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________________ (४३४) कल्याणकारके कही गई है उसका उपयोग कामला में करना हितकर है । गुड, हरड गोमूत्रा, लोहभस्म इनको एकत्र डालकर पकावें । यह काढा देना और जौ शालि आदि भोजन के लिये उपयोग करना हितकारी होता है ।। ९६ ॥ ९७ ॥ ९८ ॥ पाण्डुरोग का उपसंहार. एवं विद्वान् कधितगुणवान् अप्य शेषान् विकारान् । ज्ञात्वा दोषप्रशमनपरैरौषधैस्साधयेत्तान् ।। कार्य यस्मान्न भवति विना कारणप्रिकारै-। भूयो भूयः तदनुकथनं पिष्ट संपेषणार्थम् ॥ ९९ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार उपर्युक्त रोगोंके व अन्य सर्वविकारोंके दोषक्रमको विद्वान् वैद्य जानकर उनको उपशमन करनेवाले योग्य औषधियोंसे उनकी चिकित्सा करें। यह निश्चित है कि विना अंतरंग व बहिरंग कारण के कार्य होता ही नहीं। इस लिये बार २ उसका कथन करना वह पिष्टपेषण के लिये होजायगा ॥ ९९ ॥ अथ मूछोन्मादापस्माराधिकारः । मूछन्मिादावपि पुनरपस्माररोगोऽपि दोष-। रंतर्बाह्याखिलकरणसंछादकैर्गौणमुख्यैः ।। उत्पन्नास्ते तदनुगुणरूपौषधैस्तान्विदित्वा । सर्वेष्वेषु प्रवलतरपित्तं सदोपक्रमेत ।। १०० ॥ भावार्थः-मूर्छा [ बेहोश होजाना ] उन्माद (पागल होजाना) व अपरमार (मिर्गी) रोग, बाह्यांभ्यतर कारणोंसे कुपित होकर शरीर को आच्छादित करनेवाले और गौणमुख्य भेदोंसे युक्त वातादि दोषोंसे ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये उपरोक्त रोगो में दोषोंके बलाबल को अच्छी तरह जान कर उन के अनुकूल अर्थात् उनको उपशमन आदि करनेवाले औषधियोंसे चिकित्सा करनी चाहिये । लेकिन उन तीनो में पित्त की प्रबलता रहती है। इसलिये उन में हमेशा [ विशेष कर ] पित्तोपशमन क्रिया करें तो हितकर होता है | १०० ॥ मूर्छानिदान । दोषव्याप्तस्मृतिपथयुतस्याशु मोहस्तमारूपण प्राप्नोत्यनिशमिह भूमौ पतत्येव तस्मात् । मूर्छामाहुः क्षतजषिपद्यैस्सदा पड्डिधास्ताः ॥ पदस्वप्येषं विषगिह महान् पित्तशांति प्रकुर्यात् ॥ १०१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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