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________________ क्षुद्ररोगाधिकारः। (४३७) सन्निपातज, शोकज उन्मादलक्षण. स्यात्सन्निपातजनितस्त्रिविधैः त्रिदोष-।। लिंगैः समीक्षितगणो भवतीह कृच्छ्रः ।। अर्थक्षयादधिकबंधुवियोगतो वा।। कामाद्भयादपि तथा मनसो विकारः ॥ १०७ ॥ . भावार्थ:-सन्निपातज उन्मादरोग में तीनों दोषज उन्माद में कहे गये चिन्ह प्रकट होते हैं। यह भी कठिन साध्य होता है । तथा धननाश, निकटबंधुवियोग, काम व , भय आदिसे ( शोक उत्पन्न होकर) भी उन्माद रोग होता है ॥ १०७.॥ उन्मादचिकित्सा. उन्मादबाधिततर्नु पुरुषं सदोषैः । स्निग्धं तथोभयविभागविशुद्धदेहं ।।। तीक्ष्णावपीडनशतैः शिरसो विरेकैः । . धूपैरसपूतिभिरतः समुपक्रमेत ॥ १०८ ॥ भावार्थ:-उन्माद से पीडित मनुष्य को दोषों के अनुसार स्नेहन व स्वेदन करा कर वमन विरेचन से शरीर के ऊपर व नीचे के भागोंको शोधन करना चाहिये । फिर उसे अनेक प्रकार के तांदण अवर्षाडननस्य, शिरोविरेचन, और दुर्गाधयुक्त धून के प्रयोग से चिकित्सा करनी चाहिये ॥ १०८ ॥ नस्य व त्रासन, नस्यानुलेपनमपीह हितं प्रयोज्यं । तैलेन तीक्ष्णतरसर्षपजेन युक्तम् ।। सुत्रासयेद्विविधनागतृणाग्नितोय-1 चोरैर्गजैरपि सुशिक्षितसर्वकार्यैः ॥ १०९ ॥ भावार्थ:-----इस रोगमें हितकर नस्य व लेप को तीक्ष्ण सरसोंके तैल के साथ प्रयोग करना चाहिये। और अनेक प्रकार के निषिसर्प, घास, अग्नि, पानी, चोर, हाथी व अन्य शिक्षाप्रद अनेक कार्यों से उस उन्मादी को भय व त्रास पहुंचाना चाहिये ।। १०९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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