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भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः ।
(५९५)
वमन विधिः हल्लासलालामृतिमाशु धीमानालोक्य पीठोपरि सन्निविष्टः । गन्धर्वहस्तोत्पलपत्रवृन्तर्वेगोद्भवार्थ प्रमृशेत्स्वकण्ठम् ॥ ३८ ॥
भावार्थ:---जब उस रोगी को [ जिस ने वमनार्थ औषध पीया है ] उवकाई आने लगे, मुंह से लार गिरने लगे, उसे बुद्धिमान् वैद्य देख कर, शीघ्र ही [घुटने के बराबर ऊंचा ] एक आसन पर बैठाल देवे । और वमन के वेग उत्पन्न होने के लिये, एरंडी के पत्ते की डंडी, कमलनाल इन में से किसी एक से रोगी के कंठ को स्पर्श करना चाहिये अर्थात् गले के अंदर डाल कर गुदगुदी करना चाहिये ॥ ३८ ॥
. सम्यग्वमन के लक्षण. सोऽयं प्रवृत्तौषधसबलासे पित्तेऽनुयाते हृदयोरुकोष्ठे ।
शुद्धे लघौ कायमनोविकारे सम्यस्थिते श्लेष्मणि सुष्टुवांतः ॥ ३९॥ .. भावार्थः-पूर्वोक्त प्रकार वमन के औषधि का प्रयोग करने पर, यदि वमन के साथ क्रमशः पीया हुआ औषध, कफ व पित्त निकलें, हृदय व कोष्ठ शुद्ध हो जावे शरीर व मनोविकार लघु होवें एवं कफ का निकलना अच्छीतरह बंद हो ' जावे तो समझना चाहिये कि अच्छी तरह से वमन होगया है ॥ ३९॥
वमन पश्चात् कर्म. सनस्यगण्डूषविलोचनांजनद्रवैर्विशोध्याशु शिरोबलासम् ।। उष्णांबुभिधौतमिहापराण्हे तं भोजयेषगणैर्यथावत् ॥ ४० ॥
भावार्थ:--इस प्रकार वमन होनेपर शीघ्र ही, नस्य, गंडूष, नेत्रांजन [ सुरमा ] व द्रव आदि के द्वारा शिरोगत कफका विशोधन करके, उसे गरम पानीसे स्नान कराकर, सायंकाल में योग्य यूषों ( दाल ) से भोजन कराना चाहिये ॥ ४०॥
वमनका गुण. एवं संशमने कृते कफकृता रोगा विनश्यति ते । तन्मूलेऽपहृते कर्फ जलजसंघाता यथा ह्यंभसि । याते सेतुविभेदनेन नियतं तद्योगविद्वामये- । द्वाम्यप्राप्तिनिषेधशास्त्रमखिलं ज्ञात्वा भिषग्भेषजैः ॥ ४१ ।।
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