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(५०८)
कल्याणकारके
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वेगे विषं गलनिपातमपीह षष्टे ।
प्राणक्षयं बहुकफादपि सप्तम तत् ॥ ९९ ॥
भावार्थ:-राजीमंत सर्प के काटने पर उत्पन्न विषके प्रथमवेग में रक्त दूषित — होकर वह लाल पिलपिले के समान हो जाता है । द्वितीयवेग में मांसको दूषित करता
है और अत्यंत सफेद हो जाता है। तृतीयविषवेग में लार अधिक रूप से बहने लगती है। चतुर्थवेग में मन्यास्तम्भ व शिर में अत्यधिक पीडा होती है। पंचमवेग में वचन बंद [ बोलती बंद ] हो जाता है । छठे वेग में उसका कंठ रुक जाता है। सातवें वेग में अत्यधिक कफ बढनेसे प्राणक्षय हो जाता है ॥ ९८ ॥ ९९ ॥
दंशमें विष रहनेका काल व सप्तवेगकारण. पंचाशदुत्तरचतुश्शतसंख्ययात्तमात्रास्थित विषमिहोगतयात्मदंशे । धात्वंतरेष्वपि तथैव मरुद्विनीतं वेगांतराणि कुरुते स्वयमेव सप्त ॥१०॥
भावार्थ:--विष अपने दंश [ दंशस्थान-काटा हुआ जगह ] में ( ज्यादा से ज्यादा ) चारसौ पचास ४५० मात्रा कालसक रहता है । शरीरगत रस रक्त आदि धातुओं को भेदन करते हुए, वायुकी सहायतासे जब वह विष एक धातुसे दूसरे धातु तक पहुंचता है तब एक वेग होता है। इसीतरह सात धातुओं में पहुंचने के कारण सात ही वेग होते हैं [ आठ या छह नहीं ] ॥ १०० ॥
शस्त्राशनिप्रतिममात्मगुणोपपन्न । वेगांतरेष्वनुपसंहृतमौषधाथै- ॥ राश्वेव नाशयति विश्वजनं विषं तत ।
तस्माद्वीम्यगदतंत्रमथात्मशक्त्या ॥ ११ ॥ भावार्थ:---सपो के विष भी शस्त्रा व बिजली के सदृश शीघ्र मारक गुण से संयुक्त है । ऐसे विष को उस के अंगों के मध्य २ में ही यदि औषधि मंत्र आदि से शीघ्र दूर नहीं किया जावें अथवा शरीर से नहीं निकाला जावें तो वह प्राणियों को शीघ्र मार डालता है । इसलिये अपनी शक्ति के अनुसार (इस विष के निवारणार्थ) अगदतंत्रा ( विष नाशक उपाय ) का वर्णन करेंगे ॥ १०१ ॥
१ हाथ को घुटने के ऊपर से एकवार गोल घुमाकर एक चुटकी मारने तक जो समय लगता है उसे एक मात्रा काल कहते हैं ।
२ जैसे विष जब रस धातुमें पहुंचता है तब प्रथमवेग, रस से रक्त को पहुंचाता है तो दूसरे वेग होता है इत्यादि।
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