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________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। भावार्थः-वातके प्रकोप से आखें संकुचित होजाय अर्थात् खुले नहीं और रूक्ष हो जिसकी वर्म, ( वाफणी ) कठिन हो, देखने में मैला दीरखें ( साफ न दाखें, आखोंसे देख नहीं सकें ( उघाडनेमें अत्यंत कष्टं होता हो) उसे शुष्काक्षिपाक कहना चाहिये ॥ १६४ ॥ अन्यतो वात लक्षण. विलोचनस्थो भ्रवि संचितोऽनिलः । शिरोवहां की नमदिनीं । करोति मन्यास्वपि तीनवेदनां । तमन्यतो वातगुशन्ति संततम् ।। १६५ ।। भावार्थ:- आंख में रहनेवाला, भ्रमें संचित बात शिर में बहनेवाली नाडी, कान, हनु ( टोडी) और मन्यानाडी में ऐसी तीव्र पीडा उत्पन्न करता है जो भिदती मालूम होता है । इसे अन्यतो वातरोग कहते हैं ॥१६५॥ ___ आम्लाध्युषित लक्षण. विदाहिनाम्लेन निषेवितेन त-। द्विपच्यते लोचनमेव सर्वतः ॥ सलोहितं शोफयुतं विदाहव- । द्भवेत्तदाम्लाध्युषितस्तु रक्ततः ॥१६६॥ भावार्थ:--विदाही आम्ल पदार्थके सेन करनेसे संपूर्ण आंख पक जाती है। और लाल, शोफयुक्त व दाहयुक्त होती है। यह रोग रक्तके प्रकोप से उत्पन्न होता है । उसे अम्लाध्युषित रोग कहते हैं ॥ १६६ ॥ शिरोल्पात लक्षण. यदक्षिराज्यो हि भवंति लोहिताः । संवेदना वाप्यथवा विवेदनाः॥ मुहुर्विमृज्यन्त्यमृजः प्रकोपती । भवेच्छिरोत्पात इतीरितो गदः॥१६७॥ भावार्थ:-जिसमें आंखोंकी नसें पीडायुक्त अथवा पीडारहित होती हुई, लाल हो जाती हैं और बार २ ललाईको छोड देती हैं अथवा विशेष लाल हो जाती हैं इस व्याधिको शिरोत्पाद कहते हैं । यह रक्त प्रकोप से उत्पन्न होता है ॥१६७॥ शिरामहर्ष लक्षण. यदा शिरोत्पात उपेक्षितो नृणां । शिरामहर्षी भवतीह नामतः ॥ ततः स्रवत्यच्छमजस्रमास्त्रको । नरो न शक्नात्यभिलक्षितुं क्षणम् ॥१६८ १ अन्यग्रन्थकारोंका तो ऐसा मत है कि मन्या, हनु, कर्ण आदि स्थानों में रहनेवाला वात '' आंख व भृकुटीमें पीडा उत्पन्न करता है उसे अन्यतो वात कहते हैं । यह वात अन्य स्थानों में रहकर अन्यस्थानमें पीडा उत्पन्न करता है । इसलिये इसका नाम सार्थक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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