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________________ (38) - - - ही नहीं एकेंद्रिय प्राणियोंका भी संहार नहीं होना चाहिए । अतएव उन्होंने पुष्पायुर्वेद का भी निर्माण किया । आयुर्वेद ग्रंथकारोंने वनस्पतियोंको औषधमें प्रधान स्थान दिया। चरकादि ग्रंथकारोंने मांसादिक अभक्ष्य पदार्थोका प्रचार औषधि के नामसे किया। परंतु जैनाचार्योने तो उस आदर्शमार्गका प्रस्थापन किया जिससे किसी भी प्राणीको कष्ट नहीं होसके। इसीलिए पुष्पायुर्वेद में ग्रंथकार ने अठारह हजार जाति के कुसुम (पराग ) रहित पुष्पों से ही रसायनौषधियों के प्रयोगोंको लिखा है। इस पुष्पायुर्वेद ग्रंथ में क्रि. पू. ३ रे शतमान की कर्णाटक लिपि उपलब्ध होती है जो कि बहुत मुष्किलसे बांचने में आती है । इतिहास संशोधकों के लिए यह एक अपूर्व व उपयोगी विषय है । अठारह हजार जाति के केवल पुष्पों के प्रयोगोंका ही जिसमें कथन हो,उस ग्रंथ का महत्व कितना होगा यह भी पाठक विचार करें । विशेष क्या ? हम बहुत अभिमान के साथ कह सकते हैं कि अभीतक पुष्पायुर्वेद का निर्माण जैनाचार्यो के सिवाय और किसीने भी नहीं किया है। आयुर्वेद संसारमें यह एक अद्भुतचीज है । इसका श्रेय जैनाचार्योको ही मिल सकता है । महर्षि समंतभद्र का पीठ गेरसप्पामें था । उस जंगल में जहां समंतभद्र वास करते थे, अभीतक विशाल शिलामय चतुर्मुख मंदिर, ज्वालामालिनी मंदिर व पार्श्वनाथ जिन चैत्यालय दर्शनीय मौजूद है। जंगल में यत्र तत्र मूर्तियां बिखरी पडी हैं ।दंतकथा परंपरासे ज्ञात है कि इस जंगल में एक सिद्धरसकूप है । कलियुग में जब धर्मसंकट उपस्थित होगा उस समय इस रसकूप का उपयोग करने के लिए आदेश दिया गया है । इस कूप को सर्वांजन नामक अंजन नेत्रोंमें लगाकर देख सकते हैं । सर्वांजन को तैयार करने का विधान पुष्पायुर्वेद में कहा गया है । साथ में उस अंजन के लिए उपयोगी पुष्प उसी प्रदेशमें मिलते हैं ऐसा भी कहा गया है । अतएव इस प्रदेशकी भूमि का नाम "रत्नगर्भा वसुंधरा" के नाम से उल्लेख किया है । ऐसी महत्वपूर्ण-कृतियोंका उद्धार होना आवश्यक है । पूज्यपादके बादके जैन वैद्यक ग्रंथकार पूज्यपादके बाद भी कई वैद्यकग्रंधकार हुए हैं। उन्होंने तद्विषयक पांडित्यसे अनेक आयुर्वेद ग्रंथोंका निर्माण किया है । इस का उल्लेख अनेक अंधोंमें मिलता है । गुम्मटदेवमुनि. इन्होंने मेरुतंत्र नामक वैद्यकथकी रचना की है। प्रत्येक परि छेद के अंतमें उन्होंने श्रीपूज्यपाद स्वामी का बहुत आदरपूर्वक स्मरण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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