________________
— कल्याणकारके
तो समझना चाहिये उस व्रण में किसीने विष का प्रयोग किया है । अर्थात् विषयुक्त वण के ये लक्षण हैं ॥ ११४ ॥
विषसंयुक्तबणचिकित्सा. उक्लिन्नं तत्पूतिमांस व्यपोह्य रक्तं संस्राव्यं जलूकाप्रपातैः ।
शोध्यश्चायं स्याद्विषाव्यत्रणातः शीतकाथैः क्षीरिणां सेचयेत्तम् ॥११५॥ ... शीतद्रव्यैस्सद्विषघ्नसुपिष्टैर्वस्त्रं सांताय दिह्याद्रणं तत् ।
कुर्यादेवं कंटकोत्तीक्ष्णतो वा पित्तोभते चापि साक्षाद्विषेऽस्मिन् ॥११६।।
भावार्थ:-विषयुक्त व्रणके लेदयुक्त [ सडा हुआ ] व दुर्गंधसंयुक्त मांस को अलग कर, उस में जौंक लगाकर दुष्टरक्त को निकालना चाहिये । एवं विषलं व्रणपीडित मनुष्य का शोधन कर के उसे शीतऔषधोंसे सिद्ध वा क्षीरीवृक्षोंसे साधित काढे से सेचन कर ना चाहिये ।। ११५ ॥
विषनाशक शीतद्रव्योंको [उन्ही के कषाय व रस से ] अच्छी तरह पीस कर उस पिठ्ठीको वस्त्रके साथ व्रणपर लेप करना चाहिये अर्थात् लेप लगाकर वस्त्र बांधे अथवा कपडेमें लगाकर उसे बांधे । तीक्ष्ण कंटकसे उत्पन्न व्रण व जिसमें पित्त की प्रबलता हो ऐ। विष में भी उसी प्रकार की [ उपरोक्त ] चिकित्सा करें ॥ ११६ ॥
सर्पविषारिअगद. मांजष्ठामधुकत्रिवृत्सुरनरुद्राक्षाहरिद्राद्वयं । भाव्योषविडंगहिंगुलवणैःसर्व समं चूर्णितम् ॥ आज्येनालुलितं विषाणनिहितं नस्यांजनालेपनै
हन्यात्सर्वविषाणि सर्परिपुवत्येषोऽगदःप्रस्तुतः ॥ ११७ ।। भावार्थ:-भजीठ, मुलैठी, निसोत, देवदारु, द्राक्षा, भारंगी, दारुहलदी, त्रिकटु, (सोंठ,मिर्च,पीपल) वायविडंग, हिंगु, सेंधालोण, इन सबको समभागमें लेकर चूर्ण करें । तदनंतर उस चूर्ण को धृत के साथ अच्छी तरह मिलावें, फिर किसी सींग में रखें। इस का उपयोग नस्य, अंजन व लेपन में किया जाय तो सर्व सर्पविषका नाश होता है ॥ ११७ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org