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क्षुद्ररोगाधिकारः ।
( ३११ )
भावार्थ:- कानसे जब दुर्गंध मवाद बहने लगता है उसे पूतिकर्ण कहते हैं । जिसमें अत्यंत भयंकर क्रिमियोंकी उत्पत्ति होती है उसे क्रिमिकर्णक रोग कहते हैं ||१४ कर्णकण्डू, कर्णगूथ, कर्णप्रतिनाद के लक्षण.
कफेन कण्डूः श्रवणेषु जायते । स एव शुष्को भवतीह गुथकः ॥ स गूथ एव द्रवतां गतः पुनः । पिधाय कर्णे प्रतिनादमावहेत् ||१५|| भावार्थ:- कान में कफ संचित होनेसे खुजली चलने लगती है । इसे कर्णकण्डू कहते हैं । वही कफ जब कान में ( पित्त के उष्ण से ) सूख जाता है, उसे कर्णगू कहते हैं | वह कर्णगूथ जब द्रव होकर कान को ढक देता है तो इसे कर्णप्रतिनाद ( प्रतिनाह ) कहते हैं ॥ १५ ॥
कर्णपाक, विधि, शोथ, अरीका लक्षण.
सुपकभिन्नादिकविद्रवेर्वशात् । स कर्णपाकाख्यमहामयो भवेत् ॥ अथापरे चार्बुदशोफविद्रधि । प्रधानदुर्नामगणा भवत्यपि ॥ १६ ॥ भावार्थ:- :- कान में विद्रधि उत्पन्न होकर अच्छी तरह पककर फूटजाता है तो कान गीला व सडजाता है इसे कर्णपाक कहते हैं । इसी प्रकार कान में अर्बुद, शोध विद्रधि, अर्श (बवासीर) समूह उत्पन्न होते हैं । इन को उन्ही नामोंसे पुकारा जाता हैं जैसे कर्णार्बुद, कर्णविद्रधि आदि || १६ ||
वातज कर्णव्याधिचिकित्सा.
अतः परं कर्णगतामयेषु तत् । चिकित्सितं दोषवशाद्विधयते ॥ अथानिलोत्थेष्वनिलघ्नभेषजै - । विपक तैलैरहिमैर्निषेचयेत् ॥१७॥
भावार्थ:-- अत्र कर्णरोगोंकी दोषोंके अनुसार चिकित्सा कही जाती है । यदि बात विकारसे उत्पन्न हो तो वातहर औषधियोंसे पकाये हुए गरम तेलको कानमें छोड देवें ॥ १७ ॥
कर्ण स्वेदन
निषिक्तक पुनरुष्णतापनः । प्रतापयेद्धान्यगणेष्टिकादिभिः ॥ प्रणालिaratha वा हितं । सपत्रभाण्डेऽग्नियुते निधापयेत् ॥ १८ ॥ भावार्थ:-- तेल सेचन करने के बाद उष्ण धान्यगण ( धान्यों की पोटली बांधकर उससे ) व ईंट आदियोंसे कानको सेकना चाहिये | अथवा नली स्वेदन भी
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