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________________ क्षुदरोगाधिकारः। (१३५) भावार्थ:-संज्ञावाहक नाडियों में जब दोष व्याप्त हो जाते हैं तो आंखों के सामने अंधेरासा मालूम होकर रोगी भूमिपर पडता है । उस समय सर्वइंद्रिय दोषों के प्रबल विकार से आच्छादित रहने से रूपादिक ज्ञान नहीं करते । उसे मूर्छारोग कहते हैं । रक्त विषर्ज व वातज, पित्तज व कफज व मद्यज इस प्रकार यह रोग छह प्रकार का है। इन छहों प्रकारकी मूर्छाओमें पित्तशांतिकी क्रिया को करनी चाहिये । क्यों कि सब में पित्तकी प्रबलता रहती है ॥ १०१ ॥ मूर्छा चिकित्सा. स्नानालंपाशनवसनपानप्रदेहानिलाद्याः । शीतास्सर्वे सततमिह मूर्छासु सर्वासु योज्याः॥ द्राक्षा यष्टीमधुककुसुमक्षीरसर्पिःप्रियालाः । सेक्षुक्षीरं चणकचणकाः शर्कराशालयश्च ॥ १०२ ॥ भावार्थः ---इन सब मूर्छावो में स्नान, लेपन, भोजन, वस्त्र, पान, वायु, आदि में सर्व शीतपदार्थीका उपयोग करना चाहिये [ अर्थात् ठण्डे पानी से स्नान कराना, ठण्डे औषधियों का लेप, ठण्डे पंखे की हवा आदि करना चाहिये । ] मुलैठी, धाय के फूल, द्राक्षा, दूध, घी, चिरोंजी, गन्नेका रस, चना, अतसी [ अलसी ] शक्कर शाली, आदि का खाने में उपयोग करना हितकर है ॥ १०२ ।। उन्मादनिदान. उन्मार्गसंक्षुभितभूरिसमस्तदोषा। उन्मादमाशु जनयंत्याखिलाः पृथक् च ।। शोकेन चान्य इति पंचविधा विकारा । स्ते मानसाः कथितदोषगुणा भवंति ॥ १०३ ॥ भावार्थ:-जिस समय वात पित्त कफ, तीनों एक साथ व अलग २ कुपित होकर अपने २ मार्ग को छोड कर उन्मार्गगामी ( मनोवह धमनियो में व्याप्त ) होते हैं तो उन्माद रोग उत्पन्न होता है अर्थात् वह व्यक्ति पागल हो जाता है। यह दोषों से चार [ वातादिक से तीन सन्निपात से एक ] शोकसे एक इस प्रकार पांच भेद से विभक्त है। ये पांचों प्रकार के उन्माद मानसिक रोग हैं । इन में पूर्वोक्त क्रमसे, दोषों के गुण लक्षण भी होते हैं । १०३ ॥ १ रक्त के गंध को सूंघने से उत्पन्न. २ विषमक्षण से उत्पन्न. ३ मदिरा पीनेसे उतान्न, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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