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(३४८)
कल्याणकारके
भावार्थ:-यदि शिरोत्पात रोगकी उपेक्षा करे तो शिराप्रहर्ष नामक रोग होता है । जिसमें सदा आखोंसे स्वच्छ स्त्राव होता ही रहता है । वह मनुष्य एक क्षण भी देखने के लिये समर्थ नहीं होता है ॥ १६८ ॥
नेत्ररोगोंका उपसंहार. इति प्रयत्नादशसशसंख्यया । प्रतीतरोगान्नयनाखिलाश्रयान् ॥ विचार्य तत्साधनसाध्यभेदवि- । द्विशेषतस्स्यदचिकित्सितैर्जयेत् ।।१६९॥ - भावार्थ:---इस प्रकार संपूर्ण नेत्र में होनेवाले सत्रह प्रकार के नेत्र रोगोंको, साव्यसाधन भेद को जानने वाला मतिमान् वैद्य, विशेष रीतिसे . विचार करके, उन को अभिष्यंदोक्त चिकित्सा पद्धति से जीतें ॥ १६९ ॥
, सध्यादिगत नेत्ररोग वर्णन प्रतिज्ञा. अतोत्र नेत्रामयमाश्रितामया- । नसाध्यसाध्यक्रमतश्चिकित्सितैः ॥ ब्रवीमि तल्लक्षणतः पृथक् पृथक् । विचार्य संध्यादिगतास्वसंख्येया १७०
भावार्थ:--यहां से आगे, नेत्ररोगोंके आश्रित रहनेवाले, संधि आदि स्थानों में होनेवाले, संधिगत, वर्मगत आदि रोगों के साध्यासाध्य विचार, उन की चिकित्सा, अलग २ लक्षण और संख्या के साथ २ वर्णन करेंगे ॥ १७० ॥
संधिगतनवविध रोग व पर्वणी लक्षण । नवेव नेचाखिलसंधिजामया । यथाक्रमात्तान् सचिकित्सितान ब्रवे ।। चलातिमृद्वी निरुजातिलोहिता । मताचा संधौ पिटका तु पर्वणी ॥१७१॥
भावार्थ:-नेत्र की सर्व संधियो में, होनेवाले रोग नौ प्रकारके ही होते हैं। उन को उन के चिकित्साक्रम के साथ २ क्रम से वर्णन करेंगे । कृष्ण व शुक्ल की संधि में चल, अत्यंत मृदु, पीडासे रहित, अत्यधिकलाल, ऐसी जो पिडिका हे।ती है उसे आचाघोने पर्वणी नामसे कहा है ॥ १७१ ॥
अलजी लक्षण, कफादतिस्रावयुतोऽतिवेदनः । सकृष्णवर्णः कठिनश्च संधिजः ॥ भवेदतिग्रंथिरिहालजी गदः । स एव शोफः परिपाकमागतः ॥१७२॥
१ पूयालस, कफोपनाह, चार प्रकार के स्लाव ( कफजलाव, पित्तजनाव, रक्तजस्राव, पूय। स्ना अर्थात् सन्निपातजस्राव,) पर्वणी, अलजी और कृभिग्रंथि इस प्रकार संधिगत रोगों के भेद नौ हैं
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