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( ४३६ )
कल्याणकारके
वातिक उम्मादके लक्षण.
नृत्यत्यति मलपति भ्रमतीह गाय-1 त्याक्रोशति स्फुटमटत्यथ कंपमानः ॥ आस्फोटयत्यानेलको पकृतोन्मदात । मर्त्योऽतिमत्त इव विस्तृतचित्तवृत्तिः ॥ १०४ ॥
भावार्थ:-- वातप्रकोप से उत्पन्न उन्मादरोग में मनुष्य विशाल मनोव्यापार वाला होते हुए मदोन्मत्त की तरह कांपते हुए नाचता है, बहुत बडबड करता है । इधर उधर फिरता है । गाता है । किसी को गाली देता है। बाजार में आवारा फिरता है । ताल ठोंकता है ॥ १०४ ॥
पैत्तिकोन्माद का लक्षण.
शीतप्रियः शिथिलशतिलगात्रयष्टिः । तीक्ष्णातिरोषणपरोऽग्निशिखातिशंकी || तारास्स पश्यति दिवाप्यतितीव्रदृष्टिः । उन्मादको भवति पित्तवशान्मनुष्यः ॥ १०५ ॥
भावार्थ:-- पित्तप्रकोप से जो मनुष्य उन्मादी हो गया है उसे शीतपदार्थ प्रिय होते हैं । उसका शरीर गरम हो जाता है । वह तीक्ष्ण रहता है । उसे बहुत तीव्र क्रोध आता है । सर्वत्र उसे अग्निशिखा की शंका होती है। उसकी दृष्टि इतनी तीव्र रहती है कि दिन में भी वह तारावोंको देख लेता है ॥ १०५ ॥
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लैष्मिकोन्माद.
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स्थूलोल्परुग् बहुकफाल्पभुगुष्णसेवी । निद्रालुरल्पकथकः सभवेत्स्थिरात्मा ॥ रात्रावतिप्रबलमुग्धमतिर्मनुष्यः । श्लेष्मप्रकोपकृतदुर्मथनो मदार्तः ॥ १०६ ॥
भावार्थ:- कफप्रकोपसे जो मनुष्य उन्मादसे पीडित होता
है वह मनुष्य स्थूल, अल्पपीडावाला, बहुकफसे युक्तः अल्पभोजी, उष्णप्रिय, निद्रालु ब बहुत कम बोलनेवाला, चंचलतासे रहित होता है । रात्रि में उसकी बुद्धि में अत्यधिक विभ्रम होता अर्थात् रात्रि में रोग बढ़ जाता है । यह कठिन रोग है ॥ १०६ ॥
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