाश होता है [ इसीलिये नपुसंकत्व भी होता है ] इस प्रकार एक टांग में ग्यारह मर्म स्थान हुए। इसी प्रकार दूसरी टांगमें दोनों हाथोमें ग्यारह . २ मर्म स्थान जानना चाहिये ॥ ५४ ॥ पादे गुल्फसुजानुसद्विटपनामान्येव वैशेषतो। । बाहौ तन्माणिबंधकूर्परलसत् कक्षाक्षसंधारणा-॥ ख्यानि स्युः कथिता उपद्रवगणाश्चात्रापि सर्वे चतु-। श्चत्वारिंशदिहाखिलानि नियतं माणि शाखास्वलं ॥ ५५ ॥ भावार्थ:-ऊपर कहा गया है कि जो पावों के मर्म होते हैं वे ही हाथ में होते हैं । लेकिन इन दोनों में परस्पर इतना विशेष है कि जो पैर में गुल्फ, जानु विटप मर्म हैं हाथो में उन कं जगह क्रमशः मणिबंध, कूर्पर, कक्षधर माम का मर्म जानना । अर्थात् गुल्म के स्थान में " मणिबंध' जानु के स्थान में " कूपर" विटफ के स्थान में " कक्षधर" समझना चाहिये। इन मर्मों के बिधने से, ये लक्षण प्रकट होते हैं जो गुल्फादिक में होते हैं । इस प्रकार शाखाओं [ हाथ पैर ] में ४४ च वालीस निश्चित मर्मों का वर्णन हुआ ॥ ५५ ॥ गुदद्वस्तिनाभिमर्मवर्णन, अथ प्रवक्षाम्युदरोरसस्थितानशेषमर्माणि विशेषलक्षणः । गुदे च बस्ती वरनाभिमण्डले क्षते व सद्यो मरणं भवेन्नृणाम् ॥ ५६ ॥ मामलोषमाणि विशेषलक्षणः । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५६) कल्याणकारक भावार्थ:--अब पेट व हृदय में रहनवाले सम्पूर्ण मर्मो को उन के विशेष लक्षण कथन पूर्वक कहेंगे ऐसी आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं। अपानवायु व मलके निकलनेके द्वारभूत बृहदंत्र से मिला हुआ जो गुद है वही " गुद मर्म " है । कमर के भीतर जो मूत्राशय [ मूत्र ठहरने स्थान ] है वही " बत्ति मर्भ " कहलाता है । आमाशय व पक्काशय के बीच में शिराओं से उत्पन्न जो नाभिस्थान है, वह "नाभिमर्म" कहलाता है। इन तीनों मर्म स्थानों के क्षत होनेपर मनुष्यों का सद्य [ उसी वखत ] ही मरण होता है ॥ ५६ ॥ हृदय, स्तनमूल, स्तनरोहितमर्मलक्षण उरस्यथामाशयमार्गसंस्थितं स्तनांतरे तद्धदये हतः पुनः । करोति सद्यो मरणं तथांगुलद्वयेप्यधस्तात्स्तनयोरिहापरे ।। ५७ ।। कफाधिकेन स्तनमूलमर्मणि कफ प्रकोपान्मरणं भवेन्नृणाम् । स्तनोपरि चंगुलतस्तु मर्मणी सरक्तकोपात्स्तनरोहितो तया ॥ ५८ ।। भावार्थ:- छाती में दोनों रतनों के बीच, आमाशय के ऊपर के द्वार में स्थित, जो हृदय है (जो रक्त संचालन के लिये मुख्यसाधनभूत है) वह "हृदय मर्म" कहलाता है। वहां क्षत होनेपर उसी वखत मरण होता है । दोनों स्तनों [ चूचियों ] के नीचे दो अंगुलप्रदेश में " रतनमूल " नाम का मर्मस्थान है। वहां क्षत होवे तो कफप्रकोप से, अर्थात् प्रकुपितकोष्ठ में कफ भरजाने से मृत्यु होती है । दोनों चूचियों के ऊपर दो अंगुल प्रदेश में " रतनरोहित” नामक दो मर्म रहते हैं। वहां क्षत होवें तो रक्त प्रकुपित होकर [ रक्त कोष्ठ में भरजाने से ] मरण होता है ।। ५७ ॥५८॥ कपाल, अपस्तम्भमभलक्षण. अर्थासकूटादुपरि स्वपार्थयोः कपाल फाख्ये भवतस्तु मर्मणी। सयोश्च मृत्यू रुधिरेऽतिपूयतां गत पुनर्वातवहे तथापरे ॥ ५९॥ प्रधाननाड्यारुभयत्र वक्षसो मतेस्त्वपस्तंभविशेषमर्मणी। सतश्च मृत्युर्भवतीह देहिनां स्ववातपूर्णोदरकासनिस्वनैः ॥ ६० ।। भावार्थ:-- असकूटों ( कंधों के नीचे, पाचौं पंसवाडों ) के ऊपर " कपाल " नाम के दो मर्म हैं। यहां क्षत होनेपर, रक्त का पीप होकर मृत्यु होती है । छाती के दोनों तरफ वात वहनेवाली दो नाडियां रहती हैं । उन में “ अपस्तम्भ " नाम के दो मर्म रहते है। इस में क्षत होने पर उदर में बात भरजाता है य कासश्वास से मृत्यु होती है ॥ ५९॥ ६०॥ १ इसे ग्रंथांतरो में अपलाप" भी कहते है। ------------- Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः । (५४७) कटीकतरुण. प्रोक्ता द्वादशमर्मलक्षणगुणाः कुक्षौ तश वक्षसि । प्रायः पृष्ठगतान्यपि प्रतिपदं वक्षामि मर्माण्यहम् । वंशस्योभयतः कटीकतरुणे पृष्ठस्य मृले प्रति ॥ श्रोण्यस्थ्याश्रितमर्मणीह कुरुतः शुक्रक्षयः क्लीवताम् ।। ६१ ॥ . भावार्थ:-इस प्रकार कुक्षि व वक्षस्थान में बारह प्रकार के मर्मस्थान कहे गये हैं। और पीठमें रहनेवाले मर्मस्थानों को भी कहेंगे । पीठ के वंशास्थि के दोनों तरफ, पीठ के मूल में कमर के दोनों हड्डियो में " कटीकतरुण" नामक दो मर्म रहते हैं। वहां क्षत होवें तो शुक्र का नाश व नपुंसकता होती है ।। ६१॥ ___ कुकुंदर, नितम्ब, पावसांधममलक्षण. पृष्ठस्योभयपार्थयोर्घनबहिर्भागे तथा मर्मणि । वंशस्योभयतः कुकुंदर इति प्रख्यातसन्नामनि ॥ तत्र स्यात्सततं नृणां क्षतमधः काये च शोफावहम् । चेष्टाध्वंसपर स्वकाशयनिजप्रच्छादनं मर्मणी ।। ६२ ॥ श्रोणीकांडधुगोपरीह नियतं बद्धौ नितंबौ ततः । शोषःकार्यमधःशरीरनिहितावन्यं च मर्माण्यतः ॥ भोणी पार्श्वयुगस्य मध्यनिलयी संधी च पाचदिका-। वसापूर्णमहोदरेण मरणं प्राप्नोति मर्त्यः क्षते ॥ ६३ ॥ भावार्थ:--पीट के दोनों पार्थी ( पंसवाडो) के बाहर के भाग में, वंशास्थि (पीठ के बांस की हड्डी) के दोनों बाजू " कुकुंदर" नाम के दो मर्मस्थान हैं। उन में चोट लग जाय तो शरीर के निचले भाग [कभर से नीचे ] में सूजन अथवा चेष्टा नष्ट होकर मरण होता है। दोनों श्रोणीकांड (पूर्वोक्त कटीकतरुण) से ऊपर के भाशय [ स्थान ] को ढकनेवाले पंसवाडे से बंधे हुए “ नितम्ब " नामक दो मर्म हैं। इन में चोट लगने से, शरीर का निचला भाग सूख जाता है और दुर्बल होकर मरण होता है । श्रोणी व दोनों पसलीयोंके बीच में “पार्श्वसंधि' नामक दो मर्म स्थान हैं। उन में चोट लगने से, उदर ( कोठा) में रक्त भरकर मृत्यु होती है ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ बृहती, असंफलक मर्म लक्षण । वंशस्योभयभागतस्तनयुगस्यामूलतोप्यायं । पृष्ठेऽस्मिन् बृहतीद्वयाभिहितमर्मण्यत्र रक्तसुते ।। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४८) ... कल्याणकारके nanoranwar NANrniamopananaan मृत्युः पृष्टतलोपरि त्रिकगते मर्मण्यथासाटक [?] स्यातां तत्फलके क्षतेऽपि करयोः स्वापातिशोषो नृणाम् ॥ ६४ ॥ भावार्थः-- दोनों स्तनों के मूलभाग से लेकर सीधा, पीठ में पृष्ठवंश [ पीठ के बांस ] के दोनों भागतक, “ बृहती " नाम के दो मर्मस्थान हैं । वहां अभिघात होने से रक्तस्राव होकर मृत्यु होती है । पीठ के ऊपर के भाग में [पीठ के बांस के दोनों तरफ ] त्रिकस्थान से बंधे हुए " असंफलक " नाम के दो मर्म हैं । वहां जखम होनेपर हाथ सूख जाते हैं अथवा सुन्न पड जाते हैं ॥ ६४ ॥ , कन्या अंसमर्मलक्षण. ग्रीवांसद्वयमध्यभागनियतौ स्यातां क्रकन्यांसको । तत्र स्तब्धशिरोंसबाहुनिजपृष्ट स्यान्नरो वक्षिते ।। तान्येतानि चतुर्दश प्रतिपदं पृष्ठे च मर्माण्यनु-॥ व्याख्यातान्यत ऊर्ध्वजत विहिताशेषाणि वक्ष्यामहे ॥ ६५ ॥ भावार्थः---ग्रीवा व अंस [ कांधे ] के बीच में "क्रकन्यांसक' नाम के दो मर्मस्थान होते हैं । जिन में आघात होने से शिर, अंस, वाहु व पीठ के स्थान स्तब्ध ( जकड जाना ) होते हैं । इस प्रकार पीठ में रहने वाले चौदह प्रकार के मर्म स्थान कहे गये हैं । अब हंसली की हड्डी के ऊपर रहनेवाले सर्व मर्मस्थानोंको कहेंगे । ६५॥ ऊर्ध्वजत्रुगत मर्म वर्णन. कंठे नाडीमुभयत इतो व्यत्ययान्नालमन्ये । द्वे द्वे स्यातामधिकतरमर्मण्यमी मूकतो वा ॥ वैस्वये वा विरस रसनाभावतो मृत्युरन्या । श्चाष्टौ ग्रीवाशिरामातृका मृत्युरूपाः ॥ ६६ ॥ भावार्थ:-कंठ नाडी के दोनों पार्यो में चार धमनी रहती हैं। उन में एक बाजू में एक " नीला" एक “ मन्या " इसी तरह दूसरी बाजू में भी एक “ नाला, एक “ मन्या" नाम के चार मर्म स्थान हैं। उन में चोट लगने से गूंगापना, स्वर विकार, जीभ विकृतरसवाली ( रस ज्ञानकी शून्यता ) होकर मृत्यु होती है। ग्रीवा ( गला ) के दोनों तरफ, चार चार शिरायें रहती हैं। उन में 'मातृका' नामक आठ मर्म रहते हैं। उन में चोट लगने से उसी समय मरण होता है ॥ ६६ ।। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः। ( ५१९) कृकाटिका विधुर मर्मलक्षण. ग्रीवासंधावपि च शीर्षत्वकृन्मर्मणी द्वे । स्यातां मृत्योनिलयनिजरूपे कृकाटाभिधाने ।। कर्णस्याधी विधुर इति मर्मण्यथा कर्णसंधौ ।। बाधिय स्यादुपहतवती प्रोक्त तत्पृष्टभागे ॥ ६७ । भावार्थ:---.कंठ और शिर की संधिमें मस्तक के बराबर रहनेवाले दो मर्म स्थान होते हैं जो साक्षात् मृत्यु के समान होते हैं । उनका नाम " कृकाटिका" हैं। [ इन में चोट लगने से शिरकम्पने लगता है ] कान के नीचे पीछे के भाग में कान की संधि में “ विधुर " नाम के दो मर्म हैं । वहां चोट लगने से बहरापन हो जाता है ॥ ६७ ॥ फण अपांगमर्मलक्षण. घ्रांणस्यांतर्गतमुभयतः स्रोतसो मार्गसंस्थे । मर्मण्येतेऽप्यभिहतफणे तत्र गंधप्रणाशः ॥ अक्ष्णोबांधे प्रतिदिनकटाक्षेऽप्यपांगाभिधाने । मर्मण्यांध्यं जनयव इतस्तत्र घातान्नराणां ।। ६८ ॥ भावार्थः-नाक के अंदर दोनों बाजू , छिद्र के [सूराक] मार्ग में रहनेवाले अर्थात् छिदमाग से प्रतिबद्ध, "फण” नामक दो मर्म रहते हैं । वहां आघात पहुंचनेसे, गंधग्रहण शक्ति का नाश होता है । आंखों के बाहर के भाग में ( भ्रुकुटी पुच्छ से नीचे को.) " अपांग " नाम के दो मर्म हैं । वहां चोट लगने से अंधापन हो जाता है ।। ६८ ॥ शंख, आवर्त, उत्क्षेपक, स्थपनी सीमेतमर्मलक्षण. भूपुच्छोपर्यनुगतललाटानुकणे तु शंखौ- । ताभ्यां सद्यो मरणमथ मर्मभ्रुवोरूवभागे ॥ आवाख्यावमलनयनध्वंसिनी दृष्ट्युपना-। व्युत्क्षेपावप्युपरि च तयोरेव केशांतजातौ ॥ जीवेत्तत्र क्षतवति सशल्येऽथवा पाकपाता- । भद्रमध्ये तत्तदिव विदितं स्यात् स्थपन्येकमर्म ।। पंचान्ये च प्रविदितमहासंधयश्चोत्तमांगे । सीमंताख्यो मरणमपि दुश्चित्तनाशोन्मदैश्च ॥ ५० ॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९०) कल्याणकारके भावार्थ:--भ्रू पुच्छ के ऊपर ललाट व कर्ण के बीच में शंखनामक दो मर्म स्थान हैं। जिनपर आघात होने से सद्य ही मरण होता है । भ्र के ऊपर के भाग में बावर्त नामक दो मर्मस्थान हैं। जिनपर आघात होने से दोनों आंखे नष्ट हो जाती हैं। शंखमों के ऊपर की सीमा में “ उत्क्षेपक” नामक दो मर्मस्थान है । इन में शल्य ( तीर ) आदि लगे तो जबतक उन में शल्य घुसा रहें तबतक मनुष्य जीता है। अथवा स्वयं पक कर वह शल्य अपने आप ही गिरजावे तो भी जीता है । लेकिन वह शल्य खींच कर निकाल दिया जावे तो उसी समय मृत्यु होती है। दोनों भ्रुओं के बीच में " स्थपनी" नाम का मर्म है । उस में आघात होने से, उत्क्षेपकमर्म जैसी घटना होती है । शिर में पांच महासंधियां [जोड ] हैं। वे पांच ही संधि " सीमंत' नाम से ५ मर्म कहलाते हैं। वहां आघात पहुंचने से चित्तविभम व पागलपना होकर, मृत्यु भी होजाती है ॥ ६९ ॥ ७० ॥ श्रृंगाटक अधिमर्मरक्षण. जिहाघ्राणश्रवणनयनं स्वस्वसंतर्पणीनां । मध्ये चत्वार्यमालिनशिराणां च श्रृंगाटकानि ॥ सद्यो मृत्यून्यधिकृतशिरासंधिबंधैकसंधौ । केशावर्तावधिपतिरिति क्षिप्रमृत्युः प्रदिष्टः ॥ ७१ ॥ भावार्थ:-जीभ, नाक, कान, आंख इन को तर्पण [ तृप्त ] करनेवाली चार प्रकार की निर्मल शिराओं के चार सन्निपात (मिलाप ) रहते हैं। वे शिरासान्निपात " श्रृंगाटक" नाम के मर्म हैं। वे चार हैं। इन में आघात पहुंचने से उसी समय मृत्यु होती है । मस्तक में [ मस्तक के अंदर ऊपर के भाग में ] जो शिरा और संधि का मिलाप है और जहां केशों के आवर्त [ भंवर ] है। वही " अधिपति" नामक मर्मस्थान है । यहां अभिघात होने से शीघ्र ही मरण होता है ॥७१॥ सम्पूर्ण मर्मोके पांच भेद. सप्ताधिकत्रिंशदिहोत्तमांगे मर्माणि कंठप्रभृतीष्वशेषा-1 ण्युक्तानि पंच प्रकराण्यथास्थिस्नायूरु संध्युग्रशिरास्स्वमासैः ॥७२॥ भावार्थ:-इस प्रकार कंठ को आदि लेकर मस्तक पर्यंत सैंतीस मर्मस्थान कहे गये हैं। एवं वे मर्मस्थान, अस्थि, स्नायु, संधि, शिरा व मांस के भेदसे पांच प्रकार से यथा=अस्थिमर्म, स्नायुमर्म, संधिर्म, शिरामर्म व मांसमर्म विभक्त हैं ॥ ७२ ॥ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः । (५५१) कटीकतरुणान्वितांसफलके तथा शंखका। नितंबसहितानि तान्यमलिनास्थिमर्माण्यलं ॥ सकक्षधरकूर्चकुर्चशिरसाक्रकन्यांसका- । सबस्तिविधुरैरपि सुविटपं तथोत्क्षेपकाः ॥ ७३ ॥ क्षिप्रेऽऽण्यपि स्नायुपर्माण्यशेषाण्युक्तान्यूज़ संधिमर्माणि वक्ष्ये । जानुन्येवं कूपरे गुल्फसीमंतावर्ताख्याश्चाधिपेनाप्यथान्ये ।। ७४ ॥ क्रकाटिकाभ्यां मणिबंधको तथा कुकुंदुरे मर्ममयोरुसंधयः। अपालकाख्यस्थपनीफणस्तनप्रधानमूलान्यपि नीलमन्यका ॥७॥ श्रृंगाटकापांगसिराधिमातृकाश्चोर्वी बृहत्यूर्जितपार्श्वसंधयः । हनाभ्यपस्तंभकलोहिताक्षकाः माहुश्शिरामर्मविशेषवैदिनः ॥७६॥ तलहृदयेंद्रबस्तिगदनामयुतस्तनरोहितान्यपि । प्रकटितमांसमर्मगण इत्यखिलं प्रतिपादितं जिनैः ॥ बहुविधमर्मविद्भिषगशेषविपक्षगरोगलक्षणः । समुचितमाचरेत्तदपि पंचविधं फलमत्र मर्मणाम् ।। ७७ ।। भावार्थ:-कटीकतरुण, असफलक, शंख, नितम्ब नाम के जो मर्मस्थान है वे अस्थिगत मर्मस्थान हैं अर्थात् अस्थिमर्म है। कक्षधर, कूर्च, कूर्चशिर, ककन्यांसक, बस्ति, विधुर, विटप, उत्क्षेपक, क्षिप्र व आणि नाम के जो मर्म कहे गये हैं ये स्नायुमर्म कहलाते हैं ! जानु, कूप, गुल्फ, सीमंत, आवर्त, अधिपति, कृकाटिका, माणबंध कुकुंदर इतने मर्म संविमर्म कहलाते हैं । अपालक ( अपलाप ) स्थपनी, फण, स्तनमूल, नीला, मन्या, शृंगाटक, अपांग, मातृका, उीं, बृहती, पार्श्वसंधि, हृदय, नाभि, अपस्तम्भक, लोहिताक्ष ये शिरामर्म है ऐसा सर्वज्ञ भगवान् ने कहा है। तलहृदय, इंद्रबस्ति, गुदा, स्तनरोहित ये मांसमर्म हैं अनेक प्रकार के मर्मों के मर्म जाननेवाला वैद्य, सम्पूर्ण विपरीत व अविपरीगत लक्षणोंसे रोग को निश्चय कर उचित चिकित्सा करें । इन मर्मों के फल भी पांच प्रकार के हैं । अतएव फिर ( द्वितीय प्रकार ) से इन सभी मर्मों के १ सधप्राणहर, २ कालांतर प्राणहर, ३ विशल्यन, ( शल्य निकलते ही प्राणघात करनेवाले ) ४ चैकल्यकर, रुजाकर इस तरह, पांच भेद होते हैं ॥ ७३ ॥ ७४ ॥ ७५ ॥ ७६ ॥ ७७ ॥ सद्यप्राणहर व कालांतरप्राणहरमम. प्रोद्यत्कंठशिरागुदोहृदयबस्त्युक्तोरुनाभ्यां सदा । सद्यः पाणहराणि तान्यधिपतिः शखौ च श्रृंगाटकैः ॥ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: कल्याणकारके वक्षो मर्मतलेंद्रयस्तिसहितं क्षिप्राणि सीमंतकैः । पार्श्व संधियुगं बृहत्यपि तथा घ्नत्येव कालांतरात् ॥ ७८ ॥ भावार्थः-८कंठ की शिरा, १ गुदा, १हृदय, १ बस्ति, १ नाभि, १ अधिपति, २ शंख, ४ शृंगाटक, ये १९ मर्म सद्यः प्राणहर हैं। अर्थात् इन में आघात पहुंचनेपर, तत्काल मृत्यु होती है । ८ वक्षस्थल [ छाती ] के मर्म, ४ तलहृदय, ४ इंद्बस्ति, ४ क्षिप्र, ५ सीमंत, २ पार्श्वसंधि, २ बृहती, ये २९ मर्म कालांतर प्राणघातक है [ इन में आघात पहुंचने से, कुछ समय के बाद मरण होता है ] ।। ७८ ॥ विशल्यन वैकल्यकर व रुजाकरमर्म. उत्क्षेपः स्थपनी च मर्म सुविशल्यघ्नान्यतः प्राणिनां । मानूी विटपोक्तकक्षधरकूर्चापांगनीला क्रक-॥ न्यांसावर्त कुकुंदुरांस फलकोद्यल्लोहिताक्षाणिभि- । मन्याभ्यां सफणे नितंबविधुरे तत्कपराभ्यां सह ॥ ७९ ॥ क्रकाटिकाभ्यां तरुणेच मर्मणी भवंति वैकल्यकराणि कारणैः। सकर्चशीर्षामाणिबंधगुल्फको रुजाकराण्यष्टविधानि देहिनाम् ।।८०॥ ___ भावार्थ:--१ उत्क्षेपक १ स्थपनी, थे. मर्म विशल्यन हैं । अर्थात् घुसा हुआ. शल्य निकलते ही प्राण का घात कर देते हैं। २ जानु, ४ उर्वी, २ विटप, २ कक्षधर , ४. कूर्च, २ अपांग, २ नीला, २ ऋकन्यांसक ( अंस) २ आवर्त, २ कुकुंदर, २ अंस-: फलक, ४ लोहिताक्ष, ४ आणि, २ मन्या, २ फण, २ नितम्ब, २ विधुर, २ कूर, .. २. कृकाटिक, २ कटीकतरुण, ये ४८ मर्म, वैकल्यकर हैं । अर्थात् इन में चोट लगने से. अंगों की विकलता होती है । ४ हाथ पैरों के कूर्चशिर, २ मणिबंध, २ गुल्फ ये आठ मर्म रुजाकर हैं अर्थात् इन में आघात पहुंचने से मनुष्योंको अत्यंत पीडा अथवा कष्ट . होता है.॥ ७९ ॥ ८० ॥ : माकी संख्या सद्यः माणहराणि तान्य मुभृतामेकोनसविंशतिः । कालात्विशदिहेकहीनविधिना त्रीण्येव शल्योद्मात् ॥ चत्वारिशदिहाष्टकोत्तरयुतं वैकल्यमस्यावहे- । दष्टावेव रुनाकरााणि सततं माणि संख्यानतः ॥ ८१ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार उन्नसि मर्म सद्यः प्राणहरनेवाले हैं। उनतीस मर्म, Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः । (५५३) कालांतर में प्राणघात करनेवाले हैं। तीन मर्म विशल्यन हैं। अडतालीस भर्म वैकल्यकारक हैं । आठ मर्भ रुजाकर हैं। इस प्रकार कुल १०७ मर्म स्थानोंका कथन किया गया है ॥ ८१ ॥ पक्षान्मर्माभिघातक्षतयुतमनुजा वेदनाभिम्रियते । सद्वैद्यप्रोक्तयुक्ताचरणविविधभैषज्यवगैः कदाचित् ॥ जीवतोप्यंगहीना बधिरचलशिरस्कन्धमूकोन्मदभ्रा-1 न्तोदृत्ताक्षा भवंति स्वरविकलतया मन्मना गद्दाश्च ।। ८२ ॥ भावार्थ:-- मर्मस्थानों में आघात पहुंचने से उत्पन्न जख्मसे पीडित मनुष्य, उस की प्रबल वेदना से, प्रायः एक पक्ष [पंद्रह दिन के अंदर मर जाते हैं। कदाचित् उत्तम वैद्य के द्वारा कहे गये, योग्य आचरणों को बराबर पालन करने से व नानाप्रकार के औषधों के प्रयोग से बच भी जाय, तो भी वह, अंगहीन, बहरा, कांपते हुए शिर व कंधों से युक्त, मूक, पागल, भ्रांत, ऊर्चनेत्रवाला, स्वरहीन अथवा मनमन, गद्गद स्वरवाला होकर जीता है ।। ८२ ।। मर्मवर्णन के उपसंहार. मर्मागुष्ठसमप्रमाणमखिलैस्यामयैर्वा क्षत- । रन्ते विद्धामिहापि मध्यमहतं पार्थाभिसंघट्टितम् ॥ तत्तत्स्थानविशेषतः प्रकुरुते स्वात्मानुरूपं फलं । तद्व्याद्भिपगत्र मोहमपनीयाप्तोपदिष्टागमात् ।। ८३ ॥ भावार्थ:-मर्मों के प्रमाण अंगुष्ट [अंगल ] के बराबर है अर्थात् कुछ म एक अंगुल प्रमाण है कुछ दो, कुछ तीन । सम्पूर्ण भयंकर रोग व कोई चोट से, मर्मोका अंत प्रदेश मध्यप्रदेश या पार्श्वप्रदेश पीडित हो, तो उन उन विशिष्ट स्थानों के अनुकूल फल (परिणाम ) भी होता है। जैसे सधःप्राणहर मर्म के अंत प्रदेश विधजाय, तो वह [ तत्काल प्राणनाश करनेवाला भी ] क.लांतर में मारता है । कालांतर में मारक मर्म का १ऊर्वी, कूर्चशिर, विटप और कक्षधर ये मर्म एक एक अंगुल प्रमाणके हैं । स्तनमूल, मणिबंध गुल्फ ये मर्म दो अंगुल प्रमाणवाले हैं । जानु और कूर्पर तीन २ अंगुल प्रमाणवाले हैं | हृदय बास्त, कूर्च, गुदा, नाभि और शिर के चार मर्म, शृंगाटक और कपाल के पांच मर्म, एवं गले के दश मर्म, ८ मातृका, दो नीला, दो मन्या ये सब चार चार अंगुल प्रमाण के हैं। इनको छोडकरके जो मर्मस्थान बच जाते हैं वे सब अद्धांगुल प्रमाण के हैं। ७० Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५४) कल्याणकारके तम 'अंतप्रदेश बिंध जाय तो विकलताकारक हो जाता है । सद्वैद्य को उचित है कि आप्त 'के द्वारा उपदिष्ट आगमों के आधार से अज्ञान को दूर कर विद्ध मर्मों के स्थानानुकूल जो फल है उन को देखकर कह दें ॥ ८३ ॥ उग्रादित्याचार्य का गुरुपरिचय. श्रीनंद्याचार्यादशेषागमज्ञाद्ज्ञात्वा दोषान् दोषजानुग्ररोगान् । तद्भषज्यप्रक्रमं चापि सर्व प्राणावादादेतदुध्दृत्य नीतम् ॥ ८४ ॥ ___ भावार्थ:-सम्पूर्ण आयुर्वेदशास्त्र को जाननेवाले, श्रीनंदि आचार्य की कृपासे प्राणांवादपूर्व शास्त्र से, उध्दत किये गये इस अष्टांग संयुक्त आयुर्वेद शास्त्र को, और उस में कथन किये गये त्रिदोष स्वरूप, त्रिदोषजन्य भयंकर रोग व उन को नाश करनेवाले औषध व प्रतीकारावीध इत्यादि सर्वविषयों को [ सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र को जाननेवाले श्रीनंदि नामक आचार्यकी कृपा से ] जानकर प्रतिपादन किया है । मुख्याभिप्राय इतना है कि उग्रादित्याचार्य के गुरु श्रीनद्याचार्य थे ॥ ८४ ॥ अष्टांगोंके प्रतिपादक पृथक् २ आचार्यों के शुभनाम. शालाक्यं पूज्यपादपकटितमधिकं शल्यतंत्रं च पात्र-। स्वामिप्रोक्तं विषोग्रग्रहशमनविधिः सिद्धसेनैः प्रसिद्धैः ।। काये या सा चिकित्सा दशरथगुरुभिर्मेघनादैः शिशनां । वैद्यं वृष्यं च दिव्यामृतमपि कथितं सिंहनादैर्मुनींद्रैः ॥ ८५ ॥ . . भावार्थः--श्री पूज्यपाद आचार्यने शालाक्यतंत्र, पात्राकेसरी स्वामी ने शल्यतंत्र, । प्रसिद्ध आचार्य सिद्धसेन भगवान् ने अगदतंत्र च भूतविद्या [ ग्रहरोगशमनविधान ] दशरथ मुनीश्वर ने कायचिकित्सा, मेघनादाचार्यने कौमारभृत्य और सिंहनाद मुनींद्रने वाजीकरणतंत्र व दिव्यरसायनतंत्रा को बडे विस्तार के साथ प्रतिपादन किया है। १ शल्यतंत्र. २ शालाक्यतंत्र. ३ अगदतंत्र. ४ भूतविद्या. ५ कायचिकित्सा. ६ कौमा '.. १ द्वादशांग शास्त्र में जो दृष्टिवाद नाम का जो बारहवां अंग है उसके पांच भेदों में से एक भेद पूर्व (पूर्वगत) है । उसका भी चौदह भेद है । इन भेदों में जो प्राणावाद पूर्वशास्त्र है उसमें विस्तारके साथ अष्टांगायुर्वेद का कथन किया है । यही आयुर्वेद शास्त्रका मूलशास्त्र अथवा मूलवेद है। उसी वेद के अनुसार ही सभी आचार्योंने आयुर्वेद शास्त्र का निर्माण किया है । २ सिंहसेनै इति क. पुस्तके। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः । ( ५५५ ) रभृत्य. ७ वाजीकरण तंत्र व ८ रसायनतंत्र. ये आयुर्वेद के आठ अंग हैं । इन आठों अंगों को उपरोक्त आचार्यों ने अपने २ ग्रंथो में विशेषरीति से वर्णन किया है यह पिंडार्थ है ॥ ८५ ॥ अष्टांग के प्रतिपादक स्वामी समंतभद्र अष्टांगमप्यखिलमत्र समंतभद्रेः प्रांक्तं सविस्तरवचोविभवैर्विशेषात् । संक्षेपता निगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम् ॥ भावार्थ:- प्रातःस्मरणीय भगवान् समंतभद्राचार्यने तो, पूर्वोक्त आठों अंगों को पूर्ण रूप से, बडे विस्तार के प्रतिपादन किया है अर्थात् आठों अंगो को विस्तार के साथ प्रतिपादन करनेवाले एक महान् ग्रंथ की रचना की है । उन आठों अंगों को इस कल्याणकारक नामके ग्रंथमें अपने शक्तिके अनुसार, संक्षपसे हम [ उग्रादित्याचार्य ] ने प्रतिपादन किया है ॥ ८६ ॥ ग्रंथनिर्माणका स्थान. वेंगीषत्रिक लिंगदेशजननप्रस्तुत्य सानूत्कट | प्रोद्यद्वक्षलताविताननिरते सिद्धैस्स विद्याधरैः ॥ सर्वैर्मदरकन्दरोपमगुहाचैत्यालयालंकृते । रम्ये रामगिरौ मया विरचितं शास्त्रं हितं प्राणिनाम् ॥ ८७ ॥ भावार्थ:- कलिंग देशमें उत्पन्न सुंदर सानु ( पर्वत के एक सम भूभाग प्रदेश ) मनोहर वृक्ष व लतावितान से सुशोभित, विद्याओंसे सिद्ध विद्याधरोंसे संयुक्त, मंदराचल [मेरु पर्वत ] के सुंदर गुफाओं के समान रहनेवाले, मनोहर गुफा व चैत्यालयों (मंदिर) से अलकृंत, रमणीक रामगिरि में प्राणियों के हितकारक, इस शास्त्र की हमने ( उग्रादित्याचार्य ) रचना की है ॥ ८७ ॥ ग्रंथकर्ताका उद्देश. न चात्मयशसे विनोदननिमित्ततो वापिस - । त्कवित्वनिजगर्वतो न च जनानुरागाशया- ॥ त्कृतं प्रथितशास्त्रमेतदुरुजैन सिद्धांतमि- । त्यहर्निशमनुस्मराम्यखिलकर्मनिर्मूलनम् ॥ ८८ ॥ भावार्थ:- हमने कीर्ति की लोलुपता से वा विनोद के लिये अथवा अपने Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके कवित्व के गर्व से, या हमारे ऊपर मनुष्यों के प्रेम हो, इस आशय से, इस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना नहीं की है। लेकिन यह समस्तकर्मीको नाश करनेवाला महान् जैनसिद्धांत है, ऐसा स्मरण करते हुए इस की रचना की है ॥ ८८ ॥ मुनियों को आयुर्वेद शास्त्र की आवश्यकता. आरोग्यशास्त्रमधिगम्य मुनिर्विपश्चित् । स्वास्थ्यं स साधयति सिद्धसुखैकहेतुम् ।। अन्यस्स्वदोषकृतरोगनिपीडितांगो। बध्नाति कर्म निजदुष्परिणामभेदात् ।। ८९ ॥ भावार्थ:-जो विद्वान् मुनि आराग्यशास्त्र को अच्छीतरह जानकर उसी प्रकार आहार विहार रखते हुए स्वास्थ्य रक्षा कर लेता है, वह सिद्धसुखके मार्गको प्राप्त कर लेता है। जो स्वास्थ्यरक्षाविधान को न जानकर, अपने आरोग्य की रक्षा नहीं कर पाता है वह अनेक दोषों से उत्पन्न रोगों से पीडित होकर अनेक प्रकार के दुष्परिणामों से कर्मबंध कर लेता है ॥ ८९ ॥ आरोग्य की आवश्यकता. न धर्मस्य कर्ता न चार्थस्य ही न कामस्य भोक्ता न मोक्षस्य पाता । नरो बुद्धिमान् धीरसत्वोऽपि रोगी यतस्तद्विनाशाद्भवेन्नैव मर्त्यः ॥२०॥ भावार्थ:-मनुष्य बुद्धिमान्, दृढमनस्क हानेपर भी यदि रोगी हो तो वह न धर्म कर सकता है न धन कमा सकता है और न मोक्षसाधन कर सकता है। अर्थात् रोगी धर्मार्थकाममोक्षरूपी चतुःपुरुषार्थ को साधन नहीं कर सकता । जो पुरुषार्थ को प्राप्त नहीं कर पाता है वह मनुष्यभव में जन्म लेने पर भी, मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है । क्यों कि मनुष्य भव की सफलता, पुरुषार्थ प्राप्त करने से ही होती है ॥९०॥ इत्युग्रादित्याचार्यवर्यप्रणीतं शास्त्रं शस्त्रं कर्मणां मर्मभेदी। . ज्ञात्वा मत्यैस्सर्वकर्मप्रवीणः लभ्यतैके धर्मकामार्थमोक्षाः ॥ ९१ ।। भावार्थः- इस प्रकार उग्रादित्याचार्यवर्यके द्वारा प्रतिपादित यह शास्त्र जो कर्मों के मर्मभेदन करने के लिये शस्त्रके समान है। इसे सर्वकर्मों में प्रवीण कोई २ मनुष्य जानकर, धर्म, अर्थ, काम मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् इस श स्त्र में प्रवीण होकर इस के अनुसार अपने आरोग्य को रक्षण करके, पुरुषार्थों को प्राप्त करना चाहिये ॥९१॥ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहाधिकारः। (५५७) शुभकामना. सन्दव्योद्भासमानस्फुटतरमहितस्सेव्यमानो विशिष्टैः । वीराराजितैरूर्जितनिजचरितो जैनमार्गापमानः ।। . आयुर्वेदस्सलोकव्रतविधिरखिलपाणिनिःश्रेयसार्थ । स्थेयादाचंद्रतारं जिनपतिविहिताशेषतत्वार्थसारम् ।। ९२ ॥ भावार्थ:-जो द्रव्यों के स्वरूप को स्पष्टरूप से बतलानेवाला है, भले प्रकार से पूजनीय है, उज्वल वीर्यवान् महापुरुष भी जिसको सेवन (मनन अभ्यास धारण आदि रूप से) करते हैं जिस का चरित [कथन] जैन धर्म के अनुसार निर्मल है, दोषरहित है, ऐसे आयुर्वेद नामक व्रतविधान लोक के समस्तप्राणियों के अभ्युदय के लिये जबतक इस पृथ्वी में सूर्य, चंद्र व तारा रहे तबतक स्थिर रहें । यह साक्षात् जिनेंद्र भगवंत के द्वारा कथित समस्त तत्वार्थ का सार है ॥ ९२ ॥ शुभकामना. भूयाद्धात्री समस्ता चिरतरमतुलात्युत्सवोद्भासमाना । जीयाद्भर्मों जिनस्य प्रविमलविलसद्भव्यसत्वैकधाम ।। पायाद्राजाधिराजस्सकलवसुमती जैनमागोनुरक्तः । स्थेयाज्जैनेंद्रवैद्य शुभकरमखिलप्राणिनां मान्यमेतत् ।। ९३ ॥ भावार्थः-आचार्य शुभकामना करते हैं कि यह भूमण्डल चिरकालतक अतुल आनंद व उत्सव मनाते रहें । भव्य प्राणियोंके आश्रयभूत श्री पवित्रा प्रकाशमान जिन धर्म जयशील होकर जीते रहे । राजा अधिराजा लोग इस पृथ्वी को जैनमार्ग में अनुरागी होकर पालन करते रहें। इसी प्रकार समरत प्राणियोंको हितकरनेवाला मान्य यह जैन चैद्यक ग्रंथ इस भूमण्डल में स्थिर रहें ॥ ९३ ॥ अंतिम कथन. इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः। सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निमृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ९४ ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुखसे Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५८ ) कल्याणकारक उत्पन्न शास्त्रसमुद्र से निकली हुई बूंद के समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिये इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ९४ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यविरचिते कल्याणकारके चिकित्साधिकारे शास्त्रसंग्रह तंत्र युक्तिरिति नाम विंशः परिच्छेदः । ·0 इत्युप्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में शास्त्रसंग्रहतंत्रयुक्ति नामक बीसवां परिच्छेद समाप्त हुआ । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरतंत्राधिकारः। (५५९) अयैकविंशः परिच्छेदः उत्तरतंत्र. मंगलाचरण. श्रीमद्वीरजिनेंद्रमिंद्रमहितं वंद्य मुनींद्वैस्सदा । नत्वा तत्वविद मनोहरतरं सारं परं प्राणिनां ॥ प्राणायुबलवीर्यविक्रमकरं कल्याणसत्कारकं । स्यात्तंत्रोत्तरमुत्तमं प्रतिपदं वक्ष्ये निरुद्धोत्तरम् ॥ २ ॥ भावार्थः-इंद्रोंसे पूजित व मनींद्रों से वंदित श्रीवीर जिनेंद को नमस्कार कर तत्वज्ञानियों के लिये मनोहर व सर्वप्राणियों के सार स्वरूप, व उन के प्राण, आयु, बल व वीर्य को बढानेवाले (कल्याणकारक) सब को कल्याण करनेवाले उत्तम उत्तरतंत्र का प्रतिपादन करेंगे ॥ १ ॥ लघुताप्रदर्शन. उक्तानुक्तपदार्थशेषमखिलं संगृह्य सर्वात्मना । वक्तुं सर्वविदा प्रणीतमधिकं को वा समर्थः पुमान् ॥ इत्येवं सुविचार्य वर्जितमपि प्रारब्धशास्त्रं बुधैः ।। पारं सत्पुरुषः प्रयात्यरमतो वक्ष्यामि संक्षेपतः ॥२॥ भावार्थ:-सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित लोक के उक्त व अनुक्त समस्तपदार्थीको सर्वतोभावसे संग्रह कर प्रतिपादन करने के लिये, कौन मनुष्य समर्थ है ? इस प्रकार अच्छीतरह विचार कर छोडे हुए शास्त्र को भी पुनः प्रारंभ कर विद्वानोंकी सहायता से सत्पुरुष पार हो जाते हैं । इसलिये यहां भी हम विद्वानों की सहायता [अन्य आचार्य प्रतिपादित शास्त्र के आधार ] से उस को संक्षेप से निरूपण करेगे॥२॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६०) कल्याणकारक शास्त्र की परंपरा. स्थानं रामगिरिगिरींद्रसदृशः सर्वार्थसिद्धिप्रदं । श्रीनंदिप्रभवोऽखिलागमविधिः शिक्षाप्रदः सर्वदा ॥ प्राणावायनिरूपितार्थमखिलं सर्वज्ञसंभाषितं ।। सामग्रीगुणता हि सिद्धिमधुना शास्त्रं स्वयं नान्यथा ॥ ३ ॥ भावार्थ:-आचार्य कहते हैं कि इस ग्रंथ की हमने मंदराचल के समान समस्त प्रयोजनकी सिद्धि कर देने में समर्थ रामगिरि पर बैठकर रचना की है और यह श्रीनंदि आचार्यजी के सदा शिक्षाप्रद उपदेशों से उत्पन्न है । एवं सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित प्राणावाय नामक शास्त्र में निरूपित सर्वतत्व है। इन सब सामग्रियों की सहायता से इस कार्य में हमें सफलता हुई । अन्यथा नहीं होस र ती थी। इस श्लोक का सार यह है कि प्रथमतः सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित इस आयुर्वेदशास्त्र को गणधरोंने द्वादशग शास्त्र के अंगभूत प्राणावाय पूर्वगतशास्त्र में प्रथित किया है अर्थात् इस का वर्णन किया । आचार्य परंपरागत इस प्राणाबाय वेद के मर्मज्ञ श्री श्री नंदि आचार्य से हमने अध्ययन किया । उस को इस ग्रंथरूपमें निर्माण करने के लिये मनोहर रामगिरि नामक पर्वत भी मिल गया । इन्ही की सहायता से हमें ग्रंथ बनाने में सफलता मिली । ये सामग्री न होती तो उस में हम सफल नहीं हो सकते थे । अर्थात् इस को पूर्व आचार्य परम्परा के अनुसार ही निर्माण किया है अपने स्वकपोलकल्पनासे नहीं ॥ ३ ॥ शानेऽस्मिन्पदशास्त्रवस्तविपया ये ते गृहीतं तत- । स्तेषां तेषु विशेषतोऽर्थकथनं श्रोतव्यमेवान्यथा ॥ शास्त्रस्यातिमहत्वमर्थवशतः श्रोतुमनोमोहनं ॥ व्याख्यातुं च भवेदशेषवचनस्यादर्थतः संकरः ॥ ४ ॥ भावार्थः- इस शास्त्र में बातुवों के विवेचन करने के लिये पदशास्त्र का प्रयोग किया है। उन्ही के अनुसार उन का यथार्थ व विशेष अर्थ करना चाहिये । क्यों कि शास्त्र का महत्व उस के अर्थ से है जो श्रोताबों के मन को मोहित करता हो । और वह व्याख्या करने योग्य होता है । अन्यतः अर्थ में संकर हो जायगा ॥ ४ ॥ तस्माद्वैद्यमुदाहरामि नियतं बह्वर्थमर्थावहं । वैद्यं नाम चिकित्सितं न तु पुनः विद्योद्भवार्थातरम् ।। व्याख्यानादवगम्यतेऽर्थकथनं संदेहवद्वस्तु तत् ।। सामान्येष विशेषितसिस्थतमतः पद्मं यथा पंकजम् ॥ ५॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः । (५६१) भावार्थः--इसलिये बहुत अर्थों को जाननेवाला वैद्य ही इस कार्य के लिये नियत है ऐसा महर्षिगण कहते हैं। विद्या के बल से चिकित्सा करनेवालेका ही नाम वैद्य है । विद्या के बल से और कुछ काम करनेवालों को वैद्य नहीं कहते हैं। अपितु विद्याके बलसे रोगमुक्त करनेवाला वैद्य कहलाता है । अर्थकथन व्याख्यान से ही जाना जाता है। सामान्य में विशेष रहता है जैसे पद्म कहने से उस में पंकज आदि समस्त विशेष अंतर्भूत होजाते हैं ॥ ५ ॥ चतुर्विधर्म वैद्यं कर्म चतुर्विध व्यभिहितं क्षाराग्निशस्त्रौषधै- । स्तकेन सुकर्मणा सुविहितेनाप्यामयस्साध्यते ।। द्वाभ्यां कश्चिदिह त्रिभिर्गुरुतरः कश्चिच्चतुर्भिस्सदा। साध्यासाध्यविदत्र साधनतम ज्ञात्वा भिषक्साधयेत् ।। ६ ।। भावार्थ:-चिकित्साप्रयोग, क्षारकर्म, अग्निकर्भ, शस्त्रकर्म व औषधकर्म इस प्रकार चार भेद से विभक्त है । यदि उन में किसी एक क्रिया का भी प्रयोग अच्छी तरह किया जाय तो भी रोग साध्य होता है अर्थात् ठीक होता है। किसी२रोग के लिये दो क्रियावोंको उपयोग करना पडता है । किन्हीं २ कठिन रोगोंके लिये तीन व और भी कठिन हो तो चारों कर्मोके प्रयोग की आवश्यकता होती है। रोग की साध्य असाध्य आदि दशावोंको जानने वाला वैद्य, साध्यरोगों का चिकित्सा से साधन करें ॥ ६ ॥ चतुर्विधकर्मजन्यआपत्ति.. तेषामेव सुकर्मणां सुविहितानामप्युपेक्षा किया । स्वज्ञानादथवातुरस्य विषमाचाराद्भिषग्मोहतः ॥ योगायोगगुणातियोगविषमव्यापारनैपुण्यवै-। कल्यादत्र भवंति संततमहासंतापकृयापदः ॥ ७ ॥ भावार्थ:---उपरोक्त चतुर्विध कर्मोके प्रयोग अच्छी तरह से करने पर भी यदि पश्चात् कर्म अथवा पथ्य आहार विहार सेवन आदि कराने में अज्ञान (प्रमाद) से उपेक्षा करें व रोगीके विषम आचरण से, वैद्य के अज्ञान से, योग, अयोग, अतियोगोंके लक्षण न जानने से व अतियोग जैसे विषम कार्य अर्थात् अवस्था उपस्थित हो जावें तो उस हालत में प्रतीकार करने की निपुणता न रहने से, हमेशा महान् संताप को उत्पन्न करनेवाली अनेक आपत्तियां उपस्थित हो जाती हैं । ७ ।। Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६२) कल्याणकारके MAVAAAA प्रतिज्ञा. तासां चारुचिकित्सितं विविधमत्कृष्टप्रयोगात्रसा-। ' छिष्टान् शिष्टजनप्रियान् रसमहाबंधप्रबंधानतः ॥ .... कल्पान्कल्पकुलौपमानपि मनस्संकल्पसिद्धिप्रदा-। नल्पैः श्लोकगणैब्रवीमि नितरामायुष्करान् शंप्रदान् ॥ ८॥ . भावार्थ:--अब यहांसे आगे, उन आपत्तियों ( रोगों ) की श्रेष्टचिकित्सा व शिष्टजनों को प्रियभूत, रसों के महान् बंधन ( संग्रह ) से संयुक्त, सरस नाना प्रकार के उत्कृष्ट प्रयोग, और कल्पकुल के समान रहनेवाले, इष्टार्थ को साधन करने. वाले, आयुष्य को स्थिर रखने व बढानेवाले सुखदायक अनेक औषधकल्पोंको थोड श्लोकों द्वारा वर्णन करेंगे ॥ ८ ॥ अथ क्षाराधिकारः । क्षारका प्रधानव व निरुक्ति. याथासख्यविधानतः कृतमहाकर्मोद्भवव्यापदं । .. वक्ष्ये चारु चिकित्सितं प्रथमतः क्षाराधिकारः स्मृतः ॥ शस्त्रेषग्रमहोपशस्त्रनिचये क्षारप्रधान तथा । दत्तस्तत्क्षणनात्ततः क्षरणतः क्षाराध्यमित्यारतः ॥ ९ ॥ भावार्थ:-पूर्वोक्त क्षार अदि चार महान् कर्मों के प्रयोग बराबर न होनेके कारण, जो महान् व्याधियां उत्पन्न होती हैं, उनको और उनकी योग्यचिकि सा को भी क्रमशः वर्णन करेंगे । सब से पहिले क्षारकर्म का वर्णन किया जायगा । भयंकर शस्त्र व उपशस्त्रकर्मोसे भी क्षारकर्म प्रधान है । प्रयुक्त क्षार, त्वक् मांस आदिकों को हिंसा करता है अर्थात् नष्टभ्रष्ट करता है, इसलिये अथवा दुष्ट मांस आदिकों को अलग कर देता है अर्थात् गिराता है। इसलिये भी इसे क्षार कहा है अथात् यह क्षार शब्द की निरुक्ति है ॥ ९॥ क्षार का भेद. क्षारोयं प्रविसारणात्मविषयः पानीय इत्येव वा । क्षारस्य द्विविधो विषाकवशतः स्वल्पद्रवोऽतिद्रवः ॥ १ कुजोपमानपि इति पाठांत। २ क्षणनाक्षारः क्षरणादा क्षारः ॥ क्षणनात् स्वकमांसादिहिंसनात् ॥ भरणात् दुष्वङ्मांसादिचालनात् शातनादित्यर्थः ॥ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः । (५६३) variarrrrrrrman. माया. क्षारस्यापि विनष्टवीर्यसमये क्षारोदकैरप्यति । क्षारद्रव्यगणैश्च तद्दहनतः शक्तिः समाप्याययेत् ॥ १० ॥ भावार्थ:--क्षार का प्रतिसारणीय क्षार ( शरीर के बाह्य प्रदेशों में लगाने वा टपकाने योग्य ) पानीय क्षार ( पीने योग्य ) इस प्रकार दो भेद है। क्षारके पाक की अपेक्षा से, स्वल्पद्रव, अतिद्रव इस प्रकार पुनः दो भेद होते हैं। अल्प शक्तिवाले औषधियों से साधित हो जाने से, क्षार की शक्ति जब नष्ट (कम) हो जाती है तो उसे क्षारंजल में डालकर पकाने से, अथवा क्षारऔषध समूहों के साथ जलाने से बह वीर्यवान होता है । इसलिये हीनशक्तिवाले क्षार को,उक्त क्रिया से वीर्य का अ धान करना चाहिये ॥ १० ॥ क्षारका सम्यग्दग्धलक्षण व पश्चास्क्रिया. व्याधौ क्षारनिपातने क्षणमतः कृष्णत्वमालोक्य तत् । क्षारं क्षीरघृताम्लयष्टिमधुकैः सौवीरकैः क्षालयेत् ॥ पश्चाक्षारनिवर्तनादनुदिनं शीतानपानादिभिः । शीतैरप्यनुलेपनैः प्रशमयेत्तं क्षारसाध्यातुरम् ॥ ११ ॥ भावार्थ:-त्वक् मांसादिगत वातरोगमें क्षार के पातन करनेपर उसी क्षणमें यदि वह काला पड़ गया (क्षार पातन करने पर काला पडजाना यह सम्यग्दग्ध का लक्षण है) तो उस क्षारको दूध, घी, अग्ल, मुलैठी इनसे संयुक्त कांजी से धोना चाहिये । इस प्रकार क्षार को धोकर निकालने के पश्चात् हमेशा क्षारसाध्यरोगीको शीत अन्नपानादिकों से व शीतद्रव्योंके लेपन से उपचार करना चाहिये ॥११॥ क्षारगुण व क्षारवयंरोगी. श्लक्ष्णः शुक्लतरातिपिच्छिलमुखग्राह्योऽल्परुग्व्यापकः । क्षारस्स्यादगुणवाननेन सततं क्षारेण या इमे ॥ क्षीणोरःक्षतरक्तपित्तबहुमूीसक्ततीव्रज्वरा- । न्तश्शल्योष्मनिपीडिता शिशुमदलांतातिवृद्धा अपि ॥ १२ ॥ गर्भिण्योप्यतिभित्रकोष्टविकटक्लीवस्तृषादुर्भया-। क्रांतोप्युद्धतसाश्मरीपदगणश्वासातिशोषः पुमान् ॥ मर्मस्नायुसिरातिकोमलनखास्थ्यक्ष्याल्पमांसदः । सस्त्रोतस्वपि पर्मरोगसहितेष्वाहारविद्वेषिषु ॥ १३ ॥ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके सीवन्यामुदरंषु संधिषु गले नाभौ तथा मेहने । हृच्छ ले च विवर्जयेनिशितसक्षारं महाक्षारवित् ॥ . क्षारोऽयं विषशस्त्रसदहनज्वालाशनिप्रख्यया । ...... स्णदज्ञानिनियोजितः सुभिषजा हन्यानियुक्तो गदान् ॥ १४ ॥ भावार्थ:-'यह क्षार, चिकना, साधारण सफेद, पिग्छिल ( पिलपिला ) सुख से ग्रहण योग्य, थोडीसी पीडा करनेवाला, व्यापक आदि सभी गुणोंसे संयुक्त है । दुर्बल उरक्षित, रक्तपित्त, अधिकमूर्छा, तीवज्वरसे पीडित, अंतःशल्य से युक्त, अत्यंत उष्ण से पीडित, बालक, मदसे संयुक्त, अतिवृद्ध, गर्भिणी, अतिसारपीडित, नपुंसक, अधिक प्यास व दुष्टभय से आक्रांत, अश्मरी, श्वास, क्षय से पीडित, ऐसे मनुष्यापर क्षारकर्म नहीं करना चाहिये अर्थात् ये क्षारकर्म के अयोग्य हैं। मर्म, स्नायु, सिरा, नख, तरुणास्थि, आंख, अल्प मांसयुक्त प्रदेश, स्रोत, इन स्थानोमें, मर्मरोग से संयुक्त व आहार से द्वेष करनेवालो में, सावनी, उदर, संधि [ हड्डियों की जोड ] गल, नाभि, शिश्नेदिय, इन स्थानोमें व हृदयशूलसे पीडितो में भी क्षारकर्मको जाननेवाला वैद्य, तीक्ष्ण क्षारकर्म नहीं करें । अज्ञानी वैद्य के द्वारा प्रयुक्त क्षार, विष शस्त्र, सर्प, अग्नि, बिजली के समान शीघ्र प्राणों का घात करता है । विवेकी वैद्य द्वारा प्रयुक्त क्षारकर्म, अनेक रोगों को नाश करता है ॥ १२ ॥ १३ ॥ १४ ॥ क्षारका श्रेष्ठत्व, प्रतिसारणीय व पानीयक्षारप्रयोग. क्षारः छेद्यविभेद्यलेख्यकरणादोषत्रयघ्नौषध- । व्यापारादधिकं प्रयोगवशतः शस्त्रानुशस्त्रेष्वपि ॥ तत्र स्यात्प्रतिसारणीय विहितः कुष्ठेऽखिलानर्बुदे-। नाड्यां न्यच्छभगंदरक्रिमिविष बाह्ये तु योज्यात्सदा ।। १५ ॥ सप्तस्वप्यधिजिहिकोपयुतजिह्वायां च दंतोभ्दवे । वैदर्भ बहुमंदसाप्पहते ओष्ठप्रकोप तथा ॥ योज्यस्स्यादिह रोहिणीषु तिसृषु क्षारो गरेषार्जितः । । पानीयोप्युदरेषु गुल्मनिचये स्यादग्निसंङ्गेष्वपि ॥ १६ ॥ अश्मर्यामपि शर्करासु विविधग्रंथिष्वथार्शस्वपि । स्वांतस्तीवविषक्रिमिष्वपि तथा श्वासेषु कासेष्वपि ॥ प्रोद्यद्भासिषु चाप्यनीणिषु मतः क्षारोयमस्मादपि। क्षाराद ग्नरतीव तीक्ष्णगुणवत्तद्द ग्धनिर्मूलनात् ।। १७ ॥ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः। (५६५) भावार्थ:-क्षार, छेदन, भेदन, लेखनकर्म करता है। त्रिदोषघ्न औषधियों से, साधित होने से तीनों दोषों को नाश करता है । जिस में शस्त्रादिक का प्रयोग नहीं होता है ऐसी विशिष्टव्याधि में क्षारकर्म प्रयुक्त होता है [जैसे क्षार पानकर्म में प्रयुक्त होता है लेकिन शस्त्र नहीं] इसलिये शस्त्र, अनुशस्त्रों से, क्षर श्रेष्ठ है । प्रतिसारणीयक्षार (जो पहिले कहा गया है) को, कुष्ट, सम्पूर्ण अर्बुद, नाडीव्रण,न्यच्छ,भगंदर, बाह्यक्रिमि व बाह्यविष, सात प्रकार के मुखरोग, अधिजिव्हा, उपजिव्हा, दंत, वैदर्भ, मेदोरोग, ओष्ठप्रकोप, तीन प्रकार के रोहिणी, इन रोगों में प्रयोग करना चाहिये । गर ( कृत्रिमविष ) उदररोग, गुल्मरोग, अग्निमांद्य, अग्मरी, शर्करा, नानाप्रकारके ग्रंथिरोग, अर्श, अंतर्गत तीव्र विषरोग व कृमिरोग, श्वासकास, भयंकर अर्णि, इन रोगों में, पानीय क्षार [पीने योग्य क्षार ] प्रयुक्त होता है ॥ १५॥ १६ ॥ १७ ॥ . अथाग्निकर्मवर्णन. क्षारकर्भ से अग्निकर्म का श्रेष्ठत्व, अभिकर्म से वय॑स्थान व दहनोपकरण. क्षारैरप्यतिभेषजैनिशितसच्छखैरशक्यास्तु ये । रोगास्तानपि साधयेदथ सिरास्नायवस्थिसंधिष्वपि ॥ नैवाग्निः प्रतिसेव्यते दहनसत्कर्मोपयोग्यानपि । .. द्रव्याण्यस्थिसमस्तलोहशरकांडस्नेहपिण्डादयः ॥ १८ ॥ भावार्थ:-पूर्वोक्त क्षार से अग्नि अत्यधिक तीक्ष्णगुणसंयुक्त है । अग्नि से जलाये हुए कोई भी रोग समूल नाश होते हैं [ पुन: उगते भी नहीं है और जो रोग क्षार, औषधि व शस्त्रकर्म से भी साध्य नहीं होते हैं वे भी अग्निकर्म से साध्य होते हैं। इसलिये क्षारकर्म से अग्निकर्म श्रेष्ठ है । स्नायू, अस्थि व संधि में अग्निकर्म का प्रयोग नहीं करना चाहिये । चाहे वह रोगी भले ही अग्निकर्मके योग्य हो । हड्डी, संपूर्ण १क्षारादग्निगरीयान् क्रियासु व्याख्यातः । तद्दग्धानां रोगाणामपुनर्भावाद्वैषज्ञ शस्त्रक्षारैरसाध्यानां तत्साध्यत्वाच्च ॥ इति ग्रन्थांतरं ॥ २ ग्रंथांतरोमें " इह तु सिरारनायुसंध्यस्थिष्वपि न प्रतिषिद्धोऽग्निः " यह कथन होनेसे शंका हो सकती है कि यहां आचार्यने कैसा विपरीत प्रतिपादन किया । इसका उत्तर इतना ही है कि, वह ग्रंथांन्तर का कथन भी, एक विशेषापेक्षा को लिया हुआ है । जब रोग अग्निकर्म को छोडकर साध्य हो ही नहीं सकता यदि अग्नि कर्म न करें तो रोगी का प्राण नाश होता है। केवल ऐसी हालत में अग्निकर्म करना चाहिये, यह उसका मतलब है । इससे अपने आप सिद्ध होता है सर्व साधारण तौरपर स्नाय्वादिस्थानों में अग्निकर्म का निषेध है। इसी अभिप्राय से यहां भी निषेध किया है। ___ अथवा ग्रंथांतर में उन्होने अपना मत व्यक्त किया है । सम्भव है उनसे उमादित्याचार्यका मत भिन्न हो। Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६६) कल्याणकारके लोह, शर, शलाका, घृत, तैल, गुड, गोमय आदि दहन के उपकरण हैं ॥ १८ ॥ ____ अग्निकर्मवयंकाल व उनका भेद. , ग्रीष्मे सच्छादि त्यजेदहनसत्कर्मात्र तत्पत्यनी-। कं कृत्वात्ययिकामयेति विधिवच्छीतद्रवाहारिणः ॥ सर्वेष्वप्यूतुषु प्रयोगवशतः कुर्वीत दाहक्रियां । तद्दग्धं द्विविधं भिषग्विनिहितं त्वङ्मांसदग्धक्रमात् ॥ १९ ॥ ... भावार्थ:-~-प्रष्मि व शरदृतुमें अग्निकर्म नहीं करना चाहिये । यदि व्याधि आत्ययिक (आशु प्राणनाश करने वाला हो, और अग्निकर्म से ही साध्य होनेवाला हो तो, ऋतुओं में के विपरीत विधान (शीताच्छादन, शीतभोजन शीतस्थान, शीतद्रव पान आदि विधान) करके, अग्निकर्म करे, अतः यह मथितार्थ निकला कि प्रसंगवश सभी ऋतुओं अग्निकर्म करना चाहिये । वह दग्धकर्म, त्वग्दग्ध मांसदग्ध इस प्रकार दो भेद से विभक्त है ।। १९ ॥ स्वग्दग्ध, मांसदग्धलक्षण. त्वग्दग्धेषु विवर्णतातिविविधस्फोटोद्भवश्चर्मसं-। कोचश्चातिविदाहता प्रचुरदुर्गधातितीवोष्मता ॥ . मांसेप्यल्परुगल्पशोफसहितश्यामत्वसंकोचता। शुष्कत्वत्रणता भवेदिति मतं संक्षेपंसल्लक्षणैः ॥ २० ॥ भावार्थ:- त्वचामें अग्निकर्मका प्रयोग करनेपर उसमें विवर्णता, अनेक प्रकार फफोले उठना, चर्मका सिकुडना, अतिदाह, अत्यधिक दुर्गंध, अति तीव्र उष्णता ये लक्षण प्रकट होते हैं अर्थात् यह त्वग्दग्ध का लक्षण है। मांसमें दग्धक्रिया करनेपर अल्पशोफ और व्रणका कालापना, सिकुडना, सूखजाना, ये लक्षण प्रकट होते हैं । अर्थात यह मांसदग्ध का लक्षण है ॥ २० ॥ दहनयोग्यस्थान, दहनसाध्यरोग व दहनपश्चात् कर्म. भृशंखेषु दहेच्छिरोरुजि तथाधीमंथके वर्त्मरो-। गेष्वप्यादुकूलसंवृतमथाह्यारोमकूपादृशम् ।। वायावुगतर व्रणेषु कठिनप्रोद्भुतमासेषु च । गंथावर्बुदचर्मकीलतिलकालाख्यापचेष्वप्यलं ॥ २१ ।। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः । (५६७) नाड्यच्छिन्नसिरासु संधिषु तथा छिन्नेषु रक्तमवृ-। त्तौ सत्यां दहनक्रिया प्रकटिता नष्टाष्टकर्मारिभिः। सम्यग्दग्धमवेक्ष्य साधुनिपुणः कुर्याद्धृताभ्यंजनं । शीताहारविहारभेषजविधि विद्वान् विदध्यात्सदा ॥२२॥ भावार्थ:-शिरोरोग व अधिमथ रोगमें भूप्रदेश व शंखप्रदेशमें जलाना चाहिये । वर्मरोगमैं गीले कपडेसे आंख को ढककर वर्मस्थ रोमकूपोंसे लेकर दहन करें । अर्थात् रोमकूपों को जलाना चाहिये । त्वचा, मांस, सिरा आदि स्थानों में वात प्रकुपित होनेपर भयंकर, कठोर, व जिसमें मांस बढ गया हो ऐसे व्रण में, ग्रंथि, अर्बुद, चर्मकील, तिल कालक, अपची, नाडीव्रण इन रोगों में छेदित सिरा, संधि में, रक्तप्रवृत्ति में, अग्निकर्म का प्रयोग करना चाहिये ऐसा आठकर्मरूपी शत्रुवों को नाश करनेवाले भगवान् जिनेंद्र देवने कहा है । सम्यग्दग्ध के लक्षण को देखकर, विद्व न् चतुर वैद्य, दग्धव्रण में घी लगायें और रोगी को शीत आहार, शीत-हार व शीत औषधि का प्रयोग करें ॥२१॥ ॥ २२ ॥ __ अग्निकर्म के अयोग्य मनुष्य. वा धन्हिविधानतः प्रकृतिपित्तश्चातिभिन्नादरः । क्षीणोंतःपरिपूर्णशोणितयुतः श्रांतस्सशल्यश्च यः ॥ अस्वेद्याश्च नरा बहुव्रणाणैः संपीडिताश्चान्यथा । दग्धस्यापि चिकित्सतं प्रतिपदं वक्ष्यामि सल्लक्षणैः ॥२३॥ भावार्थ:-पित्तप्रकृतिवाले, भिन्नकोष्ठ, कृश, अंतःशोणितयुक्त, थके हुए, शल्य युक्त, अनेक व्रणसमूहों से पीडित और जो स्वेदन कर्म के लिये अयोग्य हैं ऐसे मनुष्य भी अग्निकर्म करने योग्य नहीं हैं। इसलिये उनपर अग्निकर्म का प्रयोग नहीं करना चाहिये। यहां से आगे वैद्य के न रहते हुए, प्रमाद से अकस्मत् जले हुए के लक्षण व चिकित्सा को प्रतिपादन करेगे ॥ २३ ॥ ___ अन्यथा दग्धका चतुर्भेद. स्पृष्टं चैव समं च दग्धमथवा दुर्दग्धमत्यंतद-। ग्धं चेत्तत्र चतुर्विधं भिहितं तेषां यथानुक्रमात् ॥ वक्ष्ये लक्षणमप्यनूनवर भैषज्यक्रियां चातुर । . स्याहारादिविधानमप्यनुमतं मान्यर्जिनद्रस्सदा ॥ २४ ॥ १, अन्यध्या इति पाठांतरं । Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६८ ) कल्याणकार भावार्थ: उस अन्यथा दग्ध के स्पृष्ट, सम्यग्दग्ध, दुर्दग्ध व अत्यंतदग्ध इस प्रकार चार भेद करे गये है । इन के क्रमशः लक्षण, श्रेष्टचिकित्सा व रोगी के आहार आदि विधान को भी मान्य जिनेंद्र के मतानुसार कहेंगे ॥ २४ ॥ - पृष्ट, सम्यग्दग्ध, दुर्दग्ध, अतिदग्धका लक्षण. यच्चात्यंतविवर्णमृष्मबहुलं तच्चाग्निसंस्पृष्टमि । त्यन्यद्यत्तिलवर्णमुष्णमधिकं नेत्रातिगाढं स्थितं ॥ तत्सम्यक्समदग्धमप्यभिहितं स्फोटोभ्दवस्तीत्रसं - । तापादुःखतरं चिरमशमनं दुर्दग्धतालक्षणम् ||२५|| मूर्च्छा वातितृषा च संधिविगुरुत्वं चांगसंशोषणं । मांसानामवलंबनं निजसिरास्नाय्वस्थिसंपीडनं ॥ कालात्सक्रिमिरेव रोहति चिरारूढोऽतिदुर्वर्णता स्यादत्यंतविदग्धलक्षणमिदं वक्ष्ये चिकित्सामपि ॥ २६ ॥ भावार्थः – जो अत्यंत विवर्ण युक्त हो, अधिक उष्णतासे युक्त हो, उसे स्पृष्टदग्ध कहते हैं । जो दग्ध तिलके वर्णके समान काला हो, अधिक उष्णतासे युक्त हो एवं अतिगाढ ( अधिक गहराई ) रूपसे जला नहीं हो, वह समदग्ध है। वह ठीक है । जिसमे अनेक फफोले उत्पन्न होगये हों, जो तीव्र संताप को उत्पन्न करता हो, दुःखक देनेवाला हो, और बहुत देरसे उपशम होनेवाला हो उसे दुर्दग्ध कहते हैं । जिसमें मूर्छा, अतितृषा, संधिगुरुत्व, अंगशोषण, मांसावलंबन [ उस व्रण में मांस का लटकना ] सिरा स्नायु व अस्थि में पीडा व कुछ समय के बाद ( व्रण में ) कृमियों की उत्पत्ति हो, दग्धत्रण चिरकाल से भरता हो, भरजानेपर भी दुर्वर्ण (विपरीतवर्ण ) रहें, उसे अतिदग्ध कहते हैं । अब इन दग्वव्रणोंकी चिकित्सा का वर्णन करेंगे ॥ २६ ॥ teauforear स्निग्धं रुक्षमपि प्रपद्ये दहनशीघ्रं दहत्यद्भुतं | तत्रैवाधिकवेदनाविविधविस्फोटादयः स्युस्सदा ॥ ज्ञात्वा स्पृष्टमहामिना तु सहसा तेनैव संतापनं । सोष्णैरुष्णगुणौषधैरिह मुहुः सम्यक्प्रदेहः शुभः ॥ २७ ॥ १ इसे ग्रंथांतर में "ट" शब्द से उल्लेख किया है । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः । ( ५६९ ) 1 भावार्थ:- अग्नि, स्निग्ध [ घृततैलादि ] रूक्ष, ( काष्ट पाषाण, लोह आदि ) द्रव्यों को प्राप्तकर, शीघ्र ही भयंकर रूपसे जलाता है, और उस दग्धस्थान में अत्यधिक वेदना व नाना प्रकार के स्फोट ( फफोले ) आदि उत्पन्न होते हैं । अग्नि के द्वारा जो स्पृष्टदग्ध कहा है, उसे जानकर शीघ्र ही उसी अग्नि से लपाना चाहिये अर्थात् स्वदन करना चाहिये । एवं उष्ण व उष्णगुणयुक्त औषधियोंसे बार २ लेप करना हितकर है ॥ २७ ॥ भावार्थ: : --- सम्यग्दग्ध में बार २ घी लेपन करके चंदन, अश्वत्थादि दूधिया वृक्षों के छाल, तिल, मुलैठी, धान, चावल इनको, दूध या ईख के रस के साथ पीसकर, अथवा घी मिलाकर, लेपन करना चाहिये । अथवा गिलोय, कमल-पुष्पवर्ग ( सफेद कमल, नीलकमल, लालकमल आदि ) इनको अथवा गेरु, वंशलोचन इनको, उपरोक्त द्रवोंसे पीसकर आदरपूर्वक लेप लगावें ॥ २८ ॥ सम्यग्दग्धचिकित्सा. सम्यग्दग्धमिहाज्यलिप्तमसकृत् सचंदनैः क्षीरवृ- । क्षत्वग्भिः सतिलैः: सत्यष्टिमधुकैः शाल्यक्षतैः क्षीरसं - ॥ पिष्ठैरिक्षुरसेन वा घृतयुतैः छिन्नोद्भवमोजव- 1 : वा गैरिकया तुगासहितया वा लेपयेदादरात् ॥ २८ ॥ दुर्दग्धचिकित्सा: दुर्दग्धेपि सुखांष्ण दुग्धपरिषेके राज्यसंम्रक्षणैः । शीतैरप्पनुलेपनैरुपचरेत् स्फोटानपि स्फोटयेत् || स्फोटान्स स्फुटितानतो घतयुतैः शीतोषः शीतलैः । पत्रैर्वा परिसंवृतानपि भिषक्कुर्यात्सुतादृतिम् ॥ २९ ॥ भावार्थ:- दुर्दग्धमें भी मंदोष्ण दूधके सेचन से, घृत के 5 लेपन से एवं शीतद्रव्यों के लेपन से उपचार करना चाहिये । फफोलों को भी फोडना चाहिये | फूटे हुए फोडोंपर शीतलऔषधियों के साथ घी मिलाकर लगावें और शीतलगुणयुक्त वृक्ष के शीतल पत्तोंसे उनको ढकें । साथमें रोगको शीतल अन्नप्रांनोदि देवें ॥२९॥ ७२ अतिदग्धचिकित्सा. ज्ञात्वा शीतलसंविधानमधिकं कृत्वातिदग्धे भिष- 1 मांसान्यप्यवलंबितानपहरेत्स्नाच्चादिकान्यप्यलम् ॥ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७०) कल्याणकारके दुष्टादुष्टमपोद्यमेवमखिलं क्षीरेण वा क्षालयेत् । पत्रैर्वा वृणुयाद्वणं वनरुहैः कुर्यादवणोक्तक्रियाम् ॥ ३०॥ भावार्थ:--अतिदग्धको भी कुशल वैद्य जानकर अधिक शीतलचिकित्सा करें । एवं नीचे झूमते हुए मांसोंको, स्नायु आदिकोंको भी दूर करें। दुष्ट अदुष्ट सर्व स्नायु आदिकोंको अलग निकालकर अर्थात् साफ कर के उस व्रणको दूधसे धोना चाहिये । बाद उस व्रण को वृक्ष के पत्तों से ढकना चाहिये एवं उसपर व्रणांक्त सर्व चिकिसा करनी चाहिये ॥ ३० ॥ रोपणक्रिया. तदग्धव्रणरोपणेऽपि सुकृते चूर्णप्रयोगार्हके । काले क्षाममपयुषरमलिनैः शाल्यक्षतेलाक्षया ।। क्षीरक्षारसतिंदुकाम्रबकुलपोत्तुंगजबूकदं-। - बत्वग्भिश्च सुचूर्णिताभिरसकृत् संचूर्णयनिर्णयम् ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-उस दग्धवण के रोपणक्रिया करने पर चूर्णप्रयोग करने के योग्य काल जब आवे, क्षामरहित निर्मल चावल, लाख, क्षीरीवृक्ष, व क्षारवृक्ष की छाल और तेंदू, आम्र, वकुल, जंबू, कदंब, इन वृक्षोंकी छाल को अच्छी तरह चूर्ण कर बुरखना चाहिये ॥ ३१ ॥ सवर्णकरणविधान. विप्रेषक्तविचित्रवर्णकरणानेकोषधालेपनं । कुर्यात्स्निग्धमनोज्ञशीतलतरस्वाहारमाहारयेत् ॥ प्रोक्तं चाग्निविधानमेतदखिलं वक्ष्यामि शस्त्रक्रियां। शस्त्राणामनुशस्त्रशस्त्रविधिना शस्त्रं द्विधा चोदितम् ॥ ३२ ॥ भावार्थ:-इस दग्धव्रण के भर जानेपर उसे श्वित्रकुष्ठ ( सफेद कोढ ) में कहे गये सवर्ण करनेवाले अनेक प्रयोगों से सवर्ण करना चाहिये अर्थात् त्वचाके विकृत वर्ण को दूर करना चाहिये । उस रोगी को स्निग्ध, मनोहर व शीतल आहार को खिलाना चाहिये । अभी तक अग्निकर्मका वर्णन किया । आगे शस्त्रकर्म का वर्णन शास्त्रानुसार करेंगे । वह शस्त्रकर्म अनुशस्त्र व शस्त्रके भेदसे दो प्रकार से विभक्त है ॥ ३२ ॥ ___अनुशस्त्रवर्णन. तत्रादावनुशस्त्रभेदमाखलं वक्ष्यामि संक्षेपतः । . क्षाराग्निस्फटिकोरसारनखकाचत्वरजलूकादिभिः ॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः। (५७१) तेष्वप्यौषधभीरुराजवनिताबालातिवृद्धादिकान् । द्रव्यमायगुणा महासुखकरी प्रोक्ता जलूकाक्रिया ॥ ३३ ।। भावार्थ:-सबसे पहिले अनुशस्त्रके समस्त भेदोंको संक्षेपसे कहेंगे । क्षार, अग्नि, स्फटिक, त्वक्सार ( बांस ) नख, काच, त्वचा व जलौंक (जौंक ) ये सब अनशस्त्र हैं। जो शस्त्रकर्मसे डरते हैं ऐसे राजा, स्त्री, अतिबाल व वृद्धों के प्रति इनका उपयोग करना चाहिये । इनमें जलौंकका प्रयोग जो शस्त्रसदृश गुण को रखता है महासुखकारी है ॥ ३३ ॥ रक्तस्रावके उपाय. वातेनाप्यतिपित्तदुष्टमथवा सश्लेष्मणा शोणितं । श्रृंगेणात्र जकीकसा सदहनेनालाबुना निहरेत् ॥ इत्येवं क्रमतो ब्रुवंति नितरां सर्वाणि सर्वैरतः। केचित्तत्र जलौकसां विधिमहं वक्ष्यामि सल्लक्षणैः ॥ ३४ ॥ भावार्थः-वात, पित्त व कफ से रक्तदूषित होनेपर क्रमशः शृंग (सींग लगाकर) जलौका । जोंक ) व अग्नियुक्त तुम्बी से रक्त निकालना चाहिये ऐसा कोई कहते हैं । अर्थात् वातदूषितरक्त को सींग से, पित्तदूषित को जाक लगाकर, कफदूषित को तुम्बी लगाकर निकालना चाहिये । कोई तो ऐसा कहते हैं ऐसे क्रम की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन किसी भी दोष से दूषित हो तो किसी उपयुक्त श्रृंग आदि से निकालना चाहिये अर्थात सब में सब का उपयोग करें। अब जौंक से रक निकालने की विधिको व उसके लक्षण को प्रतिपादन करेंगे ॥ ३४ ॥ जलौकसशब्दनिमक्ति व उसके भेद. तासामेव जैलोकसां जलमलं [ ? ] स्यादायुरित्येव वा । प्रोक्ता ता जलायुका इति तथा सम्यग्जलका अपि ॥ शद्वस्तु पृषोदरादिविधिना तव्दादशैवात्र षट्- । कष्टा दुष्टविषाः स्वदेहविविषास्तल्लक्षणं लक्ष्यताम् ॥ ३ ॥ १ इमका यह मतलब है कि तुम्बी से रक्त निकालने के लिये तुम्बी के अंदर दीपक रखना पहता है, अन्यथा उससे रक्त नहीं निकल पाता। २ जलमासामोक इति जलौकमः । ३ जलमासामायुरिति जलायुकाः । Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७२) कल्याणकारके भावार्थः---जिन का जल ही ओक (घर) है । इसलिये जोंकों को "जलौकस" कहते हैं । जिन का जल ही आयु है इसलिये " जलायुका" कहते हैं । एवं इन्हे जलू का भी कहते हैं। ये जोंकवाचक शब्द पृषोदरादि गण से साधित होते हैं ऐसा व्याकरणशास्त्रज्ञोंका मत है । जोंक बारह प्रकार के होते हैं। उन में छह तो सविष होते हैं । ये अत्यंत कष्ट देनेवाले होते हैं; बाकी के छह निर्विष होते हैं । कृष्णा, कबुरा अलगर्दा, इंद्रायु, सामुद्रिका, गोचंदना ये छह विषयुक्त जोंको के भेद हैं । कपिला पिङ्गला, शङ्कमुखी, मूषिका, पुंडरीकमुखी, सावरिका ये छह निर्विष जोंकों के भेद हैं। आगे इन का लक्षणकथन किया जायगा, जिसपर पाठक दृष्टिपात करें ॥ ३५ ॥ सविषनलौकाके लक्षण. कृष्णाकुवुरलक्षण. या तत्रांजनपुंजमेचकनिभा स्थूलोत्तमांगान्विता । कृष्णाख्या तु जलायुका च सविषा वा जलूकार्तिभिः ॥ निम्नोत्तुंगनिजायतोदरयुता वाख्यमत्स्योपमा । श्यामा कर्बुरनामिका विषमयी निंद्या मुनींद्रस्सदा ॥ ३६ ॥ .... भावार्थः -जो जलूका अंजन ( काजल ) के पुंज के समान काले वर्णकी हो, जिसका मस्तक स्थूल हो, उसे" कृष्णा" नामक जलूका कहते हैं । जो निम्नोन्नत लंबे पेटसे युक्त हो और धर्मि नामक मछली के समान हो, श्यामवर्णसे युक्त हो उसे कर्बुर " नामक जलौंक कहते हैं । ये दोनों जौंक विषयुक्त हैं । इसलिये ये जौंक लगाकर रक्त निकालने के कार्य में वर्जित हैं व निंद्य हैं ऐसा मुनींद्रो वा मत है ॥३६॥ अलगर्दा, इंद्रायुधा, सामुद्रिकालक्षण. । रोमव्याप्तमहातिकृष्णवदना नाम्नालगापि सा । सांध्या शक्रधनुःप्रभेव रचिता रेखाभिरिंद्रायुधा ॥ वा तीव्र विषापरेषदसिता पीता च भासा तथा । पुष्पैश्चित्रविधैर्विचित्रितवपुः कष्टा हि सामुद्रिका ॥ ३७ ॥ भावार्थ:-जिसके शरीरमें रोम भरा हुआ है व जिसका मुग्व बडा व अत्यंत कला है, उसे " अलगर्दा" नामक जटूक कहते हैं । जो संध्या समय के इंद्रधनुष्य के समान १ यह मछली मर्प के आकाग्वाली है। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः । (५७३ ) अनेक वर्णकी रेखावोंसे युक्त शरीरवाला है वह " इंद्रायुधा" नामक जलूक है । जो किंचित् काले व पीले वर्णसे संयुक्त है, जिसके शरीर नाना प्रकार के पुष्पों के समान चित्रों से विचित्रित है यह " सामुद्रिका " नामक जौंक है। ये दोनों जौंक तीव्रविषसंयुक्त होने से प्राणियोंको कष्टदायक होते है। इसलिये, ये भी जलौंकाप्रयोग में न्यान्य हैं ॥ ३७॥ . गोवंदनालक्षण व सविषजूलूकादष्टलक्षण. गोश्रृंगद्वयवत्तथा वृषणवध्दार्याप्यधोभागतः । स्विना स्थलमुखी विषेण विषमा गोचंदनानामिका ॥ ताभिर्दष्टपदातिशोफसहिताः स्फोटास्सदाहज्वर- । च्छर्दिमूर्छनमंगसादनमदालक्ष्माणि लक्ष्याण्यलं ॥ ३८ ॥ भावार्थ:-जिस के अधोभाग में गायके सींगके समान व वृषण के समान दो प्रकार की आकृति है अर्थात् दो भाग मालूम होते हैं, जो सदा गीली रहती है, और सूक्ष्म मुखवाली है एवं भयंकर विष से युक्त है, उसे "गौचंदना" कहते हैं। इन विषमय जलूकावोंके काटनेपर, मनुष्य के शरीर में अत्यंत सूजन, फफोले, दाह, ज्वर, वमन, मूर्छा, अंगसाद व मद ये लक्षण प्रकट होते हैं ॥ ३८ ॥ सविपजलौकदष्टचिकित्सा. तासां सर्पविषोपमं विषमिति ज्ञात्वा भिषग्भेषजं । प्रोक्तं यद्विषतंत्रमंत्रविषये तद्योजयेदूर्जितम् ॥ पानाहारविधावशेषमगदं प्रख्यातकीटोत्कट-। प्रोदृष्टोग्रविषनमन्यदखिलं नस्यप्रलेपादिषु ॥ ३९ ॥ भावार्थ:-उन विषमय जलौकोंका विष सपके समान ही भयंकर है, ऐसा समझकर कुशल वैद्य विषगातंत्राधिकार में बतलाये गये विपन्न, अगद, मंत्रा, आदि विषनाशक उपायोंको उपयोग करें । पान व आहार में भी सम्पूर्ण अगद का प्रयोग करें । एवं प्रसिद्ध कीटों के भयंकर विष को नाश करनेवले जो कुछ भी प्रयोग बतलामे गये हैं उन सब को नस्य, आलेप, अंजन आदि कार्यों में उपयोग करें ॥३९।।, निर्विषजलोकोंके लक्षण. ___ कपिला लक्षण इत्येवं सविषा मया निगदिता सम्यग्जलूकास्ततः । संक्षेपादविषाश्च षट्स्वपि तथा वक्ष्यामि सल्लक्षणैः ॥. Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७१) कल्याणकारके ARAAAAnnnnnnot • लाक्षासद्रसपिष्टहिंगुलविलिप्तेवात्मपादिरैः। वक्त्रे या कपिला स्वयं च कपिला नाम्ना तु मुद्गापमा ॥ ४० ॥ भावार्थः ---इस प्रकार विषमय जलूफावोंका वर्णन किया गया। अब निार्वेष जकात्रोंके जो छह भेद हैं उन को उन के लक्षणकथनपूर्वक कहेंगे । जिसके दोनों पार्श्व व उदर लाखके रस से पिसे हुए हिंगुल से लिप्त जैसे लाल मालुम होते हैं, जिस का मुख भूरे [ कपिल ] वर्णका है, और मूंगके वर्ण के समान जिसके पीठ का वर्ण है वह " कपिला" नामक जर्क है ॥ ४०॥ पिंगलामूषिकाशकुमुखीलक्षण. आरक्तातिसुवृत्तपिंगलतनुः पिंगानना पिंगला। या घंटाकृतिमूषिकाप्रभवपुर्गधा च सा मूषिका ॥ या शीघ्रं पिबतीह शीघ्रगमना दीर्घातितीक्ष्णानना । सा स्याच्छङ्कुमुखी यकृन्निभतनुर्वर्णन गंधेन च ॥ ४१ ॥ भावार्थ:-जो गोल आकार से युक्त होकर लाल व पिंगल वर्णके शरीर व भूरे [ पिङ्गल ] वर्णके मुखको धारण करता है उसे " पिंगला" नामक जलौक कहते हैं । जो घंटाके आकार में रहता है और जिसके शरीरका वर्ण व गंध चूहके समान है, उसे " मूषिका" नामक जलौक कहा है । जो रक्त वगैरह को जल्दी २ पीता है व जल्दी ही चलता है जिसका मुख दीर्घ व तीक्ष्ण है उसे "शंङ्कमुखी" जलौक कहते हैं । इसके शरीर का वर्ण व गंध, यकृत् [ जिगर ] के गंधवर्ण के समान है ।। ४१ ।। पुंडरीकमुखीसावरिकालक्षण. या रक्तांबुजसन्निभोदरमुखी मुद्गोपमा पृष्ठतः । सैव स्यादिह पुण्डरीकवदना नाम्ना स्वरूपेण च ।। या अष्टादशभिम्तयांगुलिभिरित्यवायता समिता । । श्यामा सावरिकेति विश्रुतगुणा सा स्यात्तिरश्चामिह ॥ ४२ ॥ भावार्थ:--- जिसका उदर व मुख लाल कमल के समान है, पीठ मंगके समान वर्णयुक्त है, उसे नाम व स्वरूप से " पुण्डरीकमुखी' कहा है । जो अठारह अंगुलप्रमाण लम्बी है, काली है, जिसके गुण विश्व में प्रसिद्ध हैं, ऐसी जलूका को १ पृष्ठे स्निग्धमद्वर्णा कपिला ( ग्रंथांतरे ) Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः । ( ५७५) " सावरिका" कहते हैं । इसका उपयोग, हाथी घोडा आदि तियच प्राणियों के रक्त निकालने में किया जाता है । ये मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते ॥ ४२ ॥ जौकोंके रहने का स्थान. तासां सन्मलये सपाण्डुविषये सह्याचलादित्यके । . कावतिरलांतरालनिचये वेंगीकलिंगत्रये ॥ पोद्रेऽपि विशेषतः प्रचुरता तत्रातिकायाशनाः । पायिन्यस्त्वरितन निर्विषजलूकास्स्युः ततस्ताः हरेत् ॥ ४३ ॥ भावार्थ:- मलय देश, पांड्यदेश, सह्याचल, आदित्याचल के तट, कावेरी नदी के बीच, बंग देश, त्रिकलिंग देश अथवा तीन प्रकार के कलिंग देश, पुंड्रदेश और इंद्रदेश में विशेषकर ये जोंक अधिप्रमाण में रहते हैं । वहां के जोंक स्थूल शरीरवाले, अधिकखामेवाले व शीघ्र ही पीनेवाले, और निर्विष होते हैं। इसलिये इन देशों से उन को संग्रह करना चाहिये ॥ ४३ ॥ औंक पालनविधि. हुत्वा ताः परिपोषयेनवघटे न्यस्य प्रशस्तांदके-- ।. रापूर्णे तु सवले सरसिजव्यामिश्रपत्रांकिते ॥ शीते शीतलकामृणालसहिते दत्वा जलाद्याहृति । नित्य सप्तदिनांतरे घटमतस्सकामयन् सततम् ॥ ४४ ॥ भावार्थ:-उन जलोकों को यत्नपूर्वक पकड कर एक नये घडे में सरोवर के स्वच्छपानी, शीतल बोल, कमल, कमलपत्र, उसी तलाब के कीचड, व कभैलनाल को डाल कर उस में उन जोंकों को डाल दें । प्रतिदिन पानी व आहार देवें, एवं सात सात दिन में एक दफे उस घडे को बदलते रहना चाहिये । इस प्रकार उन जोंकोंका पोषण करना चाहिये ॥ ४४ ॥ जलोकप्रयोग. यस्स्यादविमोक्षसाध्यविविधव्याध्यातुरस्तं भिषक् । संवीक्ष्योपनिवेश्य शीतसमये शीतद्रवाहारिणः ॥ . १ यह उन को लाने के लिये. २-३ ये उन को सोने के लिये। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७६) कल्याणकारक तस्यांग परिरूक्ष्य यत्र च रुजा मृगोमयैश्चूर्णितः । पिष्टैर्वातिहिमांबुधौ तमसकृत् पश्चाज्जलूका अपि ॥ ४५ ॥ वाम्या सद्रजनीसुसर्षपवचाकल्केः क्रमासांबुभिः । धौताः शुद्धजलश्च मुद्गकृतकल्कांबुप्रतिक्रीडिताः ॥ पश्चादासुसूक्ष्मवस्त्रशकलेनागृह्य संग्राहये- । द्रोगास्तन्नवनीतलपितपदे शस्त्रक्षते वा पुनः ॥ ४६॥ भावार्थ:--जो रोगी रक्तमोक्षण सं साध्य होनेवाले विविधरोगसे पीडित हो उसे अच्छी तरह देखकर शांतकाल [ हिमवत व शरदऋतु ] में शीतगुणयुक्त आहार को खिलाकर बैठाल देवें । जहां से रक्त निकालना हो उस जगह में यदि व्रण न हो तो, मिट्टी व गोबर के चूर्ण, अथवा किसी रूक्ष पिठीसे, उस स्थान को रगडकर रूक्षण (खरदरा ) करके ठंडे पानी से बार २ धावें। उन जोंकों के मुख में हलदी, बच, इनके कल्क लगाकर, वमन कराकर पानी से अच्छी तरह धांवें। पश्चात् एक बर्तन में, जिस में मूंगकी पिठीसे मिला हुआ शुद्ध पानी भरा हो, उसमें क्रीडनार्थ छोड देवें । जब वे फुर्ती के साथ इधर उधर दौडने लगे तो उन के श्रम दूर होगया है ऐसा जानकर, उन्हें गीले बारीक कपडे के टुकडे से पकडकर, रोगयुक्त स्थान को पकडया देवें। यदि वे न पकडे तो उस स्थानमें मवखन लगाकर, अथवा किसी शस्त्र से क्षतकर पुनः पकडवा देवें ॥ ४५ ॥ ४६॥.. रक्तचूसन के बाद करने की क्रिया विस्रावैर्विहरंदसक्सदहनैः तुंबीफलैः सद्विषा- । णैर्वा चूषणको विदावरजलूका स्यात्स्वयंग्राहिका ॥ पीत्वा तां पतितां च शोणितमतः संकुंडिकना[?]शुसं-1 लिशं सैंधवललेपितमुखीमापीडयेद्वामयेत् ॥४७॥ . . भावार्थ:---दुष्ट रक्त को, अग्नियुक्त तुम्बीफल व श्रृंग से निकालना चाहिये। रक्त को चूसने में समर्थ जोंक को लगाने से वे स्वयं रक्त को चूस लेत हैं [ इन को लगाकर भी रक्त स्रावण करना चाहिये ]। जब वे खून पीकर, नीचे गिर जाते हैं, तब उनके शरीरको चावल के चूर्ण से, लेपन करें और सेंधानमक व तैल को मिलाकर, उन के मुख में लगाकर, पूंछ की तरफ से मुख को ओर धीरे २ दबाते हुए वमन करावें ॥ ४७ ।। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः। (५७७ ) शुद्धरक्ताहरण में प्रतिक्रिया. वांतां तां कथितांबुपूरितघटे विन्यस्य संयोषयेत् । ज्ञात्वा शोणितभेदमप्यतिगति संस्थापयेदौषधैः । दशे यत्र रुजा भवेदतितरां कण्डूश्च शुद्धपदे-। शस्था स्यादिति तां विचार्य कवणैरामोक्षयेत्तत्क्षणात् ॥ ४८ ॥ ... भावार्थ:--वमन कराने के बाद उस को पूर्वकथित जल से भरे हुए घडे में रख कर पोषण करना चाहिये । एवं इधर रक्तभेद को जान कर यदि तीव्रवेग से उस का स्राव हो रहा हो तो उसे औषधियों से बंद कर देना चाहिए। जोंकके रक्त पीते समय दंश ( कटा हुआ स्थान ) में यदि अत्यंत पीडा व खुजली चले तो समझना चाहिए कि वे शुद्धरक्त को खींच रहे हैं। जब यह निश्चय हो तो उसी समय उस के मुंह में सेंधानमक लगा कर उन को छुडाना चाहिए ॥ ४८ ॥ शोणितस्तम्भनविधि. पश्चाच्छीतजलैर्मुहुर्मुहुरिह प्रक्षाल्य रोगं क्षरेत् । क्षीरेणैव घृतेन वा चिरतरं सम्यनिषिच्य क्रमात् ॥ रक्तस्यातिमहाप्रवृत्तिविषये लाक्षाक्षमाषाढकै । इचूर्णः क्षोममयीभिरप्यतितरं शुष्कैस्तु संस्तभयेत् ।। ४९ ॥ . भावार्थः–तदनंतर उस पीडा के स्थान को ठण्डे जल से बार २ धोना चाहिए जिस से रोगक्षरण हो जाये । एवं क्रमशः चिरकाल तक अच्छी तरह उस पर दूध घृत का सेचन करना चाहिये । रक्त का स्राव अधिक होता हो तो लाख बहेडा, उडद, व अरहर इनके अतिशुष्कचूर्ण को जिस में रेश्मीवस्त्र का भस्म अधिकप्रमाण में मिला है उसपर डालकर रक्तस्तंभन करना चाहिये ।। ४९ ॥ शेोणितस्तम्भनापरविधिः लोधेश्शुद्धतरैसुगोमयमयैर्गोधूमधात्रीफलैः । शंखैः शुक्तिगणारिमेदतरुसपूतैस्तथा ग्रंथिभिः ॥ सज्जैरर्जुनभूर्जपादपदवत्वाग्भिश्च चूर्णीकृतै-। राचर्य व्रणमाशु बंधनबलस्संस्तंभयेच्छोणितं ॥ ५० ॥ अर्थ---लोध्र, शुद्धगोमय, गेहूं, आमला, शंख, शुफि, अरिंमेद ( दुर्गंध युक्त खेर )इन वृक्षोंकी ग्रंथि, सर्ज वृक्ष, अर्जुन वृक्ष, भूर्जवृक्ष व उनकी छाल, इन सबको चूर्ण करें। उस व्रण पर उक्त चूर्ण को डालकर और व्रण को बांधकर रक्त का स्तम्भन करें ॥ ५० ॥ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७८) कल्याणकारके __ अयोग्यजलायुकालक्षण. याः स्थूलाः शिशवः कृशाः क्षतहताः क्लिष्ठा कनिष्ठात्मिका। याश्वाल्पाशनतत्पराः परवशा याश्चातिनिद्रालसाः। याश्वाक्षेत्रसमुद्भवा विषयुता याश्चातिग्राहिका-- । स्तास्सर्वाश्च जलायुका न च भिषक संपोषयेत्पषिणः ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-- जो जटूका अत्यंत कृश हैं, अत्यंत स्थूल है, बिलकुल बाल हैं, आघात से युक्त हैं, क्लिष्ट है, नीच जान्युत्पन्न है, अत्यंत कम आहार लेती हैं, परवश हैं, अत्यंत निद्रा व आलस्य से युक्त हैं, जो नीचक्षेत्रा में उत्पन्न है, विषयुक्त हैं, जिन को पकड़ने में अत्यंत कष्ट होता है, ऐसे लक्षणों से युक्त जट्कायोंको वैद्य लाकर पालन पोषण न करें अर्थात् जलूकाप्रयोग के लिये ये अयोग्य हैं ॥ ५१ ॥ शस्त्रकर्मवर्णन. इत्येवं ह्यनुशनशास्त्रमधिकं सम्यग्विनिर्देशतः । शस्त्राणामपि शास्त्रसंग्रहमतो वक्ष्यामि संक्षेपतः ॥ शस्त्राण्यत्र विचित्रचित्रितगुणान्यस्त्रायसां शास्त्रक्ति । कर्मज्ञः कथितोरुकर्मकुशलैः कर्मारकैः कारयेत् ॥ ५२ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार अभी तक अनुशस्त्र के शास्त्र को कथन कर अब शस्त्रों के शास्त्र को संक्षेप से कहेंगे । शस्त्रों में विचित्रा अनेक प्रकार के गुण होते हैं । उन शस्त्र व लोह के शास्त्रज्ञ व शस्त्रकर्मज्ञ वैध को उचित है कि शस्त्रों को बनाने में कुशल कारीगरों से, शस्त्रकमोचित शस्त्रों को निर्माण करावें ॥ ५२ ॥ अष्टविधशस्त्रकर्मोंमें आनेवाले शस्त्रविभाग. छा स्यादतिवृद्धिपत्रमुदितं लेख्यं च संयोजयेत् । भेद्यं चोत्पलपत्रमत्र विदितं वेध्यो कुठार्यस्थिषु ।। मांस त्रीहिमुखेन वेधनमतो विस्रावणे पत्रिका- । शस्त्रं शस्तमथैषणी च सततं शल्यैषणी भाषितम् ॥ ५३ ।। . भावार्थ-छेदन व लेखनक्रिया में वृद्धिपत्र नाम का शस्त्र, भेदनकर्म में उत्पलपत्र शस्त्र, हड्डी में वेधनार्थ कुठारिकाशस्त्र, मांस में वेधन करने के लिये हि. मुखनामक शस्त्र, विस्रावणकर्म में पत्रिकाशस्त्र एवं शल्य को ढूंढने [ एपणीकर्म 1 में एषणीशन का उपयोग प्रशस्त कहा है ॥ ५३ ॥ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः । (५७९) शल्याहरणविधि. आहार्येषु विचार्य यंत्रितनरस्याहारयेच्छल्पमा- । लोक्यं कंकमुखादिभिस्त्वविदितं शल्यं समाज्ञापय ॥ हस्त्यश्वोष्ट्ररथादिवाहनगणानारोप्य संवाहये-। च्छीघ्रं यत्र रुजा भवेदतितरां तत्रैव शल्यं हरेत् ॥ ५४॥ भावार्थ-आहरण योग्य अवस्था में, मनुष्य को यंत्रित करते हुए देख कर, कंकमुखादि शस्त्रों से शल्य आदि का आहरण करना चाहिये । अविदित शल्य को ( शज्य किस जगह है यह मालूम न हो ) इस प्रकार जानना चाहिये । उस मनुष्य को हाथी, घोडा, ऊंठ, रथ आदि, वाहनों पर बैठाल कर शीघ्र सवारी कराना चाहिये। चलते समय जहां अत्यंत पीडा हो, वहीं पर शल्य है ऐसा समझना चाहिये । बादमें उसे निकालना चाहिये ॥ ५४ ॥ सीवन, संधान, उत्पीडन, रोपण. मूची वा सुविचार्य सीवनविधौ ऋज्वी सवको तया । सीवेदशिरः प्रतीतजठरे संभूय भूरित्रणे।। संधानौषधसाधितख़्तवरैस्संलिप्य सन्धाय सं- । पीड्योत्पीडनभेषजैरपि बहिः संरोपणैः रोपयेत् ॥ ५५ ॥ भावार्थ-सीवनकर्म उपस्थित होने पर सीधी वा टेढी सुई से सीना चाहिये । ऊरुशिर व जठर में बहुत व्रण हो जाने पर, संधानकारक ( जोडनेवाले ) औषधियों से, साधित श्रेष्टघृत से लेपन कर, संधान ( जोडना) कर के, एवं पीडन औषधियों से पीटन कर के और रोपण औषधियों से रोपण [ भरना ] करना चाहिये ॥ ५५॥ शस्त्रकर्मविधि. छद्यादिष्वपि चाष्टकर्मसु यदा यत्कर्मकर्तुर्भिपक् । वाछन् भेषजयंत्रशस्त्रगृहशीतोष्णोदकाग्न्यदिकान् ।। स्निग्धान्सत्परिचारकानपि तदा संयोज्य संपूर्णतां । ज्ञात्वा योग्यमपीह भोजनमपि प्राग्भोजयेदातुरम् ॥ ५६ ॥ भावार्थ:- छेद्य भेद्य आदि अष्ट प्रकार के शस्त्रकर्मों में कोई भी कर्म करने के लिए जब वैद्य को मौका आवे सबसे पहिले उस के योग्य औषधि, शस्त्र, यंत्र, गृह Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८०) कल्याणकारके [ Operation Room ] ठण्डा व गरम पानी, अग्नि आदि सामग्री व प्रेमस्नेहसहित मृदुस्वभावी परिचारकों को सब एकत्रित कर लेना चाहिए । एवं सर्व सामग्री पूर्णरूपेण एकत्रित होने पर, रोगी को योग्य भोजन करा लेना चाहिए ॥ ५६ ॥ ___ अर्शविदारण. तत्राभुक्तवतां मुखामयगणैर्मूढोरुगर्भोदरेऽ-। - इमर्यामप्यतियत्नतो भिषगिह प्रख्यातशस्त्रक्रियां ॥ कुर्यादाशु तथाश्मरीमिहगुदद्वारादहिर्वापतः । छित्वार्श विधियांत्रितस्य शबरैः संहारयेद्वारिभिः ॥ ५७ ।।. . . भावार्थ-मुखरोग, मूढगर्भ, उदररोग व अश्मरी रोगसे पीडित रोगीपर शस्त्रकर्म करना हो तो उसे भोजन खिलाये विना ही बहुत यत्न के साथ करना चाहिये । अश्मरीपर शस्त्रक्रिया जल्दी करें । अर्शरोग में रोगी को विधिप्रकार यंत्रित कर के गुदद्वार के बाहर बायें तरफ शस्त्र से विदारण कर अर्श का नाश करें । एवं उसपर जलका सेचन करें ॥५७॥ शिराव्यधविधि. स्निग्धस्विन्नमिहातुरं सुविहितं योग्यक्रियायंत्रितम् । ज्ञात्वा तस्य सिरां तदा तदुचितं शस्त्रं गृहीत्वा स्फुटम् ।। विध्वामृपरिमोक्षयेदतितरां धारानिपातक्रमात । अल्पं यत्रमपोह्य बंधनबलात्संस्तंभयेच्छोणितम् ॥ ५८ ॥ भावार्थ-पहिले शिराव्यध से रक्त निकालने योग्य रे.गी को, अच्छी तरह स्नेहन, स्वेदन कराकर, योग्यरीति से यंत्रित कर [ बांधकर ] उस की व्यधन योग्य शिरा का ज्ञान कर, अर्थात् शिरा को अच्छी तरह देख कर व हाथ से पकड कर, पश्चात् उचित शस्त्र को लेकर स्फुट रूप से व्यधन करके दुष्टरक्त को अच्छी तरह निकालना चाहिये । अच्छीतरह ज्यधन होने से, रक्त धारापूर्वक बहता है । रक्त निकलते २ जब शरीर में दुष्टरक्त थोडा अवशेष रह जाय तो यंत्रणको हटाकर, शिरा को बांच कर, रक्त को रोक देवें ॥ ५८॥ अधिक रक्तस्रावसे हानि. दोषैर्दुष्टमपीह शोणितमलं नैवातिसंशोधये- । च्छेषं संशमनैः जयेदतितरां रक्तं सिरानिर्गतम् ॥ १ वाप यत् इति पाठांतरं Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः। (५८१). . कुर्याद्वातरुजं क्षयश्वसनसत्कासाद्यहिक्कादिकान् । .... पाण्डून्मादशिरोभितापमचिरान्मृत्यु समापादयेत् ॥ ५९॥ भावार्थ-दोषों से दूषितरक्त को भी अत्यधिकप्रमाण में नहीं निकालना चाहिये । क्यों कि यदि शिरा द्वारा अत्यधिक रक्त निकाल दिया जाय तो वात व्याधि, क्षय, श्वास, खांसी, हिचकी, पांडुरोग, उन्माद ( पागलपना) शिर में संताप आदि रोग उत्पन्न होते हैं एवं उस से शीघ्र मरण भी हो जाता है । शरीरस्थ शेष दूषित रक्त को संशमन औषधियों द्वारा शमन करना चाहिये ॥ ५९॥ ___ रक्तकी अतिप्रवृत्ति होनेपर उपाय: रक्तेऽतिप्रसृतक्षणे ह्युपशमं कृत्वा तु गव्यं तदा । क्षीरं तच्छृतशीतलं प्रतिदिनं तत्पाययेदातुरम् ॥ ज्ञात्वोपद्रवकानपि प्रशमयन्नल्पं हि तं शीतल- । ...... द्रव्यैस्सिद्धमिहोष्णशीतशमनं संदीपनं भोजयेत् ॥ ६ ॥ । भावार्थ--रक्त का अधिक स्राब होने पर शीघ्र ही उपशमनावीध ( रक्तको रोक ) करके उस रोगीको, उस समय व प्रतिदिन, गरम करके ठंडे किये हुये. गाय के दूध को पिलाना चाहिये । यदि कोई उपद्रव [ पूर्वोक्त रोगसे कोई रोग ] उपस्थित हों तो, उसका निश्चय कर, उपशमन विधान से शमन करते हुए, उसे अल्प शीतल द्रव्यों से सिद्ध, उष्ण व शीत को शमन करनेवाले, और अग्निदीपक, आहार को खिलाना चाहिये ॥ ६० ॥ शुद्धरक्तका लक्षण व अशुद्धरक्त के निकालने का फल. रक्तं जीव इति प्रसन्नमुदितं देहस्य मूलं सदा-। धारं सोज्वलवणेपुष्टिजननं शिष्टो भिषग्रक्षयेत् ।। दृष्टं सत्क्रमोदिनात्वपहृतं कुर्यात्प्रशांति रुजा-। मारोग्यं लघुतां तनोश्व मनसः सौम्यं दृढात्मंद्रियम् ॥ ६१ ॥ भावार्थ:---- शुद्धरक्त शरीर का जीव ही है ऐसा तज्ञ ऋषियोंने कहा है। वह शरीरस्थिती का भूल है । उसका सदा आधारभूत है । एवं उज्वलवर्ण व पुष्टिकारक हैं। सजन वैद्य, ऐसे रक्त की हमेशा रक्षा करें। शिराव्यध आदि से, रक्त निकालने के विधान को जाननेवाला विज्ञ वैद्य द्वारा, दूषित रक्त ठीक तरह से निकाला जाय तो रोग की शांति होती है । शरीर में आरोग्य, लघुता [ हलकापन ] उत्पन्न होती है । मन में Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८२) कल्याणकारके शांति का संचार होता है । आत्मा और इंद्रिय मजबूत होते हैं ॥ ६१ ॥ वातादिसे दुष्ट व शुद्धशोणितका लक्षण. वातेनात्यसितं सफेनमरुणं स्वच्छं सुशीघ्रागमं । दुष्ट स्याद्रधिरं स्वपित्तकुपितं नीलातिपीतासितम् । विसं नेष्टमशेषकीटमशकैस्तन्मक्षिकाभिस्सदा । श्लेष्मोद्रेककलंकितं तु बहलं चात्यंतमापिच्छिलम् ।। ६२ ॥ मांसाभासमपि क्षणादतिचिरादागच्छति श्लेष्मणा । शीतं गैरिकसमभं च सहज स्यादिंद्रगोपोपमम् ॥ तच्चात्यंतमसंहतं यविरलं वैवर्णहीनं सदा । दृष्त्वा जीवमयं च शोणितमलं संरक्षयेदक्षयम् ॥ ६३ ॥ भावार्थ:-वात से दूषित रक्त अतिकृष्ण, फेन [ झाग ] युक्त, स्वच्छ, शीघ्र बाहर आनेवाला [ शीघ्र बहनेवाला ] होता है । पित्त से दूषित रक्त, नीला, अत्यंत पीला, अथवा काला, दुर्गंधयुक्त, [ आमगंधि ] होता है । एवं, वह सर्वप्रकार के कीट, मशक व मक्खियों के लिये अनिष्ट होता है (जिससे कीट आदि, उस रक्त पर बैठते नहीं, पीते नहीं ) कफ से दूषित शोणित, गाढा, पिच्छिल, मांसपेशी के सदृश वर्णवाला बहुत देरसे स्राव होनेवाला शीत और गेरु [ गेरु के पानी । के सदृश वर्णवाला अर्थात् सफेद मिला हुआ लाल वर्णका होता है ।प्रकृतिस्थ रक्त, इंद्रगोप के समान लाल, न अधिक गाढा न पतला व विवर्णरहित होता है । ऐसे जीवमय रक्त ( जीवशोणित ) को हमेशा रक्षण करना चाहिये अर्थात् क्षय नहीं होने देना चाहिये। ६२ ॥ ६३ ॥ হিৰখা অনুখানিহাৰ वित्राव्यं नैव शीते न च चटुलकठोरातपे नातितप्त । नास्विन्ने स्निग्धरूक्षे न च बहुविरसाहारमाहारिते वा ।। नाभुक्ते भुक्तमंतं द्रवतरमशनं स्वल्पमत्यंतशीतं ।। शीतं तोयं च पीतं रुधिरमपहरेत्तस्य तं तद्विदित्वा ॥ ६४ ॥ भावार्थ:---अत्यधिक शीत व उष्ण काल में, रोगी भयंकर धूप से तप्तायमान हो रहा हो, जिस पर स्वेदनकर्म नहीं किया हो अथवा अधिक पसीना निकाला गया हो जो अधिक स्निग्ध व अधिक रूक्ष से युक्त हो, जिसने बहुत विरस आहार को भोजन कर लिया हो एवं जिसने बिलकुल भोजन ही नहीं किया हो ऐसी हालतोंमें शिराव्यध कर के Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मचिकित्साधिकारः । ( ५८३) रक्तस्रावण नहीं कराना चाहिये। जिसने द्रवतर पदार्थोको भोजन कर लिया हो, एवं अत्यंत शीत व थोडा भोजन किया हो, साथ हीठण्डे जल को पीया हो, ऐसे मनुष्य को जानकर रक्तस्रावण कराना चाहिये, अर्थात् शिराव्यध करना चाहिये ॥ ६४ ॥ शिराव्यध के अयोग्य व्याक्त. वास्तऽमृक्षपोक्षेः श्वसनकसनशोषज्वराधश्रमार्ताः । क्षीणाः रूक्षाः क्षतांगाः स्थविरशिशुक्षयव्याकुलाः शुद्धदेहाः ॥ स्त्रीव्यापारांपवासैः क्षपिततकुलताक्षेपकैः पक्षपातः । गर्भिण्यः क्षीणरेतो गरयुतमनुजा अत्यय सावयेत्तान् ॥ ६५ ॥ भावार्थ:-- जो मनुष्य श्वास, कास, शोष, ज्वर, और मार्गश्रम से युक्त हैं एवं शरीरसे क्षीण हैं, रूक्ष हैं, जखम से युक्त अंगवाले है, अत्यंत बूढे हैं, बालक हैं, व क्षय रोग से पीडित हैं, वमन विरेचनदि से जिनके शरीर को शुद्ध किया गया है, अति मैथुन व उपवास से जिन का शरीर क्षीण वा खराब हो गया है, आक्षेपक व पक्षाघात व्याधिस पीडित है, गर्भिणी हैं, जिनकं शुक्रधातु क्षीण होगया है जो कृत्रिम विषसे पीडित हैं ऐसे मनुष्योंको शिराव्यध कर के रक्त नहीं निकालना चाहिये । अर्थात् उपरोक्त मनुष्य शिराव्यध के अयोग्य है। उपरोक्त शिराव्यधन के आयोग्य मनुष्य भी यदि शिराव्यध से साध्य होनेवाले कोई प्राणनाशक व्याधि से पीडित हों, तो उन का उस अवस्थामें रक्त निकालना चाहिये ॥ ६५ ॥ अंतिम कथन. इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरती । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ।। ६६ ।। भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुख से Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८४) कल्याणकारके उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हिंतसाधक है [ इसलिये इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ६६ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यविरचिते कल्याणकारके उत्तरतंत्राधिकारे कर्मचिकित्सितं नाम प्रथम आदित एकविंशोऽध्यायः। इत्युग्रादित्याचार्यकृत .. कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में . विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में कर्मचिकित्साधिकार नामक उत्तरतंत्र में _प्रथम व आदिसे एक्कीसवां परिच्छेद समाप्त हुआ । Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजक पद्रवचिकित्साधिकारः । अथ द्वाविंशः परिच्छेदः मंगलाचरण व प्रतिज्ञा. जिनेश्वरं विश्वजनार्चितं विभुं प्रणम्य सर्वोषधकर्मनिर्मित-1 प्रतीतदुर्व्यापद भेदभेषजप्रधान सिद्धांतविधिविधास्यते ॥ १ ॥ भावार्थ:—लोककें समस्त जनों के द्वारा पूर्जित त्रिभु, ऐसे श्री जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर, स्नेहन स्वेदन वमनादि कर्मोके प्रयोग ठीक २ यथावत् न होने से जो प्रसिद्ध व दुष्ट आपत्तियां (रोग) उत्पन्न होती हैं, उनको उनके भेद और प्रतीकार विधान के साथ शास्त्रोक्तमार्ग इस प्रकरण में प्रतिपादन करेंगे ॥ १ ॥ स्नेहनदिकर्म यथावत् न होनेसे रोगोंकी उत्पत्ति. अथाज्यपानावखिलौषधक्रियाक्रमेषु रोगाः प्रभवंति देहिनाम् । भिषग्विशेषाहित मोहतोऽपि वा तथातुरानात्मतयापचारतः ॥ २ ॥ ( ५८५ ) भावार्थ:-- स्नेहनस्वेदनादि सम्पूर्ण कम के प्रयोगकाल में वैद्य के अज्ञान से प्रयुक्तक्रिया के प्रयोग यथावत् न होने के कारण, अथवा अक्रम प्रवृत्त होने के कारण अथवा रोगीके असंयम व अपथ्य आहारविहार के कारण मनुष्यों के शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं ॥ २ ॥ घृतपानका योग, अयोगादि के फल. घृतस्य पानं पुरुषस्य सर्वदा रसायनं साधुनियोजितं भवेत् । तदेव दोषावहकारणं नृणामयोगती वाप्यथवातियोगतः ॥ ३ ॥ भावार्थ:- यदि घृत पानका योग सम्यक् हो जाय तो वह रसायन हो जाता 1 है । लेकिन उसका अयोग वा अतियोग होवें तो वही, मनुष्यों के शरीर में अनेक दोषों ( रोग ) की उत्पत्ति में कारण बन जाता है ॥ ३ ॥ १ ग्रंथ में यहांपर "अनात्मया" यही पाठ है, उसके अनुसार ही अनात्मव्यवहार अर्थात असंयम यह अर्थ लिखा गया है। परंतु यहांपर "आतुराज्ञानतया" यह पाठ अधिक अच्छा मालुम होता है अर्थात् रोगीको औषधसेवन पथ्यप्रयोगादिकमें अज्ञान ( प्रमाद ) होनेसे भी अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। ७३ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८६) . कल्याणकारके घृतके अजीर्णजन्यरोग व उसकी चिकित्सा. घुतेप्यर्णेि प्रभवंत्यरोचकज्वरप्रमेहोन्मदकुष्ठमूर्च्छनाः। अतः पिबेदुष्णजलं ससैंधवं सुखांभसा वाप्यथ वामयद्भिषक् ॥ ४ ॥ भावार्थ:-पिया हुआ घृत यदि जीर्ण न हुआ तो वह अरोचक, ज्वर, प्रमेह, उन्माद, कुष्ठ और मूर्छा को उत्पन्न करता है। उस अवस्थामें उष्णजल में सेंधालोण मिलाकर उसे पिलाना चाहिये या सुखोष्णजल से उस रोगीको वमन कराना चाहिये ।। ४ ॥ जीर्णघृतका लक्षण. यदा शरीरं लघुचान्नकांक्षिणं मनोवची मूत्रपुरीषमारुतः । प्रवृत्तिरुद्गारविशुद्धिरिंद्रियप्रसन्नता [ज्वलजीर्णलक्षणम् ॥ १॥ भावार्थ:--धृत पान करनेपर जब शरीर हलका हो, अन्न की इछा उत्पन्न हो, मन प्रसन्न हो, वचन, मूत्र, मल, वायु की प्रवृत्ति ठीक तरह से हो, डकार में अर्णािंश व्यक्त न हो [ साफ डकार आती हो ] इंद्रियो में प्रसन्नता व्यक्त हो, तब वह घत जर्णि हुआ ऐसा समझना चाहिये ॥ ५ ॥ घृत जीर्ण होने पर आहार. ततश्च कुस्तुंबुरुनित्रसाधितं पिबंद्यवागूमथवानुदोषतः । कुलत्थमुद्ाढकयूषसत्खलैर्लघूष्णमन्नं वितरेद्यथोचितम् ॥ ६ ॥ भावार्थ--पिया हुआ घृत पच ज ने पर धनिया व निब से सिद्ध यवागू पिलाना चाहिए । अथवा दोष के अनुसार औषधसाधित यवागू अथवा कुलथी, मूंग, अरहर का यूष व योग्य खल के साथ लधु व उष्ण अन्न को यथा योग्य खिलाना चाहिए ॥६॥ स्नेहपान विधि व मर्यादा. स्वयं नरस्नेहनतत्परो घृतं तिलोद्भवं वा क्रमवद्धितं पिबेत् ॥ . त्रिपंचसप्ताहमिह प्रयत्नतः ततस्तु सात्म्यं प्रभवन्निषेवितम् ॥ ७ ॥ भावार्थ:-स्नेहन क्रिया में तत्पर मनुष्य अपने शरीर को स्निग्ध [ चिकना] बनाने के लिए घी अथवा तिल के तेल को क्रमशः प्रमाण बढाते हुए, तीन दिन, पांच दिन या सात दिन तक पायें । इस के बाद सेवन करें तो वह सात्म्य [प्रकृति के अनुकूल ] हो जाता है । इसलिए सात दिन के बाद न पावे ॥ ७ ॥ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्वचिकित्साधिकारः । (५८७) वातादिदोषों में घृत पानविधि. पिवेघृतं शर्करया च पैत्तिके ससैंधवं सोष्णजलं च वातिके ॥ कटुत्रिकक्षारयुत कफात्मिक क्रमेण रोगे प्रभवंति तद्विदः ॥८॥ भावार्थ:---पित्त दोषोत्पन्न रोगों में घृत को शक्कर के साथ मिला कर पीना चाहिए । वातज रोगों में सैंधालोण व गरम पानी के साथ पीना चाहिए । कफज रोगों में त्रिकटु व क्षार मिला कर पीना चाहिए ऐसा तज्ज्ञ लोगों का मत है ॥ ८ ॥ अच्छपान के योग्य रोगी व गुण. नरो यदि क्लेशपरी बलाधिकः स्थिरस्स्वयं स्नेहपरोऽतिशीतले ॥ पिबेतौ केवलमेव तद्घृतं सदाच्छपानं हि हितं हितैषिणाम् ॥ ९ ॥ भावार्थ:----जो मनुष्य बलवान् है, स्थिर है, परंतु दुःख से युक्त है, यदि वह स्नेहनक्रिया करना चाहता है तो शीत ऋतु ( हिमवंत शिशिर ) में वह केवल [ अकेला ] घृत को ही पीवें । यह बात ध्यान में रहे कि अच्छ [ अकेला ही शक्कर आदि न मिला कर ] घृत के पीने में ही उस को हित है अर्थात् वह विशेष गुणदायक होता है ॥९॥ घृतपान की मात्रा. कियत्प्रमाणं परिमाणमेति त त तु पीतं दिवसस्य मध्यतः ।। मदक्कमग्लानिविदाहमूर्च्छनात्यरोचकाभावत एव शोभनम् ॥ १०॥ भावार्थ:-पीये हुए घृत की जितनी मात्रा ( प्रमाण ) मध्यान्हकाल (दोपहर) तक मद, क्लम, ग्लानि, दाह मूर्छा व अरुचि को उत्पन्न न करते हुए अच्छी तरह पच जावे, उतना ही घृत पीने का प्रशस्तप्रमाण समझना चाहिये । ( यह प्रमाण मध्यम दोषवाओं को श्रेष्ठ माना है ) ॥ १० ॥ सभक्तघृतपान. मृदुं शिशुं स्थूलमतीवदुर्बलं पिपासुमाज्यद्विपमत्यरोचकम् ॥ मुदाहदेहं सुविधानतादृशं सभक्तमेवात्र घृतं प्रपाययेत् ॥ ११ ॥ भावार्थ:- बालक, मृदु प्रकृतिवाले, स्थूल, अत्यंत दुर्बल, प्यासे घी पीने में नफरत करनेवाले, अरोचकता से युक्त, दाहसहित देहवाले एवं इन सदृश रोगियों को भोजन के साथ ही घत पिलाना चाहिये अर्थात् अकेला छ न पिलाकर, भोजन ( भात रोटी आदि ) में मिलाकर देना चाहिये ॥ ११ ॥ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८८) - कल्याणकारके सघस्नेहनप्रयोग. सपिप्पलीसैंधवमस्तुकान्वितं घृतं पिबेद्रौक्ष्यनिवारणं परम् ॥ सशर्कराज्यं पयसैव वा सुखम् पयो यवागूमथवाल्पतण्डुलाम् ॥ १२ ॥ सितासिताज्यैः परिदुह्य दोहनं प्रपाय रोक्ष्यात्परिमुच्यते नरः ॥ कुलत्यकोलाम्लपयोदधिद्रवैः विपक्वमप्याशु घृतं घृतोत्तमम् ॥ १३ ॥ भावार्थः- पीपल, सेंधानमक, दही का तोड, इन को एक साथ धृत में मिलाकर पीने से शीघ्र ही रुक्ष का नाश होता है। अर्थात् सद्य ही स्नेहन होता है । शकर मिले हुए घी को दूध के साथ पीने से एवं दूध से साधित यवागू जिस में थोडा चावल पडा है, उस धूत में मिलाकर पान करने पर सघ ही स्नेहन होता है । शक्कर मिले हुए घृत को एक दोहनी में डाल कर, उस में उस समय दुहे ( निकाला ) हुए गाय के दूध [धारोष्ण गोदुग्ध ] को मिलाकर रूक्ष मनुष्य पावें तो तत्काल ही उस का रूक्षत्व नष्ट हो कर स्नेहन हो जाता है । इसी प्रकार कुलथी वेर इन के काथ व दूध दही, इन से साधित उत्तमघृत को पीने से भी शीघ्र स्नेहन होता है ॥१२॥१३॥ स्नेहनयोग्यरोगी. नृपेषु वृद्धेष्वबलावलेषु च प्रभूततापाग्निषु चाल्पदोषिषु ॥ भिषग्विदध्यादिह संप्रकीर्तितान् क्षणादपि स्नेहनयोगसत्तमान् ॥१४॥ भावार्थ:-जो राजा हैं, वृद्ध हैं, स्री है, दुर्बल हैं, आधिकसंताप, मृदु अग्नि व अल्पदोषों से संयुक्त हैं, उन के प्रति, पूर्वोक्त स्नेहन करनेवाले उत्तमयोगों को वैध ( स्नेहन करने के लिये ) उपयोग में लावें ॥ १४ ॥ रूक्षमनुष्यका लक्षण. पुरीषमत्यंतनिरूक्षितं घनं निरति कृच्छ्रान्न च भुक्तमप्यलम् ॥ विपाकमायाति विदधते ह्युरा विवर्णमात्रेऽनिलपूरितोदरः ॥ १५ ॥ सुदुर्बलस्स्यादतिदुर्बलाग्निमान्विरूक्षितांगो भवतीह मानवः ॥ . ततः परं स्निग्धतनोस्सुलक्षणम् ब्रवीमि संक्षेपत एव तण्णु ॥ १६ ॥ भावार्थ:-रूक्ष मनुष्य का मल अत्यंत रूक्षित व घन (घट्ट, हो कर बहुत मुष्किल से बाहर आता है । खाये हुए आहार अच्छी तरह नहीं पचता है । छाती १ वृषेषु इति पाठांतरम् । इसका अर्थ जो धर्मात्मा है अर्थात् शांतस्वभाववाले हैं ऐसा होगा परंतु प्रकरणमें नृपेषु यह पाठ संगत मालुम होता है । सं. Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः। भषजकमान (५८९) में दाह होता है । शरीर विकृतवर्णयुक्त होता है, उदर में पवन भरा रहता है। वह दुर्बल होता है, उसकी अग्नि अत्यंत मंद होती है। अर्थात् ये रूक्ष शरीरवाले के लक्षण हैं । इस के अनंतर सम्यक् स्निग्ध (चिकना) शरीर के लक्षणों को संक्षेप में कहेंगे । उस को सुनो ॥ १५॥ १६ ॥ सभ्यस्निग्ध के लक्षण. अवश्यसस्नेहमलप्रवर्तनं घृतेतिविद्वेष इहांगसादनम् ॥ भवेच्च सुनिग्धविशेषलक्षणम् तथाधिकस्नेहनलक्षणं ब्रुवे ॥ १७ ॥ भावार्थ:-- अवश्य ही स्नेहयुक्त मल का विसर्जन होना, घृतपान व खाने में द्वेध व अंगों में ग्लानि होना, यह सम्यक् स्निग्ध के लक्षण हैं । अब अधिक स्निग्ध का लक्षण कहेंगे ॥ १७ ॥ आतस्निग्ध के लक्षण. गुदे विदाहोऽतिमलप्रवृत्तिरप्यरोचकैर्याननतः कोद्गमः ॥ प्रवाहिकात्यंगविदाहमोहनं भवेदतिस्निग्धनरस्य लक्षणम् ॥१८॥ भावार्थ:--गुद स्थान में दाह, अत्यधिक मल विसर्जन, [अतिसार] अरोचकता, मुख से कफ का निकलना, प्रवाहिका, अंगदाह व मूर्छा होना, यह अतिस्निग्ध के लक्षण हैं !॥ १८ ॥ __ अतिस्निग्धकी चिकित्सा. सनागरं सोष्णजलं पिबेदसौ समुद्षौदनमाशु दापयेत् ॥ सहाजमोदाग्निकसंधवान्वितामला यवागूमथवा प्रयोजयेत् ॥ १९॥ . भावार्थ:- उस अतिस्निग्ध शरीरवाले रोगी को उस से उत्पन्न कष्ट को निवारण करने के लिए शुंठी को गरम पानी में मिला कर पिलावे । एवं मूंग के यूष [ दाल ] के साथ शीघ्र भात खिलाना चाहिए । अथवा अजमोद, चित्रक व सैंधालोण से मिश्रित थवाग् देनी चाहिए ॥ १० ॥ घृत ( स्नेह ) पान में पथ्य. घृतं मनोहारि रसायनं नृणामिति प्रयत्नादिह तत्पिति ये ॥ सदैव तेषामहिमोदकं हितम् हिता यवागूरहिमाल्पतण्डुला ॥२०॥ भावार्थ:--मनुष्यों के लिये घृत रसायन है । ऐसे मनोहर घृत को जो लोग प्रयत्नपूर्वक पीते हैं, उन को हमेशा गरम पानी का पीना हितकर होता है । एवं थेडे Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९०) कल्याणकारके चावलों से बनाई हुई, गरम [ उष्ण ] यवाग् भी हितकर है अर्थात् ये दोनों उन के लिये पथ्य हैं ॥२०॥ ___स्वेदविधिवर्णनप्रतिज्ञा. स्नेहोद्भवामयगणानुपशम्य यत्नात्, स्वेदोद्भवामययुतं विधिरुच्यतेऽतः॥ स्वेदो नृणां हिततमो भुवि सर्वथेति, संयोजयत्यपि च तत्र भवति रोगाः॥ २१ ॥ भावार्थ:-- स्नेह के अतियोग आदि से उत्पन्न रोगों को उपशमन करनेवाली चिकित्सा को प्रयत्न पूर्वक कह कर, यहां से आगे स्वेदविधि व उस के बराबर प्रयुक्त न होने से उत्पन्न रोग व उन की चिकित्सा का वर्णन करेंगे। लोकमें रोगाक्रान्त मानवों के लिए, स्वेद प्रायः सर्वथा हितकर है। परन्तु उस की योजना यदि यथावत् न हो सकी तो उस से भी बहुत से रोग उत्पन्न होते हैं ॥२१॥ स्वेदका योग व अतियोगका फल. सम्यक्प्रयोगवशतो बहवो हि रोगाः शाम्यति योग इह चाप्यतियोगतो वा। नानाविधामयगणा प्रभवंति तस्मात् स्वेदावधारणमरं प्रतिवेद्यतेऽत्र॥२२॥ भावार्थ:- स्वेदनप्रयोग को यदि ठीक तरह से उपयोग किया जाय तो अनेक रोग उससे नष्ट होते हैं या शमन होते हैं। इसे ही योग कहते हैं। यदि उसका अतियोग हो जाय तो अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । इसलिये स्वदेन योग की योग्य विधिको अब कहेंगे ॥ २२ ॥ स्वेदका भेद व ताप, उष्मस्वेदलक्षण. तापोष्मबंधनम हावभेदतस्तु स्वेदश्चतुर्विध इति प्रतिपादितोऽसौ । वस्त्राग्निपाणितलतापनमेव तापः सोष्णेष्टकोपलकुधान्यगणैस्तथोष्मा॥२३॥ भावार्थ:--वह स्वेद, तापस्वेद १ उप्मस्वेद २ बंधनस्वेद (उपनाहरवेद्र) ३ द्रवस्वेद ४ इस प्रकार चार भेद से विभक है । वस्त्र हथैली इत्यादि को गरम कर ( लेटे हुए मनुष्य के अंग को ) सेकने को या अंगार से सेकने को " तापस्वेद "" कहते हैं। इंट पत्थर कुधान्य इत्यादि को गरम करके उसपर कांनी आदि द्रव लिडककर, गाटे कपडे से ढके हुए रोगी के शरीर को सेकने को उमस्वेद कहते हैं ॥ २३ ॥ १ दूध, दही, कांजी या वायुनाशक औषधी के काथ को घर में माका, उमे गरम कर के उसकी बाफ से जो सेका जाता है इसे भी उन्मस्त्रेद कहते हैं। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकोपद्रवचिकित्साधिकारः । (५९१ ) बंधन द्रव, स्वेदलक्षण. उष्णोषधरपि विपाचितपायसाथैः पत्रांवरावरणकैरिह बंधनाख्यः । सौवीरकांबुघृततैलपयोभिरुष्णैः स्वेदो भवेदतितरां द्रवनामधेयः ॥२४॥ भावार्थ:--उष्ण औषधियों के द्वारा पकाये हुए पायस (पुल्टिश बांधनेयोग्य ) को पत्रों, कपडे आदिसे ढककर बांधने को बंधन (उपनहन ) स्वेद कहते हैं। कांजी, पानी, घृत, तेल व दूध को गरम कर कडाही आदि बड़े पात्र में भरकर उस में रोगी को बिठाल स्नान कराकर स्वेद लाने की विधि को " द्रवस्वेद " कहते हैं ॥ २४ ॥ चतुर्विधस्वंद का उपयोग. आधौ कफप्रशमनावनिलप्रणाशी बंधवप्रतपन बहुरक्तपित्त- । व्यामिश्रिते मरुति चापि कर्फ हितं तत् सस्नेहदेहहितकदहतीह रूक्षम् ।। २५ भावार्थ:-आदि के ताप व उष्म नाम के दो स्वेद विशेषतः कफ को नाश वा उपशन करनेवाले हैं। बंबन स्वेद (उपनाह स्वेद ) वातनाशक है । द्रवस्वेद, रक्तपित्त मिश्रित, वात वा कफ में ति है। स्नेहाभ्यक्त शरीर में ही यह स्वेद हितकर होता है, अर्थात् तैल आदि चिकने पदार्थोंसे मालिश कर के ही स्वेदन क्रिया करनी चाहिये। वहीं हितकर भी है। यदि रूक्षशरीरपर स्वेदकर्म प्रयुक्त करें तो वह शरीर को जलाता है ॥२५॥ स्वेदका गुण व सुस्वेदका लक्षण. वातादयस्सततमेव हि धातुसंस्थाः रनहायोगवशतः स्वत एव लीनाः। स्वदैवत्वमुपगम्य यथाक्रमेण स्वस्था भवत्युदरगास्स्वनिवासनिष्ठाः॥२६ भावार्थ:-जो सतत ही धातुओं में रहते हैं, एवं स्नेहन प्रयोगद्वारा अपने आप ही स्वस्थान से ऊर्च, अध व तिर्यग्गामी होकर मार्गों में लीन हो गये हैं, वे वातादि दोष योग्य वेदन क्रिया द्वारा द्रवता को प्राप्त कर, क्रमशः उदर में पहुंच जाते हैं । ( और वमन विरेचन आदि के द्वारा उदर से बाहर निकल कर ) स्वस्थ हो जाते हैं और यथास्थान को प्राप्त करते हैं ॥ २६ ॥ स्वेद गुण. स्वेदैरिहाग्निरभिवृद्धिमुपैति नित्यं स्वदः कफानिलमहामयनाशहेतुः। प्रस्त्रवदमाशु जनयत्यतिरूदेहे शीतार्थितामपि च साधुनियोजितोऽसौ ॥ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९२) कल्याणकारके भावार्थ:-स्वंदनप्रयोग से शररिमें सदा अग्निकी वृद्धि होती है । वंदन योग कफ व वातजन्य महारोगोंको नाश करने के लिये कारण है । अर्थात् नाश करता है। योग्य प्रकार से प्रयुक्त यह स्वेदन योग से(स्वेदकर्म का सुयोग होनेपर) शीघ्र ही शरीरमें अच्छी तरह पसीना आता है और रोगीको शांत पदार्थोंके सेवन आदि की इच्छा उत्पन्न होती है ॥२७॥ स्वेद के अतियोग का लक्षण. स्वंदः प्रकोपयति पित्तममृक्च साक्षाद्विस्फोटनभ्रममदज्वरदाहमुगः। क्षिप्रं समावहति तीव्रतरः प्रयुक्तः तत्रातिशीतलविधि विदधीत धीमान् ॥ भावार्थ:--स्वेदन प्रयोग तीव्र हो जाय [ अधिक पसीना निकाल दिया जाय ] तो वह पित्त व रक्त का प्रकोप करता है । एवं शरीर में शीघ्र स्फोट [ फफोले ] भ्रम, मद, ज्वर, दाह, व मूर्छा उत्पन्न करता है। उस में कुशल वैध अत्यंत शीतक्रिया का प्रयोग करें ।। २८ ॥ स्वेदका गुण. · पानातिपातमददाहपरीतदेहं शीतांबुबिंदुभिरजस्रमिहार्दितांगम् ॥ - उष्णांबुना स्नपितमुज्वलितोदराग्निम् संभोजयेदगुरुमग्निकर द्रवानम्॥२९ भावार्थ:---जो मद्य के अधिक पानसे व्याकुलित है, मद व दाह से व्याप्त है, शीत जलबिंदुओं से हमेशा जिस का शरीर पीडित है, ऐसे रोगी को गरम पनी से स्नान करा कर, उस की बढी हुई अग्नि को देख कर, लघु, अग्निदपिक व द्रवप्राय अन्न को खिलाना चाहिए ॥२९॥ घमनविरेचनविधिवर्णमप्रतिक्षा. ... स्वेदक्रियामभिविधाय यथाक्रमेण संशोधनोद्भवमहामयसचिकित्सा ।। सम्यग्विधानविधिनात्र विधास्यते तत्संबंधिभेषजनिबंधनसिद्धयोगैः ॥ भावार्थ:-.-.स्वेदनक्रिया को यथाक्रम से कह कर अब संशोधन ( वमन, विरेचन ) के अतियोग व मिथ्यायोग से उत्पन्न महान् रोग, उन की चिकित्सा और १ दो तीन प्रतियोमें भी यही पाठ मिलता है। परंतु यह प्रकरण से कुछ विसंमत मालुम होता है। यहांपर स्वेदकमेका प्रकरण है, इसलिये यहांपर प्राणातिपात यह पाठ अधिक संगत मालूम होता है। अर्थात् स्वेदकर्ममें अतियोगसे उत्पन्न ऊपर के श्लोकमें कथित रोगोंकी प्राणातिपात अवस्थामें क्या करें इसका इस श्लोकमें विधान किया होगा। संभव है कि लेखक के हस्तदोषसे यह पाठभेद हो गया हो। -संपादक. Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकपद्रव चिकित्साधिकारः । ( ५१३ ) वमन विरेचन के सम्यग्योग की विधि को इन में प्रयुक्त होने वाले औषधियों के सिद्ध योगों के साथ निरूपण किरेंगे ॥ ॥ ३० ॥ दोषों के बृंहण आदि चिकित्सा. क्षीणास्तु दोषाः परिबृंहणीयाः सम्यक्प्रशम्याश्चलिताश्च सर्वे ॥ स्वस्थाः सुरक्ष्याः सततं मवृद्धाः सद्यो विशोध्या इति सिद्धसेनैः ॥ ३१॥ भावार्थ:- क्षीण ( घटे हुए) वातादि दोषों को बढाना चाहिए | कुपित दोषों शमन करना चाहिए । स्वस्थ [ यथावत स्थित ] दोषों को अच्छी तरह से रक्षण करना चाहिए | अतिवृद्ध ( बढे हुए ) दोषों को तत्काल ही शोधनकर शरीर से निकाल देना चाहिए, ऐसा श्री सिद्धसेन यति का मत है ॥ ३१ ॥ संशोधन में वमन व विरेचन की प्रधानता. संशोधने तद्वमनं विरेकः सम्यक्प्रसिद्धाविति साधुसिद्धैः ॥ सिद्धांतमार्गभिहितौ तयोस्तद्वक्ष्यामहे यद्वमनं विशेषात् ।। ३२ ।। भावार्थ:- दोषों के संशोधन कार्य में वमन और विरेचन अत्यंत प्रसिद्ध है अर्थात् दोषों को शरीर से निकाल ने के लिए वमन विरेचन बहुत ही अच्छे उपाय वा साधन हैं ऐसा सिद्धांतशास्त्र में महर्षियों ने कहा है । इन दोनों में प्रथमत वमन विधि को विशेषरूप से प्रतिपादन करेंगे ॥ ३२ ॥ For चमन में भोजनविधि. rist यथावद्वमनं करिष्यामीत्थं विचित्यैव तथापराण्हे । भोजयेदातुरमाशु धीमान् संभोजनीयानपि संप्रवक्ष्ये ॥ ३३ ॥ भावार्थ:- कुशल वैद्य को उचित है कि यदि उसने दूसरे दिन रोगी के लिये मन प्रयोग करने का निश्चय किया हो तो पहिले दिन शामको रोगीको अच्छीतरह ( अभिष्यंदी व द्रवप्राय आहार से ) शीघ्र भोजन कराना चाहिये । किनको अच्छी तरह भोजन कराना चाहिये यह भी आगे कहेंगे ॥ ३३ ॥ संभांजनीय अथवा वाम्यरोगी. ये तुत्को हुदोषदुष्टास्तीक्ष्णाग्नयः सत्वबलप्रधानाः । ये ते महाव्याधिगृहीतदेहाः संभोजनीया भुवनप्रवीणैः || ३४ ॥ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९४) कल्याणकारके भावार्थ:-जो रोगी अत्यंत उद्रिक्त बहुत दोषोंसे दूषित हों, जो तीक्ष्ण अग्नि से युक्त हों, जो बलवान् हों, जो महाव्याधि से पीडित हों, ऐसे रोगियोंको कुशल वैध अच्छी तरह भोजन करावें अर्थात् ऐसे रोगी वमन कराने योग्य होते वमन का काल व औषध. तत्रापरेाः प्रविभज्यकाले साधारणे प्रालरवेक्ष्य मात्राम् । कल्कैः कषायैरपि चूर्णयोगेः स्नेहादिभिर्वा खलु वामयेत्तान् ॥३५॥ भावार्थ:-वैद्य साधारण काल [ अधिक शीत व उष्णता से रहित ऐसे प्रावृट् शरद् व वसंतऋतु) में, [वमनार्थ दिये हुए भोजन को दूसरे दिन प्रातः काल में, वमन कारक औषधियोंके कल्क, कषाय, चूर्ण, स्नेह, इत्यादिकों को योग्य प्रमाण में सेवन कराकर वमन योग्य रोगीयोंको वमन कराना चाहिये ॥ ३५ ॥ ___ वमनविरेचन के औषधका स्वरूप. दुर्गधदुर्दर्शनदुस्स्वरूपैर्बीभत्ससात्म्यतरभेषजैश्च । संयुक्तयोगान्वमने प्रयुक्तो वैरेचनानत्र मनोहरैस्तु ॥ ३६ ॥ भावार्थ:-चमन कर्म में दुर्गंध,देखने में असह्य, दुःस्वरूप, बीभत्स ( निकारक) घ अननुकूल (प्रकृति के विरुद्ध ) ऐसे स्वरूप युक्त औषधियोंको प्रयोग करना चाहिये । विरेचन में तो, वमनौषध के विपरीतस्वरूपयुक्त मनोहर सुंदर औषधियों का ही प्रयोग करना चाहिये ।। ३६ ॥ बालकादिक के लिए वमन प्रयोग, बालातिवृद्धौषधभारुनारी दौर्बल्ययुक्तानपि सद्रवैस्तैः । क्षीरादिभिर्भेषजमंगलाढयम् तान्पाययित्वा परितापयेत्तान् ॥ ३७॥ . भावार्थ:-जो बालक हैं, अतिवृद्ध हैं, औषध लेने में डरनेवाले हैं, स्त्रियां हैं एवं अत्यंत दुर्बल हैं, उनको दूध, यवागू , छाछ आदि योग्य द्रवद्रव्यों के साथ मंगल मय, औषध को मिला कर पिलाना चाहिये, पश्चात् ( अग्निसे हाथ को तपाकर ) उन के शरीर को सेकना चाहिये [ और वमन की राह देखनी चाहिये] ॥ ३७॥ १ यह काल ही वमन के योग्य है । २ वामयेदिति पाठांतरं । Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः । (५९५) वमन विधिः हल्लासलालामृतिमाशु धीमानालोक्य पीठोपरि सन्निविष्टः । गन्धर्वहस्तोत्पलपत्रवृन्तर्वेगोद्भवार्थ प्रमृशेत्स्वकण्ठम् ॥ ३८ ॥ भावार्थ:---जब उस रोगी को [ जिस ने वमनार्थ औषध पीया है ] उवकाई आने लगे, मुंह से लार गिरने लगे, उसे बुद्धिमान् वैद्य देख कर, शीघ्र ही [घुटने के बराबर ऊंचा ] एक आसन पर बैठाल देवे । और वमन के वेग उत्पन्न होने के लिये, एरंडी के पत्ते की डंडी, कमलनाल इन में से किसी एक से रोगी के कंठ को स्पर्श करना चाहिये अर्थात् गले के अंदर डाल कर गुदगुदी करना चाहिये ॥ ३८ ॥ . सम्यग्वमन के लक्षण. सोऽयं प्रवृत्तौषधसबलासे पित्तेऽनुयाते हृदयोरुकोष्ठे । शुद्धे लघौ कायमनोविकारे सम्यस्थिते श्लेष्मणि सुष्टुवांतः ॥ ३९॥ .. भावार्थः-पूर्वोक्त प्रकार वमन के औषधि का प्रयोग करने पर, यदि वमन के साथ क्रमशः पीया हुआ औषध, कफ व पित्त निकलें, हृदय व कोष्ठ शुद्ध हो जावे शरीर व मनोविकार लघु होवें एवं कफ का निकलना अच्छीतरह बंद हो ' जावे तो समझना चाहिये कि अच्छी तरह से वमन होगया है ॥ ३९॥ वमन पश्चात् कर्म. सनस्यगण्डूषविलोचनांजनद्रवैर्विशोध्याशु शिरोबलासम् ।। उष्णांबुभिधौतमिहापराण्हे तं भोजयेषगणैर्यथावत् ॥ ४० ॥ भावार्थ:--इस प्रकार वमन होनेपर शीघ्र ही, नस्य, गंडूष, नेत्रांजन [ सुरमा ] व द्रव आदि के द्वारा शिरोगत कफका विशोधन करके, उसे गरम पानीसे स्नान कराकर, सायंकाल में योग्य यूषों ( दाल ) से भोजन कराना चाहिये ॥ ४०॥ वमनका गुण. एवं संशमने कृते कफकृता रोगा विनश्यति ते । तन्मूलेऽपहृते कर्फ जलजसंघाता यथा ह्यंभसि । याते सेतुविभेदनेन नियतं तद्योगविद्वामये- । द्वाम्यप्राप्तिनिषेधशास्त्रमखिलं ज्ञात्वा भिषग्भेषजैः ॥ ४१ ।। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्य भावार्थ:-इस प्रकार वमनविधि के द्वारा कफका नाश होनेपर कफकृत अनेक रोग नष्ट होते हैं। जिस प्रकार जल के बंध वगैरह टूटनेपर जलका नाश होता है। जलके नाश से वहांपर रहनेवाला कमल भी नष्ट होता है । क्यों कि वह जलके आधारपर रहता है, मूल आधारका नाश होनेपर वह उत्तर आधेय नहीं रह सकता है । इसीप्रकार मूल कफ के नाश होनेपर तजनित रोग भी नष्ट होते हैं । इसलिये योग को जाननवाला विद्वान् वैध को उचित है कि वह वमन के योग्य व अयोग्य इत्यादि वमन के समस्त शास्त्रों को जानकर और तत्संबंधी योग्य औषधियोंसे रोगी को वमन कराना चाहिये ।। ४१ ॥ वमन के बाद विरेचनविधान. वांतस्यैव विरेचनं गुणकरं ज्ञात्वेति संशोधये-। दूर्ध्वं शुद्धतरस्य शोधनमधः कुर्याद्भिषग्नान्यथा। .. श्लेष्माधः परिगम्य कुक्षिमखिलं व्याप्याग्निमाच्छादये-। च्छन्नाग्नि सहसैव रोगनिचयः प्राप्नोति मर्त्य सदा ॥ ४२ ॥ भावार्थ:-जिस को वमन कराया गया है उसी को विरेचन देना. विशेष गुणकारी होता है, ऐसा जानकर प्रथमतः ऊर्ध्व संशोधन ( वमन ) कराना चाहिये । जब इस से शरीर शुद्ध हो जाय, तव अधःशोधन [ विरेचन ] का प्रयोग करना चाहिये । यदि वमन न कराकर विरेचन दे देवें तो कफ नीचे जाकर सर्व कुक्षिप्रदेश में व्याप्त होकर अग्नि को अच्छादित करता है [ढकता है । जिस का अग्नि इस प्रकार कफसे आच्छादित होता है उस मनुष्य को शीघ्र ही अनेक प्रकार से रोगसमूह आ घेर विरेचन के प्रथम दिन भोजन पान. स्निग्धस्विन्नसुवांतमातुरमरं श्वोऽहं विरकोषधैः । सम्यक्तं सुविरेचयाम्यलमिति प्रागेव पूोण्हतः॥ सस्नेहं लघुचाष्णमल्पमशनं संभोजयेदाम्लस- । सिद्धोष्णोदकपानमप्यनुगतं दद्यान्मलद्रावकम् ।। ४३ ।। भावार्थ:---जिस को अग्छी तरह से स्नेहन, रवेदन, व वमन कराया हो ऐसे रोगी को दूसरे दिन यदि वैद्य विरेचन के द्वारा अधःशोधन करना चाहता हो तो पहिले दिन प्रातः काल रोगी को स्निग्ध, लघु, उष्ण व अल्पभोजन द्रव्य के द्वारा Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः । भोजन कराना चाहिये,एवं पीछे आम्ल औषधियोंसे सिद्ध मलद्रावक गरम पानीको पिलाना चाहिये अर्थात् अनुपान देना चाहिये ॥ ४३ ॥ - विरेचक औषधदानविधि. अन्यधुस्सुविचार्य जीर्णमशनं मूर्ये च निर्लोहिते । दद्यादौषधमग्निमल्पपरुषव्याधिक्रमालोचनैः ॥ कोष्ठः स्यास्त्रिविधो मृदुः कठिन इत्यन्योपि मध्यस्तथा। पिनातिमरुत्कफेन निखिलैर्दोषैः समर्मध्यमः ॥ ४४ ॥ भावार्थ:-- दूसरे दिन सूर्योदय के पहिले, पहिले दिन का अन्न जर्णि हुआ या नहीं इत्यादि बातों को अच्छीतरह विचार कर साथ में रोगी के अग्निबल व मृदु कठिन आदि कोष्ठ, व्याधिबल आदि बातों को विचार कर विरेचनकी औषधि देवें । कोष्ठ मृदु, कठिन ( क्रूर ) व मध्यम के भेद से तीन प्रकार का है । पित्त की अधिकता से मृदु कोष्ठ होता है। वातकफ की अधिकता से कठिन कोष्ट होता है । तीनों दोषों के सम रहने से मध्यम कोष्ठ होता है ॥ ४४ ॥ . विविध कोष्ठो में औषधयोजना. मृद्वी स्यादिह सन्मृदावतितरां क्रूरे च तीष्णा मता । मध्याख्येऽपि तथैव साधुनिपुणैर्मध्या तु मात्रा कृता ॥ अमाप्तं बलतो मलंगमयुतं नेच्छेत्सपित्तौषधम् ॥ प्राप्तं वापि न वारयेदतितरां वेगं विघातावहम् ॥ ४५ ॥ भावार्थ-मृदु कोष्टवाले को मृदु मात्रा देनी चाहिए। क्रूर कोष्ठवाले को तक्षिण (तेज) मात्रा देनी चाहिए । मध्यम कोष्ठ वाले को मध्यम मात्रा देनी चाहिए. ऐसा आयुर्वेद शास्त्र में निपुणपुरुषोंने मात्रा की कल्पना की है । विरेचन के लिए औषध लिये हुए रोगी को दस्त उपस्थित हो तो उसे नहीं रोकना चाहिए। यदि वेग नहीं भी आवे तो भी प्रवाहण नहीं करना चाहिए ॥ ४५ ॥ सभ्यग्विरिक्त के लक्षण व पेयपान. यास्यंति क्रमती मरुज्जलमला पित्तौषधोयत्कफाः । यातेष्वेषु ततोऽनिलानुगमने सम्यग्विरिक्तो भवेत् ॥ सोयं शुद्धतनुः श्रमक्लमयुतो लध्वी तनुं चोद्वहन् । संतुष्टोऽतिपिपासुरग्निबलवान् क्षीणो यवागू पिबेत् ॥ ४६ ।। Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९८) कल्याणकारके भावार्थ:-विरेचक औषधि का सेवन करने पर क्रमशः वात, जल. ( मूत्र ) मल, पित्त, औषध और कफ निकलते हैं । इस प्रकार शरीरस्थ दोष निकल जावे, वायु का अनुलोमन हो जाये तो समझना चाहिये कि अच्छी तरह से विरेचन होगया है । इस प्रकार जिस का शरीर अच्छी तरह से शुद्ध होगया है वह श्रम व ग्लानि से युक्त होता है । उस का शरीर हल्का हो जाता है । मन संतुष्ट होता है। प्यास लगती है। अत्यंत कृश होता है । उस की अग्निवृद्धि होती है। ये लक्षण प्रकट होवे तो उसे उसी दिन यवागू पिलानी चाहिये ॥ ४६ ॥ यवागू पान का निषेध मंदाग्निबलवान्तृषाविरहितो दोषाधिको दुर्विरि-। । तो वा तद्दिवसे न चैव निपुणः शक्त्या च युक्त्या पिबेत् ॥ वांसस्यापि विरेचितस्य च गुणाः प्रागेव संकीर्तिता। स्तेषां दोषगुणानिषेधविधिना बुध्या विदध्याबुधः ॥ ४७ ॥ भावार्थः- यदि विरिक्त रोगी को अग्निमंद होगया हो, बलवान् हो, तृषारहित हो, अधिक दोषों से युक्त हो, अतिरह विरेचन न हुआ हो तो ऐसी अवस्था में उसे उस दिन यवागू वगैरह पेय पीने को नहीं देना चाहिये । अच्छीतरह षमन हुए मनुष्य व विरेचित मनुष्य का गुण पहिले ही कहचुके हैं। विरेचन के सब दोषों का निषेध व गुणों की विधि अच्छीतरह जानकर विद्वान् वैद्य रोगी के लिये उपचार करें ॥ ४७ ॥ संशोधनभैषज के गुण. यस्संशोधनभेषजं तदधिकं तैष्णोष्णसौक्ष्म्यात्मकं । साक्षात्सारतमं विकाशिगुणयुकश्चार्य ह्यधश्शोधय-- ॥ त्यूर्व यात्यविपकमेव वमनं सम्यग्गुणोद्रेकतः ॥ पीतं तच्च विपच्यमानमसकृद्यायादधोभागितम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ-जो संशोधन | बमन संशोधन ] करने वाला औषध है, वह अत्यंत तीक्ष्ण, उष्ण, सूक्ष्म, सार ( सर ) व विकासी गुण युक्त होता है । वे अपने विशिष्ट स्वभाव व गुणों के द्वारा ऊर्ध्व शोधन ( वमन ) व अधःशोधन [ विरेचन ] करते हैं । [ वमनौषध व विरेचनौषध ये दोनों गुणों में सम होते हुए परस्परविरुद्ध दो कामों को किस प्रकार करते हैं ? इस का इतना ही उत्तर है कि, विरेचनौषध तीक्ष्ण आदि गुणों Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः। (५९९) के द्वारा ही विरेचन करता है। वमन का औषध तो अपने प्रभावके द्वारा वमन करता है ] वमनौषध अपने गुणों के उत्कर्षसे अविपक्क [कच्चा ] दोषों को लेकर ऊपर जाता है । विरेचन का औषध पक दोषों को लेकर नीचे के भाग ( गुदा ) मे जाता है ॥ ४८॥ विरेचन के प्रकर्णि विषय. मंदाग्नेरतितीक्ष्णभेषजमिति स्निग्धस्य कोष्ठे मृदौ । दत्त शीघ्रमिति प्रयातमखिलान् दोषान्न संशोधयेत् ।। प्रातः पीतमिहौषधं परिणतं मध्यान्हवः शोधनं । निशेषानतिशोधयेदिति मतं जैनागमे शास्वते ॥ ४९ ॥ भावार्थ:---जिस का अग्निमंद हो ( क्रूर कोष्ट भी हो ) स्नेहन कर के उसे तीदण औषध का प्रयोग करना चाहिये । जिसका कोष्ट मृदु हो, [अग्नि भी दीप्त हो] उसे यदि तीक्ष्ण विरेचन देवे तो वह शीघ्र दस्त लाकर सम्पूर्ण दोषों को शोधन नहीं कर पाता है। प्रातःकाल पीया हुआ औषध, मध्यान्ह काल ( दोपहर.) तक पच कर सम्पूर्ण दोषों को शोधन कर दें ( निकाल दें ) तो वह उत्तम माना जाता है । ऐसा शाश्वत जिनागम का मत है ॥ ४९ ॥ दुर्बल आदिकों के विरेचन विधान. अत्यंतोच्छितसंचलानतिमहादोषान् हरेदल्पशः। क्षीणस्यापि पुनः पुनः प्रचलितानल्पान्मशम्याचरेत् ॥ दोषान् पकतरं चलानिह हरेत् सर्वस्य सर्वात्मना । ते चाशु क्षपयंति दोषनिचयाभिशेषतोऽनिर्दृताः॥ ५० ॥ भावार्थ:-क्षीण मानव के शरीर में दोष अत्यंत उद्रिक्त हो व चलित हों तो उन को थोडा२ व बार२ निकालना चाहिये। यदि चलित दोष अल्प हों तो उन्हे शमन करना चाहिये । दोष पक्व हों, चलित भी हों, तो उन सम्पूर्ण दोषोंको सर्वतोभावसे निकाल देना चाहिये (चाहे वह रोगी दुर्बल हो या सबल हो)। यदि ऐसे दोषोंको पूर्णरूपेण नहीं निकाला जावें तो वे शीघ्र ही, शरीर को नष्ट करते हैं ॥५०॥ ____ अतिस्निग्धको स्निग्धरेचनका निषेध. यास्निग्धोऽतिपिवेद्विरेचनघृतं स्थानच्युताःसंचलाः । दोषाःस्नेहवशात्पुनर्नियमिताः स्वस्था भवंति स्थिरा ॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६००) ___ कल्याणकारके तस्मात्स्निग्धतरं विरूक्ष्य नितरां मुस्नेहतः शोधये-।। ... दुध्द्तस्वनिबंधनाच्छिथिलिताः सर्वेऽपि सौख्यावहाः ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-जो अधिक स्नेह पीया हुआ हो वह यदि विरेचन धृत[स्निग्धविरेचन] पावें तो उस का [ अति स्नेहनके द्वारा ] स्वस्थान से च्युत व चलायमान हुए दोष इस स्नेह के कारण फिर नियमित, स्वस्थ व स्थिर हो जाते हैं। इसलिये जो अधिक स्नेह (घृत तेल.दि चिकना पदार्थ) पीया हो उसे अच्छीतरह रूक्षित कर के, स्नेहन से विरेचन करा देना चाहिये ?) क्यों कि दोषोद्रेक के कारणोंको ही शिथिल करना अधिक सुखकारी होता है ।। ५१ ॥ संशोधनसम्बन्धी ज्ञातव्य बातें. एवं कोष्ठविशेषविद्विदितसत्कोष्ठस्य संशोधनं । दद्यादोपहरं तथाह्यविदितस्यालोक्य सौम्यं मृदु । . . यद्यदृष्टगुणं यदेव सुखकद्यच्चाल्पमात्रं महा-। . . वीर्य यच्च मनोहरं यदपि नियापच्च तद्भेषजम् ॥ ५२ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार कोष्ठविशेषों के स्वरूप को जानने वाला वैद्य जिस के कोष्ठ को अछी तरह जान लिया है उसे दोषों को हरण करने वाले संशोधन का प्रयोग करें । एवं जिसके कोष्ठ का स्वभाव मालूम नहीं है तो उसे सौम्य व मृदु संशोधन औषधि का प्रयोग करें । जिस संशोधन औषधि का गुण ( अनेकवार प्रयोग करके ) प्रत्यक्ष देखा गया हो, [ अजमाया हुआ हो ] जो सुखकारक हो ( जिस को सुखपूर्वक खा, पीसके-खाने पीने में तकलीफ न हो ) जिस की मात्रा-प्रमाण अल्प हो, जो महान् वीर्यवान व मनोहर हो, जिस के सेवन से आपत्ति व कष्ट कम होते हों ऐसे औषध अत्यंत श्रेष्ठ हैं ( ऐसे ही औषधों को राजा व तत्समपुरुषों पर प्रयोग करना चाहिए ) अर्थात ऐसे औषध राजाओं के लिए योग्य होते हैं ॥ ५२ ॥ संशोधन में पंद्रहप्रकार की व्यापत्ति. प्रोक्त सद्धमने विरेचनविधी पंचादशः व्यापदः । स्युस्तासामिह लक्षणं प्रतिविधानं च प्रवक्ष्यामहे ॥ .. ऊर्धाधोगमनं विरेकवमनव्यापच्च शेषौषधे-। स्तज्जीर्णोषधतोऽल्पदोषहरणं वातातिशूलोद्भवः ॥ ५३ ॥ जीवादानमयोगामित्याततरां योगः परिस्राव इ-। त्यन्या या परिवर्तिका हृदयंसचारे विबंधस्तथा ॥ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकीपद्रवचिकित्साधिकारः। (६०१) यच्चामानमतिप्रवाहणमिति व्यापच्च तासां यथा- । संख्यं लक्षणतच्चिकित्सितमतो वक्ष्यामि संक्षेपतः ॥५४॥ ..... भावार्थः-वमन, विरेचन के वर्णनप्रकरण में पहिले [ वैद्य रोगी व परिचारक के प्रमाद अज्ञान आदि के कारण वमन विरेचन के प्रयोगमें किसी प्रकार की त्रुटि होने पर ] पंद्रह प्रकार की व्यापत्तियां उत्पन्न होती हैं ऐसा कहा है। अब उन के प्रत्येक के लक्षण व चिकित्सा को कहेंगे । उनमें मुख्यतया पहिली व्यापत्ति वमन का नीचे चला जाना, विरेचन का ऊपर आ जाना है। यह इन दोनों की पृथक २व्यापत्ति है। [आगेकी व्यापत्तियां वमन विरेचन इन दोनों के सामान्य हैं अर्थात् जो व्यापत्ति वमन की है वही विरेचन की भी है ] दूसरी व्यापत्ति औषधोंका शेष रह जाना ३ औषधका पच जाना, ४ अल्पप्रमाणमें दोषों का निकलना ५ अधिक प्रमाण में दोषों का निकल जाना. ६ वातजशूल उत्पन्न होना, ७ जीवादान [ जीवनीय रक्त आदि निकलना], ८ अयोग ९ अतियोग, १० परिस्राव, ११ परिवर्तिका, १२ हृदय संचार [ हृदयोपसरण ] १३ विबंध, १४ आध्मान,१५अतिप्रवाह (प्रवाहिका) ये पंद्रह व्यापत्तियां है। यहांसे आगे इन व्यापत्तियोंके, क्रमशः पृथक् २ लक्षण व चिकित्सा को संक्षेपसे कहेंगे ॥५३॥५४॥ विरेचनका ऊर्ध्वगमन व उसकी चिकित्सा. यस्यावांतनरस्य चोल्वणकफस्यामांतकस्यातिदुगंधाहृयमीतप्रभूतमथवा दत्तं विरेकौषधम् ॥ ऊर्ध्व गच्छति दोषवृद्धिरथवाप्यत्युग्ररोगोद्धति । तं वांत परिशोधयेदतितरां तीक्ष्णैर्विरेकोषधैः ।। ५५ ॥ भावार्थ-जिन को वमन नहीं कराया हो, कफ का उद्रेक व आम से संयुक्त हो तो ऐसे मनुष्यों को विरेचन औषधप्रयोग किया जाय तो वह ऊपर जाता है अर्थात् वमन हो जाता है । अथवा विरेचनौषध, अत्यंत दुर्गंधयुक्त व अहृद्य [ हृदय को अप्रिय ] हो, अथवा औषध, प्रमाण में अधिक पिलाया गया हो तो भी वमन होजाता है। वह ऊपर गया हुआ विरेचन, शरीर में दोषों की वृद्धि करता है, अथवा भयंकर रोगों को उत्पन्न करता है। ऐसा होने पर उसे वमन कराकर अत्यंत तीक्ष्ण विरेचन औषधियों से फिर से विरेचन कराना चाहिये ॥ ५५॥ वमनका अधोगमन व उसकी चिकित्सा.. यस्यात्यंतबुभुक्षितस्य मृदुकोष्ठस्यातितीक्ष्णानलस्यात्यंत वमनौषधं स्थितिमतोपेतं ह्यधो गच्छति ।। Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०२) कल्याणकारक । तत्रानिष्टफलप्रसिद्धमधिकं दोषोल्वणं तं पुनः । । सुस्नेहोग्रतरौषधैरतितरां भूयस्तथा वामयेत् ॥ ५६ ॥ ......भावार्थः-अधिक क्षुधा से पीडित मृदुकोष्ठ व तीक्ष्णग्निवाले मनुष्य को खिलाया हुआ वमनौषध पेट में रह कर अर्थात् पचकर नीचे की ओर चला जाता है। इस का अनिष्टफल प्रसिद्ध है अर्थात् इच्छित कार्य नहीं होता है एवं अधिक दोषों का उद्रेक होता है । ऐसे मनुष्य को अच्छी तरह से स्नेहन कर अत्यंत उग्र वमनौषधियों से बमन कराना चाहिए ॥ ५६ ॥ ___ आमदोषस अर्धपीत औषधपर योजना. आमांशस्य तथामवद्विरसबीभत्सप्रभूते तथा । कृत्वा तत्पतिपक्षभेषजमलं संशोधयेदादरात् ॥ एवं चार्धमुपैति चेदतितरां मृष्टेष्टसद्भेषजै- । रिष्टैरिक्षुरसान्वितैः सुरभिभिः भक्ष्यैस्तु संयोजयेत् ॥ ५७ ॥ भावार्थ:---आमदोष, आमवत् औषध की विरसता, बीमत्सदर्शन, रुचि आदि कारणोंसे पूर्ण औषध न पिया जासके तो उसपर यह योजना करनी चाहिये । सब से पहिले उस रोगीको आमदोष नाशक प्रयोग कर चिकित्सा करें । एवं बादमें संशोधन ( वमन व विरेचन ) प्रयोग करें। साथ ही रुचिकर, इष्ट व सुगंधि भक्ष्य पदार्थो के साथ अथवा ईखके रस के साथ औषध की योजना कर उसकी बीभत्सता नष्ट करें ॥ ५७ ॥ विषमऔषध प्रतीकार.. ऊवीधो विषमौषध परिगतं किंचियवस्थापयन् । शेषान्दोषगणान्विनेतुमसमर्थस्सन्महादोषकृत् ॥ मृच्छी छर्दिमरोचकं तृषमथोद्गाराविशुद्धिं रुजां । हृल्लासं कुरुते ततोऽहिमजलैयान्वितैमियेत् ॥ ५८ ॥ . भावार्थ:- ऊर्ध्व शोधन व अधो शोधन के लिये प्रयुक्त विषमऔषधि यदि सर्व दोषों को अपहरण कर गुणोंकी व्यवस्थापन करने के लिये असमर्थ हो जाय तो वह अनेक महादोषों को उत्पन्न करती है। मूर्छा, वमन, अरोचक, तृषा, उद्गार, अशुद्धिता पीडा, उपस्थित वमनत्व (वमन होनेकी तैयारी, जी मचलना) आदि रोग उत्पन्न होते हैं । उनको उग्रा [वचा } से युक्त गरमजल से वमन कराना चाहिये ॥ ५८ ॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः। (६०३) सावशेषऔषध, व जीर्णऔषध का लक्षण व उसकी चिकित्सा. यत्स्यादौषधशेषमप्यतितरां तत्पाचनैः पाचये- । दल्पं चाल्पबलस्य च प्रचलिताशेषोरुदोषस्य च ॥ तत्रासम्यगोविरेचितनरस्याणर्जलैामयेत । तीक्ष्णाग्नेरपि भक्तवत्परिणतं तच्चाशु संशोधयेत् ॥ ५९॥ 'भावार्थ:---पेट में औषध शेष रह जावे, दोष भी अल्प हो, रोगी अल्पबल वाला हो तो उसे पाचनक्रिया द्वारा पचाना चाहिये । यदि अवशेष औषधवाले का दोष अधिक हो, प्रचलित ( प्रधावित ) हो, [ रोगी भी बलवान हो ] विरेचन भी बराबर न हुआ हो तो उसे गरम पानी से वमन कराना चाहिये । तीक्ष्ण अग्निवाले मनुष्य के [ थोडा, व स्वल्प गुण करनेवाला औषध भोजन के सदृश पच जाता है, इस से उद्रित दोषों को समय पर नहीं निकाले तो अनेक रोगों को उत्पन्न करता है व बल का नाश करता है ] ऐसे जीर्णऔषध को, शीघ्र ही शोधन करना चाहिये ॥ ५९॥ अल्पदाहरण, वातजशूलका लक्षण, उसकी चिकित्सा. अल्पं चाल्पगुणं च भेषजमरं पीतं न निश्शेषतो । दोषं तद्वमनं हरेच्छिरसि रुग्व्याधिप्रवृद्धिस्ततः ॥ हल्लासश्च भवेदिहातिबलिनं तं वामयेदप्यधः । शुद्धादुद्धतगौरवं मरुदुरोरोगाद्गुदे वेदना ॥ ६० ।। तं चाप्याशु विरेचयेन्मृदुतरं तीव्रौषधिश्शोधनैः । स्नेहादिक्रियया विहीनमनुजस्यात्यंतरूक्षौषधम् ।। स्त्रीव्यापररतस्य शीतलमरं दत्तं मरुत्कोपनं । कुर्यात्तत्कुरुतेऽतिशूलमथवा विभ्रांतमूर्छादिकम् ॥ ६१ ॥ भावार्थः- अल्पगुणवाले औषधको थोडे प्रमाण में पीने से जो वमन होता है वह संपूर्ण दोषों को नहीं निकाल पाता है। जिस से शिर में पीडा व व्याधि की वृद्धि होती है। फिर जी मचल आती है । ऐसा होने पर बलवान् रोगी को अच्छी तरह वमन कराना चाहिए । इसी प्रकार विरेचन भी संपूर्ण दोषों को निकालने में समर्थ न हुआ तो उस से दोषों का उद्रेक हो कर शिर में भारीपन, वातजरोग, उरोरोग व गुदा में वेदना ( कर्तनवत् पीडा ) उत्पन्न होती है। ऐसी हालत में यदि रोगी मृदुशरीरवाला हो तो तीक्ष्णशोधन औषधियों द्वारा विरेचन कराना चाहिए । Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०४) कल्याणकारके स्नेहन, स्वेदन से रहित व मैथुम में आसक्त मनुष्य को ( वमन विरेचन कारक ) रूक्ष व शीतल औषध दे दें तो वह वायुको प्रकुपित करता है । वह कुपित धात (पसवाडे पीठ कमर प्रीवा मर्मस्थान आदि स्थानो में) तीव्रशूल एवं भ्रम मूर्छा आदि उपद्रवों को उत्पन्न करता है। ऐसी हालत में उसे शीघ्र ही तैलाभ्यंग (तैलका मालिश) कर के [धान्यसे ] स्वेदन करें एवं मुलैठी के कषाय ( काढा) व कल्कसे सिद्ध तैलसे अनुवासन बस्ति देनी चाहिये ॥ ६० ॥ ६१ ॥ अयोग का लक्षण व उसकी चिकित्सा. तैलाभ्यक्तशरीरमाशु तमपि प्रस्विद्य यष्टीकषा-।। यैः कल्कैश्च विपकतैलमनुवासस्य प्रयुक्तं भिषक् ॥ स्नेहस्वेदविहीनरूक्षिततनो रूक्षौषधं वाल्पी- । र्य वात्यल्पमथापि वाभ्यवहतं नोज़ तथाधो व्रजेत् ॥ ६२ ।। तच्च क्लिश्य इहोग्रदोषनिचयांस्तैस्सार्धमापादये-। . . दाध्मानं हृदयग्राहं तृषमथो दाहं च सन्मूर्च्छतां ॥ तं संस्नेह्य च वामयेदपि तथाधस्स्नेह्य संशोधयेत् । दुर्वातस्य समुद्धताखिलमहादोषाः शरीरोद्गताः ॥ ६३ ॥ कुर्वति श्वयथु ज्वरं पिटकिकां कण्डूसकुष्ठाग्निमां-। द्यं यत्ताडनभेदनानि च ततो निश्शेषतः शोधयेत् ॥ दुश्शुद्धेऽतिविरेचने स्थितिमति प्रागप्रवृत्ते तथा । चोष्णं चाशु पिबेज्जलं सुविहितं संशोधनार्थ परम् ॥ ६४ ॥ पीत्वाष्णोदकमाशु पाणितलतापैःपृष्ठपादिर- । स्विन्ने सद्रवतां प्रपद्य नितरां धावन्ति दोषाःक्षणात् । याते स्वल्पतरेऽपि दोषनिचये जीणे च सद्भपजे । तत्रायोगविशेषनिष्प्रतिपदं (?) कुर्याच्च तद्भेषजम् ॥ ६५ ।। ज्ञात्वाल्पं गतदोषमातुरबलं शेषं तथान्हस्तदा । मात्रां तत्र यथाक्रमादवितयां दद्यात्पुनःशोधने ॥ एवं चेन्न च गच्छति प्रतिदिनं संस्कृत्य देहक्रियामास्थाप्याप्यनुवास्य वाप्यतिहितं कुर्याद्विरेकक्रियाम् ॥ ६६ ॥ १ वियोग इति पाठांतर । Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकीपद्रवचिकित्साधिकारः। (.६०५) भावार्थ:-जिस का शरीर स्नेहन व स्वेदन से संस्कृत न हो, रूक्ष भी हो, उसे रूक्ष, अल्पवीर्यवाले, अत्यल्प ( प्रमाण में बहुत ही कम ) औषधि का सेवन करावें तो वह न ऊपर ही जाता है न नीचे ही । अर्थात् उस से न घमन होता है न विरेचन । ( इसे अयोग कहते हैं )। और वह दोषों के समूह को उत्क्लेशित कर के, साथ में आध्मान ( अफराना ) हृदयग्रह, प्यास, दाह व मूली को उत्पन्न करता है । ऐसा होनेपर [ उग्र औषधियोंसे ] फिर पूर्णरीतीसे वमन कराना चाहिये । विरेचनी पधि का सेवन करनेपर, दस्त बराबर न लगे, अथवा दस्त बिलकुल ही न लगे, औषध पेट में रह जावे तो शीघ्र ही, विरेचन होने के लिये गरम पानी पिलाना चाहिये । गरम पानी पिलाकर शीघ्र ही हथैली तपाकर उस से पीट, दोनो पार्श्व [ पंसवाडे ] उदर को सेकना चाहिये । इस प्रकार स्वेदन करने पर क्षणकाल से दोष, द्रवता को प्राप्त होकर बाहर दौडते हैं [ निकलते हैं ] अर्थात् दस्त लगता है । यदि स्वल्प ही दोष बाहर निकलकर [ थोडे ही दस्त होकर ] [ बीचमें ] औषध पच जावे तो इस अयोग विशेष के प्रतीकार भूत [ निम्नलिखित क्रमसे ] औषध की योजना करे । पहिले यह जानकर कि शरीरसे दोष थोडा गया हुआ है ( दोष बहुत बाकी रह गया है ) रोगी सबल है, और दिन भी बहुत बाकी है [ सूर्यास्तमान होने को बहुत देर है ] ऐसी हालत में, अव्यर्थ औषधकी मात्रा को खिलाकर विरेचन करावें । इतने करनेपर भी जिनको विरेचन न होता हो, तो स्नेहन स्वेदन से शरीर को प्रतिदिन संस्कृत कर, और अस्थापन व अनुवासन बस्ति का प्रयोग करके, अत्यंत हितभूत विरेचन देना चाहिये ।। ६२ ॥६३ ॥६४ ॥ .. दुर्विरेच्य मनुष्य. . . वेगाघातपराः क्षितश्विरनरा भृत्यांगना लज्जया। लोभाच्चापि वणिजनाः विषयिणश्चान्येपि नात्मार्थिनः ॥ ये चात्यंतविरूक्षितास्सत्ततविष्टंभास्तथाप्यामयाः। .. दुश्शोध्यास्तु भवेयुरेत इति तान सुस्नेह्य संशोधयेत् ।। ६७ ॥ भावार्थ:---- राजा के पास में रहनेवाले मनुष्य, सेवक वर्ग, ( ये लोग भय से ) स्त्रियां ल जाते, वैश्य [ बनिया ] लोभ से, विषय लोपी मनुष्य, (विषय सेवन की आसक्तिसे ) उसी प्रकार अपने आत्महित को नहीं चाहनेवाले लोग, मल के वेग को रोका करते हैं। ऐसे मनुष्य, तथा जो अत्यंत रूक्षतासे (रूखापने से) संयुक्त हैं, हमेशा विबंध [ दस्त का साफ न होना ] से पीडित हैं, एवं उसी प्रकार के अन्य रोगों से व्याप्त हैं वे भी दुविरेच्य होते हैं अर्थात् इन को विरेचक औषधि देनेपर बहुत ही Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके मुश्किल से जुलाब होता है ( क्यों कि इन के शरीर में वात बहुत बढा हुआ होता है) ऐसे मनुष्यों को अच्छी तरह स्नेहन व स्वेदन कर के विरेचन कराना चाहिये ॥ ६७ ॥ अतियोगका लक्षण व उसकी चिकित्सा. स्निग्धस्विननरस्य चातिमृदुकोष्ठस्यातितीक्ष्णौषधं । दत्तं स्यादतियोगकदमनतः पित्तातिवृत्तिर्भवेत् ।। विसंभेतिबलक्षयोप्यनिलसंक्षोभश्च तत्कारणा-। तं शीतांबुनिषिक्तमिक्षुरससंशीतोषधैश्शाधतेत् ॥ ६८॥ स्यादत्यंतविरेचनातिविधिना श्लेष्मप्रवृत्तिस्ततो । रक्तस्यापि बलक्षयो ह्यनिलसंक्षोभश्च संजायते ॥ तं चाप्याशु निषिच्य शीतलजलैश्शीतैश्च यष्टीकषा-1.. यैस्संछर्दनमाचरेदतिहिमक्षीराज्यकास्थापनम् ॥ ६९॥ क्षीराज्येन तथानुवासनमिह प्रख्यातमायोजये- । दन्यश्चाप्यतिसारवद्विधियुतं सद्भेषजाहारकम् ॥ तस्यास्मिन्वमनातियोगविषयेऽमृष्ठीवतिछर्दय-। त्यौदत्याक्षियुगस्य चापि रसनानाशोऽपि निस्सर्पणम् ॥ ७० ॥ हिकोद्गारतृषाविसंज्ञहनुसंस्तंभं तथोपवा- । स्तेषां चापि चिकित्सितं प्रतिविधास्येहं यथानुक्रमात् ॥ तत्रासरगमनेऽतिशोणितविधिं कुर्याच्च जिहोद्गमे । जिहां सैंधवसत्कटुत्रिकरजैघृष्टां तु संपीडयेत् ॥ ७१ ॥ अंतश्चेद्रसना प्रविश्यति तथा चाम्लान्यथान्ये पुरः । खादेयुः स्वयमाम्लवर्गमसकृत् संभक्षयेदक्षयम् ॥ व्यावृत्ते नयने धृतेन ललिते संपीडयेल्लीलया । सुस्तब्धे च हनावनूनकफवातध्नौषधैस्स्वेदयेत् ॥ ७२ ॥ हिक्कोद्गारतृषादिषु प्रतिविधिं कुर्याद्विसंज्ञपि तत् । . कर्णे वेणुनिनादमाशुमधुरं संश्रावयेत्संश्रुतिम् ॥ वैरेकातिविधौ सचंद्रकमतिस्वच्छं जलं संस्रवे- । मांसान धौतजलोपमं तदनु तत् पश्चाच्च सच्छोणितं ॥ ७३ ॥ १६दुकरसंशीतौषधैः इ.ि. पाठांतरं. इस पाठसे चांदनी [चंद्रकिरण ) में उस रोगीको बैठालना व शीतोषध प्रयोग करना यह अर्थ होगा। --संपादक । Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः । (६०७) पश्चात्तद्दसर्पणांगचलनपच्छर्दनोपद्रवा-। स्तेषां चाभिहितक्रमात्पतिविधि कुर्याद्भिपग्भेषजैः॥ तभिस्सर्पितमुष्णतैलपरिषिक्तं तद्दं पीडयेत् । वातव्याधिचिकित्सितं च सततं कृत्वाचरेद्रेषजम् ।। ७४ ॥ जीवशोणित लक्षण. जिह्वालंबनिकामुपद्रवगणे सम्यचिकित्सा मया । संमोक्ता खलु जीवशोणितमतः संलक्ष्यतां लक्षणैः ॥ यच्चोष्णोदकधौतमप्यतितरां नैवापसंसज्यते । स्वापभ्दक्षयतीह शोणितमिदं चान्यत्र पित्तान्वितं ॥ ७५ ।। भावार्थ:- अत्यंत स्नेहन स्वेदन किये हुए, अत्यंत मृदुकोष्ठवाले मनुष्य को, (वमन विरेचनार्थ ) अत्यतं तीक्ष्ण औषधि का सेवन करावे तो उस का अतियोग होता अत्यधिक वमन विरेचन होता है वमन के अतियोग से पित्त अधिक निकलता है। थकावट आती है व बलका नाश होता है एवं वातका प्रकोपन होता है । इसलिये उस मनुष्य को शीत जलसे स्नान कराकर, इक्षुरस व [चंद्रकिरण के समान] शीतगुण संयुक्त औषधियोंस विरेचन कराना चाहिये । प्रमाणसे अत्यधिक विरेचन होनेपर अर्थात् विरेचन का अतियोग होने से अधिक कफ निकलता है, पश्चात् रक्त भी निकलने लगता है, बल का नाश व वातका प्रकोप होता है । ऐसे मनुष्य को शीघ्र ही शीतल जलसे स्नान कराकर, अथवा तरेडा देकर, ठंडे दूध व घी से आस्थापन बस्ति और इन्हीसे प्रसिद्ध • अनुवासन बस्ति भी देवें । इसी प्रकार इस अतिसार के चिकित्सा में कहे गये, औषध व आहार के विधान से उपचार करें। पूर्वकथित वमन के अतियोग और भी उग्ररूप धारण करने पर, थूक में रक्त आने लगता है। रक्त का वमन होता है। दोनों आखें बाहर आती हैं। ( उभरी हुई होती हैं ) जीभ के रसग्रहणशक्ति का विनाश होता है और वह बाहर निकल आती है । एवं हिचकी, डकार, प्यास, मूर्छा, हनुस्तम्भ, ( ठोडी अकडना ) आदि उपद्रव होते हैं। इनकी योग्य चिकित्सा को अब क्रमशः कहेंगे। रक्तष्टीबन व वमन होनेपर रक्त की अतिप्रवृत्ति में जो चिकित्सा कही गई है उसीके अनुसार चिकित्सा करें । जीभ के बाहर निकल आनेपर; सेंधानमक, सोंठ, मिरच, पीपल इन के चूर्णसे जीभ को घिस-रगडकर ( मलकर ) उसे पीडन करें अंदर प्रवेश कर दें। जीभ के अंदर प्रवेश होनेपर, अन्य मनुष्य उस के सामने, दिखा २ कर खड़े निंबू Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०८) कल्याणकारके . आदि चीजों को खावें एवं उसे भी अम्लवर्ग में कहे हुए खट्टे पदार्थो को खिलावें । इस प्रकार की चिकित्सासे जीभ ठीक होती है । आंखें बाहर आनेपर, उन्हे घी लगाकर, बडी कुशलता के साथ पीडन करे=मल दे। हनुस्तभ्म होनेपर कफवातनाशक, श्रेष्ठ औषधियों से ठोड़ी स्वेदन करें सेके । हिचकी, डकार, प्यास आदि उपद्रवो में, उन २ की जो चिकित्सा विधि कही है उन्हीं को करे । बेहोशी होनेपर, बांसुरी आदि के मनोहर शब्द ( संगीत ) को कान में सुनावें। विरेचन का अतियोग अत्यधिक बढ जानेपर, चंद्रिका से[ मोर के पंखे के समान सुनहरी नील आदि वर्ण ] संयुक्त स्वच्छ जल निकलता है। तदनंतर मांस को धोये हुए पानी के के सदृश स्वरूपकाला पानी, तत्पश्चात् जीवशोणित (जीवनदायक) रक्त निकलता है । इसके भी अनंतर गुदभ्रंश ( गुदाका बाहर निकल आना ) अंगो में कम्प [ अंगोपांग के काम्पना होता है। इसी प्रकार वमन के अतियोग में कहे हुए उपद्रय भी इस में होते हैं। ऐसा होनेपर बुद्धिमान् वैद्य पूर्वकथित चिकित्साविधि [ अधिक रक्तस्राव होनेपर जो चिकित्सा कही है उसी चिकित्सा विधि ] से योग्य औषधों द्वारा प्रतीकार करें । बाहर आये हुए गुदा को, गरम तेल लगाकर [ अथवा तैल लगाकर सेक करके ] अंदर प्रवेश करा दें (क्षुद्ररोग में कहे हुए गुदभ्रंश की चिकित्सा को यहां प्रयोग करें ) शरीर काम्पने पर हमेशा वातव्याधि में कथित चिकित्साविधि का प्रयोग करें। जीभ बाहर निकल आना आदि उपद्रवो में अच्छी प्रकार की चिकित्सा करें [ पहिले वमनातियोग चिकित्सा प्रकरण में कह चुके हैं ] । अब जीवशोणित का लक्षण कहेंगे। जीवशोणित लक्षण-जिस रक्त को कपडे के टुकडेपर लगाकर फिर गरम पानी से अच्छीतरह से धो डाले, तो यदि उसका रंग कपडे से नहीं छूटे और उसे सत्तू आदि में मिलाकर खाने के लिये कुत्ते को डालनेपर यदि कुत्ता खावे तो समझना चाहिये कि वह जीवशोणित है । इससे विपरीत लक्षण दिखनेपर समझना चाहिये कि वह जीवशोणित नहीं है बल्कि वह रक्तपित्त है ॥ ६८ ॥ ६९॥ ७० ॥ ७१ ॥७२॥७३॥ ॥ ७४ ॥ ७५॥ - जीवादान, आध्मान, परिकर्तिका लक्षण व उनकी चिकित्सा. जीवादानमसृक्प्रवृत्तिरिति तं ज्ञात्वातिशीतक्रियां। । शीतान्येव च भेषजानि सततं संधानकान्याचरेत् ॥ यच्चाजीवशान्मरुत्पबलतो रौक्ष्यं च पीतौषधं । " तच्चाध्मापयतीह वातमलम्जात्यंतसंरोधकृत ॥ ७६ ॥ । Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भैषजकोपचिकित्साधिकारः । (६०९) यस्मिन्बस्तिगुदेऽतितोदमपि तं स्नेह्यातिसंस्वेदयन् । नाना ह्यौषधवर्तिमग्निकरसबस्ति च संयोजयेत् ॥ क्षीणेनाल्पतराग्निनातिमृदुकोष्ठेनातिरुक्षौषधं । पीतं पित्तयुतानिलं च सहसा सन्दष्य संपादयेत् ।। ७७ ॥ अत्युग्रां परिकर्तिकामापि ततः संतापसंवर्तन । कुक्षौ मुत्रपुरीषरोधनमतो भक्तारुचिर्जायते ।। तं तेलाज्ययुतेन यष्ठिमधुकारेण चास्थापयेत् । क्षीराज्यैरनुवासयदनुदिन सारण संभोजयेत् ॥ ७८ ॥ भावार्थ:----संशोधनऔषधि को संवन कराने पर यदि जीवनदायक रक्त निकल आवे तो उसे जीवादान कहते हैं। ऐसा होने पर उसे शीचिकित्सा करें, एवं रक्त को स्तम्भन करनेवाले शीतऔषधोंका प्रयोग करे । आध्मान- जिस को अजीर्ण होगया हो ( खाया हुआ भोजन नहीं पचा हो ) और कोप्ट में वायु अधिक हो उस हालत में यदि संशोधनार्थ रूक्ष औषध पीचे तो वह आध्मान (पेट अफरा जाना) को उत्पन्न उत्पन्न करता है, जिस से अधोवायु, मल, मूत्र रुक जाते हैं। अस्ति [ गूत्राशय ] व गुदाभाग में सुई चुभने जैसी भयंकर पीडा होती है। ऐसा होनेपर उसे स्नेहन, स्वेदन करके नानाप्रकार के औषधियों से निर्मित वर्ति [ बत्ति और अग्निवृद्धिकारक श्रेष्ठ बस्तिकी योजना करें। परिकर्तिका-दुर्बल मनुष्य, जिस का अग्नि मंद हो और कोष्ट भी मृदु हो, शोधनार्थ रूक्ष औषध पीये तो वह पित्त से संयुक्त वात [ पित्त वात ] को शीघ्र ही दृषित कर के अत्यंत भयंकर परिकर्तिका [केंची से कतरने जैसी पीडा । को उत्पन्न करता है, जिससे कुक्षि में [ पीडा के कारण ] संताप होता है। मल मूत्र रुक जाते हैं एवं भोजन में अरुचि होती है। ऐसा होने पर उसे तैल, घी, मुलैठी इन से मिश्रित दूध से आस्थापन बस्ति देये, घी दूधसे अनुवासन बस्ति का प्रयोग करें एवं दूध के साथ भोजन करावें ॥ ७६ ॥ ७७ ॥ ७८ ॥ परिस्रावलक्षण रूक्षकरतरोदरस्य बहुदोषस्याल्पमंदौषधं । दत्तं दोपहराय नालमतएवोक्तिश्य दोषास्ततः ॥ दौर्बल्यारुचिगात्रसादनमहाविष्टंभमापाद्य सं- । स्त्रावःपित्तकफौ च संततमरं संस्रावयन्नरुिजः।। ७९ ॥ ७७ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१०) कल्याणकारके भावार्थ:-जिस का उदर रूक्ष व क्रूर [ क्रूर कोष्ठ ] हो और वह अधिक दोषों से व्याप्त हो, ऐसे मनुष्य को (प्रमाण में ) अल्प व मृदु औषध का प्रयोग करदें तो, वह सम्पूर्ण दोषों को निकाल ने के लिये समर्थ नहीं होता है । अत एव वह दोषों को उत्क्लेशित करके, दुर्बलता, अरुचि, शरीर में थकावट व विष्टम्भ ( साफ दस्त न आना ) को उत्पन्न करते हुए, वेदना के साथ हमेशा (बहुदिन तक ) पित्तकफ को स्रावण कराता ( बाहर निकालता ) रहता है अर्थात् कफ पित्त मिश्रित थोडे २ बहुत दिन तक दस्त लाता है । इसे संस्राव अथवा परिस्राव कहते हैं ॥ ७९ ॥ परित्रावव्यापत्तिचिकित्सा. तं च सावविकारमत्र शमयेत्सांग्राहिकर्मेषजेः । मोक्तैरप्यथ वक्ष्यमाणविषयैस्संस्थापनास्थापनैः ।। क्षीरेण प्रचुराजमोदशतपुष्पाचूर्णितेनाज्यसं- । मिश्रेणोष्णविशेषशाल्यशनमत्यल्पं समास्वादयेत् ॥ ८०॥ भावार्थ-इस परिस्राव रोग को, पूर्वोक्त सांग्रीहिक औषधोंसे ( दस्त को बंद करनेवाले औषध जायफल आदि ) एवं आगे कहे जानेवाले, दस्तको बंद करनेवाले आस्थापन बस्तियोंसे उपचार करें । तथा अजवायन, सोंफके चूर्ण व घृतमिश्रित व उष्णगुणयुक्त चावल के भात को दूध के साथ थोडा खिलावें ॥ ८ ॥ प्रवाहिका लक्षण. स्निग्धो वातिनिरूक्षितश्च पुरुषः पीत्वात्र संशोधनं । योऽप्राप्तं तु मलं बलाद्गमयति प्राप्तं च संधारयेत् ।। तस्यांतस्मुविदाहशूलबहुलश्वेतातिरक्तासिता । श्लेष्मा गच्छति सा प्रकारसहिता साक्षाद्भवेद्वाहिका ॥८१॥ भावार्थ:-अत्यंत स्निग्ध, अथवा रूक्षित (रूखापने से युक्त ) मनुष्य, विरेचन का औषध पीकर, मल बाहर न आते हुए देख उसे बाहर लाने के लिये, बलात्कार पूर्वक कोशिश करता है अर्थात् प्रवाहण करता है, अथवा बाहर निकलते हुए मल के वेग को रोक लेता है तो, उस के पेट से, दाह व शूलसंयुक्त, सफेद, लाल वा काले रंग का कफ बाहर [बार २] निकल ने लगता है। इसे प्र से युक्त वाहिका, अर्थात् प्रवाहिका कहते हैं ॥ ८१ ॥ १ सांग्राहक-कफ पित्तस्रावस्तंभक, ऐसा भी अर्थ होता है। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकमीपद्रवचिकित्साधिकारः । (६११ ) प्रवाहिका, हृदयोपसरण, व विबंध की चिकित्सा. तामास्रावविकारभेषजगणेरास्थाप्य संशाध्य त-। त्पश्चादग्निकरौषधैरहिमपानीयं तु संपाययेत् ॥ ऊध्वोधश्च प्रवृत्तभेषजगतिं यो वात्र संस्तंभये-। दज्ञानाद्हृदयोपसंसरणतां कृत्वात्र दोषास्तथा ॥ ८२ ॥ हृत्पीडां जनयन्त्यतश्च मनुजो जिहां सदंतामरं । खादंस्ताम्यति चोर्ध्वदृष्टिरथवा मूर्च्छत्यतिक्षामतः ॥ तं चाभ्यज्य सुखोष्णधान्यशयने संस्वेश्व यष्ठीकषा- | यैः संसिद्धतिलोभ्दवेन नितरामत्रानुसंवासयेत् ॥ ८३ ॥ तं तीक्ष्णातिशिरोविरेचनगणैस्संशोध्य यष्ठीकषायोन्मित्रैरपि तण्डुलांबुभिररं तं छर्दयेदातुरम् ।। ज्ञात्वा दोषसमुच्छ्रयं तदनु तं सदस्तिभिः साधये- । धः सशुद्धतनुः सुशीतलतरं पानादिकं सेवते ॥ ८४ ॥ स्रोतस्वस्य विलीनदोषनिकरः संघातमापद्यते । व! मूत्रमरुन्निरोधनकरो बध्नात्यथाग्निस्वयं ।। आटोपज्वरदाहशूलबहुमूच्छाद्यामयास्स्युस्तत-। स्तं छा सनिरूहयेदपि तथा तं चानुसंवासयेत् ॥ ८५ ॥ भावार्थ:- उस प्रवाहिका से पीडित मनुष्य को, परिस्राव व्यापत्ति में कथित औषधसमूह से आस्थापन बस्ति देवें और संशोधन [विरेचन ] करें । उस के बाद अग्निवर्धक औषधियों के साथ गरमपानी को पिलाना चाहिये अथवा अग्निकारक औषधिसिद्धजल को पिलावें । हृदयांपसरण लक्षण-जो मनुष्य धमन विरेचन के औषध को सेवन कर उस से आते हुए वेग-वमन या विरेचन को अज्ञान से रोक लेता है, तो उन के दोष, हृदय के तरफ गमन कर, हृदय में पीडाको उत्पन्न करते हैं, और जिससे मनुष्य जीभ को काटता है, दांतोंको किट किटाता है, संताप युक्त होता हुआ ऊपर की ओर आंखे फाड देता है । अत्यंत कृश होकर मूञ्छित होजाता है । इसे हृदयोपसरण व्यापत्ति कहते हैं। इस की चिकित्सा- ऐसा होनेपर उसे धान्यसे स्वेदित कर के मुलैठी के काथ (काढे)से साधित तिल के तेल से अनुवासनबस्ति देनी चाहिये । तथा शिरोविरेचन गणोक्त तीष्ण औषधियों से शिरोविरेचन करा कर, मुलैठी के क्वाथ ! काढे ) से मिश्रित चावल के धोवन से वमन कराना चाहिये। इतना करने पर भी यदि उस रोगी में दोषोंक Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१२) कल्याणकारके उदेक ( उठाव ) मालूम पडे तो तत्पश्चात् श्रेष्ठ बस्तियोंके प्रयोग से उपचार कर दोषोंको जीतें । विबंधका लक्षण-वमन विरेचनकारक औषधिके सेवन से, शरीर संशुद्ध (वमन अथवा विरेचन ) हो रहा हो, उस हालत में, अत्यंत शतिलपान, हवा आदि को सेवन करता हो तो, उस के स्रोतों में दोषसमूह विलीन होकर संघात (गाढापने) को प्राप्त होता है और वह मल मूत्र, वात को निरोधन करते ( रोकते ) हुए, वमन विरेचन की प्रवृत्ति को रोक देता है । तथा अग्नि भी स्वयं मंद हो जाती है। इस से पेट में गुडगुडाहट, ज्वर, दाह शूल मूी आदि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं [इसे बिबंध कहते हैं ] । विबंध की चिकित्सा- ऐसा होनेपर, उस रोगी को,वमन कराकर निरूहबस्ति [आस्थापन बस्ति ] देनी चाहिये एवं अनुवासनवस्ति भी देनी चाहिये ।। ८२ ॥ ८३ ॥ ८४ ॥ ८५ ॥ ___कुछ व्यापत्तियोंका नामांतर. विरेचने या परिकर्तिरुक्ता गलाक्षतिः सा वमने प्रदिष्टा । अधः परिस्रावणमूवभागे कफपसेको भवतीति दृष्टः ॥ ८६ ॥ प्रवाहिकाधः स्वयमेव चोर्ध्व भवेत्तथोद्गार इतीह शुष्कः। इति क्रमात्पंचदश प्रणीताः सहौषधैापद एव साक्षात् ॥ ८७ ॥ भावार्थ:-विरेचन की व्यापत्ति में जो गुदा में परिकर्तिका कही है उसी के स्थान में, वमन में गलक्षति[ कंठ मे छीलने जैसी पीडा होना] होती है । विरेचन में जो अधःपरिस्राव होता है उस के जगह वमन में कफप्रसेक ( कफ का चूना ) होता है । इसीप्रकार विरेचन की प्रवाहिका के जगह वमन में शुष्कउद्गार होता है । इस प्रकार क्रमशः वमन विरेचन के पंद्रह प्रकार की व्यापत्तियों का वर्णन उन के योग्य औषध च चिकित्सा के साथ २ कर दिया गया है ।। ८६ ।। ॥८७॥ १ यस्तुर्वमधो वा प्रवृत्तदोषः शीतागारमुदकमनिलमन्यद्वा सवेत । इति ग्रंथातरे कथितन्वात. २ विवध्यते वमनविरेचनयोः प्रवृत्ति निवारयंतीत्यर्थः ( मुश्रुत) ३ इस का तात्पर्य यह है कि वमन और विरेचन के अतियोग के कारण, एक २ के पंद्रह २ प्रकार की व्यापत्ति होती हैं ऐसा पहले कहा है । लेकिन परिकर्तिका नामक जो व्यापत्ति विरचन के ठीक २ न होने पर ही होती है, वह वमन में नहीं हो सकती है । इसी प्रकार परिस्राव आदि भी वमन में नहीं हो सकती । यदि उन को वमनव्यापत्ति में से हटा देते तो वमन की पंद्रह व्यापत्तियों की पूर्ति नहीं होती। इसलिये इन के आतिरिक्त वमन में कोई विशिष्ट व्यापत्ति ओ कि विरचन में नहीं होती हो होनी चाहिये । इसी को आचार्य ने इस श्लोकसे स्पष्ट किया है कि परिकर्तिका के स्थान में गलक्षति होती है आदि । Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकमीपद्रवचिकित्साधिकारः । (६१३ ) वस्तिके गुण और दोष. अथात्र सद्वरितविधानसद्विधौ भवत्यचिंत्या बहवो महागुणाः। तथैव दुर्वैद्यकृते तु दुर्विधौ भवत्यचित्या बहवोऽपि दुर्गुणाः ॥ ८८ ॥ भावार्थ:---बस्तिप्रयोग को यदि शास्त्रोक्त विधिपूर्वक यथावत् किया जाय तो अचिंत्य व बहतसे उत्तमगुण होते हैं। यदि अज्ञानी वैद्य ने विधिको न जानकर यद्वा तद्वा किया तो उस से अनेक अचिंत्य दोष भी उपस्थित होते हैं ॥ ८८ ॥ घस्तिव्यापच्चिकित्सावर्णनप्रतिज्ञा. विधिनिषेधश्च पुरैव भाषितावतःपरं बस्तिविपच्चिकित्सितम् । प्रवक्ष्यते दक्षमनोहरौषधैः स्वनेत्रबस्तिप्रणिधान भेदतः ॥ ८९ ॥ भावार्थः-किस रोग के लिये बस्तिकर्म हितकर है, और किस में उस का प्रयोग नहीं करना चाहिये इत्यादि प्रकार से बस्तिकर्म का विधिनिषेध पहिले से कहा जा चुका है । अब यहां से आगे नेत्र ( पिचकारी ) दोष, बस्तिदोष, प्रणिधान [ पिचकारी के अंदर प्रवेश करने का ] दोष, इत्यादि दोषों से उत्पन्न, बस्तिक्रिया की व्यापत्ति, और उन व्यापत्तियों की योग्यचिकित्सा का वर्णन, उन व्यापत्तियों को जीतने में समर्थ व मनोहर औषधों के साथ २ किया जायगा ॥ ८९ ॥ ___ बस्तिप्रणिधान में चलितादिव्यापच्चिकित्सा. अथेह नेत्रं चलितं विवर्तितस्तथैव तिग्विहितं गुदक्षतम् । करोति तत्र व्रणवञ्चिकित्सितं विधाय संस्वेदनमाचरेद्भिषक् ॥९.०॥ भावार्थ:----बस्ति [ पिचकारी ] को अंदर प्रवेश करते समय वह हिल जावे व विवर्तित हो जावे ( मुड जावे ) अथवा तिरछा चला जाये तो वह गुदा में जखम करती है । ऐसा होने पर व्रणोक्तचिकित्सविधान से चिकित्सा करके वैद्य स्वेदन करे अर्थात् गुदभाग को सेक ।। ९० ॥ ऊवाक्षिप्त व्यापच्चिकित्सा. तयोर्ध्वमुक्षिप्त इहानिलान्वितं सफेनिलं चौषधममत्क्षणात् । भिन्नत्ति तद्वंक्षणमाशु तापितं, निरूहयेदप्य वासयेत्ततः ॥ ११ ॥ भावार्थ:---यदि पिचकारी, ऊपर की ओर झुक जावे तो, वह वात व फेन ( झाग ) युक्त औषध को क्षणकाल से ऊपर की ओर वमन करते हुए, वंक्षण [राङ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१४) कल्याणकारके को भेदन करता है । ऐसा होनेपर शीघ्र ही तपाकर( स्वेदन कर ) निरूह [ आस्थापन ] बस्ति और अनुवामन बस्तिका प्रयोग क्रमश: करें ॥ ९१ ॥ ____ अवसन्नध्यापञ्चिकित्सा. इहावसाने त्वधिकं ह्यधोमुखं । पतद्रवं चाशु दहत्यथाशयम् । पयः पयोवृक्षकषायष्टिकै-निरूहयेदप्यनुवासयेद्धृतम् ।। ९२ ।। भावार्थःनेत्र प्रयोग करते समय नांचे की ओर झुक जावे तो द्रवपदार्थ अधिक अधोमुख ( नीचे ओर झुककर ) होकर गिरते हुए शीघ्र ही आशय को जलाता है। ऐसा होनेपर, दूध, दूधिया वृक्षों के काढा व मुलैठी से आस्थापन बस्ति देवें और घी से अनुवासन बस्ति भी देवे ॥ ९२ ॥ नेत्रदोषजव्यापत्ति व उसकी चिकित्सा. तथैव तिर्यप्रणिधानदोषतो । द्रवं न गच्छेदृजुसंप्रयोजयेत् ॥ अतीव च स्थूलमिहातिकर्कशं । रुजाकर स्यादभिघातकृत्ततः ॥ ९३॥ सुभिन्न नेत्रेऽप्यनुसंन्त्रकर्णिके । द्रवं स्रवेत्तच्च विवर्जयद्भिषक् ।। प्रवेशनाद्यत्पतिदीर्घिका सती । गुदे क्षते सावयतीह शोणितम् ॥ ९४ ॥ अतिप्रवृत्तेऽसृजि शोणिताधिका-1 प्रवृत्तिनिर्वृत्तिविधिविधीयते ॥ सुसूक्ष्मदुश्चिद्रयुतेन पीडितं । द्रवं न गच्छेदपि तद्विवर्जयेत् ॥ ९५ ॥ भावार्थ:---इसी प्रकार पिचकारी को तिरछा प्रयोग करने के दोपसे द्रव अंदर नहीं जाता है। उस अवस्थामें उसे सीधाकर प्रयोग करना चाहिये। यदि नेत्रा (पिचकारी) बहुत मोटा हो, कर्कश [ खरदरा } । [ और टेढा हो ] तो उस के प्रयोग से गुदा में चोट लगकर जखम व पीडा होती है। पिचकारी फटी हुई हो जिस की कर्णिका पास में हो [और नली बहुत पतली हो तो पिचकारी में रहनेवाला द्रव अंदर प्रवेश न कर के बाहर वापिस आ जाता है। इसलिये ऐसी पिचकारीयों को बस्तिकर्म में वैद्य छोड देवें । जिस पिचकारी में कर्णिका बहुत दूर हो, उम के प्रवेश कराने पर वह दूर तक जाकर गुदा ( मर्म ) में जखम कर के रक्त का स्राव करती है। इसप्रकार रक्त की अति प्रवृत्ति होनेपर, रक्त की अतिप्रवृत्ति में उस को रोकने के लिये जो चिकित्सा बतलायी गई उससे उपचार करना चाहिये । अत्यंत सूक्ष्म ( बारीक ) छिद्र (सुराक) अथवा खराब छिद्र से संयुक्त पिचकारी अंदर प्रवेश कराने पर उस के द्रव बराबर अंदर नहीं जाता है। इसलिये ऐसी पिचकारी को भी छोड दे ॥९३॥९४॥९५|| Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः। (६१५) अतीव दैर्येप्यतिदीर्घदोषत- स्तथाल्पके चाल्पनिपीडितोपमः । अतः परं बस्तिविकारलक्षणं । प्रवक्ष्यते तत्परिवर्जयेदपि ।। ९६ ॥ भावार्थ-पिचकारी बहुत लम्बी होने पर बस्ति की कर्णिका दूर होनेसे जो व्यापत्ति होती है वही इस में भी होती है । नेत्र ! पिचकारी ] छोटा हो तो धीर दबानसे जो दोष होता है वही इस में भी होता है। इस के बाद बस्ति के विकार का स्वरूप कहेंगे । ऐसी बस्तियों को बस्तिकों में प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥९६ ॥ बस्तिदोषजव्यापत्ति व उसकी चिकित्सा. तथैव बस्तो बहलेऽतरंगिक । दृढेन चांधी भवतीति वर्जयेत् (?)। सुदुर्बलः पीडित एव भिद्यते। प्रवत्यतिछिद्रयुते द्रवं द्रुतम् ॥ ९७।। अथाल्पवस्तावतिहीनत द्रवं । भवत्यतस्तापरिवर्जयोद्भषक् । पीडनदोषजन्य व्यापति व उसकी चिकित्सा तथातिनिष्पीडनतो द्रवद्रुतं । मुखे च नासापुटयोः प्रवर्तते ॥ ९८ ॥ तथा गृहीत्वाशु विधिविधीयतां । विरेचयत्तीक्ष्गतरैविरेचनैः। सुशीतलाम्भः परिषेचयेत्तथा । ततोऽतियत्नाइवमानयेदधः ॥ ९९ ॥ अथाल्पपीडादपवर्तते द्रवं । पुनः पुनः पीडनतोऽनिलान्वितम्।। करोति चाध्मानमतीववेदनां । ततोऽनिलघ्नं कुरु बस्तिमुत्तमम् ॥१०॥ चिरेण निष्पीडितमामयोदयं । करोति तत्तं शमथातरं द्रवम् । यथोक्तसद्भषजसिद्धसाधन- । रुपाचरेदाशु सुशांतये सदा ॥१०॥ भावार्थ:-बस्ति बहुत मोटी हो और बहुत फैली हुई हो तो दुर्बद्ध के समान दोष होता है [ औषध ठीक २ नहीं पहुंचता ] यदि बस्ति दुर्बल हो तो दबाते ही फट जाती है । बस्ति छिद्रयुक्त हो, द्रव जहां पहुंचना चाहिये वहां न पहुंच कर शीघ्र बाहर आजाता है । बस्ति अल्प ( छोटी ) होये तो उसके अंदर द्रव कम समानेसे, वह अल्पगुणकारक होता है । इसलिये ऐसी बस्तियों को बस्तिकर्म में छोड़ देना चाहिये । पीडनदोषजन्य व्यापत्ति व उसकी चिकित्सा नेत्रबस्ति [ पिचकारी ] को जोरसे दबानेसे द्रव [ शीघ्र अमाशय में पहुंच कर ] मुख, व नाक के मार्ग से निकलने (बाहर आने) लगता है । ऐसा होने पर शीघ्र ही उसे रोकने के लिये(गले को मलना,और हिलाना आदि ) योग्य चिकित्सा करे । एवं तीदण विरेचन औषधियों से शिरोविरेचन व कायाविरेचन करावे । शीतल पानी से तरेडा देवें । इत्यादि उपायों से प्रयत्नपूर्वक ऊर्च Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१६ ) कल्याणकारक प्रवृत्तद्रव को नीचे ले आवें । बस्ति को बहुत ही धीरे दबानेसे द्रव अंदर ( पक्काशय में ) न जाकर बाहर आजाता है । बार २ दबाने से पेट में वायु जाकर अफरा और अत्यंत पीडा [ दर्द ] को उत्पन्न करती है । ऐसा होने पर वातनाशक उत्तमबरित का प्रयोग करना चाहिये । बहुत देर करके दबाने से अर्थात् ठहर २ करके दबाने से रोगों की उत्पत्ति अथवा वृद्धि होती है और रोगी को वह द्रव कष्ट पहुंचाता है । इसलिये रोगशांति के लिये हमेशा शास्त्र में कथित योग्य औषध, और सिद्ध साधनों द्वारा उपचार करना चाहिये ||१७|| || १८ || || ९९ ॥ ॥ १०० ॥ ॥ १०१ ॥ औषधदोषजव्यापत्ति और उसकी चिकित्सा. प्रयोजित स्नेहगणीऽल्पमात्रिका | भवेदकिंचित्कर एव संततम् । तथैव मागधिकतामुपागता । प्रवाहिकामावहतीति तत्क्षणात् ॥ १०२ ॥ प्रवाहिकायामपि तत्क्रियाक्रमः । सुशीतलं चोष्णतरं च भेषजम् । करोति वातप्रबलं च पैत्तिकं । गुदोपतापं लवणाधिकं द्रवम् ॥ १०३ ॥ अथात्र संशोधनबास्तरुत्तमं विरेचनं च क्रियतेऽत्र निश्चितैः । -- भावार्थ - जिस बस्ति में अल्पप्रमाण में तैलादिकका प्रयोग किया हो उससे कोई उपयोग नहीं होता है । इसी प्रकार औषध जरूरत से ज्यादा प्रमाण में प्रयुक्त हो तो वह भी शीघ्र प्रवाहिका रोग को उत्पन्न करता है । प्रवाहिका उत्पन्न होनेपर उसकी जो चिकित्सा कही गई हैं उसी का प्रयोग करें। यदि वस्ति में अतिशीतल औषधि का प्रयोग करे तो वात उद्रेक होकर उदर में वातज व्याधियों ( विबंध आध्मान आदि ) को उत्पन्न करता है | यदि अत्यंत उष्ण औषधि का प्रयोग किया जाय तो पैत्तिक व्याधि ( दाह अतिसार आदि ) यों को उत्पन्न करता है । अधिक नमक मिले हुए द्रव की बस्ति देवे तो गुदा में जलन पैदा करता है। ऐसा हो जाने पर तो अर्थात् वातज रोगों की उत्पत्ति हो तो उत्तम संशोधन बस्तिका प्रयोग करें । पित्तजव्याधि में विरेचन का प्रयोग करें ॥ १०२ ॥ ॥ १०३ ॥ शय्यादोषजन्य व्यापत्ति व उसकी चिकित्सा. अथोऽवशीर्षेप्यतिपीडिते क्रिया प्यथोत्तरस्यादपि वर्णितं बुधैः (१) ॥ १०४ ॥ अथोच्छ्रिते चापि शिरस्यतष्टिव: [१] करोति वस्ति घृततैलपूरितम् । पीतश्च सस्नेहमिहातिमेहय-- त्यतत्र तत्रोत्तरवस्तिरौषधम् ॥ १०५ ॥ भावार्थ:—बस्तिकर्म के समय नीचा शिर कर के सोने से अति पीडित के समान दोप होते हैं और उसी के समान इसकी चिकित्सा करनी चाहिये ॥ १०४ ॥ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मे |पद्रवचिकित्साधिकारः । ( ६१७ ) भावार्थ:- शिर ऊंचा करके सोने से घी और तैल से बस्ति भर जाती है और जिस से पीला व स्निन्ध मूत्र आता है । ऐसा होनेपर उत्तरबस्ति का प्रयोग करना चाहिये ॥ १०५ ॥ कर बस्ति भावार्थ:- शरीर और दोनों साथल को संकुचित सिकुड ) देने से औषध ऊपर जाता है और इसलिये वह बराबर वापिस नहीं आता है । इन दोनों व्यापत्तियो में द्रव को बाहर निकालने के लिये, आगम के तत्व को जाननेवाला वैद्य, प्रयत्नपूर्वक फिर बस्तिका प्रयोग करें । समतल में, दाहिने करवट से लेटे हुए मनुष्य को बस्ति देने से वह कुछ भी कार्यकारी नहीं होता है ॥१०६॥१०७॥ अयोगादिवर्णनप्रतिज्ञा. इहाधिकान्कुब्जशरीर योजितान् । विशल्यतो वंक्षणमेव वान्यतः ॥ तथैव संकुचितदेह सक्थिके । यतोर्ध्वमुत्क्रम्य न चागमिष्यति ॥ १०६ ॥ तयोश्च बस्ति विदधीत यत्नती । विनिर्गमायागमतत्वविद्भिषक् ॥ तले च तद्दक्षिणपार्श्वशायिनः । कृतोप्यकिंचित्कर एवं सांप्रतम् ॥ १०७ ॥ अथाप्ययोगादिविधिप्रतिक्रिया प्रवक्ष्यते लक्षणतश्चिकित्सितैः । इहोत्तरे चोत्तरसंकथाकथेत्यथ ब्रवीम्युक्तमनुक्तमप्यलम् ॥ १०८ ॥ भावार्थ- -- अब अयोगादिकों के विधि, [ कारण ] उन के लक्षण व चिकित्सा का वर्णन करेंगे । इस उत्तरतंत्र में उत्तर के ( बाकी के ) सभी बातों के कथन करने की जरूरत है जिनका कि कथन पूर्व में नहीं किया हो । अतएव अयोगादि की विधि इत्यादिकों के कथन के पश्चात् उक्त [ कहा हुआ ] व अनुक्त [ नहीं कहा हुआ ] विषय को भी स्पष्टतया कथन करेंगे ॥ १०८ ॥ अयोग, आध्मानलक्षण व चिकित्सा. किया हो या अस्पष्टरूप से ७८ सुशीतलो वाल्पतरौषधोपि वा तथाल्पमात्रापि करोत्ययोगताम् । तथा नभो गच्छति बस्तिरुद्धतं भवत्यथाध्मानमतीव वेदना ॥ १०९ ॥ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१८ ) कल्याणकारके सुतीक्ष्णबस्ति वितरेद्यथोचितं विरेचनं चात्र विधीयते बुधैः । । . . . . अजीर्णकालेऽत्यशने मलाधिक प्रभूतबस्तिहिमशीतलोपि वा ॥ ११० ॥ अथेह दत्तं च करोति वेदनामतीव चाध्मानमतोऽत्र दीयते । तथानिलघ्नोऽग्निकरोतिऽतिशोधनो। प्रधानबस्तिर्वरबस्तिशास्त्रतः॥१११॥ भावार्धः- अत्यंत शीतल अथवा अल्पगुणशक्तियुक्त व कम प्रमाणके औषधियोंसे प्रयुक्त बस्तिसे अयोग होता है,अर्थात् शीतल आदि औषधोंको बस्तिमें प्रयोग किया जाय तो वह ऊपर चला जाता है (बाहर नहीं आता हे)जिसस भयंकर आध्मान (अफरा) व अत्यंत वेदना होती है । इस अयोग कहते हैं । यह अयोग होने पर तीक्ष्ण बस्तिका प्रयोग करें एवं यथोचित [ जैसा उचित · हो वैसा ] विरेचन भी देवे । आध्मान का कारण लक्षण व चिकित्सा----अजीर्ण होने पर, अत्यधिक भोजन करने पर एवं शरीर में दोष बहुत होने पर, अधिकप्रमाण में बस्ति का प्रयोग करें, अथवा शीतल बस्ति का प्रयोग करे तो [ हृदय, पसवाडा, पीठ आदि स्थानों में ] भयंकर शूल व आध्मान ( अफरा ) उत्पन्न होता है । इसे आध्मान कहते हैं । ऐसी अवस्था में बस्तिशास्त्र में कथित वातनाशक, अग्निदीपक और संशोधन प्रधानबस्ति । निरूह ] का प्रयोग करें ॥ १०९ ॥ ११० ॥ १११ ॥ परिकर्तिकालक्षण व चिकिल्ला. अतीव रूक्षेप्यतितीक्ष्णभेषजे-। प्यतीव चोष्णे लवणेऽधिकेऽपि वा ।। करोति बस्तिः पवनं सपित्तक । ततोऽस्य गात्रे परिकर्तिका भवेत् ।। ११२ ॥ यतस्समग्रं गुदनाभिवरितकं । विकृष्यते तत्परिकर्तिका मता ॥ ततोऽत्र यष्टीमधुपिच्छिलौषधै-। निरूहयेदप्यनुवासयेदतः ॥ ११३ ॥ भावार्थ:-अत्यंत रूक्ष, तीक्ष्ण, अत्यंत . उष्ण व अत्यधिक लवण स युक्त औषधियों द्वारा किया हुआ बस्तिप्रयोग उष्णपित्त से युक्त वायु को प्रकुपित करके परिकर्तिका को उत्पन्न करता है । जिसमें संपूर्ण गुदा, नाभि, बस्ति ( मूत्राशय ) प्रदेशे। को खींचने या काटने जैसी पीडा होती है। उसे Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः । परिकर्तिका कहते हैं। ऐसी अवस्था में मुलैठी व अधिक पिच्छिल औषधियों द्वारा, आस्थापन व अनुवासन बस्ति का प्रयोग करना चाहिए ॥ ११२ ॥ ११३ ॥ पारिस्रावका लक्षण. तथातितीक्ष्णाम्लपटुप्रयोगतो । भवेत्परिस्रावमहामयो नृणाम् ॥ स चापि दौर्बल्यमिहांगसादनं । विधाय संस्रावयतीह पैत्तिकम् ॥११४॥ भावार्थ:----अत्यंत तीक्ष्ण व आम्ल औषधियों के द्वारा प्रयुक्त बस्ति से मनुष्यों को परिस्राव नामक महारोग उत्पन्न होता है । जिस में शरीर में अत्यंत अशक्तपना, व थकावट होकर पित्तस्राव होने लगता है ॥ ११४ ॥ प्रवाहिका लक्षण. सुतीक्ष्णबस्तरनवासतोपि वा । प्रवाहिका स्यादतियोगमापदः ।। प्रवाहमाणस्य विदाहशूलवत् । सरक्तकृष्णातिकफागमो भवेत् ॥११५॥ भावार्थ:--अत्यंत तीक्ष्ण आस्थापनबस्ति वा अनुवासनबस्ति के प्रयोग से उन का अतियोग होकर, प्रवाहिका उत्पन्न होती है जिस में प्रवाहण ( दस्त लाने के लिए जोर लगाना ) करते हुए मनुष्य के गुदामार्ग से दाह व शूल के साथ २ लाल [अथवा रक्तमिश्रित ] व काले रंग से युक्त अधिक कफ निकलता है ॥ ११५॥ । इन दोनोंकी चिकित्सा. ततस्तु सर्पिर्मधुरौषधवै- | निरूहयेदप्यनुवासयेत्ततः ॥ सुपिच्छिलैः शीतलभषजान्वितैः । घृतैः सुतैलैः पयसैव भोजयेत्॥११६॥ . भावार्थ:-इन दोनों रोगोंके उत्पन्न होने पर, पहले घी व मधुर औषधियोंके काढे से, निरूहबस्तिका प्रयोग करके पश्चात् पिच्छिल व शीतल औषधियोंसे संयुक्त घी या तेल से अनुवासनबस्ति देवें । एवं उसे दूध ही के साथ भोजन करावें ॥ ११६ ॥ हृदयोपसरणलक्षण. समारुते तीक्ष्णतरातिपीडितः । करोति बस्तिहदयोपसर्पणम् । तदेव मूर्टोन्मददाहगौरवप्रसेकनानाविधवेदनावहम् ॥ ११७ ॥ भावाय ...-बातोद्रेक से युक्त रोगी को अत्यंततीक्ष्ण औषधियों से सयुंक्त बस्ति को जोर से दबाकर अंदर प्रवेश करादे तो उस से हृदयोपसरण (हृदयों पसर्पण) १ इस विषय को ग्रंथांतर में इस प्रकार प्रतिपादन किया है कि, तीक्ष्णनिरूहबास्त देनेसे तथा वातयुक्त में अनुवासनबास्त देने से हृदयोपसरण होता है | Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२०) कल्याणकारके होता है अर्थात् बस्ति के द्वारा प्रकुपितदोष हृदय के तरफ जाकर उसे आक्रमण करते हैं । (इसे हृदयोपसर्पण कहते हैं) जिस से, उसी समय मूर्छा, उन्माद (पागलपना) दाह, शरीर का भारीपन, लार गिरना आदि नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं ॥११७॥ हृदयोपसरण चिकित्सा. त्रिदोषभैषज्यगणविंशोधनैर्निरूहयेच्चाप्यनुवासयेत्ततः । अंगग्रहअतियोगलक्षण व चिकित्सा. अथानिलात्मा प्रकृतेविरूक्षितः सुदुःखशय्याधिगतस्य वा पुनः ॥११८॥ कृतापार्योषधबास्तरुद्धतः करोति चांगग्रहण सुदुर्ग्रहम् । तथांगसादांगविजृभदेपथु-प्रतीतवाताधिकवेदनाश्रयान् ॥ ११९ ॥ अतोऽत्र वातामयसच्चिकित्सितं विधेयमत्युद्धतवातभेषजैः । अथाल्पदोषस्य मृदूदरस्य वा तथैव सुस्विन्नतनोश्च देहिनः ॥ १२० ॥ सुतीक्ष्णबस्तिस्सहसा नियोजितः करोति साक्षादतियोगमद्भुतम् । तमत्र यष्टीमधुकैः पयोघृतैः विधाय बस्ति शमयेद्यथासुखम् ॥ १२१ ॥ भावार्थ:-हृदयोपसरणचिकित्सा-हृदयोपसर्पण के उपस्थित होनेपर, त्रिदोषनाशक व शोधन औषधियों द्वारा निरूहबस्ति देकर पश्चात् अनुवासन बस्तिका प्रयोग कर देना चाहिये । अंगग्रहण लक्षण-जिन का शरीर अधिक बात से व्याप्त हो, तथा रूक्षप्रकृतिका हो, [शरीर अधिक रूक्ष हो ] एवं बस्तिकर्म के लिये जैसा सोना चाहिये वैसा न सोकर यद्वा तद्वा सोये हों, ऐसे मनुष्यों के लिये यदि अल्पर्यि वाले औषवियों से संयुक्त बस्ति का प्रयोग किया जाय तो वह दुःसाध्य अंगग्रह (अंगो का अकडना) को उत्पन्न करता है, जिसमें अंगो में थकाव, जंभाही, कम्प [ अंगो के कापना ] एवं वात के उद्रेक होने पर जो लक्षण प्रकट होते हैं वे भी लक्षण, प्रकट होते हैं । उसकी चिकित्सा-ऐसा होने पर, वात को नाश करने वाले विशिष्ट औषधों द्वारा, वातव्याधि में कथित चिकित्साक्रमानुसार चिकित्सा करें। आतियोग का लक्षण---जिस के शरीर में दोष अल्प हो, उदर [ कोष्ट ] भी मृदु हो, एवं जिस के शरीर से अच्छीतरह से पसीना निकाला गया हो अर्थात् अधिक स्वेदन किया गया हो ऐसे मनुष्यों को यदि सहसा अत्यंत तीक्ष्ण, व आधिकप्रमाण में बस्ति का Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकीपद्रवचिकित्साधिकारः। (६२१) प्रयोग करें तो वह भयंकर अतियोग को उत्पन्न करता है । ऐसी अवस्था मुलेठी, दूध, घी इन से यथासुख ( जैसे सुख हो । बस्ति देकर अतियोग को शमन करें ॥ ११८ ॥ ११९ ।। १२० ॥ १२१ ॥ जीवादान व उस की चिकित्सा. इहातियोगेऽप्यतिजीवशोणितं । प्रवर्तते यत्खलु जीवपूर्वकम् ।। तदेवमादानमुदाहृतं जिन- । विरेचनाक्तं सचिकित्सितं भवेत् ॥१२२॥ भावार्थ:--पूर्वोक्त अतियोग के बढ़ जाने पर जीवशोणित. [ जविन के प्राणभूत रक्त ] की अधिक प्रवृत्ति होती हैं। इसे ही जिनेंद्र भगवान् ने जीवादान कहा है। इस अवस्था में विरेचन के अतियोग में प्रतिपादित चिकित्साविधि के अनुसार चिकित्सा करें ॥ १२२॥ बस्तिव्यापद्वर्णनका उपसंहार. इत्येवं विविधविकल्पबस्तिकार्य-। व्यापत्सु प्रतिपदमादराच्चिकित्सा। व्याख्याता तदद्ध यथाक्रमेण । बस्तिव्यापारं कथितमपीह संविधास्ये ॥१२३॥ भावार्थ:- इस प्रकार अनेक प्रकार के भेदों से विभक्त वस्तिकर्म में होने वाली व्यापत्तियों को एवं उनकी चिकित्साओं को भी आदरपूर्वक निरूपण किया है। इस के अनन्तर बस्तिविधि का वर्णन पहिले कर चुकने पर भी फिर से इसी विषय का [ कुछ विशेषरूप से ] क्रमश: प्रतिपादन किया जायगा ।। १२३ ।। अनुबस्तिविधि. शास्त्रज्ञः कृतवति सद्विरेचनेऽस्मिन् । सप्ताहर्जनितबलाय चाहताय ॥ स्नेहान्य कथितसमस्तबस्तिकार्य । तं कुर्यात्पुरुषवयो बलानुरूपम् ॥ १२४ ॥ भावार्थ-जब श्रेष्ठ विरेचन देकर सात दिन बीत जावे, रोगी के शरीर में बल भी आजाये तो उसे पथ्यभोजन कराकर अनुवासन के योग्य रोगी के आयु, बल Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२२) कल्याणकारके इत्यादि के अनुसार पूर्वकथित स्नेहनामक बस्ति [अनुवासन बस्ति ] का प्रयोग पूर्णरूप से आयुर्वेदशास्त्रज्ञ वैध करें ॥ १२४ ॥ -- अनुवासनबस्तिकी मात्रा व खालीपेट में बस्तिका निषेध. या मात्रा प्रथितनिरूहसद्रवेषु । स्नेहानामपि च तदर्धमुक्तमार्यैः ॥ नाभुक्तं नरमनुवासयेच्च रिक्त । कोष्ठे तदुपरि निपात्य दोषकृत्स्यात् ॥ १२५ ।। तस्मात्तं तदुचितमाशु भोजयित्वा । सार्दोद्यत्करमनुवासयेद्यथावत् ॥ अज्ञानादधिकविदग्धभक्तयुक्तं । साक्षात्तज्वरयति तत्तदेव योज्यम् ॥ १२६ ॥ भावार्थ:--निरूहबस्ति के लिये द्रव का जो प्रमाण बतलाया गया है उस से अर्धप्रमाण स्नेह बस्ति [ अनुवासन ] की मात्रा है। जिसने भोजन नहीं किया हो उसे कभी भी ( खाली पेट में ) अनुवासन बस्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिये । यदि खाली पेट में बस्ति का प्रयोग कर देवे तो वह ऊपर की तरफ जाकर दोष उत्पन्न करता है । इसलिये, रोगी को शीघ्र योग्य पथ्यभोजन करा कर, जब हाथ गीला ही होवे तभी अनुवासनबस्ति का यथावत प्रयोग करना चाहिये । यदि अज्ञान से विदग्ध आहार खाये हुए रोगी को बरितका प्रयोग कर दे तो वह ज्वर को उत्पन्न करता है। इसलिए योग्य आहार खिलाकर बस्ति का प्रयोग करें ॥ १२५ ॥ १२६ ॥ स्निग्धाहारी को अनुवासनबस्तिका निषेध. मुस्निग्धं बहुतरमन्त्रमाहतस्य । प्रग्यात मिषगनुवासयेन चव ॥ मूछी तृइमदपरितापहेतुमक्तः । स्नेहोयं द्विविधानतो नियुक्तः ॥ १२७ ।। भावार्थः --- जिसने अतिस्निग्ध अन्न को ग्वालिया हो उसे वैध अनुवासन बस्तिका प्रयोग कभी न करें। क्यों कि दोनों तरफ (मुग्य, गदामार्ग से) से प्रयोग किया हुआ स्नेह, मम, प्यास, मद व संताप के लिए कारण होता है अर्थात् उससे मूच्छी आदि उपद्रव उत्पन्न होते हैं ॥ १२७.।। Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः । (६२३) भाजन विधि... . आहारक्रममवलोक्य रोगमत्ता । क्षीरणाप्यधिकखलैस्सुयोगवगैः ॥ पादोनं विदितयथोचितानतस्तं । संभोज्यातुरमनुवासयेद्यथावत् ॥१२८॥ भावार्थ-रोगी के आहारक्रम को देख कर, दूध, खल व उसी प्रकार के योग्य खाद्य पदार्थोसे, जितना वह हमेशा भोजन करता है उससे, [ उचित मात्रा से, ] चौथाई हिस्सा कम, भोजन कराकर शास्त्रोक्तविधिसे अनुवासन बस्ति का प्रयोग करना चाहिये ॥ १२८ ॥ अशुद्धशरीर को अनुवासन का निषेध. देयं स्यान्न तदनुवासनं नरस्या-। शुद्धस्य प्रबलमलैर्निरुद्धमार्गे- । ण व्याप्नोत्यधिगततेलवीर्यमूर्ध्व । तस्मात्तत्प्रथमतरं विशोधयेत्तम् ॥१२९।। भावार्थ-अशुद्ध शरीरवाले मनुष्यको अनुवासन बस्तिका प्रयोग नहीं करना चाहिये । यदि उसे प्रयोग कर दे तो प्रवल मलोसे मार्ग अवरुद्ध ( रुकजाना ) होजानेके कारण, प्रयुक्त तैलका वीर्य ऊपर फैल जाता है । इसलिये अनुवासनबस्ति देनेके पहिले उसके शरीरको अवश्य शुद्ध कर लेना चाहिये ।।१२९॥ अनुवासनकी संख्या. रूक्षं तं प्रबलमहोद्धतीरुदोषं । द्विस्त्रिाप्यधिकमथानुवास्य मय॑म् ॥ स्निग्धांगः स्वयमपि चिंत्य दोषमार्गात । पश्चात्तं तदनु निरूहयेद्यथावत् ॥ १३० ॥ भावार्थ:-जिसका शरीर रूक्ष हो, शरीरमें दोष प्रबलतासे कुपित हो रहे हों ऐसे मनुष्यको, उसके दोषोंपर ध्यान देते हुए दो तीन अथवा इससे अधिक अनुवासन बस्ति देना चाहिये । जब शरीर ( अनुव सनसे ) स्निग्ध हो जावे तो, अपने आप बलाबल को विचार कर पश्चात् शास्त्रोक्त विधिके अनुसार निरूहबातिका प्रयोग करना चाहिये ॥ १३० ॥ रात्रिंदिन वस्ति का प्रयोगः तं चाति प्रबलमलैरशुद्धदेहं । ज्ञात्वेह प्रकटमरुत्पपीडितांगम् ॥ रात्रावप्यहनि सदानुवासयेद्य-- । दोषाणां प्रशमनमेव सर्वथेष्टम् ।। १३१॥ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२४) कल्याणकारके भावार्थ:-जिसका शरीर प्रबल मल से अशुद्ध हो, और प्रबल वातसे पीडित हो तो उसे दोषोंको शमन करनेमें सर्वथा उपयुक्त ऐसे अनुवासन बस्तिका प्रयोग रात दिन हमेशा करना चाहिये ॥ १३१ ।। अनुवासनवस्ति की विधि. . स्वभ्यक्तं सुखसलिलैरिहाभिषिक्तं । शास्त्रोक्तक्रमविहितं तु भोजयित्वा ।। सिधृत्याज्वलशतपुष्पचूर्णयुक्तम् । संयुक्त्या विधिविहितानवासन तत् ॥ १३२ ॥ स्नेहोद्यत्पाणिहितबस्तियुक्तमयं । हात्तानोचलितसुखप्रसारितांगम् ॥ वीर्यातिप्रसरणकारणं करांघ्रिस्फिग्देशान्करतलताडनानि युक्तान् ॥ १३३ ॥ त्रीन्वारं शयनमिहोत्क्षिपेक्षिपेच्च । स्नेहस्य प्रसरणसंचलार्थमित्थम् ।। ब्रूयात्तं क्षणशतमात्रकं तु पश्चात् । तिष्ठेति त्वमिह मुदक्षिणोरुपावें ॥ १३४ ॥ . इत्येव सुविहितसक्रियानियुक्तः। न्यस्तांगस्त्वमिह सुख मलप्रवृत्यै ।। तिष्ठति प्रतिपदमातुर यथावत् । तं ब्रूयान्मलगमने यथा कथंचित् ॥ १३५ ।। भावार्थः - अनुवासन करने योग्य मनुष्य को सबसे पहिले ठीक २ स्नेहाभ्यंग करा के गरम पानी से स्नान कराना चाहिये [जिस से पसीना निकल आवे ] पश्चात् शास्त्रोक्त क्रम से भोजन कराकर, सेंधानमक व सोंफके चूर्ण से युक्त, अनुवासनबस्ति का प्रयोग विधिप्रकार, युक्ति से करना चाहिये । स्नेहबस्ति के प्रयोग करने के पश्चात् उस मनुष्य को ( जिस को स्नेहबस्ति-अनुवासनबस्तिका प्रयोग किया है) [ जितने समय में सौ गिने उतने समय तक ] सुखपूर्वक अंगोंको पसार कर चित सुलावें । ऐसा करने से बस्तिगत स्नेह का प्रभाव सब शरीर में पहुंच जाता है। इस के पश्चात् हाथ व पैर के तलवे और फिग ( चूतड ) प्रदेश में ( धीरे २ ) हाथ से Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकपद्रव चिकित्साधिकारः । ( ६२५ ) 1 थप्पड़े मारे । शय्या ( पलंग, बेंच आदि ) को तीन वार ऊपर की ओर उठावें । स्नेह के प्रसरण व चलन के लिये, तुम सौ क्षण तक दक्षिणपार्श्व के बल से रहो ऐसा रोगी से कहना चाहिये । इस प्रकार जिस को अच्छीतरह से अनुवासन बस्तिका प्रयोग किया गया है उस से कहना चाहिये कि, सुखपूर्वक मल की प्रवृत्ति [ बाहर आना ] के लिये तुम पग के बल से, जैसा मल बाहर आने में सुभीता हो बैठो। अर्थात् उसे उकरू बैठालना चाहिये ।। १३२ ।। १३३ ।। १३४ ॥ १३५ ॥ बस्तिके गुण. एवं दत्तः सुबस्तिः प्रथमतरमिह स्नेहयेद्वेक्षणे त- । दरितः सम्यग्वितीयः सकलतनुगतं वातमुध्दूय तिष्ठेत् ॥ तेजोवर्ण वलं चावहति विधियुतं सत्तृतीयचतुर्थः । साक्षात्सम्यग्रस तं रुधिरमिह महापंचमोऽयं प्रयुक्तः ॥ १३६ ॥ षष्टस्तु स्नेहवस्तिपिंशितामिहरसान् स्नेहयेत्सप्तमोऽसौ । साक्षादित्यष्टमोऽयं नवम इह महानस्थिमज्जानमुद्य - ॥ च्छुक्रोद्भूतान्त्रिकारान् शमयति दशमो ह्येवमेव प्रकरा - 1 दद्याद्दत्तं निरूहं तदनु नवदशाष्टौ तथा स्नेहवस्तिः ॥ १३७ ॥ भावार्थ:- विधिप्रकार प्रयुक्त प्रथमवस्ति वंक्षण ( राङ ) को स्निग्ध करती हैं । द्वितीयबस्ति सर्वशरीरगत वातरोग को नाश करती है । तीसरी बस्ति शरीर में तेज, वर्ण व बल को उत्पन्न करती | चौथी बस्ति रस को स्निग्ध करती है। पांचवी, रक्त को स्निग्ध करती है। छठवी बस्ति मांस को स्निग्ध करती है । सातवीं बस्ति रसों [ मेद ] को स्निग्ध करती है। आठवीं व नवमीं बस्ति, अस्थि [ हड्डि ] व मज्जा में स्नेहन करती है । दशवीं बस्ति, शुक्र में उत्पन्न विकारों को प्रकार से, निरूह बस्तिप्रयुक्त मनुष्य को, नौ अथवा अठारह प्रयोग कर देना चाहिये || १३६ ॥ १३७ ॥ शमन करती है । इसी अनुवासन बस्तियों का तीन सौ चोबीस वस्ती के गुण. एवं सुस्नेहवस्तित्रिंशतमपि चतुर्विंशतिं चोपयुक्तान् । मर्त्योऽमर्त्यस्वरूपो भवति निजगुणैस्तु द्वितीयोऽद्वितीयः ॥ १ यह इसीलेय किया जाता है कि प्रयुक्त स्नेह शीघ्र बाहर नहीं आने पावे । ७९ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२६ ) कल्याणकारके कामस्साक्षादपूर्वः सकलतनुभृतां हृन्मनीनेत्रहारी। जीवेदिव्यात्मदेहः प्रबलबलयुतो वत्सराणां सहस्रम् ॥१३८॥ भावार्थ:-इस प्रकार शास्त्रोक्त विधि से तीन सौ चोवीस स्नेहन बस्तियों के प्रयोग करने से वह मनुष्य अपने गुणों से साक्षात् द्वितीय देव के समान बन जाता है । संपूर्ण प्राणियों के हृदय, मन व नेत्र को आकर्षित करनेवाले देह को धारणकर वह साक्षात् अपूर्व कामदेव के समान होता है । इतना ही नहीं वह दिव्य देह, व विशिष्ट बल से युक्त होकर हजारों वर्ष जीयेगा अर्थात् दीर्घायुषी होगा ॥१३८॥ सम्यगनुवासित के लक्षण व स्नेहवस्ति के उपद्रव स्नेह प्रत्येति यश्च प्रबलमरुदुपेतः पुरीषान्वितः सन् । सोऽयं सम्यग्विशेषाद्विधिविहितमहास्नेहबस्तिप्रयुक्तः ॥ स्नेहः स्वल्पः स्वयं हि प्रकटबलमहादोषवगोभिभूतो। नैवागच्छन्स्थितोऽसौ भवति विविधदोषावहद्दोषभेदात् ।।१३९॥ भावार्थः-शास्त्रोक्त विधि के अनुसार, सम्यक् प्रकार से स्नेहबस्ति [ अनुवासनबस्ति ] प्रयुक्त होवे तो स्नेह, प्रबलवात व मल से युक्त होकर बाहर आजाता है। ( यदि कोष्ठ में वातादि दोष प्रबल हो ऐसे मनुष्य को ) अल्पशक्ति के स्नेह को अल्पप्रमाण में प्रयोग किया जाय तो वह प्रबलवातादिदोषों से तिरस्कृत ! व्याप्त ) होते हुए, बाहर न आकर अंदर ही ठहर जाता है । इस प्रकार रहा हुआ स्नेह नाना प्रकार के दोषों को उत्पन्न करता है ॥१३९॥ वातादिदोषों से अभिभूत स्नेह के उपद्रव वाते वक्त्रं कषायं भवति विषमरूक्षज्वरो वेदनान्यः। पित्तेनास्य कटुः स्यात्तदपि च बहुपित्तज्वरः पीतभावः ॥ श्लेष्मण्येवं मुखं संभवति मधुरमुत्क्लेदशीतज्वरोऽपि । श्लेष्मःछर्दिप्रसेकस्तत इह हितकृदोषभेदानिरूहः॥१४०॥ भावार्थ:-अनुवासन बस्ति के द्वारा प्रयुक्त स्नेह यदि वात से अभिभूत( पराजित )( वायु के अधीन ) होवे तो मुख कषैला होता है। शरीर रूक्ष होता है । विषमज्वर उत्पन्न होता है एवं वातोद्रेक की अन्य वेदनायें भी प्रकट होती हैं । पित्त से अभिभूत होवे तो, मुख कडुआ, पित्तज्वर की उत्पत्ति व शरीर, मलमूत्रादिक पलेि हो जाते हैं। स्नेह, कफ से अभिभूत होने पर मुख मीठा, उत्क्लेद, शीतज्वर, कफ का घमन, व Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः । ( ६२७ ) प्रसेक [ लार टपकना ] होता है । ऐसा हो जानेपर दोषों के अनुसार ( तत्तदोषनाशक ) हितकारक निरूबस्ति का प्रयोग करें ॥ १४०॥ अन्नाभिभूतस्नेह के उपद्रव संपूर्णाहारयुक्ते सुविहितहितकृत् स्नेहवस्तिप्रयुक्तो । प्रत्येत्यन्नातिमिश्रस्तत इह हृदयोत्पीडनं श्वासकासौ ॥ वैस्वर्याच कावप्यनिलगतिनिरोधो गुरुत्वं च कुक्षौ । भूयात् कृत्वोपवासं तदनुविधियुतं दीपनं च प्रकुर्यात् ॥ १४१ ॥ भावार्थ:- :-भर पेट भोजन किये हुए रोगी को हितकारक स्नेहबस्ति को शास्त्रोक्त विधि से प्रयोग करने पर भी, वह अन्न से अभिभूत ( अन्न के आधीन ) हो कर बाहर नहीं आता है जिससे हृदय में पीडा, श्वासकास, वैस्वर्य ( स्वर का विकृत हो जाना) अरुचि, वायु का अवरोध, व उदर में भारीपना उत्पन्न होता है । यह उपद्रव उपस्थित होने पर, रोगी को लंघन कराकर पश्चात् विधिप्रकार दीपन का प्रयोग करना चाहिये ॥ १४१ ॥ अशुद्धकोष्ठ के मलमिश्रितस्नेह के उपद्रव. अत्यंताशुद्धकोष्ठे विधिविहितकृतः स्नेहः बस्तिः पुरीषो-1 न्मिश्री नैवागामिष्यन्मलनिलयगुरुत्वातिशूलांगसादा- ॥ धमानं कृत्वातिदुःखं जनयति नितरां तत्र तीक्ष्णौषधैर्वा । स्थाप्युग्रं चानुवासं वितरतु विधिवत्तत्सुखार्थे हितार्थम् ॥ १४२ ॥ भावार्थ:- जिस के कोष्ट अत्यंत अशुद्ध है [ विरेचन व निरूहबस्तिद्वारा कोष्ठ का शोधन नहीं किया गया हो ] ऐसे मनुष्य को शास्त्रोक्त विधि से प्रयुक्त हितकारक भी स्नेहवस्ति मल से मिश्रित होकर, बाहर न निकलती है और वह पका शय में गुरुत्व ( भारीपन ) व शूल अंगो में थकावट व अफरा को उत्पन्न करके अत्यंत दुःख देती है । ऐसा होनेपर रोगी के सुख, व हित के लिये त्रिधि प्रकार तीक्ष्ण औष धियों से, तीक्ष्णआस्थापन व अनुवासन बस्ति का प्रयोग करें ॥ १४२ ॥ ऊर्ध्वगतस्नेह के उपद्रव वेगेनोत्पीडितासावधिकतरमिह स्नेह उत्पद्यतोर्ध्वं । व्याप्तं श्वासोरुका सारुचिवमधुशिरोगौरवात्यंतनिद्राः ॥ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२८) कल्याणकारके संपाद्य स्नेहगंधं मुखमखिलतनोश्चेद्रियाणां प्रले। कुर्यादार्योऽतिपीडाक्रममिह विधिनास्थापयेत्तं विदित्वा ॥ १४३॥ भावार्थः-स्नेह बस्ति के प्रयोग करते समय, अधिक वेग से पिचकारी को दबावें तो, स्नेह अधिक ऊपर चला जाता है जिस से श्वास, कास, अरुचि, अधिक थूक आना, शिरोंगौरव [ शिरका भारीपना ] और अधिकनिद्रा ये विकार उत्पन्न होते हैं। मुख, स्नेह के गंध से युक्त होता है ( मुख की तरफ से स्नेह की बास आने लगती है ।) शरीर, और इंद्रियों में उपलेप होता है । ऐसा होनेपर, जो पीडा [ रोग] उत्पन्न हुई है, उसे जानकर, उस के अनुकूल आस्थापनबस्ति का प्रयोग विधि प्रकार करें । १४३ ॥ असंस्कृतशरीरीको प्रयुक्तस्नेहका उपद्रव. निर्वीर्यो वाल्पमात्रेऽप्यतिमृदुरिह संयोजितः स्नेहबस्ति- ।. ने प्रत्यागच्छतीह प्रकटविदितसंस्कारहीनात्मदेह ।। स्नेहः स्थित्वोदरे गौरवमुखविरसाध्मानशूलावहःस्यात् । तत्राप्यास्थापनं तद्धिततनुमनुवासस्य वासावसाने ॥ १४४ ॥ भावार्थ:-स्वेदन विरेचनादिक से जिस के शरीर का संस्कार नहीं किया गया हो, उसे शक्तिरहित, अल्पमात्र व मृदु, स्नेहबस्तिका प्रयोग करें तो वह फिर बाहर नहीं आता है। सेल पेट में ही रह कर पेट में भारीपना, मुख में विरसता, पेट का अफराना, शूल आदि इन विकारों को उत्पन्न करता है। ऐसी अवस्थामें अनुवासन बस्तिका प्रयोग कर के पश्चात् आस्थापन बस्ति देवें ॥ १४४ ॥ अल्पाहारीको प्रयुक्तस्नेहका उपद्रव. वल्पाहारेऽल्पमात्रः सुविहितहितवत् स्नेहबस्तिन चैवं । । तत्कालादागमिष्यत्लमविरसशिरोगौरवात्यंगसादान् ॥ कृत्वा दुःखपदः स्यादिति भिषगधिकास्थापनं तत्र कुर्या । दार्यो वीर्योरुवी?षवृतमखिलाकार्यकार्येकवेदी ।। १४५ ॥ भावार्थ:- स्वल्प भोजन किये हुए रागी को, अल्पमात्रा में स्नेहबस्ति का प्रयोग करें, चाहे वह हितकारक हो, व विधिप्रकार भी प्रयुक्त हो तो भी वह तत्काल बाहर न आकर ग्लानि, मुख में विरसता, शिरका भारीपना, अगों में अधिक थकावट आदि विकारों को उत्पन्न कर के अत्यंत दुःख देता है। ऐसी अवस्था में कार्य Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकीय चिकित्साधिकारः। (६२९) अकार्यको जाननेवाला बुद्धिमान् वैद्य,अत्यंत वीर्यवान् औषधियोंसे संयुक्त आस्थापनबस्तिका प्रयोग करें ॥ १४५ ॥ स्नेहका शीघ्र आना और न आना. अत्युष्णो वातितीक्ष्णस्सजलमरुदुपेतः प्रयुक्तोऽतिमात्रो । स्नेहस्सद्योऽतिवेगं स्त्रवति फलमतो नास्ति चेति प्रकुर्यात् ॥ सम्यग्भूयोऽनुवासं तदनुगतमहोरात्रतस्सन्निवृत्तो।। वस्तिर्वस्वारकं वा अंशनमिव भवेज्जीर्णवानल्पनार्यः ॥१४६॥ भावार्थ:--अत्यंत उष्ण व तीक्ष्ण, जलवात से युक्त स्नेहन बस्ति को अधिक मात्रा में प्रयोग किया जाय तो बहुत जल्दी द्रव बाहर आ जाता है। उस से कोई प्रयोजन नहीं होता है । उस अवस्था में बार २ अच्छी तरहसे अनुवासन बस्ति का प्रयोग करना चाहिये । बस्ति के द्वारा प्रयुक्त स्नेह यदि एक दिन रात में भी [ २४ घंटे में. ] बाहर आजावे तो भी वह दोषकारक नहीं होता है। बल्कि बरित के गुणको करता है। लेकिन वह पेट में ही भोजन के सदृश पच जावे तो अल्पगुण को करता है [ उस से अधिक फायदा नहीं होता है ] ॥१४६॥ स्नेहबस्ति का उपसहार. इत्यनेकविधदोषगणाव्यस्सञ्चिकित्सितयतः कथितोऽयम् । . स्नेहबस्तिरत ऊर्ध्वमुदारो वक्ष्यते निगदितोऽपि निरूहः ॥ १४७ ॥: .. भावार्थ:- इस प्रकार स्नेहबस्ति ( अनुवासनबस्ति ) के अनेक प्रकार के उपद्रव और उन की चिकित्साओं का निरूपण किया गया । इस के आगे, जिसका कि कथन पहिले किया गया है, ऐसे निरूहबस्ति के विषय में फिर भी विस्तृतरूपसे प्रतिपादन करेंगे ॥ १४७ ॥ ___ निरूहवस्तिप्रयोगविधि. स्नेहवस्तिमथवापि निरूह कर्तुमुद्यतमनाः सहसैवा-। भ्यक्ततप्ततनुमातुरमुत्सृष्टात्ममूत्रमलमाशु विधाय ॥ १४८॥ प्रोक्तलक्षणनिवातगृहे मध्येऽच्छभूमिशयने त्वथ मध्या-।.. न्हे यथोक्तविधिनात्र निरूहं योजयेदधिकृतक्रमवेदी ॥ १४९ ॥ भावार्थ:-स्नेहबस्ति अथवा निरूहनबस्तिका प्रयोग जिस समय करने के लिये वैद्य उद्यत हो उस समय शीघ्र ही रोगी को अभ्यंग (तैल आदि स्नेहका मालिश) Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३०) कल्याणकारके व स्वेदन करा कर, मल मूत्र का विसर्जन करावें । पश्चात् इस रोगी को वातरहित मकान के बीच जिस के सुलक्षणों को पहिले कह चुके हैं, स्वच्छभूमि के तलपर शयन कराकर मध्यान्ह के समय विधिपूर्वक निरूहबस्ति का प्रयोग, बरितविधान को जाननेवाला वैद्य करें ॥ १४८ ॥ ११९ ।। सुनिरूढलक्षण. यस्य च द्रवपुरीषसुपित्तश्लेष्मवायुगतिरत्र सुदृष्टा । वेदनाप्रशमनं लघुता चेत्येष एव हि भवेत्सुनिरूहे ॥ १५० ॥ . भावार्थ:-निरूहबस्ति का प्रयोग करनेपर जिस के प्रयोग किया हुआ द्रव, मल, पित्त, कफ व वायु क्रमशः बाहर निकल आवे, रोग की उपशांति हो, शरीर भी हल्का हो तो समझना चाहिये कि निरूहबस्ति का प्रयोग ठीक २ होगया है । अर्थात् ये सुनिरूढ के लक्षण हैं ॥ १५० ॥ सम्यगनुवासन व निरूहके लक्षण. व्याधिनिप्रहमलातिविशुद्धिं स्वद्रियात्ममनसामपि तुष्टिम् । स्नेहबस्तिषु निरूहगणेष्वप्येतदेव हि सुलक्षणमुक्तम् ॥ १५१ ।। भावार्थ:-जिस व्याधि के नाशार्थ बस्ति का प्रयोग किया है उस व्याधि का नाश व मलका शोधन, इंद्रिय, आत्मा व मन में प्रसन्नता का अविर्भाव, ये सम्यगनुवासन व सभ्यग्निरूह के लक्षण हैं ॥ १५१ ॥ वातघ्ननिरूहबस्ति. तत्र वातहरभेषजकल्ककार्थतैलघृतसैंधवयुक्ताः । साम्लिकाः प्रकुपितानिलकाये बस्तयरसुखकरास्तु सुखोष्णाः।।१५२॥ भावार्थ:-~-यदि रोगी को वात का उद्रेक होकर उस से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाय तो उस अवस्था में वातहर औषधियों के कल्क क्वाथ, तैल, घृत व सेंधालोण व आम्लवर्गऔषधि, इन से युक्त, सुखोष्ण [ कुछ गरम ] [ निरूह बस्ति का प्रयोग करना सुग्वकारक होता है। [इसलिये वातोद्रेक जन्य रोगों में ऐसे बस्ति का प्रयोग करना चाहिये ॥ १५२ ।। . 'व्याधितानिह' इति पाठांतरम्. Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकपद्रवचिकित्साधिकारः । पित्तघ्ननिरूह बस्ति. क्षीरवृक्षकमलोत्पलकाकोल्यादिनिकथिततोय सुशीताः । बस्तयः कुपितपित्तहितास्ते शर्करा घृतपयः परिमिश्राः ॥ १५३ ॥ भावार्थ:- पित्तप्रकोप से उत्पन्न विकारो में दूधियावृक्ष, कमल, नीलकमल एवं कोकोल्यादिगण से तैयार किये हुए काथ में शक्कर, घी व दूध को मिलाकर बस्ति देवे तो हितकर होता है ॥ १५३ ।। ( ६३१ ) कफवननिरूद्धबस्ति. राजवृक्ष कुटजत्रिकटोग्राक्षारतीयसहितास्तु समूत्राः । बस्तयः प्रकुपितोरुकफघ्ना स्सैंधवादिलवणास्तु सुखोष्णाः ॥ १५४ भावार्थ:- -अमलतास, कूडा, सोंठ, मिरच, पीपल, वच, इन के क्वाथ व कल्क में क्षारजल, गोमूत्र व सैंधवादि लवणगण को मिलाकर कुछ गरम २ बस्ति देवें तो यह प्रकुपितभयंकरकफ को नाश करती है ॥ १५४ ॥ शोधन बस्ति. शोधनद्रवसुशोधन कल्कस्नेहसंघवयतापि च ताः स्युः । बस्तयः प्रथितशेोधनंसज्ञाश्शोधनार्थमधिकं विहितास्ते || १५५ ॥ भावार्थ:-शोधन औषधियों से निर्मित द्रव, एवं शोधन औषधियोंले तैयार किया गया कल्क, तैल, सेंधालोण, इन सब को मिलाकर तैयार की गयी बस्तियोंको शोधनबस्ति कहते हैं । ये वस्तियां शरीर का शोधन ( शुद्धि ) करने के लिये उपयुक्त हैं ॥ १५५ ॥ लेखन बस्ति. क्षारमूत्रसहिताः त्रिफलाकाथोत्कटाः कटुकभेषजमिश्राः । ऊषकादिलवणैरपि युक्ता बस्तयस्तनुविलेखनकाः स्युः ॥ १५६॥ भावार्थ:--- त्रिफला के काथ में कटु औषधि व क्षारगोमूत्र उषकादिगणोक औषधियों के कल्क, लवणवर्ग इन को डालकर जो वस्ति तैयार की जाती है उसे लखनवास्ते कहते हैं । क्यों कि यह बस्ति शरीर के दोषों को खरोचकर निकालती है ॥ १ काकोल्यादिगण - काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक, ऋद्धि, वृद्धि, मेदा, गिलोय मुगवन, पवन, पद्माख, वंशलोचन, काकडशिंगी, पुंडरिया, जीवंती, मुलहठी, दाख । Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस्तयः प्रशार .. (६३२) - कल्याणकारके बृंहण बस्ति अश्वगंधवरवज्रलतामापाद्य शेषमधुरौषधयुक्ताः । वस्तयः प्रकटबृहणसंज्ञाः माहिषोरुदधिदुग्धघृताठ्याः ॥ १५७ ॥ भावार्थ:-असगंध,[शतवरी] वज्रलता आदि बृंहण औषधियों के काथ में मधुर औषधियों के कल्क को मिलाकर भैंस की दही दूध च धीसाहत जो बस्ति दी जाती हैं उन्हे बृहणबत्ति कहते हैं जिन से शरीर के धातु व उपधातुवों की वृद्धि होती है। १५७॥ शमनबस्ति. क्षीरवृक्षमधुरोषधशीतद्रव्यतोयवरकल्कसमेताः। बस्तयः प्रशमनकविशेषाः शर्करेक्षुरसदुग्धघृताक्ताः ॥१५८॥ भावार्थ:-~~दूधियावृक्ष, मधुर औषध वर्ग, व शीतल गुणयुक्त औषध, इन के काथ में इन की औषधि यों के कल्क, व शक्कर, ईख का रस, दूध, घी मिलाकर तैयार की हुई बरित प्रशमनबस्ति कहलाती है, जो शरीरगत दोषों को उपशम करती है ॥१५८॥ वाजीकरण बस्ति. उच्चटेक्षुरकगोक्षुरयष्टीमाषगुप्ताफलकल्ककपायैः । — संयुता घृतसिताधिकदुग्धैर्बस्तयः प्रवरवृष्यकरास्ते ॥ १५९॥ भावार्थः-उटंगन के बीज, तालमखाना, गोखरू, ज्येष्ठमध,माष( उडद ) कौंच के बीज इन के कषाय में इन ही के कल्क, घी, शक्कर व दूध को मिलाकर तैयार की हुई बस्ति वृष्यबस्ति कहलाती है जो पुरुषोंको परमबलदायक ( वाजीकरणकर्ता ) है ॥१५९॥ पिच्छिल बस्ति. शेलुशाल्मलिविदारिवदर्यैरावतीप्रभृतिपिच्छिलवगैः । पक्कतोयघृतदुग्धसुकल्कैबस्तयो विहितपिच्छिलसंज्ञाः ॥ १६० ॥ भावार्थ:--लिसोडा, सेमल, विदारीकंद, बेर, नागबला आदिक़ पिच्छिल औषधि वर्ग, इनसे पकाया हुआ जल [ काथ ] घी, दूध व कल्कों से तैयार की हुई बस्तियोंको पिच्छिलबस्ति कहते हैं ॥ १६० ॥ ____ संग्रहण बस्ति , सत्मियंगुधनवारिसमंगापिष्टकाकृतकषायमुकल्कैः। छागदुग्धयुतवस्तिगणास्सांग्राहिकारसततमेव निरुक्ताः ॥ १६१ ॥ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकपद्रवचिकित्साधिकारः ः । ( ६३३ ) भादार्थः -- प्रियंगु, मोथा, सुगंधवाला, मंजीठ, पिष्टका इन के कषाय व कल्क के साथ बकरी के दूध को मिलाकर तैयार किया हुआ बस्ति सांग्राहिक बस्ति कहलाता है जो कि मल को रोकता है ॥ १६९ ॥ वंध्यत्वनाशक बस्ति. यद्धलाशतविपक्कसुतैलस्नेहवस्तिरनपत्यनराणाम् । थोषितां च विहितस्तु सुपुत्रानुत्तमानतितरां विदधाति ॥ १६२ ॥ भावार्थः—खरैटी के क्वाथ, कल्क से सौ बार ( शतपाकविधान से ) पकाये हुए तैसे [ बला तैल से ] संतानरहित स्त्री पुरुषों को ( जिनको कि स्नेहन स्वेदन, वमन विरेचन से संस्कृत किया है ) स्नेह बस्ति का प्रयोग करें तो, उन को अत्यंत उत्तम, अनेक पुत्र उत्पन्न होते हैं ।। १६२ ॥ गुडतैलिक बस्ति. भूपतिप्रवरभूपसमान- द्रव्यतस्स्थविरबालमृदूनाम् । योषितां विषमदोषहरार्थं वक्ष्यतेऽत्र गुडतैलविधानम् ॥ १६३ ॥ भावार्थ:- राजा, राजा के समान रहनेवाले बडे आदमी, अत्यंत वृद्ध, बालक सुकुमार व स्त्रियां जिनको कि अपने स्वभाव से उपरोक्त बस्तिकर्म सहन नहीं हो सकता है, उन के अत्यंत भयंकर दोषों को निकालने के लिये अब गुड तैलका विधान कहेंगे, जिस से सरलतया उपरोक्त बस्तिकर्म सदृश ही चिकित्सा होगी ॥ १६३॥ गुडतैलिक स्तिमें विशेषता. अन्नपानशयनासनभोगे नास्ति तस्य परिहारविधानम् । यत्र चेच्छति तदैव विधेयम् गौडतैलिकमिदं फलवच्च ॥ १६४ ॥ भावार्थ:- इस गुडतैलिक बस्ति के प्रयोग काल में अन्न, पान, शयन, आसन मैथुन इत्यादिक के बारे में किसी प्रकार की परहेज करने की जरूरत नहीं है अर्थात् सब तरह के आहार, विहार को सेवन करते हुए भी बस्तिग्रहण कर सकता है । उसी प्रकार इसे जिस देश में, जब चाहे प्रयोग कर सकते हैं ( इसे किसी भी देशकाल में भी प्रयोग कर सकते हैं ) । एवं इस का फल भी अधिक है ।। १६४ ॥ गुडतैलिकवस्ति. गौडतैलिकमितीह गुडं तैलं समं भवति यत्र निरूहे । चित्रबीजतरुमूलकषायैः संयुतो विषमदोषहरस्स्यात् ॥ १६५ ॥ १ इस का विधान पहिले कह चुके हैं । Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके .... भावार्थ:-जिस निरूह बस्ति में गुड, और तैल समान प्रमाण में डाला जाता है उसे गुडतैलिक बस्ति कहते हैं। इस को [ गुड तैल को ] एरंडी के जड के काय के साथ मिलाकर प्रयोग करने से सर्व विषम दोष दूर हो जाते हैं ।। १६५॥ युक्तरथ बस्ति. तद्गुडं तिलजमेव समान तत्कषायसहितं जटिला च । पिप्पलीमदनसैंधवयुक्तं बस्तिरेष वसुयुक्तरथाख्यः ॥ १६६ ॥ भावार्थ:--गुड, तिल का तैल समान भाग लेकर इस में एरंडी के जड का काढा मिलावें । इस में वच, पीपल, मेनफल, व सेंधानमक इन के कल्क मिलाकर बस्ति देवें इस बस्ति को वसुयुक्तरथ. ( युक्तरथ ) बस्ति कहते हैं ॥ १६६ ॥ शूलनबस्ति. देवदारुशतपुष्पसुरास्ना हिंगुसैंधवगुडं तिल च । चित्रवीजतरुमूलकषायैबस्तिस्यतरशूलकुलघ्नम् ॥ १६७॥ भावार्थ:- देवदारु, सौंफ, राना, हींग, सेंधानमक, इन के कल्क, गुड, तिल व एरंडी के जड का काढा, इन सब को मिलाकर बरित देने से भयंकर शूल नाश होता है । इसे शलघ्न बस्ति कहते हैं ॥ १६७ ॥ सिद्धवस्ति. कोलसद्यवकुलत्थरसाढ्यः पिप्पलीमधुकसैंधवयुक्तः । जीर्णसद्गुडतिलोद्भवमिश्रः सिद्धबस्तिरिति सिद्ध फलोऽयम् ॥ १६८ ॥ भावार्थ:-बेर, जौ, कुलथी इन के काढे में पीपल, मुलैठी व सेंधानमक के कल्क, और पुरानी गुड व तिल्ली का तेल मिलाकर बस्ति देवें। इसे सिद्धबरित कहते हैं। यह कस्ति अव्यर्थ फलदायक है ॥ १६८ ॥ :: गुडतैलिक वस्ति के उपसंहार. इति पुराणगुडैस्सतिलोद्भवैस्समधृतैः कथितद्रवसंयुतैः। सुविहितं कुरु बस्तिमनेकदा विविधदोषहरं विविधौषधैः ॥ १६९ ॥ भावार्थ:--समान भाग में लिये गये, गुड व तेल, पूर्वोक्त द्रव [ एरंडी का काढा] व नानाप्रकार के औषध [गुड तैलिक ] इन से मिला हुआ [अथवा इन से सिद्ध ] १ गुड और तैल इन दोनों के बराबर कषाय लेना चाहिये । २ "तिलज" इतिपाठांतर ३ इसे अन्य ग्रंथो में " दोषहरवास्ति" कहा है । Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः । ( ६३५ ) बस्ति को जो कि, नानाप्रकार के दोषों को नाश करने वाला है, विधि प्रकार अनेक वार देना चाहिये ॥ १६९ ॥ कथितवस्तिगणानिह बस्तिषु प्रवरयानगणेष्वपि केषुचित् । कुरुत निष्परिहारतया नरा । नरवरेषु निरंतरमादरात् ॥ १७० ॥ भावार्थ:- इस प्रकार कहे हुए उन योग्य, कोई २ वाइन, व नरपुंगवों के प्रति, वैद्य प्रयोग करें ॥ १०७ ॥ गुडतैलिक बस्तियों को, बस्ति के विना परिहार के हमेशा आदरपूर्वक इत्येवं गुडतिलसंभवाख्ययोगः स्निग्धांगेष्वतिमृदु कोष्ठसुप्रधानेध्वत्यंतं मृदुषु तथाल्पदोषवर्गेष्वत्यर्थं सुखिषु च सर्वथा नियोज्यः । १७१ । भावार्थ : - इस प्रकार गुड तैलिक नामक बस्ति उन्ही रोगियों के प्रति प्रयोग करें जिनका शरीर स्निग्ध हो, जो मृदु कोष्ठवाले हों, राजा हों, अत्यंत कोमल हों, अल्पदोष से युक्त हों एवं अधिक सुखी हों ऐसे लोगों के लिये यह गुड तैल योग अत्यंत उपयोगी है ॥ १७१ ॥ इति जिनवक्त्रनिर्गत सुशास्त्र महांबुनिधेः । सकलपदार्थ विस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकारनिभं जगदेकहितम् ॥ १७२ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यविरचिते कल्याणकारके भेषजकर्मोपद्रवनाम द्वितीयोऽध्यायः आदितो द्वाविंशः परिच्छेदः । इत्युप्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में भेषजकर्मोपवद्रचिकित्साधिकार नामक उत्तरतंत्र में द्वितीय व आदिसे बाईसवां परिच्छेद समाप्त हुआ । १ पहिले गुडतैलिकबस्ति से लेकर जो भी बस्ति के प्रयोग का वर्णन है वे सभी गुडलिक दी भेद हैं। क्योंकि उन सब में गुड तैल पड़ते हैं ॥ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३६) कल्याणकारके अथ त्रयोविंशः परिच्छेदः मंगलाचरण व प्रतिज्ञा. श्रीमजिनेंद्रमभिवंद्य सुरेंद्रवंद्यं वक्ष्यामहे कथितमुत्तरबस्तिमुद्यत् । तल्लक्षणप्रतिविधानविशेषमानाच्छुकार्तवं प्रकटदोषनिबर्हणार्थम् ॥१॥ भावार्थ:-देवेंद्र के द्वारा वंदनीय श्री भगवजिनेंद्र देव की वंदना कर शुक्र और आर्तव के दोषों को दूर करने के लिये, उत्तर बस्ति का वर्णन, उस के (नेत्रबस्ति) लक्षण, प्रयोग, विधि व प्रयोग करने योग्य द्रव का परिमाण के साथ २ कथन करंगे ॥१॥ नेत्रयस्ति का स्वरूप. यन्मालतीकुसुमतनिदर्शनेन प्रोक्तं सुनेत्रमथ बस्तिरपि प्रणीतः ॥ संक्षेपतः पुरुषयोषिदशेषदोषशुक्रावप्रतिविधानविधि प्रवक्ष्ये ॥ २॥ .. भावार्थ:-चमेली पुप्प की डंठल के समान नेत्रबस्ति [ पिचकारी ] की आकृति बताई गई है । उस के द्वारा स्त्री पुरुषों के शुक्ल [ वीर्य ] रज संबंधी दोषों की चिकित्सा की विधि को संक्षेप से कहेंगे ॥ २ ॥ ___ उत्तरबस्तिप्रयोगविधि मुस्निग्धमातुरमिहोष्णजलाभिषिक्त-। मुत्सृष्टमूत्रमलमुत्कटिकासनस्थम् ।। स्वाजानुदघ्नफलकोपरि सोपधाने । पीत्वा घृतेन पयसा सहितां यवागूम् ॥ ३॥ कृत्वोष्णतैलपरिलिप्तसुबस्तिदेश-- । माकृष्य मेहनमपीह समं च तस्य ।। नेत्रं प्रवेश्य शनकैघृतलिप्तमुद्य- । द्वस्ति प्रपीडय सुखं क्रमतो विदित्वा ॥४॥ १ पुरुषों के इंद्रिय व स्त्रियों के मूत्रमार्ग, व गर्भाशय में जो बस्ति का प्रयोग किया जाता है उसरबस्ति कहते हैं। यह निरूहबीस्त के उत्तर = अनंतर प्रयुक्त होता है इसलिये इसे " बस्ति ' यह नाम पड़ा है। कहा भी है "निरूहादुत्तरो यस्मात् तस्मादुत्तरसंज्ञकः Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः । र: भावार्थ:- उत्तरबस्ति देने योग्य रोगी को स्नेहन व गरम पानी से स्नान स्वेदन ] करा कर घी दूध से युक्त यवागू को पिला कर मल मूत्र का त्याग कराना चाहिये । पश्चात् घुटने के बराबर ऊंचे आसन पर जिस पर तकिया भी रक्खा गया है उखरू बैठाल कर, बस्ति [ मूत्राशय ] के ऊपर के प्रदेश को गरम तैल से मालिश करे। एवं शिश्नेंद्रिय को खींचकर घी से लिप्त पिचकारी को, शिश्न के अंदर प्रवेश करावे और धीरे २ क्रमशः सुखपूर्वक ( रोगी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो वैसा) पिचकारी को दबावे ॥ ३ ॥ ४ ॥ उत्तरबस्तिके द्रवका प्रमाण. स्नेहपञ्चमित एव भवेन्नृणां च । स्त्रीणां तदर्धमथमस्य तदर्धमुक्तम् ॥ कन्याजनस्य परिमाणमिह द्वयोस्या-। दन्य द्रवं प्रसृततद्विगुणप्रमाणम् ॥ ५॥ भावार्थ:-उत्तर बस्ति का स्नैहिक और नैरूहिक इस प्रकार दो भेद है। स्नैहिक उत्तर बस्ति के स्नेह का प्रमाण पुरुषों के लिये एक पल ( चार तोले ) स्त्रियों के लिये, आधा पल [ दो तोले ] कन्या ( जिन को बारह वर्ष की उमर न हुई हो) ओं के लिये चौथाई पल ( एक तोला ) जानना चाहिये । नैरूहिक उत्तरबस्ति के द्रव [ काथ-काढा ] का प्रमाण, स्त्री पुरुष, व कन्याओं के लिये एक प्रसृत है । यदि नियों के गर्भाशय के विशुद्धि के लिये ( गर्भाशय में ) उत्तर बस्ति का प्रयोग करना हो उसका स्नेह और काथ का प्रमाण लेना चाहिये प्रमाण पूर्वोक्तप्रमाण से द्विगुण जानना चाहिये । अर्थात् स्नेह एक पल, क्वाथ का दो प्रसृत ॥ ५ ॥ ___उत्तरबस्ति प्रयोग क प्रश्चात् क्रिया. एवं प्रमाणविहितद्रवसंप्रवेशं ज्ञात्वा शनैरपहरेदथ नेत्रनालीम् । प्रत्यागतं च मुनिरीक्ष्य तथापराण्हे तंभोजयेत्पयसि यूषगणैरिहान्नम् ॥ ६॥ १ यद्यपि, प्रसृतका अर्थ दो पल है[पलाभ्यां प्रसूतिज्ञेयः प्रसृतश्च निगद्यते लेकिन यहां इस अर्थ का ग्रहण न करना चाहिये । परंतु इतना ही समझ लेना चाहिये कि रोगियों के हाथ वा अंगुलियों मूल से लेकर, हथैली भर में जितना द्रव समावे वह प्रसृत है । ग्रंथांतरा में कहा भी है। स्नेहस्य प्रसृतं चात्र स्वांगुलीमूलसीम्मतं " Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३८ ) कल्याणकारके भावार्थ: - इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणसे द्रवका प्रदेश करा कर धीरेसे पिचकारी की नली को बाहर निकालना चाहिये । तदनंतर द्रव के बाहर आने के बाद सायंकाल में . [ शाम ] उसे दूध व यूष गणों के साथ अन्नका भोजन कराना चाहिये ॥ ६ ॥ वस्तिका माण इत्युक्तसद्रवयुतोत्तरवस्तिसंज्ञान्वस्तित्रिकानपि तथा चतुरोपि दद्यात् । शुक्रार्तवप्रवरभूरिविकार शांत्यै बीजद्वयप्रवररोगगणान्त्रवीमि ॥७॥ भावार्थ:--- उपर्युक्त प्रमाण के द्रवों से युक्त उत्तरबस्ति को रजो वीर्य संबंधी प्रबल - विकारों की शांति के लिये तीन या चार दफे प्रयोग करें जैसे रोगका बलाबल हो । अब रजोवीर्य सम्बंधी रोगोंका प्रतिपादन करेंगे ॥ ७ ॥ वातादि दोषदूषित रजोवीर्य के ( रोग ) लक्षण. वातादिदोषानिहतं खलु शुक्ररक्तं । ज्ञेयं स्वदोषकृतलक्षणवेदनाभिः ॥ गंधस्वरूपकुणपं बहुरक्तदोषात् । ग्रंथिप्रभूतबहुले कफवातजातम् ॥ ८ ॥ पूयो भवत्यतितरां बहलं सपूति । प्रोत्पित्तशोणितविकारकृतं तु बीजम् ॥ • स्यात्सन्निपातजनितं तु पुरीषगंध । क्षीणं क्षयादथ भवेद्वहुमैथुनाच्च ॥ ९ ॥ 1 भावार्थ:- वातादि दोषों से दूषित वीर्य व रज में उन्ही वातादि दोषों के लक्षण व वेदना प्रकट होते हैं । इसलिये वातादिक से दूषित रजोवीर्य को बातादि दोषों के लक्षण च वेदवाओं से पहिचानना चाहिये कि यह वातदूषित है या पित्तदूषित है आदि । रक्त से दूषित रजो वीर्य कुणप गंध [ मुर्दे के सी वास ] से युक्त होते हैं कफवात से दूषित रजोवीर्य में बहुतसी गांठे हो जाती हैं । पित्तरक्त के विकार से, रजोवीर्य दुर्गंध व [ देखने में ] पीप के सदृश हो जाते हैं । सन्निपात से रजोवीर्य मल के गंध के तुल्य, गंध से युक्त होते ह । अतिमैथुन से रजोवीर्य का क्षय होता है जिस से रजोवीर्य क्षीण जो कहलाते हैं ॥ ८ ॥ ९॥ साध्यासाध्य विचार और वातादिदोषजन्य वर्यिरोग की चिकित्सा. तेषु त्रिदोषजनिताः खलु बीजरोगाः । साध्यास्तथा कुणपपूय समस्त कृच्छ्राः ॥ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः। साक्षादसाध्यतर एव पुरीषगंधः ।। स्नेहादिभिस्त्रिविधदोषकृतास्सुसाध्याः ॥ १०॥ .... भावार्थ:-उपर्युक्त रजोवार्यगत रोगो में पृथक २ वात, पित्त व कफ से उत्पन्न विकार (रोग ) साध्य होते हैं । कुणपगंधि, पूयतुल्य, पूति, ग्रंथिभूत ये सब कष्ट साध्य हैं। पुरीषगंधि रजोवीर्यविकार असाध्य हैं। वातादि पृथक् २ दोषजन्य रजोवीर्य विकार को स्नेहन स्वेदन आदि कर्मों द्वारा जीतना चाहिये ॥ १० ॥ रजोवीर्य के विकार में उत्तरबस्तिका प्रधानत्व व कुणपगंधिवीर्यचिकित्सा. ___ अत्रोत्तरप्रकटबस्तिविधानमेव कार्तवमवरदोषनिवारणं स्यात् । .. सर्पिः पिबेत् प्रवरसारतरं प्रसिद्ध शुद्धस्स्वयं कुणपविग्रथिते तु शुक्ले ॥११॥ भावार्थ:-वीर्य व रजसंबंधी. दोषों के निवारण के लिये उत्तरवस्ति का ही प्रयोग करना उचित है । क्यों कि उन रोगों को दूर करने में यह विशेषतया समर्थ है। कुणपगंध से युक्त शुक्र में वमन विरेचनादिक से विशुद्ध होकर, इस रोग को जीतनेवाला सारभूत प्रसिद्ध घृत [ शाल सारादि साधित व इ.ी प्रकार के अन्य घृत) को पीना चाहिये ॥ ११ ॥ ग्रंथिभूत व पूयनिभवायचिकित्सा. ग्रंथिप्रभूतघनपिच्छिलपाण्डुराभे शुक्रे पलाशखदिरार्जुनभस्मसिद्धम् । सर्पिःपिवेदधिकपूयनिभस्वबीजे हिंतालतालवटपाटलसाधितं यत् ॥१२॥ भावार्थ:-जो वीर्य, बहुतसी ग्रंथि [ गांठ ) योंसे युक्त हो, व घट्ट पिच्छिल (पिलपिले ) पांडुवर्ण से युक्त हो, उस में पलाश [ ढाक ] खैर, व अर्जुन (कोह ) इन के भस्म से सिद्ध घृत को पीना चाहिये । पूयनिभ(पीप के समान रहनेवाले ) वीर्य रोग में हिंताल ( ताड भेद ) ताड, बड व पाडल, इन से सिद्ध घृत को पीना चाहिये ॥१२॥ विड्गंधि व क्षीणशुक्रकी चिकित्सा. क्ड्गिन्धिनि त्रिकटुकत्रिफलाग्निमंथाभोजांबदप्रवरसिद्धघृतं तु पेयम् ।। रेतः क्षये कथितवृध्यमहाप्रयोगैः संवर्द्धयेद्रसरसायनसंविधानः ॥ १३ ॥ भावार्थ:-पुरीषगंध से संयुक्त वीर्य रोग में त्रिकटु, त्रिफला, अगेथु, कमल पुष्प, नागरमोथा, इन औषधियों से सिद्ध उत्तम घृत को पिलाना चाहिये । क्षीण शुक्र में पूर्व कथित महान् वृष्यप्रयोग और रसायन के सेवन से शुक्र को बढाना चाहिये॥१३ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४०) कल्याणकारके - शुक्र व आर्तव विकार की चिकित्सा. एतेषु पंचसु च शुक्रमयामयेषु स्नेहादिकं विधिमिहोत्तरबस्तियुक्तम् । कुर्यात्तथाविधिकारगणेषु चैव तच्छुद्धये विविधशोधनसत्कषायान् ॥१४॥ कल्कान् पिबेच तिलतैल युतान्यथावत् पथ्यान्यथाचमनधूपनलेपनानि । संशोधनानि विदधीत विधानमार्गाद्योन्यामथार्तवविकारविनाशकानि।।१५। भावार्थ:--- शुक्र के इन पांचो महान् रोगों को जीतने के लिये स्नेहन यमन विरेचन, निरूहबस्ति, व अनुवासन का प्रयोग करके उत्तरबस्ति का प्रयोग करना चाहिये । इसी प्रकार रजो संबंधी रोगो में भी उस को शुद्धि करने लिये स्नेहन आदि लेकर उत्तरबस्ति तक की विधियों का उपयोग करे एवं नाना प्रकार के शोधन औषधियों के कषाय व तिल के तैलं से युक्त योग्य औषधियों के कल्क को विधि प्रकार पीवे । तथा रजोविकारनाशक व पथ्यभूत आचमन [ औषधियों के कषाय से योनि को धोना ] धूप, लेप, शोधनक्रिया का शास्त्रक्त विधि से प्रयोग योनिप्रदेश में करें ॥१४॥१५॥ । पित्तादिदोषजन्याविरोगचिकित्सा. दुर्गधपूयनिभमज्जसमार्तवेषु देवद्रुमाघ्रसरलागरुचंदनानाम् । कायं पिबेत्कफमरुद्ग्रथिताप्रभूतग्रंथ्यानवे कुटजसत्कटुकत्रयाणाम् ॥१६॥ । भावार्थ:-दुर्गंधयुक्त, व पीप व मज्जा के सदृश आर्तव में देवदार वृक्ष, आम्र सरलवृक्ष, अगरु, चंदन इन के काथ को पायें। कफ व वात विकार से उत्पन्न ग्रंथिभूत [गांठ से युक्त ] रजो रोग मे कुडा व त्रिकटु के क्वाथ को पीवें ॥१६॥ - शुद्धशुक्र का लक्षण. एवं भवेदतितरामिह बीजशुद्धिस्निग्धं सुगंधि मधुर स्फटिकोपलाभ। ... . क्षौद्रोपमं तिलजसन्निभमेव शुक्रं शुद्धं भवत्यधिकमयसुपुत्रहंतुः ॥१७॥ भावार्थ:-उपर्युक्त विधि से वीर्य का शोधन करें तो वीर्यशुदि हो जाती है। जो वार्य अत्यंत स्निग्ध, सुगंध, मधुर, स्फटिक शिलाके समान, मधु व सफेदतिल के तैल के समान हैं, उसे शुद्ध शुक्र समझना चाहिये अर्थात् शुद्ध शुक्र के ये लक्षण हैं । ऐसे शुद्धवीर्य से ही उत्तम संतान की उत्पत्ति होती है ॥१७॥ .. शुद्धातव का लक्षण. शुद्धार्तवं मणिशिलाद्रवहंसपादिपंकोपमं शशशरीरजरक्तवच्च । लाक्षारसपतिममुज्वलकंकुमाभं प्रक्षालितं न च विरज्यत तत्सुवीजम् ॥ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः। (६४१) भावार्थ:-जो रज ( आर्तव ) मैनशिलाका द्रव, हंसपादि के पंक, खरगोश के रक्त, लाखका रस व श्रेष्ठ कुंकुमके समान (लाल) होता है एवं वस्त्र पर लगे हुए को धोने पर छूट जावें, कपडं को न रंगे उसे शुद्ध आर्तव समझना चाहिये अर्थात् ये शुद्ध आर्तव के लक्षण हैं [ ऐसे ही आर्तव से संतान की उत्पत्ति होती है ) ॥१८॥ स्त्री पुरुष व नपुंसक की उत्पत्ति. शुद्धार्तवप्रबलतः कुरुतेऽत्र कन्यां शुक्रस्य चाप्यधिकतो विदधाति पुत्रम् । तत्साम्यमाशु जनयद्धि नपुंसकत्वं कर्मप्रधानपरिणामविशेषतस्तत् ॥१९॥ भावार्थ:---- शुद्ध रजकी अविकता से शुद्धार्तव से युक्त स्त्री के शुद्धशुक्रयुक्त पुरुष के संयोग से गर्भाशय में गर्भ ठहर जाय तो कन्या की उत्पत्ति होती है । यदि वीर्य का आधिक्य हो तो पुत्र की उत्पत्ति होती है। दोनोंकी समानता हो नपुंसक का जन्म होता है। लेकिन ये सब, अपने २ पूर्वोपार्जित प्रधान भूत कमफल के अनुसार होते हैं अर्थात् स्त्री पुं-नपुंसक होने में मुख्यकारण कर्म है ॥ १९ ॥ गर्भादानविधि. शुद्धार्तवामधिक शुद्धतरात्मशुक्र ब्रह्मव्रतस्स्वयमिहाधिकमासमात्रम् । स्नातश्चतुर्थदिवसप्रभृति प्रयत्नाधायानरः स्वकथितेषु हि पुत्रकामः ॥२०॥ भावार्थ:-जिस का शुक्र शुद्ध है जिस ने स्वयं एक महिनेपर्यंत ब्रह्मचर्य धारण किया है ऐसे पुरुष शुद्धार्तववाली स्त्री के साथ [जिस ने एक मास तक ब्रह्मचर्य धारण कर रख्खा हो ] चतुर्थ स्नान से लेकर [ रजस्वला के आदि के तीन दिन छोडकर, और आदिसे दस या बारह दिन तक संतानोत्पादन के निमित्त ] प्रयत्नपूर्वक ( स्त्री को प्रेमभरी वचनों से संतुष्ट करना आदि काम शास्त्रानुसार ) संगम करें। यदि वह पुत्रो • त्पादन की इच्छा रखता हो तो, जिन दिनों मे गमन करने से पुत्र की उत्पारीि कहा है ऐसी युग्म रात्रियों [ चौथी, छठवी आठवी दसवी रात्रि ] में स्त्रीसेवन करे । पुत्री [ लडकी ] उत्पन्न करना चाहता हो अयुग्म रात्रियों ( पांचवी, सातवीं, नौवीं रात्रि ) में स्त्री सेवन करें ॥ २० ॥ __ ऋतुकाल व सद्यागृहीतगर्भलक्षण. दृष्टार्तवं दशदिन प्रवदति तद्ज्ञाः साक्षाददृष्टमपि षोडशरात्रमाहुः । सद्यो गृहीतवरगर्भसुलक्षणत्वं ग्लानिश्रमक्तमतृषोदरसंचलस्स्यात् ॥२१॥ १ मधि ( मथि ) तेषु इति पाठातरं । Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४.३) कल्याणकारके .. भावार्थ:-तिब ( रज ) दर्शन से लेकर गर्भादान विषय के विशेष जानकारों में दस दिनपर्यंत के [रात्रि ] काल को ऋतुकाल कहा है । किसी का मत है [ रात्रि ] कि रजो दर्शन न होनेपर भी ऋतुकाल हो सकता है । कोई तो रजोदर्शन से लेकर सोलह रात्रि के काल को ऋतुकाल कहते हैं । जिस स्त्री को जिस समय गर्भ ठहर गया हो उसी समय उस में ग्लानि, थकावट, क्लेश, प्यास, उदरचलन, ये लक्षण प्रकट होते हैं । (जिस से यह जाना जा सकता है कि अभी गर्भ ठहर गया) ॥२१॥ गर्भिणी चर्या. गर्भान्वितां मधुरशीतलभेषजाड्यम् मासद्वयं प्रतिदिनं नवनीतयुक्तम् । शाल्योदनं सततमभ्यवहारयेत्तां गव्यन साधुपयसाथ तृतीयमासे. ॥२२॥ दध्नैव सम्यगसकृच्च चतुर्थमासे पूज्येन गव्यपयसा खलु पंचमेऽस्मिन् । षष्ठे चतुर्थ इव मास्यथ सप्तमासे केशोद्भबश्च परिभोजय तां पयोत्रम् ॥२३॥ यष्ट्यंबुजांबुवरनिंबकदंबजंबूरंभाकपायदधिदुग्धविपकसपिः। मात्रां पिबेत्प्रतिदिनं तनुतापशांत्य मासेऽमे प्रतिविधानामिहोच्यतेऽतः॥२४ भावार्थ:..गर्भिणी को प्रथम द्वितीय मास में मधुर और शीतल औषधि (शाक फल, धान्य, दूध आदि ) व मक्खन से युक्त भात को प्रतिदिन खिलाना चाहिये। एवं तीसरे मास में उत्तम गाय के दूध के साथ चारल का भोजन कराना चाहिये । चौथे महीने में दही के साथ कई दफे भोजन कराना चाहिये । एवं पांचवें मइनि में उत्तम गाय के दूध के साथ भोजन कराना चाहिये । छठे महीने में चौथे महीने के समान दही के साथ भोजन कराना चाहिये। सातवें महीने में गर्भस्थ बालक को केशकी उत्पत्ति होती हैं। गर्भिणी को दूध के साथ अन्नका भोजन कराना चाहिये । एवं मुलेठी कमलपुए, नेत्रवाला, नीम, केला, कदंबवृक्ष की छाल, जामुन, इन के कषाय व दही, दूध से पके हुए घृतकी मात्रा (खुराक ) को प्रतिदिन शरीर के ताप को शांत होने 'के लिये पिलाना चाहिये। आठवें महीने में करने योग्य क्रियावोंको अब कहेंगे ॥ २२ ॥ २३ ॥२४॥ आस्थापयेदथ बलाविहितेन तैलेनाज्यान्वितेन दधिदुग्धविमिश्रितेन । तैलेन चाष्टमधुरौषधसाधितेन [पकं दत्तं हितं भवति चाप्यनुवासनं तु॥२५॥ १ गर्भग्रहण, या उसके योग्य काल को तुकाल कहते हैं । 'जबतक ऋतुमती, यह संज्ञा है तब तक ही स्त्रीसेवन करे आगे यहीं । आगे के मैथुन से गर्भधारण नहीं होता है इसलिये उसे निंद्य कहा गया है । Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोष धकर्मव्यापचिकित्साधिकारः । तेनैव बस्तिमथ चोत्तरबस्तिमद्यतैलेन संप्रति कुरु प्रमदाहिताय । निश्शेषदोषशमनं नवमेऽपि मासेऽप्येवं कृते विधिवदत्र सुखं प्रसूते ॥२६॥ भावार्थ:---आठवें महीने में खरैटी से साधित तैल [ बला तैल ] में घी दही व दूध को मिलाकर आस्थापन बस्तिका प्रयोग करना चाहिये । एंव आठ प्रकार के मधुर औषधियों से सिद्ध तैल से आस्थापन अनुवासन प्रयोग करना हितकर है । आस्थापन बस्ति देकर अनुवासन बस्ति देना चाहिये, एवं उसी तैल से उत्तरबस्तिका प्रयोग करना चाहिये, जिस से गर्भिणी को हित होता है । इसी. प्रकार नव में महीने में भी समस्त दोषों के शमनकारक आहार औषधादिकों का उपयोग करना चाहिये । इस प्रकार विधि पूर्वक नौ महीने तक गर्भिणीका उपचार करनेपर वह सुखपूर्वक प्रसव करती हैं ॥ २५ ॥ २६ ॥ निकटप्रसवा के लक्षण और प्रसवविधि. कट्यां स्वपृष्ठनिलयेऽप्यतिवेदना स्याच्छेष्मा च मूत्रसहितः प्रसरत्यतीच । सद्याप्रमूत इति तैरवगम्य तैलेनाभ्यज्य सोष्णजलसंपरिषेचितांताम् ।।२७॥ स्वप्यात्तथा समुपसृत्य निरूप्य चालीं प्राप्तां प्रवाहनपरां प्रमदां प्रकुर्यात। यत्नाच्छनैः क्रमत एव ततश्च गाढं साक्षादपायमपहत्य सुखं प्रसूते ॥२८॥ - भावार्थ:-जब स्त्रीके प्रसव के लिये अत्यंत निकट समय आगया हो उस समय उस के कटिप्रदेश में व पीठपर अत्यंत वेदना होती है और मूत्रके साथ अत्यधिक कफका । कफ और मूत्र दोनों अधिक निकलते हैं ) निर्गमन होता है । इन लक्षणोंसे शीघ्र ही वह प्रसव करेगी, ऐसा समझकर उसे तैल से अभ्यंग कर उष्ण जल से स्नान करावें । तदनंतर उस स्त्रीको सुख शय्या [ बिछौना] पर दोनों पैरों को सिकुडाते हुए चित सुलावें और शीघ्र ही ज्यादा उमरवाली [ बुड्ढी ] व बच्चा जनवाने में कुशल दाई को खबर देकर बुलाकर प्रसूतिकार्य में लगाना चाहिये । दाई भी जब प्रसव निकट हो तो पहिले धीरे २ एकदम समय निकट आनेपर [ पतनोन्मुख होनेपर ] जोर से प्रवाहण कराते हुए बहुत ही यत्न के साथ प्रसूति करावे । ऐसा करने से वह सम्पूर्ण अपायों से रहित होकर सुखपूर्वक प्रसव करती है ।। २७ ॥ २८ ॥ जन्मोत्तर विधि जातस्य चांबुकमुसैंधवसर्पिषा तां संशोध्य नाभिनियतामति शुद्धितांगां। अष्टांगुलीमृतरायतमूत्रबद्धां छित्वा गले नियमितो कुरु तैललिप्तां ॥२९॥ नालिं इति पाठांतरम्. Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) कल्याणकारके भावार्थ:--बच्चा जन्म लेते ही उस के शरीर पर लगी हुई जरायु को साफ करे तथा सेंधानमक, और वीसे मुख को शुद्ध करे ( थोडा घी और सेंधानमक को मिलाकर अंगुलिसे चटा देवे जिस से गले में रहा हुआ कफ साफ होता है ) पश्चात् नाभि में लगे हुए नाल [नाभिनाडी] को साफ कर, और आठ अंगुल प्रमाण छोडकर वहां जहां आठ अंगुल पूरा होते हैं ] मुलायम डोरी से बांधे और वहीं से काट देवें । अनंतर नालपर तैल ( कूट के तैल ) लगा कर उसे बच्चे के गले में बांधे ॥ २९॥ अनंतर विधि. पश्चाद्यथा विहितमत्र सुसंहितायां तत्सर्वमेव कुरु बालकपोषणार्थम् । तां पाययंत्प्रसविनीमतिललिप्तां स्नेहान्विताम्लवरसोष्णतरां यवागृम्॥३०॥ . भावार्थ:-तदनंतर इसी संहिता में बालक के पोषण के लिये जो २ विधि बतलाई गयी है उन सब को करें एवं प्रसूता माता को तेलका मालिश कर स्नेह व आम्लसे युक्त उप्ण यवागू पिलाना चाहिये ।। ३० ॥ अपराक्तन के उपाय. हस्तेन तामपहरेदपरां च सक्ताम् ता पाययेदधिकलांगलकीसुकल्कैः । संलिप्य पादतलनाभ्युदरप्रदेशं संधूप्य योनिमथवा फणिचर्मतैलैः ॥३१॥ भावार्थ:-यदि अंपग [ झोल नाल ] नहीं गिरे तो उसे हाथ से निकाल लेवे अथवा उसे कलिहारी के कल्क को पिलाना चाहिये। अथवा कलिहारी के कल्ल को पादतल [ पैर के तलवे ] नभि उदर इन स्थानों में लेप करें । अथवा सर्पकी कांचली व तैल मिलाकर इस से योनिमुख को धूप देवे । [ इस प्रकार के प्रयोग करने से शीघ्र ही अपरा गिर जाती है ] ॥ ३१ ॥ सूतिकोपचार. एवं कृता सुखवती सुखसंप्रमूता स्यात्सूतिकेति परिणति ततः प्रयत्नात् । अभ्यंगयोनिबहुतर्पणपानकादीन् मासं कुरु प्रबलवातनिवारणार्थम् ॥३२॥ भावार्थः -- इस प्रकार की विधियों के करने पर सुखपूर्वक अपरा गिर जाती है। बच्चा और अपरा बाहर आने पर उस स्त्रीको सूतिका यह संज्ञा हो जाती है। तदनंतर उस सूतिका स्त्री के प्रबल वातदोष के निवारण के लिये तेल का मालिश, योनितर्पण, पानक आदि वातनाशक प्रयोग एक महीने तक करें ॥ ३२ ॥ १ यदि अपरा नहीं गिरे तो पेट में अफरा, और आनाह (पेट फूलना) उत्पन्न होता है । Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः । (६४५) मार्कल (मक्कल ) शूल और उसकी चिकित्सा.. तहुशोणितनिमित्तमपीह शूलं सम्यग्जयेदधिकमार्कलसंज्ञितं तु । .. तद्वस्तिभिर्विधिवदुत्तरबस्तिना च प्रख्यातभेषजगणैरनिलापनुद्भिः॥३३॥ भावार्थः- प्रसूता स्त्री के दूषित रक्त का स्राव बराबर न होने पर भयंकर शूल उत्पन्न होता है जिसे मार्कल [ मक्कल ] शूल कहते हैं। उसे पूर्वोक्त श्रेष्ठ आस्थापन, अनुवासन बस्ति के या उत्तरबस्ति के प्रयोग से एवं वातहर प्रसिद्ध औषधिवर्ग से चिकित्सा कर के जीतना चाहिये ॥ ३३ ॥ उत्तरबस्तिका विशेषगुण. तदुष्टशोणितमसृग्दरमुग्रमूत्र-। कृच्छ्राभिघातबहुदोषसुबस्तिरोगान् ॥ .योन्यामयानखिलशुक्रगतान्विकारान् । मौद्रितान् जयति बस्तिरिहोत्तराख्यः ॥ ३४॥ . भावार्थ:-उपर्युक्त दूषितरक्तजन्य रोग, रक्तप्रदर, भयंकर मूत्रकृच्छ, और मूत्राघात, बहुदोषों से उत्पन्न होनेवाले बस्तिगत रोग, योनिरोग, शुक्रगत सम्पूर्ण रोग मर्मरोग, इन सब को उत्तरबस्ति जीतता है । अर्थात् उत्तरवस्ति के प्रयोग से ये सब रोग ठीक या शांत हो जाते हैं ॥ ३४ ॥ ___ धूम, कवलग्रह, नस्यविधिवर्णनप्रतिशा और धूम भेद. . अत्रैव धूमकबलामलनस्ययोगव्यापचिकित्सितमलं प्रविधास्यते तत् । धूमो भवेदतितरामिह पंचभेदः स्नेहप्रयोगवमनातिविरेककासैः ॥३५॥ भावार्थ:-अब यहां से आगे, धूमपान, केवलग्रह, नस्य इन की विधि व इन का प्रयोग यथावत् न होनेसे उत्पन्न आपत्तियां और उन की चिकित्साविधि का वर्णन करेंगे । धूम, स्नेहन, प्रायोगिक, वमन, विरेचन व कासन के भेद से पांच प्रकार का है ॥३५॥ स्नेहनधूमलक्षण. अष्टांगुलायतशरं परिवष्ट्य वस्त्रेणालेपयेदमलगुग्गुलसर्जनाम्ना । स्नेहान्वितेन बहुरूक्षतरः शरीरे स स्नेहिको भवति धूम इति प्रयुक्तः॥३६॥ १ नस्यैरिति पाटांतर. २ सूत्रेण इति पाठांतरं. .. Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके भावार्थ:-आठ अंगुल लम्बी शर [तुली] लेकर उसपर [क्षौम सण या रेशमी] वस्त्र लपेटे । उस के ऊपर निर्मल गुग्गुल, राल, स्नेह, [घृत या तैल ] इन को अच्छी तरह मिलाकर लेप कर दे (पछि इसे अच्छी तरह सुखाकर अंदर से शर निकाल लेवे तो धूमपान की बत्ती तैयार हो जाती हैं इस बत्ती को धूमपान की नली में रख कर, उस पर आग लगा कर ) जिन के शरीर रूक्ष हो इन के इस धूम का सेवन करावे इसे स्नेहिक या स्नेहनधूम कहते हैं ॥ ३६॥ प्रायोगिकवैरेचनिक कासघ्नधूमलक्षण. एलालवंगगजपुष्पतमालपत्रैः प्रायोगिके वमनकैरपि वामननीये । वैरेचने तु बहुधोक्तशिरोविरेकैः कासघ्न के प्रकटकासहरौषधैस्तु ॥३७॥ भावार्थ:-- इसी प्रकार इलायची, लवंग, नागकेशर, तमालपत्र, इन प्रायोगिक औषधियों से पूर्वोक्त क्रम से बत्ती तैयार कर इस से धूम सेवन करावें इसे प्रायोगिक धूम कहते है । वामक औषधि यों से सिद्ध बत्ती के द्वारा जो धूम सेवन किया जाता है उसे वामक धूम कहते हैं । विरेचन द्रव्यों से बत्ती बनाकर जो धूम सेवन कराया जाता है उसे विरेचनधूम कहते हैं | कासनाशक औषधियों से बत्ती तैयार कर जो धूम सेवन कराया जाता है उसे कासध्न धूम कहते हैं ॥ ३७॥ धूमपान की नली की लम्बाई. प्रायोगिके भवति नेत्रमिहाष्टचत्वारिंशत्तथांगुलमितं घृततैलमिटे। द्वात्रिंशदेव जिननाथसुसंख्यया तं वैरेचनेन्यतरयोः खलु षोडशैव ॥३८॥ भावार्थः–प्रायोगिक धूम के लिये, धूमपान की नली ४८ अडतालीस अंगुल लम्बी, स्नेहन धूम के लिये नली ३२ बत्तीस अंगुल लम्बी, और विरेचन व कासान धूम के लिये १६ सोलह अंगुल लम्बी होनी चाहिये ऐसा जिनेंद्रशासन में निश्चित संख्या बतलायी गयी है ॥ ३८॥ ___ धूमनली के छिद्रप्रमाण व धूमपानविधि. छिद्रं भवेदधिकमाषनिपाति तेषां स्नेहान्वितं हर मुखेन च नासिकायाम्। प्रायोगिक तमिव नासिकया विरेकमन्यं तथा मुखत एव हरेद्यथावत्।।३९॥ भावार्थ:-उपरोक्त धूमपान की नलियों का छिद्र (सराक) उडद के दाने को बराबर होना चाहिये ॥ स्नेहनधूम को मुग्व [मुंह } और नाक से खींचन। १ यह प्रमाण आगे के भाग का है ॥ जड में छिद्र अंगूठे जितना मोटा होना चाहिये। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौषधकर्मव्यापञ्चिकित्साधिकारः। (६४७) . . . ~ ~ ~ ~ चाहिये अर्थात् पीना चाहिये । प्रायोगिक धम को मुख व नाक से खींचना चाहिये । विरेचन धूम को नाक से, व वामक व कासन्न धूम को मुख से ही खींचना चाहिये ॥३९॥ धूम निर्गमन विधि. यो नासिकापुटगृहीतमहातिधूपस्तं छर्दयेन्मुखत एव मुखाशीतं । अप्याननेन विसृजेद्विपरीततस्तु नेच्छंति जैनमत शास्त्रविशेषण ज्ञाः ॥४०॥ भावार्थः---जिस धूम को नासिका द्वारा ग्रहण किया हो उसे मुख से बाहर उगलना चाहिये और जिसे मुख से ग्रहण किया है उसे मुख से उगलना चाहिये । इस से विपरीत विधि को जैनशास्त्र के जानकार महर्षिगण स्वीकार नहीं करते ॥४०॥ धूमपान के अयोग्य मनुष्य. मूच्छीमदभ्रमविदाहतपोष्णारक्तपित्तश्रमोग्रविषशोकभयमतताः । पाण्डुपमेहतिमिरो मरुन्महोदरोत्पीडिताः स्थविरवालविरिक्तदेहाः॥४१॥ आस्थापिताः क्षतयुता हरसि क्षता ये गर्भान्विताश्च सहसा द्रवपानयुक्ताः । रूक्षास्तथा पिशितभोजनभाजना ये ये श्लेष्महीनमनुजाःखलु धूमवाः ४२ भावार्थ:---जो मूर्छा, मद भ्रम, दाह, तृषा, उष्णता, रक्तपित्त, श्रम, भयंकर विषबाधा, शोक और भय से संतप्त [ युक्त ] हों, पाण्डु, प्रमेह, तिमिर, ऊर्चवात, व महोदर से पीडित हों, जो अत्यंत वृद्ध या बालक हों, जिसने विरेचन लिया हो, जिसे आस्थापन प्रयोग किया हो, क्षत [जखम] से युक्त हो, उरःक्षत युक्त हो, गर्भिणी हो, एकदम द्रवपान किया हुआ हो, मांस भोजन किया हो, एवं कफराहत हो, ऐसे मनुष्यों के प्रति धूमप्रयोग नहीं करना चाहिये ।। ४१ ॥ ४२ ॥ धूमसेवन का काल. स्नातेन चान्नमपि भुक्तवतातिमुवा बुद्धन मैथुनगतेन मलं विसृज्य ।। क्षुत्वाथ वांतमनुजेन च दंतशुद्धौ प्रायोगिकः प्रतिदिनं मनुजैनियोज्यः॥४३॥ भावार्थ:----जिसने स्नान किया हो, अन्न का भोजन किया हो, सोकर उठा हो, मैथुन सेवन किया हो, मल विसर्जन किया हो, छींका हो, वमन किया हो, और जो १ किसी का मत है कि इस धूम को नाक से ही खीचना चाहिये । Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४८) कल्याणकारके ... दंतशुद्धि किया हो ऐसे, समय में मनुष्य को प्रतिदिन प्रायोगिक धूमका सेवन करना चाहिये ॥ ४३ ॥ अष्टासु चाप्यवसरेषु हि दोषकोपः साक्षाद्भवेदिति च तन्मशमैकहैतुः । धूमो निषेव्य इति जैनमते निरुक्तो वाक्यश्च तेन विषदाहरुजाप्रशांतिः॥४४ भावार्थ:----उपर्युक्त अठ अवसरो में दोषों का प्रकोप हुआ करता है। इस लिये उन दोषों को शांत करने के लिये धूम का सेवन करना चाहिये इस प्रकार जैन मत में कहा है ॥ ४४ ॥ __ धूमसेवन का गुण. तेनेंद्रियाणि विमलानि मनःप्रसादो । दाय सदा दशनकेशचयेषु च स्यात् ॥ श्वासातिकासवमथुस्वरभेदनिद्रा - । काचप्रलापकफसंस्रवनाशनं स्यात् ॥ ४५ ॥ भावार्थ:-उस धूपन प्रयोग से इंद्रियोंमें निर्मलता आती है, मन में प्रसन्नता होती है, दंत व केशसमूह में दृढता आती है । श्वास, कास, छींक, वमन, स्वरंभग, 'निद्रा रोग, काच [?] प्रलाप, कफस्राव ये रोग दूर होते हैं ॥ ४५ ॥ तंद्रा प्रतिश्यायनमत्र शिरोगुरुत्वं । दुगंधमाननगतं मुखजातरोगान् । धूमो विनाशयति सम्यगिह प्रयुक्तो । . योगातियोगविपरीतविधिप्रवीणैः ॥ ४६ ॥ भावार्थ:---आलस्य, जुखाम, शिरके भारीपना, मुखदुर्गध व मुखगत अनेक रोगों को योग अतियोग व अयोग को जाननेवाले वैद्यों के द्वारा विधिपूर्वक प्रयुक्त धूम अवश्य नाश करता है ॥ ४६॥ __ योगायोगातियोग. योगी भवत्यधिकरोगविनाशहेतुः। साक्षादयोग इति रोगसमृद्धिकृत्स्यात् ॥ योग्यौषधैरतिविधानमिहातियोगः । सर्वोषधप्रकटकर्मसु संविचिंत्यः ॥ ४७ ॥ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापच्चिकित्साधिकारः। (६४९) भावार्थ:-जो धूम प्रबल रोग की शांति के लिये कारणभूत है अर्थात् जिस के सेवन से रोग की ठीक २ शांति हो जाती है, उसे योग या सम्यग्योग कहते हैं। जिस के प्रयोग से रोग बढ़ जाता है उसे अयोग और योग्य औषधियों से अधिक प्रमाण में धूम का प्रयोग करना उसे अतियोग कहते हैं । इन योग, अयोग, अतियोगों को प्रत्येक औषधिकर्म में विचार करना चाहिये । ४७॥ धूम के अतियोगजन्य उपद्रव. धूमे भवत्यतितरामतियोगकाले कर्णध्वनिः शिरसि दुःखमिहात्मदृष्टे । दौर्बल्यमप्युरुचितं च विदाहतृष्णा संतपयेच्छि रसि नस्यघृतैर्जयेत्तम् ॥४८॥ भावार्थः-धूम के अत्यधिक अयोग होने पर कर्ण में शब्द का श्रवण होते ही रहना, शिरोवेदना, दृष्टिदुर्बलता, अरुचि, दाह व तृषा उत्पन्न होती है। उसे शिरोतर्पण, नस्य व घृतों के प्रयोग से जीतना चाहिये ॥ १८ ॥ धूमपान के काल. प्रायोगिकस्य परिमाण मिहास्रपातः शेषेषु दोषनिसृतेरवधिविधेयः। पीत्वागदं तिलसुतण्डुलजां यवागूं धूमं पिबेद्वमनभेषजसंप्रसिद्धम् ॥४९॥ भावार्थ:-- आंखो में आंसू आने तक प्रायोगिक धूमका प्रयोग करना चाहिये यही उस का प्रमाण है। बाकी के धूमों का प्रयोग दोषों के निकलनेतक करना चाहिये । धमन औषधियों से सिद्ध बामनीय धूम को अगद, तिल व चावल से सिद्ध यवागू को पीकर पीना चाहिये ॥ ४९ ॥ गंडूष व कवलग्रहवर्णन. धूमं विधाय विधिवन्मुखशोधनार्थ गण्डूपयोगकब लग्रहणं विधास्ये । गण्डूषमित्यभिहितं द्रवधारणं तच्छुप्कौषधैरपि भवेत्कालग्रहाख्यः ॥५०॥ भावार्थः- विधिपूर्वक धूम प्रयोग का वर्णन कर के अब मुखकी शुद्धिके लिये गण्डूष (कुरला) प्रयोग व कवल ग्रहण का वर्णन करेंगे। मुखमें द्रवधारण करने को गण्डूष कहते है । कबलग्रहण में शुष्क औषधियोंका भी वारण होता है ॥ ५० ॥ १. कोई तो जिस से रोग शान नहीं होता है, उसे अयोग कहते हैं। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके (६५०) गंडूष धारणविधि. सिद्धार्थकत्रिकटुकत्रिफलाहरिद्रा- । कल्कं विलोड्य लवणाम्लमुखोष्णतोयैः॥ मुस्विन्नकंठनिजकर्णललाटदेश-। स्तं धारयेवमतः परिकीर्तयत्सः ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-सब से पहिले रोगी के कंठ, कर्ण व ललाट प्रदेशमें स्वेदन प्रयोग करना चाहिये । बादमें सफेद सरसों, त्रिकटु, त्रिफला व हलीको अच्छीतरह पीसकर ( कल्क तैयार कर के ) उसे लवण, आम्ल व मंदोण पानी में घोल लेवें और उस द्रव को मुखमें धारण करना चाहिये । उसे कबतक घाण करना चाहिये ? इसे आगे कहेंगे ॥ ५१ ॥ गंडूषधारण का काल. यावत्कफेन परिवेष्टितमौषधं स्यात्तावन्मुख च परिपूर्णमचाल्यमेतत् । यावद्विलोचनपरिप्लवने स्वनासासावं भवेदतितरां विसृजेत्तदा तत् ॥५२॥ भावार्थ:-जब तक मुख में स्थित औषधि कफसे नहीं भरजाय तब तक मुख को बिलकुल हिलाना नहीं चाहिये। और जब नेत्र भीग जाय [ नेत्र में पानी भर जाय] एवं नासिकासे स्राव होने लग जाय तब औषधिको बाहर उगलना चाहिये ।। ५२॥ . गंडूषधारण की विशेषविधि. अन्यद्विगृह्य पुनरप्यनुसंक्रमेण संचारयेदथ च तद्विसृजेद्यथावत् । दोष गते गतवतीह शिरोगुरुत्वे वैस्चर्यमाननगतं सुविधास्य यत्नात्॥५३॥ अन्यं न वार्यमधिकं गलशोषहेतुस्तृष्णाग्रुपद्रवनिमित्तमिति प्रगल्भैः । धार्या भवंति निजदोषविशेषभेदात् क्षाराश्लतेलघृतमूत्रकषायवर्गाः ॥५४॥ ..... भावार्थ :-----पूर्वोक्त प्रकार से पुनः उस द्रव को लेकर मुख में धारण करना चाहिये । पुनः विधि प्रकार बाहर छोडना चाहिये । दोष निकल जावे, शिर का भारीपना ठीक हो जावे, स्वरभंग व अन्य मुखगतरोग शांत हो जाये तबतक यत्नपूर्वक इस प्रयोग को करे । इस प्रकार रोग शांत हो जाने पर फिर दूसरे द्रव को अधिक धारण न करे । अन्यथा गलशोषण, तृषा आदिक उपद्रव होते हैं, ऐसा विद्वज्जनों ने कहा है । एवं दोषभेद के अनुसार क्षार, आम्ल, तैल, घृत, मूत्र व कपाय वर्ग औषधियों के द्रव को धारण करना चाहिये ॥ ५३ ॥ १४ ॥ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः। (६५१) गंडूष के द्रव का प्रमाण और कवलयिधि. गंडूषसद्रवगतं परिमाणमत्र प्रोक्तं मुखामिति नान्यदतोस्ति किंचित् । पूर्णे मुखे भवति तद्वमत्र चाल्यं हीनं न दोषहरमत्र भवेदशेषम् ॥५५॥ भावार्थ:-गंडूष के द्रव का प्रमाण मुखकी अर्ध मात्रा [मुह के आधे में जितना समावें उतना ] में बतलाया है | यदि द्रव से मुख को पूर्ण भर दिया जाय अथवा मुह भर द्रव धारण किया जाय तो, उसे मुख के अंदर इधर उधर न चला सकने के कारण वह संपूर्ण दोषों को हरण करने में समर्थ नहीं होता है ॥ ५५ ॥ तस्मान्मुखार्धपरिमाणयुतं द्रवं तं निश्शेषदोपहरणाय विधेयमेवं । शुष्कौषधैश्च कवलं विधिवद्विधाय संचयतां हरणमिच्छदशेषदोषम् ॥५६॥ भावार्थ:-इप्स कारण से सम्पूर्ण दोषों को हरण करने के लिये मुख के अर्ध प्रमाण द्रव धारण करना चाहिये। एवं सदोषों को हरण करने की इच्छा से, शुष्क [ सूखे ] औषधियों से शास्त्रोक्त विधि से कवल धारण कर के उसे चबावे ॥ ५६ ॥ ___ नस्यवर्णन प्रतिज्ञा व नस्य के दो भेद. एवं विधाय विधिवत्कबलग्रहाख्यं नस्यं ब्रवीमि कथित खलु संहितायाम्। नस्यं चतुर्विधमपि द्विविधं यथावत् यत्स्नेहनार्थमपरंतु शिरोविरेकम्॥५७॥ भावार्थः- इस प्रकार विधिपूर्वक गण्डूष व कबल ग्रहण को मिरूपणकर अब आयुर्वेदसंहिता में प्रतिपादित नस्यप्रयोग का कथन करेंगे। यद्यपि नस्य चार प्रकार का है । फिर भी मूलतः स्नेहन नस्य व शिरोविरेचन नस्य के भेदसे दो प्रकार है॥५॥ स्नेहन नस्य का उपयोग. _ यत्स्नेहनार्थमुदितं गलरक्तमूर्धास्कंधोरसां बलकरं वरदृष्टिकृत्स्यात् ।। वाताभिघातशिरसि स्वरदंतकेशश्मश्रुप्रशातखरदारुणके विधेयम् ॥१८॥ भावार्थ:-- स्नेहन नस्य कंट रक्क मस्तक कंया और छाती को बल देने वाला है आखों में तेजी लानेवाला है । वात से अभिघातित [पीडित ] शिर [शिरो रोग ] में, चलदंत, केश [ बाल ] व मछ गिरने में, कठिन दारुण नामक रोग में इस स्नेहन नस्य का प्रयोग करना चाहिये ॥ ५८ ॥ - स्नेहननस्य का उपयोग. . कर्णामयेषु तिमिरे स्वरभेदवनशोषेऽप्यकालपलिते वयबोधनेऽपि । पित्तानिलप्रभवचक्रगतामये गुग्नेहनाख्यमधिकं हितकृन्नराणाम् ॥ ५९॥ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके भावार्थ:---कान के रोगो में, तिमिर रोग में, स्वरभंग में, मुखशोष में केश पकने में, आयु बढाने में एवं पित्त व वात विकारसे उत्पन्न समस्त मुखगत रोगो में, इस स्नेहन नस्य का उपयोग करना चाहिये, जो कि मनुष्यों को अत्यंत हितकारी है ॥५९॥ विरेचननस्य का उपयोग व काल. यत्स्याच्छिरोगतविरेचनमूर्ध्वजत्रु श्लेष्मोद्भवेषु बहुरोगचयेषु योज्यम् । नस्य द्वयं विधिमभुक्तवतां प्रकुर्याद्यभ्रे स्वकालविषये करतापनाद्यैः ॥६०॥ भावार्थ:-विरेचन नस्य को ऊर्ध्वजत्रुगत, हंसली के हड्डी के ऊपर के [ गला नाक आंख आदि स्थानगत ] नानाप्रकार के कफजन्य रोग समूहों में प्रयोग करना चाहिये । इन दोनों नस्यों को भोजन नहीं किये हुए रोगी पर जिस दिन आकाश बादलों से आच्छादित न हो, और दोषानुसार नस्य का जो काले बतलाया गया है उस समय, हाथ से तपाना इत्यादि क्रियाओं के साथ २. प्रयोग करना चाहिये ॥ ६०॥ स्नेहननस्य की विधि व मात्रा. सुस्विनगंडगलकर्णललाटदेशे किंचिद्विलंबित यथानिहितोत्तमांगे। उन्नामिताग्रयुतसद्विवरद्वयेऽस्पिन्नासापुटे विधिवदत्र सुखोष्णबिंदून् ॥ ६१॥ स्नेहस्य चाष्टगणना विहितानि दद्यात् प्रत्यकशोऽत्र विहिता प्रथमा तु मात्रा। अन्या ततो द्विगुणिता द्विगुणक्रमेण मात्रायं त्रिविधचारुपुटषु दद्यात्॥६२ भावार्थ:-कपोल, गला, कान, ललाटदेश [ माथे के अग्रभाग ] को [ हाथ को तपा कर | स्नेदन करे और मस्तक को इस प्रकार रखें कि मस्तक नीचे की ओर झुका हुआ और नाक के दोनों छेद ऊपर की ओर हो, इस प्रकार रखकर एक २ नाक के छेदों में सुखोष्ण [ सुहाता हुआ वुछ गरम ] तैल के आठ २ बिन्दु ओं को विधि प्रकार [ रुई आदि से लेकर ] छोडें । यह सोलह बिन्दु स्नेहन नम्य की प्रथममात्रा है । द्वितीय मात्रा इस से द्विगुण है । तृतीय मात्रा इससे भी द्विगुण है । इस प्रकार तीन प्रकार की तीन मात्राओं को [ दोषों के बलाबल को देखते हुए आवश्यकतानुसार ] नाक के छेदों में डाले ॥ ६२ ॥ ६१ ।। १. जो अन्न का काल है वही नस्य का काल है । २. तर्जनी अंगुली के दो पर्व तक स्नेह में डुबो देवें । उस से जितने स्नेह का मोटा बिंदु गिरे उसे एक बिंदु जानना चाहिये । www.jainelib Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधक व्यापचिकित्साधिकारः । (६५३) प्रतिमर्शनस्य. सुस्नेहनार्थमुपदिष्टमिदं हि नस्य प्रोक्तं तथा प्रततसत्मतिमर्शनं च। तत्र प्रतीतनवकालविशेषणेषु कार्य यथाविहिततत्प्रतिमर्शनं तु ॥ ६३ ॥ भावार्थ:--उपर्युक्त नस्य, स्नेहन करने के लिये कहा गया है। इसी स्नेहन नस्य का एक दूसरा भेद है जिस का नाम प्रतिमर्शनस्य है । इस प्रतिमर्शनस्यप्रयोग के नौ काल हैं। इन्ही नौ कालो में विधि के अनुसार प्रतिमर्श नस्य का प्रयोग करना चाहिये ॥ ६३॥ प्रतिमर्शनस्य के नौ काल प उस के फल. प्रातस्समुत्थितनरेण कृतेऽवमर्श सम्यग्व्यपोहति निशोपचितं मलं यत् । नासागताननगत प्रबलां च निद्रामावासनिर्गमनकालनिषेवितं तु ॥ ६४ ॥ वातातपप्रबलधूमरजोऽतिबाधां नासागतं हरति शीतमिहांबुपानात् (१)। प्रक्षालितात्मदशनेन नियोजितोऽयं दंतेषु दार्श्वमधिकास्यसुगंधिता च ॥६५ कुर्याद्रुजामपहरत्यधिको दिवातिमुप्तोत्थितेन च कृतं प्रतिमर्शनं तु । निद्रावशेषमथ तच्छिरसो गुरुत्वं संहत्य दोषमपि तं सुखिनं करोति ॥६६॥ भावार्थः-प्रातःकाल में उठते ही इस प्रतिमर्श नस्य का प्रयोग करें तो रात्रि के समय नासिका व मुख में संचित सर्व मल दूर होते हैं । एवं अत्यधिक प्रबल निद्रा भी दूर हो जाती है । घर से बाहर निकलते समय प्रतिमर्श का सेवन करे तो नाक संबंधी वात, धूप, धूम व धूलि की बाधा दूर होती है । दंतधावन [ दंतौन'] करने के बाद इस का प्रयोग करे तो दांत मजबूत हो जाती हैं । मुख सुगंधयुक्त होता है एवं [ दांत व मुख सम्बंधी ] भयंकर पीडायें नाश होती हैं । दिन में सोकर उठने के बाद इस प्रतिमर्श का प्रयोग करें तो निद्रावशेष, शिरोगुरुत्व एवं अन्य अनेक दोषों को नाश कर उस मनुष्य को सुखी करता है ॥ ६४ ॥६५॥६६॥.. . १. स्नेहन नस्यका दो भेद है एक मर्श और दूसरा प्रतिमर्श, इसे अवमर्श भी कहते हैं। इस श्लोक के पहिले के श्लोको में जिस स्नेहन नस्य का वर्णन है वह मर्शनस्य हैं । क्यों कि ग्रंथांतरो में भी ऐसा ही कहा है ॥ २. १ प्रातःकाल उठकर, २ घर से बाहर निकलते समय, ३ दंत धावन के बाद ४ दिन में सोकर उठने के पश्चात् , ५ म.र्ग चलनेके बाद, ६ मूत्र त्यागने के बाद, ७ वमन के अंत, ८ भोजनांत, ९ सायंकाल, ये प्रतिमर्श के नौ काल हैं। . Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५४) कल्याणकारके पथश्रमाकुलनरेण नियोजितस्तु पंथश्रमं व्यपथ इत्यखिलांगदुःखम् । नित्यं सुमूत्रितवताप्यभिषेचितोऽयं सद्यः प्रसादयति नीरदमंगसंस्थम्॥६७| * भावार्थः-रास्ता चलकर जो मनुष्य थक गया हो उस के प्रति भी- प्रतिमर्श का प्रयोग करें तो संपूर्ण मार्गश्रम दूर होता है एवं शरीर की वेदना दूर होती है। रोज मूत्र त्यागने के बाद इस का प्रयोग करे तो शरीर में स्थित नीरद [मल ] को सद्य ही प्रसन्न [ दूर ] करता है ॥ ६७॥ बांते नरेऽपि गललग्नबलासमाशु निश्शेषतो व्यपहरत्यभिषेचितस्तु । भक्ताभिकांक्षणमपि प्रकरोति साक्षाच्छ्रोतोविशुद्धिमिह भुक्तवतावमर्शः॥६८ - भावार्थ:-मन कराने के बाद प्रतिमर्श का प्रयोग करे तो वह कंठ में लगे हुए कफ को शीघ्र ही पूर्णरूप से दूर करता है एवं भोजन की इच्छा को भी उत्पन्न करता है । भोजन के अंत में इस नस्य का सेवन करे तो स्रोतों की विशुद्धि होती है ॥ ६८॥ प्रतिमर्श का प्रमाण. सायं निषवितमिदं सततं नराणां निद्रासुखं निशि करोति सुखप्रषोधम् । प्रोक्तं प्रमाणमपि तत्पतिमर्शनस्य नासागतस्य च घृतस्य मुखे प्रवेशः॥६९॥ भावार्थ:-सायंकाल में यदि इसका सेवन करें तो उन मनुष्यों को रात्रिभर सुख निद्रा आती है। एवं सुखपूर्वक नींद भी खुलती है । स्नेह [ घृत ] नाक में डालने पर मुख में आजाय वही प्रतिमर्श नस्य का प्रमाण जानना चाहिये ॥ ६९ ॥ प्रतिमर्श नस्य का गुणअस्माद्भवेदिति च सत्पतिमर्शनात्तु वक्त्रं सुगंधि निजदंतसुकेशदादर्थ । रोगा स्वकर्णनयनानननासिकोत्था नश्युस्तथोर्ध्वगल जत्रुगताश्च सर्वे ॥७०॥ भावार्थः---इस प्रतिमर्शन प्रयोग से मुख में सुगांध, दंत व केशमे दृढता होती है एवं कर्ण, आंख, मुख, नाक में उत्पन्न तथा गला और जत्रु के ऊपर के प्रदेश में उत्पन्न समस्त रोग दूर होते हैं ॥ ७० ॥ शिरोविरेचन ( विरेचन नस्य ) का वर्णन. एवं मया निगदितं प्रतिमर्शनं तं वक्ष्याम्यतः परमरं शिरसो विरेकम् । नासागतं वदति नस्यमिति प्रसिद्धम् रूक्षौषधैरपि तथैव शिरोविरेकम्॥७१॥ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः । (६५५) .. भावार्थ:-इस प्रकार हमने प्रतिमर्श नस्य का निरूपण क्रिया, अब आगे शिरोविरेचन का प्रतिपादन अच्छतिरह करेंगे। नासागत औषधक्रिया ( औषध को नाक के द्वारा प्रवेश करनेवाला क्रियाविशेष ) को नस्य कहते हैं यह लोक में प्रसिद्ध है । शिरोविरेचन नस्य का प्रयोग रूक्ष औषधियों द्वारा भी होता है ॥१॥ शिरोविरेचन द्रव की मात्रा. वैरैचनद्रवकृतं परिमाणमेतत् संयोजयद्धि चतुरश्चतुरश्च बिंदुन् । एवं कृता भवति सपथमा तु मात्रा मात्रा ततो द्विगुणितद्विगुणक्रमेण||७२॥ भावार्थ:--शिरोविरेचन द्रव को एक २ नाक के छेदों में चार २ बिंदु डालना चाहिये । यह विरेचन द्रव की पहिली [ अत्यंत लघु ] भात्रा है । इस मात्रा से द्विगुण मध्यम मात्रा, इस से भी द्विगुण उत्तममात्रा है। इस प्रकार शिरोविरेचन के द्रव का प्रमाण जानना ॥७२॥ मात्रा के विषय में विशेष कथन. तिस्रो भवंति नियतास्त्रिपुटेषु मात्रा । उत्क्लेदशोधनमुसंशमनेषु योज्य:॥ . दोषोच्छ्रयेण विदधीत भिषक् च मात्र । मात्रा भवेदिह यतः खलु दोपशुद्धिः ॥ ७३ ॥ भावार्थ:---उत्क्लेद, शोधन, संशमन इन तीन प्रकार के कार्यों में तीन प्रकार की नियतमात्रा होती है । इन को उत्क्लेदनादि कर्मों में प्रयोग करना चाहिये। दोषों के १ इस शिरोविरेचन द्रव के प्रमाण में कई मत है । कोई तो जघन्य मात्रा चार बिन्दु मध्यम मात्रा छह बिन्दु, व उत्तम मात्रा आठ बिंदु ऐसा कहते हैं । और कई तो जघन्य चार बिन्दु और आगे मध्यम उत्तम मात्रा जघन्य से द्विगुण २ त्रिगुण २ चतुर्गुण भी कहते हैं। इस लिये इस का मुख्य तात्पर्य इतना ही है कि जघन्य मात्रा से आगे के मात्राओं को दोषबल पुरुषबल आदि को देखते हुए कल्पना कर लेनी चाहिये । जघन्य मात्रा ४ बिन्दु है यह सर्वसम्मत है। इस विषय में अन्य ग्रंथ में इस प्रका चतुरश्चतुरो विन्दुनैककस्मिन् समाचरत् । एषा लध्वी मता मात्रा तथा शीघ्र विरेचयेत् ॥ अध्यधा दिगुणां वापि त्रिगुणां वा चतुर्गुणां । यथाव्याधि विदित्वा तु मात्रां समवचारयेत् ॥ २ करोति इति पाठांतरं. Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५६) कल्याणकारके उद्रेक के अनुसार, भिषक मात्रा की कल्पना करें । क्यों कि मात्रा ही दोष शुद्धिकारक होती है अर्थात् औषधिको योग्य प्रमाण में प्रयोग करने पर ही बराबर दोषों की शुद्धि होती है अन्यथा नहीं ।। ७३॥ : शिरोविरेचन के सम्यग्योग का लक्षण, श्रोत्री गलोष्ठनयनाननतालुनासाशुद्धिर्विशुद्धिरपि तबलवत्कफस्य । सम्यकृते शिरसि चापि विरेचनेऽस्मिन् । योगस्य योगविधितत्पतिषेधविद्भिः ॥ ७४ ॥ भावार्थः-शिरोविरेचन के प्रयोग करने पर यदि अच्छी तरह विरेचन हो जावे अर्थात् सम्यग्योग हो जावें तो, कर्ण, गला, ओठ, आंख, मुंह, तालु, नाक, इन की और प्रबल कफ की अच्छी तरह विशुद्धि हो जाती है । इस प्रकार, शिरोविरेचन के योगातियोग आदि को जाननेवाले विद्वान् वैद्य सम्यग्योग का प्रयोग करें ॥ ७४ ।। प्रधमन नस्य का यंत्र. छागस्तनद्वयनिभायतनास्य नाही ! युग्मान्वितांगुलचतुष्कमितां च धूम-। साम्याकृति विधिवरं सुषिरद्वयात्तं । यंत्रं विधाय विधिववरपीननस्यः ( ? ) ॥ ७५ ॥ - भावार्थ:-बकरी के दोनों स्तनों के सदृश आकारवाली दो नाडीयों से युक्त, चार अंगुल लम्ब', धूमनलिका के समान आकारवाला दोनों तरफ छेद से युक्त ऐसा एक यंत्र तयार करके उसके द्वारा प्रधर्मन नस्य का प्रयोग करना चाहिये ।।७५॥ • योगातियोगादि विचार. योगायं विधिवदा यथैव धूमे । प्रोक्तं तयेव रसनस्य विधी च सर्व । धृमातियोगदुरुपद्रवसच्चिकित्सां । नस्यातियोगविषयेऽपि च तां प्रकुर्यात् ॥ ७६ ॥ १ अवपीडन और प्रधमन, नस्य ये विरेचन नस्य के ही भेद हैं । शिरोविरेचक औषधियों के रस निकाल कर नाक में छोडना यह अवपीडन नस्य है। और इन्ही औषधियोंके चूर्ण को फूंक के दारा नाक में प्रवेश कराना इमे प्रधमन कहते हैं । Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः। (६५७ ) भावार्थ:-धूम प्रयोग में सम्यग्योग, हीनयोग व अतियोग के जो लक्षण कहे गये हैं वही लक्षण विरेचनरस व नस्य के सम्यग्योग, हीनयोग, अतियोग के भी जानना। धूम के अतियोग से उत्पन्न उपद्रवों की जो चिकित्सा बतलाई गई है उसे नस्य के अतियोग में भी उपयोग करना चाहिये ॥ ७६॥ वणशोथ वर्णन. एवं नस्यविधिर्विशेषविहितः सर्वामयेष्वोषधान्यप्यामेति विदग्धसाधुपरिपकमायोजयेत् ॥ इत्यत्युत्तमसंहिताविनिहिता तत्रापि शांफक्रिया मुक्तामत्र सविस्तरेण कथयाम्यल्पाक्षरैक्षिताम् ॥ ७७ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार नस्यविधि को विस्तार के साथ निरूपण किया। समस्त रोगो में औषधियों का प्रयोग, रोग की अम पक्क विदग्ध अवस्थाओं के अनुसार करना चाहिये । ऐसा अत्युत्तम आयुर्वेदसंहिता में कहा है । अब आयुर्वेदसंहिता में जिस के सम्बंध में विस्तार के साथ कथन किया गया है ऐसे शोफ व उस की चिकित्साविधि का यहां थोडे अक्षरो में अर्थात् संक्षेप में कथन करेंगे ॥ ७७ ।। व्रणशोथ का स्वरूप व भेद. ये चानेकविधामया स्थुरधिकं शोफाकृतिय॑जनास्तेभ्यो भिन्नविशेषलक्षणयुतस्त्वङ्मांससंबंधजः॥ . शोफस्स्याद्विषमः समः पृथुतरो वाल्पः ससंघातवान् । वातायैः रुधिरेण चापि निखिलैरागंतुकेनापदा ।। ७८ ॥ भागर्थः-नाना प्रकार के ग्रंथि, विद्रधि आदि रोग जो शोथ के आकृति के होते हैं उन से भिन्न और विशिष्ट लक्षणों से संयुक्त त्वचा, मांस के सम्बंध से उत्पन्न एक शोफ ( शोथ-सूजन ) नामक रोग है जो विषम सम, बडा, छोटा, व संधातस्वरूप वाला है । इस की उत्पत्ति वात, पित्त, कफ, सन्निपात, रक्त एवं आगंतुक कारण से होती है (इस लिये इस के भेद भी छह हैं ) ॥ ७८ ॥ शोथों के लक्षण. तेभ्यो दोषविशेषलक्षणगुणादोषोद्भवा शोफकाः । पित्तोभदूतवदत्र रक्तजनितः शोफातिकृष्णस्तथा ॥ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके wwwwwwwwwwwwwwmarwar रक्तात्पित्तसमुद्भवोपमगुणोप्यागंतुजो लोहित स्तेषामामविदग्धपकविलसत् सल्लक्षणं वक्ष्यते ॥ ७९॥ भावार्थ:--वात, पित्त व व.फ से उत्पन्न होने वाले शोथो में वातादि दोषों के ही लक्षण व गुण प्रकट होते हैं या पाये जाते हैं एवं सन्निपातज शोथ में तीनों दोषों के लक्षण प्रकट होते हैं । रक्तजन्य शोथ में पित्तज शोथ के समान लक्षण प्रकट होते हैं और वह अत्यंत काला होता है । आगंतुज शोथ में पित्त व रक्तज शोथ के समान लक्षण होते हैं, वह लाल होता है । अब आगे इन शोथों के आम. विदग्ध व पक्क अवस्था के लक्षणों को कहेंगे ॥ ७९ ॥ शोथ की आमावस्था के लक्षण. . दोषाणां प्रबलात्प्रति प्रतिदिनं दुर्योगयोगात्स्वयं । बाह्याभ्यंतरसक्रियाविरहितत्वाद्वा प्रशांतिं गतः ॥ योऽसौ स्यात्कठिनोऽल्परुक् स्थिरतरत्वकसाम्यवर्णान्वितो। मंदोष्माल्पतरोऽतिशीतनितरामामाख्यशोफस्स्मृतः ॥ ८ ॥ भावार्थ:--व्रणशोथ में वातादि दोषों के प्राबल्य अत्यधिक [शोथ में कुपित दोषों का प्रभाव ज्यादा ] हो, शोथ की शांति के लिये प्रयुक्त योग [ चिकित्सा ] की विपरीतता हो अर्थात् सम्यग्योग न हो, या उस के शमनार्थ बाह्य व आभ्यंतर किसी प्रकार की चिकित्सा नहीं की गयी हो तो वह शोथ शमन न हो कर पाकाभिमुख [पकने लगता है ] होता है। [ ऐसे शोथ की आमावस्था, विदग्धावस्था, पक्कावस्था इस प्रकार तीन अवस्थायें होती हैं उन में आमशोथ का लक्षण निम्न लिखित प्रकार है। जो शोथ, कठिन, अल्पपीडायुक्त, स्थिर (जैसे के तैसा ) त्वचा ( स्वस्थत्वचा) के समान वर्ण से युक्त [ उस का रंग नहीं बदला हो] एवं कम गरम हो, तथा शोथ थोडा हो, और शीत हो तो समझना चाहिये कि यह आमशोथ है अर्थात् ये आम शोथ के लक्षण हैं॥८० ॥ विदग्धशोथ लक्षण. यश्चानेकविधोऽतिरुम्बहतरोष्मात्याकुलः सत्वरो। यश्च स्यादधिको विवर्णविकटः प्राध्मातबस्तिस्समः ॥ - - १ अधिकोऽपि इति पाठांतरं Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः । (६५९ ) स्थाने चंक्रमणासने च शयने दुःखप्रदो वृश्चिका-। विद्धस्येव भवेत्तृषात्यरुचिकृच्छ्राभो विदग्धः स्मृतः ॥८१॥ भावार्थ:- जिस में अनेक प्रकार की अत्यधिक पीडा होती हो, जो बहुत ही उष्णतासे आकुलित हो, बहुत ही विवर्ण हो गया हो, फूले हुए बस्ति ( मशक ) के समान तना हुआ हो, खडे रहने में, चलने फिरने में, बैठने में, सोने में दुःख देता हो, जिस में बिच्छू काटे हुए के समान वेदना होती हो, जिस के होते हुए तृषा व अरुचि अधिक होती हो, और भयंकर हो तो उसे विदग्ध शोथ समझना चाहिये अर्थात् ये विदग्धशोथ के लक्षण हैं ॥ ८१॥ पक्कशोथ लक्षण. यश्च स्याद् पशांतरुङ्मृदुतरी निर्लोहितोऽल्पस्स्वयं । कण्डूत्वक्परिपोटतोदवालनिम्नाद्यैः सतां लक्षितः ॥... अंगुल्याः परिपीडिते च लुलितं भूयो धृतौ वारिव- ।... घः शीतो निरुपद्रवो रुचिकरः पक्कः स शोफः स्मृतः ॥४२॥ ___ भावार्थ:-जिस में पीडा की शांति होगई है, मृदु है, लाल नहीं है, ( सफेद है) सूजन कम होगया है, खुजली चलती है, त्वचा कटने लगती है, सूई चुभने जैसी पीडा होती है, बली पडती है, ( तनाव का नाश होता है) देखने में गहरी मालूम होती है, अगुली से दबानेपर जल से भरे हुए मशक के समान अंदर पीप इधर उधर जाती है, छूने में शांत है, उपद्रवों से रहित है, जिस के होते हुए अन्न में रुचि उत्पन्न होती है [ अरुचि नष्ट होती हैं ] उसे पक्क शोथ समझना चाहिये ॥ ८२ ॥ व.फजन्यशोथ के विशिष्टपक्कलक्षण. गंभीरानुगते बलासजनिते रोगे सुपक्व क्वनि-। नमुह्येत्पक्कसमस्तलक्षणमहप्त्वाऽपक एवेत्यलम् ।। वैद्यो यत्र पुनश्च शीतलतरस्त्वक्साम्यवर्णान्वितः। शोफस्तत्र विनीय मोहमाखिलं हित्वाशु संशोधयेत् ।। ८३ ॥ भावार्थ:---गम्भीर [ गहरी ] गतिवाला कफजन्य शोथ अच्छी तरह पक जाने पर भी, सम्पूर्ण पक लक्षण न दिखने के कारण, कहीं २ उसे अपक्क समझ कर वैद्य मोह को प्रत होता है। अर्थात् विदारण कर शोधन नहीं करता है। इसलिये ऐसे Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६०) कल्याणकारके शोथ में, शीतलस्पर्श व स्वस्थ त्वचा के समान वर्ण देख कर अपने सम्पूर्ण अज्ञान को त्याग कर शीघ्र ही उसे शोधन करना चाहिये ।। ८३ ॥ शोथोपशमनविधि. - आमं दोषविशेषभषजगणालेपैः प्रशांति नये-। ढुष्टैः पाचनकैर्विदग्धमधिकं संपाचयेद्वंधनैः ।। पक्कं पीडनकैस्सुपीडितमलं संभिद्य संशोधये- । द्वध्वा बंधनमप्यतीव शिथिलो गाढस्समश्चोच्यते ॥ ८४ ॥ भावार्थ:-आम शोथ को दोषों को प्रशमन करने वाले औषधियों से लेपन कर उपशांत करना चाहिये । विदग्ध शथ को क्रूर पाचन औषधियों के पुल्टिश बांध कर पकाना चाहिये । पक्क शोथ को पीडन औषधियों द्वारा पीडित कर और भेदन [भिद ] कर एकदम् ढीला, कस के या मध्यम ( न ज्यादा ढीला न अधिक कस के) रीति से,[ जिस की जहां जरूरत हो ] बंधन { पट्टी ] बांधकर संशोधन करना चाहिये । इन शिथिल आदि बंधन विधानों को अब कहेंगे ॥ ८४ ॥ · बंधनविधि. संधिध्वक्षिषु बंधनं शिथिलमित्युक्तं समं चानने । शाखाकणंगले समेवृषणे पृष्ठोरुपार्थोरसि || गाढं स्फिक्छिरसोरुवंक्षजघने कुक्षौ सकक्षे तथा । योज्यं भेषजमनिर्मितभिषा भैषज्यविद्याविदन् ॥८५॥ भावार्थ:-शरीर के संधिस्थानो में, नेत्रो में सदा शिथिल बंधन ही बांधना चाहिये । मुख, हाथ, पैर, कान,गला, शिश्नेंद्रिय, अंडकोष, पीठ, दोनों पार्व[ फसली ] और छाती इन स्थानो में समबंधन [ मध्यम गति से ] करना चाहिये । चूतड, शिर, गङ् जघन स्थान, कुक्षि [ कूख ] कक्ष इन स्थ नों में गाढ [वस के ] बंधन करना चाहिये । भेषज कर्म में निपुण वैद्य भैषज्य विद्या को जानते हुए अर्थात् ध्यान में रख कर उपरोक्त प्रकार बंधनक्रिया करें ॥ ८५ ॥ अज्ञवैद्यनिंदा. यश्चात्माज्ञतयाममाशु विदधात्यत्यंतपक्कोयमि- । त्यज्ञानादतिपकमाममिति यश्चीपेक्षते लक्षणैः ।। तौ चाज्ञानपुरस्सरौ परिहरेद्विद्वान्महापातको । यो जानाति विदग्धपक्कविधिवत्सोऽयं भिषग्वल्लभः ॥ ८६ ॥ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः । ... भावार्थ:-जो अपनी अज्ञनता से, आम [ कच्चा ] शोथ [ फोडे ] को अत्यंत पक्क समझकर चीर देता है अथवा जो अत्यंत पक शोथ को अपक [ आम ] समझ कर उपेक्षा कर देता है, ऐसे दोनों प्रकार के वैध अज्ञानी हैं और महापापी हैं। ऐसे वैद्यों को विद्वान् रोगी छोड देवें अर्थात् उन से अपनी इलाज न करावें । जो शोध के मामा, विदग्ध, पक, अवस्थ ओंको अच्छी तरह जानता है वहीं वैद्यों के स्वामी या वैचों में श्रेष्ठ है ॥८६॥ एवं कर्मचतुष्टयपतिविधि सम्यग्विधायाधुना । सर्वेषामतिदुःखकारणजरारोगप्रशांतिपदैः॥ केशान्काशशशांकशंख सदृशान्नीलालिमालोपमा-। न्क सत्यतमोरुभेषजगणैरालक्ष्यते सक्रिया ॥ ८७ ॥ भावार्थ:-इस तरह चार प्रकार के कर्म व उन के [ अतियोगदि होने पर उत्पन आपत्तियों के ] प्रतिविधान [ चिकित्सा ] को अच्छी तरह वर्णन कर के अब काशतृण, चंद्र, व शंख के सदृश रहने वाले सफेद केशों ( बालों) को, नील, भलिमाला [भ्रमरपंक्ति ] के सदृश काले कर ने के लिये श्रेष्ठ चिकित्सा का, सर्व प्राणियों को दुःख देने वाले जरा [ बुढापा] रोग को उपमशन करनेवाले, सत्यभूत [अव्यर्थ । औषधियों के कथन के साथ २ निरूपण करेंगे ॥ ८७ ।। पलितनाशक लेप. आम्रास्थ्यतरसारचूर्णसदृशं लोहस्य चूर्ण तयोस्तुल्यं स्यात्रिफलाविचूर्णमतुलं नीलांजनस्यापि च ।। एतच्चूर्ण चतुष्टयं त्रिफलया पकोदकैः षडणेस्तैलेन द्विगुणेन मर्दितमिदं लोहस्य पात्रे स्थितम् ॥ ८८ ।। धान्ये मासचतुष्टयं सुविहिते चोदृत्य तत्पूजयि-। स्वालिम्पत्रिफलांबुधीतसितसंकेशांच्छशांकापमान् ॥ . तत्कुर्यात्क्षणतोऽभ्रवद्रमरसंकाशानशेषान्मुखे । विन्यस्यामललोहकांतकृतसद्वत्तं तु संधारयेत् ॥ ८९ ॥ - भावार्थः--- आम की गुठली के मिंगी का चूर्ण व लोहे के चूर्ण को समभाग लेवें । इन दोनों ने बरावर त्रिफलाचूर्ण और नीलांजन [तूतिया वा सुम्मा ] चूर्ण लेवें । इन चारों चूर्णी को ( सर्व चूर्ण के साथ ) एकत्र कर इस में छह गुना त्रिफले के काढा और दुगना Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके तिल का तेल मिलाकर अच्छी तरह मर्दन [ घोट ] कर लोहे के पात्र में भर दे और उसे धान्य की राशि में चार महीने तक रखें अर्थात् गाढ दें । पश्चात् उसे निकाल कर भगवान् की भक्ति भाव से पूजा कर के बालों पर लेप करें एवं बादमें त्रिफला के काढे से धो डाले । वे चंद्रके समान रहनेवाले सफेद बाल भी क्षणमात्रा से ही मेघ [ बादल ] व भ्रमर के समान काले हो जाते हैं। इसी योग को शुद्धकांतलोह के भस्म के साथ तैयार कर के खावे और साथ सदाचरण का पालन करें ॥ ८८ ॥ ८९ ॥ केशकृष्णीकरणपर लेप. मृवस्थीनि फलानि चूततरुसंभूतानि संगृह्य सं । चूायस्कृतकोलजैः पलशतं तैलाढके न्यस्य तै-॥ रत्रैव त्रिफलाकषायमपि च द्रोणं घटे संस्कृते । पन्मासं वरधान्यकूपनिहितं चोक्तक्रमाल्लेपयेत् ॥९०॥ .. - भावार्थ:--मृदुगुठलियों से युक्त आम के फल, ( कच्चा आम-क्यारी ) लोह चूर्ण, बेर, इन को समभाग लेकर चूर्ण करें। इस प्रकार तैयार किये हुए सौ पल चूर्ण को, एक आढक तिल के तैल व एक द्रोण त्रिफला के क'ढे में अच्छी तरह से मिला कर एक [ घी व तेल से ] संस्कृत [ मिट्टी के ) घडे में भरे और इस घडे को छह महीने तक धान्य राशि में गाढ दें। उसे छह महीने के बाद निकाल कर पूर्वोक्त क्रम से लेप करे तो सफेद बाल काले हो जाते हैं ॥९०॥ ___ केशकृष्णीकरण तृतीय विधि. भृगायस्त्रिफलाशनैः कृतमिद चूर्ण हितं लोहित- । एवं च त्रिफलभिसा त्रिगुणितेनालोड्य संस्थापितम् ॥ प्रातस्तज्जलनस्यपानविधिना समर्थ संलेपनैः ।। केशाः काशसमा भ्रमभ्रमरसंकाशा भवेयुः क्षणात् ॥ ९१ ॥ भावार्थ:---' भांगरा, लोहचर्ण, त्रिफला, इन को समभाग लेकर चूर्ण करे और इसे तिगुना त्रिफला के कषाय में घोल कर (डे में भर कर धान्य राशि में ] रखें, इस प्रकार साधित औषधि के द्रव का प्रातःकाल उठ कर नस्य लेवे, पीवे, केशों पर मर्दन व लेप करे तो, काश के समान रहनेवाले सफेद बाल क्षणक ल में भौरों के समान काले हो जाते हैं ॥ ९१ ॥ १ १ सत्रि के समय लेप कर व सुबह धो डाले । २ कीया इति पाठातरं, Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापच्चिकित्साधिकारः । केशकृष्णीकरण तैल. .. पिण्डीतत्रिफलामृतांबुरुहसक्षीरद्रुमत्वङ्कहा-। नीलीनीलसरोजरक्तकुमदांघ्रिकाथसंसिद्धके ।। 'तैले लोहरजस्सयष्टिमधुकं नीलांजनं चर्णितं । दत्वा खल्वतले प्रमर्दितमिदं केशैककाष्ण्यविहम् ॥९२ ॥ भावार्थ-नफल, त्रिफला, गिलोय, कमल, क्षीर वृक्षों की छाल, महानील नीलकमल व रक्तकाल के जड, इन से सिद्ध तेल में लोहचर्ण को मिला कर खरल में डाल कर खूब घोटे । फिर उसे पूर्वोक्त विधि प्रकार उपयोग में लायें तो केश अत्यंत काले होते हैं । ९२ ॥ कल्कं सत्रिफलाकृतं प्रथमतस्सलिम्प्य केशान् सितान् । धौतांस्तत्रिफलांबुना पुनरपि प्रमृक्षयेत्क्षौद्रस-- ॥ भदूतैस्तंडुलजै सुकुंदकयुतैस्तत्तण्डुलाम्बुद्रवैः । - पिष्टैर्लोहरजस्तमैरसितसत्केशा भवति स्फुटम् ॥ ९३ ॥ भावार्थ:-सफेद बालों पर पहिले त्रिफळा के कल्क को लेप कर के त्रिफला के काढे से धो डाले । पश्चात् लोहचर्ण को इस के बराबर, चम्पा, वायविडंग कुंदुरु इन के रस व चावल के धोबन से अच्छीतरह पीस कर बालों पर लगाने से सफेद बाल काले हो जाते हैं ॥९॥ केश कृष्णीकरण हरीतक्यादि लेप. तैलोभ्दृष्टहरीतकी समधृतं कांसस्य चूर्ण स्वयं । भृष्टं लोहरजस्तयां समधृतं नीलांजन तत्समम् ॥ भुंगी सन्मदयंतिकासहभवासरीयनीलीनिशा-1 कल्कैस्तत्सदृशैस्सुमर्दितमिदं तैलेन खल्वोपले ॥ ९४ ॥ लोहे पात्रवरे घने सुनिहितं धान्योरुकूपस्थितम् । षण्मासं ह्यथवा त्रिमासमपि तन्मासद्वयं मासकम् ॥ एकं तच्च समुतं समुचितैस्सत्पूजनैः पूजितं । लिम्पेत्सांप्रतमेतदंजननिभान् केशान् प्रकुत्सितान् ॥ ९५ ॥ १ अथवा अधिक्काथ इस शब्द का अर्थ चतुर्थाशकाथ भी हो सकता है । २ लिह्य इति पाठांतरे. Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके भावार्थ:-तैल से भूना हुआ हरड, और कांस के चूर्ण ये दोनों समभाग, इन दोनों के बराबर लोहचर्ण, इतना ही नीलांजन [ तूतिया } इन सब को एकमेक कर मिलायें । भांगरा, मल्लिका [ मोतिया ] सहचर [ पीली कटसरैया ] कटसरैया, नील, हलदी इन के कल्क को उपरोक्त चूर्ण के बराबर लेकर उस में मिलावे । पश्चात् इस में तेल मिलाकर खरल में अच्छीतरह मर्दन करे एवं उसे अच्छे (मजबूत) लोहे के बरतन में डालकर छह महीना, तीन महाना, या एक महीना पर्यंत धान्यराशि में रखें । फिर उसे भिकाल कर उचित पूजा विधि व द्रव्य से पूजन कर के सफेद बालोंपर लेपन करे तो तत्काल ही केश कजल के समान काले होते हैं ॥ ९४ ॥ ९५ ॥ केशकृष्णीकरण श्यामादितेल. श्यामासेरेयकाणां सहचरियुतसत्कृष्णपिण्डीतकानाम् । पुष्पाण्यत्रापि पत्राण्यधिकतरमहानीलिकानीलिकानाम् ।। तन्धीं चाम्रार्जुनानां निचुलबदरसत्क्षारिणां च द्रुमाणां । संशोष्याचूर्ण्य चूर्ण समधृतमखिलं लोहचूर्णेन सार्धम् ॥ ९६ ॥ प्रोक्तैश्चूर्णैस्समानं सरसिजवरसत्स्थानपंकं समस्तं । नीलीभंगासमानां स्वरसविलुलित त्रैफलेनाम्भसा च ॥ लोह कुंभे निधाय स्थितमथ दशरात्रं ततस्तैः कषायैः । कल्कैस्तावद्विपच्यं तिलजमलिनिभा यावदा श्वतकेशाः ॥ ९७ ।। एतत्तैलं यथावन्निहितमतिघने लोहकुंभे तु मासं । तलिपच्छे त केशानलिकुलविलसन्नीलनीलांजनाभान् ॥ कुर्यात्सद्यस्समस्तान् अतिललितलसल्लाहकांतोरुव॒तान् । वत्र विन्यस्य यत्नादधिकतरमरं रंजयेत्तत्कपालम् ॥ ९८ ।। भावार्थ:- फूल नियंगू [?] कट सरैया पीली कटसरैया, काला भेनफल, इन के फूल, महानील और नील के पत्र, शालपर्णी, अमकी गुठली की निंगी, अर्जुन की छाल, समुद्रफल, बैर, क्षारी वृक्षों की छाल, और लोह चूर्ण इन सब को समभाग लेकर . चूर्ण करे । इन सब चूर्णों के बराबर कमल स्थान [ जहां कमल रहता है उस स्थान ] के कीचड को लेकर ( उस में ) मिलाये। और इसे, नील व भांगरा इन दोनों के समभाग स्वरस, व त्रिफला के काथ [ काढा ] से मर्दन कर एकमेक करके लोहे के घडे में भरकर [ मुंह बंद कर के ] दस रात रखें । इस प्रकार तैयार किया हुआ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापच्चिकित्साधिकारः । [ इस ] कल्क व नीली, भांगरा, त्रिफला इन के क्वाथ से तिल के तैल को तब तक पकावें जब तक उस तैल के लगाने से सफेद बाल काले न हों। इस प्रकार साधित तेल को एक मजबूत लोहे के वडे में भर कर एक महीने तक रखें पश्चात् उसे निकाल कर सफेद बालों पर लगावे और यत्नपूर्वक इस का नस्य लेवे तो संपूर्ण बाल भ्रमरपंक्ति व नीलांजन के सदृश काले हो जाते हैं और उन के जड मनोहर चुंबक लोह के समान मजबूत हो जाते हैं । जिस के वजह से कपाल भी रंजायमान होता है ॥९६॥९७॥९८॥ नीलीभृगरसं फलत्रयरसं प्रत्येकमेकं तथा । तैलं प्रस्थमितं प्रगृह्य निखिलं संलोड्य संस्थापितम् ॥ सारस्यासनवृक्षजस्य शकलीभूतस्य शूर्प घटे । भल्लातक्रियया ाधो निपतितं दग्ध्वा हरदासचम् ॥ ९९ ॥ ताम्रायोऽजनघोषचूर्णमाखिल प्रस्थं प्रगृह्यायसे । .. पात्रे न्यस्य तथा समेन सहसा सम्मदयेन्निद्रवम् ॥ तं तैः प्रोक्तरसैः पुनस्सममितैः अग्नौ मृदौ पाचितं । धान्ये मासचतुष्टयं सुनिहितं चोदत्य संपूजयेत् ॥ १००। केशान्काशसमान्फलत्रयलसत्कल्कन लिप्ता-पुनः । धौतांस्तत्रिफलोदर्कन सहसा संमृक्षयेदौषधम् ॥ वक्त्रे न्यस्य सुकांतवृत्तमसकृत्संचारयेत्संततं । साक्षादंजनपुंजमेचकनिभः संजायते मूर्धजः ॥ १०१॥ भावार्थः-नील, भांगरे के रस, त्रिफला के क्वाथ ( काढा ) ये प्रत्येक एक २ प्रस्थ ( ६४ तोले ) और तिल का तैल एक प्रस्थ लेकर सब मिलाकर रखें । विजयसार वृक्ष के सार ( वृक्ष के बाहर की छाल को छोडकर अंदर का जो मजबूत भाग होता है वह ) के टुकडों को दो द्रोण प्रमाण लेकर, घडे में भरे और भिलारे के तैल निकालने की विधि से, अग्निसे जलाकर अधःपातन करके उस का आसप निकाले। फिर, ताम्र, लोह, नीलांजन, [सुरमा कांसा, इन के (समभाग विभक्त) एक प्रस्थ चूर्ण को • लोह के पात्र में डालकर द्रव पदार्थ के बिना ही अच्छीतरह बोटना चाहिये । वोटने ... १ तैल. पकाते समय उस तेलको हाथ में लेकर सफेद बाल या बगलेके पंखा ले उसपर लगाकर देखें। यदि वह काला न हुआ तो फिर उक्त काथ व कल्क डाल कर पकावें । इस प्रकार जब तक बाल काला न हो तब तक बार २ क्वाथ कल्क डाल कर पकाना चाहिये । २ दो चरणोंका अर्थ ठीक लाता नहीं। Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६६) केल्याणकारके के बाद इसे उपर्युक्त रसों के साथ जो उस के बराबर हो मृदु अग्नि में पका कर धान्य राशि में चार महिने तक रखें । पश्चात् उसे निकाल कर पूजन करें। अनंतर काश के समान सफेद बालों पर त्रिफला के कल्क लेपन कर त्रिफला के काढे से ही धोडालें। बाद उपर्युक्त औषधि को शीघ्र ही केशों पर लगायें। जिस से केश कज्जल की राशि के समान काले व चमकील हो जाते हैं ।। ९९ ॥१००॥ १०१ ॥ महा अक्ष तैल काश्मर्या बीजपूरपकटतरकपित्थाम्रबुद्रुमाणां । शैलेयस्यापि पुष्पाण्यमृतहटमहानालिकामोदयंती ॥ नीलीपत्राणि नीलांजनतुवरककासीसपिण्डीतबीजम् । वर्षाभूसारिवा यासितातिलयुतयष्ट्याव्हका काणकाली ॥१०२॥ पद्मं नीलोत्पलाख्यं मुकुलकुवलयं तत्र संभूतपर्छ । वर्षाशं कल्कितान्तानसनखदिरसारोदकैस्त्रैफलैश्च ।। एतत्सर्व दशाहं निहितमिहमहालोहकुंभे ततस्तैः। कल्कैः प्रोक्तः कषायैर्दशभिरतितरां चादैकरतलम् ॥ १०३ ।। स्यादत्रैवाढकं तन्मृदुपचनविधी लोहपात्रे विपकं । ततैलं भैषजेरा दृढतरविलसल्लोहपात्रे न्यसद्वा । तेलेनतेन यत्नाभियतपरिजनः शुद्धदेहो निवाते । गेहे स्थित्वा तु नस्य वलिपलितजराक्रांतदेहं प्रकुर्यात् ॥१०४॥ कृत्वा तैलवरेण नस्यमसकृन्मासं यथोक्तं बुध- । मर्त्यः स्यात्कमलाननः प्रियतमो वृद्धोऽपि सद्यौवनः ॥ तेनेदं महदक्षतलममलं दद्यात प्रियेभ्यो जने-- ।.. भ्यःसंपत्तिसुखावहं शुभकर तत्कतुरथोंगमम् ॥ १०५॥ भवार्थ:-कम्भारी बीजौरा निंबू, कैथ, आम, जामुन, शैलेय [ भूरि छरीलागंध व्यविशेष ] इन के फूल, गिलोय, हट [ शिवार] महानील, वनमल्लिका, नीलके पत्ते, नीलांजन [तूतिया या सुरमा] तुवरक, कसीस, मेनफलका बीज, पुनर्नवा,सारिबा,कालेतिल, मुलैठी, काणकाली, सफेद कमल, नीलकमल, मोलतिरी, लालकमल, और कमल रहने के स्थान की कीचड, इन सब को एक २ तोला लेकर उस में विजयसार, खैर का सार भाग, त्रिफला इन के काथ मिलाकर करक तैयार करें और उसे एक लोहे के बडे Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापश्चिकित्साधिकारः । में डालकर दस दिन तक रखें । पश्चात् इस उपरोक्त कल्क व उपर्युक्त ( विजयसार कत्था त्रिफला के) काथ व पानी से, एक आढक बहेडे के तैल को मृदु अग्नि के द्वारा पकाकर सिद्ध होने पर एक मजबूत लोहके पात्रा [ घडा ] में रखें । बाद जिस के शरीर पलित [ सफेद बाल से युक्त ] झुरी, व बुढापेसे आक्रांत है ऐसे मनुष्यके [ शरीर] को वमन विरेचनादिक से शुद्ध कर, उसको नियत बंधुओं के साथ, हवारहित मकान में प्रवेश कराकर इस तैल से बहुत यत्न के साथ नस्य देना चाहिये । इस नस्यप्रयोग को बार २ एक मासतक करने पर नासिकागत समस्त रोग दूर होते हैं और उस मनुष्य का मुख कमल के समान सुंदर बनजाता है । वह सब को प्रिय लगने लगता है उतना ही नहीं वह वृद्ध भी जवान के समान हो जाता है। इसलिये यह संपत्तिक सुखदायक शुभकर, व निर्मल है और इसे तैयार करनेवाले को अर्थ [द्रव्य ] की प्राप्ति होती है। इस महान् अक्षतैल को [ तैयार कर अपने प्रियजनों को देना चाहिये ।। १०२॥१०३ १०४।१०५॥ वयस्तम्भक नस्य. शिरीषकोरण्टक गनीलीरसैः पुटं त्रिस्त्रिरनुक्रमेण । सदक्षशंभत्तिलकंगुकारिण्यमूनि बीजान्यथ भावयित्वा ॥१०६॥ पृथराजोभावममूनि नीत्वा विपकतोयेन ततो समेन । विमर्थ लब्धं तु सुतैलमेषां सदा वयस्तंम्भमपीह नस्यम् ॥१०७॥ भावार्थ:-बहेडा, सफेद तिल, कंगुका ( फूल प्रियंगु ) अरि ( खदिर भेद ) इन के बीजों को अलग २, सिरस के छाल, कोरंट, भांगरा व नील के रस से क्रमशः तीन २ भावना देनी चाहिये । पश्चात् उस भावित बीजों के चूर्णों को समभाग लेकर उबले हुए पानी के साथ मर्दन करके उस से तैल निकाल लेवें । इन तैलों के नस्य लेने से मनुष्य सदा जैसे के तैसे जवान बना रहता है ॥ १०६ ॥ १०७ ॥ उपसंहार इत्येवं कृतमूत्रमार्गविधिना कृष्णप्रयोगो मया । सिद्धो सिद्धजनोपदिष्टविषयः सिद्धांतसंतानतः ॥ तान्योगान्परिपाल्य साधुगुणसंपन्नाय मित्राय सं- । दद्याद्यौवनकारणानकरुणया वक्षाम्यतोऽर्थावहम् ॥ ९०८ ॥ भावार्थ:----इस प्रकार सिद्ध जनों (पूज्य आचार्य आदि मुनिगण ) के द्वारा उपदिष्ट स्वानुभवसिद्ध या अवश्य फलदायक केशों को काले करनेवाले प्रयोगों को Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६८) कल्याणकारके VAAA-MAnnr सिद्धांत परम्परा से लेकर आगमोक्त विधि के साथ हमने प्रतिपादन किया । यौवन के कारणभूत उन प्रयोगों को अच्छी तरह समझकर [ और विधि के अनुसार निर्माण कर दया से प्रेरित हो अच्छे गुणों से युक्त मित्रों को देना चाहिये अर्थात् प्रयोग करनाचाहिये । यहां से आगे अर्थ कारक विषय का प्रतिपादन करेंगे ॥ १०८ ॥ अंतिम कथन. इति जिनवनिर्गतसुशास्त्रामहाबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ १०९ ॥ भावार्थ:- जिस में संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिस के दो सुंदर तट हैं, ऐसें श्रीजिनेंद्र मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बंदूके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] || १०९ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यविरचितकल्याणकारकोत्तरे चिकित्साधिकारे सौषधकर्मव्यापच्चिकित्सितं नाम तृतीयोऽध्यायः आदितस्त्रयोविंशः परिच्छेदः ॥ इत्यमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में सर्वोषधकोपवद्रचिकित्साधिकार नामक उत्तरतंत्रमें तृतीय व आदिसे तेईसवां परिच्छेद समाप्त । n International Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः । anv www.arunarwww.inwwnnnn AAPAARA . .. .. अथ चतुर्विशः परिच्छेदः मंगलाचरण प्रणम्य जिनवल्लभं त्रिभुवनेश्वरं विश्रुतं । । प्रधानधनहीनतोद्धतसुदर्पदापहम् ॥ . चिकित्सितमुदाहृतं निरवशेषमीशं नृणां । शरीरपरिरक्षणार्थमधिकार्थसार्थावहम् ॥ १॥ .. भावार्थ:-तीन लोकके अधिपति, प्रसिद्ध, प्रधान ऐश्वर्य [ सम्यक्त्व ] से रहित मनुष्यों के अभिमान को दूर करनेवाले, संपूर्ण चिकित्सा शास्त्रों के प्रतिपादक, सर्व भव्यप्राणियों के स्वामी, ऐसे श्री जिनेश्वर को नमस्कार कर मनुष्यों के शरीर रक्षण करने के लिये कारणभूत व आधिक अर्थसमूहसंयुक्त या उत्पन्न करनेवाले प्रकृत प्रकरण को प्रतिपादन करेगे ॥ १॥ - रसवर्णन प्रतिज्ञा शरीरपरिरक्षणादिह नृणां भवत्यायुषः । प्रवृद्धिरधिकोदतेंद्रियबलं नृणां वर्द्धते ॥. निरथर्कमथेतरस्याखिलमर्थहीनस्य चे-। त्यतः परमलं रसस्य परिकर्म वक्ष्यामहे ॥२॥ भावार्थ:- शरीर के अच्छीतरह रक्षण करनेसे आयुष्यकी वृद्धि होती है। आयुष्य व शरीर की वृद्धि से इंद्रियो में शक्ति की वृद्धि होती है | आयुष्य व शरीर बल जिन के पास नहीं है उनके संपूर्ण ऐश्वर्यादिक व्यर्थ है । यदि ये दोनों हैं तो अन्य ऐश्वर्यादिक न हों तो भी मनुष्य सुखी होता है । इसलिये अब रस बनाने की विधि कहेंगे जिस से शरीरके रसों की वृद्धि होती है ॥२॥ रसके त्रिविध संस्कार रसो हि रसराज इत्यभिहितः स्वयं लोहसं-। . क्रपक्रमविशषतोऽनिवहमावहत्यप्यलम् ॥ रसस्य परिमर्छनं मरणमुद्रतोद्वंधनं । विधेति विधिरुच्यते त्रिविधमेव वै तत्फलम् ॥ ३ ॥ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७०) कल्याणकारके भावार्थ:-रस ( पारद-पारा) को रसराज भी कहते हैं । यह रस लोहों के संक्रमणक्रियाविशेषसे अर्थात् अभ्रक आदि लोहों से जारण आदि क्रियाविशेष के करने से बहुत अर्थ को उत्पन्न करता है। इस रस की [ मुख्यतः ) मूर्छन, मारण ( भस्मकरण ) बंधन इस प्रकार तीन तरह की क्रिया ( संस्कार ) कही गई है,जिन के तीन प्रकार के मिन्न २ फल होते हैं ॥ ३ ॥ त्रिविध संस्कार के भिन्न २ फल रसस्तु खलु मूञ्छितो हरति दुष्टरोगान्स्वयं । मृतस्तु धनधान्यभोगकर इष्यतेऽवश्यतः ॥ यथोक्तपरिमार्गबंधमिह सिद्ध इत्युच्यते । ततस्त्वतुलखेचरत्वमजरामरत्वं भवेत् ॥ ४ ॥ भावार्थ:-मूछित पारा अनेक दुष्ट रोगों को नाश करता है। मृत [भस्म किया हुआ ] रस धन धान्य की समृद्धि करके भोगोपभोगको उत्पन्न करता है । यथोक्त विधिसे बंधन किए हुए रस [ बद्धरप्त ] जो कि सिद्ध रस कहलाता है, उससे अप्रतिम खेचरत्व ( आकाश में गमन करने की शक्ति ) व अजरामरत्व प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ मूर्छन व मारण. पुराणगुडमर्दितो रसवरं स्वयं मूर्च्छये- । कपित्थफलसदसैम्रियत एव गोबंधनैः ॥ पलाशनिजबीज तद्रसमुचिक्कणै रकैः । रसस्य सहसा वो भवति वा कुचीवीजकैः ॥ ५ ॥ भावार्थ:- रसको पुराने गुड से मर्दित कर मूर्छित करना चाहिये अर्थात् ऐसा करने से रस मूर्छित होता है। कैथ के फल के रस से रस का मरण ( भस्म ) होता है। गोबंधन से पलाश बीज के चिक्कण रस से, जीरे से एवं कुर्ची बीज से रस का शीघ्र ही भस्म होता है ॥५॥ मृतरससेवनविधि. पिबेन्मृतरसं तु दोषपरिमाणमेवातुरो । विपकपयसा गुडेन सहितेन नित्यं नरः ॥ कनकनकघृष्टमिष्टवनितापयो नस्यम- । प्यनंतरमथांगनाकरविमर्दनं योजयेत् ॥ ६ ॥ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः । (६७१) भावार्थ:----दोषों के प्रमाण [बलावल ] के अनुसार मृतरस को सुवर्ण से विस कर अच्छी तरह पके हुए दूध में गुड के साथ रोज रोगी सेवन करें । तदनंतर स्त्रीदुग्च का नत्य देना चाहिये । बाद में स्त्रियों के हाथ से शरीर का मर्दन कराना चाहिये ॥६॥ अनेन विधिना शरीरमखिलं रसः कामति । प्रयोगवशतो रसक्रमण एव विज्ञायते ।। सुवर्णपरिघर्षणादधिकवीर्यनीरोगता। रसायन विधानमप्यनुदिनं नियोज्यं सदा ॥ ७ ॥ भावार्थ:---इस प्रकारकी विधिसे रसका संवन करनेपर वह रस शरीर के सर्व अवयवोंमें व्याप्त होजाता है । प्रयोग करनेकी कुशलतासे रस, का सर्व शरीर व्याप्त होना भी मालुम होता है। सुवर्णके घर्षण करने से अधिक वीर्य की प्राप्ति | शक्ति व निरोगता होती है । इस के साथ रसायन विधान की भी प्रतिदिन योजना करनी चाहिये ॥ ७ ॥ बद्धरसका गुण रसः खलु रसायनं भवति बद्ध एव स्फुटं। न चापरसपूरिलोहगणसंस्कृती भक्ष्यते ॥ ततस्तु खलु रोगकुष्टगणसंभवस्सर्वथे- । त्यनिंद्यरसबंधनं प्रकटमत्र संबंध्यते ॥ ८ ॥ भावार्थ:-विधिपूर्वक बंधन किया हुआ रस [बद्ध रस ] रसायन होता है। इस से दूसरे रसयुक्त लोहगणों के द्वारा संस्कृत ( बद्ध ) रसों को नहीं खाना चाहिये ऐसे रसों को यदि खावे तो कुष्ठ आदि अनेक रोग समूइ उत्पन्न होते हैं । इसलिये बिलकुल दोषरहित रसबंधन विधान को यहां कहें। ॥ ८॥ रसबंधन विधि. अशेषपरिकर्मविश्रुतसमस्तपाठादिक-। क्रमगुरुपरः सदैव जिननाथमभ्यर्चयन् ॥ प्रधानपरिचारकोपकरणार्थसंपत्तिमान् । रसेंद्रपरिबंधनं प्रतिविधातुमत्रोत्सहे ॥ ९ ॥ भावार्थ:---रसबंधनावि के शास्त्र को जाननेवाला वैद्य प्रधानपरिचारक, रसबंधन के लिये आवश्यक समस्त उपकरण, अर्थ ( ३०३ ) संपत्ति व गुरुभक्ति से Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके युक्त होकर हमेशा जिनेश्वर की पूजा करते हुए रसबंधन करने के लिये आरम्भ करें ॥९॥ रसशालानिमाणविधि. अथ प्रथममुत्तरायणदिने तु पक्षे शुचौ । स्वचंद्रबलयुक्तलग्नकरण मुहूतं शुभे ।। प्रशस्तदिशि वास्तुलक्षणगुणक्षितावासम-। प्यनियरसबंधनार्थमतिगुप्तमुद्भावयेत् ॥ १० ॥ भावार्थ:- श्रेष्ठ रस बंधन करने के लिये सर्व प्रथम उत्तरायण के शुक्ल पक्ष में लग्न, चन्द्रबल से युक्त श्रेष्ठ करण, इत्यादि शुभलक्षणोंसे लक्षित (युक्त ) शुभ मुहूर्त में प्रशस्त दिशा में, एक ऐसा मकान ( रसशाला ) निर्माण करना चाहिये जो वास्तुशास्त्र में कथित गुणों से युक्त और अत्यंत गुप्त हो ॥१०॥ रसंसस्कार विधि. जिनेंद्रमधिदेवतामनुविधाय यक्षेश्वरं । विधाय वरदांबिकामपि तदाम्रकूष्माण्डिनीं ॥ .. समय॑ निखिलार्चनैस्तनुविसर्गमार्ग जपे- । च्चतुगुणितषटु मिष्टगुरुपंचसन्मंत्रकम् ॥ ११ ॥ कृतांजलिरथ प्रणम्य भुवनत्रयकाधिपा-। नशेष जिनवल्लभाननुदिनं समारंभयेत् ॥ प्रधानतमसिद्धभक्तिकृतपूर्वदीक्षामिमां । नवग्रहयुतां प्रगृह्य रससिद्धये बुद्धिमान् ॥ १२ ॥ भावार्थ:- रससिद्धि के लिये सबसे पहिले [ पूर्वोक्त रसशाला में ] श्री. जिनेंद्र भगवान्, अधिदेवता [ मुख्य २ देवतायें ] यक्षेश्वर [ यक्षोंके स्वामी गोमुख श्रादि यक्ष] वर प्रदान व.रनेवाली अम्बिका व कूष्मांडिनी यक्षी इन को, इन की सम्पूर्ण अर्चनविधि से अर्चन [ पूजा ] कर कायोसर्ग पूर्वक पंचनमस्कार ( णमोकार ) मंत्र को २४ चौवीस वार जप करना चाहिये । तदनंतर हाथ जोडकर तीनों लोकों के स्वामी, समस्त जिनेश्वर अर्थात् चौवसि तीर्थंकरों को नमस्कार करके, प्रधानभूत सिद्धभाक्ति को भक्ति से पठन करना चाहिये और नवग्रहों से युक्त [ नवग्रहों के अर्चन करके ] इस पूर्वदीक्षाको धारण कर हमेशा बुद्धिमान् वैद्य रस के संस्कार करने के लिये आरम्भ करें। Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसरसायन सिध्यधिकारः । रखेंद्रमथ शोधयेत्सुरुचिरेष्टणान्वितं । स्तनोद्भवरसेन सम्यगत्रम खल्वोपले || सुरुकांजिका विपुलपात्रदोलागतं । पचेत्रिकटुकांजिकाळवणवर्ग हिंगुर्जितम् ॥ १३ ॥ एवं दिनत्रयमखण्डितवन्हिकुण्डे | स्विन्नसुखोष्णतरकांजिकया सुधौतः ॥ शुद्धी रसो भवति राक्षस एव साक्षात् । सर्व चरत्यपि च जीर्णयतीह लोहम् ॥ १४ ॥ भावार्थ:- : पारा में ईंट के चूर्ण व दूध मिलाकर खरल में अच्छी तरह वोटें । बोटेने के बाद उसे कांजीसे धोवें, इस से पारे की शुद्धि होती है । इस प्रकार शुद्ध पारद को सोंठ मिरच पीपल कांजी लवणवर्ग हींग इन में मिलाकर पोटली बांधे । बाद में उसे कांजी से भरे हुए बडे पात्र में, दोलायंत्र के द्वारा पकावे । ( एवं स्वेदन करें ) इस प्रकार बराबर तीन दिनतक स्वेदन करना चाहिये । स्वेदित करने के बाद उसे सुहाता २ कांजी से धोना चाहिये । ऐसा करने से पारा अत्यंत शुद्ध होता है एवं साक्षात् राक्षप्त के समान सम्पूर्ण धातुओंको खाता है और पचाता है । ( अर्थात् पारे में सोना आदि धातुओं को डालने पर एकदम वे उस में मिल जाते हैं वजन भी नहीं बढता । फिर उससे सोना आदिकोंको अलग भी नहीं ॥ १३ ॥ १४ ॥ तं वीक्ष्य भास्करनिभमभया परीतं । सिद्धान्प्रणम्य सुरसं परिपूज्य यत्नात् ॥ दद्यात्तथाधिकृतबीजमिहातिरक्तम् । सरंजित फलरसायनपादशांशम् || १५ || गर्भद्वैतः क्रमत एव हि जीर्णयित्वा । सूक्ष्मांवर द्विगुणितावयवसृतं तं ॥ क्षारत्रयैः त्रिकटुकै वैणस्तथामलैः । संभावितैर्विडवरैरधरोत्तरस्थैः ॥ १६ ॥ रम्भापलाशकमलोद्भव पत्रवर्गे । बद्ध चतुर्गुणितजीरकया च दोलां ॥ संस्वेदयेद्विपुळ भाजन कांजिकायां । रात्री तथा प्रतिदिनं विदधीत विद्वान् ॥ १७ ॥ ८५ १ धृति इति पाठांतरं || ( ६७३ ) और पारे का कर सकते ) Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७४ ) कल्याणकारके भावार्थ - वह रस सूर्य के समान उज्वल कांति से युक्त होता है । ऐसे रस को देख कर सिद्धों को नमस्कार कर के यन के साथ उस रस की पूजा करें और उस फलभूत रसायन में चौथाई हिस्सा योग्य अत्यंतलाल बीजे [ सुवर्ण ] को डालना चाहिए | पश्चात् उसे गर्भदुति के क्रम से जीर्ण कर के ( मिलाकर ) एक पतले कपडे को दुहरा कर उस से इस रस को छानें, तदनंतर छने हुए इस रस के ऊपर व नीचे क्षारत्रय, त्रिकटु, लवणवर्ग, अम्लवर्ग इन से भावित विडे को रखें ( उस के बीच में रस रख दे ) और उसे केला, पलाश, कमल इन के पत्तियों से बांध कर पोटली करें । इस पोटली को कांजी से भरे हुए एक बड़े पात्र में जिस में चतुर्गुण जीरा डाला गया है। दोलायंत्र के द्वारा पकाकर स्वेदन करना चाहिए । अर्थात् बाफ देना चाहिए | विद्वाम् वैद्य को उचित है कि इस क्रिया को प्रतिनित्य रात में ही करें || १५-१६-१७ ।। बीजाभ्रतीक्ष्णमाक्षिकधातुसत्व- । संस्कारमत्र कथयामि यथाक्रमेण || -संक्षेपतः कनककृद्रसबंधनार्थ । योगिप्रधान परमागमतः प्रगृह्य || १८ || भावार्थ:- :- अब यहांसे आगे योगियों के द्वारा प्रतिपादित परमागम शास्त्र के आधारसे सुवर्णकारक रसबंधन करनेके लिये क्रमशः सुवर्ण, अभ्रक, तीक्ष्ण लोह माधवन के सत्वों के क्रमशः संस्कार करेंगे ॥ १८ ॥ ताम्रं सुबीजसदृशं परिगृह्य ताम्रं । पत्रीकृतं द्विगुणमाक्षिककल्कलिस ॥ १ कोई एक धातु पत समय उसमें दूसरा धातु डालने से वह उस डाले हुए धातु के रंग से युक्त हो जाय, तो इस बीज कहते हैं। कहा भी है। निर्वापणविशेषेण ततद्वणं भवेद्यदा । मृदुलं चित्रसंस्कारं तद्बीजमिति कथ्यते || शुद्ध सोना चांदी को बीज कहते हैं:शुद्धं स्वर्ण च रूप्यं च बीजमित्यभिधीयते ॥ २ किसी भी पदार्थ को पारा में ग्रास कराना जो उसे पाराके गर्भ [ अंदर ] में हो रस रूप बनाना पडता है उसे गर्भद्रुति कहते हैं । कहा भी है:- ग्रासस्य द्रावणं गर्भे गर्भद्रुतिरुदाहृता ॥ ३ पाराके द्वारा ग्रास किये हुए किसी भी धातु को जीर्ण करने के लिए क्षार, अम्लपदार्थ गंधक, गोमूत्र, लवण आदि पदार्थों का जो संयोग किया जाता है उन पदार्थों को विंड कहते हैं ॥ कहा भी है:- झारेरग्लैश्च गंधाद्यैर्मूत्रैश्च पदुभिस्तथा ॥ रसप्रासस्य जाणार्थ ताडं परिकीर्तितं ॥ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ भावार्थ:- - उत्तम बीज ( सुवर्ण) के बराबर ताम्र ( ताम्बा ) लेकर उस का पत्र तैयार करके, उसपर उससे द्विगुण सुवर्णमाक्षिक के कल्क से लेप करें । पश्चात् उस ताम्रपत्र के अंदर के भाग में बीज को रखें और ( ताम्रपत्र के ) बाहर के भाग में गंधक के कल्क से खूब [ गाढा ] टेप करें । फिर उस [ ताम्रपत्र ] को गोलाकार के रूप में मोडकर गोली के समान बनावे और उसे वज्रभूषा के अंदर रखकर उस के मुख को बंद कर के ख़ैर के कोलसे से अच्छी तरह घमाना चाहिये । इस के बाद उस वज्रभूषा को फोडकर देखने पर उस के अंदर एक गोल आकार की गोली देखने को मिलेगी । उस गोली को पुनः बहुतवार यत्नपूर्वक उक्त क्रम से संस्कार कर के रंजन करना चाहिये । इस प्रकर कई बार संस्कार कर के आखिर में उस गोली को फोडकर बारीक चूर्ण कर के इसे क्रमशः आदि, मध्य व अंत में डालते हुए पारा में मिलाना चाहिये । अर्थात् इस को क्रमशः थोडा २ डालते हुए परा का जारण करना चाहिये ॥ १९- २०-२१ ॥ ८८ सरसायन सिध्यधिकारः | अभ्यंतरे स्थिर सुबीजवरं प्रकृत्य । बाधे कुरु मबलगंधककल्कलेपम् ॥ १९ ॥ सद्वृतमुत्तमगुणं प्रविधाय वज्र- 1 मूषागतं वदनमस्य विधाय धीमान् ॥ सम्यग्धमेत्खदिरसद्धमरैस्ततस्तं । निर्भेद्य शुद्धगुलिकामवलोक्य यत्नात् ॥ २० ॥ भूयस्तथैव बहुशः परिरंजयेत्तां । पूर्वप्रणीत गुलिकामध भिद्य सूक्ष्मां ॥ चूर्णीकृतां रसवरे स च देयमादौ । मध्येऽवसानसमयेऽपि यथाक्रमेण ॥ २१ ॥ रस प्रयोग विधि. माकं पटलिकं पटुवज्रकाख्यं । संपेषयेल्लवणटणकषणेन ॥ सार्धे पुनर्नवरसेन निबंधवेणी - | नाद्यानिधाय विपचेद्वरकांजिकायाम् ॥ २२ ॥ नाळे प्रोध सकलद्रवतां गतां त ( ६७५ ) दहेत् " इति पाठांतरं २ " र " इति पाठांतर ३ रुक्षां इति पाठांतर Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (.६७६) कल्याणकारकै द्विज्ञाय खल्वषदी प्रणिधाय धीमान् ॥ सौवर्णचूर्णसहितां परिमर्य सम्य- । क्संयोजयेद्रसवरेण सहैकवारम् ॥ २३ ॥ द्वंद्वोरुमंढकविधानत एव सम्य- । समर्थ सोष्णवरकांजिकया सुधीतं ।। सूक्ष्मांबरद्विगुणितावयवमृतं तं- । संस्वदयत्कथितचारुबिडैश्च सार्धम् ॥ २४ ॥ भावार्थ:--पील। अभ्रक, पटाल क, पटुबत्रक उन में सेंधानमक, टङ्कणक्षार, सोंट मिरच व पीपल मिलाकर पुनर्नवा ( विषखपरा ) के रस से अच्छीतरह घोटना चाहिये । फिर इस को एक पोटली बनाकर उसे कांजी में [ दोलायंत्रा द्वारा ] पकावे । जब वह अच्छीतरह पक जावे तो उसे एक मूषा में डाल कर और मूषा को अग्निपर रखकर फूंकनी से खूब फंको । इसे फंकते २ जब मूषा में रखा हुआ पदार्थ द्रवरूप [पतला ] हो जाय. तो पश्चात् उस द्रव को पत्थर के खरल में डालकर उस में सोने का चर्ण मिलाकर अच्छीताह मर्दन करे । इस के बाद इस में उत्तम पारा डालकर एक ही दफे अच्छीतरह मिला । फिर इसे द्वंदमेढकविधान से भले प्रकार घोटकर गरम कांजी से धोकर पतले दोहरे कपडे से छान ले और शास्त्र में कहे हुए. श्रेष्ठ विट के साथ स्वेदन करें अर्थात् बाफ देवें ।। २२-२३-२४ ।।। तीक्ष्णं निचूर्ण्य वरमाक्षिकधातुचूर्ण- । व्यामिश्रमुष्णवरकांजिकया सुधौतं ॥ उत्क्वाथ्य साधु बहुशः परिशोधयेच्च । गोमूत्रतऋतिलजद्विरेजेंद्रतायः ॥ २५ ॥ एतत्कनकनकचर्णयुतं सुक्षिणं । माक्षीकचूर्णमपि षड्गुणमत्र दद्यात् ॥ भास्वद्रसेंद्रवरभोजनमल्पमा गर्भद्रुतिकमन एवं सुजीर्णय च ॥ २६ ॥ १ यहांपर द्वंदमेढक विधानका अर्थ समझमें नहीं आना, शायद दिह मेलक विधान सकता है. वैद्य विचार करें । २ निरव इति पाठांतरं ॥ ३ प्रति इति पाठांतरं ।। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसरसायन सिष्यधिकारः । मध्ये सुवर्णवरमाक्षिकधातुचूर्ण | दद्यात्समं रसवरस्य सुवर्णमेव ॥ पश्चान्महाग्निपरिविद्धमतीव शुद्धं । बीजोत्तरं तदपि जीर्णय पादमम् ॥ २७ ॥ तं स्वच्छपिच्छिलरसं पटुशुद्धमुग्र- । न्मृषागतं सुविहितान्यसुभाजनस्थम् ॥ भूमौ निधाय पिहितं तु वितस्तिमात्रं । तस्योपरि प्रतिदिनं विदधीत चाग्निम् ॥ २८ ॥ मासं निरंतरमिहाग्निनिभावितं तं । चोदृत्य पूजितमशेषसु पूजनायैः ॥ संशुद्धताम्रवरतारदलं मलिप- । मेघेरुनादर समर्दित सद्रसेंद्रम् ॥ २९ ॥ भावार्थ:- तीक्ष्ण ओह को चूर्ण कर के उस में उतना ही सुवर्ण माक्षिक के चूर्ण मिलाकर उसे गरम कांजी से अच्छीतरह धोत्रे और कई बार कांजी के साथ अच्छी तरह पका । उस के बाद उसे गोमूत्र तक्र ( छाछ ) तिलका तैल, द्विरज, इन्द्र ( इन्द्र जो ) इन के काथ से शुद्ध करना चाहिये । अर्थात् उस को गरम करके उक्त द्रव में बुझाते जाये । [ इस प्रकार करने से उस की चूर्ण में । पारा के उतना ही ) उत्तम भोजन [ ग्रास ] क्रम से जीर्ण करना शुद्धि होती है ] | इस प्रकार शोधित तीक्ष्ण लोह के सुवर्ण चूर्ण और छह गुना सुवर्णमाक्षिक चूर्ण मिलावे भूत इस तीक्ष्णचूर्ण को थोडा २ पारा में डालते हुए गर्भदुति के चाहिये । इस प्रकार जीर्ण करते बखत बीच में पारा के समान सुवर्णमाक्षिक चूर्ण और उतना ही सुवर्ण चूर्ण डालकर पश्चात् तीव्र अग्नि से जलावे । पश्चात् उस में शुद्ध बीज को चतुर्थांश या अर्थाश डालकर जीर्ण करें । इस प्रकार के सरकार से वह स्वच्छ व पिलपिलेरूप का रस बन जाता है | उसे शुद्ध करके ( धोकर ) भूषा में रखें । उस मूषा को किसी अन्य योग्य पात्र में रख कर संधिबंधन करे । फिर उसे एक बालिश्त [१२ अंगुल] प्रमाण गहरा गड्ढा खोदकर उसमें रखें और उस पर मिट्टी डालकर बंद कर के ऊपर प्रतिदिन आग जलाये । इस प्रकार एक महीने तक बराबर आग जला कर बाद में उस से निकाल कर उस संस्कृत रसेंद्र [ पारा ] की सम्पूर्ण सामग्री विधिसे पूजा करनी चाहिये । पश्चात उसे मेघनाद के रस से वोट कर उस से शुद्ध तान्त्रा व चांदी के पत्र का लेपन करे || इस प्रयोग से सोच बन सकता है ] ॥ २५ २६ २७ २८|२९॥ १ यद्ध इति पाठांतरे ॥ ( ६७७ ) ( Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कल्याणकारके - wwwwwww.msrAA/ रस प्रयोगफल पदि रसस्समसारनियोजितो भवति तद्दशमांश स वेदकः । त्रिगुणसारवरः शतवेदको दशशतं रससारयुता रसः ।। ३० ॥ भावार्थ-----रस के समान प्रमाण में लोणी का ग्रहण करें तोस का दशमांशमें फळ का अनुभव होता है। यदि रस की अपेक्षा लोणी त्रिगुण प्रमाणमें हो तो सौगुणा अधिक लाभका अनुभव होगा । एवं लोणी के रसके साथ रसका उपयोग करें तो हजार गुणा अधिक लाभ पहुंचता है ।। ३० ॥ रस→हणविधिः अथ रसं परिबृहयते ध्रुवं सततमग्निसहं कुरु सर्वथा । प्रकटतापनवासनकासनैर्जिनमतक्रमतो हि यथक्रमात् ॥ ३१ ॥ भावार्थ- उस रस को सदा तापन, कासन व वासनक्रिया के द्वारा अग्निकर्म का प्रयोग करना चाहिए जिस से वह रस बहुत समृद्ध होता है ॥ ३१॥ लवणतालकमेघसुमृत्तिका- 1 तुषमषीशरवारणसद्रसैः ॥ अतिविपेष्य घनांतरितान्तरा- । मपि विधाय सुगोस्तनमूषिकाम् ॥ ३२ ॥ बहिरिहांतरमभ्रककल्कस- । प्रतिविलेपितगोस्तनमूषिकां ॥ निहितचारुरसं धन संप्रति । पिहितमग्निमुखे बहुवासयेत् ॥ ३३ ॥ मषितुषोत्ककरीषकरीषकै- । स्तुपकरीपयुतभ्रमररणु- ॥ भ्रमरकैश्च करीषयुतमहा- ।। भ्रमरकैरपि रूक्षितवन्हिना ॥ ३४ ॥ इति यथा ऋयतोऽग्निसह रसं । प्रकटसारणया परिबंहितैः ॥ विहितसारणतैलयुतैः रसैः ।। क्षिप समं कनकद्रवतां गतम् ॥ ३५ ॥ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसरसायनसिध्यधिकारः। ( ६७९) अपि च सारितसद्गुलिका पुरः ॥ क्रमत एव चतुर्गुणसारता ॥ गुलिक एव च सारणमार्गतो ।। बिदितचारुभिदैरपि जीर्णयेत् ॥ ३६ ॥ स खलु सिद्धरसस्समसारितः । पुनरपीह चतुर्गुणसारतः ॥ क्रमयुतरतिमर्दनपाचन- । भवति तत्प्रतिसारितनामकः ॥ ३७ ॥ अयमपि प्रतिसारित सदस- । स्समगुणोत्तमहेतुमुसारितः ॥ विदितसिद्धरसे तु चतुर्गुणे । क्रमविजीर्णरसो ानुसारितः ॥ ३८ ॥ भावार्थ:---रस बृहण विधि में सब से पहिले संघालोण, हरताल, मुखतानी मट्टी, धान्य का भुसा इन के रसों के साथ अच्छी तरह पीस कर गाढा करें व उस में दाख व मूसाकानी को मिलावें । . बाद में बाहर और अंदर से अभ्रक कल्क लिप्त दाख वं मूसाकानी से युक्त उस रस को एक पात्र में डाल कर एवं ढककर अग्निमुख में रखना चाहिये। ताड, भूसा, कण्डे, तुषभ्रमर, करीषभ्रमर, अण्डभ्रमर, महाकरीषभ्रमर इन लकडियों के रूक्ष अग्नि से अग्निप्रयोग करना चाहिए । तदनंतर सारणा संस्कार करना चाहिए । सारणा के लिए योग्य तेल के साथ समान प्रमाण में सुवर्ण दव को भी डालना चाहिये । फिर सारणा संस्कार कर गोली तैयार करनी चाहिए। क्रम से फिर उसे चतुर्गुण रूप से सारण करना चाहिये एवं शास्त्रोक्त क्रम से उस गोली को फोड कर जीणं करना चाहिए । इस प्रकार अच्छी तरह सारित सिद्ध स को क्रम क्रम से मर्दन, पाचनादिक क्रियावों के साथ चतुर्गुण सारण करने से वह प्रतिसारित नामक रस होता है । ... उस प्रतिसारित रस को भी पुनः चतुर्गुण सिद्ध रस में सारण कर जीर्ण करें तो वह और भी उत्तम गुणविशिष्ट हो जाता है । उसे अनुसारित रस कहते हैं। ३२ । ३३ । ३४ | ३५ । ३६ । ३७ । ३८ ॥ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८०) कल्याणकारके सारणाफल. प्रथमसारणया शतरंजिका दशशतं प्रतिसारणया रसः । शतसहस्रमरं प्रतिरंजयेत्यधिक रंजनयाप्य नुसारितः ॥ ३९ ॥ भावार्थ:-सिद्ध रस के ऊपर सारणा संस्कार पहिले २ करने पर सौ गुणा अधिक शाप.मान् हो जाता है । उस सारणा पर पुनः प्रतिसारण संस्कार करने पर हजार गुणा अधिक फल होता है एवं अनुसारण संस्कार से लाख गुणा अधिक फल होता है ॥ ३९ ॥ मणिभिरप्यतिरंजितसद्रसः । स्पृशति भेदति वेधकरः परः ॥ तदधिकं परिकर्मविधानमाश्वखिलमत्र यथाक्रमता ब्रुवे ॥ ४० ॥ भावार्थ:--रस के ऊपर रत्नों का संस्कार करें तो भी वह अत्यंत गुणविशिष्ट हो जाता है। उस के स्पर्शन से रत्नादिक फूटते हैं। उस रत्नसंस्कार के विधान अब विधि प्रकार शीघ्र कहेंगे ।। ४.० ॥ : स्तनरसेन विषाणमुराग्रज । परिविमर्थ सुकल्कविलेपनैः ॥ कठिनवज्रमपि स्फुटति स्फुटं । स्फुटविपाकवशान्मणयोऽथ किम् ॥४१॥ का भावार्थ:--मेंढासिंगी व कपूकचरी को स्तनदुग्ध के साथ मर्दन कर अच्छे कल्कों का लेपन करनेपर कठिन से कठिन वज्र भी फूटता है। बाकी अन्य रत्नों के विषय में तो क्या कहना ? || ४१ ।।. - रस संस्कारफल. स्वेदात्तीवरसो भवत्यतितरं समर्दनानिमलो । स्याल्लोहाबलवान्मुजीर्णतरसरशुद्धातिबद्धस्सदा ॥ गर्भद्रावणयकतामुपगतः संरंजनाद्नकः । सम्यक्सारणया प्रयोगवशतो व्याप्नोति संक्रामति ॥४२॥ भावार्थ:---रस को स्वेदन संस्कार करने से उस में तीव्रता आती है। मर्दन करने से वह मलरहित होता है । धातुवों के संस्कार से वह बलवान होता है। जीर्ण संस्कार से बह शुद्ध होता है । बंधनप्रयोग करने से सिद्ध होता है। गर्भद्रावण संस्कार सवह एकमेक होकर मिल जाता है। रंजन प्रयोग से वह भी राजत होता है। सारणाप्रयोग से अच्छी तरह शरीर में व्याप्त होता है ॥४२॥ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ रसरसायनसिध्यधिकारः । सिद्धरस माहात्म्य. एवं प्रोक्तमहाष्टकर्मभिरलं बद्धो रसी जीववख्यातस्तत्परिकर्ममुक्तसमये शुद्धस्स्वयं सिद्धवत् ॥ ज्ञात्वा जीवसमानतामपि रसे देवोपमस्सर्वदा । संचित्योप्याणिमादिभिः प्रकटितैरुद्यद्गुणौधैरसदा ॥ ४३ ॥ भावार्थ:---इस प्रकार पारदरस को सिद्ध करने के आट महासंस्कार कहे गये। इन के प्रयोग से वह रप्त सिद्धों के समान शुद्ध होता है। एवं स्वयं वह रस जीव के समान ही होता है अर्थात् उस में प्रबल शक्ति आती है । इतना ही नहीं. उसे अणिमादि ऐश्वर्यो से युक्त साक्षात् देव के सामन ही समझना चाहिए । अर्थात् वह रस अनेक प्रकार से सातिशय फलयुक्त होता है ॥ ४३ ॥ पारदस्तंभन. साक्षीशरवारिणी सहचरी पाठा सकाकादनी । तेषां पंचरसे पलायति सदा प्रोद्यदतिस्तंभिकाः ॥ ताः स्युकल्ककषायतैलयुतसंस्वेदेस्सदा पारद- .. स्तिष्ठत्यग्निमुखे सहस्रधमनै/तोऽपि शस्त्रादिभिः ॥ ४४ ॥ .. ..भावार्थ:-सरहटीगण्डनी, सरपता, पीली कटसरैया, पाठा व काकादिनी इन के रस में वह पारद इधर उधर न जाकर अच्छी तरह स्तंभित होता है । उन के कल्क व कषाय से युक्त तेल से संस्वेदन प्रयोग करने पर पारद अत्यंत तीक्ष्ण अग्नि में भी बराबर स्थिर हो कर ठहरता है ॥ ४४ ॥ रस संक्रमण...... . कांता मेघनिनादिकाश्रवणिकातांबूलसंक्षीरिणीत्येताः पंचरसस्य लोहनिचयैः संक्रामिकास्सर्वदा ॥ तासां सदसकल्कमिश्रितपयस्तैस्संप्रतापात्स्वयं । । संतः पत्रदलपलेपवशतो व्याप्नोति बिंबेष्वपि ॥ ४५ ॥ भावार्थ-मोथा, पलाश, गोरखमुण्डी, तांबूल व दूधिया वृक्ष इन पांच वृक्षों के रस सदा धातु भेदों के संक्रामक है। इन के साथ कल्क मिलाकर पारा मिलावें और पत्ते में लेपन कर दर्पण में लगा तो माने आग व्याप्त हप्ता है ।। ४५ ॥ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८२) कल्याणकारके पारद प्रयोजन. मत्स्याक्षीगिरिकार्णका शिखिशिखाजघारुहाथीरिणी- ! त्येता निर्मुखतांभ्रमूतकसमो योगं प्रकुर्वति ताः ॥ आरामोद्भवशीतशीतलिकिकाप्यका तथा वृश्चिका-। घेतत्त्व द्रुतमभ्रकं रसवरस्याहारमाहारयेत् ॥ ४६ ।। भावार्थ:--- मछेछी, सफेद किणिही, शिखी, कलिहारी, जंघावृक्ष, दूधियावक्ष इन के रसके साथ अभ्रक व पारेको मिलाकर उपयोग करना अनेक रोगोमें हितकर है। तथा आरामशीतला व विधुवा घास के साथ अभ्रक का प्रयोग करें तो पारद को भी अच्छी तरह जीर्ण कर देता है ॥ ४६ ॥ सिद्धरसमाहात्म्य. इत्येवं वर्णमुज्वलरसं हेम्ना च संयोजितं । वन्हौ निश्चलता तमधिकं संवासनात्यासनैः॥ तं संमूञ्छितमेव वामृतमलं संभक्ष्य मंक्ष्वक्षयं । . वीर्यं रोगविहीनतामतिबलं प्राप्नोति मर्त्यः स्वयम् ।। ४७ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार अच्छीतरह सिद्ध रस को सुवर्णभस्म के साथ संयोजित करने से, आस्थापन व अनुवासन के प्रयोग से, वन्हि में भी निश्चलता को प्राप्त होता है। ऐसे समूर्छित अमृतको भक्षण करने से यह मनुष्य विही अक्षय शक्ति व रोगहीनता, व शरीरदाय आदि को प्राप्त करता है ॥४७॥ बद्धं सिद्धरस पलद्वयमलं संगृह्य लोहे शुभे । पात्रे न्यस्य पलं घृतं त्रिफलया सिद्धस्य तोयस्य च ॥ दत्वाति प्रणिधाय पक्वमतिमृद्रग्निमयोगाद्धरी- । तक्या द्वे च नियुज्य पूज्यतमवीर्याज्यावशेषीकृतम् ॥ ४८ ॥ पीत्वा तदघृतमुत्तमं प्रतिदिनं मोऽतिमत्तद्विपे- । न्द्रोद्यीर्यबलमतापसहितः साक्षाद्भवेत्तत्क्षणात् ॥ तत्रैकं पलमाहृतं रसवरस्यात्युग्ररोगापहं । स्यादेकं पलमुज्वलत्कनकबद्धं तस्य नस्यानहम् ॥ ४९ ॥ भावार्थ:----बंधन संस्कार से सिद्ध रसको एक पल प्रमाण लेकर एक अच्छे लोहे के पात्र में डालें । उस में एक पलप्रमाण त्रिफला जलसे सिद्ध घृत को मिलावें। फिर Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसरसायनसिध्यधिकारः। उसे मृदु अग्नि के द्वारा पकाकर उस में दो हरीतकी मिलावें । जिस से वह शुद्ध घृत तैयार होता है। - उस घत को प्रतिदिन पीनेपर तत्क्षण यह मनुष्य मदोन्मत्त हाथी के समान बलवान् व तेजोयुक्त हो जाता है । उस के साथ एक पल प्रमाण रसका सेवन करें तो भयंकरसे भयंकर रोग भी दूर होते हैं। उस घृत के साथ एक पल प्रमाण सुवर्णभस्म को मिलाकर नस्य प्रयोग भी कर सकते हैं ॥४८॥ १९ ॥ सिद्धघृतामृत. अथ घृतपलमेक द्वे रसस्यादये द्वे ।। पयसि पलचतुष्कं पाचितं कोहपात्रे ॥ मृदुतरतुषवन्ही क्षीरजीर्णावशेषं । घृतममृतसमानं देवतानां च पूज्यम् ॥ ५० ॥ भावार्थ:--एक पलप्रमाणघृत, दो पल प्रमाण रस, चार पल प्रमाण दूध इन को लोहे के पात्रमें डालकर भूसे की मृदु अग्नि से पकावें । जब वह दूध सब के सब जीर्ण होकर केवल वृत ही घृत रहता है वह अमृतके समान होजाता है एवं वह देवताना को भी पूज्य है ॥ ५० ॥ रसग्रहण विधि. व्योमव्यातसुतीक्ष्णमाक्षिकसमग्रासं गृहीत्वा स्फुटं । वन्ह निश्चलतां गतं रसवरं भूमौ निधायादरात् ।। तस्मात्स्तोकरसं प्रगृहय कनकं पादं प्रदायाहृतिं । दीपेनान्विह जीर्णयेदिति मया दीपक्रिया वक्ष्यते ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-जो रस सिद्ध हो चुका है जिसे अग्नि में रखकर उसकी निश्चलता से परीक्षा कर चुके हैं उस को आकाश में व्याप्त सूक्ष्म मक्खियों के जितने प्रमाण में लेकर जमीनपर रखें, फिर उस से थोडासा रस लेकर उस में पाव हिस्सा सुवर्णभरम मिलावें, उस को सेवन करें। जिम के ऊपर दीपन प्रयोग करने पर वह गृहीतरस जल्दी जीर्ण होता है । इसलिये अब पिन प्रयोग कहा जाता है ॥ ५१॥ दीपनयोग दीपांस्तावदलतकानि पटलान्याहत्य रक्तोज्वलान् । वगैर्गन्धकसद्विषैस्तनरसेनामर्दनैलेपयेत् ॥ ... Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८४ ) कल्याणकारके तत्रास्थाप्य रसं गृहीतकनकं बध्वा च सूक्ष्मांबरो - । त्खण्डैः पुट्टालिकां करंजतिलजैरादीपयेद्दीपिकाम् ॥ ५२ ॥ भावार्थ:- सबसे पहिले दीपों के पात्रपर लाख के रस, गंधक वर्ग व विष वर्ग इनको स्तनदुग्ध के साथ मर्दन कर लेपन करना चाहिये । फिर उस पात्र में कनक मिश्रित रसको रखकर एक पतले कपडे से उसे बांध कर फिर उस दीप को कंजा व तिल तैल से दीपित करना चाहिये ॥ ५२ ॥ तत्र प्रलेपनविधावतिरंजकः स्यात् । उच्छिनामकरसः कृतकल्कको वा ॥ योऽयं भवेदधिकवेदकशक्तियुक्तो । लोस्सहैव परिवर्तयतीह बद्धः ।। ५३ ॥ भावार्थ:- इस प्रकार की प्रलेपनक्रिया से वह रस अत्यंत उज्वल होता है । और अधिक शक्ति का अनुभव कराता है एवं रस व कल्को में वह उत्कृष्ट रहता है । इतना ही नहीं सिद्धरस शरीर के प्रत्येक धातुवों का परिवर्तन करा देता है ॥ ५३ ॥ रससंक्रमणौषध. एवं यद्धविशुद्धसिद्धरसराजस्येह संक्रामणं । वक्ष्ये माक्षिकका कविनलिका कर्णामले माहिषं ॥ स्त्रीक्षीरक्षतजं नरस्य वटपी प्रख्यातपारापती । श्रृंगी टंकण चूर्ण मिश्रितमधूच्छिष्टेन संक्रामति ॥ ५४ ॥ भावार्थ:- इस प्रकार विधि प्रकार सिद्ध विशुद्ध सिद्ध रसराज का वर्णन किया गया है। अब उस रसराजका संक्रमण का वर्णन करेंगे अर्थात् जिन औषधियों से उस का संक्रमण होता है उन का उल्लेख करेंगे । सोनामखी, काकबिट्, नली (सुगंध द्रव्यविशेष) भैंस का कर्णामल, खीदुग्ध, पारावतीवृक्ष, मेढा सिंगी, टंकण [ सुहागा ] चूर्ण इनसे मिश्रित भोम से उस रसराजका संक्रमण होता है ॥ ५४ ॥ इत्येवं दीपिकांतामवितथनिलमधानिशास्त्रप्रवद्धा । व्याख्याता सत्क्रियेयं सकलतनुरुजाशांतयं शांतचितैः ॥ उग्रादित्यैर्गुनीरनवरत महादानशीलस्सुशीलैः । कृत्वा युक्त्यात्र दत्वा पुनरपि च धनं दातुकामैरकामैः ॥ ५५ ॥ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसरसायनसिध्यविकारः । (६८५) भावार्थ:-इस प्रकार शांतचित्त को धारण करनेवाले, इस ग्रंथ के निर्माण के द्वारा युक्तिसे धनका दान देकर अनवरत दान प्रवृत्ति के अभिलाषी अपितु तत्फल के निष्कामी महादानशील, सुशील उपादित्याचार्य मुनिनाथने योनिचिकित्साको प्रारंभ कर दीपनक्रिया पर्यंत चिकित्साक्रम को प्रतिपादन किया ॥ ५५ ॥ अंतिम कथन. इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहाबुनिधेः । सकलपदाथेविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-जिस में संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिस के दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बंदूके समान यह शास्त्र है । साथ में जगत्का एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ५६ !! इत्युग्रादित्याचार्यविरचितकल्याणकारकोत्तरे चिकित्साधिकारे रसरसायनसिद्धाधिकारो नाम चतुर्थोऽध्यायः । आदितश्चतुर्विशतितमः परिच्छेदः ।। इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में रसरंसायनसिद्धाधिकार नामक उत्तरतंत्रामें चौथा व आदिसे चौवीसवां परिच्छेद समाप्त । SIN Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके .. . . .. . अथ पंचविंशतितमः परिच्छेदः मंगलाचरण. प्रणिपत्य जिनेद्रमिंद्रसन्मुनिश्रृंदारकवृंदवंदितम् । तनुभृत्तनुतापनोदिनः कथयाम्यल्पविकल्पकल्पकान् ॥ १॥ भावार्थः-मुनिनाथ, गणधर, देवेंद्र आदियों के द्वारा पूज्य श्री जिनेंद्र को नमस्कार कर प्राणियों के शरीरतापको दूर करनेवाले कल्पों के कुछ विकल्पों [ भेद ] को कहेंगे ऐसी आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ ॥ प्रतिज्ञा. प्रथमं ह्यभयाविकल्पकं मनुजानामभयप्रदायकम् । विधिवत्कथयाम्यतः परं परमोद्योगरतो नृणामहम् ॥ २ ॥ भावार्थ:-सब से पहिले हम बहुत प्रयत्न पूर्वक हरीतको कल्प को शास्त्रोक्त विधिपूर्वक कहेंगे जो मनुष्योंको अभय प्रदान करनेवाला है ॥ २ ॥ हरीतकी प्रशंसा. अभया ह्यभया शुभमदा सतताभ्यासवशादसायनम् । लवणैर्विनिहत्यथानिलं घृतयुक्ता खलु पित्तमद्भुतम् ॥ ३ ॥ भावार्थ:- अभया [ हरडा ] सचमुच में अभया ही है, सुख देनेवाली है। सतत अभ्यास रखें तो वह रसोंकी वृद्धि के लिये रसायन के समान ही है । उसका उपयोग सेंधालोण आदि लवणवर्ग के साथ करें तो वातकोपको नाश करती है। घृत के साथ उपयोग करें तीव्र पित्तकोपको दूर करती है ॥ ३ ॥ हरीतकी उपयोग भेद. कफमुल्लिखतीह नागरैर्गदयुक्ताखिलदोषरोगनुत् । . सितया सितयात्युपद्रवानभथा ह्यात्मवता निषेविना ॥४॥ भावार्थ:- सोट के साथ अभयाका सेवन करें तो कफको दूर करती है । कृट के साथ उपयोग करें तो संपूर्ण दोषों का नाश करती है। यदि उस का उपयोग शकर के साथ करें तो रोगगत उपद्रवों को दूर करती है ॥१॥ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पाधिकारः । (६८७) ___ हरीतक्यामलक भेद. अभयानलमित्यदीरितं विमलं ह्यामलकं फलोत्तमं । हिमवाच्छशिरं शरीरिणामभयात्युष्णगुणा तु भेदतः ॥५॥ . भावार्थ:-----अभया अग्निवर्द्धक कही गई है । आमलक ( आमला ) फल फलों में उत्तम व निर्मल हैं। आमला हिम के समान अत्यंत शांत है । और अभया अति उष्ण है । यही इन दोनो पदार्थो का गुणकी अपेक्षा भेद हे ॥ ५॥ त्रिफलागुण. अभयेति विभीतको गुणैरुभयं वति सुभाषितं जिनः । त्रिफलेति यथार्थनामिका फलतीह त्रिफलान् त्रिवर्गजान् ॥६॥ भावार्थ:-अभयाके समान ही बहेडा भी गुण से युक्त है ऐसा श्री जिननाथ ने कहा है । इसलिये हरड बहेडा व आमला ये तीनों त्रिफला कहलाते हैं और त्रिदोष वर्ग से उत्पन्न दोषों को दूर करते हैं । इसलिये इनका त्रिफला यह नाम सार्थक है॥६॥ त्रिफला प्रशंसा त्रिफला मनुजामृतं भुवि त्रिफला सर्वरुजापहारिणी । त्रिफला वयसश्च धारिणी त्रिफला देहदृढत्वकारिणी ॥७॥ त्रिफला त्रिफलेति भाषिता विबुधैरद्भुतबुद्धिकारिणी । . मलशुद्धिकृदुद्धताग्निकृत्स्खलितानां प्रवयो वहत्यलम् ॥ ८ ॥ भावार्थ:-त्रिफला मनुष्यों को इस भूलोक में अमृतके समान है, वह सर्व रोगों को नाश करनेवाली है। त्रिफला मनुष्यों को जवान बनाये रखनेवाली है और शरीर में दृढता उत्पन्न करती है। त्रिफला तीन फलोंसे युक्त है ऐसा विद्वानोंने कहा है । वह अद्भुत बुद्धि उत्पन्न करती है, मल शोधन करती है, और अग्नि दीपन करती है। इतना ही नहीं वृद्ध होकर शक्ति से स्खलितों को भी शक्ति प्रदान करती है ।। ७ ।। ८ ॥ त्रिफलायसमाक्षिकमागाधिका सविडंगसुभृगरजश्च समम् ! त्रिगुणं च भवेदपि वालुवकं पयसेदमृतं पिब कुष्ठहरम् ॥ ९ ॥ भावार्थ:-त्रिफला को यदि लोहभस्म, सोनामाखी, पीपल, वायविडंग, भंगरा के चूर्ण के साथ उपयोग करें तो तीन गुण को प्रकट करता है । और इन को ही दूध के साथ उत्योग करें तो यह कुष्ठ रोग को भी दूर करने वाला अमृत है ॥ ९॥ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८८) कल्याणकारक त्रिफलां पिब गव्यघृतेन युतां त्रिफलां सितया साहितामथवा । त्रिफलां ललितातिबलाललितां त्रिफलां कथितां तु शिलाजतुना ॥ १० ॥ भावार्थ:--त्रिफचा को गोवृत के साथ पीना चाहिये, त्रिफला का शक्कर के साथ में पीना चाहिये, अथवा त्रिफला को अतिबला के साथ सेवन करना चाहिये और त्रिफला को शिलाजीत के साथ कषाय कर पीना चाहिये ॥ १० ॥ इति योगविकल्पयुतां त्रिफलां सतत खलु यां निपिवेन्मनुजः । स्थिरबुद्धिबलेंद्रियवीर्ययुतश्चिरमायुररं परमं लभते ॥ ११ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार अनेक विकल्पके योगों से युक्त त्रिफला रसायन को सतत पीने से यह मनुष्य स्थैर्य, बुद्धि, बल, इंद्रियनैर्मल्य, वीर्य आदियों से युक्त होता है और दीर्घ आयुष्य को प्राप्त करता है ॥ ११ ॥ शिलाजतु योग. एवं शिलाजतु शिलोद्भवकल्कलोह- । कांतातिनीलघनमप्यतिसूक्ष्मचूर्णम् ॥ कृत्वैकमेकमिहसत्रिफलाकषायैः । संभावितं तनुभृतां सकलाभयघ्नम् ॥ १२॥ .. भावार्थ:-इसी प्रकार शिलाजीत, पत्थरका फूल, इनका कल्क, लोहभस्म, नागरमोथा, अतिनील, बडी इलायची, इनको अलग २ अच्छीतरह चूर्ण कर प्रत्येक को त्रिफला कषायस भावना देवें । फिर उसका सेवन करें तो सर्व प्रकार के रोगों को वह नाश करता है ॥ १२ ॥ शिलोद्भव कल्प. अथ शिलोद्भवमप्यतियत्नतः खदिरसारयुत परिपाचितम् । त्रिफलया च विपक्कमिदं पिबन् हरति कुष्ठगणानतिनिष्ठुरान् ॥ १३ ॥ भावार्थ:-पत्थर के फूल को खदिरसार के साथ अच्छीतरह बहुत यत्नपूर्वक पकावे, फिर उसे त्रिफला के साथ पकायें । उस को सेवन करने से भयंकर से भयंकर कुष्ठ रोग भी दूर होते हैं ॥ १३ ॥ शिलाजतुकल्प. यदि शिलानतुनापि शिलोदकं पिब सदैव शिलोद्भववल्कलैः । अपि च निवानेव सुक्षकैनिखिलकुष्ठविनाश करं परम् ।। १४ ॥ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘कल्पाधिकारः। . . . भावार्थ:-पत्थर के फूल के कल्क, निंब व कुनिंब की छाल के साथ व'शिलाजीत के साथ शिलाजल को पावें तो सर्व प्रकार के कुष्ठ नष्ट होते हैं... १.४.॥ शयनाशक कल्प। अपि शिलोद्भववल्कलकल्कककथितगव्यपयःपरिमिश्रितः । मगधजान्वितसत्सितयान्वितः क्षयगदः क्षपयत्क्षणमात्रतः॥ १५ ॥ भावार्थ:--पत्थर के फूल व शिलावल्क के कल्क के साथ कथित गौदुग्ध के साथ पीपल व शक्कर को मिलाकर सेवन करने से अतिशीघ्र' क्षयरोग दूर होता है ॥ १५ ॥ बलवर्धक पायस. अपि शिलोत्थमुवल्कलचूामाश्रतपयः परिपाचितपायसम् । , सततमेव मिषव्य सुदुबैलोऽप्यतिबलो भवति प्रतिमासतः ॥ १६ ॥ । भावार्थ:--शिलाबल्कके चूर्ण के साथ दूध का मिश्रण कर उस से पकाये हुए खीरका सतत सेवन करें तो एक महिने में अत्यंत दुबल भी अ त बलवान होता शिलावल्कलोंजनकल्प अपि शिलामलवल्कलचूर्णसंयुतमलक्तकसत्पटल स्फुटम् । घृतवरेण कृतांजनमंजसा कुरुत एतदनिधशा दृशा ॥ १७ ॥ भावार्थ:-शुद्ध शिलावल्कलके चूर्ण के साथ. लाख के पटल को मिलाकर घी के साथ अंजन तैयार करें तो वह अंजन सदा आंखोंके लिये. उपयोगी है ॥१७॥ ___ कृशकर व वर्धनकल्प. इह शिलोद्भववल्कलमंबुना पिव फलनिकमचिमिश्रितम् । कृशकरं परमं प्रतिपादितं धृतसितापयसी परिहणम १८॥ भावार्थ:--शिलावल्कल के काय के साथ फैिला चर्ण को मिलाकर पीयें तो कृशकर है। वहीं धृत, शक्कर व दूध के साथ सेवन कर । रसों की वर्द्धक है ॥१८॥ उपलवल्कलकल्कनिषेवणादाखिल गगणः प्रलय व्रजेत् । त्रिफलया सह शर्करया घृतैर्मगधजान्वितचारुविडंगः ॥१९॥ भावार्थ:-शिला की छाल के कल्क को त्रिफला, शक्कर, वत, पीपल व वाय बिडंग के साथ सेवन करें तो सई रोग को वह नाश करता है ॥ १९ ॥ ८७ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९० ) 'कल्याणकार शिलाजतु कल्प. इति पलवल्कलकल्क संविहितकल्पमनल्पमुदाहृतम् । विदितचारुशिलाजतुकल्पमप्यधिकमल्पविकल्पयुतं ब्रुवे ॥ २० ॥ mier: अभीतक शिलावल्कल [ छाला ] के कल्क को विस्तार के साथ प्रतिपादन किया । अब शिलाजीत के कल्पको अधिक प्रकार का होनेपर भी अल्पविकल्पों के साथ करेंगे ॥ २० ॥ शिलाजीत की उत्पत्ति. : अथ वक्ष्याम्यद्विजातप्रवरजतुविधिः संभवादिस्वभाव- । रिह शैला ग्रीष्मकाले जलदनलसम की शु संत प्रदेहाः ॥ निजमैस्तुगकुटेः कठिनतरसमुद्धि असम गण्डैः । मदधारामुत्सृजति त्रिजगदतिशयं सज्जते माज्यवीर्यम् ॥ २१ ॥ भावार्थ:-- अब शिलाजीत के कल्प को उस की उत्पत्ति स्वभाव आदिकों के कथन के साथ २ प्रतिपादन करेंगे । प्रष्म ऋतु में अत्यंत प्रकाशमान [ तेजयुक्त ] अनि के समान रहनेवाले सूर्यकिरणों से पर्वत अत्यंत तप्त होकर वे अपने शिररूपी ऊंची २ चोटी के अत्यंत कठिन व फटे हुए आजू बाजू के प्रदेशरूपी गंडस्थल से [ कपोल ] युक्त पर्वत के शिखर में रहनेवाले कठिन पत्थरों से, मदोन्मत्तहाथी के जिस प्रकार मदजल बहता है उसी प्रकार लाख के रस के समान लाल रस "चुंबते हैं । यही रस, तीन लोक में अतिशयकारक व उत्कृष्ट वीर्यवाला शिलाजीत कई छाता है । अथवा यही तीन लोकको अतिशय बल व वीर्यश ली बनाता है ॥२१॥ शिलाजतुयोग. सीसास्ताम्रपत्र र रजत सत्कांचनानां च योनिं । नियतासंख्या क्रमेणोत्तरमधिकतरं सेव्यमेतद्यथावत् ॥ त्रिफलांबुक्षीरसर्पिरसहितामिह महाश्लेष्मपित्तानिलोत्थैः । गिरिनिर्यासो रसेंद्रः कनककुद खिलव्याधिहृद्वेषजं च ॥ २२ ॥ भावार्थ:- रांगा, सीस, लोह, ताम्र, चांदी, सोना, ये छह धातु शिलाजीत के योनि है । इन नियत उत्तरोतर धातुओंसे उत्पन्न शिलाजतु एक से एक अधिक गुणवाा १ पर्वतस्य पत्थरो में रांगा आदि धातुओं का कुछ न कुछ अंश अवश्य रहता है । जब पत्थर तप जाता है तो ये धातु पिघल कर शिलाजीत के रूप में होते हैं । इसलिये इन धातुओं को शिलाजीतकोने के नाम से कहा है । Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पाधिकारः। है। ऐसे शिलाजीत को यथाविधि सेवन करना चाहिये । शिलाजीत त्रिफला का काढ़ा, दूध, घी इन के साथ मिला कर, महान् कफ, पिन, वातजन्य विकार में सेवन करें। सर्व रसों में श्रेष्ठ यह शिलाजीत कनक ( सोने से युक्त) सहित है और सम्पूर्ण व्याधियों को नाश करनेवाला श्रेष्ठ औषध है ॥ २२ ॥ कृष्ण शिलाजतुकल्प. ऊषाप्येषा विशेषा जतुवादिभवत्पंचवर्णा सवर्णा । व्यापार पारदीयोपमरसवरषट्रसर्वलोहानुषी॥ तामूषां टङ्कगुंजाघृतगुलमधुसमर्दितं शृद्धमाव- । ावेदादत्यनूनं जनयति कनकं तरक्षणादेव साक्षात् ॥ २३ ॥ भावार्थ:-कृष्ण [ काला | शिलाजीत नामक शिलाजति का एक भेद है, उसे उषा कहते हैं, वह लाख के समान द्रव व चमकीला रहता है। उस में पंचवर्ण स्पष्ट दिखते हैं । उसे पारद कर्म में उपयोग करते हैं । यह छह धातुवोंको द्रव करने वाला है। इस प्रकार के काले शिलाजीत के साथ टंकणक्षार, गुंजा, घृत, मधु और गुड को मंत्रित कर एवं मर्दितकर अग्नि में रखकर फूंकने से कुछ समय में ही उस से सुवर्ण निकलता है ॥ २३ ॥ वाभ्येषाकल्प. वाम्येषामविषां विचार्य विषविद संभक्षिका पतिभिः । संभक्ष्याक्षयता बजेदिल्ललितां क्षाराज्यसशर्कराम् ॥ भुक्त्वात्राप्यशन घृतेन पयसा शाकाम्लपवादिसं-। वा निर्जितशत्रुरुर्जितगुणो वीर्याधिकस्स्यान्नरः ॥ २४ ॥ भावार्थ:----विष को जाननेवाला वैद्य पक्षियों के द्वारा खोये हुए, निविष ऐसा वम्येषा [ कवचबीज वा तालमखाना ] को विचार पूर्वक ( सविष है या निर्विष? ) प्रहण कर दूध घी, शक्कर के साथ मिला कर सेवन करावे । इस के सेवन काल में धी दूध के साथ भात खानेको देवे और शाक अम्ल, पत्राशाक आदि खाने को न दें क्यों कि ये वर्जित है । इस विधि से उसे सेवन करनेसे मनुष्य अक्षयत्व को प्राप्त होता है अर्थात् जब तक आयुष्य है तब तक उस का शरीर जवान जैसा हृष्ट पुष्ट बना रहता है। उसके १ इस से य: जाना जाता है कि वह सविष या निर्विष है ! क्यों कि सविषको पक्रियां नहीं खाती हैं। Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९२) कल्याणकारके .F. शरीर में इतनी शक्ति उत्पन्न होती है जिससे वह सब शत्रुओंको जीत सकता है । उसी प्रकार उस में उत्तमोत्तम गुण और वीर्य उत्पन्न होते हैं ।। २४ ॥ पाषाणभेद कल्प. नानावृक्षफलोपमाकृतियुताः पाषाणभेदास्स्वयं । ज्ञात्वा तानपि तत्फलीबुबहुशः पक्वान् सुचूर्णीकृतान ।। कृती श्रीरघृतभुजातसहिलान् जीणे पयस्सर्पिषा । भुक्त्वान्न वरशालिज निजगुणैर्मयोऽमरम्स्यादरम् ॥ २५ ॥ भावार्थ:-- अनेक वक्षों के फलों के आकार में रहने वाले पाषाण भेदों को (पखान भेदः) अच्छी तरह जानकर उनको उन्ही के फलों के बवाथ से कई बार पकाकर अच्छीतरह चूर्ण करें और उसे दूध घी शक्कर या गुड के साथ खावे उस के जीणे होने पर दूध घृत,के.साथ. उत्तम चावल के भात को खावें । इस के सेवन से मनुष्य अपने गुण व शरीर से साक्षात् देव के समान बन जाता है ॥ २५ ॥ भल्लातपाषाण कल्प. प्रख्यातोसमकोलिपाकनगराद्व्यतिमात्राये। पूर्वस्यां दिशि कृष्णमेकमधिक भल्लातपाषाणकम् । तत्पाषाणनिजाभिधानविहितग्रामोपि तत्पार्वत- । सधान्यैरवगम्य सर्वममलं पाषाणचूर्ण हरेत् ॥ २६ ॥ तच्चूहिकमाढकं घृतवरं भल्लाततैलाढकं ।'. शुद्धं चापि गुडाटक बहुम्लम्संसिद्धभल्लातका- ॥ निकायश्च चतुर्भिराढकमितः पंक तथा द्रोणम-1 प्यतच्छुद्धतनुर्विमुद्धचस्तिस्सिद्धालये पूजयेत् ॥ २७ ॥ 'द्रोण तद्वस्मषजं प्रतिदिन मात्रां विदित्वा क्रमात लीद्धा भेषजजीर्णतामपि तथा प्रोक्तोरुवेइमस्थितः ॥ शालीनां प्रवरौदन घृतपयोमिश्रं समश्नन्नरः । नानाभ्यंगविलेपनादिकृत संस्कार भवेत्सर्वदा ॥ २८ ॥ भावार्थ:--प्रख्य त कोलिपाक नगर से तीन के स पूर्व दिशा में एक भल्लातकपाषाण नामक एक विशिष्ट काला पायाण (पत्थर ] मौजूद है। उसी के आस पास भल्लातपाषण नामक ग्राम भी है। इन बातों से व अन्य चिन्हों से उसे पहिचान कर S : .. . . 7 Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पाधिकार। निर्मल पाषाण चूर्ण को एकत्रित करें। आटंक प्रमाण वह भल्लात पाषाण चूर्ण, आढक प्रमाण उत्तम गोघृत, आढक प्रमाण भल्लातक [ मिलावा ] तैल, और आढक, प्रमाण शुद्ध गुड इन को चार आढ़क विधि प्रकार तैयार किये हुए भल्लातक भूल के कषाय से यथाविधि सिद्ध करें अर्थात् अवलेह बनाये । इस प्रकार साधित : एक द्रोण इस प्रमाण औषधिको शुद्ध शरीर व शुद्ध संयमबाला सिद्ध मंदिर में पूजा करें। इस द्रोण प्रमाण उत्तम औषधि को प्रतिनित्य क्रमसे कुछ नियत प्रमाण में चाटना चाहिये । और औषधिके जीर्ण होनेपर पूर्वोक्त प्रकार के योग्य मकान में रहते हुए घृत व दूध से मिश्रित शाल्यन्नका भोजन करना चाहिये एवं हमेशा स्नान अभ्यंग ( मालिश ) लेपन आदि से शरीर का संस्कार भी करते रहना चाहिये । यह ध्यान रहे कि स्नान, अभ्यंग लेपन आदि संस्कार जिसके ऊपर किये गये हों उसे ही इस कल्पका सेवन कराना चाहिये ॥. २.६ ॥ २७ ॥ २८ ॥. भल्लातपाषाणकल्प के विशेष गुण तद्रोणं कथितौषधं सुचरितश्शुद्धात्मदेहस्वयं । लीला गूढनिवातवेश्मानि मुखं शय्यातले संवसन् ॥ नित्यं सत्यतमवतः प्रतिदिनं जैनेंद्रमंत्राक्षरो। ..... दीर्घायुबलवान जयत्यतितरां रोगेंद्रवंदं नरः ॥ २९ ॥ भावार्थः- सदाचारी, शुद्धात्मा ( कषायरहित ) व शुद्ध शरीरवाला [ वमनादि पंचकर्मोंसे शुद्ध ] गुप्त व वातरहित मकान में सुखशय्या पर प्रतिनित्य सत्य, ब्रह्मचर्यादि व्रत पूर्वक, जिनेंद्र देव के मंत्रोंको उच्चारण करते रहते हुए उपरोक्त औषधि को एक द्रोण प्रमाण सेवन करें तो वह दीर्घायु व. बलवान होता है एवं . वह बड़े से बड़े २ रोगराजों को भी जीतता है ।। २९ ॥ .. .. द्वितीयभल्लातपाषाणकल्प. भल्लातोपलचूर्णमप्यभिहितं गोक्षीरपिष्टं पुटैः। . दग्धं गोमयवन्हिना त्रिभिरिह पाक्छुद्धितः सर्वदा ॥ क्षीराज्यभुविकारमिश्रितमलं पीत्वात्र सद्भेषजै- ॥ ओर्ण चारुरसायनाहतियुतः साक्षाद्भवेदेववत् ॥ ३० ॥ १ चार सेर का एक आढक, चौसठ तोले की एक सेर; चार आढक का एक द्रोण... : २ पाव हिस्सा पानी रहे उस प्रकार सिद्ध कषाय, यह भी अधिकाथका अर्थ हो सकता है। Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके भावार्थः-भल्लात पाषाण चूर्ण को गाय के दूध के साथ घोटकर कंडों की अग्नि से तीन पुट देना चाहिये। फिर वमन विरेचन आदि से जिस का शरीर शुद हुआ है ऐसा मनुष्य उस पुटित चूर्ण को दूध घी इक्षुरिकार ( मिश्री या शकर ) व अन्य उत्तम औषध मिलाकर पीवे या सेवन करे उस के जीर्ण होनेपर रसायन गुणयुक्त भोजन (दूध भात ) करे तो वह साक्षात् देव के समान बन जाता है ॥ ३० ॥ . खर्परीकल्प. प्रोक्तं यद्विषयं फलत्रययुत प्रख्यातसत्वपरी-। पानीयं प्रपिबन् विपक्वमसकृच्छुद्धात्मदेहः पुरा ।। षण्मासादतिदुर्बलोऽपि बलवान् स्थूलस्तथा मध्यमः । स्यादन्नं वरशालिज घृतपयोमिश्रं सदाप्याहरेत् ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-प्रथम मनुष्य, वमनादिक से व कषाय आदि के निग्रह से अपने शरीर व आत्मा को शुद्धि कर के पश्चात् वह पूर्वोक्त त्रिफला रसायन के साथ श्रेष्ठ खपरी [ उपधातुविशेष को पानी के साथ पकाकर उस पानी ( क्वाथ ) को कई बार बराबर छह महीने तक पीवे तो अत्यंत दुर्बल मनुष्य भी बलवान् हो जाता है और अत्यंत स्थूल ( मोटा ) भी मध्यम [ जितना चाहिये उतना ] होता है । इसके सेवन काल में, घी दूध के साथ उत्तम चावल के भात को सदा खाना चाहिये ॥३१॥ खपरीकल्प के विशेषगुण. अब्दं तद्विहितक्रमादनुदिनं पीत्वा तु तेनैव स-1 . . स्नातंः स्निग्धसनुर्विधानविहितावासो यथोक्ताहतिः ॥ मत्यद्रस्सुरसन्निभी बलयुतस्साक्षादनंगीपमो । जीवेद्वर्षसहस्रबंधुरतरो भूत्वातिगः सर्वदा ॥ ३२ ॥ भावार्थ:-उपर्युक्त खर्पण कल्प को एक वर्ष पर्यंत पूर्वोक्त क्रम से प्रतिनित्य सेवन करे एवं उस के सेवन कालमें उसी के जल से स्नान करे, शरीर को चिकना करे [तैल मालिश करते रहे पूर्वोक्त प्रकार के मकान में निवास करे एवं आहार [घी दूध से युक्त भात ] का सेवन करे तो वह मनुष्य चक्रवर्ती व देव के समान बलवान्, व काम देव के समान, सब को अतिक्रमण करने वाला, अत्यंत मनोहर तरुणरूप के धारी होकर हजार वर्ष तक जीता है ॥ ३२॥ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पधिकारः। वज्रकल्प. बज्राण्यप्यथ वज्रलोहमखिलं वज्रोरुवंधीफलं । प्रोद्यद्वजकपालमप्यतितरं वजाख्यपाषाणकम् ॥ यद्यल्लब्धमतः प्रगृह्य विधिना दग्ध्वा तु भस्त्राग्निना । सम्यक्पाटलवीरवृक्षकृतसद्भस्माम्भसि प्रक्षिपेत् ॥ ३३ ॥ तान्यत्युष्णकुलत्थपकसलिले सप्ताभिषेकान्क्रमात । कृत्वैवं पुनराधिक पसि च प्रक्षिप्य यत्नाबुधः ॥ चूर्णीकृत्य सिताज्यमिश्रममलं ज्ञात्वात्र मात्रां स्वयं । लीद्वाहारनिवासवित्स जयति प्रख्यातरोगामरः ॥ ३४ ॥ भावार्थ-वज्र अनेक प्रकारके होते हैं । वज्र, लोह, वज्रबंध फल, वज्रकपाल, और वज्रपाषाण इस प्रकार के वज्रभेदो में से जो २ प्राप्त हो सकें संग्रह कर, विधिपूर्वक झोंकनी की तेज आग से जलावे । जब वह लाल हो जाये तो उसे पाटल व अर्जुन वृक्ष की लकड़ी के भस्म के पानी में डाले अर्थात् बुझायें। बाद में कुलथी के अत्युष्ण क्वाथसे सात वार धोयें । पुन बहुत यत्नपूर्वक दूध में उसे डालें। बाद में उस चूर्ण को घी व शक्कर के साथ मिलाकर, योग्य मात्रा में चाटे और इस के सेवन काल में पूर्वोक्त प्रकार के अ.ह.र( दूध घी के साथ चावल के भात )का सेवन | मकान में निवास करें । इस से मनुष्य प्रसिद्ध २ रोगों को जीतता है ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ वज्रकल्प का विशेषगुण. षण्मासानुपयुज्य बज्रमयसद्भेषज्यपाज्यान्वितं । जीर्णेस्मिन्वरभैषजैतपयोमिश्रान्नमप्याहृतम् ।। जीवेद्वर्षसहस्रमंबरचरैः भूत्वातिगर्वः सदा । मोद्यौवनदर्पदर्पितबल: सदनकायो नरः ॥ ३५ ॥ भावार्थ:--उपर्युक्त वजय औषधियों से युक्त बज रसायनको घी मिलाकर छह महीनेपर्यंत बराबर सेवन करे और प्रतिनित्य उसके जीर्ण होनेपर व अन्य उत्तम औषधियों १ यह क्रिया सातवार करें । २ आग से जलाकर दूध में वुझाव । यह भी सातवार करे । ३ यद्यपि " अभिषेक' का अर्थ धोना या जरु धारा डालना है। इसलिये टीका में भी यही लिखा है । लेकिन यह प्रकरण शुद्धि का होने के कारण धोने की अपेक्षा, गरम कर के बुझाना यह अर्थ करना अच्छा है। उसे क्वाथ में डुबाने से, धोने जैसा हो जाता है। अत: बुलाने का अर्थ भी अस्मिोक शम्दसे निकल सकता है। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · कल्याणकारके के साथ घृतदुग्ध मिश्रित अन्नका भोजन करें तो वह मनुष्य वज्रके समान मजबूत शरीरको धारण करता है एवं यौवन के मद से युक्त बल को धारण करके विद्याधरों के साथ भी गर्व करते हुए हजारों वर्ष जीता है ॥ ३५ ॥ मृत्तिकाकल्प. या चैवं भुवि मृत्तिका प्रतिदिनं संभक्ष्यते पक्षिभिस्तां क्षीरेण घृतेन चक्षुरससंयुक्तेन संभक्षयेत् ॥ अक्षुण्णं बलमप्यवार्यमधिकं वीर्य च नीरोगतां । ...वांछभब्दसहस्रमायुएनवद्यात्मीयवेषी नरः ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-जिस मट्टी को लोक में प्रतिदिन पक्षियां खाती हैं ( उस को संग्रह कर ) घृत, दूध इक्षुरस के साथ मिलाकर, उसे निर्दोषवेष को धारण करते हुए मनुष्य खावं तो वह कभी किसी के द्वारा नाश नहीं होनेवाले बल, अप्रतिहतवीर्य और आरोग्य को प्राप्त क ता है । और हजारों वर्ष की आयु को भी प्राप्त करता है ॥३६॥ गोश्रंग्यादि कल्प. गोश्रंगीगिरिश्रृंगजामपि गृहीत्वाशोष्य संचूर्णिता । गव्यक्षीरघृतैर्विपाच्य गुडसमिश्रः प्रभक्ष्य क्रमात् ॥ पश्चात क्षीरघृताशनोऽक्षयबलं प्राप्नोति मयस्स्वयं । निर्योऽप्यतिवीर्यमूर्जितगुणः साक्षाद्भवेनिश्चयः ।। ३७ ॥ भावार्थ:--- गोश्रमी [ बवूर ] व मिरि श्रृंगजा ( शिलाजीत ) को लेकर अच्छी तरह सुखाकर चूर्ण करें। फिर उस चूर्ण को गोक्षीर गोवृत व गुड़ मिलाकर यथाविधि पकावे अर्थात् अवलेह तैयार करें । फिर उसे क्रम खावें। बाद में दूध व घृत से युक्त अन्न का भोजन करें। इस से मनुष्य अक्षय बल को प्राप्त करता है । वीर्यरहित होनेपर भी अत्यंत वीर्य को प्राप्त करता है। एवं निश्चय ही उत्तमोत्तम गुणों से युक्त . होता है ।। ३७ ॥ एरंडादिकल्प. एरण्डामृत हस्तिकाणविलसद्वीरांघ्रिपैः पाचित । भक्ष्यान् प्रोक्तविधानतः प्रतिदिनं संभक्ष्य मंक्ष्वक्षयं ॥ वार्य प्राज्यबलं विलासविलसत् सद्यौवनं प्राप्य तत् ।। पशादायुरवायति त्रिशनमब्दानां निरुद्धामयः ॥ ३८ ॥ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पाधिकारः । ( १९७ ) भावार्थ :-- एरंड की जड, गिलोय, गजकर्णी, भिलावा, इनके द्वारा साधित भक्ष्यों ( पाक अवलेह आदि ) को पूर्वोक्त विधान से प्रतिदिन भक्षण करे तो शीघ्र ही अक्षय वीर्य, विशिष्टशक्ति, मनोहर यौवन को प्राप्तकर सम्पूर्ण रोगों से रहित होकर तीन सौ वर्ष की आयु को भी प्राप्त करता है ॥ ३८ ॥ नाग्यादिकल्प. भावार्थ:- नागी ( बंध्याकर्कोटक ) खरकर्णिका [ तालमखाना ] कूडा चिरायता, महानिम्त्र [ वकायन ] इन को इन के जड के साथ चूर्ण घर के घृत के साथ मिलाकर चाटने से अनेक उपद्रवों से युक्त बडे २ रोग, उग्रविषों को भी जीतकर अद्भुत यौवन सहित हजार वर्ष जीता है ॥ ३९ ॥ नागी सत्वरकर्णिका कुटजभूनिम्बोरुनिम्बासमू । लं संचूर्ण्य घृतेन मिश्रितमिदं लीडा सदा निर्मलः ॥ रोगेंद्रानखिलानुपद्रवयुतान् जित्वा विषाण्यप्यशे- | षाण्यत्यद्भुतयौवनस्थितवयो जीवेत्सहस्रं नरः ॥ ३९ ॥ ८८ भावार्थ :-- यहांसे आगे, क्षार, त्रिफला, चित्रकगण, सफेद असगंध, गिलोय, पुनर्नवा आदि विशिष्ट व श्रेष्ठ औषधि जो कि भयंकर रोगों को नाश करने में समर्थ हैं, असदृश हैं, जिन के फल भी प्रत्यक्ष देखे गये हैं उन के द्वारा कहे गये श्रेष्ठ क्रियाविशेषों को अर्थात् इन औषधियों के कल्पों को प्रतिपादन करेंगे ॥ ४० ॥ क्षारकल्पविधान क्षारकल्प. अत्रैवात सत्क्रियाच विधिना सम्यग्विधास्ये मनाक् 1 क्षारैः सत्त्रिफलासुचित्रकगणैः श्वेताश्वगंधामृता - ॥ वर्षाभूः प्रमुखेर्विशेषविहितैस्स द्वेषजैर्भाषितं । प्रोद्यव्याधिविनाशनैरसदृशैर्दृष्टैस्ससम्यक्फलैः ॥ ४० ॥ क्षारैरिथुर के क्षुतालितिल जापामार्गनिर्गुडिका । रंभाम्बुजचित्रचित्रकविळख्यातो रुमृष्टोद्भवैः ॥ १ स्वरकर्णिका इति पाठातरं Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके पभस्मचतुर्गुणांभासि ततः पादावशेषीकृतैः । तत्पादामल सद्गुडैः परिपचेन्नातिद्रवं फाणितम् ॥ ४१ ॥ तस्मिन्सत्रिकटुत्रिजातकघनान् संचूर्ण्य पादांशतो। दत्वा मिश्रितमेतदुक्तकृत संस्कारे घटे स्थापितं ॥ सद्धान्ये कलशं निधाय पिहितं मासोध्दृतं तं नरः । संभक्ष्याक्षयरोगवल्लभगणान् जित्वा चिरं जीवति ॥४२॥ भावार्थ:-सालमखाना, ईख, मूसली, तिलजा (तिलवासिनी शाली-तिल जिसके अंदर रहता है वह धान )चिराचिरा, सम्हालू, ला, आक, कमल, एरंडवृक्ष, चीता तिल, इन प्रसिद्ध औषधियों को जलाकर भस्म करके उसे ( भरम से.) चौगुना पानीमें घोलकर छानें । फिर उस क्षार जल को मंदाग्निसे पकाकर जब चौथाई पानी शेष रहे तो उस में [ उस पानी से ) चौथाई गुड मिलाये । फिर इतनी देरतक पकाये कि वह फोणित के समान न अधिक गाढ़ा हो और न पतला हो। पश्चात् उस में सोंठ, मिरच, पीपल, दालचीनी, इलायची, तेजपात, नागरमोथा, इनको समभाग लेकर सूक्ष्मचूर्ण करके चतुर्थांश प्रमाण में मिलावे । इस प्रकार सिद्ध औषधि को पूर्वोक्तकमसे संस्कृत घडे में भरकर, मुख को बंद कर धान्यराशि में गाढ दें। एक महीने के बाद उसे निकालकर विधिप्रकार सेवन करे तो असाध्य बडे २ रोगों को भी जीतकर चिरकाल तक जीता है ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ .. चित्रककल्प. ' शुद्धं चित्रकमूलमुक्तविधिना निष्काथ्य तस्मिन्कषा- । ये दग्ध्वा सहसा क्षिपेदमलिना सच्छर्करा शंखना-11 . भीरप्याशु विगाल्य फाणितयुतं शीतीकृतं सर्वग-। न्धद्रव्यैरपि मिश्रित सुविहितं सम्यग्घटे संस्कृते ॥४३॥ तद्धान्य निहितं समुदतमतो मासात्सुगंधं सुरू-। पं सुस्वादु समस्तरोगनिवप्रध्वंसिसौख्यास्पदं ॥ एवं चित्रकसद्रसायनवरं पीत्वा नरस्संततं । यक्ष्माण क्षपयेदनूनबलमत्यास सर्वान्गदान् ॥ ४४ ॥ १ इक्षोः रसस्तु यः पक्कः किंचिदगाढो वहुद्रयः। स एवेक्षुविकारेषु ख्यातः फाणितसंशया ॥ ईन्ख का रस को इतना पकावे कि वह थोडा गाढा हो ज्यादा पतला है। इसे फाणित कहते हैं। Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पाधिकारः। AAMANA...morwAN भावार्थ:-शुद्ध किये हुए चित्रक के मूल को काथ विधि से पकाकर काढा तयार कर के उस में शीघ्र ही निर्मल श्रेष्ठ शर्करा व शंखनाभि को जलाकर डाले और शीघ्र ही उसे छानकरके उस में फाणित मिलावे । वह ठंडा होजाने पर सम्पूर्ण गंध द्रव्यों के कल्क मिलाकर, उसे संस्कृत वडे में भरकर धान्यराशि में गांढदे । और एक महीने के बाद निकाल दे । इस प्रकार सिद्ध सुगंध, सुरूप, सुरुचि, सर्वरोग समूह को नाश करनेवाले, व सौख्यदायक इस चित्राक रसायन को विधिप्रकार हमेशा सेवन करे तो विशिष्ट बलशाली राजयक्ष्मा [ क्षय ] भयंकर बवासीर एवं सम्पूर्ण रोग भी नाश हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ त्रिफलादिकप. एवं सत्रिफलासुचित्रकगणायुक्तोरुसद्भेषजा-। न्युक्तान्युक्तकषायपाकविधिना कृत्वा निषेव्यातुरः ॥ जीवेद्वर्षशतत्रयं निखिलरोगैकप्रमाथी स्वयं । . निर्वीर्योऽप्यतिवीर्यधैर्यसहितः साक्षादनंगोपमः ॥ ४५ ॥ भावार्थः- इसी प्रकार पूर्वोक्त ( ४० वें श्लोक में कहे गये ) त्रिफला चित्रकगणोक्त आदि औषधियों को उक्त कषायपाक विधान से पकाकर [ फाणित या शक्कर, गंधद्रव्य आदि मिलाकर चित्राक कल्प के समान सिद्ध कर के ] रोगी सेवन करे तो वह मनुष्य तीन सौ वर्ष पर्यंत संपूर्ण रोगों से रहित होकर बलान होनेपर भी अयंत बलशाली होते हुए, अत्यंत धैर्यशःली व कामदेव के समान सुंदर रूप को धारण कर सुखसे जीता है ॥ ४५ ॥ - कल्प का उपसंहार. इत्येवं विविधविकल्पकल्पयोगं शास्त्रोक्तक्रमविधिना निषेव्य मर्त्यः । प्राप्नोति प्रकटबलं प्रतापमायुर्य चाप्रतिहततां निरामयत्वम् ।।४६॥ भावार्थ:-इस प्रकार अनेक भेदों से विभक्त कल्पो के योगोंको शास्त्रोक्त विधि से सेवन करे तो वह मनुष्य विशिष्टबल, तेज, आयु, वीर्य, अजेयत्व व निरोगता को प्राप्त करता है ॥ ४६॥ प्रत्यक्षप्रकटफलप्रसिद्धयोगान् सिद्धांतोष्टतनिजबुद्धिभिः प्रणीतान् । : ... बुध्यैवं विधिवदिह प्रयुज्य यमाहुयाखिलरिपवो भवंति माः ॥४७॥ १ चित्रक के जड को चूने के पानी में डालकर रखने से शुद्ध हो जाता है । Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७००) कल्याणकारके भावार्थ:-जिन के फल प्रत्यक्ष में प्रकट हैं अर्थात् अनुभूत हैं, जो दुनिया में भी प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं, और सिद्धांत के पारगामी आचार्यों द्वारा प्रतिपादित हैं ऐसे पूर्वोक्त औषधयोगों को जानकर विधि व यत्नपूर्वक जो मनुष्य उपयोग (सेवन ) करते हैं वे सम्पूर्ण वैरियों को दुर्जेय होते हैं अर्थात् विशिष्ट बलशाली होने से उन्हे कोई भी वैरी जीत नहीं सकते ॥ ४७ ॥ इति तद्धितं रसरसायनक परमौषधान्यलं । शास्त्रविहितविधिनात्र नरास्समुपेत्य नित्यमुखिनो भवंति ते ॥ . अथ चोक्तयुक्तविधिनात्र सदसद्वस्तुवैदिना सत्यमिति । किमुत संकथनीयमशेषमस्ति सततं निषेव्यताम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ:-उपर्युक्त, मनुष्यों को हितकारक रस, रसायन व विशिष्ट औषधियों को प्रतिनित्य शास्त्रोक्त विधि से सेवन करे तो मनुष्य नित्य सुखी हो जाते हैं । ( इन औषधियोंके गुणोंकी प्रमाणता के लिये ) पूर्वोक्त कथन. सब सत्य ही है असत्य नहीं है यह कहने की क्या आवश्यकता है ? असली व नकली वस्तुओंको जानने वाले बुद्धिमान् मनुष्य इन सब रसायन आदिकों को पूर्वोक्तविधि के अनुसार हमेशा ( विचारपूर्वक ) सेवन करें और देखें कि वे कैसे प्रभाव करते है ? तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्त योगों के बारे में यह गुण करता है कि नहीं ऐसी शंका करने की जरूरत नहीं है। निःशंक होकर सेवन करे । गुण अवश्य दिखेगा ॥४८॥ नगरी यथा नगरमात्मपरिकरसमस्तसाधनैः। . . रक्षति च रिपुभयारनूनां तनुमुक्तभेषजगणैस्तथामयात् ॥ इदमौषधाचरणमत्र सुकृतीजनयोग्यमन्यथा । धर्मसुखनिलयदेहगणः प्रलयं प्रयाति बहुदोषदूषितः ॥४९॥ भावार्थ:-जिस प्रकार नगर के अधिपति [ राजा ] अपनी सेना शस्त्र अब आदि समस्त साधनों से नगर को शत्रुओं के भयसे रक्षा करता है उसी प्रकार शरीर के स्वामी [ मनुष्य ] औषध समूह रूपी साधनों द्वारा रोगरूपी शत्रुओं के भयसे शरीर की रक्षा करे । यदि वह पुण्यात्मा मनुष्यों के योग्य र हांपर [ इस संहिता में ] कहे हुए औषध व आचरण का सेग्न न करके अन्यथा प्रवृत्ति करे तो धर्म व सुख के लिये आश्रयभूत यह शरीर अत्यंत कुपित दोषों से दूषित होकर नष्ट हो जायगा ॥४९॥ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पाधिकारः। (७०१) इत्येवं विविधौषधान्यलं । सत्वमतो मनुजा निषेव्य सं-॥ प्राप्नुवंति स्फुटमेव सर्वथा- । मुत्रिकं चतुष्कसत्फलोदयम् ॥ ५० ॥ भावार्थ:-इस प्रकार पूर्व प्रतिपादित नाना प्रकार के औषधियों को बुद्धिमान भनुष्य यथाविधि सेवन कर इस भव में तीन पुरुषार्थो को तो पाते ही हैं, लेकिन पर भव में भी धर्म अर्थ, काम मोक्ष को निश्चय से प्राप्त करते हैं ! तात्पर्य यह है औषधि के सेवन से शरीर आरोग्य युक्त व दृढ हो जाता है। उस स्वस्थ शरीर को पाकर वह यदि अच्छी तरह धर्म सेवन करें तो अवश्य ही परभव में पुरुषार्थ मिलेंगे अन्यथा नहीं ॥ ५० ॥ गंथकर्ता की प्रशस्ति. श्रीविष्णुराजपरमेश्वरमौलिमाला- । संलालितांघ्रियुगलः सकलागमज्ञः ॥ आलापनीयगुणसोन्नत सन्मुनीद्रः । . श्रीनंदिनंदितगुरुर्गुरुरूर्जितोऽहम् ॥ ५१ ।। भावार्थ:--महाराजा श्री विष्णुराजा के मुकुट की माला से जिन के चरण युगल सुशोभित हैं अर्थात् जिन के चरण कमल में विष्णुराज नमस्कार करता है, जो सम्पूर्ण आगम के ज्ञाता हैं, प्रशंसनीय गुणों के धारी यशस्वी श्रेष्ठ मुनियों के स्वामी हैं अर्थात् आचार्य हैं ऐसे श्रीनंदि नाम से प्रसिद्ध जो महामुनि हुए हैं वे मेरे [ उग्रादित्याचार्य के ] परम गुरु हैं । उन ही से मेरा उद्धार हुआ है ॥ ५१ ॥ तस्याज्ञया विविधभेषजदानसिध्यै । सद्वैद्यवत्सलतपः परिपूरणार्थम् ॥ शास्त्रं कृतं जिनमतोदृतमेतदुद्यत् । कल्याणकारकमिति प्रथितं धरायाम् ॥ ५२ ॥ भावार्थः-उनकी [ गुरु की ] आज्ञासे नाना प्रकार के औषध दान की सिद्धि के लिये एवं सज्जन वैद्यों के साथ वात्सल्य प्रदर्शनरूपी तप की पूर्ति के लिये जिन मत से उद्धृत और लोक में कल्याणकारक के नाम से प्रसिद्ध इस शास्त्र को मैंने बनाया॥५२॥ इत्येतदुत्तरमनुत्तरमुत्तमज्ञैः विस्तीर्णवस्तुयुतमस्तसमस्तदोषं । माग्भाषितं जिनवरैरधुना मुनींद्रोग्रादित्यपण्डितमहागुरुभिः प्रणीतम् ॥५३॥ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०२ ) कल्याणकारके भावार्थ:- इस प्रकार प्रतिपादित यह उत्तरतंत्र अत्यंत उत्तम हैं । अनेक पदार्थों के विस्तृत कथन के साथ युक्त है । संपूर्ण दोषों से रहित है । पहिले सर्वज्ञ जिनेंद्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित है [ उसीके आधारसे ] अब मुनींद्र उग्रादित्याचार्य नामके विद्वान महागुरु के द्वारा प्रणीत है ॥ ५३ ॥ सर्वाधिक मागधीयविलसद्भाषाविशेषोज्ज्वलात् । प्राणावाय महागमादवितथं संगृह्य संक्षेपतः ॥ उग्रादित्यगुरुरुर्गुरु गुणैरुद्रासि सौख्यास्पदं । शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयोः ॥ ५४ ॥ भावार्थ:-- सर्व अर्थ को प्रतिपादन करनेवाली सर्वार्धमागधी भाषा में में अत्यंत सुंदर जो है प्राणात्राय नामक महाशास्त्र ( अंग ) उस से यधावत् संक्षेप रूप से संग्रहकर उमादित्य गुरुने उत्तम गुणों से युक्त सुख के स्थानभूत इस शास्त्र को संस्कृतभाषा में रचना की है। इन दोनों में इतना ही अंतर है ॥ ५४ ॥ सालंकारं सुशब्द श्रवणसुखमथ प्रार्थितं स्वार्थविद्भिः । प्राणायुस्त्ववीर्यप्रकटवळकरं प्राणिनां स्वस्थहेतुम् ॥ निध्युद्भूतं विचारक्षममिति कुशलाः शास्त्रमेतद्यथावत् । कल्याणाख्यं जिनेंद्रैर्विरचितमधिगम्याशु सौख्यं लभते ।। ५५ ।। t भावार्थ:- यह कल्याणकारक नामक शास्त्र अनेक अलंकारों से युक्त है, सुंदर" शब्दोसे प्रथित है, सुनने के लिये सुखमय है ( श्रुतिकटु नहीं है ) कुछ स्वार्थ को जाननेवालों [ आत्मज्ञानी ] की प्रार्थना से निर्मापित है, प्राणियों के प्राण, आयु, सत्त्व वीर्य, बल को उत्पन्न करनेवाला और स्वास्थ्य के कारणभूत है । पूर्वके गणधरादि महाऋषियों द्वारा प्रतिपादित महान् शास्त्र रूपी निधि से उत्पन्न है | विचार को महनेवाला अर्थात् प्रशस्त युक्तियों से युक्त है । जिनेंद्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित है ऐसे इस शास्त्र को बुद्धिमान् मनुष्य प्राप्त कर के उस के अनुकूल प्रवृत्ति करें तो शीघ्र ही सौख्य को पाते हैं ॥ ५५ ॥ I अध्यर्धद्विसहस्रकैरपि तथाशीतित्रयैस्सोत्तरे - । वृत्तैस्सचरितैरिहाधिकमहावृजिनेंद्रोदितैः ॥ प्रोक्तं शास्त्रमिदं प्रमाणनय निक्षेपैर्विचार्यार्थिन । ज्जीयात्तद्रविचंद्रतारकमलं सौख्यास्पदं प्राणिनाम् ॥५६॥ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पाधिकारः । (७०३) भावार्थ:-श्री जिनेंद्र भगवंत के द्वारा प्रतिपादित भिन्न२ महानवृत्तों (छंदस्) के द्वारा, प्रमाण नय व निक्षेपोंका विचार कर. सार्थक रूपसे दो हजार पांचसौ तेरासी महावृत्तोंसे निर्मित, सर्व प्राणियोंको सुख प्रदान करनेवाला यह शास्त्र जबतक इस लोक में सूर्य, चंद्र व नक्षत्रा रहें तबतक बराबर अटल रहे ॥ ५६ ॥ अंतिम कथन. इति जिनवक्त्रनिर्गवसुशास्त्रमहाबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ५७ ॥ भावार्थ:- जिस में संपूर्ण द्रव्य, रुत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिस के दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रमुखसे उत्पन्न श स्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगत्का एक मात्र हितसाधक है । इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ५७ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यविरचितकल्याणकारकोत्तरतंत्रे नानाविकल्प कल्पनासिद्धये कल्पाधिकारः पंचमोऽध्यायः आदितः पंचविंशतितमः परिच्छेदः ॥ .. इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित. भावार्थदीपिका टीका में कल्पसिद्धाधिकार नामक . उत्तरतत्रामें पांचवां व आदिसे पच्चीसवां परिच्छेद समाप्त । Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०४ ) 'कल्याणकारके अथ परिशिष्टरिष्टाध्यायः मंगलाचरण व प्रतिज्ञा. अरिष्टनेमिं परमेष्ठिनं जिनं प्रणम्य भक्त्या प्रविनष्टकल्मष विशिष्टसंदिष्ट सुरिष्टलक्षणं प्रवक्ष्यते स्वस्थजनेषु भाषितम् ॥ १॥ भावार्थ::- जन्मजरामरणारहित, परमेष्ठी, सर्वकर्मों से रहित श्री नेमिनाथ तीर्थकर को भक्ति से नमस्कार कर स्वस्थ मनुष्यों में पाये जानेवाले एवं ( पूर्वाचार्यो द्वारा ) विशेष रूप से प्रतिपादित रिष्ट [ मरणसूचक चिन्ह ] लक्षणों का निरूपण किया जायगा ॥ १ ॥ रिष्टवर्णनादेश. रहस्यमेतत्परमागमागतं महामुनीनां परमार्थवेदिनां । निगद्यते रिष्टमिदं सुभावनापरात्मनामेव न मोहितात्मनाम् ॥२॥ भावार्थ:- यह रहस्य परमार्थ तत्व को जाननेवाले गणधर आदि तपोधनों के द्वारा निर्मित परमागम की परंपरा से आया हुआ है । और इन रिष्टों का प्रतिपादन सदा शुभ भावना में तत्पर सज्जनों के लिये किया गया है। न कि सांसारिकमोह में पडे हुए प्राणियों के लिये । क्यों कि उन के लिये न रिष्टों का दर्शन ही हो सकता है, और न उपयोग ही हो सकता है ॥ २ ॥ मृतिर्मृतेर्लक्षणमायुषक्षयं मृतेरुपायाहरले कथंचन । विमोहितानां मरणं महद्भयं ब्रवीमि चेत्तद्यतः कस्य नी भवेत् ॥ ३ ॥ भावार्थ:- आयु के नाश होकर इस आत्मा के गत्यंतर की जो प्राप्ति होती है उसे मरण कहते हैं । विषादिक में भी मरण के कारण विद्यमान होने से वह भी किसी अंश में मरण ही कहलाते हैं । मोहनीय कर्म से पीडित पुरुषों को मरण का भय अत्यधिक मालुम होता है । इसलिये आगे उसी बात को कहेंगे जिस से उस का भय न हो ॥ ३ ॥ वृद्धों में सदा मरणभय. अथ प्रयत्नादिह रिष्टलक्षणं सुभावितानां प्रवदे महात्मनां । कटकटीभूतवयोमकेश्वपि प्रतीत मृत्योर्भयमेव सर्वदा ॥ ४ ॥ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिष्टाधिकारः । (७५) भावार्थ:-अब आगे संसार की स्थिति को अच्छे तरह विचार करनेवाले महात्मावों के लिये बहुत प्रयत्न पूर्वक मरणसूचक चिन्हों को कहेंगे। जो अत्यधिक वृद्ध हुए हैं उनको मरणका भय सदा रहता है ॥ ४ ॥ : मृत्यु को व्यक्त करने का निषेध. 'जरारुजामृत्युभयेन भाविता भवानरेष्वप्रतिबुद्धदेहिनः ।, यतश्च ते बिभ्यति मृत्युभीतितस्ततो न तेषां मरणं वदेदिह ॥ ५॥ भावार्थ:-जो लोग बुढापा रोग, मरण इन के भय से युक्त हैं और जो भवांतरों के विषय में कुछ भी जानकार नहीं है अर्थात् संसार के रूरूप. को नहीं समझते हैं ऐसे व्यक्तियोंको ( उन में व्यक्त मरण चिन्हों से इस का अमुक समय में मरण होजायगा यह निश्चय से मालुम पड़ने पर भी) कभी भी मरण वार्ताको नहीं कहना चाहिये । क्यों कि ये लोग अपने मरण विषय को सुनकर अत्यंत भयभीत हो जाते हैं। जिससे अनेक रोग होकर मरण के अवधि के पहिले ही मरनेका भय रहता है, इतना ही नहीं पदि अत्यधिक डरपोक हो तो तत्काल भी प्राणत्याग कर सकते हैं) ॥५॥ मृत्यु को व्यक्त करने का विधान.. - चतुर्गतिवष्य नुबध्ददुखिता विभीतचित्ताः खलु सारवस्तु ते । . . . समस्तसौख्यास्पदमुक्तिकाक्षिणस्मुखेन श्रुण्वंतु निगद्यतेऽधुना॥ ६॥ भावार्थ:--जो चतुर्गतिभ्रमणस्वरूप इस संसार के दुःखों से भयभीत होकर सारभूत श्रेष्ठ व समस्त सौख्य के लिये स्थानभूत मोक्षको प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिये तो मरणवार्ता को अवश्य कहना ही चाहिये। और वे भी अपने मरणसमय के चिन्होंको खुशी से सुनें । अब आगे उसी अरिष्ट लक्षणका प्रतिपादन करेंगे ॥ ६॥ रिष्टलक्षण. यदेव सर्व विपरीतलक्षणं स्वपूर्वशीतप्रकृतिस्वभावतः । तदेव रिष्टं प्रतिपादितं जिनरतःपरं स्पष्टतरं प्रवक्ष्यते ॥ ७ ॥ भावार्थ-शरीर के वास्तविक प्रकृति व स्वभावसे बिलकुल विपरीत जो भी लक्षण प्रकट होते हैं उन्हें जिनेंद्र भगवानने रिष्ट कहा है। इसी रिष्ट का लक्षण विस्तार के साथ यहां से आगे प्रतिपादन करेंगे ॥ ७ ॥ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०६) कल्याणकारके द्विवार्षिकमरणलक्षण. यदेव चंद्रार्कसुमण्डलं महीत्रिखण्डमाखण्डलकार्मुकच्छवि । प्रभाति सच्छिद्रसमेतमेव वा स जीवतीत्थं खलु वत्सरद्वयं ॥ ८॥ भावार्थ:-जब मनुष्य को चंद्रमंडल, सूर्यमंडल पृथ्वी के तीनों खंड, इंद्रधनुष्य की प्रभा के समान पांचरंग से युक्त दिखते हों, अथवा ये छिद्रयुक्त दीखते हों, तो समझाना चाहिये कि वह दो वर्ष तक ही जीता है अर्थात् वह दो वर्ष में मरेगा ॥ ८ ॥ वार्षिकमृत्युलक्षण. यदद्धचंद्रपि च मण्डलमभां ध्रुवं च तारामथवाप्यरुन्धतीम् । मरुत्पथं चंद्रकरं दिवातपं न चैव पश्यन्नहि सोऽपि वत्सरात ॥ ९॥ भावार्थ:-जो मनुष्य अर्द्ध चंद्र में मण्डलाकार को देखता हो, और जिस को भुषतारा, अरुंधती तारा, आकाश, चंद्रकिरण व दिनमें धूप नहीं दीखते हों वह एक कर्क से अधिक जी नहीं सकता ॥ ९॥ . - एकादशमासिकमरणलक्षण. स्फुरत्पभाभासुरमिंदुमण्डलं निरस्ततेजोनिकरं दिवाकरं । य एव पश्यन्मनुजः कदाचन श्याति चैकादशमासतो दिवम् ॥ १० ॥ भावार्थ-जो मनुष्य चंद्रमण्डल को अधिक तीव्र प्रकाशयुक्त व सूर्य मण्डल को तेजोरहित अनुभव करता हो या देखता हो वह ग्यारह महीने में सर्ग को ज ता हैं अर्थात् मरण को प्राप्त करता है ॥ १० ॥ दशमासिक मरण लक्षण. प्रपश्यति छर्दिकफात्ममूत्रसत्पुरीषरतस्सुरचापसत्पमं । सुवर्णताराच्छविसुप्त एव वा प्रबुद्ध एवं दशमान्स जीवति ॥ ११ ॥ भावार्थ:-स्वप्न में या जागृत अवस्था में जो मनुष्य अपना वमन, कफ, मूत्र, मल व वीर्य को इंद्रधनुष, सुवर्ण अथवा नक्षत्र के वर्ण में देखता हो वह दस मासतक जीता है ॥ ११ ॥ __ नवमासिक मरण लक्षण. सुवर्णवृक्षं सुरलोकमागतं मृतान्पिशाचानथ वांवर पुरे । महश्य जीवैभवमासमद्भुतान् प्रलंबमानानधिकान्नताभरान्'॥ १२ ॥ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिष्टाधिकारः। (७०७) भावार्थ:-जो मनुष्य स्वर्ग से आये हुए सुवर्ण वृक्ष को देखता हो और भयंकर रूस में लटकते हुए शरीरवाले व अत्यधिक मुढे [नत ] हुए मनुष्यों को देखता हो एवं आकाश में मृत मनुष्यों को या पिशाचों को देखता हो, वह नौ महीने तक ही जाता अष्टमासिकमरणलक्षण. अकारणात्स्थूलतरो नरोऽचिरादकारणादेव कृशः स्वयं भवेत । अकारणाद्वा प्रकृतिर्विकारिणी स जीवतीहाष्टविशिष्टमासकान् ॥ १३ ॥ भावार्थ:-जो मनुष्य कारण के विना ही अतिशीघ्र अधिक स्थूल हो जावे और कारण के बिना ही स्वयं अत्यंत कृश हो जावे, और जिसकी प्रकृति कारण के बिना ही एकदम विकृत हो जाये तो वह मनुष्य आठ महीने तक ही जीता है ॥ १३ ॥ सप्तमासिक मरण लक्षण. यदग्रतो वाप्यथवापि पृष्टतः पदं सखण्डत्वमुपति कर्दमे । सपांशुलेपः स्वयमाद्र एव वा स सप्तमासानपरं स जीवति ॥१४॥ भावार्थ:-जिस मनुष्य का पैर कीचड में रखने पर उस पाद का चिन्ह आगे से या पीछे से आधा कटा हुआ सा हो जायें, पूर्ण पाद का चिन्ह न आवे, और पैर में लगा हुआ कीचड अपने आप ही [ किसी विशिष्ट कारण के बिना ही ] गीला हो रहे तो यह सात महीने के बाद नहीं जीता है ॥ १४ ॥ पाण्मासिकमरणलक्षण उलूककाकोद्धतगृध्द्रकौशिकाविशिष्टकंगोग्रसुपिंगलादयः । शिरस्यतिक्राम्य वसंति चेदबलात् स षट्सु मासेषु विनश्यति ध्रुवम्॥१५॥ भावार्थ:-उल्लू, कौआ, उदण्ड गृध्र, कौशिक, कंगु, उग्र, पिंगल आदि पक्षी जिसके शिर को उलांधकर गये हों या जबरदस्ती शिरपर आकर बैठते हों वह यह महीने में अवश्य मरण को प्राप्त करता है ॥ १५॥ पंचमासिक मरणलक्षण. स पांशुतीयेन सुपांशुनाप्यरं शिरस्यसाक्षादवमृद्यते स्वयं । सधमनीहामिहाभिवीक्ष्यते नरो विनश्यत्यथ पंचमासतः ॥ १६ ॥ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके S . भावार्थ:-धूल से मिला हुआ पानी अथवा केवल धूल से अप्रत्यक्षरूप से अपने मस्तक को मर्दन कर लेता है अर्थात् अकस्मात् उसे मालूम हुए विना ही शिर में लगा हुआ मिलता है अथवा उसे अपना मस्तक धूवों व हिम से व्याप्त हुआ सा मालूम होता है तो वह पांच महीने में मरता है ॥ १६ ॥ चतुर्थ मासिक मरण लक्षण. यदभ्रहीनेऽपि वियत्यनूनसद्विलोलविद्युत्पभया प्रपश्यति । ...... यमस्य दिग्भागगतं निरंतर प्रयात्यसौ मासचतुष्टयादिवम् ।। १७ ॥ भावार्थ:-जो, मनुष्य सदा दक्षिण दिशाके आषाश में मेघ का अस्तित्व न होनेपर भी बिजली की प्रभा के साथ, प्रंचड व चंचल आकाश को देखता है वह मनुष्य चार महीने में अवश्य स्वर्ग को चला जाता है ॥ १७ ॥ त्रैमासिकमरण लक्षण. यदा न पश्यत्यवलोक्य चात्मनस्तनुं प्रसुप्ते महिषोष्ट्रगईभान् । . "प्रवातुरारुह्य दिवा च वायसैमृतोऽपि मासत्रयमेव जीवति ॥ १८ ॥ भावार्थ:-जिसे देखने पर अपना शरीर भी नहीं दिखता हो, स्वप्न में सवारी करने की इच्छा से मैंस, ऊंट, गधा, इन पर चढ कर सवारी करते हुए नजर आवे तथा तथा दिन में कौवों के साथ मरा हुआ मालूम हॉवे तो वह तीन महिना पर्यंत ही जीयेगा ॥ १८ ॥ द्विमासिकमरणचिन्ह. सुरेंद्रचापं जलमध्यसस्थितं प्रदृश्य साक्षात् क्षणमात्रतश्चलं । . विचार्य मासद्वयजीवितःस्वयं परित्यजेदात्मपरिग्रहं बुधः ॥ १९ ॥ भावार्थ:-जिस मनुष्यको जल के बीच में साक्षात् इंद्रधनुष दीखकर क्षण भर में विलय होगया है ऐसा प्रतीत हो तो वह बुद्धिमान् मनुष्य अपना जीवन दो महीने का अवशेष जानकर सर्व पारे ग्रहों का परित्याग करें ॥ १९ ॥ मासिकमरणचिन्ह. यदालकादर्शनचंद्रभास्करप्रदीप्ततेजस्सुनरी न पश्यति । " समक्षमा प्रतिचिमन्यथा विलोकयेद्वा स च मासमात्रतः।। २०॥ .. Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिष्टाधिकारः। (७०९) १ भावार्थ:-जो मनुष्य अलका ( कुटिलकेशे ) व चंद्रसूर्य के तेज प्रकाश को भी नहीं देखता हो ( जिसे नहीं दिखता हो ) एवं समक्ष में उन के प्रतिबिंब को अन्यथा रूप से देखता हो तो समझना चाहिये कि उस का निवास केवल एक महीने का है ॥२०॥ पाक्षिकमरणचिन्ह. यदा परस्मिन्निह दृष्टिमण्डले स्वयं स्वरूपं न च पश्यति स्फुटं। प्रदीप्तगंधं च न वेत्ति यस्तत त्रिपंचरात्रेषु नरो न विद्यते ॥ २१ ॥ भावार्थ:-जिस समय जिस मनुष्य का रूप दूसरों के दृष्टिमण्डल में अन्छ.तरह नहीं दिखता हो एवं जिसे तेज वासका भी अनुभव नहीं होता हो, वह तीन वार पांच दिन से अर्थात् १५ दिनसे अधिक नहीं जी सकता है ॥२१॥ द्वादशरात्रिकमरणचिन्ह. यदा शरीर शवगंधतां वदैद कारणादेव वदंति वेदना । . प्रबुद्ध वा स्वप्नतयैव यो नरैः स जीवति द्वादशरात्रमेव वा ॥ २२ ।। भावार्थ:-जब जो मनुष्य अपने शरीर में मुर्दे के वास का अनुभव करता हो, कारण के बिना ही शरीर में पीडा बतलाता हो जागते हुए भी स्वप्नसे युक्त के समान मनुष्यों को दिख पडता हो तब से वह बारह दिन तक ही जायेगा ॥ २२ ॥ सप्तरानिकमरणचिन्ह... यदात्यचिन्होत्यबलोऽसितो भवेद्यदारविंदं समवक्त्रमण्डलम् । यदा कपाले बलकेंद्रगोपकस्स एव जीवेदिह सप्तरात्रिकं ॥ २३ ॥ भावार्थ:-जव शरीर · अकस्मात् ही निर्बल व काला पड जाता हो, सर्व साधारण के समान रहनेवाला [सामन्यरूपयुक्त ] मुख मंडल ( अकस्मात् ) कमल के समान गोल व मनोहर हो जाये, कपोल में इंद्रगोप के समान चिन्ह दिखाई दे तो समझना चाहिये कि वह सात दिन तक ही जीयेगा ॥ २३ ॥ .:: ...... त्रैरात्रिकमरणचिन्ह. . ... .. तुदं शरीरे प्रतिपीडयत्यप्यनूनमर्माणि च मारुतो यदा। तथोग्रदुश्चिकविद्धवनरस्सदैव दुःखी त्रिदिनं स जीवति ॥ २४ ॥ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१०) कल्याणकारके भावार्थ:-वात के प्रकोप से जब शरीर में सुई चुभने जैसी [भयंकर पांडा हो, मर्मस्थानों में भी अत्यंत पीडा हो, भयंकर व दुष्ट विछू से कटे हुए मनुष्य के समान अत्यधिक वेदना (दर्द) से प्रतिक्षण व्याकुलित हो तो समझना चाहिये कि ग्रह तीन दिन तक ही जीता है ॥ २४ ॥ द्विरात्रिकमरणचिन्ह. जलैस्सुशीतहिमशीतलोपमैः प्रसिच्यतो यस्य न रोमहर्षः । न वेत्ति यस्सर्वशरीरसकियां नरो न जीवविदिनात्परं सः॥ २५ ॥ भावार्थ:-बरफ के समान अत्यंत ठण्डे जल से संचन करने पर भी जिसे रोमांच नहीं होता है और जो अपने शरीर की सर्वक्रियावोंका अनुभव नहीं करता हो, वह दो दिन से अधिक जी नही सकता है ।। २५ ।। एकरात्रिकमरणचिन्ह. श्रृणोति योप्येव समुद्रघोषमप्यपांगगं ज्योतिरतिपयत्नतः । यथा न पश्येदथवा न नासिका नरश्च जीवेदिवस न चापरम् ॥ २५ ॥ भावार्थ-जिसे समुदघोष नहीं सुनाई देता हो, अत्यंत प्रयत्न करनेपर भी आंख के कोये की ज्योति घ नाक का अग्रभाग भी नहीं दिखता हो, वह एक ही दिन जाता है। इस से अधिक नहीं ॥२६॥ वैवार्षिकआदिमरणचिन्ह. पादं जंघां स्वजानूरुकटिकुक्षिगलांस्त्वलं । हस्तबाबांसवाऽगं शिरश्च क्रमतो यदा ॥ २७ ॥ न पश्येदात्मनच्छायां क्रमान्त्रिद्येकवत्सरं । मासान्दश तथा सप्तचतुरेकान्स जीवति ॥ २८ ॥ तथा पक्षाष्टसत्त्रीणि दिनान्येकाधिकान्याप। जीवेदिति नरो मत्वा त्यजेदात्मपरिग्रहम् ॥ २९ ॥ भावार्थ:-जिस मनुष्य को अपना पाद नहीं दिखें तो वह तीन वर्ष, जंघा नहीं दीखे तो दो वर्ष, जानु ( घुटना ) नहीं दीखे तो एक वर्ष, उरु ( साथल ) नहीं १ कान के छिद्रों को अंगुलियोंमे ढकनेपर जो एक जाति का शब्द सुनाई देता है उसे समुद्रघोष कहते हैं ॥ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिष्टाधिकारः। दीख पडे तो दस महीने, कटिप्रदेश नहीं दखेि तो सात महिने कुक्षि ( कूख ) नहीं दीखे तो चार महिने, और गर्दन नहीं दीखे तो एक महीना तक ही जीता है । उसी प्रकार हाथ नहीं दीखे तो पंद्रह दिन, बाहु ( भुजा ) न दीखे तो आठ दिन, अंस ( खंदे-भुजा की जोड ) नहीं दीखे तो तीन दिन, वक्षस्थल ( छाती ] शिर और अपनी छाया नहीं दिखे तो दो दिन तक जीता है, ऐसा समझ कर बुद्धिमान् मनुष्य परिग्रह का त्याग कर दे अर्थात् दीक्षा धारण करें ॥ २७ ॥ २८ ॥ नवान्हिकादिमरणचिन्ह. भ्रयुग्मं नववासरं श्रवणयोः घोषं च सप्तान्हिकं । नासा पंचदिनादिभिर्नयनयोज्योतिर्दिनानां त्रयं ॥ मिहामेकदिनं विकारति रसह्याहारातो बुद्धिमां• स्त्यक्त्वा देहमिदं त्यजेत विधिवत् संसारभीरुःपुमान् ॥ ३० ॥ भावार्थ:- दोनों भ्रूवों के विकृत होनेपर मनुष्य नौ दिन, कान में समुद्रघोष सदृश आवाज आने पर सात दिन, नाक में विकृति होनेपर पांच या चार दिन, आंखों की ज्योति में विकार होनेपर तीन दिन और रसनेंद्रिय विकृत होनेपर एक दिन जी सकता है। इस को अच्छी तरह समझ कर संसार से भीनेवाला बुद्धिमान् मनुष्य को उचित है कि वह शास्त्रोक्तविधि प्रकार देह से मोह को छोडकर शरीरका परित्याग करें । अर्थात् सल्लेखना धारण करें ।। ३० ॥ मरणका विशषलक्षण. हग्भ्रांतिस्तिमिरं दृशस्फुरणता स्वेदश्च बक्त्रे भृशं । स्थैर्य जीवसिरासु पादकरयोरत्यंतरोमोद्गमं ॥ साक्षाद्वारेमलप्रवृत्तिरपि तत्तीव्रज्वरः श्वाससं-1 रोधश्च प्रभवेन्नरस्य सहसा मृत्यूरुसल्लक्षणम् ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-- मनुष्य की दृष्टि में भ्रांति होना, आंखो में अंधेरी आना, आंखों म स्फुरण व आंसूझा अधिक रूप से बहना, मुख में विशेष पसीना आना, जीव सिराओ [ जीवनधारक रक्तवाहिनी रसवाहिनी आदि नाडीयों ] में स्थिरता उत्पन्न होना अर्थात् हलन चलन बंद हो जाना, पाद व हाथपर अत्यधिक रूप से रोम का उत्पन्न होना,मलकी अधिक प्रवृत्ति होना, तीने ज्वरसे पीडित होना, श्वास का रुक जाना, ये लक्षण अकस्मात् प्रकट हो जावें तो समझना चाहिये कि उस मनुष्य का मरण जल्दी होनेवाला है ॥३१॥ १. १०६ डिग्रीसे ऊपर ज्वर का होना. . Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१२) कल्याणकारके - रिष्टप्रकट होने पर मुमुक्षुआत्माका कर्तव्य. एवं साक्षादृष्टरिष्टो विशिष्टस्त्यक्त्वा सर्व वस्तुजालं कलत्रं । गत्वोदीची तां दिशं वा प्रतीची ज्ञात्वा सम्यग्रम्यदेश विशालम् ॥३२॥ निर्जतुके निर्मल भूमिभागे निराकुले निस्पृहतानिमित्ते। * तीर्थे जिनानामथवालये वा मनोहरे पवने वने वा ॥ ३३ ॥ विचार्य पूर्वोत्तरसद्दिशां तां भूमौ शिलायां शिकतासु वापि । विधाय तत्क्षेत्रपतेस्मुपूजामभ्यर्चयेज्जैनपदारविंदम् ।। ३४ ॥ एवं समभ्यर्च्य जिनेंद्रद्वंदं नत्वा सुदृष्टिः प्रविनष्टभीतिः। ध्यायेदथ ध्यानमपीह धर्म्य संशुक्लमात्मीयबलानुरूपम् ॥३५॥ एवं नमस्कारपदान्यनूनं विचिंतयेज्जैनगुणेकसंपत् । ममापि भूयादिति मुक्तिहेतून् समाधिमिच्छन्मनुजेषु मान्यः ॥ ३६ ॥ .. भावार्थ:-उपर्युक्त प्रकार के लक्षणोंसे युक्त रिष्टों को प्रत्यक्ष देखने पर विवेकी पुरुष को उचित है कि वह अपने वस्तु,वाहन, पुत्र, मित्र, कलत्र, बंधुजन आदि समस्त परिग्रहों को छ.ड. कर उत्तर या पूर्व दिशा में स्थित किसी विशाल व रम्य प्रदेश की ओर जावे । जहां के भूप्रदेश जीवोंसे रहित, पवित्र, संसार से .निःस्पृहता को उत्पन्न करने के लिये निमित्तभूत, एवं निराकुळ हो, ऐसे तीर्थस्थान, सुंदरजिनमंदिर, बगीचा, या जंगल में जाकर वहां पर पूर्व या उत्तर दिशा में, निर्मलभूमि, शिला या वाल् पर, बैठकर सब से पहिले उस क्षेत्रा के अधिपति ( क्षेत्रापाल) की पूजा करें। पश्चात् श्रीजिनेंद्र भगवान के चरणकमलों को भक्तिभावसे पूजन करें। इस प्रकार चौवीस तीर्थकरों की पूजा कर के और उन्हे नमःकार कर वह भय से रहित सम्यग्दृष्टि मनुष्य, अपनी शक्ति के अनुसार धर्म्य ध्यान व शुक्ल ध्यान को ध्यावे । वह मनुष्यों में श्रेष्ट समाधि मरण को चाहता हुआ, ध्यानावस्था में जिनेंद्र देव के विशिष्टगुणरूपी सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो या मुझमें प्रगट हो इत्यादि दिव्य विचार या भाव से पंचपरमेठियाक दिव्य मंत्रा (पंचनमस्कार ) का एकाग्रचित्त से स्तिवन करें। [समय निकट आनेपर सल्लेखना धारण कर के फिर ध्यानारूढ होवे ] ॥३२॥३३॥३४॥३५॥३६॥ रिष्टर्वणनका उपसंहार. उग्रादित्यमुनींद्रवाक्प्रकटितं स्वस्थेषु रिष्टं विदि-।. त्वा तत्सम्मुनयो मनस्यनुदिनं संधार्य धैर्यादिकान् ।। १ सम्प्रयावा इति पाठांतरं ।। Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिष्टाधिकारः। (७१३) संसारस्य निरूपितानपि जरा जन्मोरुमृत्युक्रमान् । देहस्याध्रुवतां विचिंत्य तपसा ज्येष्ठा भवेयुरसदा॥ भावार्थ:-इस प्रकार महामुनि उग्रादित्यःचार्यके वचन के द्वारा प्रकटित स्वस्थ पुरुषों में पाये जानेवाले मरणसूचक चिन्हों को अच्छी तरह समझकर, [२.दि चाह अपने २ शरीर में प्रगट हों तो] मुनिपुंगव, मन में धैर्य स्थैर्य आदिकों को धारण करते हुए एवं संसार का विरूपपना जन्म जरा (बुढापा) मरण इनके क्रम या स्वरूप और शरीर की अस्थिरता आदि बातों को चितवन करते हुए, हमेशा मक्षदायकतप में अप्रेसर होवें ॥ ३७॥ इति जिनबक्त्रनिर्गतमुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरगकुलाकुलतः ॥ उभयवार्थसाधनतटद्वयभामुरतो । निस्तमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ३८ ॥ भावार्थ:-जिस में संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिस के दो सुंदर तट है। ऐसे श्रीजिनेंद्रमुख से उत्पन्न शात्रसमुद्र से निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है। साथ में जगत्का एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाग कल्याण कारक है ] ॥ ३८ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृतकल्याकारणके महासंहितायामुत्तरोत्तरे [ भागे] स्वस्थारिष्टानिष्टदं महारहस्यं महामुनीनां भावनार्थ मुपदिष्टपरिशिष्टरिष्टाध्यायः ॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक महासंहिता के उत्तर नेत्र के उत्तर भाग में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में स्वस्थो में अनिष्टद अरिष्टसूचक, महामुनियोंको भावना करने के लिये उपदिष्ट, परम रहस्य को वर्णन करनेवाला परिशिष्टरिष्टाध्याय समाप्त । Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१४) कल्याणकारक . अथ हिताहिताध्यायः। इह तावदाचं वैद्य आहेतमेवेति निश्चीयते । यथा चोक्त आईतं वैद्यमाय स्याद्यतस्तत्पूर्वपक्षतः । हिताहिताय विज्ञेयं स्याद्वादस्थितिसाधनम् ॥ इह सावदिताहिताध्याये स्वपक्षस्थापन कर्तुमुद्यतः स्याद्वादवादिनामुपरि पूर्वपक्षमेवमुद्घोषयत्याचार्यः । हिताहितानि तु यद्वायोः पथ्यं तत्पित्तस्यापथ्यमित्यनेन हेतुना न किंचिद् द्रव्यमेकांततो हिताहितं वास्तीति कृत्वा केचिदाचार्या' अवंति। तन्न सम्यगिह खलु द्रव्याणि स्वभावतस्संयोगतश्चैकांतहितान्येकांताहितानि च भवति । एकांतहितानि सजातिसात्म्यत्वात् सलिलघृतदुग्धौदनप्रभृतानि । एकांताहितानि तु दहनपचनमारणादिष्वपि प्रवृत्तान्यग्निक्षारविषाणि । संयोगतश्चापराणि विषसदृशान्येव भवति । हिताहितानि तु यद्वायोः पथ्यं तपित्तस्यापथ्यं वायोश्चासिद्धमित्यतम्तु न सम्यगित्येकांतवादिना प्रतिपादितं तत्तु न सम्यकथितमिति चेदेकांतशब्दः सर्वथावाची वर्तते न कथंचिद्वाची । सर्वथाशब्दस्यायमर्थः । सर्वत्र सर्वदा सर्वप्रकारैर्हितानि द्रव्याण हितान्येव भवंति चेत्, नववरातिसारकुष्टभगंदरातिसाराक्षिरोगप्रव्रणादिनिपीडितशरीरिणामपि हिताहिताध्याय का भावानुवाद. यहांपर सबसे पहिले इस बातका निश्चय करते हैं कि आयुर्वेद में सबसे प्रथमस्थान आहेत आयुर्वेद के लिये ही मिल सकता है । कहा भी है । आहेत वैद्य [ आयुर्वेद ] ही प्रथम है । क्यों कि स्याद्वादकी स्थिति के लिये वह साधन है। और पूर्वपक्षसे हिताहितकी प्रवृत्ति निवृत्ति के लिये उपयुक्त है। __ यहांपर अपने पक्षको स्थापन करने में प्रवृत्त आचार्य पहिले स्याद्वादवादियों के प्रति पूर्वपक्षको समर्थन करते हैं । बादमें उसका निरसन करेंगे । लोकमें पदार्थीका गुणधर्म अनेकांतात्मक है । जो बात के लिये हितकर है वह पित्तके लिये अहितकर है । अतएव द्रव्य हिताहितात्मक हैं । इस हेतुसे दुनियामें कोई भी द्रव्य एकांतदृष्टिसे हित या अहितरूपमें नहीं है इस प्रकार कोई आचार्य (जैनाचार्य 1 कहते हैं । यह ठीक नहीं है। क्यों कि लोक में द्रव्य अपने स्वभाव व संयोगसे एकांत हित व अहित के रूपमें देखे जाते हैं । एकांत हितकर तो रोगके लिये प्रयोजनीभूत जल, घृत, दूध व अन्न आदि हैं । एकांत अहित जलाने, पचाने, मारने आदि में Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ हिताहिताध्यायः। सर्वथात्यंतहितान्येव भवतीत्येवमिदानी प्रणीतैरेतैरप्यातुरैरात्महितार्थिभिः सततमुपभोक्त' व्यानि स्युस्तथा क्षाराग्निशस्त्रविषाण्यप्यतिनिपुणवैद्यगणैस्तत्तत्साध्यव्याधिषु प्रयुक्तानि प्रत्यक्षतस्तत्क्षणादेव प्रवृद्धव्याध्युपशमनं कृत्वातुरमतिसुखिनमाशु विधायात्यंतहितान्येव भवतीत्येवं सर्वाणि वस्तूनि हितान्येवेति तत्सिद्धं भवति ॥ तथाचोक्तः- विषमपि विषांतकं भवत्याहेयं नहि स्पशंतं मारयति विषं स्वशक्तिमते तदपि मंगदोपयुक्तं स्थावरमंतेनेतरं मनुज ॥ _____ तथा विषोदरचिकित्सायां । परुषविषमविषनिषेवणमप्यौषधमित्युक्तं । यथाःकाकोदन्यश्वमारकगुंजामूलकल्क दापयेत् । इक्षुखंडानि वा कृष्णसर्पण दंशयित्वा भक्षयेत् । मूलजं कंदजं वा विषमासेवेत । तेनागदो भवतीति विषमपि विषोदरिणा निषेवितमविषात्मकमेवामृतमिति वातिसुखाय कल्प्यते। विषस्य विषमौषधमिति वचनात् । तथोक्तं चरके विषचिकित्सायां । जंगमं स्यादधोभागमृर्श्वभाग तु मूलजं । तस्माइंष्टिविष मौलं हंति मौलं च दंष्ट्रिनम् ॥ तथा चाग्निरप्यग्निविषौषधत्वेनोपदृष्टः । प्रवृत्त अग्नि, क्षार, विष आदि हैं। पदार्थोके संयोगसे अन्य भी पदार्थ विषसदृश होते हैं। वे भी एकांतसे अहितकारक हैं । [प्र] द्रव्य हिताहितात्मक हैं । जो वातके लिये हितकर है वह पित्तके लिये अहितकर है यह जो कहा गया है वह ठीक नहीं है, ऐसा कहोगे तो हम सवाल करते हैं कि एकांत शद्ध का क्या अर्थ है । उत्तर में एकांतवादी कहता है कि एकांतशब्द . सर्वथा वाची है । कथंचित् वाची [ किसीतरह अन्यरूप भी हो सकेगा ] नहीं है । सर्वथा शब्दका खुलासा इस प्रकार है । सर्वत्र सर्वदा सर्वप्रकारोंसे हित द्रव्य हितकारक ही होते हैं, अन्यथा नहीं हो सकते । ऐसा कहोगे तो ठीक नहीं है । क्यों कि यदि हितकारक द्रव्य एकांतसे हितकारक ही होंगे तो जो हितद्रव्य हैं उनका उपयोग नवज्वर, अतिसार, कुष्ठ, भगंदर, नेत्ररोग, व्रण आदि भयंकर रोगोमें भी हितकारक ही सिद्ध होगा। फिर अब उपर्युक्त सभी रोगियोंको अपने रोगोंके उपशमन के लिये हितद्रव्य जो उन रोगोंके लिये उपयुक्त हो चाहे अनुपयुक्त उनका उपयोग करना ही पडेगा। इसीप्रकार . क्षार, अग्नि व विषसदृश पदार्थ किसी किसी रोगको तात्कालिक उपशम करते हुए . प्रत्यक्ष देखे जानेपर सभी रोगोंके लिये अत्यंत हितावह ठहर जायेगे। क्यों कि क्षार, अग्नि, विष आदिसे भी अनेक रोग तत्क्षण साध्य देखे जाते हैं । कहा भी है । विष १ मंत्र नत्रागदापयुक्तं इति क पुस्तके । २ स्थावरमरनेतरं मनुजा इति क पुस्तके । Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके खे कृशाग्निप्रतपनं कार्यमुष्णं च भेषजम् । इति .. दहेदंशपथोत्कृत्य यत्र बंधो न शक्यते । आचूषणच्छेददाहाः सर्वत्रैव च पूजिताः ॥ तथा चैवमतिनिशितऋरशस्त्राण्यपि प्रयुक्तानि स्रावणविधावतिसुखकराणि भवेयुरिपेवमुक्तं च । लाघवं वेदनाशांतिधेिर्वेगपरिक्षयः । सम्यग्विनिमृते लिंगं प्रसादो मनसस्तथा ॥ . सुश्रुत अ. १४ श्लो. ३३ इत्येवमग्निशारशस्त्रविषाणि हिताहितान्येव सर्वथेति प्रतिपादयतः स्ववचन । विरोधदोषोऽप्यतिप्रसज्येत । तथास्तति चेत् चिकित्सा तु पुनरसर्वप्राणिनां सर्वव्याधिप्रशमनविषक्षारास्त्राग्निभिः चतुर्भिस्तथा प्रवर्तते कभिनिवर्त्यते ॥ तथा चोक्तम् । कर्मणा कश्चिदेकन द्वाभ्यां कश्चित्रिभिस्तथा । विकारस्साध्यते कश्चिच्चतुर्भिरपि कर्मभिः । भी विषांतक अर्थात् षिको नाश करनेवाला होता है। इसलिए वह सर्वथा त्याज्य नहीं है । क्यों कि उसे स्पर्श करनेवालेको यह मारता नहीं है । यदि उसे मंत्र व औषध के प्रयोगसे उपयोग किया जाय तो उससे कोई हानि नहीं है अर्थात् मरण नहीं हो सकता है। इसी प्रकारं विषोदरचिकित्सा प्रतिपादन किया गया है कि कठिन भयंकर विषोंका सेवन करना भी कभी कभी औषध होता है। जैसे काकोदनी,अश्वमारक, गुंजामूल कल्क को देने का विधान मिलता है। ईखके टुकडोंको कृष्णसर्पसे दंश कराकर भक्षण करना चाहिये । मूलज वा कंदज विषको सेवन करना चाहिये जिससे वह निरोगी होता है, इस प्रकार विनोदरी विषका भी सेवन करें तो वह अविषात्मक होकर वह अत्यंतसुख के लिये कारण होता है । शास्त्रोमें भी विषका विष ही औषध के रूप में प्रतिपादित है । चरक संहिताके विषचिकित्साप्रकरणमें कहा भी है। जंगम विषकी गति नीचेकी ओर होती है। और मूलज विषकी गति ऊपरकी ओर होती है । इस लिए दंष्ट्रिविष मूलविषका नाश करता है और मूलज विष दंष्ट्रिविषका नाश करता है । इसीप्रकार अग्नि भी अग्निविषके लिए औषधि के रूपमें उपयुक्त होती है। जहांपर घाव हो गई हो एवं बंधनक्रिया अशक्य हो, वहापर कृश अग्निसे जलाना एवं उष्ण औपनिका उपयोग करना एवं च घावको उकेर कर पुनः जलाना, आदि प्रयोग करना, Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ हिताहिताध्यायः। (७१७) योगतश्च पराणि विषसदृशान्येव भवत्येवं प्रतिपादितं, तदप्रसिद्धविरुद्धानेकांतिकं वर्तते । केषांचिन्मनुष्याणां सर्वभक्षिणामध्यशनशीलानां पित्तममांसयुतगुडमुद्गमूलकषाय । दुग्धदधिमधुघृतशीतोष्णनवपुराणातिजीर्णातितरुणातिरूक्षातिस्निग्धातितरमयुक्त.बहुभक्षणभोजनपानकाद्यनेकविधाविरुद्धाविरुद्धद्रव्यकदंबकाकारकरं बह्वाहारनिषेविणां भिक्षाशिनां भिक्षूणामतिबलायुस्तुष्टिपुष्टिजननत्वाद्विरुद्वान्यप्यविरुद्धान्येवोपलक्षायितव्यानि भवति । तथा विरुद्धाविरुद्धद्रव्यक्षेत्रकालभावतः सर्वाणि विरुद्धाविरुद्धान्येव भवति । तत् स्याद्वादवादिवैद्यशास्त्राचार्यः सुश्रुतोऽप्येवमाह ॥ सात्म्यतोऽल्पतया वाऽपि तीक्ष्णाग्नेस्तरुणस्य च । . स्निग्धव्यायामरिना विरुद्धं वितथं भवेत् ॥ .. तस्माद्वस्तूनामनेकांतात्मकत्वादाहतमेव वैद्यमिति निश्चीयते । तथा चैवमाह, केषांचिदेकांतवादिनां पृथग्दर्शिनां द्रव्यरसवीर्यविपाकस्त्रिधा विपाको द्रव्यस्य स्वाद्वाम्टकटुकात्मकः प्रत्येकमन्यवादिनां मतमत्यंत दूषणास्पदं वर्तते इति । किंतु द्रव्यं, रसायस्निग्धं तीक्ष्णं पिच्छिलं रूक्षमुष्णं शीतं वैशयं मृदुत्वं च वीर्यविपाकेभ्यो भिन्नं वा स्यादभिन्नं वा । यदि भिन्नं स्यात् गोविषाणवत् पृथग्दृश्येतेति । यद्यभिन्नमेकमेव स्यादिंद्रशक्रपुरंदरवत् । चाहिये । घावके विषको चूसकर निकालना, छेदन करना, जलाना ये क्रियायें विषचिकित्सामें सर्वत्र उपयोगी हैं। इसीप्रकार अत्यंत तीक्ष्ण शस्त्रोंका भी प्रयोग विष ( रक्त ) स्रावण विधानमें अत्यंत सुखकर हो सकता है। कहा भी है। शरीर में हलकेपनेका अनुभव होना, रोगका वेग कम होना, मनकी प्रसन्नता ये अछीतरह रक्त विस्रावण होनेके लक्षण हैं । इसप्रकार अग्नि, विष, क्षार आदिको जो सर्वथा हितकारक या सर्वथा अहितकारक ही बतलाता है उसे स्ववचनविरोधदोषका भी प्रसंग आसकता है । उसीप्रकार यदि माना जाय तो चिकित्साविधिमें सर्व प्राणियों को संपूर्ण रोगोंको प्रशमन शरनेके लिए विष, क्षार, अस्त्र और अग्नि कर्मका जो प्रयोग बतलाया गया है उसका विरोध होगा। कहा भी है कि कोई रोग एक कर्मसे चिकित्सित होता है, कोई दो कोसे और कोई तीन कर्मोंसे एवं कोई २ विकार चारों ही कर्मों [ विष,क्षार, अग्नि अत्र ] से साध्य होते हैं। इसलिये एकांतरूप से किसी एकका आश्रय करना उचित नहीं है। इसी प्रकार संयोगसे अन्य पदार्थ भी विषसदृश ही होते हैं ऐसा जो कहा है यह असिद्ध विरुद्ध और अनेकांतिक दोषसे दूषित है। कोई २ मनुष्य सब कुछ खानेवाले, १ दीप्ताग्ने इति मुद्रितपुस्तके. सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान अ. २१ ला २२ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके द्रव्यरसवीर्यविपाकशद्वाः पर्यायशब्दास्युस्तस्माद्रव्यरसवीर्यविपाकात्मकं वस्तुतत्त्वात्तेषां कथंचिद्भेदाभेदस्वरूपनिरूपणक्रमेण बहुवक्तव्यमस्तीति प्रपंचमुपसंहृत्य दृष्टेष्टप्रमाणाभ्यामविरुद्धात्मद्रव्यक्षेत्राकालभावचतुष्टयसन्निधानादस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वैकत्वानेकत्यवक्तव्यावक्तव्याद्यात्मकसापेक्षस्वभावद्रव्यरसवीर्यविपाकस्वरूपनिरूपणतः स्याद्वादमेवावलंबनं कृत्वा वैद्यशास्त्राचार्यः सुश्रुतोऽप्येवमाह ॥ पृथक्त्वदर्शिनामेष वादिना वादसंग्रहः । चतुर्णामपि सामग्यमिच्छंत्यत्र विपश्चितः ।। तव्यमात्मना किंचित् किंचिद्वीर्येण संयुतम् । किंचिद्रसविपाकाभ्यां दोषं हंति करोति वा ॥ पाको नास्ति विना वीर्याद्वीर्य नास्ति विना रसात् । रसो नास्ति विना द्रव्याद्रव्यं श्रेष्ठतमं स्मृतम् ॥ जन्म तु द्रव्यगुण[रस योरन्योन्यापेक्षिकं स्मृतम् । . अन्योन्यापेक्षिकं जन्म यथा स्याहदेहिनोः ॥ वीर्यसंज्ञा गुणा येऽष्टौ तेऽपि द्रव्याश्रयाः स्मृताः। बारबार खानेवाले, पित्तकर [ मांसरहित ] गुड, मूंगका कपाय, दूध, दही, मधु, घृत, ठंडा, गरम, ताजे बासे रूक्ष स्निग्ध आदि अनेक प्रकारके विरुद्ध बहुतसे आहारोंको ग्रहण करनेवाले सन्यासियोंको वह संयोगजन्य आहार होनेपर भी तुष्टि पुष्टि आयुबलकी वृद्धिहेतुक देखा जाता है । एवं विरुद्ध होनेपर भी अविरुद्ध देखे जाते हैं । अर्थात् ऐसे संयुक्त आहारोंको ग्रहण करने पर भी वे भिक्षुक साधु हृष्ट पुष्ट देखे जाते हैं । इसलिए द्रव्य, क्षेत्र काल, भावके बलसे सर्व पदार्थ विरुद्ध होने पर भी अविरुद्ध होते हैं। अत एव स्याद्वादवादि वैद्य सुश्रुताचार्य भी इस प्रकार कहते हैं कि यद्यपि विरुद्ध पदार्थीका भक्षण करना अपायकारक है । तथापि उन पदार्थोंको खानेका अभ्यास नित्य करने से, अल्प प्रमाणमें खानेसे, जठराग्नि अत्यधिक प्रदीप्त रहनेपर, खानेवाला तरुण व स्वस्थ रहनेपर स्निग्ध पदार्थों के भक्षण के साथ कसरत करने वाले होनेपर, विरुद्ध पदार्थो के खाने पर भी अविरुद्ध ही होते हैं अर्थात् उन पदार्थों से कोई हानि नहीं होती। इसलिए पदार्थोमें अनेकांतात्मक धर्म रहते हैं। अतएव जैन शासनमें प्रतिपादित आयुर्वेद ही सर्व प्राणियोके लिए श्रेयरकर है इस प्रकार निश्चय किया जाता है। २ सुश्रुतसंहिता स्त्रस्थान अ-४१ श्लो. १३.१४-१५-१६:१७ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ हिताहिताध्यायः। ............................... रसेषु न भवन्त्येते निर्गुणास्तु गुणाःस्मृताः । . १ द्रव्याव्यं तु यस्माच्च विधौ वीर्य तु षड्रसाः । द्रव्यं श्रेष्ठमतो ज्ञेयं शेषा भावास्तदाश्रयाः ॥ .... इत्येवमाद्यनेकश्लोकसमूहस्य सकाशे पदेशकाशेषविशेषद्रव्यगुणात्मकवस्तुस्वरूपनिरूपणं स्याद्वादवादमेवश्रित्य स्वशास्त्रं स्वयमभिमतस्याद्वादस्थितिरेव तावत्। नानाचार्यः । तस्माग्जिनेंद्रप्रणीतप्रमाणत उक्तं तस्मात्तदभिमतदुर्मतैकांतवादं परित्यज्य विवक्षितस्वरूपानेकधर्माधिष्ठितानेकवस्तुतत्वप्रतिपादनपरं प्राणावायमहागमांभोनिधेरंभोनिधलक्ष्मीरिव सकललोकहिताद्वैद्यांनबद्यविद्यानिर्गतिविद्याद्वेधैरप्यद्यापि सद्योमुदितहृदयैरत्यादराद्गृह्यते ॥ ततो जिन रतिमुखकमल विनिर्गतपरमागमत्वादतिकरुणात्मकत्वात्सर्वजीवदयापरत्वादिति केचिज्जलूकाबसाधने कदंबकात्रिवर्णाष्टदशांगुलशारिकानामजलूकासह्यपदास्वस्थेति तिर्यग्यनुष्यसंसाराणां चिकित्सा विधायित्वात्तथा वैधेनाप्येवंविधन सुमनसा कल्याणाभिव्यवहारेण बंधुभूतेन भूतानां सहायवतो विशिखानुचकितयोतिवैद्याचार निरूपणचिकित्साभिधानेपि सत्यधर्मपरेण प्रमोद कारुण्यपि क्षमालक्षणप्रज्ञाज्ञान विज्ञानाद्यमेकगुणगणोपेतेन वैद्येन पुरुषविशेषापेक्षाक्षत यथार्ह प्रतिपत्तिक्रियायां चिकित्सा विधीयते इति तत्कथं क्रियते इति चेत् । इसी प्रकार कोई एकांतवादी द्रव्य रस वीर्य विपाकको पृथक्त्वरूपसे स्वादु, अम्ल व कटुक रूपसे स्वीकार करते हैं, यह अत्यंत दूषणास्पद है । ऐसी हालतमें द्रव्यरस एवं वीर्यरूप स्निग्ध तीदण, पिछिल, मृदुत्व, रूक्ष, उष्ण, शीत, निर्मलता ये वीर्य विपाकसे भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि भिन्न हो तो गोविषाणके समान पृथक् देखनेमें आवेंगे। यदि अभिन्न हो तो ये सब इंद्र शक पुरंदरादि शब्दोंके समान एक ही पदार्थ के पर्यायवाची शब्द्ध ठहर जायेंगे । इसलिये द्रव्य रस वीर्य विपाकात्मक ही वस्तुतत्व होनेसे एवं उनके द्रव्यसे कथंचित् भेदाभेद स्वरूप होनेसे, उनका निरूपण अत्यंत विस्तृत है। अतएव उसे यहांपर उपसंहार कर इतना ही कहा जाता है कि प्रत्यक्षानुमान प्रमाणसे अविरुद्ध रूपसे रहनेवाले, द्रव्य, क्षेत्र काल, भावके सान्निध्यसे, पदार्थोमें अस्तित्व नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्वानेकत्व, वक्तव्यावक्तव्यादि परस्परविरुद्ध अपितु सापेक्ष स्वरूपके अनंत धर्म रहते हैं। उसीप्रकार द्रव्यरस विर्यविपाकादि भी अविरोधरूपसे-रहते हैं । इसी स्याद्वादवादको अवलंबन कर वैधशास्त्राचार्य सुश्रुत भी कहते हैं। उपर प्रति गदित द्रव्यरस वीर्यविपाक का पृथक्त इन में भिन्नता माननेवाले एकांतवादियों का मत है । परंतु जो वस्तुतत्व के रहस्यज्ञ विद्वान् हैं वे किसी १ व्ये द्रव्याणि यस्माद्ध विपच्यते न षड्रसाः ॥ इति मुद्रितसुश्रुतसहिताम् ।। Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२० ) . कल्याणकारके दया च सर्वभूतेषु मुदिता व्रतधारिषु । कारुण्यं क्लिश्यमानेषु चौपेक्षा निर्दये शठे ॥ इति प्रवचनभाषितत्वादेवमेतस्मिन्वैद्यशास्त्रे बहुजीवववनिमित्तमधुमद्यमांसादिकइमलाहारनिषेत्रणमशेषदोष कोपनमतिपापहेतुकमखिलव्याधिप्रवृद्धिनिमित्त पशुपतिबृहस्पतिगौतमा ग्निवेश्यहस्तचारिवाद्वलिराजपुत्रगार्यभागवभारध्वजपालकाप्यविशालकौशिकपुत्रवदर्यनरनारदकुंभदत्तविभांडकहिरण्याक्षकपाराशरकौंडियकाथायिन तित्तिरतैतिल्यमांडव्याशबिशिबाबहुपत्रारमेदकाश्यपयज्ञवल्कमृगशमशाबायनत्रम्हप्रजापत्याश्वानसुरेंद्रधन्वंतरिप्रभृतिभिराप्तरैशेषमहामुनिगणैरन्यैरति निंद्यमभक्ष्यमतिदुस्सहदुर्गतिहेतुरितिदूरादेव निराकृतमिदानीमपिसर्वदा सर्वेरेव समयिभिःसत्पुरुषैरन्यैरति कुशलयद्यैश्च पारत्यक्तं कथमुपयुज्यते । अथवेतैरपि ब्रह्मादिभिराप्तरशेषमुनिगणश्च तन्मधुमद्यमांसार्दिकं भक्ष्यते इति चेत् कथं ते भवत्याता मुनयश्च । यदि ते न भक्षयंती तिचेत् कथं स्वयमभक्षयंतो दुर्द्धरनरकपतनजनकमतिनिष्करणमन्येषां पिशितभक्षणं प्रतिपादयंति इत्यतिमहाश्चर्यमेतत्तथापिप्रतिपादयन्त्येवेति चेदनाप्ता भवत्यनागमश्च स्याद्वैद्य शास्त्रं । तथा चोक्तम् ।। आगमो ह्याप्तवचनमा दोषक्षये विदुः । क्षीणदोषोऽनृतं वाक्यं न यादोषसंभवम् ॥ एक को प्राधान्य नहीं देकर चारों के समुदाय को ही प्राधान्य देते हैं। क्यों कि वह उपयुक्त द्रव्य कही २अपने स्वभावसे दोषोंको हरण करता है या उत्पन्न करता है, कहीं २ वीर्यसे युक्त होकर दोषोंको नाश करता है या उत्पन्न करता है। कहीं कहीं विपाकसे युक्त होकर दोषोंको दूर करता है या उत्पन्न करता है । इसके अलावा द्रव्यमें वीर्यके विना विपाक नहीं हुआ करता है, एवं रसके आश्रयके बिना वीर्यभी नहीं हुआ करता है । रस । गुण ] द्रव्यके आश्रयको छोडकर नहीं रह सकता। इस लिए द्रव्य ही सबसे श्रेष्ठ है। जिसप्रकार देह क, आत्माकी उत्पत्ति परस्पर सापेक्षिक है उसी प्रकार द्रव्य की गुणकी उत्पत्ति भी परस्पर सापेक्षिक है । वीर्य के रूप में प्रतिपादित स्निग्धत्व आदि जो आठ गुण हैं वे भी दव्य के ही आश्रित हैं। क्यों कि ये गुण रसो में अर्थात् गुणों में नहीं हुआ करते । उदाहरणार्थशक्कर का गुण मधुरत्व है । उस मधुरत्व गुण में कोई और गुण नहीं हुआ करता है। क्यों कि वह स्वतः एक गुण है । अतएव आगम में गुणों को निर्गुण के रूप में प्रतिपादन किया है । गुणवीर्य आदिक छह रस वगैरे सभी द्रव्य में ही रहते हैं। इसलिए द्रव्य ही सबमें श्रेष्ठ है, बाकीके सभी धर्म उसीके आश्रयमें रहते Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ हिताहिताध्यायः । ( ७२१ ) तथाचैवमुक्ता ह्याप्तगुणाः । ज्ञानममहतं तस्य वैराग्यं च जगत्पतेः । सदैश्वये च धर्मश्च सहसिद्धं चतुष्टयं ।। इति हैं, इत्यादि अनेक श्लोकोंके कथनसे संपूर्ण पदार्थ द्रव्यगुणात्मक सिद्ध होते हैं, यह कथन स्याद्वादवादका आश्रय करके ही श्रीसुश्रुताचार्य ने अपने ग्रंथमें किया है। इसलिए स्याद्वादकी स्थिति ही उनको भी मान्य है यह निश्चित हुआ । इसलिए जिनेंद्रशासनमें प्रतिपादित तत्वोंको स्वीकारकर अन्योंके द्वारा प्रतिपादित एकांततत्वको त्यागकर विवक्षित अविवक्षित [ मुख्य गौण ] स्वरूप अनेक धर्मोंके. धारक ऐसे अनेक वस्तुवोंके प्रतिपादक प्राणावाय महागमरूपी समुद्रसे, निकली हुई लक्ष्मीके समान, संपूर्ण लोकके लिए हितकारक ऐसे लोकबंधु निर्दोषी वैद्यकी ओर से यह अनवद्यविद्या निकली है। अतएव आज भी वैद्यगण बहुत प्रसन्नताके साथ इसे अत्यादर से ग्रहण करते हैं। . इसलिये यह जिनेंद्रके मुखकमल से निकला हुआ परमागम होनेसे, अतिकरुणा स्वरूपक होनेसे, सर्व जीवोंके प्रति दयापर होनेसे कोई कोई वैद्य जलौंक वगैरह लगाकर जो चिकित्सा करते हैं उसकी अपेक्षा जहांतक हो कदंब त्रिवर्णदशांगुलशारिका प्रयोगसे अजलूक चिकित्सा तिर्यंच व मनुष्योंकी करनेका प्रयत्न करें । क्यों कि वैद्य का धर्म है कि वह कोमल मनवाला हो, दूसरोंके लिए हितका व्यवहार करें, सबके साथ बंधुत्वका व्यवहार करें, प्राणियोंका सहायक बनें, और सर्व प्राणियोंको हितकामना से वैद्याचारको निरूपण करते हुए सत्यधर्मनिष्ठ, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ एवं क्षमा स्वरूप प्रज्ञा ज्ञान विज्ञान आदि अनेक गुणों से युक्त होकर पुरुषविशेषकी अपेक्षा से आगमानुसार चिकित्सा करें। वह क्यों ? इस के उत्तर में कहा जाता है कि सर्व प्राणियो में दया करना, व्रतधारियो में संतोषवृत्ति को धारण करना, दीन व दुःखी प्राणियो में करुणा बुद्धिको धारण करना एवं निर्दय दुर्जनो में उपेक्षा या माध्यस्य वृत्तिको रखना सजन मनुष्योंका धर्म है । इस प्रकार आगम का कथन होने से इस आयुर्वेद शास्त्र में भी बहुत से जीवों के नाश के लिए कारणीभूत ऐसे मधुमद्यमांसादि कश्मल आहारों का ग्रहण करना अनेक दोषों के प्रकोपके लिये कारण है एवं समस्त व्याधियों की वृद्धिके लिए निमित्त है । अतएव पशुपति, बृहस्पति, गौतम, अग्निवेश्य, हस्तचारि, वाब्दलि, राजपुत्र, गाय, भार्गव, भारध्वज, पालकाप्य, विशाल, कौशिकपुत्र वैदर्य, नर, नारद, कुंभदत्त, विभांडक, हिरण्याक्षक, पाराशर, कौडिन्य, काथायिन, Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२२ ) कल्याणकारके तथा चैवं सनातनधर्माणामप्युक्तं स्वरूपम् । अहिंसासत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य विमुक्तता। सनातनस्य धर्मस्य मूलमंते दुरासदाः ॥ धर्माचार्येश्वरमते इति चरणेप्युक्तम् । रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तास्तपोज्ञानबलेन ये । येषां त्रिकालममल ज्ञानमव्याहतं सदा ॥ कपिलमुनिवाक्यमेतत् । आप्ताः शिष्टविबुद्धास्ते तेषां वाक्यमसंशयम् । सत्यं वक्ष्यंति ते कस्मात्रीरुजोऽतमसोऽनृतम् ॥ तित्तिर, तैतिल्य, माण्डव्य, शिबि, शिबा, बहुपत्र, अरिमेद, काश्यप, यज्ञवल्क, मृगशर्म, शाबायन, ब्रह्म, प्रजापति, अश्विनि, सुरेंद्र, धन्वंतरि आदि ऋषियोने एवं अन्य मुनियोने अतिनिद्य, अभक्ष्य, दुस्सह एवं दुर्गतिहेतुक मद्यमधुमांस को दूर से ही निराकरण किया है । इस समय भी हमेशा सर्व शास्त्रकार व सजनोंके द्वारा एवं अतिकुशल वैद्योंके द्वारा वह त्यक्त होता है, फिर ऐसे निंद्य पदार्थों का ग्रहण किस प्रकार किया जाता है ? अथवा इन ब्रह्मादिक आत व मुनिगणों के द्वारा ये मद्यमधुमांसादिक भक्षण किये जाते हैं तो ये आप्त व. मुनि किस प्रकार हो सकते हैं ? यदि वे भक्षण नहीं करते हों तो स्वयं भक्षण न करते हुए दूसरोंको नरकपतन के निमित्तभूत, निष्करुण ऐसे मांसभक्षण का उपदेश कैसे देते हैं ? यह परमाश्चर्य की बात है। फिर भी वे मांस भक्षण के लिए उपदेश देते ही हैं ऐसा कहें तो वे आप्त कभी नहीं बन सकते हैं एवं मुनि भी नहीं बन सकते हैं । एवं वह वैद्यशास्त्र आगम भी नहीं हो सकता है । कहा भी है: आगम तो आप्तका वचन है। दोषोंका जिन्होंने सर्वथा नाश किया है उसे आप्त कहते हैं । जिनके दोषोंका अंत हुआ है वे कभी दोषपूर्ण असत्यवचनको नहीं बोल सकते हैं। - इसी प्रकार आप्त के गुण निम्नलिखित प्रकार कहे गये हैं। उस जगत्पति परमात्मा का अक्षय ज्ञान, वैराग्य, स्थिर ऐश्वर्य, एवं धर्म ये चार गुण उसके साथ ही उत्पन्न होनेवाले हैं। - इसी प्रकार सनातनधर्म का स्वरूप भी कहा गया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय,ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ये अत्यंत कठिनतासे प्राप्त करने योग्य हैं एवं सनतान धर्मके ये मूल हैं । धर्माचार्य ईश्वर के मत में इस प्रकार कहा है । रज व तमसे जो निर्मुक्त हैं, जो अपने तप व ज्ञान के बल से संयुक्त हैं, जिनका ज्ञान त्रिकाल संबंधी विषयों को ग्रहण करता है, जो निर्मल व अक्षय हैं वे आप्त कहलाते हैं । .. . .. @ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ हिताहिताध्यायः । ( ७२३ ) एवं वैद्यशास्त्र तु पुनराप्तोपदिष्टमेव आगभमिव । अतींद्रियपदार्थविषयत्वात्, वैद्यशास्त्रमदृष्टं प्रमाणमिति वचनात् । तथा चैवं शास्त्रं प्रमाणं पुरुषप्रमाणात् । तेऽपि प्रमाणं प्रवदंत्येतद् । आचार्य आह पुनर्द्वितीयो धर्मस्तथा निर्धार्यते इति प्रमाणं । तस्माद्वैद्यं नामात्मकर्मकृतमहान्याधिनिर्मूलकरणप्रायश्चित्तनिमित्तमनुष्ठितं धर्मशास्त्रमेतत् । तथा चयम् । बाह्याभ्यंतर क्रियाविशेषविशुद्धात्मनामुपशमप्रधानोपवासैरस मैथुनविरामरसपरित्यागखलयूषयवागूष्णोदककटुकतिक्तकषायाम्लक्षाराक्षमात्रनिषेवणमनोवाक्कायनिरोधस्नेहच्छेदनादिक्रियामहा कायक्लेशयुतव्रतचर्यादिधर्मोपदेशात् । उक्तं हि स्निग्धस्विन्नवांत विरिक्तानुवासितास्थापितशिरोविरिक्तशिराचिद्वैर्मनुष्यैः परिहर्तव्यानि क्रोधायासशोक मैथुम दिवास्वप्नवै भाषणयानारोहण चिरास्थान चंक्रमणशतिवातातपविरुद्धाध्यशनासात्म्याजीर्णान्यपि लप्यते । वासमेकं विस्तरमुपरिष्टाद्वक्ष्याम इति वचनात् । कपिल मुनि का वचन इसप्रकार है । आप्तं शिष्ट व ज्ञानी होते हैं । उनका वचन संशयरहित हुआ करता है । वे सदा सत्यवचन ही बोलते हैं। क्यों कि निरोगी व अज्ञानरहित होनेसे वे असत्य नहीं बोल सकते हैं । 1 इस प्रकार यह वैद्यशास्त्र तो आप्तोपदिष्ट है । अत एव वह आगम है । एवं उसे अतींद्रिय पदार्थों के विषय होने के कारण अदृष्टप्रमाणके नाम से कहा गया है । इसलिये यह शास्त्र प्रमाण है, ( हेतु ) उस के कथन करनेवाले पुरुष [ आप्त ] प्रमाण होने से । वे भी इसे प्रमाण के रूप से कहते हैं । दूसरी बात यह वैद्यशास्त्र द्वितीय धर्मशास्त्र ही है । अतएव प्रमाणभूत है । इसलिये यह आयुर्वेदशास्त्र अपने पूर्वोपात्तकर्मों से उत्पन्न महाव्याधियोंको निर्मूलन करने के लिये प्रायश्चित्तके रूप . में आचरित धर्मशास्त्र है । कहा भी है । बाह्यभ्यंतरक्रियाविशेषों से अपनी आत्माको शुद्ध करना, मंदकषायप्रधानी होकर उपवास करना, मैथुनविरति, रसपरित्याग, खल, यूत्र, यवागू, उष्णोदक, कटु, तिक्त, कषाय, आम्ल, मधुरका आक्षमात्र सेवन, मन वचन काय का निरोध, स्नेह, छेदनादि क्रिया, महा कायक्लेशकर व्रतचर्यादि के आचरण करने का उपदेश इस शास्त्र में दिया गया है । यही धर्मोपदेश है । ऐसा भी वहा है कि जिन के शरीरपर स्निग्धक्रिया, खदेनक्रिया, विरेचन, अनुवासन, आस्थापन, शिरोविरेचन, शिराविद्धन आदि क्रियाओं का प्रयोग किया गया हो उन को चाहिये कि वे कोच, श्रम, शोक, मैथुन, दिवसशयन, अधिक बोलना, वाहनारोहण, बहुत देरतक एक स्थान में बैठे रहना, अधिक चलना, शीत का सेवन, अधिक धूपका सेवन, विरुद्ध भोजन, बार २ भोजन, लिये अननुकूल भोजन, अजीर्ण आदि का वे शररिके Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२४ ) कल्याणकारके तथा कृत्याविषादिरक्षःक्रोधं धर्मादुवंसते जानपदा इति महोपसर्गनिवारणार्थं शांति प्रायश्चित्तमंगल जाप्योपहारदयादानपरैर्भवितव्यामति वचनात्। तथा चरकेऽप्यहिंसा प्राणिनां माणसंवर्द्धना नामेति वचनात् । पैतामहेप्येवमुक्तम् । काले व्यायामः सर्पिषश्चैव पानं मोक्षवेनान्मरणं च स्थितानां भोज्यमात्रावपि शलास्वप्नसेवा भूतेष्वद्रोहश्वायुषो गुप्तिरग्या । तथा चैवं, सर्वाः क्रियास्वार्था, जीवानां न च मुखं विना धर्मात इति सुखकामैः प्राज्ञैः पुरैव धर्मो भवति कार्यः ॥ इति प्राज्ञभाषितत्वात् ॥ एवं हि शास्त्रोपोद्घाताच्छ्यते ॥ अवंतिषु तोपेंद्रपृषद्वान्नाम भूपतिः ।। विनयं समतिक्रम्य गोश्चकार वृथा वधम् ॥ ततोऽविनय दुर्भूत एतस्मिन्विहते तथा । विवस्त्रांश्च सुखे दिव्याभिभूतैस्समबाह्यतः ।। परित्याग करें । एवं एक ही स्थानमें रहना भी आवश्यक है इत्यादि विस्तार से आगे जाकर कहेंगे इस प्रकार ( अन्यत्र ) कहा है । इसी प्रकार कृत्या, विषोद्रिक्त, वराक्षसोत्थ क्रोध को प्रजाजन धर्म से नाश करते हैं एवं ऐसे क्रोधसे लोकमें महोपसर्ग उत्पन्न होते हैं। उन के निवारणके लिये शांति, प्रायश्चित्त, मंगलजप, उपहार, दयादान आदि शुभ प्रवृत्तियां करनी चाहिये । इसी प्रकार चरक में भी कहा है कि प्राणियों के प्राण के संवर्द्धन करने से यथार्थ अहिंसा होता है। पैतामह में भी कहा है। यथाकाल व्यायाम करना घृतपान,..... ........सर्व प्राणियोंके प्रति अद्रोह, ये सब आगेके आयुष्यको संरक्षण करने के लिए कारण होते हैं । इसीप्रकार प्राणियोंकी सर्व क्रियारूपप्रवृत्ति सुख के लिए हुआ करती हैं । सुख तो धर्म के विना कभी प्राप्त नहीं होसकता है। अतएव सुख चाहनेवाले बुद्धिमानों को सब से पहिले धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये । इसप्रकार विद्वानोने कहा है एवं आगमो में भी उसी प्रकार का कथन है। उजयिनी में पृषद्वान नामका राजा था जिसने कि विनय को उल्लंघन कर व्यर्थ ही मोवध किया । तदनंतर बद्द अविनयभूत होकर वह जब यहां से च्युत होगया तो स्वर्ग में सूर्य होकर उत्पन्न हुआ। व. अनेक सुखो में मग्न हुआ । उस के बाद उस १ यह श्लोक ओक प्रतियों को देखने पर भी अत्यधिक अशुद्ध ही मिला है । Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ हिताहिताध्यायः । उच्चचार ततोऽन्वक्षं सुकूरोऽवगमानुषे । इतः प्रभृति भूतानि हव्यन्तेऽक्षसुखादिति इमं हि क्रूरकर्माणमात्यजन्तोऽन्वहं नरः । आय प्राप्स्यन्ति दोषत्वं दोषजं चात्मनः क्षयम् ॥ ततो रोगाः प्रजायंते जन्तूनां दोषसंभवाः । उपसर्ग वर्धते नानाव्यंजन वेदनाः ॥ ततस्तु भगवान्वृद्धो दिवोदासो महायशाः । चिन्तयामास प्राणानां शान्त्यर्थे शास्त्रमुत्तमम् ॥ एवं शांतिकर्म कुर्वन्कचिद्भूतवेतालकृत्यादिकं समुत्थापयतीत्येवं वधनिमित्तजातानां रोगाणां कथं वधजनितं मांस प्रशमनकरं, तत्समानत्वात् । तस्य कृतकर्मजातानां जंतूनां व्याधीनां च स्वयमतिपाप निष्ठुरवधहेतुकं मांसं कथं तदुपशमनार्थं योयुज्यते । तथा चरकेयुक्तम् 4 ( ७२५ ) कर्मजस्तु भवेज्जंतुः कर्मजास्तस्य चामयाः बहते कर्मणा जन्म व्याधीनां पुरुषस्य च । इति क्रूरने नीच क्रियाप्रिय मनुष्यो में प्रत्यक्ष रूप से हिंसा का प्रचार किया । उसके बाद इस भूमंडलपर लोग इंद्रिय सुखोंकी इच्छा से यज्ञ में पशु वगैरह की आहुति देते हैं । इस क्रूर कर्म को जो मनुष्य छोड़ते नहीं हैं उनको अनेक दोष प्राप्त होते हैं । दोषों से आत्मा का नाश होता हैं । आत्मा के गुणों के या पुण्य कर्म के अभाव में अनेक रोग जो कि अनेक प्रकार की पीडा से युक्त है प्राप्त होते हैं, ये रोग प्राणियों के पूर्व जन्मकृत दोषों से या पाप कर्मों से उत्पन्न होते हैं । एवं अनेक प्रकार की पीडा से युक्त उपसर्ग भी बढते हैं । तब महायश के धारक ब्रह्मदेवने प्राणियों में शांति स्थापन के लिये जीवों को उत्तम शास्त्र का उपदेश दिया है । १ चरक सूत्र स्थान अ. २५ श्लो इसी प्रकार कोई कोई इस पाप के लिए शांतिकर्म करने की इच्छा रखनेवाले भूत वेताल पिशाच आदि दुष्टदेवोंको उठाकर प्राणियों का वध करते हैं । परंतु समझमें नहीं आता कि हिंसा के निमित्त से उत्पन्न रोगों को हिंसाजनित मांस किस प्रकार शमन कर सकता है ? क्यों कि वह समानकोटमें है । (रक्तसे दूषित वस्त्र रक्तसे ही धोया नहीं जाता है ।) इसीप्रकार प्राणियों के कर्म से उत्पन्न रोगों के उपशमन के लिए स्वयं अत्यंत पापजन्य, निष्ठुर वधहेतुक मांसका प्रयोग क्यों किया जाता है ? इसी प्रकार चरक में भी कहा १८ २ मतो. ३ रोगाणां इति मुद्रित पुस्तके.. Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२६ ) कल्याणकारके तन्मांसं पापजन्यव्याधेः प्रतीकारं न भवत्येवेति निमित्तेनाप्युक्तम् || पापजत्वात्रिदोषत्वान्मधातुनिबंधनात् । आमयानां समानत्वान्मांसं न प्रतिकारकम् । तथा चरकेऽप्युक्तम् । सर्वदा सर्वभावानां सामान्यं वृद्धिकारणम् । ह्रासहेतुर्विशेषास्तु प्रकृतेरुभयस्य च ॥ इत्येवं सामान्यविशेषात्मकविधिप्रतिषेधयुक्तं । तस्माद्वैद्यशास्त्रत्रमारोग्यनिमित्तमनुष्ठीयते । तचारोग्यं धर्मार्थकाममोक्षसाधनं भवति । नहि शक्यं रोगवतां धर्मादीनि प्रसाधयितुमिति । उक्तं हि : न धर्म चिकीर्षेत न वित्तं चिकीर्षेत् न भोगान्बुभुक्षेत् न मोक्षं इयासीत् । अनारोग्ययुक्तः सुधीरोपि मर्त्यश्चतुवर्गसिद्धिस्तथारोग्यशास्त्रम् ॥ यह प्राणिमात्र ही कर्मजन्य है । प्राणियों के रोग भी कर्मजन्य हैं । जिसप्रकार कर्मके विना रोगोंकी उत्पत्ति नहीं होसकती है, उसी प्रकार कर्मके बिना पुरुष की भी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । वह मांस पापजन्य व्याधियोंका प्रतीकारक नहीं होरुकता हैं, इसप्रकार निमित्तशास्त्र में ( निदानशास्त्र ) भी कहा है । पाप से उत्पन्न होने से, त्रिदोषोंके उद्रेक के लिए कारणीभूत होने से, मल [ दोषपूर्ण ] धातुवों के कारण होनेसे, रोगों के कारणों की समानता होने से, रोगों के लिए मांस कभी प्रतीकारक नहीं होसकता । इसीप्रकार चरकने भी कहा है । पडता किसी भी समय प्रत्येक पदार्थ का सामान्य धर्म उसकी वृद्धि के लिये कारण है 1 और विशेष धर्म उस के क्षय के लिए कारण पडता है । एवं सामान्य व विशेष दोनोंकी प्रवृत्ति वृद्धिहानि दोनों के लिए कारण होजाती है । अर्थात् सामान्य विशेष की प्रवृत्ति का संबंध शरीर के साथ रहा करता है | इस प्रकार सामान्य विशेषात्मक विधिनिषेध से युक्त सर्व पदार्थ है । अतएव वैद्य शास्त्र आरोग्यनिमित्त ग्रहण किया जाता है । वह आरोग्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए साधक होता है । क्यों कि रोगी धर्मादिकोंको साधन नहीं कर सकते। कहा भी है: १. चरक सूत्रस्थान अ. १ ली. ४४. Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ हिताहिताध्यायः । (७२७ ) चतुष्कस्य प्रणाशे नृनाशः । तथा चैवं समधात्वाधारोग्यरुचिशक्तिबलानि लक्षणं तस्य साधनमस्य हितमितफलमस्य चतुष्टयावाप्तिमानेवमेतस्मिन् वैद्यशाने धर्मार्थमोक्षस धनपरे सर्वज्ञभाषितेऽनेकलोकहितकरसर्वधर्मशास्त्रमाणावाये विद्यमानेपि तत्परित्यज्य तत्प्रतिपक्षकाराविरतिकठिनक.ठोरेनिष्ठुरहृदयैश्च वानरोरगादिभक्षकविश्वामित्रगौतमकाश्यपपुत्रादिपरिव्राजकेरसर्वभक्षिमिरन्यैरपि दुरात्मभिरिदानींतनवेधशास्त्राणां प्रणेतृभिः पांडवचरकभिक्षुतापसप्रभृतिमांसलोलुपैरत्यंतविशुद्धान्नपानविधिविविधौषधधान्यवेदलकंदमूलफल - पत्रशाकवर्गाधिकारे विशुद्धद्रवद्रव्यविधौ च विगतमलकलंकोदकसंपूर्णमहातटाकसतो चांडालमातंगप्रभृतिभिर्दुर्जनः सजनप्रवेशनिवारणार्थं गोशृंगस्थापनमिव कनिष्ठनिष्ठुरदुष्टजनैसर्वज्ञप्रणीतप्राणायायमहागमनिर्गतसद्धर्मवैद्यशास्त्रतस्करैस्तेधर्मचिह्ननिगृहनार्थ पूर्वापर विरुद्धदोषदुष्टमतिकुटिलैः पिशिताशनलंपटेश्चटुलतरलमधुमद्यमांसनिषेवणमविशिष्टजनोपदिष्टं कष्टं पश्चात्तममेव निश्चीयते । तत्कथं पूर्वापरविरोवदुष्टमिति चेदुच्यते । __अनारोग्ययुक्त मनुष्प धीस्वार होनेपर भी वह धर्मका आचारण नहीं करसकता, वह अर्थ का उपार्जन नहीं कर सकता, भोगोंको भोग नहीं सकता, मोक्ष में जा नहीं सकता, उसे न चतुर्वर्ग की सिद्धि ही हो सकती और न आरोग्य शास्त्रका अध्ययन ही उससे होसकता है । इस प्रकार चतुर्वर्गके नाश होनेपर मनुष्यका अस्तित्वका ही नाश होता है । अर्थात् वह किसी काम का नहीं है । इसलिये सपधातु आदि आरोग्य, कांति, शकि, बल ही जिस स्वास्थ्यका लक्षण है और जो चतुर्वर्गकी प्राप्ति के लिए साधनभूत हैं उनका कथन धर्मार्थ मोक्ष को साधन करनेवाले, सर्वज्ञभाषित, अनेक लोक के लिए हितकारक अतएव धर्मशास्त्र रूपी इस वैद्यशास्त्र प्राणावाय में होने पर भी उस छोडकर उस से विपरीत वृत्तिको धारण करनेवाले अविरतिकठिनता से कठोर व निष्ठुर हृदय को धारण करनेवाले, बानर उरगादि (बंदर, सर्प) को भक्षण करनेवाले विश्वामित्र, काश्यप पुत्र, आदि सन्यासियोंद्वारा एवं सर्व भक्षक आजकल के अन्य दुष्ट शास्त्रकार पांड्य, चरक, भिक्षु, तापस अदि मांशलोलुपों द्वारा अत्यंक शुद्ध अन्नसान विधि व विविध धान्य, द्विदल, कंदमूल, फल, पा व शाक वर्गाधिकार में एवं द्रवप विधान में जिस प्रकार विगतमलकलंक (निर्मल ) जलसे भरे हुए सरोवर के तटमें चांडाल म तंग आदि दुष्टजन, सज्जनों के प्रवेशको रोकने के लिए गोश्रृंगादिको डाल देते हैं, उसीपकार जघन्य निष्ठरहृदय दुष्टजन एवं सर्वज्ञवणीत प्राणावाय महागम से निकले हुए वैधक रूपी धर्मशास्त्र के चोर, पूर्वापर विरुद्ध दोषों से दुष्ट, अतिकुटिलमतियुक्त, मां भोजनलंपट ऐसे दुर्जनों के द्वारा उस सद्धर्म के चिन्ह को छिपाने के लिए इस वैद्यशास्त्र में नीचजनोचित अत्यंत कष्टमय मधुमद्यमांस सेवनका विधान बादमें मिल गया गया है इसप्रकार निश्चय किया जाता है। वह पूर्वापरविरोधदषसे दुष्ट क्यों है इस का उत्तर आचार्य देते हैं। Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२८ ) . कल्याणकारके वैद्यशास्त्रस्यादावेव पूर्वाचायर्मूलतंत्रकर्तृभिः परमर्षिभिः पात्रापात्रविवेकज्ञैः कर्तव्याकर्त. व्यनिवहनिश्चिकित्सेयं योग्यानामेव कर्तव्योति विधिप्रतिषेधात्मकं शास्त्रमुक्तं । द्विजसाधुबांधवाभ्युपगतजनानां चात्मबांधवानामिवात्मभेषजः प्रतिकर्तव्यम् । एवं साधु भवति । व्याधशाकुनिकपतितपापकर्मकृतां च न प्रतिकर्तव्यम् । एवं विद्या प्रकाशते, मित्रयशोर्थधर्म कामाश्च , भवंतीत्येवं पूर्वमुक्तं, पश्चान्मांसादिनिषवेण कथं स्वयमेवाचार्याः प्रतिपादयंति पूर्वापरविरुद्धमेतत् । तस्मादन्येरेव दुश्चरितः पश्चात्कृतमिति निश्चेतव्यं । .... अथवा वैद्यशास्त्रे तावन्मांसोपयोग एव न घटते । कथमिति चेदन्नभेषजरसायनेभ्यो भिन्नत्वात् । कथं ब्रह्मादिरपि लोकस्याहारस्थित्युत्पत्तिहेतुरित्युक्तत्वात् । न च ब्रह्मादीनां मांसमाहारार्थं जग्विरित्यन्नक्रमो युक्तश्च क्षीरपाः क्षीरान्नदा अन्नदाश्चेति ततः परमान्नदा इति वचनात् । तथा महापाठे शिशूनामन्नदानमाहारविधौ प्रथमषण्मासिकं लध्वन्नपयसा भोजयोदिति वचनात् । मांसमन्नं न भवत्येव, पयसात्यंतविरोधित्वात् । तथाचोक्तम् ।। ... वैद्यशास्त्र के आदि में ही मूल तंत्रकार परमर्षि, पात्रापात्रविवेकज्ञ, पूर्वाचार्योने . कर्तव्या तिव्यधर्म से युक्त इस चिकित्साको योग्योंके प्रति ही करनी चाहिये, अयोग्यों के प्रति नहीं, इस प्रकार विधिनिषेधात्मक शास्त्र को कहा है। द्विज साधु व बांधयों के समान रहनेवाले मित्र आदि सजनोंकी चिकित्साको अपने आत्मीय बांधवोंके समान समझकर अपने औषधों से करनी चाहिये । वह कर्तव्य प्रशस्त है। परंतु भिल्ल, शिकारी, पतित आदि पापकर्मो को करनेवालोंके प्रति उपकार नहीं करना चाहिये. अर्थात् चिकित्सा नहीं करनी चाहिये । कारण कि वे उस उपकार का उपयोग पापकर्म के प्रति करते हैं। इस प्रकार इस वैद्य विद्याकी उन्नति होती है एवं मित्रा, यश, धर्म, अर्थ कामादिकी प्राप्ति होती है, इस प्रकार पहिले कहकर बादमें मांसादि सेवनका विधाम आचार्य स्वयं कैसे कर सकते हैं ? यही पूर्वापरविरोध है। इसलिये अन्य दुरात्मावोंने ही पीछेसे उन ग्रंथोमें उसे मिलाया इस प्रकार निश्चय करना चाहिये । अथवा वैद्यशास्त्रमें मांसका उपयोग ही नहीं बन सकता है। क्यों कि वह मांस अन, औषध व रसायनों से अत्यंत भिन्न है । क्यों ? क्यों कि आपके आगमो में कहा है कि ब्रह्मादि देव भी लोके आहार की स्थिति व उत्पत्ति के लिए कारण हैं । ब्रह्मादियों के मत से आहारके कार्य में मांसका उपयोग अन्न के रूप में कभी नहीं हो सकता है । और न वह उचित ही है। क्यों कि आहारकपकी वृद्धि में क्षीर क्षीरान, अन्न, परमान इत्यादि के क्रम से वृदि बतलाई गई है । मांसका उल्लेख उस में नहीं है। इसी प्रकार महापाठ में बालकों को अन्नदानआहारविधान के प्रकरण में पहिले छह महिने बधु [ हलका ] अन्न व दूध का भोजन कराना चाहिये, इसपकार कहा है । मांस तो अन्न कभी नहीं होसकता है । क्यों कि दूध के साथ उसका अत्यंत विरोध है। उसी प्रकार कहा भी है: Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंताहिताध्यायः। ( ७२९ ) मांसमत्स्यगुडमाषमोदकैः कुष्ठमावहति सेवितं पयः शाकजांबवसुरासवैश्व त-न्मारयत्यबुधमाशु सर्पवत् ॥ अथवा अलौकिकमविशिष्ट महृद्यं शास्त्रवर्जितं मांसक्षीरं न सममश्नीयात् । कोहि नाम नरस्सुखीति । अपि चैवं ब्रह्मोद्यं लोकस्याहारविधानमेवमुक्तं । सर्वप्राणिनामाहारविधानमेवमुक्तं हि । कुयोनिजानां मधुमघमांसकदन्नमन्नं च तथा परेषां । कल्याणकं चक्रधरस्य भाज्यं, स्वर्गेऽमृतं भोगमहिस्थितानां ॥ पितृसंतर्पणार्थमपि न भवत्येव मांस । कथं ? सायुज्यमायाति परेण पुंसा योगस्थितास्तपि ततः प्रबद्धाः । कचिदिवं दिव्यमनुष्यभावं न तत्र मासादिकदनभुक्तिः । इति । तथा मांस भेषजमपि न भवत्येव, द्रव्यसंग्रहविज्ञानीयाध्याये मांसस्वापाठात् । मांस, मछली, गुड उडद से बनी हुई मिठाई के साथ दूध का सेवन करें तो वह कुष्ठ रोग को उत्पन्न करता है । शाक जंबू फल से बने हुए मदिरा के साथ दूध का उपयोग करे तो उस मूर्ख को वह शीघ्र ही मार डालता है। अथवा लोकबाह्य, अविशिष्ट, भीभत्स, शास्त्रवर्जित ऐसे मांस को दूध के साथ नहीं खाना चाहिए । उससे मनुष्य सुखी कभी नहीं हो सकता है । इस प्रकार ब्रह्म ऋषि द्वारा कथित लोक के आहार का विधान कहा गया । सर्व प्राणियों का आहार विधान इस प्रकार कहा गया है। कुयोनिज [ नीच जात्युत्पन्न ] जीवों को मधु, मद्य, मांस व खराब अन्न भोजन है। अन्य प्राणियों को अन्न भोजन है । चक्रवर्ति को कल्याणकान भोजन है । एवं स्वर्ग व भोगभूमिस्थित जीवों को अमृताहार है । पितृसंतर्पण के लिए भी मांस का उपयोग नहीं हो सकता है। क्या कारण है ? इस के उत्तर में ग्रंथकार कहते हैं। चे योगस्थित ज्ञानी पुरुष उत्तम स्थान में जाकर समता को प्राप्त कर लेते हैं। उन में कोई स्वर्ग में जाकर जन्म लेते हैं। और कोई पवित्र मानवीय देह को प्राप्त कर लेते हैं। वहां पर मांसादि कदन्नों को भक्षण करने का विधान नहीं है। - इसी प्रकार मांस औषध भी नहीं हो सकता है । क्यों कि औषधि के लिए उपयुक्त व्यसंग्रह विज्ञायक अध्याय में मांस का अहंण नहीं किया गया है । अथवा ९२ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके अथवा प्रकीर्णकोषधेष्वपि मांसमौषधं न भवत्येव । तत्र द्विविधमौषधमित्युक्तम् संशमनसंशोधनक्रमेण । न तावत्संशोधनं च भवत्यूर्वभागाधोभागोभयतस्संशोधनशक्त्यभावात् । संशमनमपि मांसं न भवति, स्पृष्टरसाभावात् । स्पृष्टरसं हि द्रव्यं संशमनाय कल्प्यते । यथा मधुराग्ललवणाः वातघ्नाः, मधुरतिक्तकपायाः पित्तनाः, कटुतिक्तकपायाः श्लेष्मनाः । अथवा मांस लवणं नारित, लवणसंयोगभक्षणात् । आम्लरसोपि नास्ति आम्ल. संपाचनात् । तथैव संभारसाकारार्हत्वात् कटुतिक्तकषायरसाश्च न संभवत्येव । तथा मांस मधुरमपि न भवति, मधुरस्य लवणेनात्यतविरोधित्वात् अथवा महापाठे मांसपाको भिहितः स्नेहगोरसधान्याम्ल फलाम्लकटुकैस्सह ।। स्विनं मांसं च सर्पिष्कं बल्यं रोचनबृंहणम् ॥ इति द्रव्यसंयोगादेव मांसस्य बलकरणत्वं चेत्तदान्येषामपि द्रव्याणां संस्कारविशेषाद्वलवृष्यरुचिकरत्वं दृष्टमिष्टं चेति मांसमेव शोभनं भवतीत्येवं तन्न । तथा लवणतसंभारोदनविरहितस्य मांसस्य परिदूषणमपि श्रूयते ।। प्रकीर्णक औषधों में भी मांस को औषधि के रूप में ग्रहण नहीं किया है । प्रकीर्णक औषध संशमन व संशोधन के भेद से दो प्रकार कहे गए हैं । वह मांस संशोधन औषध तो नहीं हो सकता है। क्यों कि ऊर्वभाग, अधोभाग व उभय भाग से संशोधन करने का सामर्थ्य उस मांस में नहीं है । संशमन भी मांस नहीं हो सकता है। उस में कोई भी खास विशिष्ट रस न होनेसे । जिस पदार्थ में खास विशिष्ट रस रहता है वही संशमन के लिए उपयोगी है । जैसे मधुर, आम्ल व लवणरस वातहर है। मधुर, तिक्त व कषायरस पित्तहर हैं । कटु, तिक्त व कषायरस कफहर है । अथवा मांस लवणरस भी नहीं है। क्यों कि उसे लवणसंयोग कर ही भक्षण करना पडता है । आम्लरस भी वह नहीं है क्यों कि शरीरस्थ आम्ल का वह पाचन कर देता है अर्थात् वई आम्लविरोधी है । इसी प्रकार विशिष्ट संस्कार योग्य हानेसे कटुतिक्त कषायरस भी उस में नहीं होते । एवं मांस मधुर भी नहीं है । क्यों कि मधुर का तो लवण के साय अत्यंत विरोध है । मांस का उपयोग तो लवण के साथ किया जाता है । अथवा महापाठ में मांसपाक भी कहा गया है। तेल, गोरस, धान्याम्ल, फलाम्ल व कटुक रस के साथ संस्कृत एवं घृतसहित मांस बलकर है, रुचिकर एवं शरीरपोषक है। . इस प्रकार अन्य द्रव्यों के संयोग से ही मांस में बलकर व पोषक शक्ति है, ऐसा कहेंगे तो हम [ अन्य ] भी कह सकते हैं कि अन्य द्रव्यों में भी संस्कार विशेष से ही बलकरत्व, रुचिकरत्व व पोषकत्व आदि गुण देखे गए हैं । इसलिए मांस ही उन पदार्थो से अच्छा है, ऐसा कहना ठीक नहीं है। लवण, घृत व संभारसंस्कार से रहित मांस का दूषण भी आपके यहां सुना जाता है। जैसे .. Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिताहिताबायः। ( ७३१ ) शुद्धं मांसं स्त्रियो वृद्धा बालार्कस्तरुणं दधि । प्रत्यूषे मैथुनं निद्रा सद्यःप्राणहराणि षट् ॥ इति अथवा सर्वाण्यौषधानि सक्षीराणि वीर्यवंत्यन्यत्र मधुसर्पिःपिपलिविडंगेभ्य इत्यत्र सावा नीरसातिवक्तव्ये सक्षीरवचनं मांसनिराकरणार्थमेव स्यात् तथाः प्रशस्तदेशसंभूतं प्रशस्ते काल उद्धृतं । अल्पमात्रं मनस्कांतं गंधवर्णस्सान्वितं । दोषघ्नमग्लानिकरमधिकाधिविपत्तिषु । समीक्ष्य दत्तं काले च भेषजं फलमुच्यते । इत्येवमादिलक्षणविरहितत्वात् कालमात्रादिनियमाभावात् । द्रवं कुछुवपादद्यात् स्नेहं षोडशिकान्वितं । चूर्ण बिडालपदकं कल्कमक्षजसम्मितम् ॥ - शुद्धमांस, वृद्धस्त्रियों का सेवन, बालार्ककिरण, तरुणदधी, प्रत्यूषकाल का मैथुन व प्रत्यूषकाल की निद्रा ये छह बातें शीघ्र ही मनुष्य के प्राणों को नाश करने वाली हैं। __ अथवा सर्व औषध दूध के साथ उपयोग करने पर ही वीर्यवान् रोगप्रतिबन्धक] हो सकते हैं। मधु, घृत, पिप्पल व वायविडंग को छोड कर, अर्थात् इन के साथ दूध का संयोग होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । इसलिए औषधियों के साथ क्षीर के उपयोग के लिए जो कहा है वह मांसके निराकरण के लिए ही कहा है । इसीलिए कहा है कि: प्रशस्त देश में उत्पन्न, प्रशस्त काल में उद्धृत, अल्पमात्र में ग्रहण किया हुआ, मनोहर, गंधवर्ण व रस से संयुक्त, दोषनाशक, अधिक बीमारी में भी अग्लानिकर, एवं योग्यकाल व प्रमाण को देखकर दिया हुआ औषध ही फलकारी होता है । इत्यादि लक्षण मांसमें न होने से, उस में कालमात्रादिक का नियम नहीं बन सकता है । अर्थात् यदि मांस ग्राह्य होता तो उस की मात्रा का भी कथन आचार्य करते या उसको ग्रहण करने का काल इत्यादि का भी कथन करते । परन्तु उस प्रकार उस का कथन नहीं किया है । परन्तु अन्य पदार्थों की मात्रा व काल आदि के सम्बन्ध में कथन मिलता है । जैसे:-- द्रव को एक कुड़ब प्रमाण । ३२ तोले ] ग्रहण करना चाहिए । तेल आदि स्निग्ध पदार्थ घोडाशिका [ पल, ८ तोले ] प्रमाण से ग्रहण करना चाहिए । और चूर्ण Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३२ ) कल्याणकारके wweoniwww............... ..................... ___ इति वचनात् मांसमौषधं न भवतीत्येवं तत्प्रमाणापाठात् । सर्वोषधस्य कालोप्यू. हितः । यथा तत्र, प्रातर्भक्तं, प्राग्भक्तं, ऊर्ध्वभक्त, मध्यभक्तं, अंतरभक्तं, सभक्तं, समुद्नं, मुहर्मुहुर्मासे ग्रासांतरे चति दशौषधकालेपत्तरतरस्मिन्काले विशेष मांस भक्षयितव्यमिति कालाभावादौषधं नोपपद्यत इत्येवमुक्तं च ।। द्रव्याणामपि संग्रहे तदुचित क्षेत्रादिकाले तथा । द्रव्योपानतत्पुराधिकमहासहूधिकानुग्रहे ॥ ते सर्वे च विशेषभपजगणास्संत्यत्र किंचित्क्वचि न्मासं नास्ति न शब्दतोपि घटते म्यादौषधं तत्कथम् ॥ तथा मांसं रसायनमपि न भवत्येव, रसायनाधिकारे तस्यापाठात् । क्षीरविरोधित्वात्, मांसस्य तस्मिन जीर्णे पयःसपिरोदन इत्याहारविधानाच । अथवा बहूमां को बिडालपदक [ प्रमाणविशेष ] प्रमाण से ग्रहण करना चाहिए । एवं कल्क को अक्षप्रमाण { २ तोले ) ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार कहा है, परन्तुं इस में मांस का पाठ नहीं है। अतएव मांस औषध नहीं हो सकता है । सभी औषधों को ग्रहण करने का काल भी बतलाया गया है । जैसे कि प्रातःकाल में ग्रहण करना । भोजन से पहिले, भोजन के बाद, भोजन के बीच में, भोजनांतर में, भोजन के साथ, मुद्ग के साथ, बार बार, ग्रास के साथ, ग्रासांतर में, इस प्रकार औषध ग्रहण करने के दस काल बतलाये गए हैं । परन्तु इन में खास कर उत्तरकाल में मांस का सेवन करना चाहिए, इस प्रकार नहीं कहा है क्यों कि उस के लिए कोई काल नियत नहीं है । अतएव वह औषध नहीं हो सकता है । इस प्रकार कहा भी है: लोक में जितने भर भी औषध विशेष हैं उन का ग्रहण द्रव्यसंग्रह के प्रकरण में, द्रव्यसंग्रहोचित क्षेत्रकालादिक में, एवं द्रव्योपार्जन के लिए कारणीभूत सदंधिका प्रकरण में किया गया है । परन्तु उन प्रकरणों में मांस का ग्रहण नहीं हैं। जहां शब्द से भी उसका उल्लेख नहीं है वह औषध किस प्रकार हो सकता है ? इसी प्रकार मांस रसायन भी नहीं हो सकता है । क्यों कि रसायनाधिकार में उस का पाठ नहीं है । क्षीर का विरोधी होने से, मांस के जीर्ण होने पर दूध, घृत व अन्न का सेवन करना चाहिए, ऐसा आहार विधान में किया गया है । अथवा बहुत से मांसभक्षियों को देखकर कालदोष से वैद्य भी मांस-भक्षक बन Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिताहिताध्यायः । ( ७३३ ) साशिनो दृष्टा कालपरिणामाद्वैद्याश्च स्वयं पिशितभक्षकारसंतः ( तैः ) स्वशास्त्रेऽन्नपानविधी शाक वर्गाधिकारे मूलतंत्रबाह्यं मांसं कृतमिति उक्तं च । आंगेप्याभयसत्क्रियासु च चतुष्कर्मप्रयोगेपुतदोषाणामपि संचयादिषु तथा भैषज्यकर्मस्वपि । रोगोपक्रमषष्ठिभेदविविध वीर्यस्य भेदे प्रती- . कारं नास्ति समस्तमांसकथनं शाकेषु तत्कथ्यते ? ॥ इत्यशेषांगबाह्यमन्नमौषधं तथा रसायनमपि न भवतीत्येवं निरंतरं शास्त्रेषु निराकृतमप्यतिलोलुपाः स्वयमज्ञानिनोपि सत्कृत्य मांस भक्षयितु मभिलपंतस्संतः केचिदेवं भाषं ते " मांसं मांसेन वद्धत इति"। अथवा साधूक्तं मांसे भक्षिते सति मांसं वर्द्धत इति संबंधादर्थवत्स्यात् । अपि च पूर्वोक्तमेवार्थवदिति वक्तव्यं विचार्यते । किं त मांस भक्षणा. नंतरं मांसस्वरूपेणैव मांसमभिवर्द्धयत्याहोस्विद्रसादिक्रमेणैवेति विकल्पद्वयं । नहि मांस मांसस्वरूपेण मांसाभिवृद्धि करोति । कुतः ? कुड्यमृत्पिडयोरिव मांसशरीरयोरन्योन्याभि गए । अतएव स्वार्थ से उन्होंने अन्नपानविधि व शाकवर्गाधिकार में मूलतंत्रबाह्य मांस को घुसेड दिया है। कहा भी है--- इस प्रकार आयुर्वेद शास्त्र में शरीर में अभयोत्पन्न क्रियाओं के प्रयोग में, चतुष्कर्म के प्रयोग में, दोषों के संचय होनेपर, भैषज्यकर्म में, रोगोत्पादक साट प्रकार के भेदों में और औषधवीर्य के भेदों में मांस को प्रतीकार के रूप में कहीं कथन नहीं है अर्थात् यह किसी भी दोष का प्रतीकारक नहीं हो सकता है । फिर इस का कथन शाक पदार्थों में क्योंकर हो सकता है ? इप्त प्रकार समस्त अंगशास्त्रों से बहिर्भूत मांस अन्न औषध व रसायन भी नहीं हो सकता है, इत्यादि प्रकार से सदा शास्त्रों में निषिद्ध होने पर भी अतिलोलुपी व स्वयं अज्ञानी, स्वयं मांस खाने की अभिलाषा से कहते हैं कि "मांस मांससे बढा करता है। अधवा ठीक ही कहा है कि मांस के खाने पर मांस बढ़ता है, इस प्रकार सम्बन्ध से अर्थ ग्रहण करना चाहिए । अब उसी अर्थ के वक्तव्य पर विचार करेंगे। क्या उस मांस भक्षण के अनन्तर शरीर में मांस के स्वरूप में ही मांस की वृद्धि होती है अथवा रसादिक्रम से वृद्धि होती है, इस प्रकार दो विकल्प उटाये जाते हैं । मांस मांस के स्वरूप में वृद्धि को नहीं करता है। क्यों कि भीत व मृत्पिड के समान मांस व शरीर में परस्पर अगिवर्धन संबंध नहीं हैं । ऐसा होनेपर अपसिद्धांत दोष का भी Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३४ ) कल्याणकारके बर्द्धनसंबंधाभावात् । अपसिद्धांतत्वाच्च । तस्मादसादिक्रमेणैव शरीराभिवृद्धिनिर्दिष्टा । तथा भैषज्यसाधनं चोक्तं । पांचभौतिकस्य चतुर्विधस्याहारस्य षड्सोपेतस्य अष्टविध. वीर्यस्य द्विविधवीर्यस्य वाऽनेकगुणोपयुक्तस्य सम्यक्परिणतस्य पयस्तेजोगुणभूतस्य सारः परमसूक्ष्मः स रस इत्युच्यते । क्षारपाणिनाप्युक्तम् । रसो भूत्वा द्वैधी भवति स्तन्यं शोणितं च। शोणितं भूत्वा द्वैधी भवति रजो मांसं च । मांसं च भूत्वा द्वैधी भवति, सिरा मेदश्च । मेदो भूत्वा द्वैधी भवति स्नायस्थि च । अस्थि भूत्वा द्वैधी भवति वसा मज्जा च । मजा भूत्वा द्वैधी भवति, मज्जा चैव शुक्रं च । शुक्राद्गर्भस्संभवति इति । तथा चोक्तम् ॥ रसादक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रवर्तते । मेदसांस्थि ततो मज्जा तस्याश्शुक्रं ततः प्रजा ॥ इति एवं धातूपधातुनिष्पत्तिरातैरुपदिष्टा विशिष्टैस्तत्वदृष्टिभिद्यैरन्यैश्चाप्यतिकुशलैः रसवेदिभिरिति ॥ अथवा मांसभक्षकाणामेव शरीरेषु मांसाभिवृद्धिरितरेषां न भवत्येव, तन्न घटामटाट्यते । कथमिति चेत्तदभक्षिणामृषीणामन्येषां पुरुषविशेषाणां स्त्रीणां वापि तच्चा प्रसंग आवेगा । अर्थात् सिद्धांतविरुद्ध विषय होगा । इसलिए रसादिक्रम से ही शरीराभिवृद्धि होती है। मांस स्वरूप से नहीं। इसी प्रकार औषध साधन भी कहा गया है । पंचभौतिक, चतुर्विधाहार, षड्स, द्विविध अथवा अष्टविधर्वार्ययुक्त, अनेक गुणयुक्त, पदार्थ अच्छी तरह शरीर में परिणत होकर जो उस का परम सूक्ष्मतर सार है उसे रस कहते हैं । क्षारपाणि ने भी कहा है । रस होकर उस का द्वैधीभाव स्तन्यक्षीर व रक्त के रूप में होता है । रक्त होकर उस का द्वैधीभाव रज व मांस के रूप में होता है । मांस होकर उस का द्वैधीभाव सिरा व मेद के रूप में होता है । मेद होकर उस का द्वैधीभाव स्नायु व हड्डी के रूप में होता है । हड्डी होकर उसका द्वैधीभाव वसा व मजा के रूप में होता है । मन्जा होकर उसका द्वैधीभाव मज्जा के ही रूप में व शुक के रूप में होता है । शुक्र से गर्भ की उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार कहा भी है ___ रस से रक्त की उत्पत्ति होती है। उस से मांस बनता है। मांस से मेद बनता है। मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा बनता है । मजा से शुक्र व उस से संतान की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार धातु उपधातुओं की निष्पत्ति विशिष्ट तत्वदर्शी वैद्य व अन्य अतिकुशल रस वेदी आप्तों के द्वारा कही गई है। अथवा मांस भक्षकों के शरीर में ही मां मांसाभिवृद्धि के लिए कारण है, अन्य जीवों के शरीर में नहीं, ऐसा कहें तो यह घता Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिताहिताध्यायः। ( ७३५ ) रित्राणामतिस्निग्वस्थूलशरीराणि दृश्यते । तथा चैतेप्यत्यंतबलवंतो पुत्रचंतश्च । तथा कचित् पिशिताशिनोप्यतिकृशाः क्लीवाः दुर्बलाग्नयो व्याधिग्रस्तांगाः क्षीणाः क्षयिणश्च निष्पुत्राश्चोपलक्ष्यते, इत्यनैकांतिकमेतत् । तथा चान्ये तिर्यग्जातयोप्यरण्यचरा मधुमद्यमांस विरहिताहारा यूथपतयो गजगवयमहिषवृषभपृषतमेपहरिणरुरुचमरवराहादयः स्थलजलकुलगिरितरुवनचरास्तृणगुल्मलतांधिपाहारिणः स्थिरोपचितशरीरबलविलासीर्यविक्रमवृष्पयुष्यपत्वसंपन्ना वहुपुत्रकलत्रसंपूर्णा बहुव्यवायिनस्सततकामिनश्चोपलश्यते ।। तथा कचित्केवलमतिपिशिताशिनसिंहव्यावतरक्षुद्विपिमार्जारभृतयो ह्यवृष्या निप्पुत्रास्संवत्सरकामिनश्चेत्येवं निमिनाप्युक्तम् । मांसादः श्वापदःसर्वे वत्सरांतरकामिनः । अवृष्यास्ततएव स्थुरभक्ष्यपिशिताशिनः ॥ इति मांसभक्षिणां मृगादीनामपि वृष्यहानिः संजाता ॥ म नहीं। कारण कि मांस को भक्षण नहीं करनेवाले ऋपिजन व अन्य चारित्रशील पुरुष विशेषों के स्निग्ध व स्थूल शरीर देखे जाते हैं । साथ ही ये अत्यंत बलशाली व पुत्रवान् देखे जाते हैं। विपरीत में कई मांस भक्षक भी अत्यंत कृश, नपुंसक, दुर्बल जठराग्नत्र ले, रोगग्रस्त शरीरवाले, क्षीण शरीरवाले, क्षयपीडित व संतानरहित भी देखे जाते हैं । अतः यह अनैकांतिकदोष से दूषित है। इसी प्रकार अन्य तिथंच प्राणी जंगल में रहनेवाले, मधु, मद्य, मांसादिक आहारों को ग्रहण नहीं करनेवाले गज, गवय, बैल, चित्तीदार हिरन, वकरा, हिरन, रुरु [ मृगविशेष ] चमरमृग, एवं वराहादि, स्थलचर, जलचर; कुलगिरिचर, तरुचर व वनचर प्राणी तृण गुल्म लता व वृक्षों के पत्ते वगैरह को खानेवाले स्थिर व मजबूत शरीर को धारण करते हुए बलकार्य पुष्टि आदि से युक्त, बहुपुत्र व कलत्र से युक्त अत्यधिक कामी व मैथुन सेवन करनेवाले देखे जाते हैं । विपरीत में कोई अत्यधिक केवल मांस खानेवाले सिंह, व्याघ्र, तरक्षु [कांटे से युक्त शरीरबाले प्राणिविशेष द्विपि, मार्जार आदि धातुरहित, संतानरहित होकर वर्ष में एकाध दफे मैथुन सेवन करनेव ले होते हैं । इस प्रकार निमिने भी कहा है। अभक्ष्य मां को भक्षण करनेवाले सर्व जंगली प्राणी एक वर्ष में एक दफे मैथुन सेवन करनेवाले होते हैं । क्यों कि उन के शरीर में धातु पुष्ट नहीं रहता है । इस प्रकार मांसभक्षी मृगादिकों के शरीर में वृष्यत्व [पुष्टि ] नहीं रहता है यह सिद्ध हुआ। Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३६ ) कल्याणकारके अत्र केचित्पुनश्च्छागमृगवराहादीनामतिस्त्रीव्यसनामलोक्य तद्भक्षकाणामपि तद्वदतिवृष्यं भवतीत्येवं मन्यमानास्संतोपं, ते तस्माद्भक्षयंतीत्येवं तदपहास्यतामुपयांति । कमिति चेत्, न कदाचिदपि छागैइच्छागो भक्षितो, मृगे; मृगो, वराहो वा वराहरित्येतदपहास्य. कारणं । न तु पुनश्च्छागादयश्च्छागादीन् भयित्वातिवृष्या भवतीति दृष्टमिष्टं च । त एते पुनच्छागमुगबराहादयो विविधतरुतृणगुल्मवीरुल्लतावितानाधोपनिषेवणोपशांतव्यावयस्संतुष्टबुद्धयस्सन्नद्धशुद्धधातवः प्रवृद्धाद्यतवृष्यास्सबहुपुत्राश्चापलक्ष्यते । तत एव तृणाशिनां शकृन्मूत्रक्षासण्यापधत्वनांपादीयते । न तु पुनः पिशिताशिनामिति । तथा चोक्तम्----- अजाकिंगोमहिष्यश्व गजखरोष्ट्राणां मूत्राण्यष्टौ कर्मण्यानि भवंति ! तथा चैवम् ॥ आजमौष्टं तथा गव्यमाविकं माहिषं च यत् अश्वानां च करीणां च मृग्याश्चैव पयस्मृतम् ॥ इयष्टप्रकारक्षीरमूत्राण्यौपधत्वेनोपादीयंते, न तु पिशिताशिनाम् । तथा चोक्तम् । ____यहां पर कोई कोई इस विचार से कि बकरे, हरिण, वराहादि प्राणियों में अत्यधिक मैथुनसेवन देखा जाता है, अतएव उन के मांस को खाने से भी उन के समान ही अत्यधिक धातुयुक्त शरीर बनता है, संतोष के साथ मांस को खाते हुए उपहास्यता को प्राप्त होते हैं। क्यों कि बकरों ने बकरों को नहीं खाया है, हरिण ने हरिण को नहीं खाया है, एवं वराहों ने वराह को खाकर पौष्टिकता को प्राप्त नहीं की है । यही 'अपहास्य कारण है । छागादिक प्राणी छागादिकों को खाकर ही पुष्ट होते हुए न देखे 'गए हैं और न वह इष्ट ही है । परन्तु वे छागादिक प्राणी अनेक प्रकार के वृक्ष, घास, गुल्म, पौत्र, लतारूपी औषधों को सेवन कर के ही अपने अनेक रोगों को उपशांत कर लेते हैं एवं संतुष्ट हो कर, शुद्ध धातयुक्त हो कर, पुष्ट रहते हुए, बहुसंतान वाले देखे जाते हैं । इसीलिए तृणभक्षक प्राणियों के मल, मूत्र, दूध आदिक औषधि के उपयोग में ग्रहण किए जाते हैं । परन्तु मांसभक्षकप्राणियों के ग्रहण नहीं किए जाते हैं। इ. प्रकार कहा भी है बकरी, मेंढी, गाय, भैंस, घोडी, हथिनी, गवैया, ऊठनी इस प्रकार आट जाति के प्राणियों का दूध औषधि के कार्य में कार्यकारी होते हैं । इसीलिए कहा भी है कि दूध आज [ बकरी का ] औंष्ट्र [ उंठनी का ] गव्य, माहिष, आधिक, आश्वीय, गजसंबंधी, मुग्य इस प्रकार आउ प्रकार से विभक्त है । इसी प्रकार कहा भी है Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिताहिताध्यायः। ( ७३७ ) पिशितमभक्ष्यमेव पिशिताशिमृगेषु तदृष्यतेऽत्र तपिशितपयःशकृज्जलमलं परिहत्य, तृणाशिनां पयो ।। जलमुपसंख्ययाष्टविधमेव यथाईमहौषधेष्वति मथितसमस्तशास्त्रकथनं कथयत्यधिकं तृणादिषु ॥ इत्यनेकहेतुदृष्टांतसंतानक्रमेण पूर्वापरविरोवदोषदुष्टमतिकष्टं कनिष्ठ बीभत्सं पूतिकृमिसंभवं मूलतंत्रव्याघातकं मांसमिति निराकृतं, तदिदानींतनवैद्याःपूर्वापरविरोधदुष्टं परित्यक्तुमशक्ताः । कनिष्ठुरंतरालयतिभिरन्यैरेव मांसाधिकारः कृत इति स्वयं जानन्तोऽप्यज्ञानमहांधकारावगुंठित हृदयमिथ्यादृष्टयो दुष्टजना विशिष्टवर्जितं मधुमद्यमांसमनवरतं भक्षयितुमभिलषते । दोषप्रच्छादनार्थमन्येषां सतां लौकिकानां हृदयरंजननिमित्तं तत्संतोषजननं संततमेवमुद्घोषयति । न हि सुविहितबहुसम्मतवैद्यशास्त्रे मांसाधिकारो मांसभक्षणार्थमारभ्यते, किंत स्थावरजंगमपार्थिवा. दिद्रव्याणां रसवीर्यविपाकविशेषशक्तिरीदृशी इत्येवं सविस्तरमत्र निरूप्यत इति न दोषः । तदेतत्समस्तं पिशितभक्षणावरणकारणोक्तवचनकदंबकं मिथ्याजालकलंकितमवलोक्यते। कथं? मांस अभक्ष्य ही है, क्यों कि वह मांसभक्षक प्राणियों के शरीर में दूषित होता है। अतएव उन मांसभक्षक प्राणियों के शरीर का मांस दूध, मल, मूत्र आदि को छोड कर तृणभक्षक प्राणियों का मल, मूत्र, दूध आदि जो आठ प्रकार की संख्या से जो कहे गए हैं उन्हीं का ग्रहण औषधों में करने के लिए समस्त शास्त्रों का कथन है। इस प्रकार अनेक हेतु व दृष्टांतोंकी परंपरा से मांस का कथन पूर्वापरविरोध दोष से दूषित है, अत्यंत कष्टदायक, अत्यंत नीचतम, घृणा के योग्य व कृमिजनन के लिए उत्पत्तिस्थान व मूलतंत्र के व्याघातक है । अतएव उसका निराकरण किया गया है। परंतु आजकल के वैद्य ऐसे पूर्वापरविरोधदोष से दुष्ट मांस को छोडने में असमर्थ है। पूर्वाचार्यों के ग्रंथो में न रहनेपर भी बीच के ही क्षुद्र हृदयोंके द्वारा यह बाद में जोडा गया है, यह स्वयं जानते हुए भी अज्ञानमहांधकार से व्याप्तहृदयवाले मिथ्यादृष्टि दल · मनुष्य, शिष्टोंके द्वारा त्याज्य मधुमद्य मांस को सदा भक्षण करने की अभिलाषा करते हैं। साथ ही दोषको आच्छादन करनेके लिए एवं अन्य सजनों के चित्त को संतुष्ट करने के लिए हमेशा इस प्रकार कहते हैं कि बहुसम्मत वैद्यशास्त्र में मांसभक्षण करने के लिए मांसाधिकार का निर्माण नहीं किया है। अपितु स्थावर जंगम पार्थिवादि द्रव्यों के रसौर्य विपाक की शक्ति इस प्रकार की है, यह सूचित करने के लिए मांस का गुण दोष विस्तार के साथ विचार किया गया है। अतएव दोष नहीं है । इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि यह सब मांसभक्षण के . दोष को ढकनेके लिये प्रयुक्त वचनसमूह मिथ्यात्वजाल से कलंकित होकर देखा जाता है । क्यों है Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३८ ) स्ववचनविरोधित्वात् । तथा चैवं प्रव्यक्तकंठमुक्तं हि मांसं स्वयं भक्षयित्वा वैद्यः पश्चादन्येषां वक्तुं गुणदोषान्विचारयेदिति । तथा चोक्तम् । धान्येषु मसिषु फलेषु कंदशाकेषु चानुक्तिजलममाणात् आस्वाद्य तैर्भूतगणैः प्रसह्य तदादिशेद्रव्यमनरपलुब्धः ॥ ( ? ) क्ष्मां जानि क्ष्मालुतेजः खराट्वग्न्यानिलानिलैः द्वयोयोवणैः क्रमाद्भूतैर्मधुरादिरसोद्भवः ॥ [2] मांसाशिनां च मांसादीन्भक्षयेद्विधिवन्नरः । विशुद्धमनसस्तस्य मांसं मांसेन वर्धते ॥ तथा चरकेऽप्युक्तम् । कल्याणकारके आनूपोदकमांसानां मेध्यानामुपयोजयेत् । जलेशयानां मांसानि प्रसहानां भृशानि च ॥ भक्षयेन्मदिरां सीधुं मधुं चानुपिवेन्नरः । तथा चरके शोषचिकित्सायाम् । शोषव्याधिगृहीतानां सर्वसंदेहवर्तिनाम् सर्वसन्यासयोग्यानां, तत्परलोकनिरपेक्षाणामबोगतिनेतृकमनंत संसारतरणात्प्रतिपक्षपक्षावलंबन कांक्षया साक्षात् भिक्षूणां मांसममिमक्षयितुं क्रमं चेत्येवमाह । स्ववचन से ही विरोध होने से । कारण कि आप लोगोंने मुक्तकंठ से स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि "वैद्य को उचित है कि वह पहिले स्वयं मांसको खाकर बाद में दूसरोंको उस के गुणदोष का प्रतिपादन करें "। इसी प्रकार कहा भी है:-- धान्य, मांस, फल, कंद व शाक आदि पदार्थों के गुण दोष को कहने के पहिले स्वतः वैद्य उनका स्वाद लेलेवें । बाद में उनका गुण दोष विचार करें । [3] 1 मांस भक्षक प्राणियों के मांस को मनुष्य विधिप्रकार खावें । विशुद्ध हृदयवाले उस मनुष्य का मांस मांससे ही बढता है । इसी प्रकार चरक में कहा हैं । शरीर के लिए पोषक ऐसे आनूपजल व मांस को उपयोग करना चाहिये । जलेशय प्राणियों के मांसको विशेषकर खाना चाहिये । तथा मदिरा, सीधु [ मद्य विशेष ] व मधु को भी पीना चाहिये । इसी प्रकार चरक में शोष चिकित्साप्रकरण में भी कहा है:शोषरोग गृहीत, प्राणके विषय में संदेहवर्ति, और सन्यास के योग्य, अधोगत नेतृक रोगी होनेपर भी अनंत संसार के प्रतिपक्षपक्ष के अवलंबन करने की इच्छा से साक्षात् ऋषियोंको भी मांसभक्षण का समर्थन किया है । -- Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिताहिताध्यायः । शोषिणे बर्हिणं दद्यात् बर्हिशब्देन चापरान् । गृद्धानुलूकांश्चाषां विधिना सुप्रकल्पितान् || काकांस्तित्तिरिशब्देन वर्मिशब्देन चोरगान् भृष्टान्मत्स्योत्रशब्देन दद्याद्डूपदान्यपि ॥ लोपाकान् स्थूलनकुलान् विदलांश्चोपकल्पितान् । श्रृगाळशाबांश्च भिषक् शशशब्देन दापयेत् ॥ सिंहानृक्षांस्तरंश्च व्याघ्रानेवंविधांस्तथा । मांसादान्मृगशब्देन दद्यान्मांसाभिवृद्धये ॥ मांसानि यान्यनभ्यासादनिष्टानि प्रयोजयेत् । तेषूपधा सुखं भोक्तुं शक्यते तानि वै तथा ॥ जानज्जुगुप्सन्नैवाद्यात् जग्धं वा पुनरुल्लिखेत् । तस्माच्छद्मोपसिद्धानि मांसान्येतानि दापयेत् ॥ शोषरोगियों के लिए मांसभक्षक प्राणियों के मांसवर्धक मांस को विधिप्रकार सेवन करावें । उन्हें मोर के मांस को खिलावें । बर्हि [ मयूर ] शह्न से और भी गृद्ध, उल्लू, नीलकंठ आदि के मांसका भी ग्रहण कर उन की विधिपूर्वक तैयार कराकर देवें । इसी प्रकार तीतर के मांस को भी खिलावें । तित्तिर शब्द से कौवे के मांसको भी ग्रहण करना चाहिये । वर्मिं मत्स्य [ मछली ] के मांस को भी देवें । वर्मि [ मत्स्य भेद ] शब्द से सर्पों का भी ग्रहण करना चाहिये । मत्स्य के अंत्रको भी खिलाना चाहिये । इसी प्रकार गंडूपद [ कीट विशेष ] को भी खाने देना चाहिये । इसी प्रकार खरगोश के मांस को भी देना चाहिये । शश [ खरगोश ] शब्द से सियार, स्थूल नौल, बिल्ली, सियार के बच्चे आदि के मांस का ग्रहण करना चाहिये । इसी प्रकार मांसभक्षक प्राणियों के मांस को भी उस रोगी को खिलाना चाहिये । इससे सिंह, राछ, तरक्षू [ कांटेदार शरीरवाला जंगलीप्राणिविशेष ] व्याघ्र आदि के मांस का एवं हाथी गंडा आदि प्राणियों के मांस का भी प्रयोग करना चाहिये । जिस से उस रोगी के शरीर में मांस की वृद्धि होती है । यदि किसी को मांस खाने का अभ्यास न हो एवं उस से घृणा करता हो तो उस के सामने मांस की प्रसंशाकर उसे मांस के प्रति प्रेम को उत्पन्न करना चाहिये जिस से वह रोगी उस मांस को सुखपूर्वक खासकेगा । कदाचित् उसे मालुम होजाय कि यह कौवा, बिल्ली, गीदड आदि का मांस है, पहिले तो वह घृणा से खाया ही नहीं या किसी तरह जबर्दस्ती खावे तो खाते ही वमन करेगा । उस के हृदय में घृणा उत्पन्न न हो इसके लिए अन्य प्राणियों के मांस का नाम कहकर देना ( ७३९ ) Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1980) कल्याणकारके इत्यनेकप्रकारैरशास्त्रांतरेषु मधुमद्यमांसनिषेवणं निरंतरमुक्तं कथमिदानीं प्रच्छादयितुं शक्यते ? तथा चैवमेके भाषते - तरुगुल्मलतादीनां कंदमूलफलपत्र पुष्पाद्यैौषधान्यपि जीवशरीरत्वान्मांसान्येव भवतीति । एवं चेत् साधुभिरुक्त: - मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् । यद्वनिंबो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निंबः ॥ इति व्याप्यव्यापकस्वभावत्वाद्वस्तुनः व्यापकस्य यत्र भाव व्याप्यस्य तत्रैव भाव इति व्याप्तिः । ततो व्याप्तत्वात् मांसं मांसमेत्र तथात्मवीर्यादयोपीव शिशप्रा वृक्ष एव स्यात् वृक्षो निंबायो यथा । इत्येतस्माद्धेतोः मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं च मांसं न स्यादित्यादि शुद्धाशुद्धयोग्यायोग्यभोग्याभोग्यभक्ष्याभक्ष्यपेयापेयगम्यागम्यादयो लोकव्यापाराः सिद्धा भवतीत्युक्तम् । चाहिये | इत्यादि प्रकार से मांस भक्षण का पोषण किया गया है । १. इस प्रकार अनेकविध शास्त्रांत रोमें मधु, मद्य व मांससदृश निंद्य पदार्थों के सेवन का समर्थन किया गया है, अब उसे किस प्रकार आच्छादन कर सकते हैं । अब कोई यहां पर ऐसी शंका करते हैं कि वृक्ष, गुल्म, लता, कंदमूल, फल, पत्र आदि औषध भी जीवशरीर होने से मांस ही हैं । फिर उन का भक्षण क्यों किया जाता है ? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि : मांस तो जीवशरीर ही है। परंतु जीवशरीर सबके सब मांस ही होना चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है | वह मांस हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है । जिस प्रकार निंब तो वृक्ष है, परंतु वृक्ष सभी निंब हों ऐसा हो नहीं सकता । इसी प्रकार मांस जीवशरीर होनेपर भी जीवशरीर मांस ही होना चाहिये, ऐसा नियम नहीं हो सकता है । इस प्रकार पदार्थों का धर्म व्याप्य व्यापक रूपसे मौजूद है । व्याप्य की सत्ता जहाँपर रहेगी वहां व्यापक की सत्ता अवश्य होगा । परंतु व्यापक के सद्भाव में व्याप्य होना ही चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है । जैसे शिंशपा व वृक्ष का संबंध है । जहां जहां शिंशपात्व है वहां वहांपर वृक्षत्व है। परंतु जहां जहां वृक्षत्व है वहां वहांवर शिशपात्व होना चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है । इस कारणसे मांस जीवशरीर होनेपर भी जीवशरीर मांस नहीं हो सकेगा, इत्यादि प्रकार से लोक में शुद्धाशुद्ध, योग्यायोग्य, भोग्याभोग्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय, गम्यागम्य, आदि लोकव्यवहार होते हैं । १ इस के आगे मांसका पोषण करते हुए मद्य पीने का भी समर्थन चरक में किया गया है। जो धर्म व नीति से बाह्य है । सं० Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिताहिताध्यायः। (७४१) ..... नाम्ना नारीति सामान्यं भगिनीभार्ययोरिह । .. . - एका सेव्या न सेव्यैका, तथा चौदनमांसयोः ॥ इति तथा च पूर्वाचार्याणां लौकिकसामयिकाद्यशेषविशेषज्ञमनुष्याणां प्राप्तिपरिहारलक्षणोपेतकर्तव्यसिद्धिरेवं प्रसिद्धा । ततोन्यथा सम्मतं चेति, तत्कथामिति चेन्नानाविधिना धान्यदलादिमूलफलपत्रपुष्पावशेषस्थावरद्रव्याणि देवतार्चनयोग्यानि ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यादिविशिष्टोपभोग्यानि विधिरूपास्पृश्यरजःशुक्लसंभूतदोषधातुमलमूत्रशरीरविरहितानि विशुद्धान्यविरुद्धानि विगतपापानि निर्दोषाणि निरुपद्रवाणि निर्मलानि निरुपमानि सुगंधीनि सुरूपाणि सुक्षेत्रजान्येवं. विधान्यपि भैषजानि मांसानीति प्रतिपादयेत् । सत्यधर्मपरो वैद्यस्तरकारे तद्विपि च स्यात् [?] । एवमुक्तक्रमेण स्थावरद्रव्याण्यीप मांसान्येव प्रतिपादयतो वैद्यस्य प्रत्यक्षविरोधस्ववचनविरोधागमविरोधलोकविरोधाद्यशेषविरोधदोषपाषाणवृष्टिरनिष्टोत्पातवृष्टिरिव तस्य मस्तके निशितनिस्त्रिंशधारेव पतति । तद्भयान्नैवं मांसमित्युच्यते । किंतु जीवशरीरव्याघातनिमित्तत्वात्स्थावरात्मकभेषजान्यपि पापनिमित्तान्येव कथं योयुज्यते इति चेत् । सुष्ठूक्तं जीवधातनिमित्तं -- नाम से नारी [ स्त्री ] इस प्रकार की सामान्य संज्ञा से युक्त होनेपर भी भगिनी और भार्या में एक सेव्या है । दूसरी सेव्य नहीं है । इसी प्रकार अन्न व मांस दोनों जीवशरीरसामान्य होनेपर भी एक सेव्य है और एक सेव्य नहीं है। 3. इसी प्रकार लौकिक और पारमार्थिक विषयों को जाननेवाले विशेषज्ञ पूर्वाचार्योने लोक में हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपी कर्तव्यसिद्धि का प्रतिपादन किया है । यदि यह बात न हो तो जिस प्रकार धान्य, वैदल, मूल, फल पुष्प पत्रादिक स्थाधरद्रव्योंको देवतापूजन के योग्य, ब्राम्हण, क्षत्रिय वैश्यादिक, विशिष्ट पुरुषों के उपभोग के लिए योग्य, विधिरूप अस्पृश्य. रज व शुक्र से उत्पन्न, धातुमल मूत्रादिशरीरदोष से रहित, विशुद्ध, अविरुद्ध, पापरहित, निर्दोष, निर्मल, निरुपम, सुंगंधी, सुरूप, सुक्षेत्रज, आदि रूपसे कहा है मांस को भी उसी प्रकार कहना चाहिये। सत्यधर्मनिष्ठ वैद्य उस प्रकार कह नहीं सकता है । इस प्रकार स्थावर द्रव्योंको मांस के नाम से कहनेवाले वैद्यके लिए प्रत्यक्ष विरोध दोष आजावेगा.। साथ ही स्ववचनविरोध आगमविरोध, लोकविरोधादि समस्तविरोधदोषरूपी अनिष्टपाषाणवृष्टि प्रलयवृष्टि के समान उस के मस्तकपर तीक्ष्ण शस्त्रधाराके समान पडते हैं। उस भय से मांस को इस प्रकार नहीं है, ऐसा कथन किया जाता है । परंतु जीवशरीरव्याघातनिमित्त होने से स्थावरात्मक पापनिमित्तऔषधी का उपयोग आप किस प्रकार करते हैं ? इस प्रकार पूछनेपर आचार्य उत्तर देते हैं कि ठीक ही कहा है कि जीवों के घात के लिये किये जानेवाला कार्य पापहेतु है इस Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१२) कल्याणकारके तत्पापहेतुरिति कः संदेहं वदेत् । अहिंसालक्षणो धर्मः प्राणिनामवध इति वचनात् । अत्र पुनः धर्माधर्मविकल्पश्चतुर्विधो भवति, पापं पापनिमित्तं, पापं धर्मनिमित्तं, धर्मः पापनिमित्तं, धर्मो धर्मनिमित्तमित्यन्योन्यानुबंधित्वात् । कामकृताकामकृतविकल्पाल्लौकिकलोकोत्तरिकधर्मद्वैविध्याच लोकव्यापारदेवतायतनकरणदेवर्षिब्राह्मणपूजानिमित्तमकामकृतं पापं धर्माभिवृद्धये [ भवति ] तथा चोक्तम् ॥ पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ । दोषाय नालं काणका विषस्य न दृषिका शीतशिवांबुराशौ ॥ इति तथा चैवं द्विजसाधुमुनिगणविशिष्टेष्टजनचिकित्सार्थं सकरुणमचयित्वानीतमौषधं पुण्याय । एवं पैतामहेऽप्युक्तम् । अचयित्वाघ्रिपान्मूल-मुत्तराशागतं हरेत् ।। पूर्वदक्षिणपाश्चात्यपत्रपुष्पफलानि च ॥ में कौन संदेह के साथ बोल सकता है। क्यों कि धर्म तो अहिंसा लक्षण है वह प्राणियों को न मारने से होता है । यहांपर धर्माधर्म विकल्प चार प्रकार से होता है । पापका निमित्त पाप, धर्मनिमित्त पाप, पापनिमित्त धर्म, धर्मनिमित्त धर्म, इस प्रकार परस्पर अन्योन्यसंबंधसे चार प्रकार से विभक्त होते हैं । एवं सकामभावना व निष्काम भावना से एवं लौकिक व लोकोत्तर रूप से किये हुए धर्मका भी दो प्रकार है। लौकिकव्यापाररूपी देवायतन, देवपूजा, गुरुपूजा, ब्राह्मणपूजा आदि के लिये निष्काम भावना से कृत पाप धर्माभिवृद्धि के लिए ही कारण होता है। कहा भी है। पूज्य जिनेंद्रकी पूजा करने के लिए मंदिर बांधने, सामग्री धोने आदि आरंभमें लगने वाले पापका लेश पुण्यसमुद्रके सामने दोषको उत्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं है । जिस प्रकार शीतामृतसमुद्रमें विषका एक कण उसको दूषित करनेके लिए समर्थ नहीं होसकता है उसीप्रकार पुण्यकार्य के लिए किये हुए अल्पपापसे विशेषहानि नहीं होसकती है। इसीप्रकार द्विज, साधु व मुनिगण आदि महापुरुषोंकी चिकित्साके लिये करुणा के साथ अर्चना कर लिया हुआ स्थावर औषध पुण्य के लिये ही कारण होता है। पैतामहमें भी कहा है:..उत्तर दिशाकी ओर गए हुए वृक्ष के मूल को अर्चन कर उसे लाना चाहिए । एवं पूर्व, दक्षिण व पश्चिम दिशा की ओर झुके हुए पत्र, फल व पुष्पों को ग्रहण करना चाहिये । Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिताहिताध्यायः। ( ७४३) एवं सकरुणमौषधानयनवचनमौषधं प्राण्यनुग्रहार्थ, निर्मलतो न विनाशयोदित्यर्थः। अथवा तृणमुल्मलतावृक्षाद्यशेषप्राणिपशुब्राह्मणशिरच्छेदनादिसंभूतपापादीनामसमानत्वादसदृशप्रायश्चित्तोपदेशात् । तथा प्रायश्चित्तस्यैतल्लक्षणमुच्यते । प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तञ्चित्तग्राहको धर्मः प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ॥ उक्तं चः अनुतापेन विख्याज्याद्धितमाद्धतचर्यया । पादपर्धत्रयं सर्वमपहन्यादिति स्मृतम् । एकभुक्तं तथा नक्तं तथाप्यायाचितेन च । एकरात्रोपवासश्च पादकृच्छं प्रकीर्तितम् । (१) अथवा च तस्य मिथ्या भवतु मे दुष्कृतमिति वचनादपि प्रशाम्यंत्यल्पपापानीति सिद्धांतवचनात् । अथवा गंधपणेषु गंधिकोपदिष्टानि नानाद्वीपांतरगतानि नानाविधरसार्यविपा. इस प्रकार करुणा के साथ औषधि को ग्रहण करने का विधान जो किया गया है वह प्राणियों के प्रति अनुग्रह के लिए है । अतएव उन वृक्षादिकों को मूल से नाश नहीं करना चाहिए । अथवा तृण, गुल्म, लता वृक्ष आदि समस्त प्राणि, पशु, ब्राह्मण आदि का शिरच्छेदन से उत्पन्न पाप, सभी समान नहीं हो सकते। अतएव उस के लिए प्रायश्चित्त भी भिन्न २ प्रकार के कहे गए हैं । प्रायश्चित्त का अर्थ आचार्यों ने इस प्रकार बताया है कि:-- . प्राय नाम लोक का है अर्थात् संसार के मनुष्यों को प्रायः के नाम से कहते हैं। चित्त नाम उन के मन का है । उस लोक [प्राय ] के चित्त से ग्रहण होनेवाला जो धर्म है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । कहा भी है प्रायश्चित्त के लिए भिन्न २ प्रकारके आत्मपरिणामोंकी मृदुलासे किए हुए पापोंमें क्रमशः पाद, अर्ध, त्रयांश, और पूर्ण रूप में नाश होते हैं । इसी प्रकार पादकृच्छ्र प्रायश्चित्त में एक भुक्तादिक के अनुष्ठान का उपदेश है। इसी प्रकार वह सभी दुष्कृत मेरे मिथ्या हों इत्यादि आलोचना प्रतिक्रमणात्मक शब्दों से भी पापों का शमन होता है, इस प्रकार सिद्धांत का कथन है । अथवा साधुजनों की चिकित्सा प्रकारण में कहा गया है कि सुगंध द्रव्य की दुकानों में मिलने वाले सुगंध द्रव्य विशेष, नाना द्वीपांतरों में उत्पन्न, अनेक प्रकार के रसवीर्य विपाक ऊपरके दोनों लोक पैतामहके हैं । परंतु ठीक तरह से लगते नहीं । पहिले चरण पाट अशुद्ध पड़ा हुआ मालुम होता है । दोनों श्लोकों का सारांश अपर दिया गया है। Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४४ ) कल्याणकारके 'कप्रधानानि, सुप्राकानि, सुरूपाणि, सुमृष्टानि, सुगंधीन्यशेषविशेषगुणगणाकीर्णानि, संपूर्णान्यभिनवान्यखिलमलभेषजानि संतर्पणानि, तैस्साधुजनानां चिकित्सा कर्तव्येति । तदलाभ परकृष्णक्षेत्रेषु हलमुखोत्पाटितान्यविशुष्कानि सर्वर्तुषु सर्वौषधाणि यथालाभं संग्रहं कुर्वीतेति । तदलाभेष्वेवमुच्छिन्नभिन्नशकलामकाच्चित्तकभिन्नसकलचित्ताल्पप्रदेश बहुप्रदेशप्रत्येक साधारण शरीरक्रमेण भेषजान्यपापानि सुविचार्य गृहीत्वा साधूनां साधुरेव चिकित्सां कुर्यादिति कल्पव्यवहारेऽप्युक्तं । उच्छिन्नभिन्नसकलं आमकाच्चित्तभिन्नसकलं च भिन्नसकलं चित्तं अल्पप्रदेश बहुप्रदेशमिति, तस्मात्साधूनां साधुरेव चिकित्सकस्स्यात्तथा चोक्तम् ! सजोगनिठ्ठेह रितीपिनिच्छये साधुगणेसाधु ( ? ) इति साधुचिकित्सकालाभे श्रावकः स्यात्तदलाभे मिथ्यादृष्टिरपि, तदलाभे दुष्टमिध्यादृष्टिनापि वैद्येन सन्मानदानविषंभातिशय मंत्रौषध विद्यादानक्रियया संतोष्य साधूनां चिकित्सा कारयितव्या, सर्वथा परिरक्षणयासावतेषां सुखमेव चिंतनीयम् कर्मक्षयार्थमिति । तथा चरकेणाप्युक्तम् रोगभिषग्विषयाध्याये: - प्रधान, सुप्रासुक, सुरूप, सुस्वाद्य, सुगंधयुक्त, समस्त गुणों से युक्त, ताजे व निर्मल, संतर्पण गुण से युक्त औषधों से साधुजनों की चिकित्सा करनी चाहिए । यदि उस प्रकार के औषध न मिले कृष्णप्रदेशों में उत्पन्न, हलमुख से उत्पाटित अत्यधिक शुष्क नहीं, सर्व ऋतुवों में सर्व योग्य औषधियों को यथालाभ संग्रह करना चाहिए । उस का भी लाभ न होने पर जिस की सचित्तता दूर की जा चुकी है, ऐसे प्रत्येक साधारणादिभेदक्रमों के अनुसार शरीरविभाग पर विचार कर शुद्ध प्रासुक औषधियों को ग्रहण कर साधुवों की चिकित्सा साधुजन ही करें । इस प्रकार कल्पव्यवहार में कहा गया है । साधुजनों की चिकित्सा प्रसुक शुद्ध द्रव्यों के द्वारा योगनिष्ठ साधुजन ही ठीक तरह से कर सकते हैं । यदि चिकित्सक साधु न मिले तो श्रावक से चिकित्सा करावें । यदि वह भी न मिले तो मिध्यादृष्टि वैद्य को सम्मान, दान, आदरातिशय, मंत्र, औषध विद्यादिक प्रदान कर संतोषित करें और उस से चिकित्सा करावें । क्यों कि साधुजन सर्वथा संरक्षण करने योग्य हैं । अतएव उन के सुख के लिए अर्थात् रोगादिक के निवारण के लिए सदा चिंता करनी चाहिये । क्यों कि वे कर्मक्षय करने के लिए उद्यत हैं । अतएव उन के मार्ग में निर्विघ्नता को उपस्थित करना आवश्यक है । वे साधुगण शरीर के निरोग होने पर ही अपने कर्मक्षयरूपी संयममार्ग में प्रवृत्त कर सकते हैं 1. इसी प्रकार चरक ने भी अपने रोग और वैद्य संबंधी अध्याय में प्रतिपादन किया है । Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिताहिताध्यायः। (४५) कर्मसिद्धिमर्थसिद्धिं यशोलाभ प्रेत्य च स्वर्गमिच्छता त्वया, गोब्राह्मणमादौ कृत्वा सर्वप्राणभृतां हितं सर्वथाश्रितम् * इति । इमं वस्तु स्थावर जंगमं चेति । तत्र स्थावर द्रव्यवर्ग...... [?] जंगमस्तु पुनर्देहिवर्गः । द्रव्यवर्गयोराहायाहारकमुपकार्योपकारकसाध्यसावनरक्ष्यरक्षणभक्ष्यभक्षणकादिविकल्पात्मकत्वात् । तयोर्भक्ष्यं स्थावरद्रव्यं वर्तते । भक्षणकाले हि वर्ग इति तत्वविकल्पविज्ञानबाह्यमूढ मिथ्यादृष्टिवैद्यास्सर्वभक्षकास्संवृत्ता इति । तथा चोक्तम् ॥ गुणादियुक्तद्रव्येषु शरीरेष्वपि तान्धिदुः । स्थानवृद्धिक्षयास्तस्मादेहानां द्रव्यहेतुकाः । इतीत्थं सर्वथा देहिपरिरक्षणार्थमेव स्थावरद्रव्याण्यौषधत्वेनोपादीयते । तदा जंगमेष्वपि क्षीरघृतदधितक्रप्रभृतीनि तत्प्राणिनां पोषणस्पर्शनवत्सस्तनपानादिसुखनिमित्त जो मनुष्य वैद्य होकर कर्मसिद्धि [चिकित्सा में सफलता] अर्थसिद्धि [द्रव्य-लाभ इह लोक में कीर्ति और परलोक में स्वर्ग की अपेक्षा करता हो, उसे उचित है कि वह गुरूपदेश के अनुसार चलने के लिए प्रयत्न करें एवं गौ, ब्राह्मण आदि को लेकर सर्व प्राणियों का आरोग्य वैद्यपर ही आश्रित है, इस बात को ध्यान में रक्खें । और उन्हें सदा आरोग्य का आश्वासन देवें । वह द्रव्यवर्ग दो प्रकार का है । एक स्थावर द्रव्यवर्ग और दूसरा जंगमद्रव्यवर्ग। [स्थावर द्रव्यवर्ग पृथवी, अप, तेज, वायु, वनस्पत्यात्मक है ] | जंगम द्रव्यवर्ग तो प्राणिवर्ग है। द्रव्यवर्गों में आहार्य आहारक, उपकार्य उपकारक, साध्य साधन, रक्ष्य रक्षण, भक्ष्य भक्षण, इस प्रकार के विकल्प होते हैं। उन में स्थावर द्रव्य तो भक्ष्य वर्ग में है । भक्षणकाल में कौनसा पदार्थ भक्ष्यवर्ग में है, और कौनसा भक्षणवर्ग में है इस प्रकार के तत्वविकल्पज्ञानसे शून्य मूढमिथ्यादृष्टि वैद्यगण सर्व [भक्ष्याभक्ष्य ] भक्षक बन गए । कहा भी है .. गुणादियुक्त द्रव्यों में, [ उन स्थावर ] शरीरों में भी स्थिति, वृद्धि व क्षय करने का सामर्थ्य है । अतएव देह के लिए द्रव्य [ स्थावर ] भी पोषक है। इस प्रकार सर्वथा प्राणियों के संरक्षण के लिए ही स्थावर द्रव्यों को औषधि के रूप में ग्रहण किया जाता है। इसी प्रकार जंगम प्राणियों के भी क्षीर, घृत, दही, तक आदियों को उन प्राणियों के पोषण, स्पर्शन, वत्सस्तनपान आदि सुखनिमित्त __ * शर्माशासितव्यमिति मद्रितचरकसंहितायाम् । परन्तु रोगभिषग्जितीय विमान अध्याय इति मुद्रितपुस्तके। Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणकारके संभूतान्याहारभेषजविकल्पनार्थमुपकल्प्यते । तस्मादभक्ष्यो देहिवर्गो इत्येव सिद्धो नः सिद्धांतः । तथा चोक्तम् । मांस तावदिहाहतिर्न भवति, प्रख्यातसद्भेषजं । नैवात्युत्तमसद्रसायनमपि प्रोक्तं कथं ब्रह्मणा । सर्वज्ञेन दयालुना तनुभृतामत्यर्थमेतत्कृतं । तस्मात्तन्मधुमद्यमांससहितं पश्चात्कृतं लंपटैः ॥ एवमिदानीतनवैद्या दुर्गृहीतदुर्विद्यावलेपाद्यहंकारदुर्विदग्धाः परमार्थवस्तुतत्वं सवि. स्तरं कथमपि न गृण्हतीत्येवमुक्तं च । अज्ञस्सुखमाराध्यस्मुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रंजयति ॥ . एवं-- से उत्पन्न होने से औषधियों के उपयोग में ग्रहण किया जाता है । इसलिए देहिवर्ग [प्राणिवर्ग ] अभक्ष्य है । इस प्रकार का हमारा सिद्धांत सिद्ध हुआ। इसलिए कहा है कि- यह मांस आहार के काम में नहीं आसकता है। और प्रख्यात औषधि में भी इस की गणना नहीं है । और न यह उत्तम रसायन ही हो सकता है। फिर ऐसे निंद्य अभक्ष्य, निरुपयोगी, हिंसाजनितपदार्थ को सेवन करने के लिए सर्वज्ञ, दयालु, ब्रह्मऋषि किस प्रकार कह सकते हैं ? अतः निश्चित है कि इस आयुर्वेदशास्त्र में निहालंपटों के द्वारा मधु, मद्य, और मांस बाद में मिलाये गये हैं। - इस प्रकार युक्ति व शास्त्रप्रमाण से विस्तार के साथ समझाने पर भी दुष्ट दृष्टि. कोण से गृहीतदुर्विद्या के अहंकार से मदोन्मत्त, आजकल के वैध किसी तरह उसे मानने के लिए तैयार नहीं होते । इसमें आश्चर्य क्या है ? कहा भी है- बिलकुल न समझनेवाले मूर्ख को सुधारना कठिन नहीं है । इसी प्रकार विशेष जाननेवाले बुद्धिमान् व्यक्ति को भी किसी विषय को समझाना फिर भी सरल है। परंतु थोडे ज्ञान को पाकर अधिकगर्व करनेवाले मानीपंडित को ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता है। सामान्यजनों की बात ही क्या है ? । Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिताहिताध्यायः । ग्रंथ अध्ययन फल । यो वा वेत्ति जिनेंद्रभाषितमिदं कल्याणसत्कारकम् । सम्यक्त्वोत्तरमष्टसत्प्रकरणं (2) संपत्करं सर्वदा ॥ सोऽयं सर्वजनस्तुतः सकलभूनाथार्चितांत्रिद्वयः । साक्षादक्षयमोक्षभाग्भवति सद्धर्मार्थकामाधिकान् ॥ इतिहास संदर्भ | ख्यातः श्रीनृपतुंगवल्लभमहाराजाधिराजस्थितः । मोरिसभांवरे बहुविधप्रख्यातविद्वज्जने ॥ मांसाशिनकरेंद्रताखिलभिषग्विद्याविदामग्रतो । मांसे निष्फळतां निरूप्य नितरां जैनेंद्रवैद्यस्थितम् || इत्यशेषविशेषविशिष्टदुष्टपिशिताशिवैद्यशास्त्रेषु मांसनिराकरणार्थमुप्रादित्याचार्यैनृपतुंगवल्लभेंद्रसभायामुद्घोषितं प्रकरणम् । आरोग्यशास्त्रमधिगम्य मुनिर्विपश्चित् । स्वास्थ्यं स साधयति सिद्धसुखैकहेतुम् ॥ ( ७४७ ) इस प्रकार इस जिनेंद्रभाषित कल्याणकारकको, जो अनेक उत्तमोत्तम प्रकरणों से संयुक्त व संपत्कर है, जानता है वह इह लोक में धर्मार्थ काम पुरुषार्थी को पाकर एवं सर्वजनबंध होकर, संपूर्ण राजाओं से पूजितपदकमलों को प्राप्त करते हुए [ त्रिलोकाधिपति ] साक्षात् मोक्ष का अधिपति बनता है । प्रसिद्ध नृपतुंगवल्लभ महाराजाधिराज की सभा में, जहां अनेक प्रकार के उद्भट विद्वान् उपस्थित थे, एवं मांसाशनकी प्रधातता को पोषण करनेवाले बहुत से आयुर्वेद के विद्वान थे, उन के सामने मांस की निष्फलता को सिद्ध कर के इस जैनेंद्र वैद्य ने विजय पाई है । इस प्रकार अनेक विशिष्टदुष्टमलिभक्षणपोषक वैद्य शास्त्रों में मांसनिराकरण करने के लिए श्री उग्रादित्याचार्य द्वारा नृपतुंगवल्लभराजेंद्र की सभा में उद्घोषित यह प्रकरण है । आयुर्वेदाध्ययनफल. जो बुद्धिमान् मुनि इस आरोग्यशास्त्र का अध्ययन कर उस के रहस्य को समझता है, वह मोक्षसुख के लिए कारणीभूत स्वास्थ्य को साध्य कर लेता है । जो इसे Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४८ ) कल्याणकारके अन्यः स्वदोषकृतरोगनिपीडितांगो।। बध्नाति कर्म निजदुष्परिणामभेदात् ॥ भाषितमुग्रादित्यैर्गुणैरुदारैस्समग्रमुग्रादित्यं । भाषितनमितजयंतं । समग्रामुग्रादित्यम् ॥ इत्युग्रादित्याचार्यविरचितकल्याणकारके हिताहिताध्यायः । अध्ययन नहीं करता है, वह अपने दोषों के द्वारा उत्पन्न रोगों से पीडित शरीरवाला होने से, चित्त में उत्पन्न होनेवाले अनेक दुष्ट परिणामों के विकल्प से कर्म से बद्ध होता है । अतएव मुनियों को भी आयुर्वेद का अध्ययन आवश्यक है। इस प्रकार गुणों से उदार उग्रादित्याचार्य के द्वारा यह कल्याणकारक महाशास्त्र कहा गया है । जो इसे अध्ययन करता है, नमन व स्तुति करता है, वह उग्रादित्य [ सूर्य ] के समान तेज को प्राप्त करता है । इसप्रकार श्रीउग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारककी भावार्थदीपिका टीकामें हिताहिताध्याय समाप्त हुआ । - - - - - इति कल्याणकारकं समाप्तम् श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलांछनम् । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ इति भद्रं। Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमः परमात्मने वीतरागाय । कल्याणकारक वनौषधिशब्दादर्शः श्री. संपादक वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री [ विद्यावाचस्पति ] Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत. अंकोल अंधिक अंध्रिप अंजन अंडक अंबुज अंबुद अबुरुहा अम्बाष्टका अंशुमती अगरु अगस्ति श्रीकल्याणकारक वनौषधि शब्दादर्श. हिंदी. (पु) ढेरावृक्ष. (पु) वृक्ष की जड. पेड. (स्त्री) (न) (घु, during अ (पु) अंडकोष . (न) कमल, हिजलवृक्ष, समुद्रफल. (पु) मुस्तक, मोथा. (स्त्री) स्थलपद्मिनी, गेंदावृक्ष. (स्त्री) अंकोली. मूळ. (पु) वृक्ष, झाड. (न) सौवीरांजन, रसांजन, सुर्मा, रसोत. काळा सुरमा, काळा रोगना, स्रोतोंजन, सौवीरांजन, कृष्णांजन, पाठा, यूथिका, पाढा, जुही. शालपर्णी, शालवन, शखिन. अगुरु, अगर. (पु) मुनिद्रुम, हथियावृक्ष. -- मराठी. रक्तांजन, पीतांजन, डोळ्यांत औषध घालणें, अंडकोष. परेल, कमल, जलवेत, मोथ, मेघ. स्थलकमलिनी, कमळ.' पहाडमूळ. सालवण पूर्णिमा. अगर. अगस्ता. कनडी ७०३०९७. २९. ॐ ಕಣ್ಣು ಕಪ್ಪು ಸೌವೀರಾಂಜನ ಅಂಡಕೋಶ ४लd nd, v. Bo Bo ३४. srids 29. ಮೂರೆಲೆ ಹೊನ್ನೆ. ಅಶೋಕ ವೃಕ್ಷ, ( ७४९ ) Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hed. (न) | देखो अग्नि. संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. अग्नि | चित्रकवृक्ष, रक्तचित्रकवृक्ष, भल्ला | विस्तव, चित्रक, केशर, पीतवाला, | 233,.. तक, निंबूक, स्वर्ण, पित्त,चीतावृक्ष, : रक्तचित्रक, बिबवा, काकडाचें लाल चीता भिलावेका वृक्ष, नींबू का | झाड, पित्त, ज्वाला, भात, जार, वृक्ष, सोना, पित्त. सोने, निंबू. अग्निक अगेथु.. | अग्निक वृक्ष. आग्निद्रुम |पहा अग्नि. ಚಿತ್ರಮೂಲ | अग्निमथ (4) गणिकारिकावृक्ष, अरणी, थोर एरण नरवेल. जीमत तारी थोर एरण. नरवेल, जीमूत, तकारी. En . अगेथुवृक्ष. || अजाजी (स्त्री) | कृष्णजारक, श्वतेजरिक, काको | श्वेतजिरे, कृष्णजिरे, काळाऊंबर. 209 BRE, Bb28COR. | ढुंबरिका, काला जीरा, सफेदजीरा, पटूंबर, अजकर्ण (पु) | असनवृक्ष, विजयमार. हेदांचा वृक्ष, थोरराळेचा वृक्ष, | ಹಿರಿ ಹೊನ್ನೆಮರೆ असनाचे झाड, अजगन्धा (स्त्री) | वनयवानी, अजमोद. | रामतुळस, तिळवण. 07003, 33४३९, अजमोदा (स्त्री) | वनयवानी, पारसकियवानी, यवानी | अजमोद, ओवा, मुरदारसिंग. अजमोद, खुरासानी अजमायन, ( ७५० ) हदा अजमायन. अजशृंग (गी) (पु.) | मेढासिंगी. | मेडशिंगी. काकडसिंगी. ಕುರುಗೆ ಗಿಡ. | Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - | अडूळसा. 9802. संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. अटरूष (पु)/ पासकवृक्ष, अडूसावृक्ष, बसौंटा. ಆಡುಸಾಲ್, ಆಡುಸೋಗೆ, अतसी (स्त्री) | अलसीमसीना, जवस. ente. अतिबला (स्त्री) | पीतवर्णवला, नागबला, सहदेई, | विकंकती,वाघांटी,नाट्यपुर्पा,लेचा, | roces [ #ganesds ] - कंघई, गुलसकरी, कंघी. _naading 3. अतिविषा (स्त्री) | अतीस [ शुक्ल कृष्ण अरुणवर्ण | अतिविष कंदविशेष } । अद्रक (न) | निंब विशेष. बकाण निंब ಮಹಾಬೇವು, ಅರಬೇವು. अदिकी (स्त्री) | अपराजिता, कोईल, कृष्णकांता, श्वेतकर्णी. horor. अधोमानिनी (स्त्री) | गोभी [ अधोमुखा ] . पाथरी. ಹಕ್ಕರಿಕೆ ಗಿಡ, | अनिलघ्नी (स्त्री) | बहेडा अपवर्ग बीज (न) स्वनामख्यात वृक्षबीज. स्वनामख्यात वृक्षबीज ಅಪವರ್ಗ ಬೀಜ ! आमार्ग (पु) | क्षुपविशेष, चिरचिरा, आघाडा.. ಉತ್ತರಾಣಿ, | उशीर, खस वाला. | ಲಾವಂಚಾ, ಅಳಲೇಗಿಡ ( ७५१) बेहडा. अभय (स्त्री) हरीतकी, हरडा, अभया ಅಳಲೇಕಾಖೆ | हर्तकी, श्वेतनिर्गुडी, मंजिष्ठा, खंड,.. मृणाल, जजा, जयंती कांजिका - अभ्रक अभ्रक. (न), अभ्रक (पु)! हडसंकरी - अमरतरु शुडी, नदीवड, It 9. Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत. अमरदारु अमृत अम्लिका अरुष्कर अरिष्ट अरिनंद अर्क त अजुन अलंक अशोक अश्मन्तक अश्मभित् अश्वत्थ अश्वगन्धा अश्वमारक असण हिंदी. (पु) देवदारु (पु) वनमुद्ग, गुडची, गेंठी, वनमूंग, गिलोय (स्त्री) तिंतिडी, इमली. ( न ) भिलावेका फल (पु) | छाछ, नीम, लहसन, रीठा, (पु) दुर्गंत्रयुक्त खैर (पु) (पु) कोह (पु) सफेद आक (पु) अशोक वृक्ष (पु) तृण विशेष (पु) पाषाणभेद, पाखानमेद. (पु) पीपल (स्त्री) असगंध आकका वृक्ष कनेर वृक्ष. ( पु ) विजयसार मराठी. देवदार. डुकरकंद, बचनाग, वनमूग, चिंच, आंबाडी, चिंचोडी. विबवा. ताक, कडुनिंब, रिठा, लसूण. गंधी हिंयर श्वेतरुई दर्भभेद. श्वेत रुई. अशोकवृक्ष. आपटा, कोरळ, घोळ, चुका, पाषाणभेदी पिंपळ. आसगंध. श्चतकणेर असणा. कनडी. ದೇವದಾರು, ಅಮೃತಬಳ್ಳಿ, ಬೆಳ್ಳಿ, ಅರಳೆ, ಹುಣಸೇ ಗೇರಿನ ಮರ, १० d. 25 ৬ট, ৯উ১১৩ ಕೆಂಪು ಮತ್ತೆ ಗಿಡ, ಬಿಳೀಯಕ್ಕಮಾಲೆ. ಕೆಂಪು ಚಿನ್ನ ದೆಲೆಗಿಡ, ಕೆಂಪು ಕಂಚಾಳದ ಬೇರು, ಹಿಟ್ಟಲೀಕ, ಒಟ್ಟಲಿಗಿಡ, ಪಾಷಾಣಭೇದ d. २००९, ७०. ಕಣಗಿಲೆ ಹಿರಿ ಹೊನ್ನೆ ಮರ ( ७५२ ) Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत. असन असित तिल अस्थि अहिंस्रा अक्ष अक्षिफल आखुकर्णी आज्य आजिगन्धि आटरूष आढकी आर्द्रक आदित्यपणि आमलक ( न ) (स्त्री) (स्री) (3) (स्त्री) हिंदी. विजयसार कालेतिल हडसंकरी काकादनी वृक्ष विभातकवृक्ष, रुद्राक्ष, कर्षपरिमाण, बहेडावृक्ष, रुद्राक्ष, २ तोलेका प्रमाण पानीलोध अडूसा. शमी धान्यविशेष, अडहर. ( न ) अदरख . (न)अकौवा . असणा. काळे तिळ. हाड संकरी. फडीचे निवडुंग. बेहेडा, रुद्राक्ष, कर्षप्रमाण, श्वेतलोघ्र. (स्त्री) लताविशेष, मूसाकर्णी, (न) घृत, श्रीवास, घी, सरलका गोन्द | तूप. (स्त्री) देखो अजगंधा आ मराठी. पहा अजगंधा. ಹೊನ್ನೆ ಮರ ४०९ ৯४ १ लघु उन्दीरकानी, २ उन्दीरमारी, ६ ॐ सूर्यफूलवल्ली. (पु) बांसा, अडूसा, बसौंटा [न] कर्करा. आंगळी, अडूळसा, कनडी. ०९९, ०४०९. ಡಬ್ಬುಗಳ್ಳಿ, ಪಾಪಾಸ್ ಕಳ್ಳಿ. ತಾರೆ ಗಿಡ, ಸೌವರ್ಚಲವಣ ಎರಡು ತೊಲೆ ಪ್ರಮಾಣ. Sar, do, ९. ಅಜಗಂಧಾ ನೋಡಿ, अइलसा. ಆಡು ಸೋಗೆ, तुरी, सोरटीमाती, गोपीचन्दन, तुरटी. Banice nd eve आला. 5.co. २०३७०६. ಎಕ್ಕೆ ಮಾಲೆ. ನೆಲ್ಲಿ ಮರ, ಆಡು ಸೋಗೆ, ( ७५३ ) Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत आम्र आम्रक आम्रदल आम्रातक आम्ला आरग्वध आरण्यालु आरुष्कर आरेवती आलर्क ( पु ) ( पु ) आलाबु आलुक आश्वान्तक आसनतरु आस्फोत (न) (पु) (ख) (पु) (पु) (पु) (स्त्री) (पु) ( खी) ( न ) ( पु ) (पु) (पु) आषपत्र [आस्यपत्र ] (न) आक्ष. (पु) हिंदी. आम. आम.. आमका पत्ता आंबाडा तितडी, इसली अमलतास जंगलो आलु, कंदविशेष. भिलावेका फल पारवत वृक्ष फल देखो अलर्क कद्दू, तुंबी आलु, एलुवा देखो अश्मंतक जीवक अष्टवर्ग औषधि, विजयसार. आक, कचनार, विशालवृक्ष, कमल, देखो अक्ष मराठी. आंबा. आंबा. आंबेचा पाला. अंबाडा. चिंच. थोर बाहावा. कंदविशेष. काजू, बिचवा. थोर बाहावा, लघुपालेवत. पहा अलर्क. भोपळा. कांसाळु, अळु, एलुवालुक. पहा अश्मंतक. बिवळा. श्वेतउपलसरी, श्वेतगोकर्णी. कमल. पहा अक्ष. कनडी. ಮಾವಿನ ಮರ, ३२. ಮಾವಿನ ಎಲೆ. 23. नं. ಬಲ ರಾಕ್ಷಸಿಗೆಡ್ಡೆ, ಗೇರು ಕಾಯಿ, के [४] ७०. ঈ১owঔ १६६००१२ ನೋಡಿ ಅಂತಕ, ಜೀವಕ ಅಷ್ಟವರ್ಗೌಷಧಿ, , २००९. उच्३४. ನೋಡಿ ಅಕ್ಷ ( ७५४ ) Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंगुदी (स्त्री) (पु) इन्द्रदारु इन्द्रपुष्पी [ष्पा] (स्त्री) इन्द्रवल्लिका इन्द्रवारुणी इक्षु इक्षुर इक्षुरक संस्कृत.. उत्क उत्कट हिंदी. हिंगोट, इंगुल, मालकांगुनी, देवदारु. हिंगणबेट. तेल्यादेवादार. कळसावी. लघुकांवाडळ. लघुकांवडळ, थोर कांवडळ, ऊस. तालिमखान, (पु) ईख, तालमखाना. (पु) तालमखाना, ईख, कांस, गोखरू, तिरकांडे, बोरु, काळा ऊंस, विखग, लघुमुंजतृण, थोर मुंजतृण, कोळसुंदा, थोर तिरकांडे, रामबाण. (पु) कलिहारी. (स्त्री) इंद्रायन. (स्त्री) लताविशेष, इंद्रायन. 99 lating मराठी. उ " उग्र बचनाग. (न) | बछनाभविष. (न) हींग, उग्रगन्ध कायफळ, हिंग. श्वेतगुंजा, लहसणभेद. कंद विशेष उच्चट (टा) (न) (स्त्री) घुंघची चोटली, भुई आमला, नागर-कथील, भुयआवळी, रक्तगुंजा, मुस्ता, मोथा, लहसनभेद, निर्विषी घास. कंद विशेष (पु) दालचीनी, तेजपात. दालचिनी, तिरकांडे, ऊंस. कनडी. ಇಂಗಳದ ಗಿಡ, ಗಾರೆಗಿಡ, २००२,००२ रु. ಕೊ ಕುಟುಮ. ४३८९०२. ಪಾಪಟ ಗಿಡ, ' ಕೊಳವಂಕಿ ಗಿಡ, ತಾಲಮಖಾನೆ, Pinead... " ನೇಪಾಳದ ಬೇರು aon. ಗುಲಗುಂಜಿ ಭೇದ, ತುಂಗಮುಸ್ತೆ. ಜಕ್ಕಿನಗಡ್ಡೆ, ಲವಂಗ ಚಿಕ್ಕೆ, ದಾಲಚೀನಿ, ( ७५५ ) Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. उत्पल (न)| कुमुद, कूठ, फूल. | कोष्ट, नीलकमळ. ನೀಲಕಮಲ, उदुंबर (पु) / गूलर [ न ] ताम्र. .. उंबर [ न ] तांबे. ಒತ್ತಿ ಹಣ್ಣು, ಅತ್ರಿಗಿಡ.. उशीर (न) वरिणमूल, खस.. काळाबाळा, पीतवाळा, गाडरवस. | 050323, 3155 223, उषण | मरिच, पिप्पलीमूल, गोल-काली, | मिरे. पिंपळमूल, ಮೆಣಸು, ಹಿಪ್ಪಲೀ ಮೂಲ. मिरिच, पीपरामूल. उष्णी (स्त्री) | लपसी आदि, कन्हेरी. पेज, कण्हेरी. 03, ators Sainam न - ऊषक खारीमट्टी | खारीमाती. | 5, 2002 (30) एला एरंडक (स्त्री) | फलवृक्षविशेष, एलायर्ची,इलायची. | एलाची, नीळी, वेलदोडा. | ctet. (पु) स्वनामख्यातवृक्ष, अण्डकापेड. साधारण-एरण्ड, सूर्तीएरण्ड, श्वेत- des200103. एरण्ड, कडुकांकडी, मोंगळीएरण्ड, जेपाळ, - - - ऐरावती (स्त्री) | वटपत्रीवृक्ष, वडपत्री. | वटपत्री, पाषाणभेद, लकड्या |2500000303 20६८७. पाषाणभेद, आरी. [२ ]-2803, Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ संस्कृतकक्कोल कटुत्रिक (त्रय ) ( न ) कटुरोहिणी (स्त्री) कट्फल कण कणिका कतकफळ कदली कदम्ब हिंदी. (क) सुगंधिद्रव्यविशेष, शीतलचीनी, त्रिकटु, सोंठ, मिरच, पीपल (न) कदल कटुकी, कुटकी (यु) कंकोलक, शीतलचीनी ( पु ) (स्त्री) अग्निमंधवृक्ष, अरणी, त्रिकटु, १ सोंठ, २ मिरच, ३पीपल त्रिकटु, सोंठ, मिरी, पिंपळ कटुकी वनजीरक, बनजीरा, कालाजीरा (पु) | कतकवृक्ष, निर्मली, (स्त्री) स्वनामप्रसिद्ध वृक्षविशेष, केला वृक्ष. मराठी. कदंबवृक्ष, देवताडकतृण, सर्पप, । कंकोळ. कडुपडवळ, कंकोळ, पिंडीतगर, त्रिकटु, मीठ, कड्डु कांकडी, रुई, मन्दार, वाळाभेद, मोहरी, कुटकी. कायफळ, वांग्यांचे झाड, जलबिन्दू, सूक्ष्म, काळे जिरे, ऐरण, कणीक, निवळीच्या बिया केळ, लोखंडी केळ, शिरस, कळंब, हळदिवा वृक्ष, कदमका वृक्ष, ससा । (पु) कदलीवृक्ष, पृश्निपर्णी, केलावृक्ष, केळ, पृनपर्णी, पिठवन, कनडी. ಕಪ್ಪು ಚೆನ್ನಿ. ४०००, ३६० म. ४०, २०, ३ हे उd-राष्ट ०९. ನೆಲ್ಲಿಯ ಮರ, ३९. ಬಾಳೆ ಮರ, D, dow. ಬಾಳೆ ಮರ, ( ७५७ ) Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. कनक (न)/ ढाकवृक्ष, नागकेशरवृक्ष, धतूरेका राळ, सोनकमळ, नागकेशर, काठ, 03.00, vend. वृक्ष, लालकचनारवृक्ष, कलंबक | श्वेतांत्रा, पतिकोरंटा, काळाधोत्रा, पीलाचन्दन, चंपावृक्ष, कसोंदीवृक्ष, कणगुगुळ,थोरराळे चावृक्ष,वीडलोण कणगल, पलासभेद. | टांकणखार, सोने,पलाश, चंपक. कन्या (स्त्री) | घृतकुमारी, स्थूलेला, वाराहीकन्द, | वांझकर्दोली, कोरफड, थोरएलची, | essaxe. वंध्याककर्कोटकी, घीकुवार, बडी। बादांगुळ, डुकरकन्द, पतंग, इलायची, गेटीवृक्ष, वांझककसा. कन्द गुळवेल. कपि: ।। करंज-विशेष, सिल्हक, एकप्रका- | शिलारस, आंबाडा, कुहिली, ऊद. I am. रकी करंज, शिलारस. आंवळी, विष्ण. (क) (पु) | वृक्षविशेष, कैथ, | कविंट, एलव लुक. ಬೇಲದ ಮರ, कपिफल देखो कपि | पाहा कपि 8. | कपिचूत (क) (पु) | अंबाढा वृक्ष. पारोसा पिंपळ, आंबाडा. ಪುಂಡಿ ಸೊಪ್ಪು, । कपोतक. (न) | सौवीरांजन, सफेद सुर्मा. [कपोत] निळासुरमा, लालसुरमा, | surya. ७०४६. श्वेतसुरमा, सजीखार कपोतवंक (का)(स्त्री) ब्राह्मी घास.. ग्रामी, सूर्यफुलवल्ली ಒಂದೆಲಗ ಸ करवी (स्त्री) | हिंगपत्री. हिंगाच्या झाडाचे पान, कारववृक्ष. | Monis. करवीर (क) (पु) | कनेर-कनेर की जड. . . | श्वेतकणेर, अर्जुनवृक्ष. | Bahenus. ( ७५८ ) Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत... हिंदी. मराठी. कनडी. करचन्दी (सी) | करोंदा. ..' करवंदी. ಕವಳೆಹಣ್ಣು करीर (पु) | बांसका छडका, करील. | वंशांकुर, कारवीचे झाड. ಮುಳ್ಳು ಹಬ್ಬಿ, ಬಿದಿರು ಮೊಳಕೆ. करीष (पु-न) | सूखा गोंवर. गोंवरी. 2338. करूटिक. शिरकी खोपडी. कंवठी, मस्तकाचे हाड. ತಲೆ ಬರುಡೆ. कर्कन्दु (न्धु-धू) पु. स्त्री. बेरीका वृक्ष, छोटा बेरीका वृक्ष. | बोरीचा वृक्ष. 3008,303, 93. कर्कारु (पु.) कोहडा. .. तांबडा भोपळा,क्तांकडी,लघुकोहोळा | २०७४, 23873000. कोटी. (स्त्री) | ककोडा.. देवडंगरी, कद्दोडकी, कोंली. / Use, Bokesh, 32388. कोळ. (न) | देखो ककोल. | पाहा कक्कोल. ನೋಡಿ ಕಕ್ಕೊಲ, | कचेर (न) (यु) सोना, कचूर. सोने, कचोरा, आंबेहळद. woad, ३.०.९ [१] कर्पूर (पु.न)| कपूर. कापुर कर्मरंग (पु.न) | कमरख. नीत्र, कर्मर. ಬೇವು, ಕೆಮರಿಕೆಹಣ್ಣು, करंज [क] (पु) | कंजा वृक्ष, भंगरा वृक्ष. करंज, वानरपिंपळी, थोरकरंज 303, 31, 2009, करंजवल्ली, काबीचा वेल [कंटकयुक्त ಹೊಗೆಸೊಪ್ಪು, असतो] काच का, पांगारा, वाघनख. (पु) मटर. वाटाणे, कवला. ಬಟ್ಟ ಕಡಲೆ. कल्हार | श्वेतोत्पल, कमोदिनी. श्वेतोत्पल,किंचित् श्वेतरक्तवर्ण कमळ ७७९७, 50. साधारण कमळ, रक्तोत्पल, कशेरुक [ का] (स्त्री पीठ की हड्डी का डण्डा, कसेरु. | कासोट्याची जागा, कशेरु कंद. | ಕಚ್ಚೆಯಸ್ಥಾನ, ಕಂದವಿಶೇಷ, ( ७५९ ) - कलाय raminera -- Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -e -- - -- - - - - - - - - -- M --... - . Ram d. MUNDARUDDARDum 0)] . . .........................-mini -- -- - - oaawwvmpIRABHATRUnenAmANadanaammaNAMASTE - - - - - - -- - - - - - . संस्कृत. हिंदी. . मराठी. .. कनडी. काकनास [ का] (पु) गर्जाकल. थोरश्वेतकावळी ಕಾಗೇ ತೊಂಡೆ. काकमाची (स्त्री) | मकोय+केवैया. काकजंघा, लघुकावळी, भाभोलणी. | 328ns. काकवल्लीकाविल्लरी] (पु) । स्वर्ग जल्ली. मीतकंचनी, सोनटका. OFF काकविट कौवेका मल. | कावळ्याची वीठ. ಕಾಗೆಯ ಮಲ काकादनी (स्त्री) कौआठोडी, धुंधुची, सफेद धुंधुची, रक्तगुंजा, थोरमालकं गोगी, लघु-rverect, . काकादनी वृक्ष. रक्त कावळी, श्वेतगुंजा, लघुमाल. ____ कांगी, लघुकडीचे निवडुग. काकोलिका [ली] (स्त्री) | काकोलो. कांकोली. काकोल्पादिगण- काकोली, क्षीरकाकोली, जीवकर्षभकस्तथा । ಕಾಕೋಲ್ಯಾದಿಗಣದಲ್ಲಿ ಹೇಳಿದ ऋद्धि वृद्धिस्तथा मेदा, महामेदा गुडूचिका ॥ ಔಷಧಿಗಳು मुद्रपर्णी माषपर्णी पद्मकं वंशलोचना । श्रृंगी प्रपौंडरीकं च जीवंती मधुयष्टिका || द्राक्षा चेति गणो नाम्ना काकोल्यादिरुदीरितः । काणकाली (स्त्री) | काकोली. कांकोली. ಕಟ್ಟ ವತ್ತಿಗೆ, कारवेल्ली (स्त्री) | करेली. STRETRO. . कार्पासवीज (न) | कपूस का बीज. सरकी. ನೂಲಿನಬಟ್ಟೆ, ಹತ್ತಿ ಬೀಜ, कालागरु (पुर| काली अगर, कृष्णागर. ಕೃಷ್ಣಾಗರು, , ( ०३०) - - - --- -- लघुकारली. - - - R -- - - - Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - | पुहकरमूल, केशर संस्कृत. मराठी. कनडी. कालेयक (न) दारुहलदी. दारुहळद, काष्ठागरु, हरिचन्दन, 2008. छ. केशर, शिलाजित्. काश कांस. लघुकसई. 2022 . काश्मरि [7] (स्त्री) | गम्भारी, कम्भारी. लघुशिवण. पुष्करमूळ. * ಪೊಸ್ಕರಮೂಲ್, काश्मीर (स्त्री) | कोशिंबवृक्ष, कुंभेरका पेड. ಕುಂಕುಮ ಕೇಸರಿ. काष्ठा दारुहलदी. दारुहळद. ಮರ ಅರಶಿನ, कास (पु)| कांसी, खांसी, कांश, सैजिनेका वृक्ष. | खोकला, बोर, शेवगा, मोळ. २०४२, Rens ag. कासनी कंठकारी, कटेरी. भारंग, मोतरिंगणी, लघुडोरली. I dont. कासीस (न) काशीस, कसीस.. हिराकस,माक्षिकमधविशेष,मोरचुत | 8 . किणिही (स्त्री) चिरचिरा. श्वेत आघाडा, थोरश्वेतकिन्ही, | v3.06, काळीकिन्ही, चिरचटा. किरात [क] (पु) | चिरायता. किराईत. Benos, DOOR. कुकुट्टी (स्त्री) | सेमरका वृक्ष. देवडंगरी, सांबरी, कुक्कुटांडसदृश-desore. कंद, चंच, पाल. | कुची [चि] अष्टमुष्टिप्रमाण अष्टमुष्टि परिमितमाप. ಅಷ್ಟಮುಷ್ಟಿ ಪ್ರಮಾಣ कुचन्दन (न) ! लालचंदन, पतंगकी लकडी,केशर | रक्तचन्दन, केशर.द्विदलधान्य पतंग | Ros, 36. कुट [ज] (पु) कुडा. चित्रक, वृक्ष, ವೃಕ್ಷ, ತಂಬಿಗೆ, ಚಿತ್ರಮೂಲಿ, कुटन (पु) कुडा | श्वेतकुडा, इन्द्रजव, कमळ. ಬೆಟ್ಟದ ಮಲ್ಲಿಗೆ, | केवटी मोथा, कशेरु. | टेंटु, क्षुद्रमोथ, केवटी मोथ, ತುಂಗೆಗೆಡ್ಡೆ. 30) ( - । कुटनट Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - -- - - - - - - - - - - - संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. कुतूणक नेत्ररोग विशेष | नेत्ररोगविशेष ನೇತ್ರರೋಗ ವಿಶೇಷ कुनटी (स्त्री) | मनशिल, धनियां.. कोथंबीर, मनशीळ. ಮಣಿಶಿಲೆ, ಕೊತ್ತಂಬರಿ. करनयन नेत्र (न) पाडवृक्ष, लताकरज, सफेद [कठ], सागरगोटी, पाटला. ಹಸರುಪೊಂಗಡ, ಗಜ್ಜಿಗದಕಾಯಿ, [कुबेराक्षी] पाडरवृक्ष. कप्रद ( न सकेदकमल, कमोदिनी, कपूर. कमोदकन्द, गुगळ, कमोदपुष्प, 200333, 33 . नीलोत्पल, श्वेतोत्पल, कायफळ, कापूर, निळे कमळ, कमळ, रुपे. कुमारी [स्त्री] | मोदिनीपुष्प, तरुगोपुष, नेवारी, | कांटेशेवंती, दृष्टि, काळीचिमणी, | 35D९००४3, 3300R. घीकुआर, कोयललता, बांझखखसा, | लघुरानशेवंती,कोरफड,वांझकर्टोली,dod . बांझककोडा, बड़ी इलायची, मल्लिकाभेद, थोरएल ची, 1. मल्लिकाभेद, सेवंती. कुरवक (पु.) | | कुरबक ] लाल कटसरैया... | रक्त कोरंटा, थोरश्वेतरुई, मन्दार, | siver, Reedos. लालफुलाचे भात. कुरंट . [क] (पु) | पीली कटसरैया... श्वेतकोरांटा, कुरडु. ಹಸರು ಗೋರಂಟಿ, ಮಲ್ಲುಗೋರಂಟಿ. | गोरखमुण्डी. मुण्डी, गोरखमुण्डी. v०६६. कुलुत्थ [कुलत्थ (पु) | कुलथी. रक्त कुळिथ. d. कुवलय (न) | कमोदिनी, नीलकमल, नीलवुमुद. निळे कमळ, श्वेतकमळ, नीलोत्पल, | २ ०७ कमोदपुष्य (न. पु.) कुशा. दर्भ, श्वेतदर्भ, (30) - कुलहला - Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चकोतरा नींबू संरकत. हिंदी. मराठी. - कनडी. निबफल विशेष, चकोतरा. ಚಕೊತಫಲ, कुसुंभ (न) | कुसूम के फूल [ जिस के रंग से | कर्डईचे फूल, ಕುಸುಮೇ ಹುವ್ವ. वस्त्र रंगा जाता है ]. कुस्तुम्बुरु धनियां. धणे. 