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________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। ( ३४९) प्रयालस, कफोपनाह लक्षण. सतोदभेदो बहुपूयसंस्रवी । भवेत्स पूयालस इत्यथापरः ॥ स्वदृष्टिसंधौ न विपकवान् महा- । नुदीरितो ग्रंथिरिहाल्पवेदनः ॥१७३ - कफजस्राव लक्षण. कफोपनाहो भवतीह संज्ञया । स एव पक्को बहुपूयसंस्त्रवात् ।। सयसंखावविशेषनामकः । सितं विशुष्कं बहुलातिपिच्छिलम् ॥१७४॥ पित्तजस्त्राव व रक्तजनावलक्षण. स्रवत्सदा स्रावमतो वलासजो । निशाद्रवाभं स्रवतीह पित्तजः । .. सशोणितः शोणितसंभवो यतश्चतुर्विधाः सावगदा उदीरिताः ॥ १७५॥ कृमिग्रंथि लक्षण. स्ववर्मजाताः क्रिमयोऽथ शुक्लजाः । प्रकुर्वते ग्रंथिमतीव कण्डुरम् ॥ स्वसंधिदेशे निजनामलक्षणैः । समस्तसंधिप्रभवाः प्रकीर्तिताः॥१७६॥ भावार्थ:-कफके विकारसे अत्यधिक स्रावसे युक्त, अत्यंत वेदना सहित, कृष्णवर्णवाला कठिन सरिज ग्रंथिशोफ अलजी के नामसे कहाजाता है। वहीं ( अलजी) शोफ जब पकजाता हैं तोदन, भेदन पीडासे संयुक्त होता है तो उसमेंसे अधिक पूयका स्त्राव होने लगता है इसे पूयालस कहते हैं । दृष्टिकी संधिमें पाकसे रहित अल्प वेदना युक्त, जो महान् ग्रंथि [गांठ] उत्पन्न होता है उसे कफोपनाह कहते हैं. वही ( कझोपनाह ) पककर, उससे जब बहुत प्रकारके पूय निकलने लगते हैं तो उसे पूयसंस्राव [ पूयस्राव व सन्निपातजस्राव ] कहते हैं । यदि उससे, सफेद शुष्क, गाढा व चिकना पूय, सदा स्त्राव हो तो उसे कफजस्राव समझना चाहिये। यदि हलदीके पानीके सदृश, पीला स्राव हो तो उसे पित्तजस्राव, रक्तवर्णका स्राव होवें तो रक्तजनाव सपझें । इस प्रकार चतुर्विध सावरोग आगममें कहा है। वर्मभाग शुक्ल भाग में उत्पन्न कृमियां, वर्त्म और शुक्ल की संधि में अत्यधिक खुजली से युक्त ग्रंथि (गांठ) को उत्पन्न करते हैं इस को कृमिग्रंथि कहते हैं । इस प्रकार अपने २ नाम लक्षणों के साथ, संपूर्ण संधि में उत्पन्न होनेवाले संधिगत रोगोंका वर्णन हो चुका है ॥१७२।। १७३॥१७४॥ १७५ ॥ १७६ ॥ वर्मगतरोगवर्णनप्रतिक्षा. अतःपरं वर्त्मगतामयान्ब्रुवे । स्वदोषभेदाकृतिनामसंख्यया । विशेषतस्तैः सह साध्यसाधन- । प्रधानसिद्धांतसमुद्धतौषधैः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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