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' कल्याणकारके
अष्टीलाशर्करासग्दरमदतनुदाहभ्रमक्षीणरेतो । मूर्छाक्रांतेषु पीतं किमुत तदनुरूपोषधैस्सप्रयुक्तम् ॥ १०१॥
भावार्थ:-मंदोष्ण दूध, पुराना अतिसार, जीर्णज्वर, उन्माद, अपस्मार, अश्मरी, गुल्म, उदर, यकृदुदवात, श्वास फास, प्लिहोदर, अष्टीला, शर्करा, असृग्दर, दाहरोग, भ्रम, क्षीणशुक्र, मूछों आदि अनेक रोगों के लिये हितकर है । उसको यदि तत्तदोगगाशक औषधियों से सिद्धकर प्रयोग किया जाय तो फिर कहना ही क्या है ॥१०॥
अतिसारमें पथ्य! तकं सैंधवनागरायमथवा मुद्रं रसं जीरकै-। व्यामिश्रं घृतसैंधवैः समरिचैस्सस्कारमाप्तं भृशं ॥ क्षीरं वाप्यजमोदधवयुतं सम्यक्त्या संस्कृत-।
माहारेषु हितं नृणां चिरतरातीसारजीर्णज्वरे ॥१०२ ॥ भावार्थ:--सेंधानमक, सोंठ से मिली हुई छाछ, अथवा मूंग के पानीमें जीरा मिलाकर उसमें धी, नमक व मिर्च का छोंक देकर पीवें, अथवा अजवाईन, सैंधानमक से सिद्ध किया हुआ दुध, यह सब अतिसार व जीर्ण ज्वरमें हितकर है । ॥१०२॥
अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तुततरंगकुलाकुलतः॥ उभयभवार्थसाधनतटयभासुरतो।
निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकाहितम् ।। १०३ ।। भावार्थ:-..-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परालोकके लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई. बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ १०३ ॥ . इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे
पित्तरोगचिकित्सितं नामादितो नवमः परिच्छेदः ।
इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाणिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा खिखित
भावार्थदीपिका टीका में पित्तरोगाधिकार नामक
नवमा परिच्छेद समाप्त हुआ।
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