3. ०३७. कूष्माण्ड (क) | पेठा, कम्हडा, कोहडा. | कोहोळा. ಬೂದು ಕುಂಬಳ, कृष्ण कालीमिरच, लोहा, कालीअगर, | काळीमिरे, लोह, कृष्णागर, काळी- | 105300035, 323,८०. , कालानोन, कालाजीरा, सुरमा (पु) | मीठ, काळाजिरा, सुरमा, (पु) 800, ekan, , करौंदा, पीपल. करवंदी, पिंपळ. | Essa, in. कृष्णा (स्त्री)| नीलकावृक्ष, पीपल, वायची, | जटामांसी, पापडी, कटुकी, शाह- | PEL , २०४९०१, कालाजीरा, पद्मावती, दाख, नीली, जिरे, लघुनीली, काळी तुळस, | ९, २०१, 0, com, सोंठ, कंभारी, कुटकी, श्यामलता, | नीलांजन, दुर्वा, काळे द्राक्ष, कालासर, राई, काकोली, जौंक. | पिंपळी, वांवचा, काळेशिरस, काळी निर्गुडी, कलौंजीजिरें, कस्तूरी, रान कुळिथ, जलूका. कृष्णतिल काली तिल. काळे तीळ. ಕರಿ ಎಳ್ಳು, केतकी (स्त्री) | केतकी वृक्ष, खजूर. श्वेत केवट्याचें झांड. ಕೇದಿಗೆ ಹುಟ್ಟು. केसर (न) | हिंग, नागकेशर, सोना, कसीस, | हेम, सिसें, नागकेशर, कमळ केशर | 23600, discina. मौलसिरीवृक्ष, फूलका जीरा, पुन्नाग | बकुळ, सुरपुन्नाग, पुन्नाग, वृक्षाचा वृक्ष, फूल की केशर वा जीरा. | मोहोर, हिंग, हिराकस, केशर, पुष्परेणू. ( ७६३ ) - Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % D कनडी. कोरंटा. संस्कृत. हिंदी. मराठी. कोदालक धान्य विशेष. धान्य विशेष. ಧಾನ್ಯ ಭೇದ, कोरंट कोरंट, ಗೋರಂಟಿ कोल (पु. न.) | बेर, एक तोला, मिरच, शीतल | रानडुकर, कंकोळ, बोर, मिरी, | 2sed, e, es, | चीनी, चव्या. चवक, अंकोल गजपिंपळी, राय- | unds 363, ३६४७४३९३. बोरकोरक, क.ळी, नख, कोश [फल ] (न) | ककोल, शीतलचीनी. कळी, जायफळ, ಕಕೊಲೇಗಿಡ, कोशावकी (स्त्री) झिमनीलता, गलकातोरई, तोरई. घोसाळी, गोडीदांडकी, पडवळ,देव-23.९d, 6383933333. डंगरी, कडुदोडकी, आघाडा, रात्र.. कौलुत्थ कुलथी. कुलथि. . कंगु [का] (स्त्री) | फूलप्रियंगु, कांगुनीधान. कांगधान्य, राळे, गह्वाला. कंगुतैल कांगुनीधान का तेल. कांगधान्याचे तेल. ನವಣಿ ಎಣ್ಣೆ, कंटकारि [री] (स्त्री) | कटेरी, शाल्मलीवृक्ष, सेमर का वृक्ष, | रिंगणी, कारी, स्वेतरिंगणी, फणस. | 2050, 03 DTS), 900६. कंटाईविकंकत वृक्ष. केदक [ कन्द] (पु) | योनिरोग, योनिकन्द, जमीकंद, ! कडवासुरण, योनिरोग, हस्तिकन्द | agrossnese 08, भसीडा, कमलकन्द. | लालमुळा, कांसाळु, कमळकन्द. ಯೋನಿರೋಗ ವಿಶೇಷ. कंदल [ली ] (स्त्री) | केला, कमलगट्टा. कमलबीज, आले, केळफूल, सुवर्ण | 3:3e des, 32000. कांजीरक स्वनामख्यात औषधविशेष. स्वनामख्यात औषधविशेष. ಕಾಂಜೀರಕ್ಕೆ ( ७६४ ) . Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी. : - । संस्कृत. मराठी. कनडी. कार्णका अगेथुवृक्ष, मेढासिंगी. थोरएरण, स्थलकमालिनी, लघुश्वेत- ४९, 1300३९, Weeniods| जुई, कमलकर्णिका, कांटेशेवती, wish, रानशेवंती [लघु ,नरवेल,कमलकोश. कांता (स्त्री) | फूलप्रियंग, बर्डी इलायची, रेणुका, | त्रिसंधी, श्वेतदुर्वा, एलदोडे, रेणुक- | M ers, adore, नागरमोथा. | बीज, नेवाळी. डुकरकन्द, आकाश | 23 , Are . वेल,लघुउन्दीरकानी,गंबला,वाघांटी कांबु [का ] (स्त्री) | असगंध. अश्वगंधा. ಅ೦ಗರಬೇರು, ಹಿರೀ ಮದ್ದಿನಗಿಡ, कांस्य [क] | कसा, कांस्यपात्र, कांसें, उत्तमकांसें, कांस्य पात्र, 16, 2018 पुष्पविशेष. पुष्प भेद. ಪುಷ್ಪಭೇದ, किंशुक .. (पु) पलाश-वृक्ष, नन्दी-वृक्ष, ढाक-वृक्ष, पळस. ನಂದೀಮರ, ಮುತ್ತುಗದ ಮರ, (७६५) तुन-वृक्ष. कुंकुम - कुंडली (न)| केशर, केशर, पिंजर, राळई डीक,कागडा | 2010 (४० • कवड्या ऊद. ३२ तोला प्रमाण. ३२ तोळें प्रमाण. ೩೨ ತೊಲೆ ಪ್ರಮಾಣ, (स्त्री) | जलेबी-मिठाई, गिलोय, कचनार- गुळवेल, कोरळ, नाग, बाहावा, | 3200, Orik, , ४०० पुष्पवृक्ष, किंवाच, सर्पिणीवृक्ष. जलेबी, कुहिली. 323883, 02529. SEE. / लताविशेष, | लताविशेप, कोरफड, मल्लिका पुष्प कुंद पुष्प, (पु) कुन्दुरुलोबान-पास. कुन्दपुष्प, श्वेतकणेर. | ಮಲ್ಲಿಗೆ ಹೂವು, ಕಣಗಿಲೆ (न) | केउँआ-वृक्ष, सुपारी. सुपारी, कोबी. करमला. | है. कुंड [ लता] HA.6.69. 30,3000 - - - - Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ संस्कृत. मराठी. कनडी. खदिर (पु) (रा) | खैर+कथा. | लाजाळु, कात. ಮುಟ್ಟು ಮುಡುಗು, ಕಾಚ, ಚೌಚು. खरकर्णिका काटेदारवृक्ष विशेष. काटेदारवृक्ष विशेष. ಮುಳ್ಳುಯುಕ್ತ ವೃಕ್ಷಭೇದ. खरभूष स्वनामख्यातवृक्ष विशेष. स्वनामख्यातवृक्ष विशेष. खरमंजरी (स्त्री) | चिरचिरा. | श्वेत आवाडा. ಉತ್ತರಾಣಿ, खजूर (न), खजूर, रूपा, हरताल. | रूपें, श्रेष्ठमधद्रव्य, हरताळ, खजर. ಖರ್ಜೂರದಗಿಡ, ಹರೆದಾಳ ಬೆಳ್ಳಿ, खपरी [२] (स्त्री) एक प्रकार की आंखकी औषधि. | कलखापरी, कपाळांचे हाड,नेत्रांजन | Pcs 18०४. (पु.न) श्यामतमाल, धत्तरावृक्ष, केशर. | श्वेतधोत्रा, मुळे व फळे यांचे cract, ed. कढण काढितात तो पेंड. (पु.न) | बिडियासंचरनोन, खाण्ड. बिडलोण, खर्डीसाखर, कचोरा, maka3. Bgd, evices. नाबदसाखर, तुकडा, ಈ ಚಲವಗಿಡ, (३३०) स्वल - - समसRAuru गजकण गजबला (पु) गजपीपल, गजपिंपळ. (स्त्री) | नागबाला. लघु चिकणा. | श्वेतकुमुद, विडंग, सफेद कमोदनी. | गाढव, सुवास, श्वेत कमल. बायुभृङ्ग. ಗಜಹಿಪ್ಪಲಿ, ಅರಸಿನ, mass. 2013.. Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत. (श्री) गवादनी गायत्रिका [त्री (न स्त्री, गिरिकर्णिक [का] (स्त्री) गिरीन्द्रकर्णिक गुग्गुळ (पु.) गुप्तफल [ ला ( गूढफल ) (पु) गुप्तचीज गुह्यरीज (पु) गुलूची] [ली] (स्त्री) गुह्याक्षी गैरिक गोजी ( गोजिहा] (स्त्री) [क] (पु) गाधूम गोपा हिंदी. नीलापराजिता, इन्द्रायण, नीलीको यलता, कृष्णकान्ता खैरका वृक्ष, खैर, दुर्गंध खैर, सफेद किगही वृक्ष, कोयललता विष्णुक्रान्ता गेरूमाटी. गोभी, वनस्पति, गरहेडुआ, गेंहू, गेहूंकावृक्ष, नारंगीका वृक्ष. मराठी. दुधी, चारोळी, श्वेत गोकर्णी, काळी किन्ही, थोर इन्द्रावण, काळी गोकर्णी, वारुणी, आक्षोठ, गुवाक्षी, शेन्दणी, लघुकांवडळ. (स्त्री) | कालीसर. खर शीतला, श्वेतगोकर्णी, विष्णुक्रान्ता, थोरवे किन्ही, कटमी. 35 57 "" शिलाजित, लाल सैजिनका पेड, महिषाक्ष, आरक्तवर्ण, महानील, ६०.लेले इट गुग्गुलका पेड, इसका गोन्द गूगल है। कुमुद. बेर. शरबाण. तृण विशेष. सेहुंडुकापेड, गोली, बसन्तरोग पीपल भेद कनडी. १९००००००, চ लघु कावळी. गवत. गुळवेल. पिंपळ भेद गेरू. पाथरी, गोजिह्वा, थोरगहूं, बारीकगहूं. श्वेत व काळी उपलसरी. ಕಗ್ಗಲೀಮರ, २०३००००३. ಸಣ್ಣ ಕಾಗೆ ಸೊಪ್ಪು ला 9:ঔw, vige. ಹಿಪ್ಪಲಿ ಭೇಟಿ १३. ४. ಹಕ್ಕರಿಕೆಗಿಡ, ಗೋಜಿಕ=ಬೆಂಡೆಗಿಡ, phone 2370009२२४. ( ७६७ ) Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ realiseas संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. गोरट (पु) | दुर्गधखैर. शेण्यखैर 80 गोशीर [र्ष (न) हरिचंदन. चन्दन. ಪರಿಮಳ ಗಂಧವು. गोश्रृंग (पु)/ बबूरका पेड. बाभूळ, मोक्षुर (पु) गोखरू. नारिंग, गोखरू,सरांटे, लघु गोखरू. . (पु) सफेद सरसों, धनवृक्ष. कमळकेसर, करंज, सिरस, श्वेत. | Rids, ९७८, is. साठेसळी, धावडा, केशर, चोपडा-wat करंज, पांढरा पिवळा, तांबडा खदिर, हरताळ, श्वेतसिरस, सोने. भद्रमुन्त, पिंडालु, ग्रंथिपर्ण-वृक्ष. पायांचे घोटे, भद्रमोथ, पिंपळमूल, | ಕೊರೆನಾಗು, ಭದ್ರಮುಷ್ಟಿ , ಬಿಳೀಗೆಣಸು वेळची घांड, हितावली, आतंत्र दोष, ग्रंथिपणी, ग्रान्धका [क] (पुन) करोलवृक्ष,पीपरामूल,गठिवन, गूगल | गठोनाझाड, चेखण्ड. 3000, riorse. गंडीरा शुण्डिग्नाशक-केचित् भाषा. | कडया सुरण, निवडुंग, शूर, 00030038. गंध (न)| कालीअगर. चन्दन, सुबास, गंधक, रक्तबोळ, ಗಂಧಕ, ಕರೀ ಅಗರು, क्षुद्ररोग, घ्राणविषय, शेवगा. (पु| सजिनेकावृक्ष, गंधक. गंधक, गोगिर्द, किबिन, सल्फर गंधर्वहस्त [क] (पु), अण्डका. श्वेतएरण्ड. Econs. गांगेरुक [की ] (स्त्री) | गुलसकरी. . कांकडांचे झाड. ವಾಟಿಗೆ ಕಾರೆ, ಹೀರೇಗಿಡ, ಬಟ್ಟಗೋರಿಕೆ|| गुंजा (स्त्री) | धुंधुची, चोटली, चिरमिटी, गुंज श्वेतरक्त गुंजा, प्रमाण विशेष. ReRos. इत्यादि १ रत्तिप्रमाण. ( ७६८ ) गंधक Roहे. - Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत: घना (स्त्री) घोटा [ टिका ] (स्त्री) चक्रमर्द [क] (पु) (स्त्री) चणका चन्दन चन्द्र चम्पक चव्य चाकिनी फल हिंदी. मषवन, शंकरजटा. घोटिक' वृक्ष. चरुड, पमार (चणिका) चणिकावास. ww (न) | चन्दनका पेड. टांकळा. जवस. साधारण चन्दन, सुकड.. (पु) चूक, कवीला ओषत्री, जल, रूपा. सोनें, कापूर, श्वेतमिरी, मराठी. रानउडीद, ईश्वरी, रुद्रजटा, [ घोंटा ] गेळ, लघुचोर, नागबला, सुपारी, मदन - सांग. (न) चव्य, कार्पासी, चविका, वच. (न) एक प्रकारका फल. चक्र, शुण्डारोचनी कपिला गेरु, श्वेतनिशोत्तर. कनडी. ಕಾಡುಉದ್ದು, ಇಸರೀ ಬೇರು ನಂಜಿನ २९. 1929 [8] 9. फलविशेष. उ. e. ಚಂದನಮರ (न) | चंपावृक्ष, चंशके फूल, सुबर्ण केला. सोनचांपा, मोठानागचांपा, धाकटा २००४, २० नागचांपा सोनकेळ, फणसभेद १२४ [ पिवळे फूलाचा ]. चत्रक, गजपिंपळी, गजपिंपळीचे मूळ, कापूस, गुंजा. g, wonod. ಕಾಡು ಮೆಣಸುಬೇರು, ಫಲವಿಶೇಷ, ( ७६९ ) Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ instal चित्रक. | मंजीट् संस्कृत. मराठी. कनडी. चित्र (न) / एक प्रकारका कोढ, श्वेतएरण्ड, कलिंगड, अशोक, gora atay, ०४०n. चितळ, गांजिणी, चिता चित्रक. | चित्रक (पु) | चीतावृक्ष, अण्डकापेड. एरंडवृक्षः | चित्रक--छाल, श्वेतएरण्ड, चिता, | 2103356, 33. मुचकुन्दवृक्ष, चन्दनतिलक. चित्रमूल (न) | चीत चित्रक. 3, 2009. चित्रलता | मंजिष्ठ. | 300 चिरि [बिल्व ] (पु) | कंजाका पेड. घार, पोपट, वृक्ष, ಹೊಗೆಸೊಪ್ಪು, ಕಾನಗು [ಹೆಂಗೆ] चिर्भट [21] (स्त्री) | ककडी. गोशळ काकडी, काकडी. ಮಿಡೀ ಸವತೆ, ಮುಳ್ಳು ಸವತೆ, ಸೌತೆ, (स्त्री) | लोध, चिल्ली, शाफ. बथुवा, लोध्र, रक्तचील, चाकवत. 3,352, , . इमली, अंबली. कुरुडु, चिचोंन्द्री. Reds, cons. चोच (न), दालचीनी, तेजपात, ताडकाफल, | दालचीनी, नारळ, द्वीगन्तर खजुरी, 023९२, 201 6 , केलेकी फली, नारियल. साल, लवंग केळ. | Gope, 3003000 चोर (स्त्री) | शटी भेद, खुरासानि अजवान्. | किरमाणी, ओंवा. ಖುರಾಸಾನಿ ಅಜವಾನ್, ವೋಮ. चिल्ली ( ०७०) चुचुः - - | वरधारा. - छग [लिका)[ला (स्त्री) | विधारवृक्ष. छन्नोद्भव (स्त्री) | गिलोय. । [छिन्नोद्भवा ] गुळवेल. ಪರಂಗಿ, ಪರಂಗಿ ಚಕ್ಕೆ, ಅಮೃತಬಳ್ಳಿ, ಉಗಸಿ, Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ನೇರಳೆ ಹಣ್ಣು. संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. जट (टा] (स्त्री) | जटामासी, बालउड, शंकरजटा, | सुगंधजटामांसी, जटामांसी, पारंब्या | 2000. शतावर, कौछवृक्षकी जड. | ईश्वरी शेंडी, वृक्षमूळ. | जम्बू [म्बु] (स्त्री न) | जामन, जामनकावृक्ष.. जांबूळ. (न)| सुगंधवाला, नेत्रवाला, जल. पाणी, वाळा, परेळाचा भेद, जल-२१, ०.०६. | वेत, गाईचा गर्भाशय, मंदपणा. | 3500 जलज (न)() कमल, शंख, समुद्रफल, शिवार, | लवंग, लोणारखार, कमळ, शंख, 30, ePECID जलवैत, मकरतेंदुआ. | शेवाळ, मोती, परेळ, जलमुस्ता, | ३९००३3,521033, 500,030300. || | जलमोहोवृक्ष,काकटेंभुरणी, कुचला, देवभात, जलवेत. जाति (स्त्री) आमला, जायफल, मालतीपुष्पलता, | जाई, आंवळी, शुण्डारोचिनी, चूल, | ಜಾಜಿ ಹೂವು, ಜಾಯಫಲ, कीला, चमैलीवृक्ष जायफळ. जातिफल (न) जायफल जायफळ. ಜಾಜಿ ಕಾಯಿ, जीर (पु) जीरा पीतवर्ण जिरें, क्षुद्रधान्य. LEBR. जीरक (पु) जीरा पीतवर्णजिरें, शाहजिरे, श्वेतजिरें. | Deeason. (पु) बकायनवृक्ष. प्राण, जीवकादिगण, बृहस्पति.. dase is जीवन्ती (स्त्री/सोरठदेशमें उत्पन्न होनेवाली हर्ड, | गुलवेल, मोहाचावृक्ष, जीवक, गिलोय, बान्दा, छोकरावृक्ष, हरड, | हर्तकी, जीवन्ती, कांकोली, मेदा, | ಅಳಿಲೆ, ಕಾಕೋಲೀ, ಅಮೃತಬಳ್ಳಿ, ___ डोडीवृक्ष, जीवन्ती | लघुहरणदोडी, बादांगुळ, शमीवृक्ष. जंघारुहा झरस. ಖಂಡಶರ್ಕರೆದರಸಿ (10) - - - जीव 130000 झरसी. - Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - हिंदी. टंकण संस्कृत. (पु) सुहागा.. ___(पु)/ टैंटुकवृक्ष, मराठी. क्षार, टांकणखार, स्वागी. दिण्डा. कनडी. 238733, छ. ತಿಗಡು ಮರ, ( ७७२) तगर (न) | तगरकावृक्ष गेळ, तगर, पिंडीतगर, गोडेतगर. Jane, Mand. तन्वी (स्त्री) | शालवन, सरिवन. सालवण, बाफळी. तमाल (पुन ) | एकवृक्ष, बांसकी छाल वायवारण, स्थलकमळ, काळाताड, ೦ಗೇಮರ, तमालपत्र,दालचिनी,बांबूची त्वचा. तरली का] (स्त्री) | यवागू [ जोकै आटेका बनता है] | कांजी, मद्य.. ಜೋಳದ ಹಿಟ್ಟಿನಿಂದ ಮಾಡುವ मदिरा, मधुमक्खी ಯವನಿಗೂ, ಜೇನುನೊಣ, ಸರಾಯಿ, तरुणी (स्त्री) | घकुिवार, दन्तीकापेड, कोरफड,कांदणीगवत,चिडादेवदार, | , 320 लघुदन्ती, शेवन्ती, कांटेशेवन्ती. ಲೋಳೆಸಿರ. पेडका जाड. झाडका मूळ, ಮರದ ಬುಡ. नानी (खी अगेथुवृक्ष, जयन्ती, जैन्थवृक्ष, थोर ऐरण, देवडंगरी, वनकांकडी, | उदा . तरुमूल N शिसवा. तळपोटक वृक्ष विशेष वृक्ष विशेष ವೃಕ್ಷ ವಿಶೇಷ AMpmmm4 Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत. हिंदी. ___ मराठी. कनडी. ताल (पु)| ताड का पेड. बंताड, ताडवृक्ष. | ed. तालक (न)| हरताल, गोचन्दन, हरताळ. ಹರಿದಾಳ, ಗೋಪೀಚಂದನ, तालि (स्त्री) | भुईं आमला, मुषली. डोंगरीताड. eg. तालीस [श] (न) | तालीशपत्र लघुतालीसपत्र. ड६. तिक्तक (न) | कुटजवृक्ष, वरुणवृक्ष, तिक्तरसा, | पडवळ, किराईत, काळाखदिर. | ಕಹಿ ಪಡುವಲ, ವಸುಳೆಯ ಗಿಡ. कुडेका पेड, चिरतिक्त, कृष्णखदिर. तिल (पु) | तिल तीळ. तिलक (न. पु) | पेटमें जलरहनेकास्थान,चोहारकोडा | कृष्णलोह, गुळ, क्षुद्ररोग, काळे | | ತಿಲಕದಗಿಡ, ಹೊಟ್ಟೆಯಲ್ಲಿ ಜಲಸ್ಥಾನ, कालानोन, तिलक पुष्पवृक्ष, मरुआ- | तीळ, काचलवण, पिपासास्थान, | ४00308, edg, dise.33,803, वृक्ष, कालातलरोग, संचळ, तिलकपुष्प, टिळा, अश्ववि, | BEROES मूत्राशय, लासें. तिलज तिळाचे तेल. ಎಳ್ಳಿನ ಎಣ್ಣೆ. तिल्वक लोध हिंगणबेट, लोध्र, ಇಂಗಳಗಿಡ, तुगा वंशलोचन वंशलोचन. ಸುರಹೊನ್ನೆ | छोटी इलायची एलची, वेलदोडा.. ಸಣ್ಣ ಯಾಲಕ್ಕಿ, तुटित्रय , (न) | तुटित्रय । तुटित्रय, तुम्बी (श्री) | तोंबी, काकादन वृक्ष,कड़वी. | दुधभोंपळा, कड़ दुधभोपळा. ಸೋರೇ ಗಿಡ, ಸೋರೇಕಾಯಿ, तुरग [गी] (स्त्री) | असगंधकापेड. अश्वगंध. ಅ೦ಗರ ಬೇರು .ಹರೀ ಮದ್ದಿನಬೇರು, (न) | तिलका तेल () - - Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ em arawserman Samanian Memorror- संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनही. तुरगगन्ध था ](स्त्री) | अगंधका पेड. অস্বাঘা ಅಂಗರಚೇರು ಹಿರೀಸುದಿನ ಬೇರು. तुलसी (स्त्री) तुलली. तुळा. 330%९. तुबर [क] (पु) कसे वारसः | श्वेतशिरस, नीलवर्ण हिराकस, 5 33 Mes, it. तुरट, रानमूग, तृत. धानोंकी भूसी, बहेडाका पेड, बेहेडा, कोंडा. ತಾ ರೇಗಿಡ, ಧಾನ್ಯದ ಹೊಟ್ಟು, तोरण (न) कंठरोग विशेष. | ग्रीवा, कंठरोगविशेष. | ಮುಡಿವಾಳ ಕಂಠರೋಗ, तंडुल [ मूल (पु) वायविडंग, चौलाईकाशाक, चावल | वावडिंग, तांदूळ. Poeossssssort, ed. 2353030. तंडुलीय [क] (पु; चौलाई, अल्पमस्सा तांदुळ जा. | 33 se des, udeis तित्रिणी (स्त्री) इमलीका पेड [ तिंतिणी ] चिंच. ಹುಣಸೇ ಮರೆ. तिन्दुक (न) तेंदवावृक्ष. कुचना, टेंभूणि, घेडशी. ತೂಬರೆ ಗಿಡ आपुष [ बीज] (न) रांग, खीरा [त्रपुषी ] कांक.डी. 303, त्रापुषवीज (न)। खीरेका बीज. वाळकाचे बीज. ३९ . त्रिकटु (न) | सोंट, मिरच, पंपल सुंठ, मिरी, पिंपळी. ४:००, 85g0, v3. त्रिकंटक (पु) गोखुरूका पेड. सूट, गुळवेल, रिंगणी, गोखरूं, Raon Dat. त्रिजातक (न) | दालचीनी, इलायची, तेजपात. | दालचिनी, तमालपत्र, एलची. | e23९३, 0000 2 8 . त्रिफल [ ला] (स्त्री) हरड बहेडा, आमला, हरडे, बहेडे, आंवळकटी, सुगंध- 0 70000, उICE53030, त्रिफळा, जायफळ, सुपारी, लवंग, | com. | मधुरत्रिफला, द्राक्ष, दाडीम, खजूर. । (890) - Thestoremarwar - Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- त्रुटि | एलची. संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. त्रिवृत्त (स्त्री) पनिलर, निसाथ. श्वेतनिशोत्तर, काळें निशोत्तर, | anand. पहाडमूळ, रक्तनिशोत्तर, (स्त्री) | छोटी इलायची. ಸಣ್ಣ ಯಾಲಕ್ಕಿ, (न) | सेठ, मिरच, पीपल. सुंठ, मिरी, पिंपळी-त्रिकटु. 000, urfe, Deetic. त्वक (न) | दालचीनी, बल्कल, छाल, तज, | कलमीदालचिनी, साल, लघुतालीस 503, As.. पत्र, शरीराची त्वचा. - ram (50) mawierre - - na (पु) कुशा, कांस, दाम, डाम, श्वेतदर्भ, लघुश्वेतदर्भ, काशतृण. . दी (स्त्री) | दारुहलदी, गोभी देवदारु, हलदी. | पळि, सर्पफणा. ಮರ ಅರಿಶಿನ, ಹಕ್ಕರಿಕೆ ಗಿಡ, दलिता [त ] (स्त्री) शंखिनी. टवटवीतपुप्प. (स्त्री) | हाथीका मद. रान. ಆನೆಯ ಮದ. दहन . (पु) | चीता, भिलावा. विबवा, चित्रक, वृश्चिकाली, अगर, 33,206, inories, 5२०३० गुगुळ, कांजीचा भेद. दाडिम (पु) | दाडिम का पेड, अनार, इलायची. | डाळिंब, लघुगलची. 39023 hrs, दारुक (न) | देवदार. तेल्यादेवदार, सोनपिळ. दिनकरतरु (पु) आकका पंड. रक्तरुई, श्वेतरुई. ಎಕೈ ಮಾಲೆ दीघQत क] (पु शोनापाठा. पातलोध्र, विण्डा. | america, 35200, 20038. microam - sami -- Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सस्तन. दीपक तैल | हिंदी. (पु) अजमायन, मोरशिखा. - दीपक (पु) अजमायन, रुद्रजटा, अजमोदा. - - - - - - - i nindee मराठी. कनडी. ओबा, आजमोदा, जिरें, केशर, | ED. [30653] . ससाणा, मोराची शेंडी ओंबा. रक्तचित्रक, कलौंजी जीरे, R E, R२०26, 15 पीतवर्णजीरें, ईडनिंबू, निबू. अज- on, :०४२०० ०. | मोद, तगर, मोरशेंडी, केशर ससाणा दूधयुक्तवृक्ष. ಹಾಲು ಬರುವ ವೃಕ್ಷ नीलदूर्वा, कापूरकाचरी | ಗರಿಕೆ ಹುಲ್ಲು, तेल्या देवदार. ದೇವದಾರು ವೃಕ್ಷ लघुदन्ती, जेपाळ ದಂತಿ ವೃಕ್ಷ. दन्ती. ದಂತಿ ವೃಕ್ಷ, वृक्षविशेष. ವೃಕ್ಷ ವಿಶೇಷ बृहद्दन्ती, लघुउन्दीरकानी, Jaand. उन्दरिमारी काळेंद्राक्ष, श्रेष्ठमद्यद्रव्य ಬೆಳಗನ ದ್ರಾಕ್ಷಿ, ಕರಿದ್ರಾಕ್ಷಿ ಅರಸಿನ ಮರ ಅರಿಸಿನ. दुग्याधिप (पु) | दूधियावृक्ष. दूवा (स्त्री) | दूबघास. . देवदारु (न)। देवदारु, देवदारवृक्ष, दंती (स्त्री) दन्तीवृक्ष. दंतिक [ का] (स्त्री) दन्तीवृक्ष. द्रवणिका (स्त्री) वृक्षविशेष . द्रान्ती (स्त्री) | मूसाकानी. ( ७७६) - makalinsan - - द्राक्षा द्विरज (स्त्री) दाख. (पु) हलदी, दारुहलदी. हळद. उत्तर घमन (पु) बत्तूरा. (पु) नरसल. श्वेतधोत्रा, धोत्रा. देवनल ಮತೂರಿ, ನಳದ್ವಂ-ಬೇವು, ದೇವನಾಳ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी. तिलपरिमाण. संस्कृत. हिंदी. कनडी. घातकी (स्त्री) | धाय के फूल. लघु धायटी. | 0000.06. धान्यं (न ) धनिया, केवटीमोथा, धान, चार | धनें, साळी, भूध त्री, चारतीळभार | Rove, wBossrsd. वजन ನಾಲ್ಕು ಎಳ್ಳು ಪ್ರಮಾಣ ಭಾರ, धावनी [नि ] (स्त्री) विठयन. पिठवण, थोरताग, रिंगणी 5023 2013 धात्री (स्त्री) | आमला. आंवळी, आंवळकटी,उपमाता, भूमि | 650000. 26, wh. ध्यामक (न ) | रोहिससोविया. | रोहिसगवत, लघुरोहिसगवत. 633 vy, Bornesstt. - न - - - ( ७७७ ) " ಹೊಂಗೆ ವೃಕ್ಷ. नक्त [ फल ] (स्त्री ) । कलिहारी. | गुलबास, कळलावी ಕೋಳಿಕುಟುಮ, ಕೋಳಿಕುಕ್ಕಿನ ಗಿಡ.| नक्तमा [ल] (पु) | कंजावृक्ष, करंज ಹೊಂಗೆ ಮರ, नक्तपाल (पु)। " करंज नक्ताह [ह] (पु) करंज, घृतकरंज, थोरकरंज नमलिका (स्त्री) | कन्दविशेष. कन्दविशेष. ಕಂದ ವಿಶೇಷ. " नलिका (स्त्री) | नली. ... | गुलछबु, उतरणी, नाडीशाक, ಶಾಕ ವಿಶೇಷ नलुका घेवडा, पवारी. नाग | रांग, सीसा, नागकेशर, पुन्नाग का | सिसे, विष, बीजद्रम, बचनाग, | 2, one. 83, 3etin | वृक्ष, मोथा, पान. | ऊर्बवायु, पानवेल, कथील, नाग- 02250, 3. केशर रक्तवर्ण अभ्रक, नागर, न गबला, मेदा, हस्तिदन्त नागवल्ली सुरपुन्नाग, नागरमोथा. Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - हिंदी. - संस्कृत. मराठी. कनडी. नागबला (स्त्री) | गुलसकरी, गंगेरन. नागबला, गांघेटी गाडेबामण,लेचा | areBena, ariess3. तुबकडी, गांरुकी. नागपुष्प (पु)| पुन्नागका पेड, नागकेशर,चंपावृक्ष. नागकेशर, नागचांपा. onesis, 8:00i, pani नागर (न. पु) | सोंठ, मोथा, नारंगी. | पडवळ, सुंठ, नागरमोथ, 0000. Manesa Tora | नागी (स्त्री) | बंध्याकर्कोटी. वंध्याकर्कोटी. ವಂಧ್ಯಾ ಕರ್ಕೊಟಿ, नागीदल (न) | देखो नागी. पहा नागी. नादेय (न. पु) | सैन्धानोन, श्वेतशुर्मा, कांस,जलवैत. | समुद्रमीठ, काळासुरमा,सैंधव,बोरु, goes, Bef wantsy, Redk जलवेत, नागरमोथ, वेत, लघु- , ४ .. ३.९८७ ..] कसई, थोरजलवेत. | ಕರಿ ಅ೦ಜನ. नारंग (न. पु) गाजर, पीपलका रस नारंगीका पेड. | मिरवेलीचा रस, नारिंग, ऐरावत, Ree, Dera , Boriseos नारिंगक, गाजर. नालिकेर (न) | नारियल. नारळ. ತೆಂಗಿನಕಾಯಿ, नाली नालिका (स्त्री) | कमल नाडी का शाक, सातला. मनशीळ, नलिका, बाजरी. ಕಮಲ ನಾಳಿ, निचुल (पु) समुद्रफल, वैत. . वेत, परेळ, निंब, जलयेत. ಕಣಗಿಲ ತೋರ, ಸಮುದ್ರ ಫಲ, निदिग्धिक [का] (स्त्री) | कटेरी, इलायची. रिंगणी, लघु एल ची, ಗೋರಟಗೆ, निंब (पु) | नीम का पेड. लिंबाचे मूळ, लिंबाचे झाड. ಬೇವಿನ ಮರ, निर्गुडि (डी) (स्त्री) | निर्गुण्डी, मेउडी, सम्हालू, श्वेतनिर्गुण्डी, राननिर्गुण्डी, कात्री- 03. Aniroat. सेदुआरि. निगुण्डी काळी निर्गुण्डी. ( ७७८ ) Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराठी. বিয়া - संस्कृत. हिंदी. कनडी. निर्मल (न)| अभ्रक. रौप्यमाक्षी, अभ्रक. ಅಬ್ರಕ, ಕಾಗೆ ಬಂಗಾರ, निर्माक ತಾನಿನ ವರೆ, (पु) | साए की कैचली, विष, सर्पाची मेग. (स्त्री) | हलदी, दारुहलदी. हळद, दारुहळद. d, 8. नीलमणिका (पु) | नीलम्. नीलरत्न. ३९०. नीलांजन (ने) शुक्शुर्मा. तूतिया. निळासुरमा, मोरचूद, २०६२. नीली (स्त्री) | नलिका पेड. शरपुखाकृतीच्या झाडापासून गुळी | Ando&3hd, RON. उत्पन्न होत्ये ती लधुनीळी, निळी निर्गुण्डी, सिंहपिंपळी नीललोह, ___ कथील, क्षुद्ररोग, लासें. नीलोत्पल (न) नील कमल, नीलोत्पल कमळ. ನೀಲಕಮಲ, नृत्यकांडक (न) | वृक्ष विशेष. वृक्ष विशेष. ವೃಕ್ಷವಿಶೇಷ. तृप (पु)| अमलतास. थोरबाहवा. नृपतरू. अमलताम, खिरन वृक्ष. थोर बाहवा, रांजणी, खिरणी. 800, वृपद्रुम (पु) देखो नृपतर. पहा नृपतरु. नृपवृक्ष (पु) " पहा नृपतरू. पांघ्रिप पहा नृपतरू.. नेत्र (न) | पिसाब बाहर करने की सलाई | डोळें, मूळ. मंधनरज्जु. ಮೂತ್ರ ನಿರ್ಗಮನ ಪಿಚಕಾರೀ, न्यग्रोध (न. पु) | वड का फल, बड का पेड, छोंकर | वड, उंदिरकानी,बांब,कडुनिंब,बका- | G od. . वृक्ष, मोहनाख्य औषधी. | णनिंब,बाळन्तनिव. हीबरे, लिमडो. ( ७७९ ) 2038 . 10) G Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी. पत्र ( ७८० संस्कृत. कनडी. पटोल (प) परवल. कडु पडुबल, गोडपडुक्ल, वस्त्र,छोट | 320 de de. पटलिक (न) | कासमर्दवृक्ष, कार्पासवृक्ष. कडु पडवळ, कापूसचे झाड. 00 19, 23, 03:. (न) वडवे पडवल. | सोन पडवळ. store. (न)| कचनारका पेड.दालचीनीका पत्र. तमालपत्र, लघुतालीसपत्र, नागवेल. | eD07, 353,. पथ्या - (स्त्री) | हरड, सैधिनी, गुरुभीहु, वनककोडा | हर्तकी, वांझकर्टोली, गोड शेंदाड, | SHends. कडु शेंदाड, मृगादनी. पद्मक (न) पद्माख, कूठ औषधि. पद्माष्ट, कोष्ठ, कमळावृक्ष, उडू. सरळदेवदार. पद्ममध्यं (न)। कमल केशर. | कमळकेशर. ಕಮಲ ಕೇಸರ, ' पनस __ (पु) | कटैल, कटहर. फणस, क्षुद्रफणस, कंटकवृक्ष, | ಹಲಸಿನಗಿಡ, पयष्टंकणचूर्ण (न) | सुहागेका चूर्ण. टाकण खार. ಟಂಕಣಗಾರ, ಬೆಳಿಗಾರ. पयोद (पु) | मुस्तक, मोथा. मेघ. मोथ ತುಂಗ (न)| कमल. समुद्रलवण, जलबेत. | कमळ समुद्रलवण, जलवेत. ತಾವರೆ, ಸಮುದ್ರಲವಣ, ನೀರುಬೆ. परूष [क] (न) | पालसा, परुषा. | फालसा, भुयधामण, ಪಾಲಸೆಯ ಕಾಲ. पलाश (पु) ढाक-पलासवृक्ष. | फळस, कापुरकाचरी, तमालपत्र, 22nd, ios d er९. ! ____ पाने, भुयकोहळा , हिरवा. पलाण्डु कांदा. (पु) प्याज. - - - - - -- - Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ आशुधान ... संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. | पाटल (न. पु) पाडल के फूल, गुलाब के फूल, बीहिधान्य, पुन्नाग, लघुरोहिस, | 0 1333 , 11:5320 पाटलापुष्प. ___ २. | पाटली (स्त्री) | कटभी, मोखा, पाडल. काळीकिन्ही, भुयचांपा, रक्तपाडल, | 10 Bern, vidair काळा मोरवाक्षवृ, रक्त.लोध्र, | newsobs, ... सागरगोटी. । पाठा (स्त्री) | पाठ. पाहाड मूळ. . . ಅಗರು ಶುಂಠಿ, पानिकचरी (स्त्री), जलकाचरी. | पाणिकाचरी .. ಜಲಕಾಚರೀ. पारावत (पु) | पालसा, दरुषा. पारवा, फालसा, लोखण्ड, साराग्ल, | seeds. 1200 निळासुरमा, अश्वक्षुरा, एवनीवृक्ष. पारी (स्त्री) | जायपत्री. जायपत्री, पराग, कर्पूरिका. 303, 3. Door. पारिभद्र (पु) | फरहद, नीम का पेड, देवदार, | कडुनिंब, देवदार, पांगारा, कोष्ठ, | 310, 20% 0 322,03|| . धूपसरल, | प्राजक, सरलदेवदार, निंब.. ... ... . .... पालक (पु) चीतावृक्ष. चित्रक, हिंगूळ.. ಚಿತ್ರಮೂಲ, (पु) | कार्पास दो ताले परिमाण, कापूस, कापसाचे सूत, आरक | 23, ॐ 3.03.600, ॐ ॐ । कुष्ठरोग. कापशी, कुष्टरोग, 600 120, ३९. .. . पिचुमन्द (पु) नीम का पेड. कडुनिंब, वाड्यानिंब, and पिण्याक (पु. न ) | तिल की खल, सौ की खल, हींग, | पेण्ड, शिलारस, हिंग, ऊद, तिल. | 0 cits to35.d e | शिलाजित, शिलारस, केशर. | कल्क, केशर. | BEd, BOne. (७८१ ) पिचु - Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. | पिप्पली (स्त्री) | पीपल. पिंपळी, कानाचा पाळीचा रोग. ends । पिप्पलात्रिक पीपल, वनपीपल, गजपील. पिंपळी, वनपिंपळी, गजपिपळी. 20, edge, Ine . | पिएका [क] (प.) | एक प्रकार की पूरी, नेत्ररोगभेद, | डोळ्यांचे श्वेबुबुळावरचा रोग, | ed , ucts dotsrwadisease वडा, तिलकूट, पेंड. | लंउट पीलुक (पु)| पालुवृक्ष, आखरोट. | अक्रोट, पीलुडा, किंकणेलाचा वृक्ष, / 25.? nad. vidoe,°, etc कंचुकशाक, तळहात, परमाणु, ಹಣ್ಣು, ಬೆಟ್ಟದನು अस्थिखंडविशेष, लघुपीपलवृक्ष, (न) | जायफल, गजपुट इत्यादि. क्षुद्रमोथा, औषधास पुट देतात तें, | 2352253082&ke vad. act जायफळ, केवटीमोथा, (स्त्री) | वनस्पति विशेष. | प्रमेय पाटिका रोग, बादांगुळ, ವನಸ್ಪತಿ ಏಶೇಷ, वनस्पति विशेष. पुनर्नवा (स्त्री) | विष, खपरा, रक्त पुनर्नवा. | श्वेत, रक्त, नील पुनर्नवा [खापय] | 03, 2 पुनर्भू (पु)| श्वेतपुनर्नवा. श्वेतपुनर्नवा, घोळ. ಗೋಳಿ, ಶ್ವೇತಪುನರ್ನವ, चुनाग (पु)| पुन्नागवृक्ष. श्वेतकमळ,जायफळ, कडवेडण्डीचा | ट , 238863e, espalize|| वृक्ष, सुरपुन्नाग, सुरंगी, गोडी उण्डी | पुष्पफलिनी (स्त्री) | तुरई, लौकी, दोडकी भोपळा, ಹೀರೆಕಾಯಿ, ಚೀನಿಕಾಯಿ, ( ७८२ ) - Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . कनडी. - - महता हिंदी. मराठी. प्रतिक (पु) | पूतिकरंज, दुर्गधकरंज, कांटाकरंज. घाणेराकरंज, विष्टा, करंज, 3. na. जवादी मांजर. पूतिकरंग (पु) | देखो पूतिक. घाणेरा करंज. ತಪಸೀಗಿಡ, पेचु (क) (पु) मुचुकुन्दवृक्ष. भक्षणीयकन्द. ವೃಕ್ಷವಿಶೇಷ. ಕಂದಭೇದ, पंचलवण (न)| कचियानोन, सैंधानोन, समुद्रनोन, | लवण, टंकण, सैंधव, औद्भिद, | vy, sund) बिरियासंचरनोन, कालानोन. | संचळ, ಸಂಚರಉಪ್ಪು, ಕರಿಉಪ್ಪು, पिंड (पु) | बोल, शिलारस, ओहुल, मैनफल | लोखण्ड, रक्तबोळ, जास्वन्द, ऊद का वृक्ष. | पोलाद,शरीर,कांखत वा आडसंधीत ಶಿಲಾರಸ, ಬಟ್ಟಲೋಹ. ಮೈ ನಫಲ. ಶರೀರದ ಅವಯವವಿಶೇಷ ರಕ್ತಬೋಳ | व मानेखाली गोळ्या आहेत त्या, पिंडीत (क) (पु)| मैनफलवृक्ष, तगर, तुलसीभेद, | गेळ, मरवा, तगरभेद, ಬನಗಾರೆ, ಮರುಗ पिण्डीतकवृक्ष. पुंडरीक (न. पु) | सकेदकमल, कमल, एक प्रकार के | ऊस, रेश्माचा किडा, श्वेतकमळ, | E20. 3.305, wods o आम,दवनावृक्ष,एक प्रकारका कोट, | दवणा, श्वेतकुष्रोग, कमळ, पुण्ड. ಮಾವಿನ ಹಣ್ಣು ದವನ ಕುಷ್ಠಭೇದ, रीकवृक्ष, साळीभात.. | tv प्रग्रह (पु) | अमलतास भेद. लघुबहाया हरिपादप, सुवर्ण, रज्जु. . पारा, जीव, धनी, ಪಾರದ, ಪಾದರಸ प्रवाल (पु) | मूंगा. - पोवळे, कोवळीपाने. ( ७८३ ) - - - C - पारा. ) ळे , - Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पियंगु मियाल प्लक्ष फणी फल फळाश फेन संस्कृत बकुळ बदर हिंदी. फूलप्रियंगु, राइ, पीपल, कंगुनीबान, कुटकी. ( स्त्री ) मराठी. कटुकी, काळी मोहरी, पिंवळी, गहुला, कांग, वाघांटी. (पु) चिरोंजी का पेड. चारोळी वृक्ष. (पु) | पाखर का पेड, पारिसपीपल, पीपल पिंपरी, पिंपळ. का पड. ( पु ) (न. पु) -- (पु) | महत्रक वृक्ष. (न. पु) | जायफल, हरड़, बहेडा, आमला, शीतलचीनी, मैनफल, फल, अंड. कोष, कुडावृक्ष, मैनफलवृक्ष. (पु) फलाश वृक्ष, करंज वृक्ष. (पु) | समुद्रफेन, रीठा. बौलतरी. बेरी का पेड, निर्जरसतौं, कासके बीज अर्थात् बिनोलें, से, कास का फल २ तोले - एक प्रकार का बेर, बेर. खेतमरुआ, कांगळा. त्रिफळा, कांकोली, स्त्रीरज, कुडा, जायफळ, इन्द्रजन, गेळ, दान, सुपारी, खरबूज, वृत्रणग्रंथि. फलाश वृक्ष, करंज वृक्ष. समुद्रफेन, अरू, फेंस, बाप. थोर बकुळ. बोर, देवशिरीषवृक्ष, चिरपोटाणी, रायवोर, कापसाची बी. कनडी. boo, hade ०४. ಜು, ಬಸರಿಗಿಡ, ಹಿಪ್ಪಲಿ ಮರ, ನೀರಾವರೀ ಪೈರು, ಮರುಗ, (2)১ २) १,३०, ९७६३, উং, ৯১১টট সং, 2ows, ১w. उ ಸಮುದ್ರದ ನೊರೆ, ಸೋರೇಕಾಯಿ 23. ಬೋರೆಹಣ್ಣು, ಹತ್ತಿಯ ಬೀಜ ಸೇಬಿನ ಹಣ್ಣು, ಎರಡು ತೊಲೆ ಪ್ರಮಾಣ, ( ७८४ ) Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ naa संस्कृत. हिंदी. - मराठी. . . कनही. m aamRRowLanemastrumanmanmun. बदरी .. (स्त्री) | बेरी का पेड, कपास कौंछ. बोर, कुहिली, रक्तकापशी, घोंटीबोर Junede op. ... (स्त्री) | खिरैटी. नागवेल, मध, रानताग, मोदिनी, Jeas3; dend. ३0 2500.00a महासमंगा, विडंग, जयन्ती, , 230०३९. (न)| सफेद मिरच. श्वेतमिरी. ದೊಡ್ಡ ಯಾಲಕ್ಕಿ, ಬಿಳೀ ಮೆಣಸು, बालक (पु) खैर का पेड. खैर का झाड. ಕಗ್ಗಲಿಗಿಡ, ತರೋಗ್ಗಲಿ ಗಿಡ, विड (न) | बिरिया सौंचरनोन. .. बिडलोण. ಪಾಕದ विभीतक (पु. न. स्त्री) | बहेडा वृक्ष. | बेहेडे. 33GE 73025. दिल्या (विल्या ) (स्त्री) हींगपत्री. [ बिल्य ] बेल. ಬಿಲಪತ್ರೆ, बीजक (योजक) (पु) | विजयसार, विजोरा नींबु. श्वेतशेगवा, बिबळा, महाळुगा. |कई no. बीजपूर (बीजपूर )(पु) विजोग नींबू. महाळुगा. ಮಾದಾಳದ ಗಿಡ, बुनफल (न)। ... ... जायफळ. 200303. | बृहच्छ गलिका (स्त्री) विधारा. | वरणार, चोपचेन्नी. 536n. . बृहतीद्वय (न) | छोटी कटेली, बड़ी कटेली. थोर डो ली, लहान डोरली. | ಸಣ್ಣ ಕಟೀಲೀ, ದೊಡ್ಡ ಕಟ್ಲೀ, बंधूक (पु) | विजयसार, दुपहरिया का वृक्ष, | दुगरी, आमणा, विवळा. | ಹೊನ್ನೆ ಮರ, ವಿಜಯಸಾರ, गेजूनिया का वृक्ष. ಮಧ್ಯಾನ್ಹ ವೃಕ್ಷ. । ७८५) जायफल. .. .. amraniparvaamanawwaminemamaANMAnaemiaenine Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी. - मस्कृत. मराठी. कनडी. विचलता बी] ! कडुआ कुंदुरीका वेल तोंडली वेल ತೊಂಡೆ ಬಳ್ಳಿ, विवी (वित्री) (स्त्री) | कन्दरी.. बिंबी गोड, व कडुतोंडली... 530 3808. विविका (बी) | देखो त्रिंबी. पहा विंबी. ತೊಂಡೇ ಹಣ್ಣು, ब्राम्ही (सी) सोमवल्ली,महाज्योतिष्मती,मस्याक्षी, | चान्दवेल, भारंग, कारिवणेकोशी. | EDU, spodont, Dai वाराही,हिलमोचिका,ब्राह्मी,भारंगी, | बिरीचा कांदा, मच्छाक्षी, ब्राह्मी, ಸೊಪ್ಪು, ವಾರಾಹೀಕಂದ, ಬ್ರಾಡ್ಮಿ, सोमलता, बडी मालकांगनी, मछेली, तिळवण, बांब, थोर मालकांगोणी | 65. वाराहीकन्द, हुलहुलशाक. | सोम, - - ( 370 ) - भाजी भद्रक (न.पु) | नागरमोथा भेद, देवदार नागरमोथा, इन्द्रजव, कमळ, सरल | Mot cine, indan. देवदार. भल्लानक (पु) | भिलावेका पेड बिबवा. ಗೇರುಮರ. | भारंगी, ब्रह्मनेटि. भारंग p3don. भूकर्णी (स्त्री) | कन्दविशेष. कन्दविशेष ಕಂದ ವಿಶೇಷ भूकूप्पाड ( टो) (स्त्री) | विदारीकन्द. भुयकोहोळा ಪಾಡಂಗೀ ಗೆಟ್ಟಿ, भूघरकणिका (स्त्री) | भूधर. कर्णिका, गिरिकर्णिका. | गिरिकर्णिका, कंदविशेष. hರಿಕರ್ಣಿಕಾ, ಕಂದವಿಶೇಷ. भूनिम्ब (पु) | चिरायता. किराईत. ನೆಲಬೇವು. || भूर्ज पादप] (पु) | भोजपत्रावृक्ष, भोजपत्रवृक्ष. 1 ಭುಜಪ ವೃಕ್ಷ.. - - Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत भूशर्करा भूशिरीष भृंगी. भृंगराज. भ्रमर a मगधोद्भवा मणिशिला. पचमूल. मत्स्याक्षी हिंदी. (स्त्री) सकरकन्द, (पु) वृक्षविशेष, भूशिरस, (स्त्री) लता विशेष. (पु) भृगुवृक्ष.. (न) अभ्रक दालचीनी. (पु. स्त्री) ( पु ) (पु) अतीस, वडका पेड भांगरा देखो भुंग पीपल, (स्त्री) मैनशिल : (न) धतूरे की जड. (aî) ¤òst sitquî, dîmear, acû | घास, गांडरदूब, हुलहुलशाक. मराठी. कड़, माकडकन्द. वृक्षविशेष. भूशिरीष. लता विशेष. भृगुवृक्ष. अभ्रक, दालची, दाडी दालचीनी व माका, वाघनख. भांग. माका, निष्ठामाका, दालचिनी. पहा मुंग पिंपळी. मनशीळ. धतूरेची मूळ. fisgaf, ereit, iiuit, agकावळी, महाराष्ट्री काकमाची मासा, सोमलता. कनडी. ಗೆಣಸು ಗೆಡ್ಡೆ. ವೃಕ್ಷವಿಶೇಷ, ಬಚಾರಿ, २३ ಬೆಟ್ಟದ ಜರಿ,ಭೂಗುವೃಕ್ಷ ಅಭ್ರಕ, ಕಾಗೆ ಬಂಗಾರ, ಲವಂಗಚೆಕ್ಕೆ ದಾಲಚೀನಿ, ಕಾದಂಬಿ. ಅತಿ ಬಟ್ಟೆ nand) (d ) ಶೃಂಗ ನೋಡಿ, off ९. ಮಣಿ ಶಿಲೇ. ಮತ್ತೂರಿಯಬೇಕು. das Rag, Hardiose. B. ( ७८७) Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... न संस्कृत. . हिंदी. मराठी. कनडी. (पु) | धतूरा, खैर का वृक्ष, ढेरावृक्ष, गेळ, मेण, खैर, श्वेतधोत्रा, कुन्द, 030.0, 830R. मौलसिरीका पेङ, मोम मैनफलवृक्ष. बकुळ, मधुमक्षिका, अंकोल, दवणा, कावळाशल्य, कोशाम्र, कालिंग, सरलदेवदार, पिंडीतक, कोशातकी, उडीद, मदनफलः | देखो मदन पहा मदन ಮಣ್ಣಾರೆ ನೋಡಿ ಮದನ. मदयन्तिका. (स्त्री) | मल्लिका. मोगरी ಇರುವಂತ ಮಲ್ಲಿಗೆ, ಮಲ್ಲಿಗೆ, मधुक. .(पु) | मुलहटी, रांग. मोहाचा वृक्ष, गोडें कोष्ठ कील, | asv3. . मध, ज्येष्ठांमध, मेण. मधुगंगा. (स्त्री) | ताल वृक्ष. ताड वृक्ष. ತಾಡದ ಮರ, मधुशिगु. मधुसेंजन. गोडश्वेत शेगवा, रक्तशेगवा. ० . | मधुसवा (स्त्री) | मुलहटी, जीवन्ती, चुरनहार, लाल | लघुहरणदोडी, ज्येष्टीमध, रक्तला- BBCDs Easiest, 3GP रंग का लजालू. | जाळु, क्षारमोरबेल, पिंडखजूरी, | | Ne2 meramanandsamanarmadim- ( ७८८ ) ... ..::. . मोरवेल. - ee मधूक. (न. पु) | मुलहटी, महुआवृक्ष. ज्येष्ठीमध, मोहाचावृक्ष. atoz. मनश्शिला (पु स्त्री) | मनशिल, मैनशिल. मनशीळ... ३७. मयर :... (पु)| मोरशिखा, चिरचिरा, अजमोद. | श्वेत आघाडा, अजमोद, नीलकंठ, ! 120 50 .. | अपामार्ग वृक्ष. कोळिस्ता, गंधा, कांगळा, मोरचुक, मोरशेंडा, औषधी. . - Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ omme - - संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. मरिच (पु.न) | गोलमिरच, कालीमिरच, शीतल- | मेरी, कंकोळ, वीरशाक, ಒಳ್ಳೆಯವೆಸು, ಕಪ್ಪು ರಚೆನ್ನಿ, चीनी, मरुआवृक्ष. मरुंगि (स्त्री) | काले संजन, काळा शेवगा. 30 in (पु) शाल्मलीकाद. शाल्मलीकन्द. बाग. ಶಾಲ್ಮಲೀಕ೦ದ, मल्लिका (स्त्री) | मोतिया भेद, वटमोगरा, मोगरी, लक्ष्मणाकन्द, sign, dvosxgh. इन्द्रगोप, काळाकुडा,नेवाळी,वेखंड, मोठी श्वेतजाई, (स्त्री) | श्रीतालवृक्ष, जटामांसी, देंठ. श्रीताडवृक्ष जटामांसी ಶ್ರೀತಾಳವೃಕ್ಷ, ಜಟಾಮಾಂಸಿ, मसूर. (पु)| मसूर अन्न. मसुरा, निशोत्तर. ಚನ್ನಂಗಿ, ಕರಿಚುಳ್ಳಿ,ಆ ಗಡು, ತಿಗಡಿ महातरु. (पु) थूहरका पेड. निवडुंग ಕಳ್ಳಿ ಗಿಡ, महानीली (स्त्री नीलीकोयल, बढा नीलका पेड, | थोर नीली. १६ . महानिब (पु) बकायन नमि. बकाणनिंब, कवड्या निंब. ಮಹಾಚೇವು, ನಿಂಬಭೇದ महापला. (स्त्री) | सहदई. तानीचा बेल, पेटारी, पिंपळी, ( 2023) सहदेवी, गवादनी, वत्सादनी, लघु- set, RRBasns. नीली, गवाक्षी, धामणी, गिरिकर्णी. महावृक्ष. () थूहरका पंड, बडापील वृक्ष, पाख- निवडुंग, थोरपीलु, ताड. | ಕಳ್ಳಿಗಿಡ ಆಮಟ ಗಿಡ, ತಾಡವೃಕ್ಷ. रका पेड, बडादेड. ( ७८९ ) । - m - - Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनडी. . .. ...... ................ . dadd-Kama ..NAMITED.ME ... .....mi.iNY.... .. ............ R Harambadmaroenamikesumandarmanemnamaaman मानकन्द. DESI संस्कृत. मराठी. महौषध (न) भुजितरुड, सौंठ, लहशन, गेटी, | श्वेतलसुण, सुंठ.भुईतरखड,बचनाग, | Ec0, 8, ed, 0.1 यछनाभविष, पीपला, अतीस. विष, पिंपळी. अतिविष. 2008.53 25. 2023 मागधिका (पु) सफेद जीरा, पीपल, लघुश्वेतजुई, पिंपळी, जिरे, बाळ- d , tecal न्तशोप, एलची, शुद्ध केलेली साकर. माची (पत्र) (न) माचीपत्री. लघुकावळी. | ಸಣ್ಣ ಕಾಗೇ ಸೊಪ್ಪು, (स्त्री)माणिका)-६४ तोले [माणक]- | माणक-मानकन्द, ಕೆಂಪು, ಮಾಣಿಕ್ಯ ಕಂದವಿಶೇಷ मातुलुंग मातुटुंगिका-रानमहालुग. | ಮಾದನಾಳ, मार्कव माका. AUR [ sandrio] मार्जारपाती लताविशेष. 2005. मार्चकर शाकविशेष. ಶಾಕ ವಿಶೇಷ, माष पा) | उडद मागध और सुश्रुतके मतसे ५ | उडीद, रोग, पंचगुंजात्मक मापमान 0.02003030 2300. रत्तीका प्रमाणे. चरक के मत से ६ ८ रत्तीका, कालिंग प्रमाणसे ५.७:८ रत्तीका है । वैद्यक मत से १० रत्तीका है । ज्योतिषस्मृति के मतसे १२रत्तीका है। मशक रोग. ( ७९० 0 (प) विजोरा निंबू. (पु) कुकुर भांगरा. (स्त्री).. लताविशेष, बेल. (न) | मारिषशाक. (पु) ..::.:...:....... - ....... ... ... - .. . ........... .... - - - - - - Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aar LinkedILAawat मुरुंगी संस्कृत. मराठी. __ कनडी. (पु) | मूंग. हिरवे मूंग, आच्छादन. 2 . मुद्गयूष (पु) | मूंग के दाल का यूष. | मूंगचे डाळीचा यूष. ಹೆಸರು ಬೇಳೆಯ ತೇವೆ. मुरटिका (स्त्री) | कन्दविशेष, कन्दविशेष. ಕಂದ ವಿಶೇಷ. (स्त्री) | कालासेंजन. काळा शेगुवा, रक्तशेगुवा. ಕರೀ ನುಗ್ಗಿ, ಕೆಂಪು ನುಗ್ಗೆ, मुष्कक. - (पु) | कठपाडर, मोखावृक्ष, घंटापाटलिवृक्ष. ಮೊಕ್ಕಾಮಿನ ಗಿಡ, मुसली (स्त्री) | मुसलीकन्द, पाल मुसळी. ನೇತಾಳದ ಗಿಡ, ಕಂದ ವಿಶೇಷ मुस्ता (स्त्री) | मोथा. . मोथ, भद्रमोथ. ತುಂಗೆಮುತ್ತೆ, मूर्वा. (स्त्री) | चुरनहार, मरोरफली. मोरवेल. ಹೆಗ್ಗುರುಟಿಗೆ मूल (न) | जमीकन्द, शूरणजड, पीपरामूल, | पुष्कर मूळ, पिंपळमूळ, मूळ, redeoned o n 'पोइकरमूल, | . वृक्षादिकाचे मूळ, पाषाण. . . (न) | मूली. ! मूळा,शेण्डीमुळ',शिघुमूळ,कोनफळileeon. विषविशेष. मपक (न)| तरुमूषक,वृक्ष जाति की मूकानी, | वृक्षपणौदुर. ವೃಕ್ಷವಿಶೇಷ, ತರುವಾಷಕ, मृणाला [ली] (स्त्री) कमळकी नाल.. कमळनाल. २७. मृदीक. [का) (स्त्री) | दाख, किसमिस, अंगूरी दाख. काळे द्राक्ष, वृष्टा. टि] (न) काली मिरच.. काळी मिरि ಒಳ್ಳೆ ಮೆಣಸು, ಮೆಣಸು, मंघ. (पु) मोथा. नागरमोथा, तांदुळजा, भद्रमोथ, ns . मेघनिनाद मेघनाद](पु) | ढाकका पेड, चौलाई का पाक. तांदुळुजा, पळ:. 180356, 323, ( ७९१ ) W - - Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोच. मोरट मंजरी [क] माजष्ठा. मंडूकपर्णी मंडूकी सस्कुन. हिंदी. मराठी. कनडी. (न. पु) केले की फली, सैंजिनेका पेड, मोचरस मोखावृश, शेगवा, काळाशेगा, तळ ठ मोचारस, केळं. (न) ईख की जड, ढेरा के फूल. मथा. मांसी यव. यत्रक्षार मोती, तिलकवृक्ष, तुलसी. मंजीठ. (स्त्री) (स्त्री) ( स्त्री ) | मंजीठ, हुरहुर, हुलहुल, मंडूकपानी, ब्रह्म मंडूकी. (स्त्री) मेथी. (स्त्री) जटामांसी, काकोलीमांसच्छा. 815 शेण्याखैर, उसाचें मूळ, सात दिव- ४००:३१. साचें व्यालेले गायीचे दूध, नास लेले दूब, जैज्जर, (स्त्री) मंडुकपानी, ब्रह्म मंडूकी, हुलहुलवृक्ष, ब्राह्मी, सूर्यफूलबली. भेकपर्णी. ब्रह्मीघास. Rig मंजरीक-फांपळा. मंजिष्ट. AA मंजिष्ट, सूर्यफूलबली, आदित्यकान्ता ), Qod), तू.. ब्राह्मी, शालिपर्णी, अळू, कंडुरूल २००३ ಒಂದೆಲೆಗ, ಬ್ರಹ್ಮತೃಣ मेथी. जटामांसी, मांसरांणी, रुदन्ती, बांकोली. ಹುಬ್ಬುಗಳ ಗೊಂಚಲು ತಿಲಕದ ಗಿಡ, ಮಂಜಿಷ್ಠ, | इन्द्रजी.ज, जाखार, ६ ससपरिमाण | इन्द्रजब, जब. जवाखार, सोरा [ वंगभाषा ] जवखार. ಮದರಂಗಿ ಗಿಡ ಮೆತ್ತೆಯ ಗಿಡ, ಗಣಿಗಲ ಮುಸ್ತೆ, ಜಟಾಮಾಂಸಿ, ४),Reep. 3 गुगल ಸರ್ವಕಾರ, ( ७९२ ) Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत. यवागु (गू ] ( श्री ) यवागू. यत्रोद्भव यष्टी. यावशूक. युग्ममणी. यूष. रक्तचन्दन रक्ताश्वत्थ. रजनी. रजनीद्वय. रसताळ.. ( न ) ( स्त्री 1 (पु) ( स्त्री ) ( पु ) हिंदी. जौकी कांजी. मुलहटी. जवाखार दाडिम का वृक्ष. मूंग इत्यादिके काढेका रस. B रसना. रसादन. (न) | रसशोषण. राजमाष. लाल अश्वत्थ. हलदी. नील कापेड, जतुका, हलदी, दारुदली. (न) लालन्दन. (77) (स्त्री) ( न ) पापडी, हळद, नीलिनी, दारुहळद. हळद, दारोहळ. (न) रसगंधतालादिकृत यंत्र पौषव विशेष रसगंध तालादिकृत यंत्रपकौषध विशेष (स्त्री) जीव, रामना. मराठी. धनसिकथा, पातळभात, तांदुळांचें साहापट पाणी घालून करावा तो कांजी, यवसौवीर. ज्येष्ठीमध. (पु) लोबिया, बारा, वटा, रमा, जवखार. दाळिंबचें झाड . मुद्गरस. कलखापी, जीभ, स्वदन. रसशोषण. चवळ्या, नीळे उडीद . कनडी. ), ७० ಗಂಜಿ,ಯವದ ಕಾಂಜೀ, ४. ಯವಕ್ಷಾರ. ದಾಳಿಂಬದ ವೃಕ್ಷ, ಹೆಸರು ಬೇಳೆಯಿಂದ ತೆಗೆದ ರಸ, रक्तचन्दन, सण्ड ले सुर्ख, फार सण्डले ४०० ०ळेल. अस्मर, ष्टीरोकापलिग्नम, रतांजलि. तांमडाश्वत्थ. ಕೆಂಪು ಅಶ್ವತ್ಥ, ७०१३, ळेईल, २९० ९०, २००७०३. ठह० उ०७० उ ১०, उंडे, ಔಷಧಿ ವಿಶೇಷ. ०९. " ९. ७००, ०. ( ७९३ ) Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजवृक्ष. राजादन. राजी. (स्त्री) (न. पु) रामठ. राष्ट्रि. [ का ] (स्त्री) रास्ना. (स्त्री) रुचक. संस्कृत. रेणु. रोहिणी. रंभा. (पु) (न) हिंदी. अमलतास वृक्ष, चिरोंजीका पेड, भद्रचूडवृक्ष. खिरनीभेद, चिरोंजीकापेड, ढाक कावृक्ष, अमलतास. (स्त्री) (स्त्री) राई. हींग, ढेरावृक्ष. बृहती, कटेहरी, कटाई. रासना, रायसन, रास्ना, रहसनी, नागदा, कटेहरी . (न) सज्जीखार, चोहारकोडा, गोरोचन, गौलोचन, विजोरानिंबू बायविडंग, नोन, सफेद अण्ड. पित्तपापडा, रेणुका. कुटकी, कायफर, वराहक्रान्ता, कुम्मेर, हरड, मजीठ, एकप्रकारकी हरड, मांसरोहिणी, गलेका रोग. ( स्त्री ) | केला. मराठी. थोर बाहवा, भूताकाशी, मुरेंगवत्, ॐ. पापढी. चारोळी, रांजणी, खिरणी. मोहरी, बावची, कड्डु डुबळी, पाणआघाडा, हिंग. डोरली. गुल्थोटि नागइवणीं, लघुमुगुमवेल, शेतरिंगणी, नावळीच्या मुळया, संचळ, महालुंग, त्रेतएरण्ड, शिखा - चन्दन घर्षण, श्रीमदाभरण, मोहरी, मुळा. > वेणु, विनाडा, रेणुकबीज, धूळ. हर्तकी, मंजिष्ठ, थोरशिक्षण, कटुकी, मांत्ररोहिणी, बादांगुळ, कायफळ, गंडमाळा रोग, रक्तरोहिडा, लोहितवर्ण जलाक्षि, गाय, चन्द्रवल्लभ. केळ. २०६३ n. कनडी. boor. ನೀಲಿಗಿಡ, ಹಲಪಾಚಿಕ, लाल, ३. ५०४, ३०%AÁ, নS ಬಾಳೆ, WFeo, F M २०४, ४ . ४६०४४०९, ४०, ४९९ do no ३९. ( ७९४ ) Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकुच लता. लवण. लवळी. लवंग. संस्कृत. हिंदी. ( पु ) बडहर. (स्त्री) फूलप्रियंगु, असवरण, पटशन, मालकांगुनी, मुश्कदाना, लताकरतूरी, मानवीलता, दूब, कैवर्त्तिकालता, श्यामालता. लवणी. (स्त्री) सीताफल, आतृप्यफल, काक्षा. (न. पु) सैंधानोन, सौंचरनोन, समुद्रनोन, खारीनोन, बिडनोन अर्थात् कंचलोन - नमक, नोन. (स्त्री) हरपारवडी. (न) लौंग + लौङ्ग. (न) लशन. कशुन. लाज [जा] (न. पु) जातीय फलवृक्ष. वीरनमूल, खरा, खीलें. (स्त्री) लाख. मराठी. थोर चुका, क्षुद्रफणस, ओंटीचें झाड . @cs ago, गव्हला, रघुमालकांगोणी, पिंडि- ८०, nierce we ८०० ख कालता, रपृक्का वाघेंटी, कु.सरी, लघुश्वेतजुई, वननेवाळी, श्वेत उपळसरी, लहान खांद्या, पोरत्रेत जाई, नेवाळी, शिरोंजी, रक्तपाडल बेल. कनडी. २०२२, ९७०२६. मीठ, लोणारखार, टंकण, लवण, २०३०, ইदन ট, মল सैंधव, औद्भिद, संचळ. ट ಕರಿ सीताफळ, जातीय फलवृक्ष. हरपररेवडी. देवकुसुम, सीखक करन फूल. श्वेतलसूण, लसन, काजुआ. साळीच्या लाह्या, ओले तांदुळ, ७३. काळ्या बाळ्याचे मूळ. लाख. Torsor. ಹರಪಾರ ರೇವಡೀ, elon. ৬টট ७९५) Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी. संस्कृत. मराठी. कनडी. लोध्र. )! लोध. लोध्रवृक्ष. ಕೊಡಸಿ ಗಿಡ, लोहित (पु. न ) | लालमोशीर्ष चन्दन, केशर, लाल. तुरे जोबळे, रक्ततृण, केसर,रुधिर, ०८, sort dir, चन्दन, पतंगकाठ, हरिचन्दने, | सोनापतळ, माणीक रक्तचन्दन, | te, 3.0, ९८०९, 303/29 तृणकेशर, मसूरअन्न, रतालु, लाल- | तांबडेराताल, पतंग, कुंकुमागर- 800 harsod [. धान, रोहेडावृक्ष, लालईख. | चन्दन, कृष्णागरु, तांबडा ऊस, तांबडी लसूण,रक्तवर्ण कपिला,सान | | गेरु, रक्तरोहिडा, पापण्यांचा रोग.| लोहितद्रुप (पु)| रोहडावृक्ष. । रक्त रोहिडा. ಮುಳ್ಳು, ಮುತ್ತಗದ ಮರ, लांगली. (स्त्री) | जलपीपर, गंगातिरिया, पिठबन, | कषभक,कुहिली,जलपिंपली,न रळी | १६४७ ४०५,8, 2303:56ns | कलिहारी, कौंछ, किवांच, | गजपिंपळी, मंजिष्ट, कळलावी, Renate, dot, ०६० पिठवण. 338333. लुंग. | तुरंज, खजोर. महालुंग. ಮಹಾ ಫಲ, ಮಾದನಾಳ, - ( ७९६ ) बकुला. (स्त्री) | कुटका. (पु) | पित्तपापडा. केदरे कुटकी. सगर. वेखण्ड, कळलावी, कोळिंजन. निवडुंग, स्नुहावृक्ष. ४७४३. ಕಲ್ಲು ಸಬ್ಬಸಿಗೆ, ನಾರು ಬೇರು, [ಮಕ್ಕಳ ಬೇರು] ಎಳ್ಳಿನಗಿಡ, ಮುಂಡುಗಳ್ಳಿ, ಕಲ್ಲ. ಜಡಿರಳ್ಳಿಗಿಡ, वचा. वज्रवृक्ष. वच. (पु) | थूहडका वृक्ष, स्नुहोवृक्ष. - Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ वज्र. संस्कृत. वज्री. वज्रीलता. वटपत्र. वधू. वध्वापीत वरक. हिंदी. मराठी. 1 (पु) तालमखाना, सफेदकुश, सेहुंडवृक्ष. हाडमंत्री, वाळा, हिरा, श्वेतदर्भ, श्वेताभ्रक, लघुराळेचा वृक्ष, नवसागर, वैकान्तरत्न, वावडिंग, विष्ठा, निवडुंग, इंद्रायुध. (स्त्री) (स्त्री) (पु) ( स्त्री ) थूहरका भेद, हडशंकरी, गिलोय. निवडुंग, गुळवेळ. हडजुडी. हडजुडी. सफेद वनतुलसी. श्वेत आजवला. गौरीसर, कचूर, असवरग. कापूरकाचरी, स्पृक्का [स्त्री, स्नुषा, नववधू ] ( न ) कचोर. कचोर, कचरा. (पु) वनमूंग, मोंट, पित्तपापडा, चीनाधान, पित्तपापडा, वन्या, रानमूग, शरपर्णिका. तुरी, वायवरणा, उंट, कुंपण, वांद वर [णा ] ण (पु) वरनावृक्ष. वरुण. (पु) वरनावृक्ष. वराटिका. (स्त्री) कौडी, कमलकंद. वराह ( पु ) मोथा, गेठी, कन्दविशेष. वर्षा भू. (स्त्री) विषखपरा, सांठ कनडी. ००, ४८, २० २०, ३, ४३ | ಧೂಪಭೇದವು. 78. डुकरकन्द, डुकर. गदपूर्णा, रक्तपुनर्नवा, बेडूक, इंद्रगोपकीटक, वीरबाहुटी, श्वेतपुनर्नवा ಹಡಸಂಕರೀ. ಬೀಳೋ ವನತುಳಸೀ, ಕಂಟಕಚೋರ, ಕರಡಿಹುಲ್ಲು. ಕಚು, ಗಂಧಕಜೋರ, ಗಂಟಕರ, ಕಲ್ಲುಸಬ್ಬಸಿಗೆ, ವಸಲೆಯ ಗಿಡ. वायवरणा. ವಸಗಿಡ, कवडी, गुलबास, कमलकर्णिका. ४ ४०८०. feu, 45414, ungat,fàgen, endpad, 3d,ZNA, JORDEPE २९४९४०३२ ( ७९७ ) Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंस्कृत. वरांग. (न)। दालचीनी, तेजपात. आसंध. -Ramernamen बला. (स्त्री) | खरैटी. वल्गुन (न) वाकुची. चाकुचि चीज ] (स्त्री) | वायची. वाजिगन्धा (स्त्री) असगंध. वारिद मोथा. वातीक. (पु) बैगन. वास. (न)/ तेजपात. बथुआशाक. भद्रमोथ. nimaesapagaanamamiminaruaamananudanARILAnamiUANIAMPIRAHAMARAaiNnteenasanveremium मराठी.. कनडी. मस्तक, जाडी दालचीनी, उपरथ, etories , २७°४३९२. कंकुष्ठ, चिकणा, लघुचिकण. ones, or i.. बावचा. 235023, proun. सोमवल्ली.. . ಸೋಮನಲ್ಲಿ. ಆಂಗರ ಬೇರು, ಹಿರಿಮುದ್ದಿನಬೇರು. ಭದ್ರ ಮುಷ್ಟ, ಕೊರೆನಾರು. वांगे. ಬದನೇಕಾಯಿ, तमालपत्र. ತವಾಲುಪತ್ರ, चाकवत, जीवशाक, राजार्क,वसु, कृष्णागरु, पुनर्नवा. तिलक, भूर्जपत्र, अशोक. ಅಸುಗೆ, ತಿಲಕದಗಿಡ, ಭುರ ಜಿವಕ್ರ. बिडलोण. ಪಾಕದ ಉಪ್ಪು, वाविडंग. ವಾಯು ವಿಳಂಗ, पहा विड. ನೋಡಿ ವಿಡ,' नदीमध्ये पाण्यासाठी खणलेला ಬಳ್ಳಿ, ಸುಂಡೆ, ವಜ್ರಕ್ಷಾರ. ( ७९८ ) विचित्रा (स्त्री) सँविनी. विडः (न) | बिरिया सौंचरनोन. विडंग. (न), वायविडंग. विड सँधैव लवण](न) द..विड. "विदारक वजखार. खळगा, वज्रक्षार. - Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत. विदारी विभीतक बिलंग त्रिशाली ( पु . . न ) (न) स्त्री ) विश्वदे [वी] वा (स्त्री) विषतरु (पु) विष्णु [कान्त) (स्त्री) कोयल, विष्णुक्रान्ता. [ कान्ता ] वीरांति [वीरतुम! (पु) | कोहवृक्ष, तालमखाना, भिलावेका पेड बिबवा, वल्कतरु, अर्जुनसादडा, बेलतूर,रामबाण,काळावाळा,चित्रळा वृद्धदारुक वृश्चिकाली (स्त्री) वृष वृक्षक वृक्षादनी हिंदी. मराठी. विदारीकन्द, शालवन, एक प्रकार | भुयकोहोळा, गलरोग, कर्णपाली - का कंठरोग. रोग, सुत्रर्चला, वाराही, क्षीरकंकोळी, अर्जुन, भद्रवि. बहेडा वृक्ष. वायविडंग.. अजमाद. गंगेरन, लालफूलका दण्डोत्पल. कुचिलावृक्ष. (पु) विधारावृक्ष. (स्त्री) वृश्चिकाली. (पु) अडूसा, ऋषभकौषवी. (पु) वांडाकाड ( स्त्री ) कुद्दा, विदारीकन्द. बेहेडा. वायविडंग. अजमोद, ओवा. नागबला. विषवृक्ष, कुचला, काजरा. काळीगोकर्णी, विष्णुक्रान्ता, बाराही नीलशंखपुपी. वरधारा. थोर आग्यो, लघुमेडसिंगी . अडुळसा, ऋषभक वृष मरास, वृषण. श्वेतकुडा, नान्दरुखी. बादांगुळ. करडी. Sr০১e, लdেon. ಕಂಠರೋಗ ವಿಶೇಷ ಕಾರಗಿಡ ವಾಯುವಿಳಂಗ, २३. w * ৮১০৩১, ঔ১৯. २२००४०.०३. ३००, ४०, ४ [] ಕರೀಲಾವಂಚ, ಕಿರಿ ಬಾಳದಬೇರು, ಅನಂತನಗೊಡೆ. . . ९०९, ३०. ವಿಧಾರಿ ಕಂದ ( ७९९ ) Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवडंगरी. indian-dan . - संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनही.. | वणी (स्त्री) | देवताडवृक्ष, सोनेया वंदाल, ದೇವದಾರು. | वे [त्रा ]त्र (पु) | वैतवृक्ष. थोरवेत. ದೊಡ್ಡಬೆ. । वेडंग (पु) देखो विडंग, | पहा विडा. ವಾಯು ವಿಳಂಗ, वैजयन्ती (स्त्री) | अगेथु, जयन्तीवृक्ष. थोर ऐरण, लघुऐरण, ठहांकळ. | OEnd, ड स OR. |वक (पु ) | वृक्षविशेष.. वृक्षविशेष. (पु) वंश (पु) | ईख, सालवृक्ष, पीठकादण्डा, वांस | भरीव वेळू, थार राळ वा वृक्ष, सूक | 2000. पाटाचा कणी. वंशाग्र (न) वांस.. व्याघातक (पु) | करंज. करंज. २०. [ &00 व्याघ्री (स्त्री) | कटहरी. वाघांटी,रिंगणी,धूम्रवर्ण सुरेखकवडी | 30500003. व्योष (न ) | सोंठ, मिरच, पीपल. त्रिकटु. ४.८e, e tc m ... | बेत. (०१) . 2000. - - श - - शक्रमर्द (न ) | वृक्षविशेष. वृक्षविशेष. (स्त्री) | कचूर, आमियाहलदी, गंधपलाशी, | कार काचरी, कचोरा. छोटाकचर. ವೃಕ್ಷ ವಿಶೇಷ, ಕಚು, ಗಂಟುಕಚೇರ. Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - संस्कृत. हिंदी. मराठी. मराठी. शतपुष [प्पा) (स्त्री) | सोंफ, सोआ. | साठेसाळी, बाळंतसोप, बडीसोप. | Fligarh, aniskar. शतम् [ल, ली (स्त्री) | दूब बज, शतावर. महाशतावरी. ಮುಡಿವಾಳ, ಶತಾವರಿ, शतावरी (स्त्री) | शतावर, कचूर, महाशतावरी, सहस्रमुळी, लघु- | EPE 2. शतावरी, शतमुळी. शताहा (स्त्री) | सौंफ, सतावर. बडीशोप, लघुशतावरी. ಸೊಂಪು, ಸೋಮುಳ್ಳು, शबर (न)| लोध. श्वेतलोध्र, लोध्र. ಕೊಡಸಿಗಿಡ, ಲೋದ್ರಗಿಡ, शमी (स्त्री) | छौंकरावृक्ष. | लघुशमी, जीवक, पोरशमी, समडी | 2004 शेंग. शरवारिणी (स्त्री) | लताविशेष. लताविशेष. 2 . शशशिरा (स्त्री) | गुर्च. ಅಮೃತಬಳ್ಳಿ, शाक (पु.न.) | शेगुनवृक्ष, पत्ते, फूल, नाल इत्यादि | शाकभाजी, साग, आले. |RA, ॐ, aze,20~ सागभाजी. ನುಗ್ಗೆಯ ಗಿಡ, शाकन : (न)| शेगुन बीज. शेवग्याचे बी. ನುಗ್ಗೆಯ ಗಿಡದ ಬೀಜ, शाकजफल (न)| शेगुन फल. शेवग्याचे शेंगा. हा 300 शामाक (पु) | तृणविशेष. तृणविशेष.. Rowenesobas. शारि [वा ] वा (स्त्री) | कालीसर, गौरीसर. शारिवा, उपलसरी. ಕೃಷ್ಣಶಾ೦ಬ, शार्डिष्टा (स्त्री) | बडी करंज. शार्डिष्टा-करंजवल्ली, थोरकरंज, an. लघुरक्तकांवडल. गुळवेल. Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - . | सांवरी. संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. शाल (पु)| छोटाशाल. सागसादडी, हेद, अर्जुनसादडा, asidos . लघुराळेचा वृक्ष, क्षुद्रफणस, बढार फल, थोर राळेचा वृक्ष चारोळी. शाली (स्त्री)| कालाजीरा. मेथी, शालिपर्णी, यवास. ಕರೀಜೀರಿಗೆ, शालूक (पु) | कमलकन्द, भसींडा इत्यादि. | जायफळ, पद्मकन्द. ಕಮಲದ ಗೆಡ್ಡೆ, ಜಾಜಿಕಾಯಿ, शाल्मली (स्त्री) | सेमलका पेड. ಬೂರುಗ ಗಿಡ, शिखा (स्त्री) | कलिहारी. | पांख्या मयूरशिखा, थोर उंदीरकानी | Stossib, तुळस, कळलावी,जटामांसी,वेखण्ड, पायांचा चवडा, शिखी (५)! चौतावृक्ष, मेथी, शिरिआरी, चौव. | पित्त, करडु, चित्रक, मेथिका, 33,000. तियाशाक,शुयाशिंबी बंगभाषा (पु) | सौंजिनेका पेड़. | श्वेतशेगवा,काळाशेगवा,हरितशाक | n ns. शिफा (स्त्री) | वृक्षकी जड,जटाकेसी, सौंफ, हलदी | बडीशोप, थोर उंदीरकानी, हळद, | 3200 . 5725500, || कमलकन्द जटामांसी, बालछड, | कमळकन्द, पारंब्या, वृक्षमूल, dayan, ed. जटामांसी. शिरीष (पु) | सिरसका पेड. शिरीष वृक्ष.. . 2017, Fosda. 3 . (स्त्री) | मनशिल, कपूर, नीलिका, गेरू, शिलाजित, कापूर ಮನಶೀಲ್, ಕರ್ಪೂರ, ಶಿಲಾಜಿತ, मनाल, लघुपाषाण, शैलेय, बहु ಹರೀತಕೀ पुप्पी, हरीतकी, रोचना, मल्लूर.. (१००) शिग्र शिला Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी. संस्कृत. मराठी. कनडी. | शिलाल (न)| मैनसिल. मनशीळ. 32. । शिलाजतु (न)| शिलाजीत. शिलाजित. १७ . शिशिर पु) चंदन; कालावाला, अभायू. चन्दन, भोरड्या,काळावाळा, थंडी. | 2030, 200303023,233%8362 शीतल (न) पुप्पकसीस, पाथरका फूल, सफेद- पद्मकाष्ट, मोती, चंदन, राळ, | 283306, , , , | चंदन, पद्मारव, मोती, खस, पीतवाळा, सोनचाफा, मसेनीकापुर | sari, Roork, er | शीर (न)| नागरंग. नागरंग. ನಾಗರಂಗ, शुकमुख (पु) फलविशेष. फलविशेष. ಫಲವಿಶೇಷ, शुक्लमरिच (न)[सफेद मिरच श्वेत मिरी 253833000 सूक्ष्मजटामांसी. शेवाल... जलमांडवी, शेवाळ, 8033R०, ८०3, ORDER जलमंडली. शेलु (पु)| लिसोडावृक्ष. भोंकर, रानमेथी. | 06. शैलज (न)। पत्थरकाफूल, भूरिछरीला. | दगडफूल, गजपिंपळी. ಕಲ್ಲುಹೂವು, ಗಜ ಹಿಸ್ಸಲಿ. शैलबिल्व (न)| पहाडी बेछ. पहाडी बेल. ಬೇಲದ ಹಣ್ಣು, शैलय (न)! भूरिछरीला, मुसली, सैन्धानोन, शिलाजित्, दगडफूल, 1 ಕಲ್ಲುಹೂವು, ಶಿಲಾಜಿತ್ತು. शिलाजीत. शैवल (पु) शिवार, शेवाळ, कुब्जक. १९७०४३. शोलि (पु) वनहलदी. .. वन हळदी... ವನಹಳದಿ, (८०३ ) - Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Promo संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडो. शाभांजन (पु), सैंजिनका पेड, शेवगा. ನುಗ್ಗಿ ಮರ, शंखनाभि (पु) नाभिशंक. शंखनामि. 3०02. शंखिनी (स्त्री) | थोर हुली पुन्नागवृक्ष, यवेची, यवतिका, याचि, टिटवी सांखवेल . - चोरपुष्पी, शिशुपा (स्त्री) | सीम. | काळा शिसत्र. ಬೀಟಿಯ ಮರ, शुंठी (स्त्री)| सोंठ. गलशुंठीरोग, सुंठ. 8.००९. । शृंगि (पु) अतीस. अति विष. 9302, शृंगवेर (न) | अदरक, सोंठ. सुट, आले. ಖಾರ ಗೆಣಸು, ಹಸಿಸುಂಠಿ. शृंगाटक (न.पु) | सिंगाडे. | शिंगाडे. Boned. श्रवणा (स्त्री) | गोरखमुण्डी, दाधियूवृक्ष. मुडी.. 330200. (स्त्री) शारिबा, फूलप्रियंगु, बावची, श्याम | लघुनीली, गहुला, पिंपळी, मेदा, 233021, २ . पनिलर, नीलक वृक्ष, गूगला, लकड्या, पाषाण भेद, कस्तुरी, 5500 32, डू, सोमलता, भद्रमोथा, माततिण, | गुळवेल, हळद, गोरोचन, तुळस, | २०८, ९, रह गिलोय, वान्दा, कस्तूरी, वायत्री, | नीलदूर्वा, काळा पुनर्नवा,बादांगुळ पीपलाहलदी, माली, दूब, तुलसी, i काळे निशोत्तर, काळी उपलभरी, कमल गट्ठा, विधारा, कालीसार. श्वेत उपलरी, वाघांटी, काळा शिव, वधारा. ( ६१? ) e ड। - + - -+ -+-+ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - .. हिंदी.. .... मराठी. - --- ommamimagination + .. ... .. . - TP संस्कृत.. कनडी. श्लेष्मांतक (ए) | लिसोडावृक्ष. श्लेष्मातक, भोंकर. 230, 2002, socin. श्वेता (स्त्री) कौडी, कटपाडर, शंगिनी, अतीस साकर, बगळी, श्वेतदूर्वा, वंशलो-sera, exers, ७१९ ॥ कोयल, सफेदकटाई,सफेद कटेहरी, चन, श्वेतरिंगणी,हाताजोडीपाषाण ಪಾಟಿಕ, ಬಿಳೀ ನೆಲಗುಳ್ಳ, ಹಿಟ್ಟಲೀಕ, सफेद दूब, पाखानभेद, वंशलोचन | भेद, श्वेत तुळस, थोर श्वेतकिही| १२००, , , २०७४/०९ | ಚನ, ಬಿಳಿ ತುಲಸೀ, ಬಿಳಿ ಜಾಜಿ, सेठ, सफेद कोयल, शिलावाक्, | श्वेत डोरली, फटकी ढऱ्यापुया, फटकिरी, चीनी, बेनावृक्ष श्वेतनिर्गुडी, श्वेतगोकर्णी, लोखंडी केळ, थोर श्वेतजाई. वेतउपलसरी श्वेतगुजा, श्वेतनिशोत्तर, श्वेतदेण्.ड. श्वेता पुनर्नवा (स्त्री) श्वेतपुनर्नवा...... श्वेतपुनर्नवा. ಶ್ವೇತ ಪುನರ್ನನಾ, श्वेताभ्र (न) सफेद अभ्रक. पांढरा अभ्रक. .. | 208 Sey. नेताम्ली (स्त्री) अम्लिका, :| श्वेतपिठोण्डी. T - - HTTTTTT - amannamon (ho? ), - - Rost. was - पटफल গাছ (न)/ फल विशेष पाटी, सादीवान्य. फल विशेष. साठे साळी. ಫಲವಿಶೇಷ ಧಾನ್ಯವಿಶೇಷ. - -.. - - - Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . - स - मराठी. लघुधापटी. संस्कृत. कनडी. सद्धातकीकुसुम (न) | धाईके फूल. ಧಾತಕ ಕುಸುಮ. सप्तला (स्त्री) | नेवारी, सातला, पाढर, धुंघुची. | शेर, नेगळी, शिकेकाई. “ | ಕಾಡಮಲ್ಲಿಗೆ, ಕನಬಿ, ಗುಲಗಂಜಿ. समंगा (स्त्री) | मजीठ, लज्जावन्ती छुईमुई. खिरैटी | लघुचिकणा, मंजिष्ट, लाजाळं. scareer, acces, Tr33ns. वराहक्रान्ता. सरल सरसा जी सर्ज [ ] (३०? ) । सर्प सर्पनिर्मोका (पु) धूपसरल, | सरलदेवदार, हिरा, सुरूचे झाड. | ९५०3,ttees. (स्त्री) | सफेत पनिलर, निसत.. मांस, काष्टागर. 2080 ore. (पु) | सालवृक्ष, राल, पियासाल. 1) मालवक्ष. राल. पियासाल. लोहोबंदी ऊद, राळेचा वृक्ष, थोर 983, Rdorst. राळेचा वृक्ष, अश्वकर्ण,सायलीवृक्ष. (पु) | नागकेशर... | नागकेसर. ನಾಗಕೇಸರಿ, (स्त्री) | सर्प की कचैली. सांपाची कातन. ಹಾವಿನ ಪರೆ, (स्त्री) नाकुलीकन्द, कंकालिका, बंगभाषा थोर मुगुसवेल, थारसुगध, मुंगुस | sscne Re 2002) सरहटी, गंडनी. | कान्दा, तानवडीचे झाड, शेत ಕ್ರಾಂತ, ಹುನಗುಂದ विष्णुक्रान्ता, रक्तशंखपुष्पी. - ndmandam a - (पु) | सरसों. शिरस, श्वेतशिरस, देवशिरसावृक्ष, 23, REWS, det3. मोहोरी. - Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सल नखला. minawwwmarria केळेः खैर. संस्कृत. . मराठी. कनडी.. (न)| वृक्ष विशेष. साळपी. ವೃಕ್ಷ ವಿಶೇಷ सह (पु)| रहेगमानोन. ಚಿರು ಗೋರಂಟಿ. सहकार (पु) | अतिसुगंधयुक्त आम. आंबा. ಕಸಿಮಾವು. सहचरी (स्त्री) | पीली कटसरैया. पीतकोरंटा. ಹಳದಿ ಗೋರಂಟ, सहदेवी (स्त्री) | सरहटी, गण्डनी, पीले फूलका | महाबला, थोरनिली,सहदेवी,चित्रडी | 0. 02. दण्डोत्पला, सहदेई. सारतरु (पु)| केलावृक्ष. 20388.. साग्द्रुम (पु) | खैरकापेड. ಕಗ್ಗಲಿಮರ, ತರೋಗ್ಯ ಅಮರ, सारिवा [व] (स्त्री) | गौरी आसाऊं, सरिबन, कालीसर, | श्वेतउपलसरी, साळी भात. ved, toris. सालसा, करिया वासाऊं. सारांघ्रिप खैरका पेड, खैराचे झाड, ಕಗ್ಗಲಿಮರ, ತರೊಗ್ಗಲಿಮರ, साल (पु) | सखुआवृक्ष, सालवृक्ष, राल. मत्स्यविशेष, सागवृक्ष, कुंपण, वृक्ष. 30 , 03.hds. सितसर्पप (पु)! सफेद सरसों. श्वेतशिरड, पांढरी मोहोरी. ee wixsi. सिद्धार्थ (क) (पु) | सफेदसरसो, नदीवड. ३वेतशिरस, नदीवड, मोहोरी..0832553, 108७७. सिंधुक (पु) | सिम्हालावृक्ष. निर्गुडी. ७.७. सिंधुवारक (पु) | पिम्हालु, सेदु आरी, निर्गुण्डी. | निर्गुडी. ಬಿಳೇ ಲಕ್ಕಿಗಿಡ, ಲಕ್ಕೆ, ( ८०७ ) n - - Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - -- - - सुदन्ती संस्कृत. हिंदी. मराठी. कनडी. सिंधुत्थचूर्ण (न ) | सैन्धानमकका चूर्ण, |सैघालोणाचे चूर्ण. सुस्वाहा (स्त्री) | वृद्धि औषधि, वृद्धि औषधि, ವೃದ್ಧಿ ಔಷಧಿ. मुगंधि (स्त्री. पु) एलआ, मोथा, कशेरू, गंजबास । वाळूक काकडी, सुत्राप्तिक. | ಕಿರಿಗಂಜಣಿ, ಕೊತ್ತುಂಬರೆ, ಹಿಪ್ಪಲಿ | 33000 धनिया पीपलामूल, सुगंधयुक्तआम, तुंबुरुका पेड, वनवर्बरी तुलसी. (स्त्री) | जमालगोटे की जड. जेपाळ, जमलगोंट. asperinetis, &008. सुधा (स्त्री) | चुरनहार, सेहुण्डवृक्ष, हरड,आमला | निवडुंग, सालवण, अमृत, चुना, I 3,50ane, 933470001 सहत, शाल बन, गिलोय. नारिंग,बीज,आंवळी, अहिमभोजन. ७०3, 220३. । सुरदारु (न) | देवदारु. तेल्यादेवदार, देवदार, सरलदेवदार. | ದೇವದಾರು. सुरस (न. पु) | बोलगंधद्रव्य दालचीनी,सुगंवघात, रक्त्याबोळ,कलमीदालचिनी, सुगंव ದಾಲಟಿಇ ಲವಂ तुलसी, सम्हालुवृक्ष, मोचरस. भूतृण, पुदनीगवत, कणगुगुळ, HER:0A९, ३९६३. || मोचरस. सुरेन्द्रकाष्ठ (न)। देखो सुरदारु. पहा सुरदारु... ನೋಡಿ ದೇವದಾರು. सुवर्च ल] ला (स्त्री)/ अलसी सूरजमुखीके फूल, हुलहुल- | सूर्यफूलबल्ली, ब्राह्मी, जवस, ಅಗಸೆ, ಸರಕಾಂತಿ ಬಳ್ಳಿ, ಅಶ್ವಗಂಧ वृक्ष, सज्जीखार, अश्वगंध. सुवार्षिक (पु) सज्जीखार. सुपर्चिका, सजीखार, Free . सुषवी (स्त्री) | करेला, कालाजीरा, छोटाकरेला, | उपकुोचका, साडी, पिंपळी, क्षुद्- | 003R, SORD 7200, 30R, करेली, जीरा. कारली, कलोजी जिरें, कुळई , ಸಣ್ಣ ಹಾಗಲಕಾಯಿ कटुहुंची, लेघुकारली. ( ८०८ ) Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - संस्कृत. हिंदी. मराठी. .... कनडी. (4)| पारद. सूत. ಪಾದರಸ, पारा. सूरण' (पु) | जमीकन्द. श्वेतसुरण, खारासुःण. ४० .. मृगालविना (स्त्री) पृस्नपर्णी, पिठवन. पृश्नपणी, पिठवण, ಉರಿಹೊನ್ನೆ, सैरीय. (पु) कटसरैया. ३वेतकोरण्टा, ಗೋರಂಟಿ, सैरेयक (पु) | देखो-सरीय. पाहा सैरेय. ಮಳ್ಳು ಗೋರಂಟಿ, सोम (न पु.)| काजा, कपूर, सामन | कांजी, कपूर, सोमलता. रक्तचंदन, कांजी, सोमवल्ली, ಕೆಂಪು ಚಂದನ, ಸೋಮಲತೆ, ' धान्याम्ल, आरनाल. सोमबल्लिका (स्त्री) | वावची, गिलोय. वाचा. ಬಾಹುಜಿ. सविार (न)| बेर, कांजी, कालातुर्मा, सफेद- | बोर, जयाची पेज करून आंब- 3000०४३३, 30 . शुर्मा, सौवीरकांजी. वितात् तें कांजी, काळासुरमा, स्रोतोजन, संधान, गह्वाचें कांजी . रायबोर. सैंबव (न पु) | सेंधानोन. सेवेलोण. ಸೈಂಧಲವಣ. स्थाणेय (न)| गठियन गठियनभेद, अर्थात् थुनेर | गाजर, ग्रंथिपणीचा भेद, थुणेर, marte, . थुनियार. गांठियन. स्थूणांक (न) | कंदविशेष. कंदविशेष. ಕಂದ ವಿಶೇಷ स्नुहि (स्त्री) सेहुण्डवृक्ष. निवडुंग. ( ८०९ ) ४. Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --.-..... हिंदी. 22 शेवाळ. - - - --- -- -. संस्कृत. (न)| अंतरगंग. हयमार (पु) कनेरका पेड. हरिताल (न) हरताल, हरिद्रा (स्त्री)| हलदी. हरिद्राद्वय (न) | हलदी, दारुहलदी. हरीतक (न) हरड. हरीतकी (स्त्री.) | हरड, हर्र, हड, । हरेणु . (स्त्री.पु) रेणुका मटर. मराठी. कनडी. ८०dRon.. श्वेतकणेर. ಕಣಿಗಲು, ಬಿಳೀ ಕಣಿಗಲು, हरताळ दुर्वा. 000 हळद, दारूहळद. . दारूहळद, हळद. ಅರಶಿನ ಮತ್ತು ಮರಅರಶಿನ. हरितक शाक, हिरडा. | eeehd. हिरडा, हिरडा सात प्रकाराची आहे ಅಳಲೇಕಾಯಿ, वाटाणे, स्वल्पकलाय भेद, रेणुक | ॐ, 25E. HTEEH... - - ..... - ................... (८१०) बीज. e gopade, .................... - n हस्तिक (र्णी] (पु.स्त्री) | अण्डकापेड हस्तिकर्ण-पलाशभेद, | हस्तिकर्णी-कांसाळु, एरण्ड, रक्त- हस्तिकन्द लालअण्ड. . एरण्ड, हस्तिकन्द.. हस्तिपिप्पली (स्त्री.) | गजपीपल. गजगीपळ. हिमकर - (पु)| कपूर. कापूर. (पु)| कपूर. कापूर. हिंगु (न) | हींग, वंशपत्री. हिंग. ಗಜಹಿಪ್ಪಲೀ. ಕರ್ಪೂರ, ............. हिमांशु ಕರ್ಪೂರ, ........... Haot. .......... - - Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी.. MARoad संस्कृत. हिंगुदी हिताल (स्त्री) मराठी. वृक्षविशेष. कनही.. ಕವಿಶೇಷ 800388. (पु)| ताडवृक्ष. थोरताड. HESIDENROMenderINUTAmatyed क्षणदा (स्त्री) | हलदी. | हळद. क्षवक [का) (पु) | चिरचिरा, राई, | राळ, तांस कलारूप जोकाल तो. | BOXOS. 233,ass. क्षारवृक्ष (पु) | मोखावृक्ष. | काळा मोखावृक्ष, चाकवत. ಮಕಾರ್ತಿ, ಮಕ್ಕೆ ಮಾ, ಚಕ್ಕೊತಪಲ್ಯ क्षितिपवृक्ष (पु) | अमलतास. थोर बहवा. क्षीर (न) | दूध, सरलका गोन्द, | पाणी, दूध, बकाणनिंब, सद्यः | २६, २, ७ 2263, aro 1 व्यालेले मायीचे दूध, खीर, I T , EDY Cc33. धूप विशेष. क्षारहम (पु) पीपलका पेड, [ गूलर आदि दूधवाले पिंपळ. | er, aage, De:2005 . वृक्ष.] | तारकंचुकि) की (स्त्री) | क्षीर कचुकी. क्षीर कंचुकी. ಕ್ಷೀರ ಕಂಚುಕೀ, भारी (पु. स्त्री) | खिरनीवृक्ष, सेहुडंवृक्ष, दुद्धिवृक्ष, नान्दरूखी, श्वेतभुई कोहोळा,उंबर | sdcasses, die, आकावृक्ष, गजादनीवृक्ष, शिर- | वंशलोचन, निवडुंग,रक्तरेई,रांजणी | necaus, Scredicts, acetri गोला,सोमलता, बडवृक्ष पाखरवृक्ष, | पिंपरी, वड, कांकोळी, शिरगोळा, | asand, sed. . . वलिया पीपल, बड, गूलर, पीपल, थोर गहूं, शिरोडी, क्षीरकांकोळी, पारखर, पारिसपीपल. .' थोर सोमवल्ली. Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीरका क्षीरिणी क्षुद्रा सस्कृत. क्षुरक हिंदी.. (स्त्री) पिण्डखजूर.: (स्त्री) ऊंटकटीला. मराठी. रांजणीवृक्ष, वंशलोचन, दुधी, तबखीर, पिसोळा भेद, खीर, खिरणी दूध भोपळा, थोरशिवणी, पिसोळा, पहारकुटुंबी, श्वेत उपलसरी, शंखपुष्पी, रांजणी, शिरढोडी, दुश्री, क्षरिकांकोळी. कनडी. कटाक्षल, स्टल २०. इति भद्रं भूयात् । लै४९१ ००:२, seeracwe ಕ್ಷೀರ ಕಾಕೋಲೀ ಖರಣಿ ಮರ, BOA (स्त्री) कटेरी, अंबिलोना, गरहेडुआ, छोरा लघुपिंपळ, जोंधळीसाखर, रिंगणी, crowdace, चचुशाक. लघुचुच, गांधीणमाशी, लघुकरबंदी, उचकी, क्षुद्रमधुमक्षिका, चागेरी, कांहीं अवयवांनी न्यून सी. (पु) तिलकपुष्पवृक्ष, तालमखाना, गोखुरु कोळिस्ता, तिलकपुष, बोरू, भूतराज. गोखरू, माककिणी. ತಿಲಕದಗಿಡ, ತಾಲಮಖಾನಿ ಗೋಖರು Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________