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पित्तरोगाधिकारः ।
जम्वादि पाणितक !
जंव्वानिंबधन वृक्षसुधातकीना । मष्टशशिष्टमवतार्य विमाल्य तोयम् ॥ पमिह पाणितकं विपाच्य |
लीनातिसारमचिरेण जयेन्मनुष्यः ॥ ९८ ॥
भावार्थ:- जामुन, आम, नीम, नागरमोथा, अमलतास, बाईके फूल, - इनका कषाय आठवां अंश बाकी रहे तब उतारकर उसे छान लेवें, फिर उसको दव प्रलेप [ जबतक करछली में चिपक जाये ] होनेतक पकाकर उतार लेवें । उस अवलेह के सेवन करने से अतिसार रोग दूर होता है ।। ९८ ॥
सिद्धक्षीर ।
क्षीरं त्रिवत्त्रिफलया परिपकमाशु । कुक्ष्यामयं शमयति त्रिकटुप्रगाढम् || सिंत्थहिंगुमरिचातिविषाजमोद - । शुंठीसमेतमथवा शतपुष्ययुक्तम् ।। ९९ ।।
भावार्थ:- त्रिवि [निशोथ ] त्रिफला, ( हरड बहेडा आंवला ) त्रिकटु ( सोंठ मिरच पीपल ) इन से पकाये हुए दूध को पीनेसे अतिसार रोग दूर होजाता है । सैंधानमक, हींग, मिरच, अतीस अजवाईन, सोंठ इन से पकाये हुए दूध अथवा सोंफसे युक्त दूधको पीनेसे अतिसार रोग दूर होता है ॥ ९९ ॥
उग्रगंधादिकाथ | उग्रांबुदातिविषयष्टिकपायमष्ट । भागावशिष्टमतिगाल्य विशिष्टमिष्टं ॥ अम्बष्टकासहितमाशु पिबेन्मनुष्यो ।
गंगां रुद्धि किमुताल्पतरातिसारम् ॥१००॥
(१७९).
भावार्थ:- : - वचा, नागरमोथा, अतीस, मुलैठी इनका अष्टभागावशेष कषाय बनाकर फिर उसको छान लेवें । उस कषायमें अंबाडा डालकर पीवें । इससे गंगा नदीके बाडके समान वहनेवाला अतिसार भो उपशम होता है । अल्प प्रमाणवाले अतिसारकी तो क्या बात है ? ॥ १०० ॥
क्षीरका विशिष्ट गुण ।
गव्यं क्षीरं सुखोष्णं हितमतिचिरकालातिसारज्वरोन्मा - ! दापस्माराचरात्योदयकुद विष्ट श्वासकासप्लिग ||
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