________________
विषरोगाधिकारः ।
(५११)
सांतर्दीपालाबुना तत्र दुष्टं रक्तं संशोध्यं भवेनिर्विषार्थम् । छदि कृत्वा तद्वितीयेऽगदं वा तत्सिद्धं वा पाययेत्सद्यवागूम् ॥ १११ ॥ शेषान् वेगानाशु दकिराणां वेगपूतैरौषधैस्साधयेत्तान् । ऊर्ध्वाधस्संशोधनस्तीवनस्यैः साक्षात्तीक्ष्णैरंजनाचैरशेषैः ॥ ११२ ॥
भावार्थ:---मंडली सर्प के दंश से उत्पन्न विष के प्रथमवेग में अधिक गहरा शस्त्र का प्रयोग न करते हुए साधारणरूप से छेद कर रक्तमोक्षण करना चाहिये । द्वितीयवेग में घृतमिश्रित अगद पिलाकर पश्चात् शीघ्र ही वमन कराना चाहिये। तीसरे वेग में भी उसी प्रकार वमन कराना चाहिये । बाकी के चतुर्थ पंचम षष्ट व सप्तम वेग में दर्वीकर सर्प के वेगों में कथित सर्वचिकित्सा करनी चाहिये। राजीमंत सर्प के विष के प्रथमवेग में शस्त्र द्वारा अधिक गहरा दंश को विदारण (चीर ) कर जिस के अंदर दीपक रखा हो ऐसी तुम्बी से विषदूषित रक्त को निकालना चाहिये जिससे वह निर्विष हो जाय । द्वितीयवेग में वमन कगकर अगदपान करावें अथवा उस अगद से सिद श्रेष्ठ यवागू पिलावें । इस के बाकी के तृतीय आदि वेगों में दर्वीकर सर्पके विष के उन धेगोमें कथित औषध, वमन, विरेचन, तबिनस्य व तीदणअंजनप्रयोग आदि सम्पूर्ण चिकित्साविधि द्वारा चिकित्सा कर इस विष को जीतें ॥ १०९॥ ११०॥ १११॥ ११२ ॥
दिग्धविद्धलक्षण. कृष्णास्राव कृष्णवर्ण क्षतं या दाहीपेतं पूतिमांसं विशीर्ण । जानीयात्तदिग्धविद्धं शराद्यैः करैर्दत्तं यद्विषं सत्रणेस्मिन् (१) ॥११३॥
भावार्थ:--[ शरादिक से वेधन करते ही ] जब घावसे कृष्णरक्त का स्राव होता है, घाव भी कृष्णवर्ण का है, दाहसहित है, दुर्गंध युक्त मांस टुकडे २ होकर गिरते हैं, ऐसे लक्षणोंके पाये जानेपर समझना चाहिये कि यह दिग्धविद्ध [ विषयुक्त शस्त्र से उत्पन्न ] व्रण है ॥ ११३ ॥
विषयुक्तवणलक्षण. कृष्णोपेतं मर्छया चाभिभूतं मर्त्य संतापज्नरोत्पीडितांगम् । तं दृष्ट्वा विद्याद्विषं तत्र दत्तं कृष्णं मांस शीर्यते यद्वणेऽस्मिन् ॥११४॥
भावार्थ:-जो व्रणपीडित मनुष्य काला होगया हो, मूर्छासे संयुक्त हो संताप व ज्वर से पीडित हो, जिस व्रण से काला मांस टुकडा होकर गिरता जाता हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org