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विषरोगाधिकारः ।
(५०९)
सर्पदष्टचिसिरसा. . सर्वैस्सपैरेव दष्टस्य शाखामूर्ध्व बध्या चांगुलीनां चतुष्के । उत्कृत्यामृन्मोक्षयेदंशतोन्यत्रोत्कृत्याग्नौ संदहेच्चूषयेद्वा॥ १०२ ॥
भावार्थ:-सर्व प्रकार के सर्पो में से कोई भी सर्प हाथ या पांव में काटा हो तो उस काटे हुए जगह से चार अंगुल के ऊपर [ कपडा, डोरी, वृक्ष के छाल आदि जो वखत में मिल जाय उन से ] कसकर बांध लेना चाहिये । पश्चात् काटे हुए जगह को किसी शस्त्र से उखेर कर ( मांस को उखाड कर ) रक्त निकालना चाहिये [जिस से वह विष रक्त के साथ निकल जाता है ] । यदि ( हाथ पैर को छोड कर ) किसी स्थान में अन्यत्र काटा हो, जहां बांध नहीं सके वहां उखेर कर अग्निसे जला देवें अथवा मुख में मिट्टी आदि भर कर उस विष को चूस के निकाल देवें ॥ १०२ ॥
सर्पविषमें मंत्रकी प्रधानता. मंत्रैस्सर्व निर्विषं स्याद्विषं तद्यद्वत्तद्वद्भेषज व साध्यम् । शीघ्रं मंत्रैर्जीवरक्षां विधाय प्राज्ञः पश्चाद्योजयेद्भेषजानि ॥१०३ ॥
भावार्थ:-जो विष औषधियों से साध्य नहीं होता है ( नहीं उतरता है ) ऐसे भी सर्व प्रकार के विष मंत्रों से साध्य होते हैं । इसलिये शीघ्र मंत्रों के प्रयोग से पहिले जीवरक्षा कर तदनंतर बुद्धिमान् वैद्य औषधियोजना करें ।। १०३ ॥
विषापकर्षणार्थ रक्तमोक्षण. दंशार्ध्वाधस्समस्ताः शिरास्ता विद्वानस्त्राद्धंधनाद्रक्तमोक्षम् । कुर्यात्सर्वांगाश्रितोग्रे विषेऽस्मिन् तद्वद्धीमान् पंचपंचांगसंस्थाः ॥ १०४॥
भावार्थ:-जहां सर्पने काटा हो उस के नीचे व ऊपर [ आसपास में ] जितने शिरायें हैं उन में किसी एक को अच्छीतरह बांधकर एवं अस्त्रसे छेद कर रक्तमोक्षण करना चाहिये। ( अर्थात् फस्त खोलना चाहिये । ) यदि वह विष सर्वांगमें व्याप्त हो तो पंचांग में रहनेवाली अर्थात् हाथ पैर के अग्रभाग में रहनेवाली या ललाट प्रदेश में रहनेवाली शिराओं में से किसी को व्यध कर रत्तमोक्षण करें ॥ १०४॥
१ इस प्रकार बांधनेसे रक्तवाहिनियां सकुंचित होकर नीचे का रक्त नीचे, ऊपर का ऊपर ही रह जाता है, जिससे विष सर्व शरीर में नहीं फल पाता है, क्यों कि रक्तके द्वारा ही विष फैलता है।
२ दो हाथ, दो पैर, एक शिर, इन्हे पंचांग कहते हैं ।
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