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(५१०)
कल्याणकारके
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रक्तमोक्षण का फल.
दुष्ट रक्त निहते तद्विषाख्यं शीघ्र सर्व निर्विषत्वं प्रयाति । पश्चाच्छीताभाभिषिक्तो विषातों दध्याज्यक्षारैः पिवेदोषधानि ॥१०५||
भावार्थ:-दुष्टरक्त को निकालने पर वह सम्पूर्ण विष शीघ्र दूर होजाता है । तदनंतर उस सर्पविषदूषित को ठण्डे पानी से स्नान कराना चाहिये । बाद में दही, घी व दूध के साथ औषधियोंको पिलायें ॥१०५॥
दीकर सपोंके सप्तवेगों में पृथक् २ चिकित्सा. शस्त्रं प्राक् दर्वीकराणां तु वेगे रक्तस्रावस्तद्वितीयेऽगदानाम् । पानं नस्यं तत्तृतीयेऽजनं स्यात् सम्यग्वाम्यस्तच्चतुर्थेऽगदोपि ॥ १०६ ॥ पोक्तं वेगे पंचमे वापि षष्टे शीतैस्तायैर्ध्वस्तगात्रं विषार्तम् । शीतद्रव्यालेपनैः संविलिप्तम् तीक्ष्णैरूज़ शोधयेत्तं च धीमान् ॥ १०७ ॥ वेगेप्यस्मिन्सप्तमे चापि धीमान् तीक्ष्णं नस्यं चांजनं चोपयुज्य । कुयोन्मूनाशुक्षतं काकपादाकारं सांद्रं च तत्र प्रदध्यात् ॥ १०८ ॥
भावार्थ:-दर्वीकर सो के प्रथमवेग में शस्त्रप्रयोग कर रक्त निकालना चाहिये । द्वितीयवेग में अगदपान कराना चाहिये । तृतीय वेग में विषनाश, नस्य व अंजन का प्रयोग करना चाहिये । चतुर्थवेग में अच्छीतरह वमन कराना चाहिये । पूर्व कथित पंचम व षष्ट वेग में शीतल जलसे स्नान [वा धारा छोडनाव शीतल औषधियों का लेप कर के बुद्धिमान् वैद्य तीक्ष्ण ऊर्ध्वशोधन ( वमन ) करावें । सातवें वेग में तीक्ष्ण नस्य व अंजन प्रयोग कर मरतक के मध्यभाग में कौवे के पैर के आकार के शस्त्र से क्षत ( जखम ) कर के मोठे चर्म को उस के ऊपर रख देवें ॥ १०६ ॥ ॥ १०७ ॥ १०८ ॥
___ मंडली व राजीमंतसों के सप्तवेगोंकी पृथक् र चिकित्सा. प्राग्वेगेऽस्मिन् मण्डलैपण्डितानां अस्त्राण्येव नातिगाढं विदध्यात् । सर्पिमिश्रं पाययित्वागदं तं शीघ्र सम्यग्वामयत्तद्वितीये ॥ १०९ ।। तद्वाम्यस्तत्ततीये तु वेगे शेषेष्वन्यत्पूर्ववत्सर्वमेव । रानीमद्भिर्दष्टवेगेऽपि पूर्व सम्यक्शस्त्रेणातिगाढ़ विदार्य ॥११०॥
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