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भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः ।
भोजन कराना चाहिये,एवं पीछे आम्ल औषधियोंसे सिद्ध मलद्रावक गरम पानीको पिलाना चाहिये अर्थात् अनुपान देना चाहिये ॥ ४३ ॥
- विरेचक औषधदानविधि. अन्यधुस्सुविचार्य जीर्णमशनं मूर्ये च निर्लोहिते । दद्यादौषधमग्निमल्पपरुषव्याधिक्रमालोचनैः ॥ कोष्ठः स्यास्त्रिविधो मृदुः कठिन इत्यन्योपि मध्यस्तथा। पिनातिमरुत्कफेन निखिलैर्दोषैः समर्मध्यमः ॥ ४४ ॥
भावार्थ:-- दूसरे दिन सूर्योदय के पहिले, पहिले दिन का अन्न जर्णि हुआ या नहीं इत्यादि बातों को अच्छीतरह विचार कर साथ में रोगी के अग्निबल व मृदु कठिन आदि कोष्ठ, व्याधिबल आदि बातों को विचार कर विरेचनकी औषधि देवें । कोष्ठ मृदु, कठिन ( क्रूर ) व मध्यम के भेद से तीन प्रकार का है । पित्त की अधिकता से मृदु कोष्ठ होता है। वातकफ की अधिकता से कठिन कोष्ट होता है । तीनों दोषों के सम रहने से मध्यम कोष्ठ होता है ॥ ४४ ॥
. विविध कोष्ठो में औषधयोजना. मृद्वी स्यादिह सन्मृदावतितरां क्रूरे च तीष्णा मता । मध्याख्येऽपि तथैव साधुनिपुणैर्मध्या तु मात्रा कृता ॥ अमाप्तं बलतो मलंगमयुतं नेच्छेत्सपित्तौषधम् ॥ प्राप्तं वापि न वारयेदतितरां वेगं विघातावहम् ॥ ४५ ॥
भावार्थ-मृदु कोष्टवाले को मृदु मात्रा देनी चाहिए। क्रूर कोष्ठवाले को तक्षिण (तेज) मात्रा देनी चाहिए । मध्यम कोष्ठ वाले को मध्यम मात्रा देनी चाहिए. ऐसा आयुर्वेद शास्त्र में निपुणपुरुषोंने मात्रा की कल्पना की है । विरेचन के लिए औषध लिये हुए रोगी को दस्त उपस्थित हो तो उसे नहीं रोकना चाहिए। यदि वेग नहीं भी आवे तो भी प्रवाहण नहीं करना चाहिए ॥ ४५ ॥
सभ्यग्विरिक्त के लक्षण व पेयपान. यास्यंति क्रमती मरुज्जलमला पित्तौषधोयत्कफाः । यातेष्वेषु ततोऽनिलानुगमने सम्यग्विरिक्तो भवेत् ॥ सोयं शुद्धतनुः श्रमक्लमयुतो लध्वी तनुं चोद्वहन् । संतुष्टोऽतिपिपासुरग्निबलवान् क्षीणो यवागू पिबेत् ॥ ४६ ।।
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