________________
क्षुद्ररोगाधिकारः ।
( ३१३ )
भावार्थ:-- अधिक क्रिमियुक्त कर्णरोग में निंबतैल सेंधालोण से कानको भरना चाहिए | एवं क्रिमिनाशक उपाय भी करना चाहिए । कर्णपाकमें क्षत व विसर्प के समान इन्ही औषधियोंको कानमें भरकर चिकित्सा करनी चाहिए ॥ २३ ॥
क्रिमिनाशक योग.
त्रिवृद्धरिद्रानृपवृक्ष क्षकैः । प्रपकतोयैः श्रवणमध । वनम् ॥ प्रदीपिकालमपि प्रयोजितं । किमीन्निहंत्युग्रतरातिवेदनान् ॥ २४ ॥
भावार्थ:- निसोथ, हळदी, अमलतास, कुडाकी छाल, इनके द्वारा पकाये हुए कषाय से कानको धोवे एवं दीपिकांतैलको भी कानमें भरें तो कृमि व भयंकर शूल भी नाश होता है || २४ ॥
कर्णगत आगंतुमल चिकित्सा.
बलाधिकं यन्मलजातमंतरे । व्यवस्थितं कर्णगतं तदा हरेत् ॥ अलाबुर्मृगान्यतमेन यत्नतो । वली सदा चूषणकर्मकोविदः ॥ २५ ॥
भावार्थ:- कान के छेद में ( बाहरसे आकर ) खूब मल जम गया हो तो उसे यदि रोगी बलवान हो तो चिकित्सा (चूषणकर्म ) कार्य में निपुण वैद्यको उचित है कि अत्यंत साबधानसे तुंत्री अथवा सींगे लगाकर अथवा शासकासे निकाले ( कानमे कांडा घुस गया तो उसे भी इसी प्रकार निकाले ) ॥ २५ ॥
पूतिकर्ण, कर्णस्राव, कणार्श, विद्रधि, चिकित्सा. 'सतिप्रयास्रवसंयुतं द्रवं । प्रपूरयेत शोधनेतलभीरितं ॥
अथार्शसामप्यथ विद्रधीष्वपि । प्रणीतकर्माण्यसकृत्प्रयोजयेत् ॥ २६ ॥
भावार्थ:- दुर्गंध स्राव बहनेवाले कर्णरोग में औपवियों के दबको भरना, अथवा पूर्वकथित शोधन तेलको भरना हितकर है । एवं अर्श और विद्रधिरोग में जो चिकित्साक्रम "बतलाया है उनका प्रयोग कर्णगत अर्श, विद्रधि में बार २ करना चाहिये ।। २६ ॥
१ बेल, सोनापाटा, पाढल, कुमेर, अरणी इनसे किसी एककी अथवा पांचोंकी अठारह अंगुल लम्बी डाल लेकर उसके तीन भागको अतसी वस्त्र लपेट देवे और उसे तैलमे भिगो देवे पश्चात् इसको वत्तीकी तरह जलाकर ( किन्हीके उपर नीचे की ओर नोक करके रखें, इसके नीचे एक पात्र भी रखें । इस पात्रपर जी तैल टपकता है इसे दीपिका तैल कहते हैं । इसी प्रकार ' देवदारु, कूट, सरल, इनकी लकडीसे ( उपरोक्त विधिसे जलाकर ) तैल निकाल सकते हैं ।
४०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org