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अवसान हुआ होगा इसके सिवाय और क्या कहा जा सकता है। प्रारंभसे जिस विस्तृतिके साथ कोष का निर्माण हुआ है, उस से अवशेष शब्दोंका पात करीब ३००० की संख्यामें ले सकते है, यह हमारे दुर्भाग्य का विषय है । ग्रंथ में वनस्पतियोंका नाम जैन पारिभाषिक के रूप में आये हैं । जैसे अभव्यः-हंसपादि, अहिंसा-वृश्चिकालि, अनंत= सुवर्ण, ऋषभ पावठेकी टता, ऋषभा-आमलक, मुनिखर्जरिका-राजखर्जर, वर्धमाना: मधुर मातुलंग, वर्धमानः-श्वेतैरंड, वीतराग:-आम्र इत्यादि । ऐसे कोषों का भी उद्धार होने की परम आवश्यकता है। ..
समंतभद्रके पूर्वके वैद्यकग्रंथकार. जैनवैद्यक विषय श्रीभगवान की दिव्य ध्वनि से निकला हुआ होने से इस की परंपरा गणधर, तच्छिष्यपरंपरा से बराबर चला आ रहा है, यह हम पहिले लिख चुके हैं। समंतभद्र के पहिले भी कुछ वैद्यक ग्रंथकर्ता उपलब्ध होते हैं। वे क्रि. पू. दुसरे तीसरे शतमान में हुए हैं । और वे कारवार जिल्ला, होन्नावर तालुका के गेरसप्पाके पास हाडमिळ में रहते थे। हाडमिळमें इंद्रगिरि, चंद्रगिरि नामक दो पर्वत हैं। यहांपर वे तपश्चर्या करते थे। अभी भी इन दोनों पर्वतोपर पुरातत्व अवशेष हैं । हमने इस स्थान का निरीक्षण किया है।
इन मुनियोंने वैद्यक ग्रंथोंका निर्माण किया है । महर्षि समंतभद्रने अपने सिद्धांत रसायनकल्प ग्रंथमें स्वयं उल्लेख किया है कि " श्रीमद्भलातकाद्रौ वसति जिनमुनिः मूतवादे रसाब्ज" इ. साथमें जब समंतभद्राचार्यने अपने वैद्यकग्रंथकी रचना परिपक्वशैलीमें की एवं अपने ग्रंथमें पूर्वाचार्योकी परंपरागतताको भी "रसेंद्र जैनागमसूत्रबद्धं" इत्यादि शब्दों से उल्लेख किया तो अनुमान किया जा सकता है कि समंतभद्र के पहिले भी इस विषय के ग्रंथ होंगे । उन पूर्व मुनियोंने इस आयुर्वेद में एक विशिष्ट कार्य किया है । जो कि अन्यदुर्लभ है।
- पुष्पायुर्वेद. जैनधर्म अहिंसाप्रधान होने से, उन महात्रतधारी मुनियोंने इस बातका भी प्रयत्न किया कि औषधनिर्माण के कार्य में किसी भी प्राणीको कष्ट नहीं होना चाहिए । इतना
१ यह कोष बैंगलोरके वैद्यराज पं. यल्लप्पाकी कृपासे हम देखने को मिला व अनेक परा. मर्श भी मिले । इसके लिए हम उक्त वैद्यराजका आभारी है। सं.
. २ भट्टारकीर प्रशस्ति में इस हाडटिळका उल्लेख संगीतपुर के नाम से मिलता है । क्यों कि कर्णाटक भाषामें हाडु शब्द का अर्थ संगीत है । हटिळ शब्द का अर्थ ग्राम है । इसलिए यह निश्चित है कि हाडजळका का ही संस्कृत नाम संगीतपुर है । सं०
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