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(३१२)
कल्याणकारके
इसके लिये हितकर है । पत्रसहित अग्नि ( गरम ) युक्त बरतन में कानको रखें व स्वेदन करें ॥ १८ ॥
घृतपानआदि. पिबेत्स सर्पिः पयसा समन्वितं । सुखोष्णमस्योपरि कर्णरोगवान् । बलाख्यतैलेन शिरोवितर्पण । सनस्यकर्मात्र निषेचनं हितं ।। १९ ॥
भवार्थ:--अत्यधिक कर्ण रोगवाला कुछ गरम वीके साथ दूध मिलाकर पीवे । बला तैल शिरमें लगावें, अथवा तैल से भिगोये गये पिन्चुको शिरपर रखें तो कर्ण रोग दूर हेता है । इस में नस्यकर्म व कानमें तेल डालना भी हितकर है ॥ १९ ॥
___कर्णरोगांतक घृत. सपेचुकांकोलफलाकादव- । रहिंस्रया शिगुरसेंद्रदारूभिः । सवेणुलेखर्लशुनैस्सरामटैः । ससैंधवैमत्रगणैः कटुत्रिकैः ॥ २० ॥ पृथक्प्तमस्तैः कथितौषधैर्बुधः । पचेदृतं तैलसमन्वित भिषक् ॥ प्रपूरयेत्कर्णमनेन सोष्मणा- । निहंति तत्कर्णगताखिलामयान् ॥ २१ ।।
भावार्थ:--केमुक [पेचुका] अंकोल का फल, अद्रक का रस, जटमासी, सेंजन का रस, देवदारू, बांसका त्वचा, लहसन, हींग,सेंधानमक, सोंठ, मिरच, पीपल इनको अलग अथवा मिले हुए औषधियों के क्वाथ ब कल्क, और आठ प्रकारके मूत्र, इन से घृत व तैल को बरावर लेकर सिद्ध करें । फिर उस तेलको थोडा गरम कर कान में भरें तो, कर्णगत समस्तरोग को नाश करता है ॥ २० ॥ २१ ॥
कफाधिक कर्णरोगचिकित्सा. सशिग्रुमलाईकसद्रसेन वा । ससैंधवेनोष्णतरेण पूरयेत् ॥ अजांबुना वा लशुनार्कसेंधवैः । कफाधिके कर्णगतामये भृशम् ॥ २२ ॥
भावार्थ:--सेंजनके मूल का रस, अद्रकका रस इसमें सेंधालाण मिलकर गरम करें फिर उसे कानमें छोडें । अथ । बकरीके मूत्र में लसून, अकौवारस व . सेंधालोण मिलाकर कुछ गरम कर कान में भरें । इन से कफको विकारसे उद्रिक्त कर्णरोग उपशम हो जायगा ॥ २२ ॥
कृमिकर्ण, कर्णधाकचिकिता. सनिवतलेलबस्सुपरयन् । क्रिमिप्रगाढे क्रिमिनाशनो विधिः ॥ विधीयतां पूरणमेभिरेव वा । मुकर्णपाके क्षतद्विसर्पवत् ॥ २३ ॥
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