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कल्य
भावार्थ:-इस प्रकार वमनविधि के द्वारा कफका नाश होनेपर कफकृत अनेक रोग नष्ट होते हैं। जिस प्रकार जल के बंध वगैरह टूटनेपर जलका नाश होता है। जलके नाश से वहांपर रहनेवाला कमल भी नष्ट होता है । क्यों कि वह जलके आधारपर रहता है, मूल आधारका नाश होनेपर वह उत्तर आधेय नहीं रह सकता है । इसीप्रकार मूल कफ के नाश होनेपर तजनित रोग भी नष्ट होते हैं । इसलिये योग को जाननवाला विद्वान् वैध को उचित है कि वह वमन के योग्य व अयोग्य इत्यादि वमन के समस्त शास्त्रों को जानकर और तत्संबंधी योग्य औषधियोंसे रोगी को वमन कराना चाहिये ।। ४१ ॥
वमन के बाद विरेचनविधान. वांतस्यैव विरेचनं गुणकरं ज्ञात्वेति संशोधये-। दूर्ध्वं शुद्धतरस्य शोधनमधः कुर्याद्भिषग्नान्यथा। .. श्लेष्माधः परिगम्य कुक्षिमखिलं व्याप्याग्निमाच्छादये-।
च्छन्नाग्नि सहसैव रोगनिचयः प्राप्नोति मर्त्य सदा ॥ ४२ ॥ भावार्थ:-जिस को वमन कराया गया है उसी को विरेचन देना. विशेष गुणकारी होता है, ऐसा जानकर प्रथमतः ऊर्ध्व संशोधन ( वमन ) कराना चाहिये । जब इस से शरीर शुद्ध हो जाय, तव अधःशोधन [ विरेचन ] का प्रयोग करना चाहिये । यदि वमन न कराकर विरेचन दे देवें तो कफ नीचे जाकर सर्व कुक्षिप्रदेश में व्याप्त होकर अग्नि को अच्छादित करता है [ढकता है । जिस का अग्नि इस प्रकार कफसे आच्छादित होता है उस मनुष्य को शीघ्र ही अनेक प्रकार से रोगसमूह आ घेर
विरेचन के प्रथम दिन भोजन पान. स्निग्धस्विन्नसुवांतमातुरमरं श्वोऽहं विरकोषधैः । सम्यक्तं सुविरेचयाम्यलमिति प्रागेव पूोण्हतः॥ सस्नेहं लघुचाष्णमल्पमशनं संभोजयेदाम्लस- । सिद्धोष्णोदकपानमप्यनुगतं दद्यान्मलद्रावकम् ।। ४३ ।।
भावार्थ:---जिस को अग्छी तरह से स्नेहन, रवेदन, व वमन कराया हो ऐसे रोगी को दूसरे दिन यदि वैद्य विरेचन के द्वारा अधःशोधन करना चाहता हो तो पहिले दिन प्रातः काल रोगी को स्निग्ध, लघु, उष्ण व अल्पभोजन द्रव्य के द्वारा
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